इस लेख में एक महान सुधारक शेख़ हसन बन्ना के जीवन के कुछ पहलूओं पर निगाह डाली गई है जिन्होंने मुसलमानो को जागरूक करने में बहुत बड़ा रोल अदा किया था और अपनी कम मगर पूरी ज़िन्दगी को इस काम में लगा दिया था।
मुक़्द्दमाः
और जिन लोगों की राहे ख़ुदा में क़त्ल कर दिया गया है तुम उन्हें मरा हुआ न समझो बल्कि वह ज़िन्दा हैं और अपने परवरदिगार के पास से रोज़ी पा रहे हैं
आज दुनिया भर के मुसलमान अपनी नस्ली, सम्प्रदायिक, धार्मिक और भौगोलिक भिन्नताओं के बावजूत एकता के बहुत मोहताज हैं और उन्हे चाहिए कि धर्म के राजनीति से अलग होने और लेक्योलरिज़म विचारों का मुक़ाबला करने के लिए अपनी अधिक से अधिक तैयारी रखें। अगरचे इस राह में शिया और सुन्नियों की महान हस्तियों ने बहुत प्रभाव करने वाले कार्य किए हैं लेकिन निसन्देह ये महान हस्तियां इस्लामी समाज में गुम नाम हैं और एक लेखक के लिए उनको पहचनवाना उस कोशिश का एक अंश मात्र है जिसे वह अंजाम दे सकता है। इस लेख में एक महान सुधारक शेख़ हसन बन्ना के जीवन के कुछ पहलूओं पर निगाह डाली गई है जिन्होंने मुसलमानो को जागरूक करने में बहुत बड़ा रोल अदा किया था और अपनी कम मगर पूरी ज़िन्दगी को इस काम में लगा दिया था।
उन्होंने इस राह में वास्तविक प्रयास किए, और अख़वानुल मुस्लेमीन नामक संगठन के निर्माण के माध्यम से अपनी गतिविधियों को आसमान पर पहुँचा और आख़िर कार शहीद हो गए।
जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा
“हसन बिन अहमद बिन अबदुल रहमान बन्ना” “अख़वानुल मुस्लेनीन” संगठन के संस्थापक और लीडर का जन्म मिस्र के इस्कन्दरिया शहर के पास महमूदिया शहर में 1324 को हुआ[2] आप के पिता “अहमद बिन अब्दुल रहमान” महान धर्म गुरू और “शेख़ मोहम्मद अब्दोह” के शिष्य और कई पुस्तकों के लेखक थे कि जिन मे से अधिकतक पुस्तकें इल्मे हदीस से संबंधित हैं और उनमें से सब से महत्पूर्ण पुस्तक “अल फ़त्हुल रब्बानी ले तरतीबे मुसनद अल इमाम अहमद” है आप के पिता शिक्षा के साथ साथ जिल्द साज़ी और घड़ी बनाने का काम भी किया करते थे इसीलिए आप को साअती (घड़ियों वाले) भी कहा जाता था[3]
हसन बन्ना का पालन पोषण पूर्ण रूप से एक धार्मिक घराने में हुआ और उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता की सहायता से “रिशाद” नामक मदरसे में ग्रहण की। रिशाद मदरसे का 1915 ई में शिला न्यास हुआ जो कि उस समय एक देहाती धार्मिक मदरसों की तरह से था। लेकिन आज कर के महान ट्रेनिंग कॉलिजों के जैसा था जहां शिक्षा के साथ साथ प्रशिक्षण (तरबियत) भी दिया जाता था ।
इस मदरसे के विद्यार्थी दूसरे मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा के अलावा रसूले अकरम (स) की हदीसों (कथन) पर काम किया करते थे, हर गुरूवार की रात को विद्यार्थियों को एक नई हदीस दी जाती थी ताकि ख़ूब अच्छी तरह उस पर चिंतन करें और इतना उसको दोहराएं की याद हो जाए। निबंध लिखना, लेखन कला के नियम कला को सीखना और एक से अलावा पद्य गद्य (नज़्म और नस्र) के कुछ टुकड़ों को सीखना और याद करना, इस मदरसे के विद्यार्थियों के होम वर्क में शामिल था।
इस प्रकार की पूर्ण शिक्षा उस जैसे दूसरे मदरसों में नही थी, हसन बन्ना ने इस मदरसें में आठ साल की आयु से लेकर सोलह साल की आयु तक शिक्षा ग्रहण की,[4] कहा जाता है कि आप 1920 ई में शहरे दमनहूर के दारुल मोअल्लेमीन चले गए और वहा पर आप ने चौदह साल की आयु तक पहुंचने से पहले ही क़ुरआने मजीद का एक बड़ा भाग हिफ़्ज़ कर लिया और फ़िर शहरे महमूदिया के कॉलेज में प्रवेश लिया।
आप अपनी जवानी के दिनों से ही अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुनकर (अच्छाईयों की निमंत्रण और बुरईयों से रोकना) पर बहुत ध्यान दिया करते थे और सदैव लोगों को ईश्वर की तरफ़ बुलाया करते थे, इसलिए अपने जैसे विचार रखने वाले दोस्तों के साथ “अख़्लाक़ और अदब” नामक कमेटी में समिलित हुए और उसके बाद “अंजुमने नही अनिल मुनकर” के मिम्बर बन गए[5] आप स्वंय कहा करते थे कि अंजुमन का कार्य छेत्र कुछ मामूली नसीहतें थीं, इसलिए कुछ लोगों ने मिल कर एक बड़े प्रोग्राम को पेश किया। इस अंजुमन के संस्थापकों में “सक़ाफ़त” संस्था के प्रबंधक जनाब “मोहम्मद अली बदीर” एक व्यापारी जिन का नाम “लबीब नवार” “रेलवे कारकुन” “अब्दुल मुतआल सिनकल” और “अब्दुल रहमान साआती” और इन्जीनियरिंग के टीचर जनाब “सईद बदीर” आदि थे।
अंजुमन के संचालित कार्यों का अधिकतर भाग अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुनकर से संबंधित था जिसे अंजुमन के मिम्बरों में बांट दिया गया था। अंजुमन का सब से महत्व पूर्ण काम शिक्षा देने वाले और नसीहत से भरपूर वह वह बयान होते थे जो कि पत्रों की सूरत में पापियों के पास भेजे जाते थे और इस कार्य में अधिकतर कम आयु वाले लोग कि जिन में हसन बन्ना भी थे भाग लेते थे जब्कि हसन बन्ना का आयु उस समय चौदह साल से अधिक न थी।[6]
प्रारम्भिक ट्रेनिंग कॉलेज में एडमिशन
हसन बन्ना अभी पूरे चौदह साल के भी नही हुए थे कि आप को मजबूर हो कर दो रास्तों में से एक को चुनना पड़ा, या तो आप इस्कन्दरिया के धार्मिक कॉलेज में प्रवेश लेते ताकि बाद में अल अज़हर युनिवर्सिटी तक पहुंच सकें या फ़िर शहरे “दमनहूर” के प्रारम्भिक ट्रेनिंग कॉलेज में एडमिशन लेते ताकि तीन साल बाद किसी मदरसे में टीचर बन कर पढ़ा सकें। आप ने दूसरा रास्ता चुना इन्ट्रेन्स इम्तेहान के लिए अपना नाम लिखवा दिया लेकिन आप के सामने दो समस्याएं थी एक तो आप की आयु कम थी और दूसरे आप ने अभी पूरा क़ुरआन हिफ़्ज़ नही किया था लेकिन इसके बावजूद ट्रेनिंग कॉलेज के प्रबंधक जो कि बहुत महान व्यक्तित्व और उच्च आचरण वाले व्यक्ति थे ने आयु के नियम को अनदेखा कर दिया और आप से पूरे क़ुरआन के हिफ़्ज़ करने की शर्त पर एडमिशन ले लिया और इस प्रकार आप प्रारम्भिक ट्रेनिंग कॉलेज के विद्यार्थी बन गए।[7]
आप ने दमनहूर शहर में अपने तीन साल के निवास के दौरान अपनी शिक्षा को पूर्ण करने के अलावा ब्रह्मज्ञान और इबादत में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, इस बारे में आप ने ख़ुद ही फ़रमाया हैः
मेरे जीवन का एक दौर यही मिर्स की क्रांति से बाद का तीन साल का युग है यानी 1920 से 1923 ई तक, मैं इस तीन साल के युग में मुसलसल ब्रह्मज्ञान और इबादत में लगा था मैं ने ब्रह्मज्ञान और तसव्वुफ़ की मोहब्बत से भरे हुए दिल के साथ इस शहर में क़दम रखा था कि “शेख़ हुसनैन हसाफ़ी” जो कि “हसाफ़िया” सम्प्रदाय के गुरू और रहबर थे के मज़ार और उन के पाक दिल अनुयाईयों के एक गुट के मिला, स्वभाविक बात है कि मैं उनमें घुल मिल गया और उनके रास्ते पर चल पड़ा इसके बावजूद के रमज़ान के मुबारक महीने में अपने आप को दुआ, इबादत और रियाज़ात (तपस्या) में गुम कर लिया था लेकिन फ़िर भी उन्होंने अपनी तबलीग़ी गतिविधियों को भुलाया नही था वह हर रोज़ ज़ोहर और अस्र के समय ट्रेनिंग कॉलेज मे अज़ान देते थे और जब भी क्लास का समय नमाज़ के समय से टकरा जाता तो टीचर से आज्ञा लेकर नमाज़ पढ़ना शुरू कर देते।
उच्च स्तरीय ट्रेनिंग कॉलेज
हसन बन्ना ने प्रारम्भिक पढ़ाई को समाप्त करने के बाद 1923 ई मे पहली बार क़ाहिरा की यात्रा की और इस शहर के उच्च स्तरीय ट्रेनिंग कॉलेज में एडमिशन लिया और बहुत सी कठिनाईयों और समस्याओं के बावजूद इस ट्रेनिंग कॉलेज के इन्ट्रेंस इम्तेहान से सफ़ल रहे। उस समय अभी आप की उम्र के सत्तरह साल भी पूरे नही हुए थे। इसीलिए ट्रेनिंग कॉलेज विद्यार्थी और टीचर दोनो आप को देख कर आश्चर्य किया करते थे। आप ने इन्ट्रेंस इम्तेहान से एक रात पहले एक सच्चे सपने में इन्ट्रेंस इम्तेहान में अपनी सफ़लता को देख लिया था। इसीलिए आप परीक्षा हाल में बहुत आत्मविश्वास से भर पूर नज़र आ रहे थे, और इस को ईश्वरीय सहायता समझ रहे थे।
हसन बन्ना से इस ट्रेनिंग कॉलेज में चार साल तक शिक्षा ग्रहण की और जनवरी 1927 ई को प्रथम श्रेणी में स्नातक हुए
इस्लाईलिया शहर और अख़्वानुल मुसलेमी संगठन की स्थापना
आम तौर से मिस्री कॉलेज से स्नातक विद्यार्थियों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूसरे देश भेजा जाता है लेकिन इस साल इस पर अमल नही किया गया यही कारण है कि हसन बन्ना जब उच्च स्तरीय ट्रेनिंग कॉलेज से 1927 ई में स्नातक हुए तो इस्माईलिया शहर के एक प्राइम्री स्कूल में टीचर बन कर पढ़ाने लगे। जिन दिनो हसन बन्ना इस्माईलिया शहर जाने के लिए तैयार हो रहे थे उन दिनों में भी आप अपने तबलीग़ी प्रोग्रामों के बारे में सदैव सोचते रहते थे और कभी भी इधर से बेख़बर नही हुए। आप के और भी दोस्त जैसे “अहमद सकरी” महमूदिया शहर में और “अहमद अस्करिया” और “अहमद अब्दुल मजीद” आदि भी दूसरे शहरो में तबलीग़ कर रहे थे। और जिन सब की क़िस्मत में लिखा था कि वह इस्लाम के प्रचार और तबलीग़ी प्रोग्रामों के कारण एक दूसरे से दूर रहें।
तक़रीबन एक साल के बाद “अख़्वानुल मुसलेमीन” का पहला बैच और उसकी शाख़ें इस्माईलिया शहर में ख़ुलीं। हसन बन्ना ने इसी ज़माने में अपने विचारों को इस्लाम को नया जीवन देने और राजनीतिक और समाजिक ताक़त को हासिल करने के लिए इस्तेमाल और उसाक प्रचार करना शुरू कर दिया, और फिर 1928 ई में “अख़्वानुल मुसलेमीन” पार्टी का गठन हुआ, और अपने क्लासों और लेखों में इस पार्टी के लक्ष्यों संविधान क़ानून और व्यवस्था का प्रचार प्रारम्भ कर दिया, इस कार्य के लिये बहुत सी यात्राएं की और धार्मिक नारों और अहकाम के प्रसारण के साथ ही व्यवहारिक स्तर पर बेदीनी से मुक़ाबला करना शुरू कर दिया।[8]
आप 1932 ई में क़ाहिरा में एक टीचर की हैसियत से शिफ़्ट हो गए और अख़्वानुल मुस्लेमीन का मुख्य आफ़िस क़ाहिरा में बन गया। हसन बन्ना के विचार और नज़रियात जो कि अख़्वानुल मुसलेमीन अख़बार में तक़रीरों और लोखों की सूरत में छपते थे और बाद में मजमूअतुल रसाएल के नाम से पुस्तक की सूरत में प्रकाशित हुए, राजनीतिक और धर्मिक बैठकों में बहुत चर्चित हुए और लोगों ने भी इस पार्टी बहुत पसंद किया और इस का कारण बना कि हसन बन्ना अपने पूरे जीवन को इस कार्य के लिए लगा दें, बल्कि ये कहना चाहिए के उनके जीवन का अध्यन वास्तव में “अख़्वानुल मुसलेमीन” के इतिहास में करना चाहिए।[9]
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[1] सूरह आले इमरान आयत 169
[2] ज़रकुली 1410 हिजरी, पेज 183
[3] बिनी, मजमूअतुल रसाएल, बग़ैर तारीख़, पेज 5
[4] बिनाए ख़ातेरात 1358, पेज 7
[5] बिना मजमूअतुल रिसाला, पेज 5
[6] बन्ना ख़ातेरात, पेज 14
[7] बन्ना ख़ातेरात, पेज 16
[8] मूसवी बिजनवरदी, 1383 श, जिल्द 12, पेज 541
[9] मूसवी बिजनवरदी, 1383 श, जिल्द 12, पेज 541