११ फरवरी २०१२ को ईरान की इस्लामी क्रांति को सफल हुए ३३ वर्षों का समय हो गया है और अब इस क्रांति का ३४वां वर्ष आरंभ हो रहा है। इस क्रांति को सफल हुए जितने दिन गुज़र रहे हैं यह क्रांति दिन प्रतिदिन सुदृढ़ व मज़बूत होती जा रही है। २२ बहमन अर्थात ११ फरवरी को ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता की वर्षगांठ पर निकाली जाने वाली विशेष रैलियों में जनता की भव्य उपस्थिति और उसके सुदृढ़ होने की सूचक है। जनता की यह उपस्थिति इस बात की सूचक है कि ईरान की इस्लामी क्रांति के प्रभाव व संदेश असीम सोते की भांति निकल कर पूरे दुनिया में फैल रहे हैं। इस क्रांति का बाक़ी रहना और दिन प्रतिदिन उसका उन्नति करना इस क्रांति की इस्लामी पहचान के सुपरिणाम हैं। ईरान की इस्लामी क्रांति की पहचान, २०वीं शताब्दी की समस्त क्रांतियों से भिन्न सांस्कृतिक एवं धार्मिक है। यह क्रांति उस समय सफल हुई जब पूरा विश्व दो ध्रुवों में बंटा हुआ था। एक शक्ति का ध्रुव पूर्व सोवियत संघ था जो धर्म को राष्ट्रों का अफीम समझता था और उसका आधार मार्कस्वादी विचारधारा थी जबकि शक्ति का दूसरा ध्रुव अमेरिका था। इस शक्ति का आधार भी उदारवाद था और वह धर्म को व्यक्तिगत वस्तु मानता था। उदारवाद का आधार मानवतावाद है और इस विचार धारा में धर्म का कोई स्थान नहीं है। इसी कारण ईरान की इस्लामी क्रांति का आधार पूरी तरह धार्मिक व सांस्कृतिक था और वह साम्राज्य विरोधी बड़ी घटना थी। इस क्रांति के बारे में ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय हज़रत इमाम ख़ुमैनी ने बेहतरीन वाक्य कहा है। वह कहते कहते हैं कि इस्लामी क्रांति प्रकाश का झमाका थी। पश्चिमी बुद्धिजीवियों एवं विश्लेषकों ने ईरान की इस्लामी क्रांति को दो ध्रुवीय विश्व में ऐसे राजनीतिक भूकंप का नाम दिया जिसने अंतर्राष्ट्रीय समीकरण को परिवर्तित कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में अत्याचारी व्यवस्था का बोलबाला था और विश्व के विभिन्न क्षेत्र दोनों ब्लाकों व ध्रुवों में बंटे हुए थे। वारसा और नैटो सैनिक संगठन इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था के रक्षक थे। इन दोनों ध्रुवों से बाहर और इन पर निर्भर हुए बिना कोई भी परिवर्तन या क्रांति सफल नहीं होती थी। ईरान की इस्लामी क्रांति "न पूरब, न पश्चिम" के नारे के साथ सफल हुई। स्वर्गीय हज़रत इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में ईरान की इस्लामी क्रांति ने अपने आरंभ में ही अत्याचारी शासक मोहम्मद रज़ा की सरकार और साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष आरंभ कर दिया था। २०वीं शताब्दी में यह पहली बार था जब एक धर्मगुरू ने देशी एवं विदेशी तानाशाहों एवं साम्राज्य के विरुद्ध न्याय की आवाज़ उठाई और धर्म को राष्ट्रों के संघर्ष के स्रोत के रूप में प्रस्तुत किया। ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता से पूर्व तक समस्त स्वतंत्रता प्रेमी एवं विश्व में साम्राज्य विरोधी आंदोलनों का झुकाव मार्कस्वादी विचारधारा की ओर होता था और वे पूर्व सोवियत संघ की सहायता से पश्चिमी साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष करते थे। साम्यवाद के विरोधी भी उदारवाद की विचारधारा पर भरोसा करके अत्याचारी कम्युनिस्ट सरकारों से संघर्ष करते थे। इस संबंध में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी युरोप के देशों में स्वतंत्रता प्रेमी आंदोलनों का इतिहास अध्ययन योग्य है। ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता एक ओर अमेरिका के लिए बड़ा आघात थी तो दूसरी ओर वह रूस की कम्युनिस्ट सरकार के लिए भी आघात थी जो धर्म को राष्ट्रों के लिए अफीम समझता व कहता था। ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता ने वास्तव में साम्राज्यवाद विरोधी पताका को पूर्व सोवियत संघ के हाथों से ले लिया। इसी कारण शक्ति के दोनों ध्रुवों ने इस्लामी क्रांति की सफलता को अपने और अपने समर्थकों व घटकों के लिए ख़तरा समझा तथा उन्होंने एकजुट होकर इस्लामी क्रांति से मुक़ाबले को अपनी कार्यसूचि में रखा। पूर्व सोवियत संघ से संबंधित वामपंथी गुट आरंभ में ही ईरान की इस्लामी क्रांति से मुक़ाबले के लिए उठ खड़े हुए और उन्होंने ईरान के उत्तरी एवं पश्चिमी क्षेत्रों में गृहयुद्ध आरंभ कराने की चेष्टा की। रूस के वामपंथी गुटों के नारों के खोखला होने और उनकी वास्तविकताओं का ज्ञान ईरानी राष्ट्र को हो जाने के कारण इस्लामी क्रांति के विरुद्ध इन गुटों का सशस्त्र आंदोलन विफल हो गया परंतु अमेरिका ने इस्लामी क्रांति की सफलता के आरंभ से ही अपने समस्त स्वतंत्रता प्रेमी एवं लोकलुभावन नारों के साथ इस क्रांति से अपनी शत्रुता व द्वेष को स्पष्ट कर दिया और ईरान के विरुद्ध किसी भी प्रकार की राजनीतिक एवं सैनिक कार्यवाही में संकोच से काम नहीं लिया। सत्तालोलुप लोगों का समर्थन और विद्रोह करवाना ईरान की इस्लामी क्रांति से मुक़ाबले हेतु अमेरिकी कार्यवाहियों का एक भाग था। स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी के अनुयाई छात्रों ने तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर, जो ईरानी राष्ट्र के विरुद्ध जासूसी करने एवं षडयंत्र रचने के केन्द्र में परिवर्तित हो चुका था, नियंत्रण कर लिया जिससे ईरानी राष्ट्र से अमेरिका के क्रोध में और वृद्धि हो गयी। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने ईरान के विरुद्ध राजनीतिक कार्यवाहियों के साथ सैनिक एवं आर्थिक कार्यवाहियों का आदेश दिया। तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर नियंत्रण हो जाने के बाद जिमी कार्टर ने समस्त राजनीतिक और आर्थिक संबंधों को ईरान से तोड़ लिया और ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाये जाने की सूचना दी। इस प्रतिबंध पर स्वर्गीय हज़रत इमाम खुमैनी की प्रतिक्रिया शिक्षाप्रद है। १६ दिसंबर वर्ष १९७९ को इमाम ख़ुमैनी ने इस संबंध में कहा"हम इसके पश्चात इस बात की अनुमति नहीं देंगे कि बाहरी लोग हमारे देश में आयें और हम पर शासन करें, हम स्वयं अपने स्वीमी हैं। वे जितना भी दबाव डालना चाहते हैं डालें और आर्थिक घेराबंदी के लिए जितना भी षडयंत्र करना चाहें, करें। हम आर्थिक प्रतिबंधों से नहीं डरते हैं" इमाम खुमैनी ने जिमी कार्टर को संबोंधित करते हुए कहा" क्या दुनिया श्री कार्टर का अनुसरण करती है कि जब वे कहेंगे कि आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया जाये तो पूरी दुनिया कहेगी जी हां हम आर्थिक प्रतिबंध लगा देगें। यह उन ग़लतियों में से है जो बुद्धि से परे यह बड़ी शक्तियां करती हैं वह सोचती हैं कि अब हमारे पास एक शक्ति है और समस्त लोग और पूरा विश्व हमारा अनुसरणकर्ता है" अमेरिका की वर्चस्वादी नीति के मुक़ाबले हेतु इस परिवेष्टन का ईरानी राष्ट्र के दृढ़ संकल्पों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। अमेरिका ने ईरान के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही के लिए सद्दाम को उकसाया और उसने ईरान के विरुद्ध आठ वर्षीय युद्ध आरंभ कर दिया। इस युद्ध में अमेरिका, रूस और उनके घटकों ने ईरान के विरुद्ध सद्दाम सरकार को हर प्रकार के आधुनिकतम शस्त्रों से लैस किया परंतु अंत में सद्दाम और उसके समर्थकों को पराजय का कटु स्वाद चखना पड़ा और ईरानी राष्ट्र की भूमि का एक इंच भी इराकी अधिकार में नहीं रहा। ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता के पहले दशक में उस पर आर्थिक परिवेष्टन और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे लम्बा युद्ध थोप दिया गया परंतु इससे ईरान की इस्लामी क्रांति कमज़ोर नहीं हुई। यद्यपि इस्लामी गणतंत्र ईरान ने क्रांति की सुरक्षा के मार्ग में अपने दसियों हज़ार शूरवीर युवाओं की आहूति दी और ईरान की आधार भूत सुविधाओं को बहुत क्षति पहुंची परंतु ईरान की इस्लामी क्रांति ने इन कड़े प्रतिबंधों और सद्दाम द्वारा थोपे युद्ध के कारण बड़ी ही मूल्यवान उपलब्धियां अर्जित कीं और स्वतंत्रता एवं स्वयं पर भरोसा करके विभिन्न क्षेत्रों में उसने असाधारण प्रगति की। ईरान ने ज्ञान- विज्ञान के क्षेत्र में जो प्रगतियां की हैं उनका आरंभ उसने इराक़ द्वारा ईरान पर थोपे गये युद्ध के दौरान या युद्ध की समाप्ति के बाद किया था। ईरान ने ये उपलब्धियां उस स्थिति में अर्जित की हैं जब अमेरिका ने ईरान को प्रगति से रोकने के लिए हर प्रकार की बाधा व समस्या उत्पन्न कर रखी है। अमेरिकी सरकार ने गत ३३ वर्षों से ईरान पर विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिबंध लगा रखा है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान पर इन प्रतिबंधों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है और ईरान के विरुद्ध इस प्रकार के प्रतिबंधों में जितनी वृद्धि होगी उससे ईरान की इस्लामी क्रांति से मुक़ाबले में अमेरिका की अक्षमता अधिक स्पष्ट होगी। ईरान की इस्लामी क्रांति का अतल सोता सूखने वाला नहीं है और गत एक वर्ष से उत्तरी अफ्रीक़ा से लेकर मध्यपूर्व के विभिन्न इस्लामी देशों में जनक्रांतियां आरंभ हो चुकी हैं जो ईरान की इस्लामी क्रांति के संदेशों के क्षेत्र और पूरे विश्व में पहुंचने की सूचक हैं। इन जनक्रांतियों में स्वतंत्रता प्रेम और न्याय को आधार बनाना इस बात का सूचक है कि इन जनांदोलनों ने ईरान की इस्लामी क्रांति को अपना आदर्श बनाया है। २२ बहमन अर्थात ११ फरवरी की रैलियों में ईरानी जनता की भव्य उपस्थिति इस बात की परिचायक है कि इसकी जड़ें ईरानी जनता के हृदयों में हैं और अमेरिका एवं उसके घटकों का दबाव ईरान पर जितना अधिक होगा उतना ही ईरानी जनता और अधिकारियों के मध्य क्रांति की आकांक्षाओं की सुरक्षा हेतु समरसता व एकता में वृद्धि होगी।