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इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की बरसी।

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इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की बरसी।

 

शायद ईरानी जनता ने अपने पूरे राजनैतिक जीवन में 4 जून 1989 से ज़्यादा दुखी दिन का अनुभव नहीं किया होगा।

यह वह दिन है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह इस नश्वर संसार से चले गये। एक ऐसी हस्ती जिसने ईरान के इतिहास पर गहरा व निर्णायक असर डाला और साथ ही जनता के इरादे को इस्लामी गणतंत्र ईरान के सांचे में पेश किया। इमाम ख़ुमैनी ईरानी राष्ट्र सहित सारे मुसलमानों के लिए सिर्फ़ एक राजनेता ही नहीं बल्कि वह एक बड़े धर्मगुरू, सादा जीवन बिताने वाले और अत्याचार व अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष के प्रतीक भी थे। यही वजह है कि इमाम ख़ुमैनी के स्वर्गवास को आज 28 साल गुज़रने के बाद भी उनकी याद लोगों के दिलों में उसी तरह बाक़ी और उनकी बातें लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

 

आज की दुनिया में जो अत्याचार व अन्याय से भरी हुयी है, इमाम ख़ुमैनी की भेदभाव व अतिक्रमण के ख़िलाफ़ डटे रहने की शिक्षाएं, मार्गदर्शक का काम कर रही हैं। उनका मानना था, “इस संसार में पहले इंसान के क़दम रखते ही अच्छे और बुरे लोगों के बीच विवाद का द्वार खुल गया।” इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक इस्लाम को अत्याचारियों के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए प्रेरणा का बेहतरीन माध्यम मानते थे, क्योंकि इस धर्म की शिक्षाओं में अत्याचार के विरोध पर साफ़ तौर पर बल दिया गया है। वह साफ़ तौर पर कहते थे, “हमारे धार्मिक आदेशों ने कि जिनके ज़रिए सबसे ज़्यादा प्रगति की जा सकती है, हमारे लिए मार्ग निर्धारित किए हैं। हम इन आदेशों और दुनिया के महान नेता हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के नेतृत्व के सहारे उन सभी शक्तियों के ख़िलाफ़ संघर्ष करेंगे जो हमारे राष्ट्र पर अतिक्रमण करने का इरादा रखती हैं।” यही वजह है कि जब हम इमाम ख़ुमैनी के ईरान में अत्याचारी पहलवी शासन, अमरीका और ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं उनका यह संघर्ष इस्लामी मूल्यों के आधार पर था जो अत्याचार को पसंद नहीं करता और अत्याचारियों के ख़िलाफ़ संघर्ष पर बल देता है।      

देश के भीतर अत्याचार और विश्व साम्राज्य के ख़िलाफ़ संघर्ष में वीरता और दृढ़ता इमाम ख़ुमैनी के व्यक्तित्व की स्पष्ट विशेषताएं थीं। उनमें ये विशेषताएं ईश्वर पर भरोसे से पैदा हुयी थी। वह हर काम में ईश्वर पर भरोसा करते थे। इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक को पवित्र क़ुरआन के मोहम्मद सूरे की आयत नंबर 7 पर गहरी आस्था थी जिसमें ईश्वर कह रहा है, “अगर तुम ईश्वर की मदद करो तो वह तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हारे क़दम जमा देगा।” यही वजह है कि इमाम ख़ुमैनी पहलवी शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष के दौरान कभी भी निराश नहीं हुए। अमरीकी हथकंडों और उसकी दुश्मनी के सामने कभी नहीं घबराए। क्योंकि इमाम ख़ुमैनी ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानते थे और उसे अपना और लोगों का मददगार समझते थे। इस महान शक्ति के भरोसे दुनिया के राष्ट्रों को अमरीकी वर्चस्ववाद और आंतरिक स्तर पर मौजूद अत्याचारियों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के लिए प्रेरित करते और उन्हें यह वचन देते थे कि अगर वे ऐसा करेंगे तो सफलता उनके क़दम चूमेगी।

 

ईश्वर के बाद इमाम ख़ुमैनी जनता की शक्ति पर भरोसा करते थे। उनका मानना था कि अगर आम लोग जागरुक व एकजुट हो जाएं तो कोई भी शक्ति उनके सामने टिक नहीं सकती। इमाम ख़ुमैनी इस्लामी क्रान्ति में जनता की भूमिका के बारे में कहते हैं, “इस बात में शक नहीं कि इस्लामी क्रान्ति के बाक़ी रहने का रहस्य भी वही है जो उसकी सफलता का रहस्य है और राष्ट्र सफलता के रहस्य को जानता है और आने वाली पीढ़ियां भी इतिहास में यह पढेंगी कि उसके दो मुख्य स्तंभ इस्लामी शासन जैसे उच्च उद्देश्य की प्राप्ति की भावना और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पूरे राष्ट्र की एकजुटता थी।”

इमाम ख़ुमैनी अपने वंशज पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का अनुसरण करते थे और पवित्र क़ुरआन के फ़त्ह नामक सूरे की अंतिम आयत उन पर चरितार्थ होती थी कि जिसमें ईश्वर कह रहा है, “मोहम्मद ईश्वरीय दूत हैं। जो लोग उनके साथ हैं वे नास्तिकों के ख़िलाफ़ कठोर लेकिन आपस में मेहरबान हैं।” इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह हमेशा देश के अधिकारियों पर बल देते थे कि आम लोगों की मुश्किलों को हल करें। इसी प्रकार वह ख़ुद भी एक मेहरबान पिता के समान आम जनता का समर्थन करते थे। लोग भी उनसे गहरी श्रद्धा रखते थे और उनके निर्देशों को पूरी तनमयता से स्वीकार करते और उस पर अमल करते थे। इमाम ख़ुमैनी व जनता के बीच यह संबंध शाह के पतन के लिए जारी संघर्ष और इराक़ के पूर्व तानाशाह सद्दाम के हमले से ईरान की भूमि की रक्षा के दौरान पूरी तरह स्पष्ट था।             

एक ओर इमाम ख़ुमैनी इस्लाम और जनता के दुश्मनों का दृढ़ता से मुक़ाबला करते तो दूसरी ओर इस्लामी जगत के भीतर हमेशा एकता, समरस्ता व भाईचारे के लिए कोशिश करते थे। वह राष्ट्रों से भी और सरकारों से भी एकता की अपील करते हुए बल देते थे, “अगर इस्लामी सरकारें जो सभी चीज़ों से संपन्न हैं, जिनके पास बहुत ज़्यादा भंडार हैं, आपस में एकजुट हो जाएं, तो इस एकता के नतीजे में उन्हें किसी दूसरी चीज़, देश या शक्ति की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।” इसके साथ ही इमाम ख़ुमैनी ने इस बिन्दु की ओर भी ध्यान था कि इस्लाम के दुश्मनों के साथ इस्लामी जगत के भीतर भी कुछ सरकारें व गुट मौजूद हैं जो मुसलमानों के बीच एकता के ख़िलाफ़ हैं ताकि इस प्रकार अपने पश्चिमी दोस्तों के हितों का रास्ता समतल करें। इमाम ख़ुमैनी की नज़र में मुसलमानों के बीच एकता के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट सऊदी सरकार है कि जिसका आधार पथभ्रष्ट वहाबी मत की शिक्षाए हैं। एक स्थान पर इमाम ख़ुमैनी फ़रमाते हैं, “जैसे ही एकता के लिए कोई आवाज़ उठती है तो उसी वक़्त हेजाज़ से एक व्यक्ति यह कहता हुआ नज़र आता है कि पैग़म्बरे इस्लाम का शुभ जन्म दिवस मनाना शिर्क अर्थात अनेकेश्वरवाद है। मुझे नहीं मालूम कि यह बात किस आधार पर कही जा रही है, यह कैसे अनेकेश्वरवाद हो सकता है? अलबत्ता ऐसा कहने वाला वहाबी है। वहाबियों को सुन्नी मत के लोग भी नहीं मानते। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ हम उन्हें नहीं मानते बल्कि सुन्नी भाई भी उन्हें नहीं मानते।”

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह का मानना था कि वहाबियत एक पथभ्रष्ट विचारधारा है जो मुसलमानों के पिछड़ेपन का कारण बनेगी। जैसा कि मौजूदा दौर में हम यह देख रहे हैं कि इस हिंसक व आधारहीन मत के अनुयायी इराक़, सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, यमन, और लीबिया में लोगों के ख़ून से होली खेल रहे हैं। वास्तव में ये लोग इस्लाम के दुश्मनों की सेवा कर रहे हैं। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह आले सऊद और वहाबियों के बारे में बहुत ही गहरी बात कहते हैं,“क्या मुसलमानों को यह नज़र नहीं आ रहा है कि आज दुनिया में वहाबियत के केन्द्र साज़िश व जासूसी के गढ़ बन चुके हैं जो एक ओर कुलीन वर्ग के इस्लाम, अबू सुफ़ियान के इस्लाम, दरबारी कठमुल्लों के इस्लाम, धार्मिक केन्द्रों व यूनिवर्सिटियों के विवेकहीन लोगों का बड़ा पवित्र दिखने वाले इस्लाम, तबाही व बर्बादी में ले जाने वाले इस्लाम, धन व ताक़त के इस्लाम, धोखा, साज़िश व ग़ुलाम बनाने वाले इस्लाम, पीड़ितों व निर्धनों पर पूंजिपतियों के इस्लाम, और एक शब्द में अमरीकी इस्लाम का प्रचार कर रहे हैं और दूसरी ओर पूरी दुनिया को लूटने वाले अमरीकियों के सामने अपना सिर झुकाते हैं।”

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह जो बातें सऊदियों की इस्लामी जगत से ग़द्दारी के बारे में कह गए, ऐसा लगता है कि वे हमारे बीच मौजूद हैं और अपनी आंखों से ये होता हुआ देख रहे हैं। जैसा कि पवित्र मक्का में ईरानी श्रद्धालुओं के जनसंहार की बरसी के अवसर पर अपने संदेश में लिखते हैं, “मुसलमान यह नहीं जानता कि यह दर्द किससे बांटे कि आले सऊद इस्राईल को यक़ीन दिलाता है कि हम अपने हथियार तुम्हारे ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं करेंगे और अपनी बात को साबित करने के लिए ईरान के साथ संबंध विच्छेद करता है।”           

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने सभी कठिनाइयों व रुकावटों के बावजूद ईरान में एक ऐसी सरकार की बुनियाद रखी जो पथभ्रष्ट व रूढ़ीवादी वहाबी विचारधारा के मुक़ाबले में प्रगतिशील इस्लाम की प्रतीक और प्रजातांत्रिक है। आज 38 साल गुज़रने के बाद भी इस्लामी गणतंत्र ईरान दुनिया में एक शक्तिशाली शासन के तौर पर पहचाना जाता है कि जिसका आधार इस्लामी सिद्धांत और जनता की राय है।

 

ईरान में 19 मई को ताज़ा चुनाव आयोजित हुए जो पूरी आज़ादी व प्रतिस्पर्धा के साथ संपन्न हुए कि जिसके दौरान जनता ने अपने मतों से राष्ट्रपति और नगर परिषद के सदस्यों को चुना। यह ऐसा चुनाव है जिसकी सऊदी अरब की जनता सहित फ़ार्स खाड़ी के शाही शासन वाले ज़्यादातर देशों की जनता कामना करती है। इमाम ख़ुमैनी ने इस्लामी नियमों और जनता पर भरोसे के सहारे शुरु में भी शासन व्यवस्था के चयन का अख़्तियार जनता को सौंप दिया और जनता के राय से शासन व्यवस्था का गठन हुआ। इमाम ख़ुमैनी के योग्य उत्तराधिकारी वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई जनता के संबंध में इमाम ख़ुमैनी के दृष्टिकोण के बारे में कहते हैं, “इमाम जब जनता के बारे में बात करते थे तो यह बातें भावनात्मक नहीं होती थीं। जैसे बहुत से देशों के नेताओं की तरह सिर्फ़ बातों की हद तक जनता पर निर्भरता की बातें नहीं करते थे बल्कि वे व्यवहारिक रूप से जनता के स्थान को अहमियत देते थे। ऐसे लोग बहुत कम नज़र आते हैं जो इमाम के जितना आम लोगों से मन की गहराई से प्रेम करे और उन पर भरोसा करे क्योंकि उन्हें जनता की आस्था व वीरता पर भरोसा था।”

इमाम ख़ुमैनी के स्वर्गवास के बाद उनकी भव्य शवयात्रा और उनकी शोकसभाएं ख़ुद इस बात का पता देती हैं कि आम लोग इमाम ख़ुमैनी से कितनी गहरी श्रद्धा रखते थे। क्योंकि इमाम ख़ुमैनी ऐसे नेता थे जिन्होंने पूरा जीवन आम लोगों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया था और वे मन की गहरायी से आम लोगों से प्रेम करते थे। जनता और इमाम ख़ुमैनी के बीच इस गहरे लगाव की वजह से 38 साल गुज़रने के बाद भी इमाम ख़ुमैनी के क्रान्तिकारी विचार न सिर्फ़ ईरान बल्कि दुनिया के अन्य देशों में लोकप्रिय हो रहे हैं।

 

 

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