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 हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन महदी मिश्की बाफ़ ने कहा: अगर हम मैदान पर ज़ायोनी हमले के कारणों को नहीं समझते हैं, तो संभव है कि फ़ैसले ग़लत हों। केवल एक सही समझ ही हमें भविष्य की ओर, यानी ओहद, हुनैन या अहज़ाब जैसी स्थितियों की ओर ले जाएगी।

राजनीतिक शोधकर्ता हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन महदी मिश्की बाफ़ ने "आइंदा पीश रू: अहज़ाब, हुनैन या ओहद?" शीर्षक के तहत अंतर्दृष्टि निर्माण के लिए ऑनलाइन सत्रों की एक श्रृंखला में बोलते हुए कहा: हम वर्तमान में एक संवेदनशील चौराहे पर खड़े हैं। जहाँ भविष्य में युद्ध की संभावना प्रबल है और यदि हम तैयार नहीं हैं, तो भारी क्षति होगी, और यदि हम तैयार हैं, तो सफलता निश्चित है। यही तत्परता तय करेगी कि हमारा अंत पार्टियों के युद्ध जैसा होगा, हुदैबिया की संधि जैसा, या मक्का की विजय जैसा।

उन्होंने कहा: इस्लामी क्रांति की विजय के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका ने ईरान पर दो बार हमला किया और दोनों बार पराजित होकर युद्धविराम का अनुरोध किया। पहला हमला तबस रेगिस्तान में "फाइव ईगल्स" नामक हमले के रूप में किया गया था, जो ईश्वरीय कृपा और एक रेगिस्तानी तूफान के कारण विफल हो गया। दूसरा हमला फोर्डो पर हुआ, जिसके बाद अल-उदीद में अमेरिकी सेना को भारी क्षति हुई।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मिश्कि बाफ़ ने कहा: हमें यह समझना होगा कि इतिहास खुद को दोहरा रहा है, लेकिन इस बार हम ही तय करेंगे कि हम इस इतिहास के किस पक्ष में खड़े होंगे। अगर हम सिर्फ़ हदीस "अल-हम्दु लिल्लाहि जिअल-अदहन्ना मिन अल-हमकी" (अल्लाह का शुक्र है जिसने हमारे दुश्मनों को बेवकूफ़ बनाया) पर भरोसा करें और मैदान में हमारी सेनाओं की महान बहादुरी और रणनीति को नज़रअंदाज़ करें, तो शायद यह उचित नहीं होगा, क्योंकि हमारे सशस्त्र बल हाल के युद्ध में असाधारण रूप से शानदार और सफल रहे हैं।

उन्होंने कहा: अगर हम दुश्मन के हमले को परमाणु प्रतिष्ठानों के विनाश तक सीमित मानते हैं, तो यह एक बड़ी भूल है, क्योंकि नेतन्याहू ने शुरू से ही स्पष्ट रूप से घोषणा की थी कि उनका लक्ष्य इस्लामी गणराज्य ईरान को उखाड़ फेंकना है।

राजनीतिक शोधकर्ता ने आगे कहा: ईरानी राष्ट्र की आंतरिक एकता और सामूहिक सद्भाव, जो इस संकट में उजागर हुआ, इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि दुश्मन अपने लक्ष्य में विफल रहा। क्रांति के नेता ने कहा कि अगर आप ईरानी राष्ट्र को जानना चाहते हैं, तो उसे कठिन परिस्थितियों में जानें, जब उनके नायक शहीद होते हैं तो वे कैसी प्रतिक्रिया देते हैं।

उन्होंने कहा: ईरान के हमले का तरीका अप्रत्याशित था, उदाहरण के लिए, कभी सुबह, कभी रात, कभी एक तरह की मिसाइल, कभी दूसरी। इस रणनीति ने दुश्मन की रक्षा प्रणाली को पंगु बना दिया और ज़ायोनी नागरिकों को शरणस्थलों में रहने के लिए मजबूर कर दिया।

हुज्जतुल इस्लाम मिश्की बाफ़ ने कहा: इस हमले ने एक स्पष्ट संदेश दिया कि ईरान युद्ध के मामले में किसी का सम्मान नहीं करता, और इस क्षेत्र के पड़ोसी देशों को भी नहीं बख्शता। ईरान ने दुनिया को दिखा दिया कि अगर युद्ध छिड़ गया, तो इस क्षेत्र का कोई भी सैन्य अड्डा सुरक्षित नहीं रहेगा। यही कारण है कि इस क्षेत्र के देशों ने युद्धविराम के लिए मध्यस्थता की।

अंत में, उन्होंने कहा: ईश्वर की कृपा और क्रांति के सर्वोच्च नेता का बुद्धिमान नेतृत्व इस सफलता के मुख्य कारण थे। इस युद्ध में, क्रांति के नेता स्वयं युद्ध कमान के केंद्र में थे और हमले की रणनीति स्वयं तय कर रहे थे, और यही ईरान की जीत का मुख्य बिंदु था।

 

 क़ुम के हौज़ा एल्मिया के प्रतिष्ठित शिक्षक और नेतृत्व विशेषज्ञ परिषद मजलिस-ए ख़ुबरगान के सदस्य ने कहा कि 12 दिन के युद्ध में अमेरिका को इजरायल के अपराधों से अलग करना सिर्फ मूर्खता है क्योंकि शुरू से ही अमेरिका अतिक्रमणकारी इज़राईली सरकार का साझीदार रहा है।

आयतुल्लाह मोहसिन अराकी ने क़ुम में टेलीविजन की उच्च परिषद के प्रबंधकों की बैठक में, 12 दिन के युद्ध के दौरान राष्ट्र का हौसला अफ़जाई, प्रतिरोध और सतर्कता के लिए राष्ट्रीय मीडिया के प्रयासों का शुक्रिया अदा किया और सियोनी सरकार के राष्ट्रीय टेलीविजन की शीशे की इमारत पर हमले का ज़िक्र करते हुए कहा कि सभी मीडिया सदस्यों की इस मुश्किल समय में प्रतिरोध, ईरानी राष्ट्र के प्रतिरोध की हक़ीक़त को दर्शाता है और यह सीरत-ए अलवी और हुसैनी का अमली नमूना है। 

नेतृत्व विशेषज्ञ परिषद के सदस्य ने यह बयान करते हुए कि टेलीविजन के मज़बूत प्रदर्शन ने इस संवेदनशील समय में युद्ध के बयानों के संतुलन को इस्लामी ईरान के पक्ष में मोड़ दिया, कहा कि थोपे गए 12 दिन के भीषण युद्ध में आपने जनता की राय के संगठित नेतृत्व के ज़रिए इस्लामी ईरान की सैन्य ताक़त को हक़ और हक़ीक़त की दिशा में मोड़ दिया। 

उन्होंने आगे कहा कि वास्तव में मीडिया कर्मियों ने इस अवधि में इस्लामी गणतंत्र ईरान की ताक़त को दुनिया के सामने पूरी तरह से पेश किया। आयतुल्लाह अराकी ने क़ुरान और हदीसों की रौशनी में इस्लाम के इतिहास में मीडिया की भूमिका पर भी ज़ोर दिया। 

उन्होंने अतिक्रमणकारी सियोनी सरकार के साथ 12 दिन के युद्ध को पवित्र रक्षा दफ़ा-ए मुक़द्दस से भी ज़्यादा अहम और मुश्किल बताया और कहा कि इस्लामी ईरान ने अमेरिका जैसी घमंडी ताक़तों के ख़िलाफ़ बहादुराना मुक़ाबला करके यह साबित किया कि मैदान का असली विजेता कौन है। 

आयतुल्लाह मोहसिन अराकी ने यह बयान करते हुए कि इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता, जनता, सशस्त्र बलों और मीडिया ने इस दौरान जो कुछ किया है वह अलवी ताक़त और पहचान की निशानी है, कहा कि इस पहचान को हक़ और सच्चाई के मीडिया के प्रयासों के ज़रिए बयान किया जाना चाहिए और इसे बरकरार रखना चाहिए। 

उन्होंने इस बात पर ज़ोर देते हुए कि इस्लामी गणतंत्र ईरान ही अमेरिका के साथ युद्ध के मैदान में अंतिम विजेता है, कहा कि इस्लामी ईरान अमेरिका के ख़िलाफ़ नारों में नहीं, बल्कि युद्ध के मैदान में भी सीना तान कर, ताक़त, सत्ता और काबिलियत के साथ खड़ा है और यह राष्ट्र की यक़ीनी जीत के सिवा कुछ नहीं है। 

उन्होंने अमेरिका की तरफ से युद्धविराम की अपील को दुश्मन को नाकाम बनाने में इस्लामी ईरान की जीत का एक और सबूत बताया और कहा कि इस 12 दिन के युद्ध में इजरायल के अपराधों से अमेरिका को अलग करना मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है, क्योंकि शुरू से ही अमेरिका इजरायल का अहम साझीदार रहा है।

 

मंगलवार, 15 जुलाई 2025 10:53

अक़ीलाऐ बनी हाशिम जनाबे ज़ैनब

जनाबे ज़ैनब व उम्मे कुलसूम हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) और जनाबे ख़दीजतुल कुबरा (स.अ.व.व.) की नवासीयां , हज़रत अबू तालिब (अ.स.) व फ़ात्मा बिन्ते असद (स.अ.व.व.) की पोतियां हज़रत अली (अ.स.) व फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) की बेटियां इमाम हसन (अ.स.) व इमाम हुसैन (अ.स.) की हकी़की़ और हज़रत अब्बास (अ.स.) व जनाबे मोहम्मदे हनफ़िया की अलाती बहनें थीं। इस सिलसिले के पेशे नज़र जिसकी बालाई सतह में हज़रत हमज़ा , हज़रत जाफ़रे तैय्यार , हज़रत अब्दुल मुत्तलिब और हज़रत हाशिम भी हैं। इन दोनों बहनों की अज़मत बहुत नुमाया हो जाती है।

यह वाक़ेया है कि जिस तरह इनके आबाओ अजदाद , माँ बाप और भाई बे मिस्ल व बे नज़ीर हैं इसी तरह यह दो बहने भी बे मिस्ल व बे नज़ीर हैं। ख़ुदा ने इन्हें जिन ख़ानदानी सेफ़ात से नवाज़ा है इसका मुक़तज़ा यह है कि मैं यह कहूं कि जिस तरह अली (अ.स.) व फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) के फ़रज़न्द ला जवाब हैं इसी तरह इनकी दुख़्तरान ला जवाब हैं , बेशक जनाबे ज़ैनब व उम्मे कुलसूम मासूम न थीं लेकिन इनके महफ़ूज़ होने में कोई शुब्हा नहीं जो मासूम के मुतरादिफ़ है। हम ज़ैल में दोनों बहनों का मुख़्तसर अलफ़ाज़ में अलग अलग ज़िक्र करते हैं।

हज़रत ज़ैनब की विलादत

मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ैनब बिन्ते अमीरल मोमेनीन (अ.स.) 5 जमादिल अव्वल 6 हिजरी को मदीना मुनव्वरा में पैदा हुईं जैसा कि ‘‘ ज़ैनब अख़त अल हुसैन ’’ अल्लामा मोहम्मद हुसैन अदीब नजफ़े अशरफ़ पृष्ठ 14 ‘‘ बतालता करबला ’’ डा 0 बिन्ते अशाती अन्दलसी पृष्ठ 27 प्रकाशित बैरूत ‘‘ सिलसिलातुल ज़हब ’’ पृष्ठ 19 व किताबुल बहरे मसाएब और ख़साएसे ज़ैनबिया इब्ने मोहम्मद जाफ़र अल जज़ारी से ज़ाहिर है। मिस्टर ऐजाज़ुर्रहमान एम 0 ए 0 लाहौर ने किताब ‘‘ जै़नब ’’ के पृष्ठ 7 पर 5 हिजरी लिखा है जो मेरे नज़दीक सही नहीं। एक रवायत में माहे रजब व शाबान एक में माहे रमज़ान का हवाला भी मिलता है। अल्लामा महमूदुल हुसैन अदीब की इबारत का मतन यह है। ‘‘ फ़क़द वलदत अक़ीलह ज़ैनब फ़िल आम अल सादस लिल हिजरत अला माअ तफ़क़ा अलमोरेखून अलैह ज़ालेका यौमल ख़ामस मिन शहरे जमादिल अव्वल अलख़ ’’ हज़रत ज़ैनब (स.अ.व.व.) जमादील अव्वल 6 हिजरी में पैदा हुईं। इस पर मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है। मेरे नज़दीक यही सही है। यही कुछ अल वक़ाएक़ व अल हवादिस जिल्द 1 पृष्ठ 113 प्रकाशित क़ुम 1341 ई 0 में भी है।

हज़रत ज़ैनब की विलादत पर हज़रत रसूले करीम (स.अ.व.व.) का ताअस्सुर वक्त़े विलादत के मुताअल्लिक़ जनाबे आक़ाई सय्यद नूरूद्दीन बिन आक़ाई सय्यद मोहम्मद जाफ़र अल जज़ाएरी ख़साएस ज़ैनबिया में तहरीर फ़रमाते हैं कि जब हज़रत ज़ैनब (स.अ.व.व.) मुतावल्लिद हुईं और उसकी ख़बर हज़रत रसूले करीम (स.अ.व.व.) को पहुँची तो हुज़ूर जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) के घर तशरीफ़ लाए और फ़रमाया कि ऐ मेरी राहते जान , बच्ची को मेरे पास लाओ , जब बच्ची रसूल (स.अ.व.व.) की खि़दमत में लाई गई तो आपने उसे सीने से लगाया और उसके रूख़सार पर रूख़सार रख कर बे पनाह गिरया किया यहां तक की आपकी रीशे मुबारक आंसुओं से तर हो गई। जनाबे सय्यदा ने अर्ज़ कि बाबा जान आपको ख़ुदा कभी न रूलाए , आप क्यों रो पड़े इरशाद हुआ कि ऐ जाने पदर , मेरी यह बच्ची तेरे बाद मुताअद्दि तकलीफ़ों और मुख़तलिफ़ मसाएब में मुबतिला होगी। जनाबे सय्यदा यह सुन कर बे इख़्तियार गिरया करने लगीं और उन्होंने पूछा कि इसके मसाएब पर गिरया करने का क्या सवाब होगा ? फ़रमाया वही सवाब होगा जो मेरे बेटे हुसैन के मसाएब के मुतासिर होने वाले का होगा इसके बाद आपने इस बच्ची का नाम ज़ैनब रखा।(इमाम मुबीन पृष्ठ 164 प्रकाशित लाहौर) बरवाएते ज़ैनब इबरानी लफ़्ज़ है जिसके मानी बहुत ज़्यादा रोने वाली हैं। एक रवायत में है कि यह लफ़्ज़ जै़न और अब से मुरक्कब है। यानी बाप की ज़ीनत फिर कसरते इस्तेमाल से ज़ैनब हो गया। एक रवायत में है कि आं हज़रत (स.अ.व.व.) ने यह नाम ब हुक्मे रब्बे जलील रखा था जो ब ज़रिए जिब्राईल पहुँचा था।

विलादते ज़ैनब पर अली बिन अबी तालिब (अ.स.) का ताअस्सुर

डा 0 बिन्तुल शातमी अन्दलिसी अपनी किताब ‘‘बतलतै करबला ज़ैनब बिन्ते अल ज़हरा ’’ प्रकाशित बैरूत के पृष्ठ 29 पर रक़म तराज़ हैं कि हज़रत ज़ैनब की विलादत पर जब जनाबे सलमाने फ़ारसी ने असद उल्लाह हज़रत अली (अ.स.) को मुबारक बाद दी तो आप रोने लगे और आपने उन हालात व मसाएब का तज़किरा फ़रमाया जिनसे जनाबे ज़ैनब बाद में दो चार होने वाली थीं।

हज़रत ज़ैनब की वफ़ात

मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत ज़ैनब (स.अ.व.व.) जब बचपन जवानी और बुढ़ापे की मंज़िल तय करने और वाक़े करबला के मराहिल से गुज़रने के बाद क़ैद ख़ाना ए शाम से छुट कर मदीने पहुँची तो आपने वाक़ेयाते करबला से अहले मदीना को आगाह किया और रोने पीटने , नौहा व मातम को अपना शग़ले ज़िन्दगी बना लिया। जिससे हुकूमत को शदीद ख़तरा ला हक़ हो गया। जिसके नतीजे में वाक़िये ‘‘ हर्रा ’’ अमल में आया। बिल आखि़र आले मोहम्मद (स.अ.व.व.) को मदीने से निकाल दिया गया।

अबीदुल्लाह वालीए मदीना अल मतूफ़ी 277 अपनी किताब अख़बारूल ज़ैनबिया में लिखता है कि जनाबे ज़ैनब मदीने में अकसर मजलिसे अज़ा बरपा करती थीं और ख़ुद ही ज़ाकरी फ़रमाती थीं। उस वक़्त के हुक्कामे को रोना रूलाना गवारा न था कि वाक़िये करबला खुल्लम खुल्ला तौर पर बयान किया जाय। चुनान्चे उरवा बिन सईद अशदक़ वाली ए मदीना ने यज़ीद को लिखा कि मदीने में जनाबे ज़ैनब की मौजूदगी लोगों में हैजान पैदा कर रही है। उन्होंने और उनके साथियों ने तुझ से ख़ूने हुसैन (अ.स.) के इन्तेक़ाम की ठान ली है। यज़ीद ने इत्तेला पा कर फ़ौरन वाली ए मदीना को लिखा कि ज़ैनब और उनके साथियों को मुन्तशर कर दे और उनको मुख़तलिफ़ मुल्कों में भेज दे।(हयात अल ज़हरा)

डा 0 बिन्ते शातमी अंदलसी अपनी किताब ‘‘ बतलतए करबला ज़ैनब बिन्ते ज़हरा ’’ प्रकाशित बैरूत के पृष्ठ 152 में लिखती हैं किे हज़रत ज़ैनब वाक़िये करबला के बाद मदीने पहुँच कर यह चाहती थीं कि ज़िन्दगी के सारे बाक़ी दिन यहीं गुज़ारें लेकिन वह जो मसाएबे करबला बयान करती थीं वह बे इन्तेहा मोअस्सिर साबित हुआ और मदीने के बाशिन्दों पर इसका बे हद असर हुआ। ‘‘ फ़क़तब वलैहुम बिल मदीनता इला यज़ीद अन वुजूद हाबैन अहलिल मदीनता महीज अल ख़वातिर ’’ इन हालात से मुताअस्सिर हो कर वालीए मदीना ने यज़ीद को लिखा कि जनाबे ज़ैनब का मदीने में रहना हैजान पैदा कर रहा है। उनकी तक़रीरों से अहले मदीना में बग़ावत पैदा हो जाने का अन्देशा है। यज़ीद को जब वालीए मदीना का ख़त मिला तो उसने हुक्म दिया कि इन सब को मुमालिको अम्सार में मुन्तशिर कर दिया जाय। इसके हुक्म आने के बाद वालीए मदीना ने हज़रते ज़ैनब से कहला भेजा कि आप जहां मुनासिब समझें यहां से चली जायें। यह सुनना था कि हज़रते ज़ैनब को जलाल आ गया और कहा कि ‘‘ वल्लाह ला ख़रजन व अन अर यक़त दमायना ’’ ख़ुदा की क़सम हम हरगिज़ यहां से न जायेंगे चाहे हमारे ख़ून बहा दिये जायें। यह हाल देख कर ज़ैनब बिन्ते अक़ील बिन अबी तालिब ने अर्ज़ कि ऐ मेरी बहन ग़ुस्से से काम लेने का वक़्त नहीं है बेहतर यही है कि हम किसी और शहर में चले जायें। ‘‘ फ़ख़्रहत ज़ैनब मन मदीनतः जदहा अल रसूल सुम्मा लम हल मदीना बादे ज़ालेका इबादन ’’ फिर हज़रत ज़ैनब मदीना ए रसूल से निकल कर चली गईं। उसके बाद से फिर मदीने की शक्ल न देखी। वह वहां से निकल कर मिस्र पहुँची लेकिन वहां ज़ियादा दिन ठहर न सकीं। ‘‘ हकज़ा मुन्तकलेतः मन बलदाली बलद ला यतमईन बहा अल्ल अर्ज़ मकान ’’ इसी तरह वह ग़ैर मुतमईन हालात में परेशान शहर बा शहर फिरती रहीं और किसी एक जगह मकान में सुकूनत इख़्तेयार न कर सकीं। अल्लामा मोहम्मद अल हुसैन अल अदीब अल नजफ़ी लिखते हैं ‘‘ व क़ज़त अल अक़ीलता ज़ैनब हयातहाबाद अख़यहा मुन्तक़लेत मन मल्दाली बलद तकस अलन्नास हना व हनाक ज़ुल्म हाज़ा अल इन्सान इला रख़या अल इन्सान ’’ कि हज़रत ज़ैनब अपने भाई की शहादत के बाद सुकून से न रह सकीं वह एक शहर से दूसरे शहर में सर गरदां फिरती रहीं और हर जगह ज़ुल्मे यज़ीद को बयान करती रहीं और हक़ व बातिल की वज़ाहत फ़रमाती रहीं और शहादते हुसैन (अ.स.) पर तफ़सीली रौशनी डालती रहीं।(ज़ैनब अख्तल हुसैन पृष्ठ 44 ) यहां तक कि आप शाम पहुँची और वहां क़याम किया क्यों कि बा रवायते आपके शौहर अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार की वहां जायदाद थी वहीं आपका इन्तेक़ाल ब रवायते अख़बारूल ज़ैनबिया व हयात अल ज़हरा रोज़े शम्बा इतवार की रात 14 रजब 62 हिजरी को हो गया। यही कुछ किताब ‘‘ बतलतए करबला ’’ के पृष्ठ 155 में है। बा रवाएते ख़साएसे ज़ैनबिया क़ैदे शाम से रिहाई के चार महीने बाद उम्मे कुलसूम का इन्तेक़ाल हुआ और उसके दो महीने बीस दिन बाद हज़रते ज़ैनब की वफ़ात हुई। उस वक़्त आपकी उम्र 55 साल की थी। आपकी वफ़ात या शहादत के मुताअल्लिक़ मशहूर है कि एक दिन आप उस बाग़ में तशरीफ़ ले गईं जिसके एक दरख़्त में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) का सर टांगा गया था। इस बाग़ को देख कर आप बेचैन हो गईं। हज़रत ज़ुहूर जारज पूरी मुक़ीम लाहौर लिखते हैं।

करवां शाम की सरहद में जो पहुँचा सरे शाम

मुत्तसिल शहर से था बाग़ , किया उसमें क़याम

देख कर बाग़ को , रोने लगी हमशीरे इमाम

वाक़ेया पहली असीरी का जो याद आया तमाम

हाल तग़ईर हुआ , फ़ात्मा की जाई का

शाम में लटका हुआ देखा था सर भाई का

बिन्ते हैदर गई , रोती हुई नज़दीके शजर

हाथ उठा कर यह कहा , ऐ शजरे बर आवर

तेरा एहसान है , यह बिन्ते अली के सर पर

तेरी शाख़ों से बंधा था , मेरे माजाये का सर

ऐ शजर तुझको ख़बर है कि वह किस का था

मालिके बाग़े जिनां , ताजे सरे तूबा था

रो रही थी यह बयां कर के जो वह दुख पाई

बाग़बां बाग़ में था , एक शकी़ ए अज़ली

बेलचा लेके चला , दुश्मने औलादे नबी

सर पे इस ज़ोर से मारा , ज़मीं कांप गई

सर के टुकड़े हुए रोई न पुकारी ज़ैनब

ख़ाक पर गिर के सुए ख़ुल्द सिधारीं ज़ैनब

हज़रत ज़ैनब का मदफ़न

अल्लामा मोहम्मद अल हुसैन अल अदीब अल नजफ़ी तहरीर फ़रमाते हैं। ‘‘ क़द अख़तलफ़ अल मुरखून फ़ी महल व फ़नहा बैनल मदीनता वश शाम व मिस्र व अली बेमा यग़लब अन तन वल तहक़ीक़ अलैहा अन्नहा मदफ़नता फ़िश शाम व मरक़दहा मज़ार अला लौफ़ मिनल मुसलेमीन फ़ी कुल आम ’’ ‘‘ मुवर्रेख़ीन उनके मदफ़न यानी दफ़्न की जगह में इख़्तेलाफ़ किया है कि आया मदीना है या शाम या मिस्र लेकिन तहक़ीक़ यह है कि वह शाम में दफ़्न हुई हैं और उनके मरक़दे अक़दस और मज़ारे मुक़द्दस की हज़ारों मुसलमान अक़ीदत मन्द हर साल ज़्यारत किया करते हैं। ’’(ज़ैनब अख़्तल हुसैन पृष्ठ 50 नबा नजफ़े अशरफ़) यही कुछ मोहम्मद अब्बास एम 0 ए 0 जोआईट एडीटर पीसा अख़बार ने अपनी किताब ‘‘ मशहिरे निसवां ’’ प्रकाशित लाहौर 1902 ई 0 के पृष्ठ 621 मे और मिया एजाज़ुल रहमान एम 0 ए 0 ने अपनी किताब ‘‘ ज़ैनब रज़ी अल्लाह अन्हा ’’ के पृष्ठ 81 प्रकाशित लाहौर 1958 ई 0 में लिखा है।

इमाम हुसैन अ.स. एक ऐसी ज़ात है जिस से पूरी दुनिया में हर मज़हब और जाति के लोग मोहब्बत करते और आपसे ख़ास अक़ीदत रखते हैं। हम सभी यह बात जानते हैं कि अर्मेनियाई, यहूदी और पारसी से ले कर बौध्दों और कम्युनिस्टों तक जिस किसी के दिल में भी ज़ुल्म और अत्याचार से नफ़रत होगी वह इमाम हुसैन अ.स. से दिली लगाव रखता होगा, और यह आसमानी शख़्सियत केवल मुसलमानों से विशेष नहीं है, इसके बावजूद इंसानियत के दुश्मन और बेदीन वहाबी टोले की हमेशा से कोशिश रही है कि अहले सुन्नत के दिल से इमाम अ.स. की मोहब्बत को कम कर दें और उनको पैग़म्बर स.अ. के नवासे इमाम हुसैन अ.स. की मुसीबत पर आंसू बहाने से महरूम रखें। इस लेख में हमारी कोशिश यह है कि हम इमाम हुसैन अ.स. के लिए अहले सुन्नत की मशहूर, अहम और भरोसेमंद किताबों में किस तरह के अक़ाएद और विचार हैं उनको बयान करें और पैग़म्बर स.अ. द्वारा इमाम हुसैन अ.स. की शान में बयान की गई हदीसों को इन्हीं किताबों से पेश करें ताकि इंसानियत के दुश्मन अपनी साज़िशों में हमेशा की तरह नाकाम रहें।

सबसे पहले हम इस बात को बयान करेंगे कि क्या अहले सुन्नत अल्लाह के अलावा किसी दूसरे के लिए आंसू बहाने को हराम और बिदअत समझते हैं? सूरए यूसुफ़ में अल्लाह हज़रत याक़ूब अ.स. के बारे में फ़रमाता है कि वह हमेशा हज़रत यूसुफ़ के बिछड़ने पर रोते रहते थे यहां तक कि आप हज़रत यूसुफ़ के लिए इतना रोए कि आपकी आंखों की रौशनी चली गई। अहले सुन्नत के बड़े आलिम जलालुद्दीन सियूती अपनी मशहूर तफ़सीर दुर्रुल मनसूर में लिखते हैं कि हज़रत याक़ूब अ.स. ने अपने बेटे हज़रत यूसुफ़ अ.स. के बिछड़ने के ग़म में 80 साल आंसू बहाए और उनकी आंखों की रौशनी चली गई। (दुर्रुल मनसूर, जलालुद्दीन सियूती, जिल्द 4, पेज 31) लेकिन क्या अहले सुन्नत की कुछ किताबों के मुताबिक़ मुर्दे के लिए आंसू बहाना जाएज़ है? तो इसका जवाब भी ख़ुद अहले सुन्नत की किताब में ही मौजूद है कि जब पैग़म्बर स.अ. हज़रत हम्ज़ा के जनाज़े पर पहुंचे तो जनाज़े को देख कर इतना रोए कि बेहोश हो गए। (ज़ख़ाएरुल उक़्बा, तबरी, जिल्द 6, पेज 686) तारीख़ में मिलता है कि ओहद के दिन सब अपने अपने शहीदों की लाश के पास बैठे आंसू बहा रहे थे, पैग़म्बर स.अ. की निगाह जब हज़रत हमज़ा की लाश पर पड़ी आपने कहा कि सब अपने अपने अज़ीज़ों की लाश पर आंसू बहा रहे हैं लेकिन कोई हज़रत हम्ज़ा पर आंसू बहाने वाला नहीं है, उन शहीदों की बीवियों ने पैग़म्बर स.अ. की यह बात जैसे ही सुनी सब अपने शहीदों की लाश को छोड़ कर हज़रत हम्ज़ा पर आंसू बहाने लगीं (मजमउज़ ज़वाएद, हैसमी, जिल्द 6, पेज 646) जिस दिन से पैग़म्बर स.अ. ने यह कहा कि मेरे चचा हज़रत हम्ज़ा पर कोई रोने वाला नहीं है, आपके अन्सार की बीवियां जब भी अपने शहीदों पर रोना चाहती थीं पहले हज़रत हम्ज़ा की मज़लूमी पर रोती थीं फिर अपने घर वालों का मातम करती थीं। (सीरए हलबी, जिल्द 2, पेज 247)

अज़ादारी और मरने वालों पर आंसू बहाने के बारे में अहले सुन्नत की किताबों में बहुत ज़्यादा हदीसें मौजूद हैं, लेकिन हम यहां पर संक्षेप की वजह से केवल एक हदीस उस्मान इब्ने अफ़्फ़ान से नक़्ल कर रहे हैं.... उस्मान एक क़ब्र के किनारे बैठ कर इस क़द्र रोए और आंसू बहाए कि उनकी दाढ़ी तक भीग गई थी। (सोनन इब्ने माजा, जिल्द 4, पेज 6246) लेकिन एक अहम सवाल यह है कि क्या अहले सुन्नत की किताबों में इमाम हुसैन अ.स. पर रोने के बारे में सही रिवायत और हदीस मौजूद है या नहीं? उम्मुल फ़ज्ल का इमाम हुसैन अ.स. की शहादत के बारे में ख़्वाब हाकिमे नेशापूरी ने मुस्तदरकुस सहीहैन में हारिस की बेटी उम्मुल फ़ज़्ल से नक़्ल करते हुए लिखा है कि, एक दिन मैंने बहुत अजीब ख़्वाब देखा और फिर पैग़म्बर स.अ. के पास जा कर बताया, पैग़म्बर स.अ. ने फ़रमाया अपना ख़्वाब बयान करो, उम्मुल फ़ज़्ल ने कहा ऐ अल्लाह के रसूल बहुत अजीब ख़्वाब है बयान करने की हिम्मत नहीं हो रही, पैंगम्बर स.अ. के दोबारा कहने पर उम्मुल फ़ज़्ल अपना ख़्वाब इस तरह बयान करती हैं, मैंने देखा कि आपके बदन का एक टुकड़ा जुदा हो कर मेरे दामन में आ गया, पैग़म्बर स.अ. ने फ़रमाया बहुत अच्छा ख़्वाब देखा है, फिर फ़रमाया बहुत जल्द मेरी बेटी फ़ातिमा स.अ. को अल्लाह एक बेटा देगा, और वह बेटा तुम्हारी गोद में जाएगा, जब इमाम हुसैन अ.स. पैदा हुए तो पैग़म्बर स.अ. ने उन्हें मेरी गोद में दे दिया, एक दिन इमाम हुसैन अ.स. मेरी गोद में थे मैं पैग़म्बर के पास गई, आपने इमाम अ.स. को देखा और आपकी आंखों में आंसू आ गए, मैंने कहा मेरे मां बाप आप पर क़ुर्बान हो जाएं आप क्यों रो रहे हैं, आपने फ़रमाया, अभी जिब्रईल आए थे और मुझे ख़बर दे गए कि मेरी ही उम्मत के कुछ लोग मेरे बेटे को शहीद कर देंगे, और जिब्रईल लाल रंग की मिट्टी भी दे गए हैं। हाकिम नेशापूरी इस रिवायत को लिखने के बाद कहते हैं यह रिवायत सही है लेकिन इसको बुख़ारी और मुस्लिम ने नक़्ल नहीं किया है। (अल-मुस्तदरक अलस-सहीहैन, हाकिम नेशापूरी, जिल्द 3, पेज 194, हदीस न. 4818)

इमाम हुसैन अ.स. पर पड़ने वाली मुसीबतों पर पैग़म्बर का आंसू बहाना अब्दुल्लाह इब्ने नजा अपने वालिद नजा से नक़्ल करते हैं कि वह इमाम अली अ.स. के साथ सिफ़्फ़ीन की जंग में जा रहे थे, रास्ते में इमाम अली अ.स. ने उनसे फ़रमाया कि फ़ुरात के किनारे रुक जाना, मैंने रुकने की वजह पूछी तो फ़रमाया, एक दिन पैग़म्बर स.अ. के पास गया उनकी आंखों में आंसू देखे, मैंने कहा ऐ रसूले ख़ुदा स.अ. आपको किसने रुलाया, पैग़म्बर स.अ. ने फ़रमाया अभी कुछ देर पहले जिब्रईल आए थे और ख़बर दे गए कि फ़ुरात के किनारे इमाम हुसैन अ.स. को शहीद किया जाएगा, फिर कहा क्या आप उस जगह की मिट्टी को सूंघना चाहते हैं, मैंने कहा हां, जैसे ही मेरे हाथ में वहां की मिट्टी रखी मैं अपने आंसुओं को नहीं रोक पाया। (मुस्नदे अहमद बिन हंबल, तहक़ीक़ अहमद मोहम्मद शाकिर, जिल्द 1, पेज 446) इन अहले सुन्नत की किताबों से पेश की गई हदीसों और रिवायतों से पैग़म्बर स.अ. का मरने वाले के लिए आंसू बहाना विशेष कर इमाम हुसैन अ.स. की शहादत की खबर सुन कर बेचैन हो कर आंसू बहाना साबित हो जाता है। अब भी वहाबी टोले का इमाम हुसैन अ.स. पर आंसू बहाने पर बिदअत और हारम के फ़तवे लगाने का एकमात्र कारण अहले बैत अ.स. के घराने से दुश्मनी के अलावा कुछ नहीं है।

 

 

 

मंगलवार, 15 जुलाई 2025 10:50

इमाम हुसैन के बा वफ़ा असहाब

इमाम हुसैन अलैहिस सलाम ने फ़रमाया:मैंने अपने असहाब से आलम और बेहतर किसी के असहाब को नही पाया।

हमारी दीनी तालीमात का पहला स्रोत क़ुरआने मजीद है। क़ुरआन के बाद हम जिन रिवायात का तज़किरा करते हैं वह दो तरह की हैं: 1. जिन को दरमियाने सुखन इस्तेमाल किया जाता है। 2. जिन को उनवाने कलाम क़रार दिया जाता है। दूसरी क़िस्म के बर अक्स पहली क़िस्म के सिलसिले में सनद के हवाले से ज़्यादा बहस नही होती है।

आम्मा व ख़ास्सा के अकसर मुहद्देसीन ने इस रिवायत का ज़िक्र किया है और बाज़ ने रावी के नाम के साथ ज़िक्र करने के बजाए सिर्फ़ क़ाला के साथ इस रिवायत को बयान किया है जो मुहद्दिस के इस यक़ीन पर दलालत करता है कि यह इमाम (अ) का कलाम है।

हम भी ‘ला आलम’ का इस्तेमाल करते हैं  और इमाम (अ) ने भी इस को इस्तेमाल किया है लेकिन मुतकल्लिम के ऐतेबार से इस के मअना बदल जाते हैं। हम यह जुमला कहें तो हमारी जिहालत पर दलालत करता है लेकिन जब यही लफ़्ज़ एक मुहक़्क़िक़, उस्ताद या मरजअ इस्तेमाल करता है तो यह उस चीज़ के अदमे वुजूद पर दलालत करता है। यह इकतेसाबी इल्म के उलामा हैं अब अगर इसी कलेमे को आलिमे इल्मे लदुन्नी इस्तेमाल कर रहा है तो इस का मतलब यह होगा कि इस कायनात में मेरे असहाब से बेहतर असहाब पाये ही नही जाते।

हो सकता है कि ज़ेहन में यह सवाल आये कि जब ला आलम का मअना ला यूजद है तो इमाम (अ) ने ला यूजद क्यों नही कहा तो इस का जवाब यह है कि यूजद फ़ेअले मुज़ारअ है जो हाल या ज़्यादा से ज़्यादा मुस्तिक़बिल के सिलसिले में दलालत करता है कि मेरे असहाब के जैसे असहाब नही पाये जाते है या नही पाये जायेगें लेकिन यह माज़ी को शामिल नही होता है। अगर माज़ी का सिग़ा इस्तेमाल किया जाये तो यह हाल व मुसतक़बिल को शामिल नही होगा। उन सब के बर ख़िलाफ़ ला आलम का ताअल्लुक़ मुतकल्लिम के इल्म से ताअल्लुक़ रखता है। अगर यह कलेमा एक फ़क़ीह इस्तेमाल करे तो इस का मतलब यह होगा कि फ़िक़ह की किताबों में यह मसला नही है इस का मतलब यह नही है कि ऐसा मसला कभी पेश ही नही आया या पेश नही आयेगा क्योकि हर आदमी अपने दायर ए इल्म के ऐतेबार से गुफ़तुगू करता है वह उस के आगे नही बता सकता। लिहाज़ा मुतकल्लिम के इल्म का दायरा जितना वसी होगा उस पर ला इल्म का दायरा भी उतना ही वसीअ होगा। अब अगर ऐसा मुतकल्लिम इस्तेमाल करे जो माज़ी के बारे में भी जानता हो और हाल व मुसतक़बिल के बारे में भी तो इस का मतलब है कि मेरे जैसे असहाब न माज़ी में थे न हाल में हैं और न ही कभी हो सकेगें।

यह ख़ुसूसियत सिर्फ़ असहाब की नही है कि वह अफ़ज़ल हैं बल्कि करबला मंसूब हुई तो अफ़ज़ल ज़मीन, अफ़ज़ल ख़ाक बन गई। ग़मख़्वार बहुत से हैं लेकिन हुसैनी ग़मख़ार अफ़ज़ल हैं इस लिये अगर हमें भी अफ़ज़ल बनना है तो हुसैनी बनना होगा।

इस जुमले का मतलब यह है कि जैसे असहाब इमाम हुसैन (अ) के हैं वैसे न रसूले ख़ुदा (स) के असहाब थे न अली (अ), न हसन (अ) के, क्योकि दुनिया में दूसरे अफ़राद के असहाब लायक़े तज़किरा भी नही हैं। ज़ाहिर है कि इमाम दूसरे अफ़राद के असहाब से अपने असहाब का तक़ाबुल नही करेगें। अब अगर यह पैग़म्बर (स) के असहाब से बरतर हैं तो दुनिया के तमाम असहाब से बरतर हैं।

बाज़ रिवायात में औला के बजाए औफ़ा का लफ़्ज़ है। लफ़्ज़े वफ़ा सुनने से पहले अहद व पैमान ज़ेहन में आता है कि जिसे पूरा किया जाये लेकिन तारीख़ ने इमाम हुसैन (अ) के साथ उन के असहाब का कोई ऐसा अहद व पैमान नक़्ल नही किया है बल्कि बाज़ असहाब तो रास्ते से आ कर मिलें हैं। सिर्फ़ एक अहद है और वह आलमे ज़र का अहद है। इस की ताईद उन रिवायात से भी होती है जिस में इमाम (अ) ने फ़रमाया कि मेरे यह असहाब आलमे ज़र में भी मेरे साथ थे नीज़ यह कि असहाब की एक फ़ेहरिस्त पहले से मौजूद थी।

इसी वजह से ख़ुद ख़ानदाने बनी हाशिम के बाज़ अफ़राद इमाम (अ) के साथ नही आये क्योकि यह एक राज़े इलाही है जो आलमे ज़र में तय हो चुका था और इसी से इस ऐतेराज़ का जवाब भी मिल जाता है कि जो बाज़ अहले सुन्नत करते हैं कि अगर कूफ़ा के अफ़राद नही आये तो ख़ुद ख़ानदाने बना हाशिम के भी बाज़ अफ़राद नही आये?

इस के अलावा अफ़ज़ल होने की कोई वजह होती है। यह असहाब किस ज़ाविये से, किस जेहत से सब से बेहतर हैं। तीन चीज़ें फ़र्ज़ की जा सकती है:

    इजमाल, यानी इमाम (अ) की नज़र में कोई जेहत थी ही नही और यह नामुमकिन है।

    तक़ईद, कलाम में कोई क़ैद भी नही है।

    इतलाक़, जब क़ैद नही है तो इस का मतलब यह है कि मेरे असहाब हर ऐतेबार से दूसरे असहाब से बेहतर हैं। चाहे वह मारेफ़त का मैदान हो या इबादत, इताअत का हो या अख़लाक़ का।

 

यहाँ पर सिर्फ़ मारेफ़त का तज़किरा करता हूँ। जंग में मौला ए कायनात मुसल्ला बिछा देते हैं तो इब्ने अब्बास सवाल करते हैं कि मौला यह नमाज़ का वक़्त है? इमाम (अ) ने फ़रमाया कि हम इसी नमाज़ के लिये तो जंग कर रहे हैं। शायद इमाम हुसैन (अ) ने अमदन नमाज़ के लिये ख़ुद नही कहा ता कि मालूम हो जाये कि मेरे असहाब माले ग़नीमत या किसी और बुनियाद पर जंग नही कर रहे हैं।

इमाम (अ) जब यह फ़रमाते हैं तो इब्ने मज़ाहिर उठ कर यह कहते हैं

कि मेरे मौला, हम अपनी औरतों को क़बील ए बनी असद में क्यो भेजें?

इमाम (अ) ने फ़रमाया क्योकि मेरे बाद मेरी ख़्वातीन को असीर किया जायेगा।

यह सुन कर इब्ने मज़ाहिर ख़ैमे में जाते हैं और अपनी ज़ौजा को यह पैग़ाम सुनाते हैं वह कहती है कि आप का क्या इरादा है? इब्ने मज़ाहिर कहते हैं कि उठ कर मेरे साथ चलो वह कहती है ‘मा अनसफ़तनी यबना मज़ाहिर’ आप ने इंसाफ़ नही किया। क्या आप को यह गवारा है कि अहले बैत (अ) की ख़्वातीन असीर हो जायें और मैं अमान में रहूँ। आप जायें मर्दों का साथ दें.....।

हैफ़ा विश्वविद्यालय के एक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ का कहना है कि इज़राइल अमेरिकी समर्थन के बिना कुछ भी नहीं कर सकता।

जब हैफ़ा विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ बेंजामिन मिलर से पूछा गया कि क्या इज़राइल, अमेरिकी समर्थन के बिना कुछ कर सकता है, तो उन्होंने एक शब्द में कहा: "नहीं।"

दशकों से अमेरिका द्वारा इज़राइल को प्रदान की गई सैन्य श्रेष्ठता के बावजूद, अक्टूबर 2023 से इज़राइल द्वारा छेड़े गए युद्धों ने इसकी कमजोरी और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में असमर्थता को उजागर कर दिया है।

अपनी स्थापना के बाद से, इज़राइल ने सैन्य श्रेष्ठता और अमेरिकी समर्थन पर भरोसा करते हुए इस क्षेत्र में प्रभाव हासिल किया है, लेकिन यह प्रभाव सुरक्षा मुद्दों तक ही सीमित रहा है।

तूफ़ान अल-अक्सा, गाजा युद्ध, हिजबुल्लाह के साथ टकराव और विशेष रूप से ईरान के साथ युद्ध ने यह ज़ाहिर कर दिया कि इज़राइल एक दिन भी आत्मनिर्भर नहीं हो सकता है और इज़रायल के एक क्षेत्रीय शक्ति बनने के नेतन्याहू के दावे को ढांचागत, राजनीतिक और सामाजिक बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है जो इसकी सैन्य क्षमताओं से परे हैं।

ईरान के साथ युद्ध के बाद, नेतन्याहू ने दावा किया कि इज़राइल महाशक्तियों में से एक है। इस दावे के जवाब में, हमें सिर्फ़ ट्रम्प का वह बयान याद आता है जिसमें उन्होंने ईरान के साथ युद्ध रुकने के बाद कहा था कि हमने ईरान के साथ युद्ध में इज़राइल को "निजात" दिला दी।

 इज़राइल और क्षेत्रीय गुंडागर्दी की चाहत

 क्षेत्रीय आधिपत्य या गुंडागर्दी एक ऐसे देश का वर्णन करने के लिए प्रयुक्त शब्द है जो किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। क्षेत्रीय आधिपत्य की एक अन्य परिभाषा है, एक ऐसा देश जो किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र से संबंधित हो और उस क्षेत्र पर आर्थिक और सैन्य रूप से प्रभुत्व रखता हो और वहां तथा वैश्विक स्तर पर क्षेत्रीय आधिपत्य स्थापित करने में सक्षम हो।

प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय मामलों के टीकाकार स्टीफन वॉल्ट का कहना है कि क्षेत्रीय शक्तियां अपने पड़ोसियों की तुलना में इतनी शक्तिशाली हैं कि उन्हें किसी भी प्रकार की सुरक्षा संबंधी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ता है और उन्हें किसी भी समय किसी वास्तविक प्रतिद्वंद्वी के उभरने की कोई चिंता नहीं होती।

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि इज़राइल के पास इनमें से कोई भी मानक नहीं है, और इस संबंध में, वे यमन और ग़ज़ा पट्टी में हमास आंदोलन की ओर इशारा करते हैं, जो लगभग दो साल के युद्ध और व्यापक विनाश के बावजूद इज़राइल को आसानी से चुनौती दे रहे हैं।

 इज़राइल की लाचारी के सबसे अहम निशानियां

अमेरिका के बिना इज़राइल कुछ भी नहीं है, ईरान ने इस निर्भरता को कैसे चुनौती दी?

इस बात के सबसे स्पष्ट प्रमाण हैं कि इज़राइल कभी भी क्षेत्रीय शक्ति नहीं बना सकेगा, बल्कि एक आश्रित शासन बना रहेगा, ये हैं:

 सैन्य सीमित्ताएं

 इज़राइल द्वारा छेड़े गए युद्धों के कारण 2024 में उसका सैन्य खर्च 65 प्रतिशत बढ़ गया और 46.5 अरब डॉलर हो गया, जो 1967 के छह-दिवसीय युद्ध के बाद से उसका सबसे अधिक सैन्य खर्च है।

इन बढ़ती लागतों के बावजूद, ग़ज़ा, लेबनान और ईरान पर इज़राइल के हमले हमास को कमज़ोर करने में भी कामयाब नहीं हुए हैं, और यह आंदोलन इज़राइल के ख़िलाफ संघर्ष जारी रखे हुए है।

पत्रिका "मॉडर्न डिप्लोमेसी" ने एक रिपोर्ट में ज़ोर देकर कहा है कि नेतन्याहू के तमाम दावों के बावजूद, इज़राइल के जून 2025 के हमले ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने में नाकाम रहे।

"इज़राइल इंस्टीट्यूट फॉर नेशनल सिक्योरिटी स्टडीज़" के अनुसार, 7 अक्टूबर, 2023 को, इज़राइल का "सैन्य सिद्धांत", जो डिफ़ेंस, चेतावनी और विजय की तीन मूलभूत परतों पर आधारित है, ढेर हो गया।

ईरानी मिसाइल हमलों के बाद मक़बूज़ा क्षेत्रों में तबाह इमारतें

 अमेरिका पर निर्भरता

 नेतन्याहू के दावों के बावजूद, इज़राइल अपनी सैन्य शक्ति के लिए पूरी तरह से अमेरिका और यूरोप पर निर्भर है। फ़ारेन पॉलिसी कहती है कि इज़राइल अपनी सभी प्रगति, खासकर सैन्य तकनीक के क्षेत्र में, अमेरिका की बदौलत हासिल करता है।

जब हैफ़ा विश्वविद्यालय के इन्टरनेश्नल रिलेशनशिप के विशेषज्ञ बेंजामिन मिलर से पूछा गया कि क्या इज़राइल अमेरिकी समर्थन के बिना कुछ कर सकता है, तो उन्होंने एक शब्द में कहा: "नहीं।"

इज़राइल को अमेरिका से सालाना 3.8 अरब डॉलर की सैन्य सहायता मिलती है और संयुक्त राष्ट्र संघ सहित अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उसे बिना शर्त समर्थन प्राप्त है।

मिलर ने कहा, अमेरिकी हथियार समर्थन बंद होने से इज़राइल के सामने बड़ी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी।

 अमेरिका के बिना इज़राइल कुछ भी नहीं है, ईरान ने इस निर्भरता को कैसे चुनौती दी?

 क्षेत्रीय वैधता की कमी

 वॉल्ट का कहना है कि पश्चिमी तट और यरुशलम पर उसके क़ब्ज़े, ग़ज़ा युद्ध और फ़िलिस्तीनियों के नरसंहार की वजह से इज़राइल को दुनिया के सामने एक क़ब्ज़ाधारी और दमनकारी शासन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

 

मॉडर्न डिप्लोमेसी के अनुसार, इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध रखने वाले देशों ने भी ये संबंध विशिष्ट कारणों से और पश्चिम के दबाव में स्थापित किए हैं, न कि इज़राइल के आधिपत्य की वजह से।

 

ग़ाज़ा पट्टी पर इज़रायल के सैन्य हमले के बीच.इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री एहुद ओल्मर्ट ने क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में इज़रायली बस्तियों के बढ़ते अत्याचारों का खुलासा किया है और इन कार्रवाइयों को युद्ध अपराध बताया है।

ग़ाज़ा पट्टी पर इज़रायल के सैन्य हमले के बीच.इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री एहुद ओल्मर्ट ने क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक में इज़रायली बस्तियों के बढ़ते अत्याचारों का खुलासा किया है और इन कार्रवाइयों को युद्ध अपराध बताया है।

शनिवार रात इज़रायली चैनल 13 से बात करते हुए ओल्मर्ट ने ज़ायोनी चरमपंथी समूह शबान अलतलाल (पहाड़ियों के युवा) की ओर इशारा करते हुए कहा,यहूदी हर दिन वेस्ट बैंक में फ़िलिस्तीनीयों को मार रहे हैं यह समूह युद्ध अपराध कर रहा है।

उन्होंने इस बात को ख़ारिज किया कि ये सिर्फ एक छोटा-सा चरमपंथी गुट है उन्होंने कहा,इस चरमपंथी गुट को समर्थन हासिल है। अगर उन्हें समर्थन हासिल है नहीं तो वे ऐसा करने की हिम्मत नहीं करते।

यह समूह, जिसकी स्थापना 1998 में हुई थी, ग्रेटर इज़रायल की विचारधारा में यक़ीन रखता है और फ़लस्तीनीयों को पूरी तरह बाहर निकालने को अपना लक्ष्य मानता है। इसके सदस्य ज़्यादातर अवैध इज़रायली बस्तियों में रहते हैं और इन्होंने कई अन्य चरमपंथी गुटों को भी जन्म दिया है।

ओल्मर्ट ने इससे पहले मई में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में भी चेतावनी दी थी कि इज़रायल सिर्फ ग़ाज़ा में ही नहीं बल्कि वेस्ट बैंक में भी हर दिन युद्ध अपराध कर रहा है। उन्होंने ग़ाज़ा युद्ध को “बेवजह, दिशाहीन और बंधकों को छुड़ाने में नाकाम” बताया था और फ़िलिस्तीनी आम नागरिकों व इज़रायली सैनिकों की बड़ी संख्या में मौत को शर्मनाक कहा था।

फ़िलिस्तीनी संस्थाओं के अनुसार, ग़ाज़ा पर हमलों के साथ साथ, वेस्ट बैंक में भी इज़रायली सेना और बस्तियों की हिंसा तेज़ हुई है, जिससे अब तक कम से कम 998 फ़िलिस्तीनी मारे जा चुके हैं, करीब 7000 घायल हुए हैं और 18000 से अधिक को गिरफ़्तार किया जा चुका है।

 

रूसी विदेश मंत्रालय ने रविवार को एक अमेरिकी मीडिया के इस दावे को "गंदा राजनीतिक प्रचार" बताया है कि रूसी राष्ट्रपति ने ईरान से अमेरिका के साथ "जीरो एनरिचमेंट" वाले समझौते को स्वीकार करने का अनुरोध किया था।

रूसी विदेश मंत्रालय ने अमेरिकी मीडिया एक्सियोस के दावों के जवाब में एक बयान जारी करके कहा: "अनुमान लगाया जा सकता है कि इस बार यह झूठा प्रचार किसने करवाया है। 'पुतिन ने ईरान से अमेरिका के साथ जीरो एनरिचमेंट समझौता करने को कहा' शीर्षक वाली यह रिपोर्ट स्पष्ट रूप से एक और गंदा राजनीतिक प्रचार है, जिसका एकमात्र उद्देश्य ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर तनाव बढ़ाना है।"

 इस्ना न्यूज़ एजेंसी के हवाले से बताया है कि रूसी विदेश मंत्रालय ने बल देकर कहा कि मा᳴स्को लगातार इस बात पर बल देता रहा है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से जुड़े मुद्दे का समाधान केवल राजनीतिक और कूटनीतिक तरीकों से ही हो सकता है। साथ ही रूस ने दोनों पक्षों को स्वीकार्य समाधान खोजने में मदद करने की अपनी तत्परता भी दोहराई।

 रूसी विदेश मंत्रालय ने अपने बयान के अंत में कहा: " मा᳴स्को दुनिया भर के मीडिया से अपील करता है कि वे सूचना प्राप्त करने के लिए केवल आधिकारिक स्रोतों का उपयोग करें, मुद्दों की गहराई से जांच करें और ग़लत खबरें न फैलाएं।"

शनिवार को अमेरिकी समाचार-विश्लेषण वेबसाइट एक्सियोस ने अपने सूत्रों के हवाले से रिपोर्ट दी थी कि रूसी राष्ट्रपति ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और ईरानी अधिकारियों से कहा है कि वे एक परमाणु समझौते के विचार का समर्थन करते हैं जिसमें ईरान यूरेनियम संवर्धन करने में सक्षम नहीं होगा।

 ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास इराक़ची ने शनिवार को तेहरान में विदेशी दूतावासों के राजदूतों, चार्ज डी'अफेयर्स और प्रमुखों के साथ बैठक में पश्चिम के साथ किसी भी संभावित समझौते के हिस्से के रूप में यूरेनियम संवर्धन पर प्रतिबंध लगाने के मुद्दे पर कहा: "हम इस बात पर जोर देते हैं कि किसी भी वार्ता समाधान और बातचीत में, ईरानी लोगों के परमाणु अधिकारों, जिसमें संवर्धन का अधिकार शामिल है, का सम्मान किया जाना चाहिए और हम ऐसा कोई समझौता नहीं करेंगे जिसमें संवर्धन शामिल न हो।"

 ईरानी विदेश मंत्री ने बल देकर कहा कि संवर्धन ईरानी वैज्ञानिकों की एक बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि है और हम इस उपलब्धि की रक्षा करेंगे हालांकि अमेरिकी सरकार अभी भी ज़ोर देती है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर इस्लामिक गणतंत्र ईरान के साथ किसी भी समझौते में ईरान में संवर्धन को समाप्त करना शामिल होना चाहिए।

 

धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन की कड़ी में आल खलीफा सरकार ने बहरैन के सनाबिस इलाके में स्थित बिन खमीस इमामबारगाह में आशूरा प्रदर्शनी के आयोजन पर रोक लगा दी और इमामबारगाह के प्रबंधकों को बुलाकर उन पर दबाव डाला, ताकि शिया धार्मिक समारोहों को और सीमित किया जा सके।

14 फरवरी क्रांति के युवाओं के संघ की इलेक्ट्रॉनिक वेबसाइट की जानकारी के मुताबिक, आल खलीफा सरकार से जुड़ी सुरक्षा बलों ने अपने हालिया दमनकारी कार्रवाई में शिया धार्मिक कार्यक्रमों के खिलाफ, मोहर्रम की रातों में मनामा के बाहरी इलाके सनाबिस में बिन खमीस इमामबारगाह में एक धार्मिक प्रदर्शनी के आयोजन को रोका है। 

यह प्रदर्शनी जो बहरैन के शिया समुदाय की मोहर्रम के दौरान आयोजित होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों का हिस्सा थी और इमाम हुसैन (अ.स.) के संघर्ष को समर्पित थी, प्रतिबंध से पहले जनता के बीच काफी लोकप्रिय थी। 

आल खलीफा अधिकारियों ने गुरुवार, 10 जुलाई को इमामबारगाह के प्रबंधकों को बुलाकर उनके खिलाफ जांच की और स्पष्ट रूप से धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजकों को डराने और धार्मिक स्वतंत्रता को और सीमित करने की कोशिश की है। 

रिपोर्ट्स के अनुसार, मोहर्रम की शुरुआत से ही बहरैनी सरकार ने शिया समुदाय के खिलाफ अपनी कार्रवाइयाँ तेज कर दी हैं, जिनमें काले झंडों को जब्त करना, धार्मिक वक्ताओं और नौहा ख़्वानों की गिरफ्तारी, मातमी समारोहों पर प्रतिबंध और शिया बहुल इलाकों में मजलिसों को निशाना बनाना शामिल है। 

गौरतलब है कि बहरैन आधिकारिक तौर पर धार्मिक सहिष्णुता का दावा करता है, लेकिन इस समय अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा शिया अधिकारों के राजनीतिक उल्लंघनों की आलोचना का सामना कर रहा है।

 

सीरिया में निर्दोष मोमिनीन और जागरूक उलेमा पर हुए निर्मम हमले के खिलाफ हौज़ात-ए-इल्मिया ख़्वाहरान ने एक बयान जारी करते हुए इसे साम्राज्यवादी साजिश करार दिया है।

सीरिया में निर्दोष मोमिनीन और जागरूक उलेमा पर हुए निर्मम हमले के खिलाफ हौज़ात-ए-इल्मिया ख़्वाहरान ने एक बयान जारी करते हुए इसे साम्राज्यवादी साजिश करार दिया है।

बयान की शुरुआत में सूरह निसा की आयत

وَمَن يَقْتُلْ مُؤْمِنًا مُّتَعَمِّدًا فَجَزَاؤُهُ جَهَنَّمُ..."

और जो कोई जानबूझकर किसी मोमिन को मार डाले, तो उसकी सज़ा जहन्नम है को उद्धृत करते हुए इस दर्दनाक घटना पर गहरा दुख और शोक व्यक्त किया गया है।

बयान में कहा गया है कि एक बार फिर तकफीरी गिरोहों और इस्लाम के दुश्मनों के नापाक हाथ निर्दोषों के खून से रंगे गए हैं और सीरिया के निहत्थे मोमिनीन, खासकर बसीरतमंद उलेमा को बर्बरता का निशाना बनाया गया है।

बयान में निम्नलिखित मुख्य बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है:

1.यह हमले पश्चिमी और सियोनिस्ट इस्लाम-विरोधी ताकतों की साजिश का हिस्सा हैं जो इराक, अफगानिस्तान और यमन में भी शियान-ए-अहलेबैत (अ.स.) के खिलाफ अत्याचार कर चुके हैं।

2.अंतरराष्ट्रीय संगठनों की चुप्पी मानवता के साथ धोखा है  संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय अदालतें और मानवाधिकार संगठन इस नरसंहार पर चुप क्यों हैं? क्या शिया खून का कोई मोल नहीं? क्या सिद्धांत, स्वार्थ के आगे बलि चढ़ चुके हैं?

3.हम प्रतिरोध आंदोलनों के साथ खड़े है हौज़ा-ए-इल्मिया ख़्वाहरान ने शहीदों के परिवारों, मजलूम जनता और प्रतिरोध मोर्चे का समर्थन करने की घोषणा की है और वैश्विक जागरूकता के लिए आवाज उठाने का संकल्प जताया है।

4.शहीद इस्लामी जागृति की पूंजी हैं बयान में जोर देकर कहा गया है कि इन मजलूमों का खून उम्मत को जगाएगा और दुश्मनों की साजिशें एकता और जागरूकता को रोक नहीं सकेंगी।

बयान के अंत में,हौज़ा-ए-इल्मिया ख़्वाहरान के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मुजतबा फाज़िल ने इमाम-ए-जमाना (अ.ज.), रहबर-ए-इंकेलाब-ए-इस्लामी और शहीदों के परिजनों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए जोर देकर कहा कि इन अत्याचारों का जवाब दिया जाएगा, और हुसैनी मकतब हर जमाने में जुल्म के सामने डटकर खड़ा रहेगा।