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ईश्वरीय आतिथ्य-7

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ईश्वरीय आतिथ्य-7

ईश्वर पर भरोसा

रमज़ान का पवित्र महीना ईश्वरीय दया के अथाह सागर में डुबकी लगाने का अवसर प्रदान करता है। आशा है कि इस महीने के बाक़ी बचे दिनों में हमें इस बात का सामर्थ्य प्राप्त हो सकेगा कि हम इस ईश्वरीय आतिथ्य के उचित और समर्थ अतिथि बन सकें। कार्यक्रम का आरंभ पवित्र रमज़ान महीने की एक दुआ से कर रहे हैं। प्रभुवर! इस दिन मुझे उन लोगों में शामिल कर जो हर काम में तुझ पर भरोसा करते हैं और जिन्हें तेरे निकट कल्याण प्राप्त होता है और जो तेरे निकट बंदे हैं, तुझे तेरी भलाई का वास्ता! हे प्रार्थना करने वालों की आशाओं के चरम बिंदु!

इस प्रार्थना में एक अत्यंत सुंदर एवं प्रभावी सद्गुण की बात की गई है जिस पर धार्मिक शिक्षाओं में बारंबार बल दिया गया है। यह सद्गुण है ईश्वर पर भरोसा और केवल उसी की असीम शक्ति से सहायता चाहना। इस नैतिक गुण को अरबी भाषा में तवक्कुल कहा जाता है। एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने ईश्वर के प्रिय दूत जिब्रईल से पूछा कि ईश्वर पर तवक्कुल का अर्थ क्या है? उन्होंने कहा कि यह जानना कि ईश्वर की रचनाएं न तो लाभ पहुंचाती हैं और न ही हानि तथा वे कोई भी वस्तु प्रदान नहीं कर सकतीं। तवक्कुल का अर्थ है लोगों से किसी भी प्रकार की आशा न रखना। जब कोई व्यक्ति इस चरण तक पहुंच जाता है तो फिर वह अपने समस्त कर्म ईश्वर के लिए ही करता है और किसी अन्य से कोई आशा नहीं रखता। वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी से नहीं डरता और उसे ईश्वर को छोड़ कर किसी से कोई लोभ नहीं होता। यह है तवक्कुल या ईश्वर पर भरोसे की परिभाषा।

अलबत्ता ईश्वर पर भरोसे का अर्थ यह नहीं है कि लोगों से सहायता न ली जाए क्योंकि ईश्वर ने लोगों को एक दूसरे की सहायता और कठिनाइयों के निवारण का साधन बनाया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य ईश्वर को ही अपने कार्यों में प्रभावी और मुख्य सहायक माने। एक व्यक्ति ने कहा कि जब भी मुझ पर सांसारिक कठिनाइयां पड़ती हैं मैं सूरए ज़ुमर की 36 आयत के इस भाग की तिलावत करता हूं कि क्या ईश्वर अपने बंदे के लिए पर्याप्त नहीं है। इस आयत की तिलावत मुझे विशेष शांति प्रदान करती है और मैं अपने हर कार्य को ईश्वर के हवाले कर देता हूं तथा केवल उसी से सहायता मांगता हूं। जी हां, हर मामले में ईश्वर पर भरोसे और उसी से आशा रखने का नाम तवक्कुल है। मोमिन व्यक्ति अपने हर काम में ईश्वर पर ही भरोसा रखता है और केवल उसी से सहायता चाहता है। सूरए तलाक़ की तीसरी आयत के एक भाग में कहा गया है कि जो कोई ईश्वर पर भरोसा करे तो ईश्वर उसके मामले के लिए पर्याप्त है। इसी प्रकार ईश्वर क़ुरआने मजीद में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहता हैः तो जब भी आप किसी कार्य का संकल्प कर लें तो ईश्वर पर ही भरोसा करें कि निस्संदेह ईश्वर को वे लोग प्रिय हैं जो उस पर भरोसा करते हैं।

यह आयत एक महत्वपूर्ण बिंदु की ओर संकेत करती है और वह यह कि जब किसी कार्य के लिए दृढ़ संकल्प कर लिया जाए तब ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए। इस आयत से पता चलता है कि मोमिन व्यक्ति को कर्म के साथ ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए। ऐसा न हो कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और बिना कोई काम किए ही ईश्वर पर भरोसे का दावा करें। इस प्रकार के तवक्कुल का कोई परिणाम नहीं होगा क्योंकि ईश्वर पर भरोसे का कदापि यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य कार्य का संकल्प और कर्म न करे। अतः अपने प्रयासों के साथ ईश्वर पर भरोसा करने वाला मनुष्य ही उसकी विशेष अनुकंपाओं व कृपा का पात्र बनता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि धीरज रखो, ईश्वर पर भरोसा करो, चिंतन करो और फिर काम करने के लिए तैयार हो जाओ। तब तुम ईश्वर के हाथों को देखोगे जो तुमसे पहले काम आरंभ कर देंगे।

रमज़ान का पवित्र महीना मुनष्य के समक्ष इस बात का मार्ग खोल देता है कि वह तेज़ी के साथ परिपूर्णता की ओर आगे बढ़े। यह महीना शिष्टाचारिक शिक्षाओं को ग्रहण करने का एक उचित अवसर है। इस महीने में ईश्वर को प्रिय व्यवहार अपना कर तथा अपने भीतर से बुराइयों व अवगुणों को दूर करके ईश्वर के सामिप्य के लिए ऊंची छलांग लगाई जा सकती है। अतः हमें प्रयास करना चाहिए कि रमज़ान के पवित्र महीने में अपने हृदय को ईश्वर के प्रेम का घर बनाएं ताकि शैतान के उकसावों के लिए कोई स्थान बाक़ी न बचने पाए। एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने अपने साथियों से कहा कि क्या तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें ऐसे काम से अवगत कराऊं जो शैतान को तुमसे उतना दूर कर दे जितना पूरब पश्चिम से दूर है? उनके साथियों ने बड़ी उत्सुकता से उत्तर दिया कि जी हां! हे ईश्वर के दूत! पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कहा कि रोज़ा रखो क्योंकि रोज़ा शैतान के मुंह पर कालिख पोत देता है।

शैतान, मनुष्य का कट्टर शत्रु है। जिस दिन मानव के शरीर में ईश्वरीय आत्मा फूंके जाने के कारण उसे अन्य रचनाओं पर एक विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त हुई उसी दिन से शैतान ईर्ष्या और द्वेष की आग में जलने लगा। उसने आदम को सज्दा करने से इन्कार कर दिया और स्वयं को ईश्वर की दया और उसके सामिप्य से वंचित कर लिया। उसी के बाद से वह सदैव मनुष्य की घात में बैठा रहता है ताकि उसे परिपूर्णता के मार्ग से दूर रखे। उसके ये कुप्रयास मनुष्य के जीवन की अंतिम घड़ी तक जारी रहते हैं और वह उसे मोक्ष व कल्याण से दूर रखने का हर संभव प्रयास करता है। शैतान अपने उकसावों के माध्यम से मनुष्य के कमज़ोर बिंदुओं से लाभ उठा कर उसे पथभ्रष्ट करने का प्रयास करता है। शैतान के उकसावों में आना, मनुष्य की कमज़ोरी का चिन्ह है क्योंकि शैतान की शक्ति केवल मनुष्य को पाप करने पर उकसाने की सीमा तक ही है और वह उसे कदापि विवश नहीं कर सकता।

क़ुरआने मजीद के अनुसार शैतान का प्रभुत्व ढीले ईमान वाले ऐसे लोगों पर होता है जो उसके शासन को स्वीकार करते हैं। शैतान, पाप करने के लिए उकसाता भी है और पाप का औचित्य भी उसके मन में डालता है। सूरए नहल की आयत संख्या 99 और 100 में कहा गया है कि निश्चित रूप से शैतान को उन लोगों पर कोई नियंत्रण प्राप्त नहीं है जो ईमान लाए तथा अपने पालनहार पर भरोसा करते रहे। उसे तो केवल उन्हीं लोगों पर नियंत्रण प्राप्त है जिन्होंने उसे अपने अभिभावक के रूप में चुन लिया है। शैतान के उकसावे अत्यंत जटिल होते हैं, इस प्रकार से कि अधिकांश लोग अपने इस ख़तरनाक शत्रु द्वारा लगाई गई सेंध को नहीं समझ पाते। अलबत्ता जिन लोगों का ईमान मज़बूत होता है और जो अपने पालनहार पर भरोसा करते हैं वे शैतानी उकसावों को शीघ्र ही समझ लेते हैं और अनुचित कर्म बल्कि ग़लत सोच की ओर से भी सावधान हो जाते हैं तथा अपने पालनहार की शरण में चले जाते हैं।

मोमिन व्यक्ति अपने ईमान और ईश्वर से भय के कारण, ईश्वरीय मार्गदर्शन और शैतानी उकसावों के बीच के अंतर को भली भांति समझ लेता है। ईश्वरीय मार्गदर्शन, ईमान की सहायता से मनुष्य के अस्तित्व में प्रफुल्लता उत्पन्न करता है क्योंकि वह मनुष्य की पवित्र प्रवृत्ति से समन्वित है किंतु शैतानी उकसावे चूंकि मानव प्रवृत्ति से मेल नहीं खाते इस लिए मनुष्य को जब भी उनका सामना होता है तो उसके भीतर अप्रसन्नता का भाव उत्पन्न होता है। इस्लाम धर्म में उपासना संबंधी सभी शिक्षाएं शैतान और उसके उकसावों से मुक़ाबले के लिए हैं। ये शिक्षाएं उसके अधिक सावधान व होशियार होने तथा उसकी अंतरात्मा के प्रशिक्षण का कारण बनती हैं। इनमें रमज़ान के पवित्र महीने के रोज़ों का विशेष स्थान है। रोज़ा एक ऐसा कार्यक्रम है जो पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के शब्दों में शैतान को मनुष्य से दूर कर देता है और उसमें ईमान व संकल्प को दृढ़ बनाने का अवसर उत्पन्न करता है।

एक बार सिकंदर किसी नगर को विजय करने के लिए गया। उसने उस नगर में कुछ ऐसी बातें देखीं जो उसने पहले कभी नहीं देखी थीं। उसने देखा कि नगर का द्वार खुला हुआ है, दुकानों और घरों में दरवाज़े नहीं हैं और लोग रात के समय अपनी दुकानों को खुला छोड़ कर अपने घर चले जाते हैं। सिकंदर ने उस नगर के लोगों के व्यवहार पर ध्यान दिया तो उसे एक दूसरे के प्रति प्रेम व स्नेह के अतिरिक्त उनके बीच कुछ और दिखाई नहीं दिया। सभी एक दूसरे से प्रेम, सहयोग और भाईचारे का व्यवहार करते थे। एक अन्य बात जिसने सिकंदर का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया यह थी कि उस नगर में कोई क़ब्रस्तान नहीं था और हर घर के सामने ही क़ब्रें बनी हुई थीं। उसने क़ब्रों पर लिखे हए वाक्यों पर ध्यान दिया तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ की सभी का निधन पंद्रह से पैंतीस वर्ष की आयु में हुआ था।

सिकंदर ने उस नगर के एक बूढ़े व्यक्ति से पूछा कि मैंने संसार के अनेक नगरों पर विजय प्राप्त की है किंतु मैंने तुम्हारे नगर जैसा कोई शहर नहीं देखा। नगर का द्वार और प्रहरी क्यों नहीं हैं? वृद्ध ने उत्तर दिया कि प्रहरी चोरों के लिए होते हैं और यहां कोई भी चोर नहीं है। हम सब एक दूसरे का ध्यान रखते हैं और एक दूसरे की संपत्ति की रक्षा करते हैं। सिकंदर ने प्रश्न किया कि तुम लोगों के बीच एक विचित्र भाईचारा है, उसका कारण क्या है? बूढ़े व्यक्ति ने कहा कि आश्चर्य न करें क्योंकि प्रेम व स्नेह बुद्धि का चिन्ह है और यदि कहीं पर प्रेम व स्नेह न हो तो आश्चर्य करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति अत्याचार करना चाहता है तो उसे सबे पहले अपनी बुद्धि और अंतरात्मा को पैरों तले कुचलना होगा। क़ब्रों के संबंध में पूछे गए सिकंदर के प्रश्न के बारे में वृद्ध ने कहा कि हम इस कारण अपने घरों के सामने क़ब्रें बनाते हैं ताकि जब भी हम अपने घरों से बाहर आएं तो उन पर हमारी आंख पड़े और हमें यह नसीहत मिले की ये लोग मर चुके हैं और हमें भी मरना है अतः हम अपने व्यवहार की ओर से सावधान रहें। और क़ब्रों पर जो यह लिखा हुआ है कि किसी भी व्यक्ति की आयु पैंतीस साल से अधिक नहीं थी तो उसका कारण यह है कि हमारे जीवन में झूठ और दिखावा नहीं है। हमारे लिए जो बात मानदंड है वह मनुष्य की लाभदायक आयु है। यदि हम क़ब्र पर यह लिखें कि अमुक व्यक्ति की आयु सत्तर वर्ष थी तो यह झूठ होगा क्योंकि अपनी आयु का एक भाग वह सोकर बिताता है जबकि एक भाग में वह लाभदायक काम नहीं करता।

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