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ईश्वरीय आतिथ्य-11

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ईश्वरीय आतिथ्य-11

बंद दरवाज़ों की चाभियां

क़ुरआन पढ़ने और प्रार्थना करने का संबन्ध रमज़ान के पवित्र महीने में किये जाने वाले महत्वपूर्ण कार्यों में है। प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने समय के अनुरूप इस प्रशंसनीय कार्य को करता रहे और इससे निश्चेत न रहे। इस संदर्भ में ईरान के एक वरिष्ठ धर्मगुरू एवं पवित्र क़ुरआन के प्रसिद्ध व्याख्याकार आयतुल्लाह अब्दुल्लाह जवादी आमोली कहते हैं कि यह महीना ईश्वर की मेहमानी का महीना है और यह महीना मनुष्य को जो भोजन देता है वह क़ुरआन की शिक्षाएं और उसका ज्ञान है अतः इस महीने में अधिक क़ुरआन पढ़ा जाए। इसमें जितना अधिक क़ुरआन पढ़ा जाए उतना ही अच्छा है। किसी को यह नहीं कहना चाहिए कि क्योंकि मुझको क़ुरआन का अर्थ पता नहीं है इसलिए हमं क्यों पढ़ें? यह कोई सामान्य किताब नहीं है। यह ईश्वर के कथनों का एसा संकलन है जो हर कालखण्ड में अपने विशेष प्रभाव रखता है। इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी अपनी पुत्री को संबोधित करते हुए कहते हैं कि ईश्वरीय कृपा के स्रोत पवित्र क़ुरआन में चिंतन करो। यद्यपि उसके केवल पढ़ने के भी उल्लेखनीय प्रभाव हैं किंतु उसके बारे में सोच-विचार एवं चिंतन, मनुष्य का उच्च स्थान की ओर मार्गदर्शन करता है। सूरए मुहम्मद की आयत संख्या २४ में ईश्वर कहता है कि क्या वे क़ुरआन में सोच-विचार नहीं करते या उनके हृदयों पर ताले लगा दिये गए हैं? जबतक यह ताले नहीं खुलते या नहीं टूटते तबतक चिंतन-मनन के वैसे परिणाम नहीं प्राप्त होंगे जिनकी अपेक्षा की गई है।

प्रिय रोज़ा रखने वालो! ईश्वर से निकट होने और उसकी इच्छा को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए कुछ नियम हैं। प्रार्थना उन नियमों में से है जिनपर कार्यबद्ध रहकर इसके स्वीकार्य होने की संभावनाओं को बढ़ाया जा सकता है। ईश्वर के समक्ष नतमस्तक होने और उसकी शरण में जाने के लिए पूर्ण निष्ठा, पवित्र हृदय और अच्छे कार्यों की आवश्यकता होती है। कहते हैं कि बनी इस्राईल में एक व्यक्ति था जो संतान प्राप्ति के लिए ईश्वर से तीन वर्षों से प्रार्थना कर रहा था। जब उसने अपनी प्रार्थना के स्वीकार्य किये जाने की कोई निशानी नहीं देखी तो ईश्वर से कहा, हे ईश्वर! क्या मैं तुझसे इतना दूर हो गया हूं कि तू मेरी प्रार्थना को नहीं सुनता? या यह कि मैं निकट हूं किंतु तू मेरी प्रार्थना को स्वीकार नहीं करता। एक रात उसने स्वपन में यह सुना कि तुमने तीन वर्षों तक झूठी ज़बान, दूषित हृदय और अपवित्र नियत से मुझसे मांगा अतः जाओं ईश्वर के लिए अपनी ज़बान को बुराई से रोको, हृदय को पवित्र करो और अपनी नियत को शुद्ध करो। इस स्वपन के पश्चात उस व्यक्ति ने पापों से दूरी के लिए दृढ संकल्प कर लिया और ईश्वर ने एक वर्ष के पश्चात उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। बहुत से लोग ईश्वर से प्रार्थना करते हैं और उससे मांगते हैं किंतु उनकी कुछ मांगें स्वीकार नहीं होतीं। यह वास्तविकता है कि किसी भी व्यक्ति की निष्ठापूर्ण प्रार्थना कभी भी निरूत्तर नहीं रहती। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि हर वह व्यक्ति जो ईश्वर से प्रार्थना करता है तो यदि वह अपनी प्रार्थना में कोई ग़लत चीज़ की मांग नहीं करता तो ईश्वर उसे इन तीन चीज़ों में से कोई एक चीज़ देता है। या तो उसकी प्रार्थना अविलंब स्वीकार कर ली जाती है या प्रलय के लिए उसे ज़ख़ीरा कर देता है और या फिर उस प्रार्थना की छाया में उससे कठिनाइयां दूर हो जाती हैं।

ईश्वर ने अपने दूत हज़रत ईसा से कहा कि हे ईसा! जब तुम मुझसे प्रार्थना करते हो तो उस डूबते हुए की भांति प्रार्थना करो जिसकी कोई सुनने वाला नहीं है। हे ईसा मेरी शरण में अपने हृदय को निष्ठावान बनाओ और एकांत में मुझको अधिक से अधिक याद करो और जान लो कि मैं तुम्हारी निष्ठा से प्रसन्न हूं। प्रार्थना करते समय अपने मन और मस्तिष्क को उपस्थित करो और दुखी ढंग से विलाप करते हुए मुझसे प्रार्थना करो। कहते हैं कि किसी महापुरूष से पूछा गया कि जब प्रार्थना स्वीकार नहीं होती तो फिर ईश्वर से क्यों मांगा जाए? इसके उत्तर में उस महापुरूष ने कहा इसलिए कि ईश्वर को पहचानते हो किंतु उसकी बात नहीं मानते। कुरआन को पढ़ते हो किंतु उसपर अमल नहीं करते। ईश्वर की विभूतियों से लाभ उठाते हो किंतु उसका आभार व्यक्त नहीं करते। जानते हैं कि मृत्यु अवश्य आएगी किंतु कल के लिए कोई प्रबंध नहीं करते। यह जानते हो कि शैतान खुला शत्रु है किंतु उससे शत्रुता नहीं करते। अपनी कमियों को तो दूर नहीं करते किंतु दूसरों की कमियों को गिनवाते हैं। यदि कोई एसा है तो फिर उसकी प्रार्थना किस प्रकार से स्वीकार होगी?

रमज़ान का पवित्र महीना, अपनी आकांक्षाओं तक पहुंचने तथा आसमानी पुरूस्कार प्राप्त करने के लिए स्वर्णिम समय है अतः हमें इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए और इससे पूरा लाभ उठाना चाहिए। अब जबकि कृपालु ईश्वर ने रमज़ान के अतिथियों के लिए अपनी अनुकंपाओं के द्वार खोल दिये हैं तो हमें अपनी मांगों को उसके दरबार में रखना चाहिए।। धार्मिक शिक्षाओं में मिलता है कि अन्य लोगों पर निर्भर न रहना और ईश्वर की सहायता पर विश्वास की भावना का, दुआओं या प्रार्थनाओं के पूरा होने में आश्चर्य जनक प्रभाव पाया जाता है और यह भावना दुआओं के स्वीकार्य होने की शर्तों में से है। जो चीज़ मनुष्य को ईश्वर के कृपालू और स्नेहपूर्ण दरबार की ओर खींचती है वह आवश्यकतामुक्त ईश्वर के प्रति उसके दास की निष्ठा और प्रेम है। ईश्वर का दास अपने स्वामी के प्रति जितना अधिक निष्ठावान होगा, ईश्वर का ध्यान भी उसकी ओर उतना ही अधिक होगा अतः ईश्वर के दासों की प्रार्थनाओं की स्वीकृति, उनके द्वारा ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य से दिल न लगाने के अनुपात में है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कथन है कि पवित्र ईश्वर ने अपने एक दूत को संबोधित करते हुए इस प्रकार कहा कि मुझको मेरी प्रतिष्ठा और मेरे सम्मान की सौगंध, जो भी मेरे अतिरिक्त किसी अन्य से लगाव रखे और मेरे पैदा किये हुए लोगों से आशा लगाए निश्चित रूप से उसकी आशा को मैं निराशा में परिवर्तित कर दूंगा और उसे अपनी निकटता और कृपा से दूर कर दूंगा। क्या मेरा दास अपनी समस्याओं के समाधान में मेरे अतिरिक्त किसी अन्य से आशा लगाता है जबकि समस्त समस्याओं के समाधान की चाबियां मेरे पास हैं। क्या उसने किसी अन्य पर भरोसा कर रखा है और वह दूसरों का दरवाज़ा खटखटाता है जबकि समस्त बंद दरवाज़ों की चाभियां मेरे पास हैं।

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