رضوی

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क्या वास्तव मे हम हज़रत ज़ैनब (स) से सच्ची मोहब्बत करते है?

अगर हम सच मे हज़रत ज़ैनब (स) से मोहब्बत करते हैं तो हमें अपनी इफ़्फ़त, हया, शुजाअत और हक़ की रक्षा में उन जैसा होना चाहिए। इंसान की तरक्की के लिए रोल मॉडल ज़रूरी है, और क़ुरआन ने अंबिया को बेहतरीन रोल मॉडल क़रार दिया है। हमें चाहिए कि हज़रत ज़ैनब (स) जैसी हक़ीकी शख्सियात को नौजवान नस्ल और पूरी दुनिया के सामने मतआरिफ़ कराएँ।

मरहूम अल्लामा मिस्बाह यज़दी ने अपनी एक तक़रीर में "हज़रत ज़ैनब (स) जैसा बनें" विषय पर रौशनी डाली है जो हम आपकी ख़िदमत में पेश कर रहे हैं।

अगर हम सच्चे हैं तो ये कैसे मुमकिन है कि हम हज़रत ज़ैनब (स) से मोहब्बत का दावा करें मगर हमें इफ़्फ़त व हया का गिला तक न हो?

ये किस तरह मुमकिन है कि हम हज़रत ज़ैनब (स) से मोहब्बत रखते हों मगर हक़ की दिफ़ाअ में अपनी हर चीज़ क़ुर्बान करने से गुरेज़ करें और हम में जुरअत ही न हो?

अगर हम वाक़ई उन से मोहब्बत करते हैं तो हमें उन जैसा बनना होगा।

इंसान के किरदार और रास्ता चुनने में नमूना की एहमियत को देखते हुए, यह मौज़ू इतना एहम है कि कुछ माहिरीन-ए-नफ़सियात इंसान की तरक्की को नमूना की मौजूदगी में ही मुमकिन समझते हैं।

क़ुरआन करीम ने बहुत से नमूने पेश किए हैं जिनमें पैग़म्बर इस्लाम (स), हज़रत इबराहीम (अ) और दूसरे अंबिया शामिल हैं और उन की पैरवी की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है।

हमें नौजवान नस्ल तक क़दरों को नमूनों के ज़रिए पहुँचना चाहिए।

हमें फन के मुख़्तलिफ़ ज़राए जैसे ताज़िया, थिएटर, कहानी वग़ैरह के ज़रिए इन नमूनों को नौजवानों के सामने पेश करना चाहिए।

क़ुरआन करीम ने अच्छे और बुरे दोनों किस्म के नमूने परिचित कराए हैं, जो ज़ाहिर करता है कि नमूना की कितनी एहमियत है और दूसरों का उस की त़क़लीद करना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि निश्चित रुप से इंसान के चरित्र की तश्कील के लिए नमूना की ज़रूरत होती है।

हमारे बहुत से ज़ाहिरी आमाल उन नमूनों से लिए गए हैं जो फिल्मों में दिखाए जाते हैं, लिहाज़ा हमें भी चाहिए कि अपने इच्छित नमूनों को फन के ज़रिए अवाम के सामने पेश करें।

अगर इस्लाम में दो शख्सियात को नमूना के तौर पर पेश करना हो तो पहली हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स) और दूसरी हज़रत ज़ैनब (स) हैं।

इस्लाम के 1400 साला दौर और इस्लामी इंकलाब के तीन अशरों तीस वर्षों में इन दो अज़ीम महिलाओं का हक़ अदा नहीं हो सका है और इस्लामी समाज इन बुज़ुर्गवार शख्सियात की अज़मत को पूरी तरह नहीं समझ सका है।

हमें न सिर्फ़ हज़रत ज़ैनब (स) और हज़रत फ़ातिमा (स) से नमूना लेना चाहिए, बल्कि इन दो शख्सियात को पूरी दुनिया में नमूना के तौर पर मतआरिफ़ कराना चाहिए।

स्रोत: 2 मई 1999 की तक़रीर

 

 

ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराक़ची ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि, ईरान को परमाणु समृद्धिकरण का अधिकार है और उनका परमाणु बम देश को शक्तिशाली देशों के सामने “ना” कहने की क्षमता देता है। अराक़ची ने बताया कि युद्ध को रोकने का सबसे महत्वपूर्ण कारक तैयारी है, जो केवल सशस्त्र बलों में नहीं बल्कि जनता और सरकार में भी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि यह तैयारी 12-दिन के युद्ध से पहले से भी अधिक है। उन्होंने विश्वास जताया कि कोई पुरानी गलती दोहराई नहीं जाएगी, और अगर दोहराई गई तो उसका करारा जवाब मिलेगा।

ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराक़ची ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि, ईरान को परमाणु समृद्धिकरण का अधिकार है और उनका परमाणु बम देश को शक्तिशाली देशों के सामने “ना” कहने की क्षमता देता है। अराक़ची ने बताया कि युद्ध को रोकने का सबसे महत्वपूर्ण कारक तैयारी है, जो केवल सशस्त्र बलों में नहीं बल्कि जनता और सरकार में भी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि यह तैयारी 12-दिन के युद्ध से पहले से भी अधिक है। उन्होंने विश्वास जताया कि कोई पुरानी गलती दोहराई नहीं जाएगी, और अगर दोहराई गई तो उसका करारा जवाब मिलेगा।

अराक़ची  ने कहा कि हमेशा यह सवाल पूछा जाता रहा कि ईरान समृद्धिकरण क्यों चाहता है। उनका जवाब था,हमारा लक्ष्य बम या हथियार नहीं है। हम समृद्धिकरण चाहते हैं क्योंकि यह हमारा अधिकार है, जबकि कुछ लोग कहते हैं कि इसे नहीं होना चाहिए।उन्होंने यह भी जोड़ा कि परमाणु बम देश को दूसरों के सामने ना कहने की शक्ति देता है और यही हमारी ताक़त है।

अराक़ची ने पश्चिमी देशों को स्पष्ट संदेश दिया, हमने परमाणु समझौते से बाहर खुद को निकाला। आप चाहते हैं कि हमें यह अधिकार न हो, लेकिन हम वैधता साबित करने के लिए बातचीत के लिए तैयार हैं। ईरानी परमाणु बम ताक़तवर देशों के सामने ना कहने की क्षमता है। यह क्षमता इस्लामी क्रांति से शुरू हुई और आज भी जारी है।

उन्होंने कहा कि ऐसे लोग हैं जो भारी कीमत चुकाने को तैयार हैं, लेकिन उनकी स्वतंत्रता, सम्मान और गरिमा कभी प्रभावित नहीं होती।

लगभग सभी देशों की नब्ज़ पर हाथ
अराक़ची  ने न्यूयॉर्क में हुई हाल की वार्ताओं का हवाला देते हुए कहा,हम किसी की हुकूमत में नहीं हैं। यह ईरानियों की खासियत रही है और अब भी है। हमारी मुख्य ताक़त यही है। जब हम अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठनों में इज़रायल, अमेरिका और हेज़ेमनी जैसी समस्याओं को उठाते हैं, तो ऐसा लगता है कि यह कई देशों की नब्ज़ पर हाथ रख देता है। ईरानी कूटनीतिज्ञ हिम्मत करके मुद्दे उठाते हैं, यह हमारी विशेषता है और इसका हमें गर्व है।

अराक़ची ने कहा,जब तक अमेरिका में प्रभुत्व की प्रवृत्ति है और ईरान में इसके सामने न झुकने की प्रवृत्ति है, तब तक हमारी समस्या बनी रहेगी। शहीद रईसी की सरकार के समय, हमने बातचीत की, समझौता हुआ, बंधकों को मुक्त किया गया और हमारा पैसा कोरिया से मुक्त हुआ, लेकिन क़तर में यह फंसा रहा और इस्तेमाल नहीं हुआ।

उन्होंने आगे कहा,इस साल भी हमने बातचीत शुरू की, बीच में हम पर हमला हुआ और अमेरिका ने इसका समर्थन किया, फिर वह खुद भी इसमें शामिल हो गया। न्यूयॉर्क में बातचीत का एक अवसर था, लेकिन मांगे पूरी तरह गैर-तर्कसंगत और अव्यवहारिक थीं, जैसे सभी शर्तें मान लेना और छह महीने के लिए ‘स्नैप-बैक’ लागू करना। कौन सा समझदार इंसान इसे स्वीकार करेगा?

उन्होंने जोर देकर कहा,हम कभी भी कूटनीति को नहीं छोड़ेंगे विदेश मामलों के प्रमुख ने कहा,हम और अमेरिका के बीच कभी कोई सकारात्मक अनुभव नहीं हुआ। हम ईमानदारी से आगे बढ़े और रास्ता खोलने की कोशिश की। हमारे पास भरोसा नहीं है और हम भरोसा भी नहीं करेंगे, लेकिन बिना भरोसे के भी समझदारी से बातचीत में प्रवेश किया जा सकता है। हमने यह किया, लेकिन कभी सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली।

अराक़ची ने कहा,यह अमेरिका का स्वभाव है और फिलहाल कोई सकारात्मक संकेत नहीं दिखता जिससे बातचीत संभव हो। उन्होंने आगे कहा,अगर अमेरिका समान स्तर पर, ईमानदार रवैये के साथ, परस्पर लाभ वाले समझौते के लिए, और सम्मानजनक ढंग से, वास्तविक और गंभीर बातचीत करने के लिए तैयार है, तो हम कभी भी कूटनीति को नहीं छोड़ेंगे और उसे खारिज नहीं करेंगे।

उन्होंने कहा,यह बहुत जटिल है। हम कभी भी अपने लोगों के अधिकारों से समझौता नहीं करेंगे, और न ही उनके खिलाफ दबदबे और अत्याचार सहेंगे, लेकिन किसी भी समझदार समाधान के लिए हम तैयार हैं।

 

पाकिस्तान के शहर कराची में "नहजुल बलाग़ा" के पैग़ाम को आम करने और समाज में फ़िक्री (विचारात्मक) व अख़लाक़ी (नैतिक) जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से "मरकज़‑ए‑अफ़कार‑ए‑इस्लामी" की जानिब से और "अबूतालिब ट्रस्ट कराची" के तहत एक शानदार "नहजुल बलाग़ा कॉन्फ़्रेंस" का आयोजित किया गया।

यह कॉन्फ़्रेंस "मस्जिद‑ओ‑इमामबाड़ा अबूतालिब (अ)" और "पयग़ंबर‑ए‑आज़म ऑडिटोरियम" (डीएचए  कराची) में हुई जिसमें बड़ी संख्या में उलमा‑ए‑किराम, दानिशवरान (विद्वान) और मुहिब्बाने अहलेबैत (अ) ने शिरकत की।

कॉन्फ़्रेंस को सरपरस्त मरकज़‑ए‑अफ़कार‑ए‑इस्लामी हुज्जतुल इस्लाम वल  मुस्लेमीन मक़बूल  हुसैन अलवी,  आयतुल्लाह सय्यद अक़ील अल‑ग़रवी (ऑनलाइन ख़िताब),  हुज्जतुल  इस्लाम  सय्यद अली  मुर्तज़ा  ज़ैदी,  प्रोफेसर आबिद  हुसैन,  डॉ. इजाज़  हुसैन और  हुज्जतुल  इस्लाम  सय्यद  शहनशाह  हुसैन  नकवी  ने  ख़िताब  किया।

मरकज़‑ए‑अफ़कार‑ए‑इस्लामी  पाकिस्तान  के  मुदीर (डायरेक्टर) हुज्जतुल  इस्लाम  वल  मुस्लेमीन  लियाक़त अली अवान  ने  कॉन्फ़्रेंस  की  निज़ामत (संचालन) की और  शुरुआत  में  प्रतिभागियों  का  स्वागत  करते  हुए  मरकज़  की  इल्मी  और  धार्मिक  गतिविधियों  पर  रौशनी  डाली।

कॉन्फ़्रेंस  के  पहले वक्ता  अहलेबैत (अ) के  शायर  जनाब  क़मर  हैदर  क़मर  थे। उन्होंने  नहजुल  बलाग़ा  पर  लिखी  एक  कविता  सुनाई  और  बीबी  ज़हरा (स) की  शान  में  यह अशआर  पेश  किये:

"फ़क़त  एक  लफ़्ज़  में  सारा  क़सीदा  लिख  दिया  मैं ने,

मुहम्मद  की  सना  पूछी  तो  ज़हरा  लिख  दिया  मैं ने,

किसी  ने  फिर  कहा  मुझ से  के अब  ज़हरा  की  मदह  लिख,

क़मर  बे‑साख़्ता 'उम्मे अबीहा'  लिख  दिया  मैं ने।"

हुज्जतुल  इस्लाम  सय्यद  अली  मुर्तज़ा  ज़ैदी  ने अपने  ख़िताब  में  मुख़ातिबिन  को  धन्यवाद  देते  हुए  "मकतूब  नंबर 69"  का  ज़िक्र  किया और  बताया  कि  यह  मकतूब  अमीर‑अल‑मोमिनीन अली (अ) ने  हारिस  हमदानी  को  लिखा  था।

उन्होंने  कहा  कि अमीर‑अल‑मोमिनीन (अ) ने  उन्हें  हुक्म  दिया  था  कि "हमेशा  क़लम और  काग़ज़  हमेशा अपने  साथ  रखो  और  जो  मैं  इल्म  सिखाऊँ, उसे  लिख  लिया  करो।"

अहले‑सुन्नत  के  मशहूर  आलिम  मुफ़्ती  फ़ज़ल  हमदर्द  ने  अपनी  तक़रीर  में  कहा: "नहजुल  बलाग़ा  किताब‑ए‑वहदत  है, जो उम्मत‑ए‑मुसलिमा  को  मुत्तहिद (एक जुट) करने  वाली  किताब  है।"

उन्होंने  कहा  कि अहले‑सुन्नत  के  उलमा  ने  हमेशा  नहजुल  बलाग़ा  पर  काम  किया  है; अबुल  हुसैन  बैयहकी, फ़खरुद्दीन  राज़ी  और  मुफ़्ती  मुहम्मद  अब्दुह  जैसे  उलमा  ने  इसके  शरहें  लिखी  हैं।

आयतुल्लाह  सय्यद  अक़ील  अल‑ग़रवी  ने  अपने ऑनलाइन  ख़िताब  में  कहा  कि अमीर‑अल‑मोमिनीन  के  कलाम  व  ख़ुत्बे  अपनी  ख़ास  शान  रखते हैं। 

उन्होंने  नहजुल  बलाग़ा  के  मौज़ू  पर  कवियों  के  कलाम  के  प्रकाशन  को बेहद  सराहनीय  कहा  और  इस  जैसे  कामों  को  आगे  बढ़ाने  पर  ज़ोर  दिया।

सरपरस्त  मरकज़‑ए‑अफ़कार  हुज्जतुल  इस्लाम  मक़बूल  हुसैन अलवी  ने अपने  ख़िताब  में  ख़ुत्बा  नंबर 180  का  ज़िक्र  किया  जिसे  अमीर‑अल‑मोमिनीन (अ) ने  कूफ़ा  में  बयान फ़रमाया  था। उन्होंने  बताया  कि  इमाम  ने  वह  ख़ुत्बा  ऊन के  जुब्बे  में  और  ख़जूर  की  छाल  से  बनी  तलवार  और  जूते  पहने  हुए  दिया  था  और दाढ़ी  पर  हाथ  रखकर  देर  तक  रोये।

उन्होंने  कहा  कि  इमाम  के  कलाम  की  तरह  यह  किताब  भी  मज़लूम  है। अब  हमारा  फ़र्ज़  है  कि  नहजुल  बलाग़ा  को दुनिया  के  हर  कोने  तक  पहुँचाएँ  और  नौजवानों  के  दिलों  में  अली (अ) के  कलाम  को  बसाएँ  ताकि  हमारा अली  ख़ुश  हो।

पाकिस्तान  के मशहूर  ख़तीब  प्रोफेसर  आबिद  हुसैन  ने  कहा  कि अमीर‑अल‑मोमिनीन (अ) का  यह  कलाम  हर  उस शख्स  के  लिए  है  जिस तक  यह  पहुँचे। उन्होंने  कहा कि  इमाम (अ) ने  फ़रमाया  था  कि  अगर  मैं  सिर्फ़  सूरह‑ए‑फ़ातिहा  की  तफ़सीर  लिखूँ, तो  उसका  वज़न  सत्तर  ऊँट  न  उठा  सकें।

यूके  से  आये  डॉ. इजाज़  हुसैन  ने  कहा  कि अमीर‑अल‑मोमिनीन (अ)  ने  "अदल"  से  सिर्फ़  "जस्टिस" (न्याय) का  मतलब  नहीं  लिया  बल्कि "ट्रांसपेरेंट डिलिवरी ऑफ जस्टिस", यानि  ऐसा  निज़ाम  जहाँ  इंसाफ़  नज़र  भी  आए, वह  असल  अदल  है। कॉन्फ़्रेंस  के  अंत  में  पाकिस्तान  के  मशहूर  ख़तीब  हुज्जतुल  इस्लाम  सय्यद  शहनशाह  हुसैन  नकवी  ने  धन्यवाद  प्रस्तुत  किया  और  कहा: "मौला अली (अ)  हर  मैदान  में  'अली'  हैं। " उन्होंने  कहा  कि  अमीर‑अल‑मोमिनीन (अ)  को  सबसे  अज़ीज़  मैदान  इल्म  का  मैदान  है। 'सलूनी सलूनी' का  मतलब  सिर्फ़  यह  नहीं  कि 'मुझसे पूछो इससे  पहले  कि  मैं  मर  जाऊँ' बल्कि  सही  मतलब  है 'मुझ से  पूछो  इससे  पहले  कि  तुम  मर  जाओ।'

कार्यक्रम  का  समापन  हुज्जतुल  इस्लाम  डॉ. दावूदानी  की  दुआ  से  हुआ।

ग़ौर तलब  है  कि  कॉन्फ़्रेंस  में  जामेआ‑तुल‑मुसतफ़ा  के  नुमाइंदे  हुज्जतुल  इस्लाम  हाजी  सय्यद  शम्सी पूर  ने  भी  शिरकत  की। बर‑ए‑सगीर  के  शायरों  के  कलाम  पर  मबनी  किताब  की  रिलीज़  भी  की  गई  जो  मुफ़्ती  फ़ज़ल  हमदर्द  को  मरकज़  की  जानिब  से  पेश  की  गई। अबूतालिब  ट्रस्ट  के  चेयरमैन  सय्यद  इक़बाल  शाह  ने  मेहमान‑ए‑ख़ुसूसी  को  एहतेरामी  शील्ड्स  भेंट कीं। इसके अलावा  मारकज़  की  ओर  से  आलिम  शहनशाह  हुसैन  नकवी  को  नहजुल  बलाग़ा  की  तौसीअ  में  उनकी  ख़िदमतों  के  लिए  एहतेरामी  शील्ड  भी  दी  गई।

 

इटली में फ़िलिस्तीनी एसोसिएशन के प्रमुख मोहम्मद हन्नून को शहर मिलान में दाखिल होने से एक साल के लिए रोक दिया गया है। इस फैसले को आलोचकों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी और ग़ज़्ज़ा में जारी नरसंहार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को दबाने की कोशिश क़रार दिया है।

25 अक्टूबर 2025 को एयरपोर्ट लीनाता में इतालवी प्रशासन ने मोहम्मद हन्नून को निष्कासन का हुक्म सुनाया और एक साल के लिए मिलान में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी।

यह हुक्म मिलान के पुलिस चीफ की तरफ से इस आरोप के तहत जारी किया गया कि हन्नून ने 18 अक्टूबर को फ़िलिस्तीन के हक़ में एक जनसभा में मुनअकिक़ तौर पर 'तशद्दुद पर उकसाने' की बातें की थीं।

मोहम्मद हन्नून एक अवामी प्रोग्राम में फ़िलिस्तीनी मज़लूमों की हिमायत के लिए मिलान पहुंचे थे, लेकिन एयरपोर्ट पर उतरते ही उन्हें रोक लिया गया और बाद में उनके रहने वाले शहर जेनोआ भेज दिया गया।

इटली के कुछ सरकारी अफसरों, जिन में वज़ीर सालविनी भी शामिल हैं, ने इस फैसले को 'ज़रूरी' क़रार दिया है। इसके विपरीत, मानव अधिकार के कार्यकर्ताओं और राजनीतिक विश्लेषकों ने इस क़दम को फ़िलिस्तीन के हक़ में उठने वाली आवाज़ों को संगठित दमन और इख़्तलाफ़-ए-राय को जुर्म ठहराने की एक तशवीशनाक मिसाल कहा है, ख़ास तौर पर ऐसे वक्त में जब ग़ज़्ज़ा में बड़े पैमाने पर मानव अधिकारो की संगीन खिलाफ़ वरज़ियाँ जारी हैं।

मोहम्मद हन्नून ने इस फैसले को 'सियासी हमला' क़रार देते हुए कहा: इटली सिहियोनी हुकूमत की नस्लकुशी और जंगी जुर्मों में शरीक है। उन्होंने कहा: इटली के हथियार ग़ज़्ज़ा के निहत्ते लोगों के क़त्ले आम में इस्तेमाल हो रहे हैं। जो लोग इन ज़ुल्मों को बेनक़ाब करते हैं उन्हें मुजरिम कहा जा रहा है, जबकि क़ातिलों को तहज़ीब का मुहाफिज़ कहा जा रहा है।

मोहम्मद हन्नून कई बरसों से इटली में फ़िलिस्तीन के हक़ में सरगर्म तहरीकों, सक़ाफ़ती प्रोग्रामों और अवामी आगाही (जन-जागरूकता) मुहिमों में मशहूर हैं। वे फ़िलिस्तीनी अवाम के ख़िलाफ़ इस्राईली नस्ली इम्तियाज़ और क़ब्ज़े की पॉलिसियों की सख़्त मुख़ालिफ़त के लिए भी जाने जाते हैं।

 

जब हम समझदारी और सूझबूझ से और सलाह मशविरा लेकर, दृढ़ निश्चय के साथ काम करते हैं तो सफलता अवश्य मिलती है।

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने फरमाया,अल्लाह ने दुश्मनों से मुक़ाबले के लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लललाहो अलैहि वआलेही वसल्लम को एक गाइडलाइन दी है।

बेसत (पैग़म्बरी पर नियुक्ति) के आग़ाज़ से ही अल्लाह ने पैग़म्बरे इस्लाम को सब्र व दृढ़ता का हुक्म दिया। सूरए मुद्दस्सिर में अल्लाह फ़रमाता हैः “और अपने परवरदिगार के लिए सब्र कीजिए”(सूरए मुद्दस्सिर, आयत-7)। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर भी यही बात दोहराई गयी है। सब्र का मतलब हाथ पर हाथ धरे बैठकर नतीजे का इंतेज़ार करना और घटनाओं को बर्दाश्त करते रहना नहीं है।

सब्र का मतलब डटे रहना है, दृढ़ता दिखाना और अपने सही कैल्कुलेशन को दुश्मनों के फ़रेब व धोखाधड़ी के साथ बदलना नहीं है। अगर ये दृढ़ता, अक़्ल, सूझबूझ और आपसी मशविरे के साथ हो, जैसा कि क़ुरआन में आया हैःऔर उनके (तमाम) काम आपसी मशविरे से तय होते हैं” (सूरए शूरा आयत-38) तो निश्चित तौर पर फ़तह व कामयाबी नसीब होगी।

 

 

जब हम समझदारी और सूझबूझ से और सलाह मशविरा लेकर, दृढ़ निश्चय के साथ काम करते हैं तो सफलता अवश्य मिलती है।

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने फरमाया,अल्लाह ने दुश्मनों से मुक़ाबले के लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लललाहो अलैहि वआलेही वसल्लम को एक गाइडलाइन दी है।

बेसत (पैग़म्बरी पर नियुक्ति) के आग़ाज़ से ही अल्लाह ने पैग़म्बरे इस्लाम को सब्र व दृढ़ता का हुक्म दिया। सूरए मुद्दस्सिर में अल्लाह फ़रमाता हैः “और अपने परवरदिगार के लिए सब्र कीजिए”(सूरए मुद्दस्सिर, आयत-7)। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर भी यही बात दोहराई गयी है। सब्र का मतलब हाथ पर हाथ धरे बैठकर नतीजे का इंतेज़ार करना और घटनाओं को बर्दाश्त करते रहना नहीं है।

सब्र का मतलब डटे रहना है, दृढ़ता दिखाना और अपने सही कैल्कुलेशन को दुश्मनों के फ़रेब व धोखाधड़ी के साथ बदलना नहीं है। अगर ये दृढ़ता, अक़्ल, सूझबूझ और आपसी मशविरे के साथ हो, जैसा कि क़ुरआन में आया हैःऔर उनके (तमाम) काम आपसी मशविरे से तय होते हैं” (सूरए शूरा आयत-38) तो निश्चित तौर पर फ़तह व कामयाबी नसीब होगी।

 

 

 5 जमादीउल अव्वाल, हज़रत ज़ैनब कुबरा सलामुल्लाह अलैहा के पवित्र जन्मदिन का दिन, उस महान महिला की याद दिलाता है जो सिर्फ बीमारों की सेविका ही नहीं बल्कि पैगाम ए कर्बला की शाश्वत प्रवक्ता थीं।

 5 जमादीउल अव्वाल, हज़रत ज़ैनब कुबरा सलामुल्लाह अलैहा का पवित्र जन्मदिन मनाया जाता है वही कर्बला वाली महिला जिन्होंने वाक़े-ए-आशूरा के बाद इल्म-ए-विलायत को अपने कंधों पर उठाया और हुसैन इब्न अली अ.स.के संदेश को जीवित रखने में केंद्रीय भूमिका निभाई।

इसी उपलक्ष्य में यह दिन "नर्सिंग डे" कहलाता है, क्योंकि हज़रत ज़ैनब स.अ. ने इमाम ज़ैनुल आबिदीन अ.स.और अन्य ज़ख़्मियों और बीमारों की सेवा की। हालाँकि, अहले इल्म के अनुसार, हज़रत ज़ैनब (स.अ.) का स्थान इससे कहीं ऊँचा है। उनकी सेवा और देखभाल सिर्फ बीमारों तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह परिस्थिति-ए-हुसैनी की संरक्षिका थीं, ऐसी रखवाली जिन्होंने क़याम-ए-करबला को शाश्वत आंदोलन में बदल दिया।

अगर हज़रत ज़ैनब स.अ.इस ज़िम्मेदारी को न निभातीं तो शायद ख़ून-ए-हुसैन इतिहास के पर्दों में दब जाता। लेकिन उन्होंने अस्तित्व की कठिनाइयों में भी सब्र, बसीरत (दूरदर्शिता) और शजाअत (वीरता) के साथ यज़ीदी ज़ुल्म को रस्वा किया, और ऐसी ख़िताबत की जिससे उम्मत में बेदारी की लहर दौड़ गई। उन्हीं के अज़्म (दृढ़ संकल्प) से तव्वाबीन और बाद की इस्लामी तहरीकों (आंदोलनों) की बुनियाद रखी गई।

हज़रत ज़ैनब (स.अ.) ने सिर्फ संदेश-ए-कर्बला को ही सुरक्षित नहीं रखा बल्कि उसे दुनिया भर में मज़लूम और ज़ालिम की पहचान का मापदंड बना दिया। आज भी उनके क़याम की बरकत से आशूरा का परचम दुनिया के कोने-कोने में मज़लूमियत के बचाव की अलामत है।

नर्सिंग डे के तौर पर हज़रत ज़ैनब (स.अ.) के जन्मदिन को मनाने के दो पहलू हैं:

1. इस महान महिला के बुलंद मक़ाम को ख़िराज-ए-तहसीन पेश करना और उन्हें समाजिक और रूहानी रोल मॉडल के तौर पर  परिचित कराना।
2. समाज में ज़ैनबी रूह  पैदा करना, ताकि नर्सिंग के पेशे से वाबस्ता लोग ख़िदमत (सेवा), सब्र और एहसास-ए-ज़िम्मेदारी के इन ज़ैनबी औसाफ़ से सरशार (भरपूर) हों।

दुरूद और सलाम हो उस महान ख़ातून-ए-इस्लाम पर, जिन्होंने ईमान, हौसले और वफ़ादारी का ऐसा मेयार क़ायम किया जो क़यामत तक बाक़ी रहेगा।

लेबनान के हिजबुल्लाह प्रमुख ने शहादत के लिए तैयारी का संकल्प जताते हुए कहा कि भारी नुकसान झेलने के बाद हिजबुल्लाह पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हो गई है।

 हिज़बुल्लाह लेबनान के महासचिव शेख़ नईम कासिम ने कहा है कि भारी नुकसान झेलने के बाद हिज़बुल्लाह पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हो गई है।

विवरण के अनुसार, हिजबुल्लाह की कमान संभालने के एक साल बाद लेबनान के चैनल अल-मिनार को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि हम वह समूह हैं जो शुद्ध मोहम्मदी इस्लाम की बुनियाद पर कायम है। प्रतिरोध सिर्फ एक रणनीति नहीं बल्कि जीवन जीने का एक तरीका है। हम स्थिर और टिकाऊ हैं। हम थकने वाले नहीं हैं। हिजबुल्लाह इस भारी हमले के बाद पहले से ज्यादा मजबूत हो गई है।

उन्होंने कहा कि हम नहीं थकते और थकान की वजह से हार मानना हमारे स्वभाव में नहीं है। हिजबुल्लाह का रास्ता मजबूत और लगातार जारी है यही रास्ता कुरबानी की भावना को जन्म देता है। मैं शहादत का इच्छुक हूं और शहादत हिजबुल्लाह के हर योद्धा की ख्वाहिश है।

उन्होंने कहा कि हिज़्बुल्लाह किसी एक व्यक्ति के फैसलों से नहीं चलती। मुझे कभी अकेलापन महसूस नहीं होता, क्योंकि फैसले सलाह-मशविरे से किए जाते हैं। मैं सलाहकार परिषद के सदस्यों और सैन्य कमांडरों से सलाह लेता हूं।

हिजबुल्लाह प्रमुख ने कहा कि युद्ध के दौरान मैंने लेबनान छोड़ने से इनकार कर दिया क्योंकि मेरे नजदीक वह समय देश में रहने और अपनी जिम्मेदारी निभाने का था।

उन्होंने कहा कि सय्यद हसन नसरुल्लाह की शहादत के तुरंत बाद मैंने नेतृत्व की जिम्मेदारी संभाली, और सय्यद हाशिम सफीउद्दीन से सैन्य मामलों के समन्वय के लिए बात की, जबकि राजनीतिक मामलों का समन्वय मेरे जिम्मे था। भाइयों ने 9 अक्टूबर 2024 को मुझे महासचिव के रूप में चुना।

27 सितंबर से 10 अक्टूबर तक हमारे लिए दस बेहद कठिन दिन गुजरे, लेकिन उसके बाद हालात सामान्य हो गए। हमने बहुत तेजी से खुद को संभाला, विभिन्न पदों को भरा, और सभी भाइयों ने सक्रिय तरीके से जिम्मेदारियां संभालीं।

शेख नईम कासिम ने स्पष्ट किया कि यह बात सही नहीं है कि ईरानियों ने युद्ध का नेतृत्व किया। हिजबुल्लाह ने इस युद्ध का नेतृत्व हिजबुल्लाह के नेताओं, कमांडरों, शूरा के सदस्यों ने खुद किया। इमाम खामेनेई ने भरपूर और हर तरह का समर्थन दिया और वह खुद युद्ध की स्थितियों, नतीजों और हमारी जरूरतों को करीब से देख रहे थे।

क़ुम अल मुक़द्देसा मे रहने वाले भारतीय शिया धर्मगुरू, कुरआन और हदीस के रिसर्चर मौलाना सय्यद साजिद रज़वी से हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के पत्रकार ने हफ़्ता ए वहदत के अवसर पर वहदत के विषय पर विशेष इंटरव्यू किया।

 क़ुम अल मुक़द्देसा मे रहने वाले भारतीय शिया धर्मगुरू, कुरआन और हदीस के रिसर्चर मौलाना  सय्यद साजिद रज़वी से हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के पत्रकार ने हज़रत ज़ैनब (स) के जन्मदिवस के अवसर पर हज़रत ज़ैनब की शख्सियत और उनके कारनामो से संबंधि एक इंटरव्यू किया।  इस इंटरव्यू को अपने प्रिय पाठको के लिए प्रस्तुत किया जा रहा हैः

 जनाबे ज़ैनब (स) का संक्षिप्त परिचय कराएँ?
शोधकर्ता मौलाना साजिद रज़वीः आपका जन्म 5 जमादी-उल-अव्वल, सन 5 हिजरी में मदीना मुनव्वरा में हुआ। वह घर जहाँ आप पैदा हुईं,  वही घर था जहाँ कुरआन की आयतें उतरती थीं आपके पिता थे अमीर-उल-मोमिनीन इमाम अली (अ) और माता थीं सैय्यदा फ़ातिमा ज़हरा (स)। आप नबूवत और विलायत, दोनों के मिलन का नूर थीं,  यानी रसूल की नातिन और अली (अ.स.) की बेटी।

 आपका नाम किसने रखा और उसका क्या अर्थ है?
शोधकर्ता मौलाना साजिद रज़वीः जब पैग़ंबर-ए-इस्लाम (स) को आपकी पैदाइश की ख़बर दी गई तो उन्होंने फ़रमाया:
“इस बच्ची का नाम ज़ैनब रखो, क्योंकि यह अली के लिए ज़ीनत है।”
ज़ैनब शब्द का मतलब है  “बाप की ज़ीनत”, यानी वह जो अपने पिता के लिए सम्मान और गर्व का कारण बने।

 जनाबे ज़ैनब (स) की बचपन और आपकी सबसे बड़ी विशेषता क्या थी?
शोधकर्ता मौलाना साजिद रज़वीःआपका बचपन ऐसे घर में बीता जहाँ इल्म, इबादत, अदब और पाकीज़गी का समंद्र बहता था। आपने अपने नाना को नमाज़ में देखा, अपनी माँ को दुआ में रोते देखा और अपने बाबा को क़ुरआन की तिलावत करते सुना। यही परवरिश आपको “इल्म की वारिसा” बना गई। आप में इल्म-ए-अली, सब्र-ए-हुसैन, हया-ए-फ़ातिमा और शुजाअत-ए-हैदरी का संगम था। आपने अपने जीवन से यह साबित कर दिया कि औरत का असली सौंदर्य उसकी हिम्मत, समझदारी और ईमानदारी में है।

 करबला के मैदान में आपका क्या भमिका थी?
शोधकर्ता मौलाना साजिद रज़वीः करबला में जनाबे ज़ैनब (स.अ.) सिर्फ़ बहन या बेटी नहीं थीं, बल्कि हक़ की आवाज़ की निगहबान थीं। इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के बाद आपने उनके मिशन को ज़िंदा रखा, बच्चों और बीमारों की हिफ़ाज़त की और इस्लाम के पैग़ाम को दुनिया तक पहुँचाया।

 कूफ़ा और शाम के दरबारों में आपने क्या कहा?
शोधकर्ता मौलाना साजिद रज़वीःआपने ज़ालिमों के दरबार में बेख़ौफ़ खड़े होकर फ़रमाया:

“मा रायतु इल्ला जमीला” 
“मैंने इस क़ुर्बानी में सिवाय ख़ूबसूरती के कुछ नहीं देखा।”
यह वाक्य सिर्फ़ सब्र नहीं, बल्कि इमान और मारिफ़त के सबसे ईमान के सब से ऊंचे दर्जे का बयान है।

आज की औरत जनाबे ज़ैनब (स) से क्या सीख सकती है?
शोधकर्ता मौलाना साजिद रज़वीः  उनसे सीख सकती हैं कि सच्चाई के रास्ते पर डर की कोई जगह नहीं। औरत अगर ज़ैनबी हो जाए तो वह हर मुश्किल को मात दे सकती है। सब्र, इल्म, हया और हक़ के लिए आवाज़ उठाना, यही ज़ैनबी पैग़ाम है।

हजरत मासूमा (स) की पवित्र दरगाह के सपोर्ट मैनेजर ने बताया कि हजरत ज़ैनब कुबरा (स) के जन्म दिवस के मौके पर ६०० मीटर लंबा केक बनाया गया।

हजरत फातिमा मासूमा (स) की पवित्र दरगाह के सपोर्ट मैनेजर ने कहा कि इस खास दिन की खुशी में २५ हजार केक के पैकेट दरगाह में तैयार किए गए और ज़ायरीन और विभिन्न जनसमूह में बांटे गए।

उन्होंने बताया कि इस केक की लंबाई ६०० मीटर थी और इसे १५० स्वयंसेवकों ने मिलकर बनाया था।

सपोर्ट मैनेजर ने इस पहल के लोक समर्थन की ओर इशारा करते हुए कहा कि इस योजना का मुख्य आयोजक क़ुम के धर्मी और नेक दिल लोग थे जिन्होंने अपनी नज़ूरात से इस रुहानी कार्यक्रम को संभव बनाया।

उन्होंने आगे कहा कि इस केक का एक हिस्सा ज़ायरीन और दरगाह के सेवकों में बांटा गया, जबकि बाकी हिस्सा मरीजों, अनाथों, सुरक्षा कर्मचारियों और क़ुम के आम लोगों को कुछ इलाकों में भेजा गया ताकि हर कोई हजरत ज़ैनब (स) के जन्मदिन की खुशी में हिस्सा ले सके।

अंत में सपोर्ट मैनेजर ने कहा कि इस तरह के कार्यक्रम लोगों के बीच एकजुटता, प्यार और इमामों के प्रति श्रद्धा को दर्शाते हैं और पवित्र दरगाह सदैव सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रमों के जरिए ज़ायरेन में आध्यात्मिक जोश और ऊर्जा को बढ़ावा देने की कोशिश करता है।