رضوی

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सऊदी अरब ने एक बार फिर यह साफ किया है कि फिलिस्तीन के एक आज़ाद और संप्रभु देश के गठन पर उसकी नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। सऊदी अधिकारियों ने ज़ोर देकर कहा कि फिलिस्तीनियों के अधिकार और उनकी आज़ादी सुनिश्चित किए बिना किसी भी समझौते को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

सऊदी अरब का रुख़ क्या है?

सऊदी अरब शुरू से इस बात पर क़ायम है कि फिलिस्तीन को एक मुकम्मल आज़ाद देश के रूप में मान्यता दी जाए, जिसकी राजधानी पूर्वी यरुशलम हो। रियाद ने कई बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर टू-स्टेट सॉल्यूशन (दो राष्ट्र सिद्धांत) का समर्थन किया है, जिसके तहत इसराइल और फिलिस्तीन को दो अलग-अलग आज़ाद देशों के रूप में स्थापित किया जाए।

 क्या सऊदी अरब इसराइल को मान्यता देगा?

हाल ही में इसराइल और सऊदी अरब के रिश्तों को सामान्य करने की बातचीत हो रही थी, लेकिन सऊदी नेतृत्व ने साफ कर दिया कि जब तक फिलिस्तीन को उसका हक़ नहीं मिलता और उसे न्याय नहीं दिया जाता, तब तक इसराइल को मान्यता देने का कोई सवाल ही नहीं उठता।

क्या सऊदी अरब पर दबाव है?

विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका और कुछ अन्य देश सऊदी अरब और इसराइल के बीच संबंध बेहतर बनाने के लिए दबाव बना रहे हैं, लेकिन रियाद अब तक अपने रुख़ पर क़ायम है।

फिलिस्तीन को कितना समर्थन मिलेगा?

सऊदी अरब ने हाल ही में ग़ज़ा और वेस्ट बैंक में इंसानी मदद भेजने का ऐलान किया है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि फिलिस्तीनी जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए आगे आएं।

 यह और बात है कि सऊदी अरब ने आजतक खुल कर फ़िलिस्तीन की मदद नहीं की है।

 

 

अलग-अलग मज़हबों में हिजाब

हिजाब यानी पर्दा या कवर करने का कांसेप्ट कई मज़हबों में मौजूद है। हर मज़हब में इसका मतलब और तरीका थोड़ा अलग हो सकता है। आइए देखते हैं कि हिजाब या पर्दा अलग-अलग रिलिजंस में कैसे माना जाता है।

इस्लाम

इस्लाम में औरतों और मर्दों दोनों को पर्दे की तालीम दी गई है। औरतें आमतौर पर हिजाब, दुपट्टा या चादर से अपने बाल और बॉडी को ढकती हैं। कुरआन (सूरह नूर, आयत 31 और सूरह अहज़ाब, आयत 59) में हिजाब का ज़िक्र आता है। मर्दों को भी नज़रें नीची रखने और शरीफाना लिबास पहनने की हिदायत दी गई है।

क्रिश्चियनिटी

क्रिश्चियनिटी में पहले औरतें चर्च में सर ढकती थीं। बाइबल (1st Corinthians, Chapter 11) में लिखा है कि औरतों को प्रेयर के दौरान अपना सर कवर करना चाहिए। कुछ ईसाई ग्रुप्स जैसे अमिश और मेनोनाइट्स की औरतें आज भी ट्रेडिशनल हेड कवर पहनती हैं। नन्स (ईसाई मज़हब की इबादतगुज़ार औरतें) भी स्पेशल हिजाब जैसा पहनावा रखती हैं।

यहूदियत (ज्यूडाइज़्म)

ज्यूडिज़्म में शादीशुदा औरतों को अपने बाल कवर करने का हुक्म दिया गया है। यह कवरिंग शाल (Tichel), टोपी (Hat) या विग (Sheitel) के जरिए हो सकती है। ऑर्थोडॉक्स यहूदी औरतें खासतौर पर इस रिवाज को फॉलो करती हैं।

ज़रथुश्त्र (पारसी धर्म)

ज़रथुश्त्री मज़हब में औरतें इबादत के वक्त सर कवर करती हैं। पुराने फारसी नक़्शों में भी औरतों को दुपट्टे या हिजाब जैसे कपड़ों में दिखाया गया है।

हिंदू धर्म

हिंदू कल्चर में भी औरतें दुपट्टे या साड़ी के पल्लू से सर ढकती हैं, खासकर शादीशुदा औरतें। मंदिरों में जाने के वक्त या धार्मिक फंक्शन्स के दौरान कुछ औरतें सिर ढकती हैं।

बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म में नन्स (भिक्षुणियां) स्पेशल हेड कवरिंग और सिंपल कपड़े पहनती हैं, जिससे वो अपनी जिंदगी को सादगी और इबादत के लिए समर्पित कर सकें।

नतीजा

दुनिया के बहुत से रिलिजंस में हिजाब या सर ढकने का रिवाज है। हर मज़हब में इसका मकसद अलग हो सकता है, लेकिन आमतौर पर इसे तहज़ीब, इज़्ज़त और रिलीजन की पहचान से जोड़ा जाता है।

इस्माइली समुदाय के आध्यात्मिक नेता प्रिंस करीम आगा खान का 88 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

प्रिंस करीम आगा खान का 4 फरवरी को पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में निधन हो गया। यह घोषणा की गई है कि मौलाना शाह करीम की नमाज़े जनाज़ा लिस्बन में होगी, हालाँकि, इस समय दफ़न स्थान की घोषणा नहीं की गई है। इसी तरह, व्यवस्थाओं को अंतिम रूप दिए जाने के बाद तारीख और समय की घोषणा की जाएगी। शाह करीम के परिवार, जमात के वरिष्ठ नेता और इमामत संस्थाओं से जुड़े लोग जनाजे की नमाज में शामिल होंगे।

रिपोर्ट के अनुसार, जमात के सदस्यों से अनुरोध किया गया है कि जब तक उन्हें आमंत्रित न किया जाए, वे अंतिम संस्कार की प्रार्थना में व्यक्तिगत रूप से शामिल होने का प्रयास न करें। घोषणा के अनुसार, अंतिम संस्कार की प्रार्थना का सीधा प्रसारण करने की व्यवस्था की जाएगी, जिसकी घोषणा बाद में की जाएगी।

उल्लेखनीय है कि शाह करीम अल-हुसैनी इस्माइली समुदाय के 49वें इमाम थे। परंपरा के अनुसार, उनके उत्तराधिकारी, इस्माइली समुदाय के 50वें वर्तमान इमाम को नामित किया गया है। उत्तराधिकारी का नाम प्रिंस करीम आगा खान ने अपनी वसीयत में नामित किया है, जिसे प्रिंस करीम आगा खान के परिवार और जमात के वरिष्ठ सदस्यों की उपस्थिति में पढ़ा जाएगा।

इस्माइली मान्यता के अनुसार, समुदाय कभी भी इमाम के बिना नहीं रहा है। जैसे ही उनका इमाम इस दुनिया से चला जाता है, उसका पद उसके नामित उत्तराधिकारी को सौंप दिया जाता है, और यह परंपरा चौदह सौ सालों से चली आ रही है।

जॉर्डन और ग्रीस ने गाजा पट्टी में युद्ध विराम बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया साथ ही उम्मीद जताई कि इस क्षेत्र में शांति और सुरक्षा स्थापित की जाए।

जॉर्डन और ग्रीस ने गाजा पट्टी में युद्ध विराम बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया साथ ही उम्मीद जताई कि इस क्षेत्र में शांति और सुरक्षा स्थापित की जाए।

जॉर्डन के विदेश मंत्रालय के एक बयान के अनुसार, मंगलवार को अपनी वार्ता के दौरान, दोनों पक्षों ने द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर चर्चा की। वार्ता में विशेष रूप से आर्थिक, निवेश, पर्यटन और सांस्कृतिक क्षेत्रों में।

बयान में कहा गया कि चर्चा में फिलिस्तीन, सीरिया और लेबनान के घटनाक्रमों के साथ-साथ उनसे निपटने के लिए चल रहे प्रयासों पर भी चर्चा हुई।

समाचार एजेंसी सिन्हुआ के अनुसार दोनों पक्षों ने गाजा में स्थायी युद्धविराम सुनिश्चित करने और पूरे क्षेत्र में मानवीय सहायता की तत्काल एवं पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने के महत्व पर बल दिया।सफादी ने काहिरा में आयोजित एक अरब बैठक के परिणामों के बारे में गेरापेट्राइटिस को जानकारी दी।

इसमें युद्ध विराम सुनिश्चित करने सहायता प्रदान करने और दो-राज्य समाधान के आधार पर एक न्यायपूर्ण और व्यापक शांति को आगे बढ़ाने के लिए सामूहिक अरब प्रतिबद्धता को दर्शाया गया। उन्होंने कहा कि अरब राष्ट्र क्षेत्र में न्यायपूर्ण शांति प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक और रचनात्मक रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ (ईयू) सहित अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों के साथ सहयोग करने के लिए तैयार हैं।

 

हौजा इल्मिया फातिमा दामगान के मीटिंग हॉल में बसिजी छात्रों की उपस्थिति में "नई इस्लामी सभ्यता के निर्माण में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेस (AI) का स्थान" शीर्षक से एक ज्ञानवर्धक सत्र आयोजित किया गया।

सिमनान से प्राप्त एक रिपोर्ट के अनुसार फ़ातिमा अल-ज़हरा बसीज छात्रों की पर्यवेक्षक सुश्री बनयान ने सूर ए अलक़ की शुरुआती आयतों का उल्लेख किया, "अपने रब के नाम से पढ़ो जिसने इंसान को पैदा किया, मिट्टी का एक टुकड़ा," और कहा: "यहूदी और बहुदेववादी इस्लाम के शुरुआती दिनों से लेकर आज तक, उन्हें इस्लाम धर्म का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है।

उन्होंने कहा: यहूदियों ने पैगम्बरों (स) को अपने मार्ग में बाधा माना और उन्हें खत्म करने की कोशिश की, और आज भी वे विभिन्न तरीकों से इस्लाम की रोशनी को बुझाने की कोशिश कर रहे हैं।

अपने भाषण के दौरान, उन्होंने  आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेस, इस्लाम के प्रचार और आधुनिक इस्लामी सभ्यता का उल्लेख करते हुए कहा: "वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति और  आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेस के संदर्भ में, सर्वोच्च नेता ने प्रचार, रचनात्मकता और आधुनिक इस्लामी सभ्यता के आधुनिक तरीकों के उपयोग पर भी जोर दिया।" आधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रभावी उपयोग पर जोर दिया गया है।

सुश्री बनयान ने कहा: सच्चे इस्लाम का प्रभावी ढंग से प्रचार करने के लिए, दुनिया की विभिन्न भाषाओं में  आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेस के माध्यम से कुरान और हदीस को सर्वोत्तम संभव रूप में प्रस्तुत करना आवश्यक है।

उन्होंने छात्रों से  आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेस (AI) पर ध्यान केंद्रित करने का आग्रह करते हुए कहा, "आधुनिक विज्ञान और  आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेस के उपयोग में विशेषज्ञता हासिल करें ताकि इस्लामी शिक्षाओं को दुनिया के सामने अधिक प्रभावी, रचनात्मक और आधुनिक तरीके से प्रस्तुत किया जा सके।"

भारत सरकार ने इराक के कुर्दिस्तान क्षेत्र में स्थित हलबजा प्रांत को सात हजा़र किलोग्राम से अधिक आवश्यक चिकित्सा आपूर्ति पहुंचाई है।

एक रिपोर्ट के अनुसार,भारत सरकार ने इराक के कुर्दिस्तान क्षेत्र में स्थित हलबजा प्रांत को 7हज़ार किलोग्राम से अधिक आवश्यक चिकित्सा आपूर्ति पहुंचाई है।

मानवता के लिए भारत पहल का हिस्सा यह मानवीय दान वैश्विक स्वास्थ्य मानवीय सहायता और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है भारत ने इराक के साथ लंबे समय से ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध साझा किए हैं और यह एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और एकीकृत राष्ट्र का दृढ़ समर्थक रहा है।

चिकित्सा आपूर्ति को औपचारिक रूप से क्षेत्र के विनाशकारी रासायनिक हमलों के बचे लोगों की सहायता के लिए हलबजा अस्पताल को सौंप दिया गया है।

वह शिपमेंट भारत के विश्वबंधु भारत विजन का हिस्सा था जो वैश्विक सहयोगी के रूप में भारत की भूमिका का प्रतीक है एक आधिकारिक बयान में एरबिल में स्थित भारतीय महावाणिज्य दूतावास ने कुर्दिस्तान क्षेत्र के साथ संबंधों को मजबूत करने के लिए भारत की प्रतिबद्धता की पुष्टि की।

बयान में कहा गया है महत्वपूर्ण चिकित्सा आपूर्ति प्रदान करके भारत का उद्देश्य जरू रतमंद लोगों की भलाई में योगदान देना और कुर्दिस्तान के साथ अपने ऐतिहासिक और मैत्रीपूर्ण संबंधों को और गहरा करना है।

महावाणिज्य दूतावास ने स्वास्थ्य सेवा विकास परियोजनाओं और क्षमता निर्माण में कुर्दिस्तान क्षेत्रीय सरकार के साथ सहयोग बढ़ाने की भारत की इच्छा पर भी जोर दिया जिससे दोनों देशों के बीच लंबे समय से चली आ रही साझेदारी को मजबूती मिली है।

इमाम अली इब्ने हुसैन अलैहिमुस्सलाम, ज़ैनुल आबेदीन और सज्जाद के नाम से मशहूर हैं और मशहूर रेवायत के अनुसार आपका जन्म वर्ष 38 हिजरी में शाबान के महीने में मदीना शहर में हुआ। कर्बला की घटना में आप 22 या 23 साल के जवान थे और मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार आप उम्र के लिहाज से अपने भाई अली अकबर अलैहिस्सलाम से छोटे थे।

इमाम अली इब्ने हुसैन अलैहिमुस्सलाम, ज़ैनुल आबेदीन और सज्जाद के नाम से मशहूर हैं और मशहूर रेवायत के अनुसार आपका जन्म वर्ष 38 हिजरी में शाबान के महीने में मदीना शहर में हुआ। कर्बला की घटना में आप 22 या 23 साल के जवान थे और मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार आप उम्र के लिहाज से अपने भाई अली अकबर अलैहिस्सलाम से छोटे थे।

इमाम अली इब्ने हुसैन अलैहिमुस्सलाम, ज़ैनुल आबेदीन और सज्जाद के नाम से मशहूर हैं और मशहूर रेवायत के अनुसार आपका जन्म वर्ष 38 हिजरी में शाबान के महीने में मदीना शहर में हुआ। कर्बला की घटना में आप 22 या 23 साल के जवान थे और मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार आप उम्र के लिहाज से अपने भाई अली अकबर अलैहिस्सलाम से छोटे थे।

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की ज़िंदगी की सामाजिक, शैक्षिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भों से समीक्षा की जा सकती है। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की पाक ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि आप कर्बला की घटना में अपने पिता शहीदों के सरदार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ थे और शहीदों की शहादत के बाद अपनी फुफी हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के साथ कर्बला की क्रांति और आशूरा के आंदोलन का संदेश लेकर बनी उमय्या के हाथों बंदी बनाये जाने के दौरान आशूरा के संदेश को प्रभावी तरीके से दुनिया वालों तक और रहती दुनिया तक के आज़ाद इंसानों तक पहुंचा दिया।

आशूरा का आंदोलन एक अमर इस्लामी आंदोलन है जो मुहर्रम सन् 61 हिजरी में अंजाम पाया। यह आंदोलन दो चरणों पर आधारित था। पहला चरण आंदोलन की शुरूआत से जेहाद, त्याग, शहादत और इस्लाम की रक्षा के लिए खून व जान की कुर्बानी देने का चरण था जिसमें न्याय की स्थापना की दावत भी दी गई और मोहम्मद स.अ. के दीन के पुनर्जीवन और नबवी व अल्वी चरित्र को जीवित करने के लिए बलिदान भी दिया गया। पहला चरण वर्ष 60 हिजरी में रजब के महीने से शुरू हुआ और 10 मुहर्रम सन् 61 हिजरी में ख़त्म हुआ। जबकि दूसरा चरण इस आंदोलन व क्रांति को स्थिरता देने, आंदोलन का संदेश पहुंचाने और ज्ञानात्मक व सांस्कृतिक संघर्ष तथा इस आंदोलन के पवित्र उद्देश्य की व्याख्या का चरण था। पहले चरण का नेतृत्व शहीदों के सरदार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने की थी तो दूसरे चरण का नेतृत्व इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के कांधों पर थी।

इमामत और आशूरा के आंदोलन का नेतृत्व इमाम अ. को ऐसे हाल में सौंपा गया था कि अली अलैहिस्सलाम के परिवार के महत्वपूर्ण सदस्य आपके साथ बंदी बनकर अमवियों की राजधानी दमिश्क की ओर स्थानांतरित किए जा रहे थे, अली अ. का परिवार हर प्रकार की आरोपों और तोहमतों के साथ साथ फिज़ीकी और शारीरिक रूप से भी बनी उमय्या के अत्याचार का निशाना बना हुआ था और उनमें से बहुत से महत्वपूर्ण लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथियों के साथ कर्बला में शहादत पा चुके थे और बनी उमय्या के मक्कार शासक अवसर का फायदा उठाकर हर प्रकार का आरोप लगाने में अपने आपको पूरी तरह से स्वतंत्र समझ रहे थे क्योंकि मुसलमान जेहाद की भावना खो चुके थे और हर कोई अपनी सुरक्षा को ज़रूरी समझता था।

उस युग में धार्मिक मूल्य तब्दील और विकृत किये जा रहे थे, लोगों में धार्मिक कामों के लिये जोश ख़त्म हो चुका था, धार्मिक आदेश अमवी नाकारा शासकों के हाथों का खिलौना बन चुके थे, आरोपों और तोहमों को प्रचलित किया जा रहा था, अमवियों के आतंकवाद और हिंसा, आतंक भय फैलाने के रणनीति के तहत मुसलमानों में शहादत और बहादुरी की भावनाएं जवाब दे चुकी थीं। अगर एक तरफ धार्मिक आदेशों व शिक्षाओं से मुंह फेरने पर कोई रोक-टोक नहीं थी तो दूसरी ओर से समय की हुकूमत की आलोचना के इल्ज़ाम में कड़ी से कड़ी सज़ाएं दी जाती थीं, लोगों को अमानवीय अत्याचार का निशाना बनाय जाता था और उनका घर बार लूट लिया जाता था और उनकी संपत्ति अमवी शासकों के पक्ष में जब्त किर ली जाती थी और उन्हें इस्लामी समाज की सभी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता था और इस संबंध में बनी हाशिम को विशेष रूप से निशाना बनाया जाता था।

उधर ऑले उमय्या की नीति यह थी कि वह लोगों को रसूले इस्लाम स.अ. के परिवार से संपर्क बनाने से रोकते थे और उन्हें रसूल स.अ. के अहलेबैत अ. के खिलाफ कार्रवाई करने पर आमादा करते थे वह लोगों को अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की बातें सुनने तक से रोक देते थे जैसा कि यज़ीद का दादा और मुआविया का बाप सख़्र इब्ने हर्ब (अबू सुफ़यान) अबूजहल और अबूलहब आदि के साथ मिलकर बेसत के बाद के दिनों में लोगों को पैगम्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम की बातें सुनने से रोकते थे और उनसे कहते थे कि आपकी बातों में जादू है, सुनोगे तो जादू का शिकार हो जाओगे।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने ऐसे हालात में इमामत की ज़िम्मेदाकी संभाली जबकि केवल तीन लोग आपके वास्तविक पैरोकार थे और आपने ऐसे ही हाल में ज्ञान व सांस्कृतिक व शैक्षणिक संघर्ष और इल्मी और सांस्कृतिक हस्तियों का प्रशिक्षण शुरू किया और एक गहन और व्यापक आंदोलन के माध्यम इमामत की भूमिका अदा करना शुरू की और इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम का यही शैक्षिक और प्रशैक्षिणिक आंदोलन, इमाम मुहम्मद बाक़िर और इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिमुस्सलाम के महान इल्मी क्रांति का आधार साबित हुई। इसी आधार पर कुछ लेखकों ने इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम को नए सिरे से इस्लाम को गति देने और सक्रिय करने वाले का नाम दिया है।

करबला की घटना के गवाह

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम कर्बला में हुसैनी आंदोलन में शरीक थे इसमें किसी को कोई मतभेद नहीं है लेकिन हुसैनी आंदोलन की शुरुआत के दिनों से इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की सामाजिक और राजनीतिक भूमिका के बारे में इतिहास हमें कुछ अधिक जानकारी देने में असमर्थ नजर आता है । यानी हमारे पास रजब के महीने से जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना से मक्का की ओर रवाना हुए, मक्का में रूके और फिर कूफ़ा रवाना हुए और 10 मुहर्रम सन् 61 हिजरी को शहीद हुए लेकिन इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की भूमिका के बारे में इतिहास कुछ अधिक सूचना हम तक पहुंचाने में असमर्थ है और इतिहास में हमें इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम आशूर की रात दिखाई देते हैं और आशूरा की रात इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की पहली राजनीतिक और सामाजिक भूमिका दर्ज हुई है।

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं: आशूर की रात मेरे बाबा (इमाम हुसैन इब्ने अली अलैहिस्सलाम) ने अपने साथियों को बुलवाया। मैं बीमारी की हालत में अपने बाबा की सेवा में उपस्थित हुआ ताकि आपकी बातें सुनूं। मेरे बाबा ने कहा: मैं अल्लाह तआला की तारीफ़ करता हूँ और हर खुशी और दुख में उसका शुक्र अदा करता हूँ ... मैंने अपने साथियों से ज़्यादा वफ़ादार और बेहतर साथी नहीं देखे और अपने परिवार से ज़्यादा आज्ञाकारी, आज्ञाकारी परिवार नहीं देखा।

मैं जानता हूँ कि कल (आशूरा के दिन) हमें इन सज़ीदियों के साथ जंग करनी होगी। मैं तुम सभी को इजाज़त देता हूँ और अपनी बैअत तुम पर से उठा लेता हूँ ताकि तुम दूरी तय करने और ख़तरे से दूर रहने के लिए रात के अंधेरे का फायदा उठा लो और तुम में से हर आदमी मेरे परिवार के एक व्यक्ति का हाथ पकड़ ले और सब विभिन्न शहरों में फैल जाओ ताकि अल्लाह तुम पर अपनी रहमत नाज़िल करे। क्योंकि यह लोग सिर्फ मुझे मारना चाहते हैं और अगर मुझे पा लेंगे तो तुमसे कोई सरोकार नहीं रखेंगे।

उस रात इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम बीमार थे और यह तथ्य भी देख रहे थे तो आपके लिए वह रात बहुत अजीब रात थी। आपने उस रात इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की आत्मा की गरिमा और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथियों की बहादुरी और वफादारी के उच्चतम स्थान को देखा, जब आप अपने आपको बाद के दिनों के लिए तैयार कर रहे थे।

हज़रत अली इब्ने हुसैन . कहते हैं: आशूर की रात में मैं बैठा था और मेरी फुफी ज़ैनब मेरी तीमारदारी कर रही थीं। इसी बीच में मेरे बाबा अस्हाब से अलग होकर अपने खैमे में आए। आपके खौमे में अबुज़र के गुलाम “जौन” भी थे जो आपकी तलवार को चमका रहे थे और उसकी धार सही कर रहे थे जबकि मेरे बाबा यह पंक्तियां पढ़ रहे थे:

يا دهر افٍّ لک من خليل

کَمْ لَکَ في الاشراق و الأَصيل

من طالبٍ و صاحبٍ قتيل

و الدّهر لايقَنُع بالبديل

و انّما الأمر الي الجليل

و کلُّ حيٍّ سالکُ سبيلا

ऐ दुनिया और ऐ जमाने! उफ़ है तेरी दोस्ती पर कि तू अपने बहुत से दोस्तों को सुबह और शाम मौत के सुपुर्द करती है और मारते हुए किसी का बदला भी स्वीकार नहीं करती। और निसंदेह सभी कुछ ख़ुदा की क़ुदरत में हैं और संदेह नहीं है कि हर ज़िंदा और आत्मा रखने वाली हर चीज़ को इस दुनिया से जाना है। (बिहारूल अनवार भाग 45 पेज 2)

लगभग सभी इतिहासकार सहमत हैं कि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम कर्बला में बीमार थे और यह बीमारी उम्मत के लिए अल्लाह की एक मसलहत थी और उद्देश्य यह था कि इमाम ज़मीन पर बाक़ी रहे और उसे कोई नुक़सान न पहुचे और अल्लाह की विलायत और पैगम्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलिही वसल्लम की विलायत और उनके उत्तराधिकारियों का सिलसिला न टूटने पाय। इसलिए इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम इसी बीमारी के कारण जंग के मैदान में उपस्थित नहीं हुए। करबला में मर्दों में इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम और इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ही थे जो जीवित रहे और उम्मत की लीडरशिप का परचम संभाले रहे। इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम उस समय 4 साल या उससे भी कम उम्र के थे।

एक रेवायत के अनुसार 15 जमादीउल अव्वल सन 38 हिजरी को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को अल्लाह तआला ने वह चाँद सा बेटा दिया कि उसकी रौशनी से अरब और गैर अरब सभी रौशन हो गए।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का असली नाम अली था, जैसा कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने सभी बेटों के नाम अपने बाबा के नाम पर अली ही रखे थे, इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का सर्वनाम अबुल हसन और अबू मोहम्मद था, ज़ैनुल आबेदीन, सैयदुस्साजेदीन, सैयदे सज्जाद, ज़की और अमीन आपकी मशहूर उपाधियां हैं।

जन्म के कुछ दिनों बाद ही माँ के साये से वंचित हो गए और जैसा कि कहा जाता है कि अपनी ख़ाला जनाब मोहम्मद इब्ने अबी बक्र की बीवी गीहान बानो की गोद में परवरिश पाई जिन्होंने गवर्नर के रूप में मिस्र जाते समय सीरियाई सेना के हाथों अपने पति मोहम्मद इब्ने अबी बक्र की शहादत के बाद दूसरी शादी करना गवारा नहीं किया और भाँजे को अपने बच्चों की तरह पाला पोसा और बड़ा किया।

इमाम सज्जाद अभी 2 साल के थे कि आपके दादा अमीरूल मोमिनी अली इब्ने अबी तालिब शहीद कर दिए गए आप 12 साल की उम्र तक इमाम हसन अलैहिस्सलाम और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम दोनों के साथ रहे लेकिन सन 50 हिजरी में इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद अपने बाबा के साथ दस साल ख़ामोशी में गुज़ारे और सन 61 हिजरी में कर्बला की हृदयविदारक घटना में भी हिस्सा लिया और कर्बला के आंदोलन को 35 साल तक अपने कंधों पर उठाए रखा और इस्लाम के इलाही संदेशों की सख्त से सख्त हालात में सुरक्षा की। वर्ष 57 हिजरी में इमाम हसन अलैहिस्सलाम की बेटी फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा से आपकी शादी हुई और इस्लामी इतिहास में एक बार फिर अली और फ़ातिमा शादी के बंधन में बंधे और इस पाकीज़ा रिश्ते के परिणाम में रसूले इस्लाम स.अ. के दोनों बेटों अर्थात इमाम हसन अलैहिस्सलाम व हुसैन अलैहिस्सलाम के वंश से पांचवें इमाम, इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम पैदा हुये, इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम भी करबला में लगभग चार साल के थे।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के एक और बेटे ज़ैद शहीद हैं, जो बड़े ही नेक इंसान थे और वर्ष 121 हिजरी में अमवियों के हाथों कूफे में शहीद हुए। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की इमामत का 35 वर्षीय दौर बहुत ही घुटन और यातना का दौर रहा है, इस दौर में अत्याचारी यज़ीद के बाद हुकूमत मर्वान औ मर्वान की संतानों के हाथों में स्थानांतरित हो गई। हज्जाज इब्ने यूसुफ के हाथों आपके बेशुमार दोस्तों और चाहने वालों को शहीद कर दिया गया। एक के बाद एक बनी उमय्या के छह शासकों ने सत्ता संभाली और सभी की राजनीति लोगों को धर्म से दूर करना ती, ऐसे में इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने अपनी ज़िम्मेदारी यानि इस्लाम की सुरक्षा के लिये आंसू और दुआ को इस्लाम व क़ुरआन की सुरक्षा का हथियार बनाया और दुआ से लोगों के दिलों और आंसुओं से मोमिनों की आँखों को अपना आशिक़ बना लिया।

सहीफ़ा-ए-सज्जादिया दुआओं का शाहकार और इमाम हुसैन अ. की अजादारी में आपके आंसुओं की यादगार है। उलेमा-ए-इस्लाम की सहमति है कि दुनिया की सबसे महान किताब, अल्लाह की किताब यानी कुरआन है और फिर अमीरूल मोमिनीन की किताब नहजुल बलाग़ा है जिसके बाद सहीफ़ा-ए-सज्जादिया है। इसीलिए कुछ इस्लामी उल्मा ने इसको कुरआन की बहेन औऱ अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की इंजील और आले मुहम्मद स.अ. की ज़बूर का नाम दिया है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की एक और कीमती यादगार आपका अधिकारों पर आधारित रेसालह है जिसमें आपने इंसानों के एक दूसरे पर विभिन्न अधिकारों और कर्तव्यों को बयान किया है। हम अपने इस संक्षिप्त लेख को इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के इसी रेसाले के एक अधिकार के कुछ वाक्यों पर ख़त्म करते हैं।

इमाम कहते हैं: "अपने साथी और दोस्त का आप पर यह अधिकार है कि आप उस पर एहसान करें और अच्छा व्यवहार करें, यदि ऐसा न कर सकें तो कमसे कम न्याय का दामन हाथ से न जाने दें जहां तक संभव हो इस दोस्ती में कोताही न बरतें उसके शुभचिंतक व समर्थक रहें और दया और करुणा का स्रोत बने रहें और कठिनाई व मुश्किल का कारण न बनें।"

 

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विलादत बासअदत का दिन हर मुहब्बत ए अहले बैत के लिए खुशी सआदत और रहमत का पैगाम लाता है आपकी पाक़ ज़ात सिर्फ़ इस्लामी तारीख़ में क़र्बानी सब्र और इस्तिक़ामत की आलातरीन मिसाल नहीं है बल्कि कुरआन करीम की रौशनी में भी आप वह हस्ती हैं जो टूटे हुए दिलों के लिए शिफ़ा और बीमार रूहों के लिए तस्कीन का ज़रिया हैं।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विलादत बासअदत का दिन हर मुहब्बत-ए-अहले बैत के लिए खुशी सआदत और रहमत का पैगाम लाता है। आपकी पाक ज़ात सिर्फ इस्लामी इतिहास में क़र्बानी, सब्र और इस्तिक़ामत की आला तरीन मिसाल नहीं है बल्कि कुरआन करीम की रोशनी में भी आप वह हस्ती हैं जो टूटे दिलों के लिए शिफ़ा और बीमार रूहों के लिए तस्कीन का ज़रिया हैं।

कुरआन में अल्लाह तआला ने अहले बैत अलैहिस्सलाम की अज़मत को स्पष्ट किया है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़ात को समझने के लिए हमें कुरआन में वर्णित उन विशेषताओं की ओर देखना होगा जो अल्लाह के पसंदीदा बंदों के लिए बताई गई हैं।

अल्लाह तआला ने अहले बैत अलैहिस्सलाम की तहारत को सुरह अहज़ाब में इस प्रकार बयान किया:

إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّهُ لِيُذْهِبَ عَنكُمُ الرِّجْسَ أَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيرًا (अल-अहज़ाब: 33)

बेशक अल्लाह यही चाहता है कि वह तुमसे हर प्रकार की नापाकी दूर कर दे, ओ अहले बैत, और तुम्हें पूरी तरह से पाक कर दे।

यह आयत स्पष्ट करती है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम उन हस्तियों में से हैं जिन्हें अल्लाह ने हर प्रकार की आत्मिक गंदगी से पाक रखा और यही पाकीजगी लोगों के दिलों के लिए शिफ़ा का ज़रिया है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम सब्र और इस्तिक़ामत की निशानी हैं कुरआन में अल्लाह तआला फरमाता है:

وَبَشِّرِ ٱلصَّـٰبِرِينَ ٱلَّذِينَ إِذَآ أَصَـٰبَتْهُم مُّصِيبَةٌ قَالُوٓاْ إِنَّا لِلَّهِ وَإِنَّآ إِلَيْهِ رَٰجِعُونَ (अल-बकरा: 155-156)

और सब्र करने वालों को खुशखबरी दे दो, वह लोग कि जब उन पर कोई मुसीबत आती है तो कहते हैं: हम अल्लाह के हैं और उसी की ओर लौट कर जाने वाले हैं।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का पूरा जीवन सब्र और इस्तिक़ामत की मिसाल था और कर्बला के मैदान में उनका हर शब्द और कर्म इस आयत की वास्तविक व्याख्या था आपने हर परीक्षा में अल्लाह की रज़ा पर सब्र किया और यही सब्र टूटे हुए दिलों के लिए मरहम बन जाता है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हक के रास्ते के रोशन दीए हैं। कुरआन में अल्लाह तआला फरमाता है:

وَجَعَلْنَاهُمْ أَئِمَّةًۭ يَهْدُونَ بِأَمْرِنَا (अल-अम्बिया: 73)

और हम ने उन्हें इमाम बनाया जो हमारे आदेश से हिदायत देते थे।

यह आयत इस हकीकत को स्पष्ट करती है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हिदायत के वो दीए हैं जिनकी रौशनी हर दौर में हक के तलाशियों का रास्ता रोशन करती है आपने हक और बातिल के बीच इतना स्पष्ट फर्क दिखाया कि क़ियामत तक इंसानियत के लिए हिदायत का एक रोशन मीनार बन गए।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम दिलों की शिफ़ा हैं। कुरआन में अल्लाह तआला फरमाता है:

يَا أَيُّهَا النَّاسُ قَدْ جَاءَتْكُم مَّوْعِظَةٌ مِّن رَّبِّكُمْ وَشِفَاءٌ لِّمَا فِي الصُّدُورِ (यूनुस: 57)

ऐ लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे रब की उपदेश और दिलों के लिए शिफ़ा आ चुकी है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सीरत और क़र्बानी इस आयत की वास्तविक व्याख्या है। आपका ज़िक्र ग़मजदा दिलों के लिए तस्कीन और टूटे हुए दिलों के लिए इलाज है जो कोई सच्चे दिल से आपके दर पर आता है, उसे रूहानी शिफ़ा मिलती है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विलादत अल्लाह की रहमत का संदेश है आपकी विलादत सिर्फ़ एक ऐतिहासिक घटना नहीं है बल्कि यह अल्लाह की ओर से एक नेमत है जो दुनिया को हिदायत और सब्र का संदेश देती है। आपकी पाक ज़ात उन सभी लोगों के लिए उम्मीद का दीया है जो जिंदगी के दुःख और मुश्किलों से गुजर रहे हैं।

जब भी कोई मुश्किलों का बोझ महसूस करता है, जब भी कोई खुद को टूटे हुए दिल के रूप में पाता है, जब भी कोई गुनाहों की बीमारी से ग्रस्त हो, तो हुसैन अलैहिस्सलाम की ओर रुख करने से उसके जख़्मों पर मरहम रखा जा सकता है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शख्सियत वह इलाज है जो टूटे और बीमार दिलों को शांति देती है। उनकी सीरत, उनकी क़र्बानी, और उनका पैगाम कुरआन की रौशनी में पूरा हिदायत और रहमत है। आपकी विलादत का दिन अल्लाह की ओर से इस महान नेमत के उतारने का दिन है जो दुनिया को रोशनी, सब्र और हक परस्ती का रास्ता दिखाता है।

तो आइए इस मुबारक दिन को इस इरादे के साथ मनाएं कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के नक़्श-ए-क़दम पर चलेंगे, सब्र, हक परस्ती और अल्लाह की रज़ा को अपनी जिंदगी का मकसद बनाएंगे, ताकि हम भी दिलों के जख़्मों पर हुसैनीयत का मरहम रख सकें।

मंगलवार, 04 फरवरी 2025 06:37

हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के वीर पुत्र हज़रत अब्बास के शुभ जन्मदिवस पर आप सबकी सेवा में बधाई प्रस्तुत करते हैं। जब हम आस्था, वीरता और निष्ठा के उच्च शिखर की ओर देखते हैं तो हमारी दृष्टि अब्बास जैसे महान एवं अद्वितीय व्यक्ति पर पड़ती है जो हज़रत अली की संतान हैं। वे उच्चता, उदारता और परिपूर्णता में इतिहास में दमकते हुए व्यक्तित्व के स्वामी हैं। बहुत से लोगों ने धार्मिक आस्था, वीरता और वास्तविकता की खोज उनसे ही सीखी है। वर्तमान पीढ़ी उन प्रयासों की ऋणी है जिनके अग्रदूत अबुलफ़ज़लिल अब्बास जैसा व्यक्तित्व है।

उस बलिदान और साहस की घटना को घटे हुए अब शताब्दियां व्यतीत हो चुकी हैं किंतु इतिहास अब भी अब्बास इब्ने अली की विशेषताओं से सुसज्जित है। यही कारण है कि शताब्दियों का समय व्यतीत हो जाने के बावजूद वास्तविक्ता की खोज में लगी पीढ़ियों के सामने अब भी उनका व्यक्तित्व दमक रहा है।

यदि इतिहास के महापुरूषों में हज़रत अब्बास का उल्लेख हम पाते हैं तो वह इसलिए है कि उन्होंने मानव पीढ़ियों के सामने महानता का जगमगाता दीप प्रज्वलित किया और सबको मानवता तथा सम्मान का पाठ दिया। बहादुरी, रणकौशल, उपासना, ईश्वर की प्रार्थना हेतु रात्रिजागरण और ज्ञान आदि जैसी विशेषताओं में हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास का व्यक्तित्व, जाना-पहचाना है।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की शहादत के पश्चात इमाम अली अलैहिस्सलाम ने जो दूसरी पत्नी ग्रहण कीं उनका नाम फ़ातेमा केलाबिया था। वे सदगुणों की स्वामी थीं और पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार से विशेष निष्ठा रखती थीं। पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार के प्रति उनका अथाह प्रेम पवित्र क़ुरआन की इस आयत के परिदृष्य में था कि पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी का बदला, उनके परिजनों के साथ मित्रता और निष्ठा है। सूरए शूरा की आयत संख्या २३ में ईश्वर कहता है, "कह दो कि अपने परिजनों से प्रेम के अतिरिक्त मैं तुमसे अपनी पैग़म्बरी का कोई बदला नहीं चाहता। (सूरए शूरा-२३) उन्होंने इमाम हसन, इमाम हुसैन, हज़रत ज़ैनब और उम्मे कुल्सूम जैसी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की निशानियों के साथ कृपालू माता की भूमिका निभाई और स्वयं को उनकी सेविका समझा। इसके मुक़ाबले में अहलेबैत अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के निकट इस महान महिला को विशेष सम्मान प्राप्त था। हज़रत ज़ैनब उनके घर जाया करती थीं और उनके दुखों में वे उनकी सहभागी थीं।

हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास एक ऐसी ही वीर और कर्तव्यों को पहचानने वाली माता के पुत्र थे। चार पुत्रों की मां होने के कारण फ़ातेमा केलाबिया को "उम्मुलबनीन" अर्थात पुत्रों की मां के नाम की उपाधि दी गई थी। उम्मुलबनीन के पहले पुत्र हज़रत अब्बास का जन्म ४ शाबान वर्ष २६ हिजरी क़मरी को पवित्र नगर मदीना में हुआ था। उनके जन्म ने हज़रत अली के घर को आशा के प्रकाश से जगमगा दिया था। हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम अतयंत सुन्दर और वैभवशाली थे। यही कारण है कि अपने सुन्दर व्यक्तित्व के दृष्टिगत उन्हें "क़मरे बनी हाशिम" अर्थात बनीहाशिम के चन्द्रमा की उपाधि दी गई।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम जैसे पिता और उम्मुल बनीन जैसी माता के कारण हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास उच्चकुल के स्वामी थे और वे हज़रत अली की विचारधारा के सोते से तृप्त हुए थे। अबुल फ़ज़लिल अब्बास के आत्मीय एवं वैचारिक व्यक्तित्व के निर्माण में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की विशेष भूमिका रही है

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने पुत्र अब्बास को कृषि, शरीर एवं आत्मा को सुदृढ़ बनाने, तीर अंदाज़ी, और तलवार चलाने जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया था। यही कारण है कि हज़रत अब्बास कभी कृषि कार्य में व्यस्त रहते तो कभी लोगों के लिए इस्लामी शिक्षाओं का वर्णन करते। वे हर स्थिति में अपने पिता की भांति निर्धनों तथा वंचितों की सहायता किया करते थे। भाग्य ने भी उनके लिए निष्ठा, सच्चाई और पवित्रता की सुगंध से मिश्रित भविष्य लिखा था।

हज़रत अब्बास की विशेषताओं में से एक, शिष्टाचार का ध्यान रखना और विनम्रता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने पुत्र से कहते हैं कि हे मेरे प्रिय बेटे, शिष्टाचार बुद्धि के विकास, हृदय की जागरूकता और विशेषताओं एवं मूल्यों का शुभआरंभ है। वे एक अन्य स्थान पर कहते हैं कि शिष्टाचार से बढ़कर कोई भी मीरास अर्थात पारिवारिक धरोहर नहीं होती।

इस विशेषता मे हज़रत अबुलफ़ज़ल सबसे आगे और प्रमुख थे। अपने पिता की शहादत के पश्चात उन्होंने अपने भाई हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता में अपनी पूरी क्षमता लगा दी। किसी भी काम में वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से आगे नहीं बढ़े और कभी भी शिष्टाचार एवं सम्मान के मार्ग से अलग नहीं हुए।

विभिन्न चरणों में हज़रत अब्बास की वीरता ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साहस और गौरव को प्रतिबिंबित किया। किशोर अवस्था से ही हज़रत अब्बास कठिन परिस्थितियों में अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ उपस्थित रहे और उन्होंने इस्लाम की रक्षा की। करबला की त्रासदी में वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सेना के सेनापति थे और युद्ध में अग्रिम पंक्ति पर मौजूद रहे। आशूरा अर्थात दस मुहर्रम के दिन हज़रत अब्बास ने अपने भाइयों को संबोधित करते हुए कहा था कि आज वह दिन है जब हमें स्वर्ग का चयन करना है और अपने प्राणों को अपने सरदार व इमाम पर न्योछावर करना है। मेरे भाइयों, एसा न सोचो कि हुसैन हमारे भाई हैं और हम एक पिता की संतान हैं। नहीं एसा नहीं है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हमारे पथप्रदर्शक और धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। वे हज़रत फ़ातेमा के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम के नाती हैं। जिस समय इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके निष्ठावान साथी उमवी शासक यज़ीद की सेना के परिवेष्टन में आ गए तो हज़रत अब्बास सात मुहर्रम वर्ष ६१ हिजरी क़मरी को यज़ीद के सैनिकों के घेराव को तोड़ते हुए इमाम हुसैन के प्यासे साथियों के लिए फुरात से पानी लाए।

तीन दिनों के पश्चात आशूर के दिन जब इमाम हुसैन के साथियों पर यज़ीद के सैनिकों का घेरा तंग हो गया तो इमाम हुसैन के प्यासे बच्चों तथा साथियों के लिए पानी लेने के उद्देश्य से हज़रत अब्बास बहुत ही साहस के साथ फुरात तक पहुंचे। इस दौरान उन्होंने उच्चस्तरीय रणकौशल का प्रदर्शन किया। हालांकि वे स्वयं भी बहुत भूखे और प्यासे थे किंतु इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्यासे बच्चों और साथियों की प्यास को याद करते हुए उन्होंने फुरात का ठंडा तथा शीतल जल पीना पसंद नहीं किया। फुरात से वापसी पर यज़ीद के कायर सैनिकों के हाथों पहले हज़रत अब्बास का एक बाज़ू काट लिया गया जिसके पश्चात उनका दूसरा बाजू भी कट गया और अंततः वे शहीद कर दिये गए।

जिस समय हज़रत अब्बास घोड़े से ज़मीन पर आए, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम बहुत ही बोझिल और दुखी मन से उनकी ओर गए, उन्होंने हज़रत अब्बास के सिर को अपने दामन में रखते हुए कहा, हे मेरे भाई इस प्रकार के संपूर्ण जेहाद के लिए ईश्वर तुम्हें बहुत अच्छा बदला दे। इसी संबंध में हज़रत अब्बास की विशेषताओं को सुन्दर वाक्यों और मनमोहक भावार्थ में व्यक्त करते हुए इमाम जाफ़रे सादिक़ ने एसे वाक्य कहे हैं जो ईश्वरीय दूतों की आकांक्षाओं की पूर्ति के मार्ग में हज़रत अब्बास के बलिदान और उनकी महान आत्मा के परिचायक हैं। वे कहते हैं कि मैं गवाही देता हूं कि आपने अच्छाइयों के प्रचार व प्रसार तथा बुराइयों को रोकने के दायित्व का उत्तम ढंग से निर्वाह किया और इस मार्ग में अपने भरसक प्रयास किये। मैं गवाही देता हूं कि आपने कमज़ोरी, आलस्य, भय या शंका को मन में स्थान नहीं दिया। आपने जिस मार्ग का चयन किया वह पूरी दूरदर्शिता से किया। आपने सच्चों

इतिहास में बलिदान और वफ़ा की मिसाल, हज़रत अबुल फ़जलिल अब्बास (अ) की शख्सियत सूरज की तरह साफ और रोशन है। 1400 सालों से उनके गुण और महिमा पर भाषण और लेखन के ज़रिए बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। हालांकि हर एक चाहने वाले ने अपनी पूरी कोशिश की है, लेकिन यह मुमकिन नहीं कि कोई सूरज के एक छोटे से कण को भी सही से समझ सके। जब सही समझना ही मुमकिन नहीं तो न तो बयान और न ही लिखाई उनके हक़ को अदा कर सकती है।

इतिहास में बलिदान और वफ़ा की मिसाल, हज़रत अबुल फ़जलिल अब्बास (अ) की शख्सियत सूरज की तरह साफ और रोशन है। 1400 सालों से उनके गुण और महिमा पर भाषण और लेखन के ज़रिए बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। हालांकि हर एक चाहने वाले ने अपनी पूरी कोशिश की है, लेकिन यह मुमकिन नहीं कि कोई सूरज के एक छोटे से कण को भी सही से समझ सके। जब सही समझना ही मुमकिन नहीं तो न तो बयान और न ही लिखाई उनके हक़ को अदा कर सकती है।

इसलिए ज़रूरी है कि हज़रत अबुल फ़जलिल अब्बास (अ) की पहचान हासिल करने के लिए हम 14 इमामों (अ) के क़लाम पर ध्यान दें, क्योंकि उनका ज्ञान ईश्वर से है और वह वही कहते और करते हैं जो अल्लाह चाहता है।

किताब अल-केब्रीत अल-एहमर में आया है कि रसूल अल्लाह (स) ने हज़रत अबुल फ़जलिल अब्बास (अ) से कहा: "अल्लाह तुम्हारी आँखों को रोशन करे, तुम लोगों की ज़रूरतें पूरी करने वाले हो, और जिसकी चाहो शफाअत करो।"

किताब मामालि अल-सबतैन में है कि अमीरुल मोमिनीन इमाम अली (अ) ने शहादत के पल में हज़रत अबुल फ़जल अब्बास (अ) को अपने पास बुलाया और कहा: "मेरे बेटे! क़ियामत के दिन तुम्हारे कारण मेरी आँखें रोशन होंगी (यानी तुम्हारी वजह से मुझे सम्मान मिलेगा)। जब तुम दरिया में पहुंचो तो पानी मत पीना, जबकि तुम्हारा भाई हुसैन (अ) प्यासा है।"

और जब हज़रत अबुल फ़जल अब्बास (अ) कर्बला के दिन दरिया तक पहुंचे और पानी लेने का मौका था, तो उन्होंने कहा: "अल्लाह की क़सम! मैं पानी नहीं पिऊँगा, जब मेरे मालिक हुसैन (अ) प्यासे हैं।"

एक हदीस में है कि जब क़यामत का दिन आएगा, तो रसूल अल्लाह (स) इमाम अली (अ) से कहेंगे: "फातिमा (स) से पूछो कि उनके पास क्या है जो उम्मत की शफाअत और नजात के लिए मददगार हो?" इमाम अली (अ) जब हज़रत फातिमा (स) से यह संदेश पहुंचाएंगे, तो हज़रत फातिमा (स) कहेंगी: "हमारे बेटे अबुल फ़जल अब्बास के कटे हुए हाथ हमारी शफाअत के लिए काफी हैं।"

इमाम जैनुल आबिदीन (अ) ने कहा: "हे अल्लाह! मेरे चाचा अबुल फ़जलिल अब्बास (अ) पर रहमत नाज़िल कर। उन्होंने अपने भाई के लिए बलिदान दिया और जब उनके हाथ कट गए, तो अल्लाह ने उन्हें दो पंख दिए जैसे हज़रत जाफर बिन अबी तालिब (अ) को दिए थे।"

इमाम जाफर सादिक़ (अ) ने कहा: "मेरे चाचा अबुल फ़जलिल अब्बास (अ) पूरी बसीरत और मजबूत इमां के मालिक थे। उन्होंने अपने भाई हुसैन (अ) के लिए जिहाद किया और शहीद हो गए।" इसी तरह इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने हज़रत अबुल फ़जल अब्बास (अ) की ज़ियारत के दौरान उनके इख़लास और जिहाद के बारे में कहा: "मैं गवाह हूं और अल्लाह को गवाह बनाता हूं कि आपने ग़ाज़ियाँ-ए-बदर और अल्लाह की राह के मुजाहिदीन का रास्ता अपनाया, आपने अल्लाह की राह में इख़लास के साथ जिहाद किया, अल्लाह के अवलीया (संतों) की मदद करने में इख़लास से काम लिया और उनकी रक्षा की। मैं गवाह हूं कि आपने अपनी ताकत और सामर्थ्य के अनुसार अपनी ज़िम्मेदारी पूरी की।"

इमाम अली नकी (अ) ने हज़रत अबुल फ़जलिल अब्बास (अ) की ज़ियारत में कहा: "अमीरुल मोमिनीन (अ) के बेटे अबुल फ़जल अब्बास पर सलाम हो, आपने भाई इमाम हुसैन (अ) के लिए अपने जीवन को दर्द, बलिदान और भाईचारे के साथ फिदा किया। आपने दुनिया को आख़िरत के लिए एक साधन बनाया, और खुद को अपने भाई पर फिदा कर दिया। आप धर्म के रक्षक और हुसैनी सेना के ध्वजवाहक थे। आपने प्यासे मुंहों को पानी पिलाने की पूरी कोशिश की और अल्लाह की राह में अपने दोनों हाथ कटवा दिए।"

उपरोक्त हदीसों से हम यह समझ सकते हैं कि हज़रत अबुल फ़जलिल अब्बास (अ) की महानता, उनके स्थान और दर्जे को स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है। उनकी ध्वजवाही, पानी पिलाने की सेवा, बहादुरी, वफ़ादारी और अल्लाह के संदेश का पालन करने में उनका योगदान, इन सब बातों से उनकी महानता और उनके इमाम (अ) के प्रति अद्भुत निष्ठा का पता चलता है।

इन सभी हदीसों से हमें हज़रत अबुल फ़जलिल अब्बास (अ) की महानता, उनकी क़ुर्बानी, शहीदी, वफ़ादारी और उनका दर्जा साफ़ तौर पर समझ में आता है।

यदि हम इमाम इमाम के ज़ियारत के कुछ वाक्य देखें, जैसे: "اَلسَّلَامُ عَلَیْكَ ٲَیُّھَا الْعَبْدُ الصَّالِحُ الْمُطِیْعُ لِلّٰہِ وَلِرَسُوْلِہٖ وَلِاَمِیْرِ الْمُؤْمِنِیْنَ وَالْحَسَنِ وَالْحُسَیْنِ صَلَّی ﷲُ عَلَیْھِمْ وَسَلَّمَ  अस-सलामो अलेका या अय्योहल-अब्दुस-सालेह अल-मुतिओ लिल्लाहे व लिर रसूलेहि व लेअमीरिल मोमिनीन वल-हसने वल-हुसैने सल्लल्लाहो अलैहिम वसल्लम", यह जुमला न केवल हज़रत अबुल फ़जल अब्बास (अ) की महानता को बयान करता है, बल्कि यह भी हमें यह संदेश देता है कि अगर हम सच्चे चाहने वाले हैं तो हमें अपने मौला (अ) की राह पर चलना चाहिए।

अल्लाह हमें हज़रत अबुल फ़जल अब्बास (अ) की पहचान और उनके आदर्शों की अनुसरण की तौफ़ीक़ दे।

लेखकः मौलाना सय्यद अली हाशिम आबिदी