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इमाम जवाद (अ) के दौर के दो बड़े संकट"

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इमाम जवाद (अ) के दौर के दो बड़े संकट"

 उस समय जब लोगों के अकीद़ो की जांच करने वाली तलवार सड़कों पर खून की प्यासी थी और गरीबी ने शिया मुसलमानों की जान और इमान को बहुत मुश्किल हालात में डाल दिया था, तब इमाम जवाद (अ) ने हिदायत का परचम संभाला। वे इस्लाम के सबसे अंधेरे दौर में, घायलों के दिलों के लिए मरहम और मुसीबतों में शियाो के लिए सहारा बने।

हौज़ा ए इल्मिया के वरिष्ठ शिक्षक हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन आबेदी ने अपनी एक बात में इमाम जवाद (अ) के समय की दो बड़ी समस्याओं की तरफ इशारा किया और कहा:

इमाम जवाद (अ) इस्लाम के इतिहास के सबसे कठिन दौरों में से एक में, जब अक़ीदो की कड़ी जांच-पड़ताल और भारी आर्थिक दबाव थे, शिया समुदाय की हिदायत और नेतृत्व की जिम्मेदारी संभाले हुए थे।

नवैं इमाम (अ) उस दौर में रहते थे जो साल 202 या 203 हिजरी से शुरू हुआ, यानी आठवें इमाम की शहादत के बाद, और साल 220 हिजरी तक चला; यह वह दौर था जिसे शायद शिया और पूरे इस्लामिक दुनिया के लिए सबसे कठिन समय माना जा सकता है।

पहली बात "मेहनत" की है, जिसका नाम आपने शायद सुना होगा

मेहनत का दक़ीक़ और सटीक मतलब था अक़ीदो की कड़ी जांच-पड़ताल या तफतीश की अदालत। यह उस दौर की खास बात थी। उस समय जब सड़क पर किसी से भी मिलते, उससे पूछा जाता: "क़ुरआन नया है या पुराना?" और इस प्रक्रिया को "मेहनत" कहा जाता था। जो कोई कहता कि क़ुरआन नया है, उसे मार दिया जाता था; उसकी पत्नी और बच्चे भी या तो मारे जाते या बंदी बना लिए जाते थे। इस दौर में हजारों मुसलमान तफ़तीश के नाम पर मारे गए।

दूसरी बड़ी समस्या थी शियो पर भारी आर्थिक और सामाजिक दबाव
इतनी ज्यादा थी कि नवें इमाम (अ) ने एक हदीस में कहा: "आज हमारे लिए सही नहीं कि हम शियो से ख़ुम्स या ज़कात की मांग करें," क्योंकि उस वक्त अब्बासी हुकूमत की वजह से शियो पर बहुत ज़्यादा कठिनाइयाँ थीं।

उस दौर में इतनी मुश्किलें थीं कि कभी-कभी सय्यद महिलाएं अपने पास नमाज़ के लिए चादर तक नहीं रखती थीं। वे अपनी चादरें एक-दूसरे के साथ बाँटती थीं; मतलब कि एक महिला नमाज़ पढ़ती, फिर चादर उतारकर दूसरी को देती ताकि वह भी नमाज़ पढ़ सके, और फिर वह चादर अगली महिला को दे दी जाती।

ऐसी कठिन परिस्थितियों में, नवें इमाम (अ) ने इस्लाम की दुनिया, खासकर शिया समुदाय की इमामत और नेतृत्व की जिम्मेदारी संभाली।

 

 

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