सब्र व तहम्मुल

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सब्र व तहम्मुल

رَبَّنَا أَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًا

पालने वाले हमें सब्र अता फ़रमा।

सूरः ए बक़रा आयत 250

ख़ुदावंदे आलम ने क़ुरआने मजीद में इस नुक्ते की दो बार तकरार की है कि

يسری ان مع العسر

आराम व सुकून दुशवारी व सख़्ती के साथ है। दक़ीक़ मुतालए से मालूम होता है कि निज़ामे ज़िन्दगी बुनियादी तौर पर इसी वाक़ेईयत पर चल रहा है। लिहाज़ा हर शख़्स चाहे वह मामूली सलाहियत वाला हो या ग़ैर मामूली सलाहियत वाला, अगर वह अपने लिए कामयाबी के रास्ते खोलना चाहता है और अपने वुजूद से फ़ायदा उठाना चाहता है तो उसे चाहिये कि निज़ामे ख़िलक़त की हक़ीक़त को समझते हुए अपने कामों में सब्र व इस्तेक़ामत से काम ले और हक़ीक़त बीनी व तदबीर से ख़ुद को आरास्ता करे।

बड़े काम, कभी भी चन्द लम्हों में पूरे नही होते, बल्कि उनकी प्लानिंग व नक़्क़ाशी में वक़्त और ताक़त सर्फ़ करने के अलावा सब्र व इस्तेक़ामत की भी ज़रूरत होती है। क्योंकि इंसान मुश्किलों व सख़्तियों से गुज़ार कर ही कामयाबी हासिल करता है।

इसमें कोई शक व षुब्हा नही है कि कुछ लोग ज़िन्दगी की राह में कामयाब हो जाते हैं और कुछ नाकाम रह जाते हैं। बुनियादी तौर पर कामयाब व नाकाम लोगों के दरमियान मुमकिन है बहुत से फ़र्क़ पाये जाते हों और उनकी कामयाबी व नाकामी की बहुतसी इल्लतें हो मगर कामयाबियों का एक अहम सबब, सख़्तियों और परेशानियों का सब्र व इस्तेक़ामत के साथ सामना करना है।

मामूली से ग़ौरो फ़िक्र से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि अगर इस दुनिया के निज़ाम में सख़्तियाँ व मुश्किलें न होती तो इंसानों की सलाहियतें हरगिज़ ज़ाहिर न हो पातीं और यह सलाहियतें सिर्फ़ क़ुव्वत की हद तक ही महदूद रह जाती अमली न हो पातीं।

देहाती नौजवानों में ख़ुदकुशी का वुजूद नही है। क्योंकि बचपन से ही उनकी ज़िन्दगी ऐसे माहौल में गुज़रती है कि वह मुश्किलों के आदी हो जाते हैं। लड़कियों को दूर से पानी भर कर लाना पड़ता है, लड़के जानवरों को चराने के लिए जंगलों ले जाते हैं। वह माँ बाप की ख़िदमत के लिये खेतों और बाग़ों में अपना पसीना बहाते हैं। लेकिन चूँकि शहरी नौजवान ऐशो व आराम की ज़िन्दगी में पलते बढ़ते है, लिहाज़ा जब किसी मुश्किल में दोचार होते हैं तो ज़िन्दगी से तंग आकर ख़ुदकुशी कर लेते हैं।

इससे मालूम होता है कि इंसान सख़्तियों और दुशवारी का जितना ज़्यादा सामना करता है उसकी रुहानी व जिस्मानी ताक़त उतनी ही ज़्यादा परवरिश पाती है।

हम सभी ने टेलीवीज़न पर रिलीज़ होने वाली फ़िल्मों में देखा हैं कि अस्कीमों (बर्फ़िले इलाक़ो में रहने वाले लोग) में मायूसी व नाउम्मीदी नही पाई जाती। बल्कि उनका ख़ुश व ख़ुर्रम व खिला हुआ चेहरा, ज़िन्दगी की तमाम मुश्किलों का दन्दान शिकन जवाब हैं। क्या आप जानते हैं कि उनकी इस ख़ुशी की क्या वजह है ? इसकी वजह यह है चूँकि उनकी ज़िन्दगी में दूसरी तमाम जगहों से ज़्यादा मुश्किलें है लिहाज़ा उनमें मुशकिलों से टकराने की ताक़त भी दूसरों से बहुत ज़्यादा होती है। हालाँकि मुश्किलों का मुक़ाबला करने की ताक़त हर इंसान को अता की गयी है और हर इंसान की ज़िम्मेदारी है कि मुश्किलों के मुक़ाबले के लिये ख़ुद को तैयार रखे और मुशकिलों के वक़्त उस क़ुव्वत व ताक़त को इस्तेमाल में लाये जो ख़ुदावंदे आलम ने हर इंसान के वुजूद में वदीयत की है और उसके ज़रिये मुशकिलों का मुक़ाबला करके कामयाबी हासिल करे।

मुश्किलें इंसान को सँवारती हैं

आज, जिस इंसान ने अपने लिए ऐशो आराम के तमाम साज़ो सामान मुहिय्या कर लिए हैं, वह उसी इंसान की नस्ल से है जो शुरु में गुफ़ाओ और जंगलों में ज़िन्दगी बसर करता था और जिसको चारों तरफ़ मुशकिलें ही मुशकिलें थीं। उन्हीं दुशवारियों व मुश्किलों ने उसकी सलाहियतों को निखारा और उसको सोचने समझने पर मजबूर किया जिससे यह तमाम उलूम और टेक्नालाजी को वुजूद में आईं। इससे यह साबित होता है कि सख़्तियाँ और दुशवारियाँ इंसानों को सवाँरती हैं।

अल्लाह के पैगम्बर जो मुक़द्दस व बल्न्द मक़सद लेकर आये थे, उन्हें उस हदफ़ तक पहुँचने के लिये तमाम इंसानों से ज़्यादा मुशकिलों का सामना करना पड़ा और इन्ही मुशकिलों ने उन्हे रूही व अख़लाक़ी एतेबार से बहुत मज़बूत बना दिया था लिहाज़ा वह सख़्तियों में मायूसी व नाउम्मीदी का शिकार नही हुए और सब्र व इस्तेक़ामत के साथ तमाम दुशवारियों में कामयाब हुए।

मौजूदा ज़माने में हम सब ने अपनी आँख़ों से देखा कि अमेरिकी ज़ालिमों ने वेतनाम के लोगों पर किस क़दर ज़ुल्म व सितम ढाये, औरतों और बच्चों को कितनी बेरहमी व बेदर्दी से मौत के घाट उतारा, असहले और हर तरह के जंगी साज़ व सामान से लैस होने के बावजूद अमेरिकियों को एक मसले की वजह से हार का मुँह देखना पड़ा और वह था उस मज़लूम क़ौम का सब्र व इस्तेक़ामत।

नहजुल बलाग़ा में नक़्ल हुआ है कि हज़रत अली (अ) ने ख़ुद को उन दरख़्तों की मानिंद कहा है जो बयाबान में रुश्द पाते हैं और बाग़बानों की देख भाल से महरूम रहते हैं लेकिन बहुत मज़बूत होते हैं, वह सख्त आँधियों और तूफ़ानों का सामना करते हैं लिहाज़ा जड़ से नही उखड़ते, जबकि शहर व देहात के नाज़ परवरदा दरख़्त हल्की सी हवा में जड़ से उखड़ जाते हैं और उनकी ज़िन्दगी का ख़ात्मा हो जाता है।

الا و ان الشجرة البرية اصلب عودا و الروائع الخضرة ارق جلودا

जान लो कि जंगली दरख़्तों को चूँकि सख़्ती व पानी की क़िल्लत की आदत कर लेते है इस लिये उनकी लकड़ियाँ बहुत सख़्त और उनकी आग के शोले ज़्यादा भड़कने वाले और जलाने वाले होते हैं।

इस नुक्ते पर भी तवज्जो देनी चाहिये कि कामयाबी माद्दी चीज़ों और असलहे के बल बूते पर नही मिलती बल्कि वह क़ौम जंग जीतती है जिसमें सब्र व इस्तेक़ामत का जज़्बा होता है।

रोसो कहता है: अगर बच्चे को कामयाबी व कामरानी तक पहुँचाना हो तो उसे छोटी मोटी मुश्किलों में उलझाना चाहिये ताकि इससे उसकी तरबियत हो और वह ताक़तवर बन जायें।

हम सब जानते है कि जब तक लोहा भट्टी में नही डाला जाता उसकी कोई क़द्र व क़ीमत नही होती। इसी तरह जब तक इंसान मुशकिलों और दुशवारीयों में नही पड़ता किसी लायक़ नही बन पाता।

हज़रत अली(अ) फ़रमाते हैं:

بالتعب الشديد تدرك الدراجات الرفيعة و الراحة الدائمة

दुशवारियों और मुशकिलों को बर्दाश्त करने के बाद इंसान दाइमी सुकून और बुलंद मंज़िलों को पा लेता है।

एक दूसरी जगह पर हज़रत(अ) इस तरह फ़रमाते:

المومن نفسه اصلب من الصلد

मर्दे मोमिन का नफ़्स ख़ारदार पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है।

हज़रत अली (अ) फ़रमाते है:

اذا فارغ الصبر الامور فسدت الامور

जब भी कामों से सब्र व इस्तेक़ामत ख़त्म हो जायेगें, ज़िन्दगी के सारे काम तबाही व बर्रबादी की तरफ़ चले जायेगें।

समाजी ज़िन्दगी में सब्र

इल्मी, इज्तेमाई व रूहानी कामयाबियों को हासिल करने के लिये सब को सब्र व तहम्मुल की ज़रूरत होती है। तमाम कामयाबियाँ एक दिन में ही हासिल नही की जा सकती, बल्कि बरसों तक खूने दिल बहाते हुए सब्र व तहम्मुल के साथ मुशिकिलों से निपटते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। जो लोग दुनिया परस्त थे वह मुद्दतों खूने दिल बहा कर मुताद्दिद दरों पर सलामी देकर ख़ुद को कही पहुचाँ सके हैं।

इल्मी कामलात के मैदान में भी पहले उम्र का एक बड़ा हिस्सा इल्म हासिल करने में सर्फ़ करना पड़ता है, तब इंसान इल्म की बलन्द मंज़िलों तक पहुँच पाता है। इसी तरह मअनवी मंज़िलों के लिये भी बिला शुब्हा एक मुद्दत तक अपने नफ़्स को मारने और तहम्मुल व बुर्दबारी की ज़रूरत होती है, तब कहीं जाकर अल्लाह की तौफ़ीक़ के नतीजे में मअनवी मक़ामात हासिल हो पाते हैं।

घरवालों की अहम ज़िम्मेदारी

वालेदैन को कोशिश करनी चाहिये कि शुरु से ही अपने बच्चों को अमली तौर पर मुश्किलों से आशना करायें, अलबत्ता इस बात का ख़्याल रखें कि यह काम तदरीजन व धीरे धीरे होना चाहिये। माँ बाप को इस बात पर भी तवज्जो देनी चाहिये कि यह रविश बच्चों से प्यार मुहब्बत के मुतनाफ़ी नही है। सर्वे से यह बात सामने आयी है कि जो वालेदैन अपने बच्चों को बहुत ज़्यादा लाड प्यार की वजह से मेहनत नही करने देते, वह अपने बच्चों की तरबियत में बहुत बड़ी ख़्यानत करते है। क्योंकि लाड प्यार में पलने वाले बच्चे जब अपने घरवालो की मुहब्बत भरी आग़ोश से जुदा हो कर समाजी ज़िन्दगी में क़दम रखते हैं तो उस वक़्त उन्हे मालूम होता है कि उनकी तरबीयत में क्या कमी रह गयी है।

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