رضوی

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 मक़बूज़ा गोलान हाइट्स में स्थित मजदल शम्स में हुए रॉकेट्स हमलों और धमाकों की सुई खुद ज़ायोनी शासन की ओर घूम रही है जो लेबनान के खिलाफ व्यापक युद्ध शुरू करने के बहाने तलाश रहा है।

ज़ायोनी सेना ने 11 लोगों की मौत और 35 से अधिक लोगों को घायल करने वाले इस हमले के बारे में कोई साक्ष्य न देते हुए इसका आरोप हिज़्बुल्लाह पर मंढा है जबकि 8 महीने से ज़ायोनी ठिकानों को निशाना बनाने वाले हिज़्बुल्लाह ने साफ़ शब्दों में कहा है कि अतीत की ही भांति हम अपने उसूलों पर अडिग हैं हम किसी आम नागरिक को निशाना नहीं बनाते।

बता दें कि इस हमले के फौरन बाद ही ज़ायोनी वॉर कैबिनेट के सदस्यों ने लेबनान के खिलाफ युद्ध छेड़ने की मांग की है।

प्रतिरोध से वफ़ादारी नामक लबनानी प्रतिरोध समूह के प्रमुख मोहम्मद राद ने आज इस्राईली सरकार को कड़ी चेतावनी दी।

प्रतिरोध से वफ़ादारी नामक लबनानी प्रतिरोध समूह के प्रमुख मोहम्मद राद ने फैल रही अफवाहों के जवाब में इस्राईली सरकार को कड़ी चेतावनी दी इज़राइल ने लेबनान के खिलाफ बड़े पैमाने पर और चौतरफा युद्ध शुरू करने का फैसला किया, इस युद्ध से उसके नकली अस्तित्व का अंत हो जाएगा।

उन्होंने सईदा में  आयतुल्लाह अफीफ अल-नबलीसी की सालगिरह की सभा में कहा कि गाजा के लोगों के प्रतिरोध और प्रतिरोध बलों की बहादुरी और गाजा में प्रतिरोध मोर्चों के समर्थन के कारण गाजा में दुश्मन के उद्देश्य विफल हो गए।

ये बयान हिज़बुल्लाह और इजरायली सरकार के बीच बढ़े तनाव के बीच आए हैं, जब शनिवार शाम को गया में ज़ायोनी शासन के आयरन डोम से दागे गए एक रॉकेट के जरिए कब्जे वाले सीरियाई गोलान के मजदल शम्स में एक स्टेडियम पर एक इजरायली इंटरसेप्टर मिसाइल गिर गई थी, जिसमें 11 लोग मारे गए थे और 30 से अधिक घायल हो गए।

इस्राईली सरकार ने पहले सभी को यह समझाने की कोशिश की कि हिजबुल्लाह ने इस क्षेत्र पर मिसाइल से हमला किया है, लेकिन हिजबुल्लाह ने इस बात का जोरदार खंडन किया और दुनिया के सामने घोषणा की कि मजदल शम्स में विस्फोट हुआ है। इसका कारण इजरायली मिसाइलें हैं।

 

 

 

कांवड़ यात्रा की वजह से हरिद्वार में भारी भीड़ को देखते हुए प्रशासन अलर्ट है। ऐसे में किसी अनहोनी से बचाने के लिए SDRF के जवानों घाट पर डटे हुए हैं। उन्हीं में से एक जाबांज तैराक आशिक अली अब 40 कांवड़ियों के नई जिंदगी दे चुके हैं।

सावन के इस मौके पर कावड़ियों की भीड़ हरिद्वार की गंगा नदी में जमकर उमड़ रही है। वहीं, दूसरी तरफ गंगा के घाट पर कावड़ियों के डूबने के भी कई मामले सामने आ चुके हैं, लेकिन उत्तराखंड एसडीआरएफ के जवानों की मुस्तैदी की वजह से गंगा घाट पर बहने वाले कावड़ियों को बचाने के लिए एसडीआरएफ के जवानों ने रात दिन एक कर दिया है।

इन सब तैराकों में SDRF में तैनात हेड कॉन्स्टेबल आशिक अली इन दिनों काफी चर्चा में है। वह अपनी टीम के साथ अब तक 40 कांवड़ियों की जान बचा चुके हैं। आशिक अली देहरादून के सहसपुर के रहने वाले हैं वह साल 2012 में उत्तराखंड पुलिस में भर्ती हुए थे। साल 2021 में SDRF में ही हेड कांस्टेबल बने। एसडीआरएफ से जुड़ने के बाद से ही वह लगातार उन जगहों पर लोगों को बचाने के लिए जाते हैं जहां पर एसडीआरएफ की जरूरत होती है।

चौदहवीं कार्यपालिका इस्लामी क्रांति के नेता की ओर से निर्वाचित राष्ट्रपति को मिले जनादेश को रविवार 28 जुलाई 2024 को अनुमोदित किए जाने और उन्हें दिए जाने वाले आदेशपत्र के बाद, आधिकारिक तौर पर अपना काम शुरू करेगी।

चौदहवीं कार्यपालिका इस्लामी क्रांति के नेता की ओर से निर्वाचित राष्ट्रपति को मिले जनादेश को रविवार 28 जुलाई 2024 को अनुमोदित किए जाने और उन्हें दिए जाने वाले आदेशपत्र के बाद, आधिकारिक तौर पर अपना काम शुरू करेगी।

अनुमोदन का यह कार्यक्रम तेहरान के इमाम ख़ुमैनी इमामबाड़े में होने जा रहा है, जिसमें इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई और देश के वरिष्ठ अधिकारी शरीक होंगे। कार्यक्रम के दौरान, संविधान की धारा 110 के नवें अनुच्छेद के मुताबिक़ निर्वाचित राष्ट्रपति को चुनाव में मिलने वाले जनादेश को अनुमोदित किया जाएगा।

इस कार्यक्रम में ग्रह मंत्री चौदहवें राष्ट्रपति चुनाव के पहले और दूसरे चरण के आयोजन की प्रक्रिया पर एक रिपोर्ट पेश करेंगे। निर्वाचित राष्ट्रपति को दिए जाने वाले आदेशपत्र के पढ़े जाने के बाद, डॉक्टर मसऊद पिज़िश्कियान भाषण देंगे जिसके बाद इस्लामी क्रांति के नेता ख़ेताब करेंगे।

गाज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने गाजा पट्टी पर इज़राईली शासन के हमलों में घायल और शहीद फ़िलिस्तीनियों की संख्या में वृद्धि की घोषणा की हैं।

एक रिपोर्ट के अनुसार , गाजा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने युद्ध के 297वें दिन फिलिस्तीनी शहीदों की संख्या के संबंध में अपने नवीनतम बयान में सोमवार दोपहर को घोषणा किया हैं कि इजरायली सेना ने गाजा पट्टी में बहुत लोगों को मार डाला हैं।

पिछले 24 घंटों में 3 नरसंहार, जिनमें कुल 39 हजार 363 शहीद और 90 हजार 823 घायल हुए हैं।

मंत्रालय ने घोषणा की कि 15 अक्टूबर के बाद से फिलिस्तीनी शहीदों की कुल संख्या 39 हज़ार 363 और घायलों की संख्या 90 हज़ार 923 तक पहुंच गई है।

गाज़ा स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने पिछले बयानों की तरह बताया कि मलबे के नीचे अभी भी बड़ी संख्या में फिलिस्तीनी शहीद हैं।

अलजज़ीरा चैनल के संवाददाता ने आज यह भी बताया कि इज़रायली सेना ने खान यूनिस गाजा के दक्षिण में अबूहमीद चौक पर हमला किया इस रिपोर्ट के अनुसार, इस हमले में कम से कम 5 फिलिस्तीनी शहीद हो गए और कई घायल हैं।

गाजा पट्टी में शहीदों और घायलों की संख्या बढ़ती जा रही है जबकि क्षेत्र को चिकित्सा आपूर्ति की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है इज़रायली सेना ने गाजा पट्टी को घेर लिया है और मानवीय सहायता को क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दे रही है।

फ्रांस में 33वें ओलंपिक खेलों की शुरुआत शुक्रवार को ही रंगारंग कार्यक्रम के साथ हो गई है लेकिन साथ ही ओलंपिक उद्घाटन समारोह में पेश की गयी एक झांकी ने विवाद को जन्म दे दिया है। दरअसल ओलंपिक उद्घाटन समारोह में ईसा मसीह की ऐसी झांकी दिखाई गई जिसको लेकर विवाद शुरू हो गया। दरअसल इसें ड्रैग क्वीन्स को दिखाया गया था। इसे ईसाई धर्म का अपमान बताया जा रहा है।

इस प्रदर्शन में ड्रैग क्वीन्स को लियोनार्डो दा विंची की 'लास्ट सपर' की याद दिलाने वाली एक मेज के पीछे पोज देते हुए दिखाया गया था। इस प्रदर्शन में 18 कलाकारों ने एक लंबी टेबल के पीछे पोज दिया, जो लेओनार्डो दा विंची की 'लास्ट सपर' पेंटिंग में ईसा मसीह और उनके बारह साथियों के समान था। इसमें सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाली बात थी एक महिला का बड़ा चांदी का हेडड्रेस जो ईसा मसीह की पेंटिंग में दिखाए गए प्रकाश के घेरे जैसा दिखता था।

इस घटना पर बयान देते हुए अल अज़हर ने कहा कि हम किसी भी नबी के अपमान की इजाज़त नहीं देंगे और इसकी कड़ी निंदा करते हैं। हम ऐसे वैश्विक मंचों को अंबिया ए इलाही और धार्मिक आस्थाओं पर प्रहार करने के लिए इस्तेमाल करने के बढ़ते चलन को लेकर सचेत करते हैं।

 

मक़बूज़ा गोलान हाइट्स के एक फुटबॉल फील्ड पर हुए हमले के बाद लेबनानी रेसिस्टेंस और अवैध राष्ट्र इस्राईल के बीच ऑल-आउट वॉर छिड़ने की संभावना बढ़ गई है। ज़ायोनी शासन की धमकियों के बाद हिज़्बुल्लाह ने भी जंग शुरू करने पर बुरे परिणाम भुगतने की चेतावनी दी है। अब तुर्की के राष्ट्रपति भी इस मामले में कूद पड़े हैं। अर्दोग़ान ने अपनी पार्टी की मीटिंग में इस्राईल पर आक्रमण की धमकी दी है।

अपनी बयानबाज़ी के लिए मशहूर अर्दोग़ान ने अपने होमटाउन राइज में हो रही AK पार्टी की एक मीटिंग में कहा, ‘हमें बहुत मजबूत होना चाहिए ताकि इस्राईल फिलिस्तीन के साथ ये बेतुकी हरकतें न कर सके। जैसे हमने काराबाख में किया, जैसे हम लीबिया में घुसे, हम इस्राईल के साथ भी ऐसा ही कर सकते हैं।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान राज आने के बाद से ही उसके पडोसी देश अपनी सुरक्षा को लेकर सतर्क हो गए हैं। पाकिस्‍तान लगातार टीटीपी आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग कर रहा है वहीं ताजिकिस्‍तान और चीन को भी आतंकी खतरे का डर सता रहा है।

अब अफगानिस्‍तान के एक और महत्‍वपूर्ण पड़ोसी देश ईरान ने कहा है कि वह अफगान सीमा पर 300 किमी लंबी दीवार बनाने जा रहा है। यह दीवार 4 मीटर ऊंची होगी ताकि घुसपैठ को रोका जा सके और सुरक्षा को मजबूत किया जा सके। इस प्रॉजेक्‍ट को ईरानी सेना और आईआरजीसी के इंजीनियर और कंस्‍ट्रक्‍शन वर्कर मिलकर करेंगे।

ईरानी मीडिया के मुताबिक ईरानी सेना के ग्राउंड फोर्सेस इंजीनियरिंग ग्रुप के कमांडर ने गुरुवार को ऐलान किया कि ईरान की पश्चिमोत्‍तर सीमा को बंद किया जाएगा। ब्रिगेडियर जनरल अहमद अकबरी ने तय-आबाद के गवर्नर से बातचीत में कहा कि खुरासाने रज़वी प्रांत और अफगानिस्‍तान के बीच 300 किमी लंबी सीमा को बंद करने के लिए तकनीकी अभियान चलाया जा रहा है। उन्‍होंने कहा कि इस दिशा में कई चरणों में महत्‍वपूर्ण प्रगति हुई है।

 

  1. अमर बिल मारूफ और नही अनिल-मुनकर का महत्त्व

कर्बला का वाक़या हमें सिखाता है की सीधे रास्ते से न हटना और न ही अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ना! आखेरत पर यक़ीन रखना और आखेरत में अपना अंजाम दिमाग में रखना, चाहे दुश्मन कितना ही ताक़तवर हो और चाहे इस से सामना करने के नतीजे कुछ भी हों! हाँ! मगर यह मुकाबला इल्म और शरियत के साथ हो! हिम्मत नहीं हारना और यह न कहना की हम क्या कर सकते हैं चाहे हमारे  दुश्मन (मीडिया और समाज में फैले हुए हों) के सामने हमारी औकात न हो हमें अपना काम करते रहना है और हमें यह हमेशा यक़ीन रखना है की हम इस पर काबू पा सकते हैं और लगातार जंग करते रहना हमारे बस में और ताक़त में है और परीणाम अल्लाह पर छोड़ना है!

  1. तक़लीद और आलीम की सुहबत में रहना, न की अपनी राये क़ायेम करना

एक बार अपने रहबर और आलिम पर यक़ीन होने के बाद इसकी राये पर अमल करना बगैर किसी झिझक के और बगैर अपनी राये के फ़िक़ह (इस्लामी क़ानून) की अहमियत बीबी ज़ैनब (स:अ) के हवाले, हमें इस वाक्य में नज़र आती है के जब खैमे जल रहे थे और इमाम वक़्त (अ:स) से मस-अला पूछा जा रहा था!

  1. क़ुरान का महत्व :

हत्ता की इमाम हुसैन (अ:स) का सरे-मुबारक नैज़े पर बुलंद है और तिलावत जारी है,

  1. दीनी तालीम का महत्त्व और शरीके हयात क़ा चुनाव :

हमें दो मौकों पर नज़र आता है जब इमाम अली (अ:स) ने उम्मुल-बनीन (स:अ) का चुनाव किया हज़रत अब्बास (अ:स) के लिए, और दूसरी जगह पर जहाँ इमाम हुसैन (अ:स) ने यजीदी फौजों को मुखातिब किया के यह ईन के पूर्वजों की तरबियत और गलतियों का नतीजा है की इमाम (अ:स) के मुकाबले पर जंग कर रहे हैं!

  1. पति और पत्नी का रिश्ता

कर्बला हमें सिखाती है की पत्नी, पाती के लिए राहत लाये, जैसे इमाम हुसैन (अ:स) की कथनी है की रबाब (स:अ) और सकीना (स:अ) के बगैर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता! पत्नी अपने पती को खुदा का हुक्म मानने से न रोके, जैसे बीबी रबाब (स:अ) ने इमाम हुसैन (अ:स) को न रोका हज़रत असग़र (अ:स) को ले जाने से!  कभी कभार हमारी औरतें अपने पती को अपने बगैर हज पर जाने से रोकती हैं! औरतों को चाहिए की वो अपने पतियों के लिए मददगार बनें और उनकी हिम्मत बढायें हुकूक-अल्लाह (दैविक कर्त्तव्य) और हुकूक-अन्नास (सामाजिक कर्त्तव्य) को पूरा करने में!

  1. इल्म (ज्ञान) की अहमियत (महत्त्व):

ताकि जिंदगियां अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक गुजारी जा सकें! इमाम (अ:स) की कुर्बानी का मकसद ज़्यारत अर-ब'ईन में चार अक्षरों में ब्यान किया गया है के " मैं गवाही देता हूँ के कुर्बानी का मुकम्मल (कुल) मकसद बन्दों को जहालत से बचाना था!

  1. इखलास (भगवान् का कर्त्तव्य समझ कर, भगवान् की राह में अच्छा काम करो) :

सिर्फ और सिर्फ अल्लाह के लिए अपनी जिम्मेदारियों को अंजाम देना, बगैर किसी रबा (दिखावे) के, कयामत पर मुकम्मल यक़ीन ही संसारिक फायदों और आराम को कुर्बान करके आखेरत के लिए हमेशा रहने वाला फायेदा हासिल करवा सकता है!

  1. जज़्बात (भावनाओं) पर काबू

जब अल्लाह की ख़ातिर अमल हो, इस के साथ अपने जज़्बात (भावना) का प्रदर्शन बगैर सुलह के खुदा की ख़ातिर करो!

  1. पर्दा का महत्त्व :

ना-महरमों (जो करीबी रिश्तेदार न हों)  से दूर रहना चाहे वोह करीबी रिश्तेदार ना-महरम हों या करीबी खानदानी दोस्त हों!

  1. इमाम सज्जाद (अ:स) ने कहा की मेरा मानने वाला गुनाह से बचे, दाढ़ी न मुडवाये और जुआ न खेले क्योंकि यह यज़ीदी काम हैं और हमें उस दिन की याद दिलाते हैं!
  2. नमाज़ का महत्त्व : यह जंग के बीच में भी पढी गयी
  3. अज़ादारी और नमाज़ दोनों मुस्तकिल वाजिब हैं, और उनका टकराव नहीं जैसा की इमाम सज्जाद (अ:स) खुद सब से बड़े अजादार भी थे और सब से बड़े आबिद (नमाज़ी) भी!
  4. ख़ुदा की मर्ज़ी के आगे झुकना, हर वक़्त, हर जगह पर, इमाम (अ:स) ने सजदा-ए शुक्र बजा लाया जब की वोह मुसीबत में थे, हमें भी चाहिए की पता करें की खुदा की मर्ज़ी क्या है, इस को माँ लें, और इस पर अमल करें!

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का क़ियाम व क़ियाम के उद्देश्य

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (किसी के विरूद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को अपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि----

 

1—जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। कि मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमय जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम) की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जारहा हूँ। तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाई की ओर बुलाना व बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर(स.) व अपने पिता इमाम अली अलैहिस्सलाम की सुन्नत(शैली) पर चलूँगा।

2—एक दूसरे अवसर पर कहा कि ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुत या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए। तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके।

3— जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तो, आपने कहा कि ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को हक़दार के पास देखना चाहते हो तो यह कार्य अल्लसाह कोप्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। ख़िलाफ़त पद के अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा हम अहलेबैत सबसे अधिक अधिकारी हैं।

4—एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक अधिकारी हैं जो शासन कर रहे है।

इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की और संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं-------

1-इस्लामी समाज में सुधार।

2-जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश ।

3-जनता को बुरे कार्यो के करने से रोकना।

4-हज़रत पैगम्बर(स.) और हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की सुन्नत(शैली) को किर्यान्वित करना।

5-समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।

6-अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।

यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में हो, जो इसके वास्तविक अधिकारी भी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।

 इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम के परिणाम

1-बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।

2-बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खतापूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।

3-कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जागृत हुई; कि हमने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।

इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आईं एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।

इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।

अतः तव्वाबीन समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया। ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।

4- इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।

5-इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी किसी के सम्मुख अपनी मानवता को न बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।

6-समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।

इस्लामी गणराज्य ईरान के संविधान की धारा 110 ने निर्वाचित राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर दस्तख़त को इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के फ़रीज़ों और अख़्तियार के दायरे में रखा है। ‘तन्फ़ीज़ʼ अर्थात जनादेश का अनुमोदन, फ़िक़्ह की एक पुरानी व मशहूर शब्दावली है और इस्लामी इंक़ेलाब के बाद यह लफ़्ज़ मुल्क के क़ानूनी पाठ्यक्रम में शामिल हो गया है।

इस्लामी गणराज्य ईरान के संविधान की धारा 110 ने निर्वाचित राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर दस्तख़त को इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के फ़रीज़ों और अख़्तियार के दायरे में रखा है। ‘तन्फ़ीज़ʼ अर्थात जनादेश का अनुमोदन, फ़िक़्ह की एक पुरानी व मशहूर शब्दावली है और इस्लामी इंक़ेलाब के बाद यह लफ़्ज़ मुल्क के क़ानूनी पाठ्यक्रम में शामिल हो गया है।

सबसे पहले ‘तन्फ़ीज़ʼ के क़ानूनी अर्थ और प्रवृत्ति की ओर इशारा किया जाएगा और फिर इस्लामी गणराज्य ईरान के संविधान के तहत इस सिलसिले में पाए जाने वाले सबसे अहम सवालों की समीक्षा की जाएगी। जैसे यह सवाल कि ‘तन्फ़ीज़ʼ की प्रक्रिया का एतबार कहाँ तक और किस तरह का है? क्या ‘तन्फ़ीज़ʼ सिर्फ़ एक औपचारिकता है या यह एक क़ानूनी प्रक्रिया है? ‘तन्फ़ीज़ʼ के क़ानूनी लेहाज़ से क्या असर हैं?

सबसे पहले ज़रूरी है कि उक्त सवालों में से आख़िरी सवाल का जवाब दिया जाए और वह यह है कि हर क़ानूनी सिस्टम अपने सामाजिक मूल्यों, परंपराओं और अनुभवों की बुनियाद पर कुछ उसूल व नियम बनाता है जो मुमकिन है कि दूसरे क़ानूनी सिस्टमों से अलग हों और ऐसा नहीं है कि सारे क़ानूनी सिस्टम समान और एक दूसरे से मिलते जुलते हों,

जिस तरह से कि कॉमन लॉ का क़ानूनी सिस्टम, रोमन और जर्मन क़ानूनी सिस्टम से अलग है और मुमकिन है कि हर क़ानूनी सिस्टम के सौ से ज़्यादा क़ानूनी सिस्टम हों। यहाँ तक कि इनमें से हर सिस्टम एक दूसरे से अलग है और किसी मुल्क में, जिसका एक क़ानूनी सिस्टम है।

मुमकिन है कि पचास क़ानूनी सिस्टम हों, इसलिए इस सिलसिले में हर मुल्क की कसौटी और कार्यशैली अलग हो। जो चीज़ क़ानूनी सिस्टमों के एक दूसरे से अलग होने का सबब बनती है वो उनकी बुनियादें हैं। बुनियाद वही चीज़ है जो क़ानूनी उसूल और नियमों के पालन को अनिवार्य बनाती है।

ईरान के इस्लामी गणराज्य सिस्टम में ‘तन्फ़ीज़ʼ के बारे में भी, इस बात के मद्देनज़र कि इस्लामी गणराज्य का क़ानूनी सिस्टम, दूसरे क़ानूनी सिस्टमों से अलग है और वह प्रायः इस्लामी बुनियादों पर और ख़ास तौर पर फ़िक़्ह की बुनियाद पर आधारित एक सिस्टम है और चूंकि राष्ट्रपति, कार्यपालिका के प्रमुख के ओहदे पर ऐसे फ़ैसले करता है और ऐसे काम करता जो ‘विलायत’ के कार्यक्षेत्र मे आते हैं,

इसलिए कार्यपालिका प्रमुख के पद से राष्ट्रपति के फ़ैसले या ऐक्शन, विलायत के ओहदे के सहायक के तौर पर होते हैं और उन्हें पहले से वलीए फ़क़ीह से हासिल इजाज़त या मुसलसल इजाज़त की ज़रूरत होती है और उसके बिना उनका कोई एतबार व हैसियत नहीं होगी। ‘तन्फ़ीज़ʼ के प्रोग्राम में जो कुछ होता है वह राष्ट्रपति को क़ानूनी तौर पर नियुक्ति के अलावा, जिसकी नज़ीर दूसरे मुल्कों में भी पायी जाती है, इस ओहदे को क़ानूनी हैसियत देना होता है।

‘तन्फ़ीज़ʼ का मक़सद

‘तन्फ़ीज़ʼ एक क़ानून और शरीअत के लेहाज़ से एक अहम अर्थ है जिसका मानी "अमान्य क़रार दिए जाने के क़ाबिल किसी क़ानूनी प्रक्रिया को मान्यता देना" है। दूसरे शब्दों में ‘तन्फ़ीज़ʼ या जनादेश को अनुमोदित करना ऐसी प्रक्रिया है जिसके नतीजे में एक शख़्स एक क़ानूनी प्रक्रिया को अमान्य नहीं करता।

अब सवाल यह है कि ‘तन्फ़ीज़ʼ का मक़सद क्या है और अवाम की ओर से राष्ट्रपति को चुने जाने के बाद इस्लामी इंक़ेलाब के नेता की ओर से इसके अनुमोदन व पुष्टि की क्या ज़रूरत है? इस सवाल के जवाब में कहना चाहिए कि विलायते फ़क़ीह के नज़रिए के तहत, मासूम इमाम के ग़ैबत में होने के दौर में, आम लोगों की विलायत व नेतृत्व ऐसे फ़क़ीह (वरिष्ठ धर्मगुरू) के ज़िम्मे है जो न्याय का पालन करता हो और उसके अलावा किसी भी दूसरे की विलायत को सरकशी समझा जाता है।

इस नज़रिए की बुनियाद पर समाज के मामलों की लगाम उसके हाथ में है और सरकारी अधिकारियों को उसकी इजाज़त से ही क़ानूनी हैसियत हासिल होती है। दूसरी ओर समाज के संचालन के मामले भी, विलायते फ़क़ीह के कार्यक्षेत्र में आते हैं और इसी वजह से कार्यपालिका के प्रमुख को वलीए फ़क़ीह की ओर से नियुक्त किया जाना चाहिए या उसे वलीए फ़क़ीह की इजाज़त हासिल होनी चाहिए वरना उसके पास क़ानूनी हैसियत नहीं होगी।

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने वलीए फ़क़ीह की ओर से राष्ट्रपति की नियुक्ति पर बारंबार बल दिया है। उन्होंने 4 अक्तूबर सन 1979 को विशेषज्ञ असेंबली के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए कहा थाः "अगर वलीए फ़क़ीह का अनुमोदन न हो फिर वह सरकश है। अगर ये काम अल्लाह के हुक्म से न हों, राष्ट्रपति, फ़क़ीह की ओर से नियुक्त न हो तो वह ग़ैर क़ानूनी है।

जब वह ग़ैर क़ानूनी हो गया तो वह सरकश है, उसका आज्ञापालन सरकश का आज्ञापालन है।" उन्होंने अपने ख़ेताब में विलायते फ़क़ीह की ख़ास अहमियत की ओर इशारा करते हुए कहा थाः "राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर दस्तख़त वलीए फ़क़ीह के अधिकारों में से है और बिल्कुल साफ़ है कि अगर फ़र्ज़ करें कि यह बात साबित हो जाए कि अगर कोई शख़्स निगरानी करने वाले विभाग को धोखा देकर आख़िरी राउंड में पहुंचा हो वरिष्ठ नेतृत्व का ओहदा रखने वाला शख़्स चाहे तो उसके आदेशपत्र को अनुमोदित न करे, लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है बल्कि क़रीब क़रीब यह नामुमकिन है।"

राष्ट्रपति के आदेशपत्र के इंडोर्समेंट की दलीलें

1 संविधान की विशेषज्ञ असेंबली की तफ़सीली बहसः इस्लामी गणराज्य ईरान के संविधान की अंतिम समीक्षा करने वाली परिषद के कुछ सदस्यों की बातों से साफ़ ज़ाहिर होता है कि वह वरिष्ठ नेता के दस्तख़त को क़ानूनी हैसियत देने वाला मानते थे। संविधान की धारा 110 के मसौदे की समीक्षा के ज़माने में संसद के सदस्य जनाब फ़ातेही कहते हैं कि मेरे लिए यह बात स्पष्ट नहीं थी कि राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर दस्तख़त सिर्फ़ एक औपचारिकता है या अगर उस पर वरिष्ठ नेता के दस्तख़त न हुए तो क्या होगा?

उपसंसद सभापति आयतुल्लाह शहीद बहिश्ती उनके जवाब में कहते हैं: " नहीं जनाब! यह ‘तन्फ़ीज़ʼ अर्थात जनादेश का अनुमोदन है। (राष्ट्रपति को मिले जनादेश की पुष्टि है) उससे पहले आयतुल्लाह मुंतज़ेरी ने भी सिस्टम के इस्लामी और गणराज्य होने के दरमियान पाए जाने वाले रिश्ते के बारे में कहा थाः "अगर एक राष्ट्रपति को पूरी क़ौम वोट दे दे लेकिन फ़क़ीह और मुज्तहिद उसके राष्ट्रपति होने को अनुमोदित न करे तो मेरे लिए उसके अनुमोदन की कोई गैरंटी नहीं है और उसकी हुकूमत ज़ुल्म करने वाली सरकारों में से होगी।"

2 राष्ट्रपति चुनाव का क़ानूनः राष्ट्रपति चुनाव के क़ानून में जो 26 जून 1985 को मंज़ूर हुआ, साफ़ शब्दों में राष्ट्रपति पद के आदेशपत्र पर दस्तख़त और अनुमोदन की बात कही गयी है। इस क़ानून के पहले अनुच्छेद में कहा गया हैः "इस्लामी गणराज्य ईरान के राष्ट्रपति पद की मुद्दत 4 साल है और वरिष्ठ नेतृत्व की ओर से उसके आदेशपत्र के अनुमोदन की तारीख़ से उसका आग़ाज़ होगा।" इस क़ानून की कई बार समीक्षा की गयी और इसमें सुधार भी किया गया है लेकिन सभी सुधार में उक्त बात बिना किसी बदलाव के बाक़ी रही है, इसलिए आम क़ानून निर्माता की नज़र से भी राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर दस्तख़त ज़रूरी हैं।

क्या अनुमोदन सिर्फ़ एक औपचारिकता है?

वरिष्ठ नेता की ओर से राष्ट्रपति के आदेशपत्र के अनुमोदन के क़ानून का मतलब उसका एक औपचारिकता होना और दूसरे प्रोग्रामों में एक और प्रोग्राम का इज़ाफ़ा करना नहीं है।

इस क़ानून का मतलब यह है कि इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के दस्तख़त के बिना, राष्ट्रपति को क़ानूनी हैसियत हासिल नहीं होती और वह शरीअत के लेहाज़ से इस मैदान में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। हमारे धार्मिक अक़ीदे और फ़िक़्ह के बुनियादी नज़रिए भी और हमारा संविधान भी, जिसके लिए हम यही मानते हैं कि उसकी कोई भी धारा और अनुच्छेद मात्र औपचारिकता के लिए नहीं लिखी गयी है, इस बात की पुष्टि करता है। दस्तख़त का औपचारिकता होना एक सतही और ग़ैर इल्मी सोच है जिसे किसी भी स्थिति में संविधान में मद्देनज़र नहीं रखा गया है। इसलिए ये दस्तख़त, राष्ट्रपति के बुनियादी कामों के चरणों में से एक है।

अगर हम क़ानूनी लेहाज़ से भी बात करना चाहें तो चुनाव में अवाम की ओर से चुने गए राष्ट्रपति को, वरिष्ठ नेता की ओर से आदेशपत्र पर अनुमोदन और उसके बाद शपथ ग्रहण के प्रोग्राम से पहले राष्ट्रपति नहीं कह सकते क्योंकि राष्ट्रपति के काम अवाम के अधिकार और उसके फ़रीज़ों में हस्तक्षेप हैं और इसके लिए वलीए फ़क़ीह की इजाज़त की ज़रूरत है और उस इजाज़त पर संविधान में, राष्ट्रपति के आदेशपत्र पर इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के दस्तख़त के तहत ताकीद की गयी है।

‘तन्फ़ीज़ʼ अर्थात जनादेश के अनुमोदन की मुद्दत और उसका जारी रहना

जैसा कि बयान किया गया, राष्ट्रपति को सिर्फ़ अपनी ज़िम्मेदारी शुरू करने या राष्ट्रपति के ओहदे पर काम शुरू करने के चरण में ही अपने फ़ैसलों और कामों के लिए क़ानूनी इजाज़त की ज़रूरत नहीं है बल्कि उसे अपनी ज़िम्मेदारी जारी रखने के लिए भी इस क़ानूनी इजाज़त की ज़रूरत है।

यानी ऐसा नहीं है कि अगर कोई बहुमत हासिल कर ले और वरिष्ठ नेता उसके आदेशपत्र पर दस्तख़त भी कर दें तो वह अगले चार साल तक राष्ट्रपति बना ही रहेगा, जी नहीं, इस्लामी इंक़ेलाब के नेता के दस्तख़त और उनकी ओर से पुष्टि राष्ट्रपति को निरंतर हासिल होनी चाहिए और जब भी इस्लामी इंक़ेलाब के नेता अपनी पुष्टि को वापस ले लें यानी अनुमोदन को वापस ले लें तो राष्ट्रपति अपना क़ानूनी ओहदा और फ़िक़्ह के लेहाज़ से दीनी हैसियत खो देगा।

इसी वजह से इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने अपने ज़माने के राष्ट्रपति के लिए जो आदेशपत्र जारी किए उनमें जनादेश के अनुमोदन के बाद साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि मेरी ओर से अनुमोदन सशर्त है और इस बात पर निर्भर है कि आप शरीअत के उसूलों की पाबंदी करें, सिस्टम के क़ानूनी उसूलों की पाबंदी करें और अगर एक जुमले में कहा जाए तो एक राष्ट्रपति होने की हालत को हाथ से जाने न दें।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने भी अपने नेतृत्व के दौरान राष्ट्रपति के जिस आदेशपत्र पर भी दस्तख़त किए उसमें इसी अंदाज़ पर क़ायम रहे हैं और उन्होंने अनुमोदन के लफ़्ज़ के साथ इस शर्त को भी लगाया है कि मेरी ओर से पुष्टि और अनुमोदन तब तक क़ायम है जब तक आप क़ानून और शरीअत के उसूलों की पाबंदी करेंगे।

इसलिए शरीअत की इजाज़त और राष्ट्रपति को नियुक्त किया जाना, सशर्त है और उसे स्थायी हैसियत हासिल नहीं है, इस मानी में कि यह आदेशपत्र और मुल्क के संचालन के मामलों में कंट्रोल की क़ानूनी इजाज़त सशर्त व सीमित है।

ख़ैरुल्लाह परवीन-तेहरान यूनिवर्सिटी की लॉ फ़ैकल्टी के प्रोफ़ेसर