क़ुरआने मजीद की वही (अल्लाह का संदेश)

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क़ुरआने मजीद ने तमाम दूसरी इलहामी और पवित्र किताबों जैसे तौरेत और इंजील आदि से ज़्यादा आसमानी वही, वही भेजने वाले और वही लाने वाले के बारे में लिखा है और यहाँ तक कि वही की कैफ़ियत के बारे में भी लिखा है।

 

अ. क़ुरआने मजीद की वही (अल्लाह का संदेश) के बारे में मुसलमानों का आम अक़ीदा

 

ब. वही और नबुव्वत के बारे में मौजूदा लिखने वालों की राय

 

स. ख़ुद क़ुरआने मजीद इस बारे में क्या फ़रमाता है:

 

1. अल्लाह का कलाम

 

2. जिबरईल और रुहुल अमीन

 

3. फ़रिश्ते और शैतान

 

4. ज़मीर की आवाज़

 

5. दूसरी वज़ाहत के मुतअल्लि़क़

 

ह. ख़ुद क़ुरआने मजीद वही और नबुव्वत के बारे में क्या फ़रमाता हैं:

 

1. आम हिदायत और इँसानी हिदायत

 

2. राहे ज़िन्दगी तय करने में इंसानी विशेषताएँ

 

3. इंसान किस लिहाज़ से समाजी है?

 

4. इख़्तिलाफ़ात का पैदा होना और क़ानून की ज़रुरत

 

5. क़ानून की तरफ़ इंसान की हिदायत और रहनुमाई करने के लिये अक़्ल काफ़ी नही है।

 

6. इंसानी हिदायत का अकेला रास्ता वही (अल्लाह की ओर से आने वाला संदेश) है।

 

7. मुश्किलात और उन के जवाबात

 

8. वही का रास्ता हर तरह से ग़लती और ख़ता से ख़ाली है।

 

9. हमारे लिये वही की वास्तविकता ना मालूम है।

 

10. क़ुरआन की वही की कैफ़ियत

 

अ. क़ुरआने मजीद की वही के बारे में मुसलमानों का आम अक़ीदा

 

क़ुरआने मजीद ने तमाम दूसरी इलहामी और पवित्र किताबों जैसे तौरेत और इंजील आदि से ज़्यादा आसमानी वही, वही भेजने वाले और वही लाने वाले के बारे में लिखा है और यहाँ तक कि वही की कैफ़ियत के बारे में भी लिखा है।

 

मुसलमानों का आम अक़ीदा अलबत्ता अक़ीदे की बुनियाद वही क़ुरआने मजीद का ज़ाहिरी पहलू है। क़ुरआन के बारे में यह है कि क़ुरआने मजीद अपने बयान के अनुसार अल्लाह का कथन है जो एक बड़े फ़रिश्ते के ज़रिये जो आसमान का रहने वाला है, नबी ए इस्लाम पर नाज़िल हुआ है।

 

उस फ़रिश्ते का नाम जिबरईल और रुहुल अमीन है जिस ने अल्लाह के कथन को तेईस वर्ष की ज़माने में धीरे धीरे इस्लाम के दूत तक पहुचाया और उस के अनुसार आँ हज़रत (स) को ज़िम्मेदारी दी कि वह आयतों के लफ़्ज़ों और उस के अर्थ को लोगों के सामने तिलावत करें और उस के विषयों और मतलब को लोगों को समझाएँ और इस तरह अक़ीदे की बातें, समाजी और शहरी क़ानून और इंसानों की अपनी ज़िम्मेदारियों को, जिन ज़िक्र क़ुरआने मजीद करता है, उस की तरफ़ दावत दें।

 

अल्लाह के इस मिशन का पैग़म्बरी और नबुव्वत है। इस्लाम के नबी ने भी इस दावत में बिना किसी दख़्ल और कमी बेशी और रिआयत के अपनी ज़िम्मेदारी को निभाया।

 

ब. वही और नबुव्वत के बारे में मौजूदा लिखने वालों का राय

 

अकसर मौजूदा दौर के लेखक, जो विभिन्न मज़हबों और धर्मों के बारे में तहक़ीक़ में कर रहे हैं, उन की राय क़ुरआनी वही और नबुवत के बारे में इस तरह हैं:

 

पैग़म्बरे अकरम (स) समाज के बहुत ही ज़हीन इंसान थे जो इंसानी समाज को इंहेतात, वहज़त गरी और ज़वाल से बचाकर उस को तमद्दुन और आज़ादी के गहवारे में जगह देने के लिये उठ खड़े हुए थे ताकि समाज को अपने पाक और साफ़ विचार की तरफ़ यानी एक जामें और मुकम्मल दीन की तरफ़ जो आपने ख़ुद मुरत्तब किया था, दावत दे।

 

कहते हैं कि आप बुलंद हिम्मत और पाक रुह के मालिक थे और एक तीरा व तारीक माहौल में ज़िन्दगी बसर करते थे। जिसमें सिवाए ज़बरदस्ती, ज़ुल्म व सितम, झूठ और हरज मरज के अलावा और कोई चीज़ दिखाई नही देती थी और ख़ुद ग़र्ज़ी, चोरी, लूटपाट और दहशतगर्दी के अलावा कोई चीज़ मौजूद नही थी। आप हमेशा इन हालात से दुखी होते थे और जब कभी बहुत ज़्यादा तंग आ जाते थे तो लोगों से अलग होकर एक गुफ़ा में जो तिहामा के पहाड़ों में थी कुछ दिनों तक अकेले रहते थे और आसमान, चमकते हुए तारों, ज़मीन, पहाड़, समुन्दर और सहरा आदि जो प्रकृति के रुप हैं जो इंसान के वश में किये गये हैं, उन की तरफ़ टुकटुकी बाँध कर देखते रहते थे और इस तरह इँसान की ग़फ़लत और नादानी पर अफ़सोस किया करते थे जिसने इंसान को अपनी लपेट में ले रखा था ताकि उसे इस क़ीमती जीवन की ख़ुशियों और सफ़लताओं से दूर करके उन को दरिन्दों और जानवरों की तरह गिरी हुई ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर करे दे।

 

पैग़म्बरे इस्लाम (स) लगभग चालीस साल तक इस हालत को अच्छी तरह समझते रहे और मुसीबत उठाते रहे, यहाँ तक कि चालीस साल की उम्र में एक बहुत बड़ा मंसूबा बनाने में कामयाब हो गये ताकि इंसान इन बुरे हालात से निजात दिलाएँ जिसका नतीजा हैरानी, परेशानी, आवारगी, ख़ुदगर्ज़ी और बे राहरवी था और वह दीने इस्लाम था जो अपने ज़माने की आलातरीन और मुनासिब तरीन हुकूमत थी।

 

पैग़म्बरे अकरम (स) अपने पाक विचार को ख़ुदा का कलाम और ख़ुदा की वही तसव्वुर करते थे कि ख़ुदा वंदे आलम ने आप की पाक फ़ितरत रुह के ज़रिये आप से हमकलाम होता था और अपनी पाक और ख़ैर ख़्वाह रुह को जिस से यह अफ़कार निकलते थे आप के पाक दिल में समा जाते थे और उस को रुहुल अमीन जिबरईल, फ़रिशत ए वही कहते हैं। कुल्ली तौर पर ऐसी क़ुव्वतें जो ख़ैर और हर क़िस्म की खुशबख़्ती की तरफ़ दावत देती है उनको मलाएका और फ़रिश्ते कहा जाता है और वह क़ुव्वतें जो शर और बदबख़्ती की तरफ़ दावत देती हैं उन को शयातीन और जिन कहा जाता है। इस तरह पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने फ़रायज़ को नबुव्वत और रिसालत का नाम दिया, जो जम़ीर की आवाज़ के मुताबिक़ थे और उन के अनुसार इंसानों को इंक़ेलाब की दावत देते थे।

 

अलबत्ता यह वज़ाहत उन लोगों की है जो इस दुनिया के लिये एक ख़ुदा के अक़ीदे के क़ायल हैं और इंसाफ़ की रु से इस्लाम के दीनी निज़ाम के लिये महत्व के क़ायल हैं लेकिन वह लोग जो इस दुनिया के लिये किसी पैदा करने का अक़ीदा नही रखते हैं वह नबुव्वत, वही, आसमानी फ़रायज़, सवाब, अज़ाब, स्वर्ग और नर्क जैसी बातों को धार्मिक राजनिती और दर अस्ल मसलहत आमेज़ झूठ समझते हैं।

 

वह कहते हैं कि पैग़म्बर इस्लाह पसंद इंसान थे और उन्होने दीन की सूरत में इंसानी समाज की भलाई और बेहतरी के लिये क़वानीन बनाए और चुँकि गुज़िश्ता ज़माने के लोग जिहालत और तारीकी में ग़र्क़ और तवह्हुम परस्ती पर मबनी अक़ीदों के साए में मबदा और क़यामत को महफ़ूज़ रखा है।

 

ख़ुद क़ुरआन मजीद इस के बारे में क्या फ़रमाता है?

 

जो लोग वही और नबुव्वत की तंज़ीम को गुज़िश्ता बयान के मुताबिक़ तौजीह करते हैं वह ऐसे दानिशवर हैं जो माद्दी और तबीईयाती उलूम के साथ दिलचस्बी और मुहब्बत रखते हुए जहाने हस्ती की हर एक चीज़को फ़ितरी और क़ुदरती क़वानीन की इजारा दारी में ख़्याल करते हैं और आख़िरी गिरोहे हवादिस की बुनियाद को भी फ़ितरी फ़र्ज़ करता है। इस लिहाज़ से मजबूरन आसमानी मज़ाहिब और अदयान को ही इजतेमाई मज़ाहिर समझेगें और इस तरह तमाम इजतेमाई मज़ाहिर से जो नतीजा हासिल होगा उस पर ही परखेगें। चुँनाचे अगर इजतेमाई नवाबिग़ (ज़हीन इंसान) में से कोई एक जैसे कौरवश, दारयूश, सिकन्दर वग़ैरह अपने आप को ख़ुदा की तरफ़ से भेजा हुआ और अपने कामों को आसमानी मिशन और अपने फ़ैसलों को ख़ुदाई फ़रमान को तौर पर तआरुफ़ कराएँ तो गुज़िश्ता बाब में आने वाली बहस के अलावा और कोई तौजीह नही हो सकेगी।

 

हम इस वक़्त यहाँ दुनिया ए मा वरा को साबित नही करना चाहते और उन दानिशवरों को भी नही कहते कि हर इल्म सिर्फ़ अपने इर्द गिर्द को मौज़ूआत पर ही राय दे सकते हैं और माद्दी उलूम जो माद्दे के आसार और ख़वास से बारे में बहस करते हैं वह यक़ीनी या ग़ैर यक़ीनी तौर पर मा वरा में मुदाख़लत रखते हैं।

 

यहाँ हम यह कहना चाहते हैं कि गुज़िश्ता तौजीह जो भी हो वह क़ुरआने मजीद के बयानात जो पैग़म्बरे अकरम (स) की नबुव्वत और रिसालत की सनद है और उस तमाम कलाम की अस्ली बुनियाद भी है, उससे मुताबिक़त करे लेकिन क़ुरआने मजीद वाज़ेह तौर पर भी उस तौजीह के ख़िलाफ़ दलालत करता है और हम अब उस तौजीह के हर एक ज़ुज़ को क़ुरआनी आयात की रौशनी में परखते हैं।

 

1. कलामे ख़ुदा

 

गुज़िश्ता वज़ाहत के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़हन में जो पाक अफ़कार जन्म लेते थे उनको ख़ुदा का कलाम कहते थे औऱ उसका ये मतलब है कि ये अफ़कार, दूसरे अफ़कार की तरह आपके ज़हन से निकलते थे लेकिन चूँकि ये आफ़कार पाक और मुक़द्गस थे लिहाज़ा उनको ख़ुदा से मंसूब किया गया था और आख़िर कार पैग़म्बरे अकरम (स) से ज़ाहिरी और फ़ितरी तौर पर मंसूब ये अफ़कार ख़ुदा वंदे ताला से मानवी तौर पर मंसूब होते हैं लेकिन क़ुरआने मजीद वाज़िह और संजीदा तरीक़े से दावा करने वाली आयात में अपनी इबारात को पैग़म्बरे अकरम (स) या किसी दूसरे शख़्स से मंसूब होने की नफ़ी करता है और फ़रमाता है:अगर ये इंसानी कलाम है तो जैसा कि क़ुरआन ने इतिक़ादी, अख़लाक़ी, अहकाम, क़िस्सों, हिकमत और पंद व नसीहत के बारे में कहा है : इस तरह का कलाम बना लाऐं और इस बारे में जिससे जगह से चाहें मदद हासिल करें , अगर वह उसको नही समझ सके के ये ख़ुदा का कलाम है या इंसान का (सूरह ए यूनुस आयत 38, सूरह ए हूद आयत 13) और अगर जिन व इंसान आपस में मिलकर इस काम के लिये तैयार हों और कमरे हिम्मत बाँध लें तो भी क़ुरआन के मिसल हरगिज़ कलाम नही ला सकेंगे ।(सूरह ए बनी इस्राईल आयत 88)

 

फिस फ़रमाता है :(सूरह ए बक़रा आयत 23) अगर तुम ये कहते हो कि क़ुरआन मोहम्मद (स) का कलाम है तो इस सूरत में उस शख़्स की तरफ़ से जो ज़िन्दगी में आप (स) की मानिनद हो मसलन यतीम, तरबियत ना याफ़ता, ना ख़ानदा, जिसने लिखना भी न सीखा हो और जाहिलीयत के माहौल में परवरिश पाई हो ,इस किताब की तरह एक सूरह या चंद सूरे ला कर बनाकर लायें ।

 

उसके बाद फ़रमाता है :(सूरह ए निसा आयत 82) उन क़ुरआनी आयात में जो तेंतीस साल के अरसे में धीरे धीरे नाज़िल हुयी हैं और उनमें किसी क़िस्म का एख़तिलाफ़ और उस्लूबे बयान व अल्फ़ाज़ और माना के लिहाज़ से कोई तबदीली मौजूद नही है। उन पर क्यों ग़ौर नही करते और अगर ख़ुदा के अलावा ये क़ुरआन किसी और शख़्स का कलाम होता तो यक़ीनन निज़ाम के सामने तसलीम हो जाता और उसमें तबदीलियाँ और इख़्तिलाफ़ात ज़रूर ज़ाहिर होते ।

 

ज़ाहिर है कि ये बयानात शरीअत कि निस्बत साज़गार नही हैं और क़ुरआने मजीद उनको सिर्फ़ ख़ुदा के कलाम के तौर पर तआरूफ़ कराता है । उनके अलावा क़ुरआने मजीद सैकड़ो आयात में ख़ारिक़ुल आदत मोजिज़ात जो आम फ़ितरी निज़ाम के मुताबिक़ क़ाबिले तशरीह नही हैं , इस्बात करता है कि पैग़म्बर उनके ज़रिये अपनी नबूवत को साबित करते थे और अगर नबूवत का मतलब वही ज़मीर की आवाज़ और आसमानी वही यानी पाक इंसानी अफ़कार हो तो दलील व बुरहान लाना और मोजिज़ात सो मदद हासिल करने के कुछ माना ही नही निकलते ।

 

बाज़ मुसन्नेफ़ीन इन वज़ेह और रौशन मोजिज़ात को तमस्ख़ुर आमेज़ नियत के साथ तावील करते हैं लेकिन हर पढ़ा लिखा इंसान अगर उनकी तशरीहात की तरफ़ तवज्जोह करे तो इसमें कोई शक व शुबहा बाक़ी नही रहेगा कि क़ुरआन मजीद का मक़सद इसके बरअकस है जो ये दानिश्वर तसव्वुर करते हैं ।

 

यहाँ हमारा मतलब मोजिज़े के इमकान और उसके ख़ारिक़ुल आदत होने या क़ुरआने मजीद की इबारात की सेहत को साबित करना नही है बल्कि हमारा मक़सद ये है कि क़ुरआने मजीद गुज़ुश्ता अम्बिया मसलन हज़रत सालेह (अ), हज़रत इबराहीम (अ),हज़रत मूसा(अ), और हज़रत ईसा (अ) के मोजिज़ात को वाज़िह तौर पर साबित करता है और जो क़िस्से क़ुरआन में बयान हुये हैं वह ख़ारिक़ुल आदत होने के सिवा क़ुछ और नही हैं, अलबत्ता ज़मीर की आवाज़ को साबित करने के लिये मोजिज़ात को पेश करना ज़रूरी नही है।

 

2 रूहुल अमीन और जिबरईल (अ)

 

गुज़िश्ता तौजीह के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम (स) अपनी पाक रूह को जो मसलिहत बीनी और ख़ैर अंदेशी में कोई दक़ीक़ा फ़रूगुज़ाश्त नहू करते थे, रूहुल अमीन और उसकी तलक़ीन को वही कहते थे , लेकिन क़ुरआने मजीद इस अक़ीदे की ताईद और तसदीक़ नही करता क्योंकि क़ुरआन मजीद आयात को इलक़ा करने वाले (पैग़म्बरे अकरम (स) के दिल पर इल्हाम नाज़िल करने वाले) को जिबरईल कहता है और मंदरजा ज़ैल तौजीह की बिना पर इस वजहे तसमीया का कोई सबब नही है ।

 

अल्लाह ताला फ़रमाता है ऐ पैग़म्बर (स) कह दो कि जो कोई जिबरईल का दुश्मन है , वही जिबरईल क़ुरआने मजीद को ख़ुदा के हुक्म से तुम्हारे दिल पर नाज़िल करता है न कि बग़ैर (ख़ुदा के) हुक्म से या अपनी तरफ़ से। (सूरह ए बक़रा आयत 97)

 

ये आयते शरीफ़ा यहूदियों (दुर्रुल मंशूर हिस्सा आव्वल पेज 90) के सवालात के जवाब में नाज़िल हुयी है जो पैग़म्बरे अकरम (स) से पूछ रहे थे इस क़ुरआन को कौन तुम पर नाज़िल करता है ? आपने फ़रमाया :जिबरईल ,उन्होंने कहा :हम जिबरईल के दुश्मन हैं क्योंकि हम बनी इस्राईल क़ौम के लिये वही जिबरईल महदूदियत लेकर नाज़िल हुआ करता था और चूँकि हम उसके दुश्मन हैं इसलिये जो किताब वह लाया है हम उसपर ईमान नही ला सकते । अल्लाह ताला इस आयते शरीफ़ा में उनका जवाब देता है कि जिबरईल तो क़ुरआन को ख़ुदा के हुक्म से पैग़म्बर (स) पर नाज़िल करता है न कि अपनी तरफ़ से और आख़िरकार क़ुरआने मजीद ख़ुदा का कलाम है लिहाज़ा उस पर ईमान लाना चाहिये क्योंकि ये जिबरईल का कलाम नही है ।

 

ज़ाहिर हैकि यहूदी क़ौम एक ख़ुदा से दुश्मनी रखती थी जो ख़ुदा की तरफ़ से ‘’वही’’पहुँचाने का ज़िम्मेदार था और हज़रते कलीमुल्लाह (अ) और हज़रत मोहम्मद (स) से बिल्कुल जुदा था । न ही कलीमुल्लाह (अ) और न ही हज़रते मोहम्मद (स) की पाक रूह को उसमें दख़्ल था ।

 

और यही क़ुरआन जो इस आयते करीमा में क़ुरआने मजीद को पैग़म्बरे अकरम (स) के दिल पर नाज़िस करने को जिबरईल से मंसूब करता है , दूसरी आयत में रूहुल अमीन से निस्बत देता है क़ुरआन को रूहुल अमीन ने तुम्हारे दिल पर नाज़िल किया है । इन दो आयात के तवाफ़ुक़ से मालूम होता है कि रूहुल अमीन से मुराद वही जिबरईल ही है ।

 

अल्लाह ताला अपने कलाम में एक और जगह वही लाने वाले के बारे में फ़रमाता है बेशक क़ुरआन एसा कलाम है जिसको मोहतरम सफ़ीर जिबरईल लाया, रसूले मोहतरम (स) की तरफ़ जो उस साहिबे अरश यानी ख़ुदा के सामने ताक़त और क़द्ग और मंज़िलत रख़ता है और फ़रिश्तों के लिये क़ाबिले इताअत है (फ़रिश्ते उसकी इताअत करते हैं) वह अमीन है और तुम्हारा सबका दोस्त और हामी पैग़म्बरे अकरम(स) दीवाना , मजनून और आसेब ज़दह नही है। मैं क़सम खाता हूँ कि लाने वाले को उसने उस वक़्त देखा जब वह उफ़ुक़ में था ।

 

ऐसी आयात इसका सुबूत फ़राहम करती हैं कि जिबरईल (अ) ख़ुदा के क़रीबी और नज़दीकियों में से है और ख़ुदा के सामने बहुत ताक़तवर, साहिबे क़ुदरत व मंज़िलत , फ़रमाँ रवा और अमीन है।

 

एक और जगह मुक़र्रेबीने अर्श के वसफ़ में जो मलाईकाये किराम हैं फ़रमाता है जो फ़रिश्ते तेरे ख़ुदा के अरश को उठाये हुये हैं और वह जो अरश के इर्द गिर्द हैं और अपने ख़ुदा के लिये हमद व सना और तसबीह करते हैं और जो लोग ख़ुदा पर ईमान लाऐ हैं (वह फ़रिश्ते) उनके लिये तलबे मग़फ़िरत करते हैं ।(सूरह ए मोमिन आयत 7) इस आयते शरीफ़ा के मुताबिक़ वाज़िह है कि मुक़र्रब फ़रिश्ते मुस्तक़िल मौजूदात हैं, वह शुऊर रखते हैं, इरादे के मालिक हैं क्योंकि वह अवसाफ़ जो उनके बारे में बयान किये गये हैं यानी ख़ुदा पर ईमान रखना, दूसरों के लिये तलबे मग़फ़िरत करना वग़ैरा । सिवाये एक मुस्तक़िल वजूद के जो साहिबे शऊर हो साज़गार नही है।

 

और फिर इन्ही मुक़र्रब फ़रिश्तो के मुतअल्लिक़ फ़रमाता है : मसीह कभी ख़ुदा की बंदगी और इताअत से सरकशी और नाफ़रमानी नही करता और न ही मुक़र्रब फ़रिश्ते, और जो कोई उसकी बंदगी से सरकशी और नाफ़मानी करे, उन सबको बहुत जल्द अपने पास जमा करेगा (यहाँ तककि फ़रमाया ) और लेकिन जिन लोगों ने नाफ़रमानी की उनके लिये दर्दनाक अज़ाब होगा , लिहाज़ा उस वक़्त ख़ुदा के सिवा उनका कोई सरपरसत और हामी व नासिर नही होगा। ज़ाहिर हैकि मसीह (अ) और मुकर्रब फ़रिश्ते अगरचे गुनाह नही करते लेकिन अगर वह गुनाह करें और बंदगी से ख़िलाफ़ वरज़ी करें तो इस आयते शरीफ़ा के मुताबिक़ उनको क़यामत के दिन सख़्त अज़ाब की धमकी दी गयी है लिहाज़ा क़यामत के दिन अज़ाब की धमकी जो तर्क होने के अलावा एक फ़र्ज़ भी है , इसतिक़लाले वजूद , शऊर व इरादे के बग़ैर मुमकिन नही हो सकता ।

 

गुज़िश्ता आयत से वाज़ेह हो जाता है कि रूहुल अमीन जिसको जिबरईल भी कहा जाता है वही लाने वाला है । क़ुरआन के बयानात के मुताबिक़ एक आसमानी फ़रिश्ता मुकम्मल वजूद, शऊर और इरादा रखता है।

 

बल्कि गुज़िश्ता सूरह ए तकवीर की आयत 21 में आने फ़िक़रे (कुरआन को लाने वाला इस फ़िक़रे में) से मुसतफ़ाद होता है कि जिबरईल आलमे बाला में फ़रमाँ रवा है और बाज़ फ़रिश्ते उसके फ़रमान बरदार और मुतीअ हैं । हमेशा या कभी कभी उसके मातहतों के ज़रिये भी वही आती थी जैसा कि सूरह ए अबस की आयात भी इस माना पर दलालत और इशारा करती हैं बेशक ये क़ुरआन या ये आयात याद दहानी हैं पस जो चाहे उसको याद करे । ये तज़किरा (इलहामी किताबों) में बहुत ही गिरामी, अज़ीज़ , बुलंद मरतबा और पाकीज़ा है औऱ मोहतरम व नेकूकार सफ़ीरों के हाथ में है (सूरह ए अबस आयत 11-16)

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