इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का जन्म दिवस।

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शाबान की एक विशेषता यह भी है कि इसमें किये जाने वाले सदकर्मों का बदला बढ़ा दिया जाता है। 

एक कथन के अनुसार शाबान में किये जाने वाले सदकर्मों का बदला 70 गुना तक हो जाता है।

इस महीने में इमाम ज़ैनुल आबेदीन अपने अनुयाइयों को एकत्रित करके कहा करते थे कि क्या तुमको पता है कि यह कौन सा महीना है? फिर वे स्वंय ही कहते थे कि यह शाबान का महीना है।  यही वह महीना है जिसे पैग़म्बरे इस्लाम (स़) ने अपना महीना बताया है।  वे कहते थे कि इस महीने का सम्मान करो और रोज़े रखो।  इस महीने में अधिक से अधिक ईश्वर की निकटता प्राप्त करने के प्रयास करते रहो।  इमाम ज़ैनुल आबेदीन कहते थे कि मेरे दादा इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) से प्रेम की ख़ातिर और ईश्वर की निकटता हासिल करने के लिए इस महीने में जितना भी संभव हो रोज़े रखो।  वे कहते थे कि जो भी व्यक्ति इस महीने में रोज़ा रखेगा उसको ईश्वर, विशेष उपहार देगा और उसको स्वर्ग में भेजेगा।

 आज शाबान की पांच तारीख़ है।  आज ही के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सुपुत्र, इमाम अली के पोते और शिया मुसलमानों के चौथे इमाम, इमाम ज़ैनुल आबेदीन का जन्म हुआ था।  हालांकि इमाम ज़ैनुल आबेदीन या इमाम सज्जाद का नाम अली था किंतु अधिक उपासना और तपस्या के कारण उन्हें ज़ैनुल आबेदीन के नाम से ख्याति मिली जिसका अर्थ होता है उपासना की शोभा।  कहते हैं कि जिस समय नमाज़ पढ़ने के लिए इमाम सज्जाद वुज़ू के लिए जाते थे तो उनके चेहरे का रंग पीला पड़ जाता था।  जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि क्या तुमको नहीं पता है कि वुज़ू करके इन्सान किसकी सेवा में उपस्थित होने जाता है? उनके बारे में कहा जाता था कि जब वे ईश्वर की उपासना में लीन हो जाते थे तो उनका सारा ध्यान ईश्वर की ही ओर होता था।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन ने अपना जीवन इस्लाम के बहुत ही अंधकारमय काल में व्यतीत किया।  यही वह काल था जिमसें इमाम हुसैन जैसे महान व्यक्ति को उनके परिजनों के साथ करबला में केवल इसलिए शहीद कर दिया गया क्योंकि वे समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करके उसमें सुधार करना चाहते थे।  यही वह दौर था जिसमें यज़ीद के सैनिकों ने पवित्र काबे पर (मिन्जनीक़) से पत्थर बरसाए थे।  उस काल में सरकारी ख़ज़ाने का खुलकर दुरूपयोग किया जा रहा था।  शासक, विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे।  इस्लामी शिक्षाओं में फेरबदल किया जा रहा था।  शासकों को खुश करने के लिए उसकी इच्छानुसार धर्म की व्याख्या की जाती थी।  इमाम सज्जाद के काल में शासकों का पूरा प्रयास यह रहता था कि मुसलमानों को इस्लाम की वास्तविक शिक्षाओं से दूर रखा जाए और उनको उनके रीति-रिवाजों और परंपराओं में ही उल्झा दिया जाए।  एसे अंधकारमय काल में इमाम ज़ैनुल आबेदीन, जहां एक ओर वास्तविक इस्लाम की रक्षा के लिए प्रयासरत थे वहीं पर मुसलमानों के कल्याण के लिए एक केन्द्र की स्थापना भी करना चाहते थे।  उस काल की विषम परिस्थितियों में इमाम सज्जाद ने दुआओं और उपदेशों के माध्यम से समाज सुधार का काम शुरू किया।

 उन्होंने दुआओं और उपदेशों के रूप में इस्लामी शिक्षाओं का प्रसार किया।  हालांकि तत्कालीन शासकों का यह प्रयास रहता था कि लोगों को इमाम से दूर रखा जाए और वे उनकी गतिविधियों पर पूरी तरह से नज़र रखते थे इसके बावजूद इमाम सज्जाद अपने प्रयासों से पीछे नहीं हटे बल्कि अपने मिशन को उन्होंने जारी रखा।  क्योंकि शासक उनके प्रति बहुत संवेदनशील रहते थे इसलिए इमाम ने उपदेशों के माध्यम से लोगों को सही बात बताने के प्रयास किये।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम, वंचितों की सहायता भी करते थे।  वे रात के समय अपनी पीठ पर रोटियों की गठरी लादकर ग़रीबों को बांटने निकलते थे।  वे यह काम बिना किसी को बताए ख़ामोशी से करते थे।  जब इमाम सज्जाद वंचितों और ग़रीबों की सहातया करते थे तो उस समय वे अपने चेहरे को ढांप लिया करते थे ताकि सहायता लेने वाला उनको पहचानकर लज्जित न होने पाए।  वे केवल रोटियां ही ग़रीबों को नहीं देते बल्कि उनकी आर्थिक सहायता भी किया करते थे।  लोगों की सहायता वे इतनी ख़ामोशी से करते थे कि सहायता लेने वाले लोग उन्हें पहचान नहीं पाते थे।  जब इमाम सज्जाद शहीद हो गए तो उसके बाद उन लोगों को पता चला कि लंबे समय से उनकी सहातया करने वाला अंजान इंसान और कोई नहीं इमाम ज़ैनुल आबेदीन थे।  इस प्रकार से उन्होंने यह पाठ दिया कि मुसलमानों को अपने मुसलमान भाई का ध्यान रखना चाहिए और छिपकर उनकी सहायता करनी चाहिए।

इस्लाम सदैव से समाज में समानता का पक्षधर रहा है।  इस्लाम की दृष्टि में किसी भी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर धन-दौलत, जाति, मान-सम्मान, सामाजिक स्थिति, पद, रंगरूप, भाषा, विशेष भौगोलिक क्षेत्र या किसी अन्य कारण से वरीयता प्राप्त नहीं है।  इस्लाम के अनुसार केवल वहीं व्यक्ति सम्मानीय है जिसके भीतर ईश्वरीय भय पाया जाता हो।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कई बार इस बात को लोगों तक पहुंचाया कि इस्लाम की दृष्टि में सम्मान का मानदंड ईश्वरीय भय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।  वे कहते थे कि मुसलमान, आपस में भाई हैं और उनमें सर्वश्रेष्ठ वह है जिसके भीतर अधिक ईश्वरीय भय पाया जाता है।

 

 बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के पश्चात इस्लामी शिक्षाओं के प्रभाव को कम किया जाने लगा।  उमवी शासकों के सत्तासीन होने के साथ ही इस बात के प्रयास किये जाने लगे कि वास्तविक इस्लाम को मिटाकर शासकों के दृष्टिगत इस्लाम को पेश किया जाए।  उस काल में अरब मुसलमानों को प्रथम श्रेणी का और ग़ैर अरब मुसलमानों को दूसरी और तीसरी श्रेणी का मुसलमान बताया जाने लगा।  अरब मुसलमानों को ग़ैर अरब मुसलमानों पर वरीयता दी जाने लगी।  दास प्रथा, जो इस्लाम के उदय से पूर्व वाले काल में प्रचलित थी उसे पुनर्जीवित किया जाने लगा।

 

इमाम ज़ैनुल आबेदीन, समाज में पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं को प्रचलित करना चाहते थे।  यही कारण है कि जब तत्कालीन समाज में दास प्रथा को पुनः प्रचलित करने के प्रयास तेज़ हो गए तो इमाम सज्जाद ने दासों को ख़रीदकर ईश्वर के मार्ग में उन्हें आज़ाद करना शुरू किया।  वे दासों के साथ उठते-बैठते और उनके साथ खाना खाते थे।  इमाम सज्जाद दासों को अच्छे शब्दों से संबोधित करते थे।  उनके इस व्यवहार से दास बहुत प्रभावित होते थे क्योंकि समाज में उन्हें बहुत ही गिरी नज़र से देखा जाता था।  कोई उनसे सीधे मुंह बात करने को तैयार नहीं था।  दासों को पशु समाज समझा जाता था और उनके साथ पशु जैसा ही व्यव्हार किया जाता था।  दासों को जब इमाम सज्जाद से एसा व्यवहार देखने को मिला तो वे उनसे निकट होने लगे।  इस प्रकार इमाम ज़ैनुलआबेदीन ने दासों को परोक्ष और अपरोक्ष रूप में इस्लामी शिक्षाओं से अवगत करवाया।  यही कारण है कि आज़ाद होने के बाद भी वे लोग इमाम से आध्यात्मिक लगाव रखते थे।  इस प्रकार से अपनी विनम्रता और दूरदर्शिता से इमाम ज़ेनुल आबेदीन ने अपने दौर के अंधकारमय और संवेदनशील काल में भी वास्तविक इस्लाम को लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया।

 

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