हमारे शिया की पहचान पाँच चीजों से होती है, उनमें से एक है अरबईन की ज़ियारत

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हमारे शिया की पहचान पाँच चीजों से होती है, उनमें से एक है अरबईन की ज़ियारत

 क़ुम अल मुक़द्देसा मे रहने वाले भारतीय शिया धर्मगुरू, कुरआन और हदीस के रिसर्चर मौलाना सय्यद साजिद रज़वी से हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के पत्रकार ने अरबईन हुसैनी से संबंधित विषय पर विशेष बातचीत की।

क़ुम अल मुक़द्देसा मे रहने वाले भारतीय शिया धर्मगुरू, कुरआन और हदीस के रिसर्चर मौलाना  सय्यद साजिद रज़वी ने अरबईन हुसैनी से संबंधित विषय पर विशेष बातचीत की।  इस बात चीत को अपने प्रिय पाठको के लिए प्रस्तुत किया जा रहा हैः

अरबईन क्या है? इसे चेहलुम क्यों कहते हैं?

मौलाना साजिद रज़वीः अरबईन का मतलब होता है ‘चालीसवां दिन’। यह इमाम हुसैन (अ) और उनके वफादार साथियों की शहादत के चालीसवें दिन मनाया जाता है। कर्बला की जंग 10 मुहर्रम को हुई थी और उससे 40 दिन बाद 20 सफर को यह दिन आता है। यह केवल एक तारीख नहीं, बल्कि ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ और इंसाफ़ की जिंदा पहचान है।

अरबईन मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई?

मौलाना साजिद रज़वीः अरबईन की शुरुआत उस वक़्त हुई जब कर्बला से कैद होकर गए इमाम अली इब्न हुसैन (सैयदे सज्जाद) और बीबी ज़ैनब (स.)  और आपका लुटा हुआ क़ाफ़ेला कैदखाना ए शाम से रेहा हुआ और  ये लुटा हुआ क़ाफ़ेला 20 सफर को कर्बला पहुँचा। वहीं पर पहले ज़ायर हज़रत जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अंसारी भी कर्बला आए थे। यह दिन तब से इमाम हुसैन (अ.) की ज़ियारत और याद का मखसूस  दिन बन गया।

अरबईन की फज़ीलत क्या है?

मौलाना साजिद रज़वीः इमाम हसन अस्करी (अ.) से रिवायत है:
"हमारे शिया की पहचान पाँच चीजों से होती है, उनमें से एक है अरबईन की ज़ियारत।"
(मिस्बाहुल मुतहज्जिद, शेख तूसी)
अरबईन इमाम हुसैन (अ.) की कुर्बानी की दुनिया भर में याद है, जो ज़ुल्म, नाइंसाफी और बर्बरता के खिलाफ खड़ा होने की ताक़त देती है।

क्या अरबईन की पैदल ज़ियारत का कोई इतिहास भी है या ये हाल की शुरू की गई रस्म है?

मौलाना साजिद रज़वीः अरबईन की पैदल ज़ियारत का सिलसिला नया नहीं, बहुत पुराना है। इसकी जड़े जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी (र.अ.) तक जाती हैं, जो पहले ज़ायरीन में से हैं जिन्होंने 20 सफर को कर्बला में हाज़िरी दी।
हर दौर में मुख्तलिफ़ शक्लों में ये सिलसिला जारी रहा  खामोशी से, मौत के साआए में या खुलकर।
आज जो हुजूम है, वो उसी सच्ची मुहब्बत का मुसलसल सफ़र है।

अरबईन का पैग़ाम आज के इंसान के लिए क्या है?

मौलाना साजिद रज़वीः "ज़ालिम चाहे कितना भी ताक़तवर हो, आख़िर हारेगा; और हक़ हमेशा जीतेगा।"
यह सबक़ है हिम्मत, इंसाफ़, इख़लास, और बलिदान का।
यह बताता है कि चुप्पी भी ज़ुल्म का साथ है  और अगर हुसैनी बनना है, तो आवाज़ उठानी होगी।

अरबईन कैसे मनाना चाहिए?

मौलाना साजिद रज़वीः अरबईन कोई रस्म नहीं  यह इबादत है। इसे मनाने के सही तरीके हैं:

इमाम की याद में मजलिस करना

उनके पैग़ाम को समझना

पैदल ज़ियारत (अगर मुमकिन हो)

ग़रीबों की मदद

और सबसे अहम  हुसैनी अख़लाक़ को अपनाना और अपने अंदर उतार लेना।
अरबईन का जहानी (अंतरराष्ट्रीय) पहलू क्या है?

मौलाना साजिद रज़वीः अरबईन अब एक ग्लोबल इवेंट है। हर साल 100 से ज्यादा देशों से लोग कर्बला आते हैं  ईरान, भारत, पाकिस्तान, लेबनान, अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया तक से। यह यात्रा बताती है कि इमाम हुसैन (अ.) का पैग़ाम सिर्फ़ एक क़ौम नहीं, पूरी इंसानियत के लिए है।

क्या दूसरे धर्मों के लोग भी अरबईन में शामिल होते हैं?

मौलाना साजिद रज़वीः जी हाँ। हिंदू, ईसाई, सिख, जैन और यहां तक कि नास्तिक (atheists) लोग भी अरबईन में शरीक होते हैं।

हिंदू इमाम हुसैन (अ.) को धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने वाला मानते हैं।

ईसाई उन्हें "Jesus-like sacrifice" का प्रतीक समझते हैं।
अरबईन मज़हबी सीमाओं को पार कर इंसानियत के इत्तेहाद की आवाज़ है।

अरबईन में शरीक होने वालों के क्या तास्सुरात होते हैं?

मौलाना साजिद रज़वीः बहुत सारे अरबईन से लौटने वाले कहते हैं:

"हमने अपने अंदर सब कुछ बदलते हुए महसूस किया"

"यह सफर नहीं, एक रूहानी क्रांति थी"

"इमाम हुसैन (अ.) की याद ने हमारी ज़िंदगी का मक़सद बदल दिया"
अरबईन का असर दिलों पर ऐसा होता है कि हर ज़ायर हक़ और इंसाफ़ का पैरोकार बनकर लौटता है।

सद्दाम हुसैन के दौर में और आज के अरबईन में क्या फर्क है?

मौलाना साजिद रज़वीः सद्दाम के दौर में ज़ियारत-ए-हुसैन (अ.) एक जुर्म थी। पैदल चलना तो दूर, कर्बला जाना भी मौत को दावत देना था। फ़ौजी पहरे, गिरफ़्तारियाँ और सज़ा-ए-मौत तक का ख़तरा हर मोड़ पर होता था। लेकिन इश्क़-ए-हुसैन (अ.) के दीवाने तब भी किसी तरह, जान हथेली पर रखकर ज़ियारत करते थे।

आज वही इराक़ अरबईन का मर्कज़ है। हर साल करोड़ों ज़ायरीन दुनिया भर से कर्बला पहुंचते हैं। और इराक़ी अवाम की मेहमाननवाज़ी ऐसा एहसास देती है कि जैसे जन्नत ज़मीन पर उतर आई हो। कोई खाना पेश करता है, कोई पानी, कोई ज़ायरीन के पाँव दबाता है। हर सेवा एक इबादत बन चुकी है।

जो ज़ियारत कल खामोशी से होती थी, आज "लब्बैक या हुसैन" की गूंज के साथ खुलेआम होती है। यह है हुसैनी पैग़ाम की ताक़त  जो हर दौर की बंदिशों को तोड़ती चली आई है

 

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