इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह

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इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह

इमाम ख़ुमैनी की नोफ़ेल लोशातो की एक यादगार तस्वीर (फ़ाइल फ़ोटो)

1970 के दशक में तेल के उत्पादन और उसके मूल्य में वृद्धि के साथ ही ईरान के अत्याचारी शासक मुहम्मद रज़ा पहलवी को अधिक शक्ति का आभास हुआ और उसने अपने विरोधियों के दमन और उन्हें यातनाए देने में वृद्धि कर दी। शाह की सरकार ने पागलपन की सीमा तक पश्चिम विशेष कर अमरीका से सैन्य शस्त्रों व उपकरणों तथा उपभोग की वस्तुओं की ख़रीदारी में वृद्धि की तथा इस्राईल के साथ खुल कर व्यापारिक एवं सैन्य संबंध स्थापित किए। मार्च 1975 के अंत में शाह ने दिखावे के रस्ताख़ीज़ नामक दल के गठन और एकदलीय व्यवस्था की स्थापाना के साथ ही तानाशाही को उसकी चरम सीमा पर पहुंचा दिया। उसने घोषणा की कि समस्त ईरानी जनता को इस दल का सदस्य बनना चाहिए और जो भी इसका विरोधी है वह ईरान से निकल जाए। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने इसके तुरंत बाद एक फ़तवा जारी करके घोषणा की कि इस दल द्वारा इस्लाम तथा ईरान के मुस्लिम राष्ट्र के हितों के विरोध के कारण इसमें शामिल होना हराम और मुसलमानों के विरुद्ध अत्याचार की सहायता करने के समान है। इमाम ख़ुमैनी तथा कुछ अन्य धर्मगुरुओं के फ़तवे अत्यंत प्रभावी रहे और शाह की सरकार के व्यापक प्रचारों के बावजूद कुछ साल के बाद उसने रस्ताख़ीज़ दल की पराजय की घोषणा करते हुए उसे भंग कर दिया।

 

अक्तूबर वर्ष 1977 में शाह के एजेंटों के हाथों इराक़ में इमाम ख़ुमैनी के बड़े पुत्र आयतुल्लाह सैयद मुस्तफ़ा ख़ुमैनी की शहादत और इस उपलक्ष्य में ईरान में आयोजित होने वाली शोक सभाएं, ईरान के धार्मिक केंद्रों तथा जनता के पुनः उठ खड़े होने का आरंभ बिंदु थीं। उसी समय इमाम ख़ुमैनी ने इस घटना को ईश्वर की गुप्त कृपा बताया था। शाह की सरकार द्वारा इमाम ख़ुमैनी और धर्मगुरुओं के साथ शत्रुता के क्रम को आगे बढ़ाते हुए शाह के एक दरबारी लेखक ने इमाम के विरुद्ध एक अपमाजनक लेख लिख कर ईरानी जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाई। इस लेख के विरोध में जनता सड़कों पर निकल आई। आरंभ में पवित्र नगर क़ुम के कुछ धार्मिक छात्रों और क्रांतिकारियों ने 9 जनवरी वर्ष 1978 को सड़कों पर निकल कर प्रदर्शन किया जिसे पुलिस ने ख़ून में नहला दिया। किंतु धीरे धीरे अन्य नगरों के लोगों ने भी क़ुम की जनता की भांति प्रदर्शन आरंभ कर दिए और दमन एवं घुटन के वातावरण का कड़ा विरोध किया।

 

आंदोलन दिन प्रतिदनि बढ़ता जा रहा था और शाह को विवश हो कर अपने प्रधानमंत्री को बदलना पड़ा। अगला प्रधानमंत्री जाफ़र शरीफ़ इमामी था जो राष्ट्रीय संधि की सरकार के नारे के साथ सत्ता में आया था। उसके शासन काल में राजधानी तेहरान के एक चौराहे पर लोगों का बड़ी निर्ममता से जनसंहार किया गया जिसके बाद तेहरान तथा ईरान के 11 अन्य बड़े नगरों में कर्फ़्यू लगा दिया गया। इमाम ख़ुमैनी ने, जो इराक़ से स्थिति पर गहरी दृष्टि रखे हुए थे, ईरानी जनता के नाम एक संदेश में हताहत होने वालों के परिजनों से सहृदयता जताते हुए आंदोलन के भविष्य को इस प्रकार चित्रित कियाः “शाह को जान लेना चाहिए कि ईरानी राष्ट्र को उसका मार्ग मिल गया है और वह जब तक अपराधियों को उनके सही ठिकाने तक नहीं पहुंचा देगा, चैन से नहीं बैठेगा। ईरानी राष्ट्र अपने व अपने पूर्वजों का प्रतिशोध इस क्रूर परिवार से अवश्य लेगा। ईश्वर की इच्छा से अब पूरे देश में तानाशाही व सरकार के विरुद्ध आवाज़ें उठ रही हैं और ये आवाज़ें अधिक तेज़ होती जाएंगी”। शाह की सरकार के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाने में इमाम ख़ुमैनी की एक शैली जनता को अहिंसा, हड़ताल और व्यापक प्रदर्शन का निमंत्रण देने पर आधारित थी। इस प्रकार ईरान की जनता ने इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में अत्याचारी तानाशाही शासन के विरुद्ध सार्वजनिक आंदोलन आरंभ किया।

 

इराक़ की बअसी सरकार के दबाव और विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों के चलते इमाम ख़ुमैनी अक्तूबर वर्ष 1978 में इराक़ से फ़्रान्स की ओर प्रस्थान कर गए और पेरिस के उपनगरीय क्षेत्र नोफ़ेल लोशातो में रहने लगे। फ़्रान्स के तत्कालीन राष्ट्रपति ने एक संदेश में इमाम ख़ुमैनी से कहा कि वे हर प्रकार की राजनैतिक गतिविधि से दूर रहें। उन्होंने इसके उत्तर में कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए कहा कि इस प्रकार का प्रतिबंध प्रजातंत्र के दावों से विरोधाभास रखता है और वे कभी भी अपनी गतिविधियों और लक्ष्यों की अनदेखी नहीं करेंगे। इमाम ख़ुमैनी चार महीनों तक नोफ़ेल लोशातो में रहे और इस अवधि में यह स्थान, विश्व के महत्वपूर्ण सामाचारिक केंद्र में परिवर्तित हो गया था। उन्होंने विभिन्न साक्षात्कारों और भेंटों में शाह की सरकार के अत्याचारों और ईरान में अमरीका के हस्तक्षेप से पर्दा उठाया तथा संसार के समक्ष अपने दृष्टिकोण रखे। इस प्रकार संसार के बहुत से लोग उनके आंदोलन के लक्ष्यों व विचारों से अवगत हुए। ईरान में भी मंत्रालयों, कार्यालयों यहां तक कि सैनिक केंद्रों में भी हड़तालें होने लगीं जिसके परिणाम स्वरूप शाह जनवरी वर्ष 1979 में ईरान से भाग गया। इसके 18 दिन बाद इमाम ख़ुमैनी वर्षों से देश से दूर रहने के बाद स्वदेश लौटे। उनके विवेकपूर्ण नेतृत्व की छाया में तथा ईरानी जनता के त्याग व बलिदान से 11 फ़रवरी वर्ष 1979 को ईरान से शाह के अत्याचारी शासन की समाप्ति हुई। अभी इस ऐतिहासिक परिवर्तन को दो महीने भी नहीं हुए थे कि ईरान की 98 प्रतिशत जनता ने एक जनमत संग्रह में इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था के पक्ष में मत दिया।

 

इमाम ख़ुमैनी जनता की भूमिका पर अत्यधिक बल देते थे। उनके दृष्टिकोण में जिस प्रकार से धर्म, राजनीति से अलग नहीं है उसी प्रकार सरकार भी जनता से अलग नहीं है। वे इस संबंध में कहते हैः“ हमारी सरकार का स्वरूप इस्लामी गणतंत्र है। गणतंत्र का अर्थ यह है कि यह लोगों के बहुमत पर आधारित है और इस्लामी का अर्थ यह है कि यह इस्लाम के क़ानूनों के अनुसार है”। दूसरी ओर इमाम ख़ुमैनी राजनैतिक मामलों में जनता की भागीदारी को, चुनावों में भाग लेने से इतर समझते थे और इस बात को उन्होंने अनेक बार अपने भाषणों और वक्तव्यों में बयान भी किया था।

 

ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने ईरान की इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था को धराशाही करने का हर संभव प्रयास किया। वे जानते थे कि ईरान की इस्लामी क्रांति अन्य देशों में भी जनांदोलन आरंभ होने का कारण बन सकती है और राष्ट्रों को अत्याचारी शासकों के विरुद्ध उठ खड़े होने के लिए प्रेरित कर सकती है। ईरान की इस्लामी क्रांति से मुक़ाबले हेतु साम्राज्य की एक शैली यह थी कि इमाम ख़ुमैनी की हत्या के लिए देश के कुछ बिके हुए तत्वों को प्रयोग किया जाए क्योंकि वे जानते थे कि सरकार के नेतृत्व में उनकी भूमिका अद्वितीय है किंतु उनकी हत्या का षड्यंत्र विफल हो गया।

 

इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था को उखाड़ फेंकने हेतु शत्रुओं की एक अन्य शैली, देश को भीतर से तोड़ना और उसका विभाजन करना था। शत्रुओं ने ईरान के विभिन्न क्षेत्रों में जातीय भावनाएं भड़का कर बड़ी समस्याएं उत्पन्न कीं किंतु इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला और इस्लामी क्रांति के महान नेता की युक्तियों और जनता द्वारा उनके आज्ञापालन से ये समस्याएं भी समाप्त हो गईं। इमाम ख़ुमैनी एकता व एकजुटता के लिए सदैव जनता का आह्वान करते रहते थे और कहते थे कि धर्म और जाति को दृष्टिगत रखे बिना सभी को समान अधिकार मिलने चाहिए और हर ईरानी को पूरी स्वतंत्रता के साथ न्यायपूर्ण जीवन बिताने का अवसर दिया जाना चाहिए।

 

जब साम्राज्यवादियों को ईरानी जनता की एकजुटता और इमाम ख़ुमैनी के सशक्त नेतृत्व के मुक़ाबले में पराजय हो गई तो उन्होंने ईरान के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंधों और विषैले कुप्रचारों को भी पर्याप्त नहीं समझा और ईरान पर आठ वर्षीय युद्ध थोप दिया। ईरान की त्यागी जनता को, जो अभी अभी तानाशाही शासन के चंगुल से मुक्त हुई थी और इस्लाम की शरण में स्वतंत्रता का स्वाद चखना चाहती थी, एक असमान युद्ध का सामना करना पड़ा। सद्दाम द्वारा ईरान पर थोपे गए युद्ध ने, इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व के एक अन्य आयाम को प्रदर्शित किया और वे युद्ध के उतार-चढ़ाव से भरे काल से जनता को आगे बढ़ाने में सफल रहे। अमरीका, इस्राईल, फ़्रान्स और जर्मनी के अतिरिक्त तीस अन्य देशों ने इराक़ को शस्त्र, सैन्य उपकरण तथा सैनिक दिए जबकि ईरान पर प्रतिबंध लगे हुए थे और इस युद्ध के लिए वह बड़ी कठिनाई से सैन्य उपकरण उपलब्ध कर पाता था। इस बीच ईरानी योद्धाओं का मुख्य शस्त्र, साहस, ईमान और ईश्वर का भय था। अपने नेता के आदेश पर बड़ी संख्या में रणक्षेत्र का रुख़ करने वाले ईरानी योद्धाओं ने अपने देश व क्रांति की रक्षा में त्याग, बलिदान और साहस की अमर गाथा लिख दी।

 

इमाम ख़ुमैनी का व्यक्तित्व अत्यंत सुंदर एवं आकर्षक था। वे जीवन में अनुशासन और कार्यक्रम के अंतर्गत काम करने पर कटिबद्ध थे। वे अपने दिन और रात के समय में से एक निर्धारित समय उपासना, क़ुरआने मजीद की तिलावत और अध्ययन में बिताते थे। दिन में तीन चार बार पंद्रह पंद्रह मिनट टहलना और उसी दौरान धीमे स्वर में ईश्वर का गुणगान करना तथा चिंतन मनन करना भी उनके व्यक्तित्व का भाग था। यद्यपि उनकी आयु नब्बे वर्ष तक पहुंच रही थी किंतु वे संसार के सबसे अधिक काम करने वाले राजनेताओं में से एक समझे जाते थे। प्रतिदिन के अध्ययन के अतिरिक्त वे देश के रेडियो व टीवी के समाचार सुनने व देखने के अतिरिक्त कुछ विदेशी रेडियो सेवाओं के समाचारों व समीक्षाओं पर भी ध्यान देते थे ताकि क्रांति के शत्रुओं के प्रचारों से भली भांति अवगत रहें। प्रतिदिन की भेंटें और सरकारी अधिकारियों के साथ होने वाली बैठकें कभी इस बात का कारण नहीं बनती थीं कि आम लोगों के साथ इमाम ख़ुमैनी के संपर्क में कमी आ जाए। वे समाज के भविष्य के बारे में जो भी निर्णय लेते थे उसे अवश्य ही पहले जनता के समक्ष प्रस्तुत करते थे। उनके समक्ष बैठने वाले लोग बरबस ही उनके आध्यात्मिक तेज व आकर्षण से प्रभावित हो जाते थे और उनकी आंखों से आंसू बहने लगते थे। लोग हृदय की गहराइयों से अपने नारों में ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि वह इमाम ख़ुमैनी को दीर्घायु प्रदान करे। कुल मिला कर यह कि इमाम ख़ुमैनी का संपूर्ण जीवन ईश्वर तथा लोगों की सेवा के लिए समर्पित था।

 

अंततः 3 जून वर्ष 1989 को उस हृदय ने धड़कना बंद कर दिया जिसने दसियों लाख हृदयों को ईश्वर व अध्यात्म के प्रकाश की ओर उन्मुख किया था। कई लम्बी शल्य चिकित्साओं के बाद इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने 87 वर्ष की आयु में इस संसार को विदा कहा। उन्होंने अपनी वसीयत के अंत में लिखा थाः“ मैं शांत हृदय, संतुष्ट मन, प्रसन्न आत्मा और ईश्वर की कृपा के प्रति आशावान अंतरात्मा के साथ भाइयों और बहनों की सेवा से विदा लेकर अपने अनंत ठिकाने की ओर प्रस्थान कर रहा हूं और मुझे आप लोगों की नेक दुआओं की बहुत आवश्यकता है”।

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