
رضوی
हज़रत फ़ातेमा की शहादत
कृपालु मां हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत का दिन है। हालांकि इस महान हस्ती ने इस नश्वर संसार में बहुत कम समय बिताया किन्तु उनका अस्तित्व इस्लाम और मुसलमानों को बहुत से फ़ायदे पहुंचने का आधार बना। ऐसी महान हस्ती के जीवन व व्यक्तित्व की समीक्षा से किताबें भरी हुयी हैं और उनके जीवन से बहुत से पाठ मिलते हैं जैसे धर्मपरायणता, ईश्वर से भय तथा उन्हें जीवन का आदर्श बनाने की प्रेरणा। इस दुखद अवसर पर हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के जीवन के मूल्यवान आयाम पर चर्चा करेंगे और ईश्वर से अपने लिए इस महान हस्ती को आदर्श बनाने की कामना करते हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम सबसे अधिक हज़रत फ़ातेमा ज़हरा से स्नेह करते थे और आपका पवित्र वंश हज़रत फ़ातेमा ज़हरा से चला। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा का प्रशिक्षण ईश्वरीय दूत के घर में हुआ। उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम की ज़बान से क़ुरआन को सुना और उसके आदेशों को व्यवहार में उतार कर अपनी आत्मा को सुशोभित कर लिया। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के व्यक्तित्व ऐसे गुणों से सुसज्जित हैं कि कोई और महिला उनके स्तर तक पहुंचती ही नहीं। इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम ने उन्हें लोक-परलोक की महिलाओं की सरदार का ख़िताब दिया। इसके साथ ही हज़रत फ़ातेमा ज़हरा अरब प्रायद्वीप की तत्कालीन कलाओं से परिचित थीं। जैसा कि कुछ युद्धों में अपने पिता पैग़म्बरे इस्लाम के जख़्मों पर बहुत ही अच्छे ढंग से मरहम-पट्टी करती थीं। घर का काम भी बिना किसी की सहायता के करती थीं। उन्होंने अपने बच्चों का श्रेष्ठ ढंग से प्रिशिक्षण किया और ऐसे किसी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करती थीं जिससे उनका और उनके परिवार का संबंध न हो। सिर्फ़ आवश्यकता पड़ने पर ही वे बात करती थीं और जब तक उनसे कोई कुछ नहीं पूछता उस समय तक उत्तर नहीं देती थीं।
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की महानता के बारे में बहुत से कथन पाए जाते हैं।
अबु अब्दिल्लाह मोहम्मद बिन इस्माईल बुख़ारी सुन्नी समुदाय की सबसे प्रसिद्ध किताबों से एक सही बुख़ारी में पैग़म्बरे इस्लाम के एक कथन का उल्लेख करते हैं जिसमें उन्होंने कहाः फ़ातेमा मेरा टुकड़ा है जिसने उन्हें क्रोधित किया उसने मुझे क्रोधित किया। बुख़ारी एक और स्थान पर कहते हैः फ़ातेमा स्वर्ग की महिलाओं की सरदार हैं।
सुन्नी समुदाय के एक और बड़े धर्मगुरु अहमद इब्ने हंबल कि जिनके मत के अनुसरण करने वाले हंबली कहलाते हैं, अपनी किताब के तीसरे खंड में मालिक बिन अनस के हवाले से एक कथन का उल्लेख करते हैः पैग़म्बरे इस्लाम पूरे छह महीने तक जब वे सुबह की नमाज़ के लिए जाते तो हज़रत फ़ातेमा के घर से गुज़रते और कहते थेः नमाज़ नमाज़ हे परिजनो! और फिर पवित्र क़ुरआन के अहज़ाब नामक सुरे की 33 वीं आयत की तिलावत करते थे जिसमें ईश्वर कह रहा हैः हे पैग़म्बर परिजनो! ईश्वर का इरादा यह है कि आपसे हर बुराई को दूर रखे और इस तरह पवित्र रखे जैसा पवित्र होना चाहिए।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की एक पत्नी हज़रत आयशा के हवाले से इस्लामी इतिहास में आया है। वह कहती हैः मैंने बात करने में पैग़म्बरे इस्लाम से समानता में हज़रत फ़ातेमा जैसा किसी को नहीं देखा। वह जब भी अपने पिता के पास आती थीं तो पैग़म्बर उनके सम्मान में अपने स्थान से उठ जाते थे, उनके हाथ चूमते थे, उनका हार्दिक स्वागत करते थे और उन्हें अपने विशेष स्थान पर बिठाते थे और जब भी पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत फ़ातेमा के यहां जाते थे तो वह भी उनके साथ वैसा ही व्यवहार करती थीं।
प्रसिद्ध धर्म गुरु फ़ख़रूद्दीन राज़ी ने पवित्र क़ुरआन के कौसर नामक सूरे की व्याख्या में कौसर से तात्पर्य कई बातें बताई हैं जिनमें से एक हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के वंश से पैग़म्बरे इस्लाम के वंश का आगे बढ़ना है। वह कहते हैः यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम के शत्रुओं की ताने के जवाब में है जो पैग़म्बरे इस्लाम को अबतर कहते थे जिसका अर्थ हैः निःसंतान। इस आयत का उद्देश्य यह है कि ईश्वर पैग़म्बरे इस्लाम को ऐसा वंश देगा जो सदैव बाक़ी रहेगा। ध्यान देने से स्पष्ट हो जाता है कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन बड़ी संख्या में मारे गए किन्तु अभी भी पूरे संसार में वे बाक़ी हैं। जबकि बनी उमय्या परिवार में कि जिनके बच्चों की संख्या बहुत थी इस समय कोई उल्लेखनीय व्यक्ति नहीं है किन्तु पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के बच्चों को देखें तो इमाम मोहम्मद बाक़िर, इमाम जाफ़र सादिक़, इमाम मूसा काज़िम, इमाम रज़ा इत्यादि जैसे महाविद्वान व महान हस्तियां आज भी अमर हैं।
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा का अस्तित्व विभिन्न आयामों से पूरी दुनिया के लोगों के लिए आदर्श है और शीया, सुन्नी तथा ईसाई विद्वानों तथा पूर्वविदों ने उनके जीवन की समीक्षा की है।
फ़्रांसीसी विचारक हेनरी कॉर्बेन की गिनती पश्चिम के बड़े दार्शनिकों में होती है। उन्होंने भी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के जीवन की समीक्षा की है। हेनरी कॉर्बेन ने हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के जीवन को ईश्वर की पूर्ण पहचान का माध्यम बताया है। उन्होंने अपनी एक किताब में कि जिसका हिन्दी रूपांतर आध्यात्मिक दुनिया है, हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के बारे में लिखा हैः हज़रत फ़ातेमा के अस्तित्व की विशेषताओं पर यदि ध्यान दिया जाए तो यह कहा जा सकता है कि उनका अस्तित्व ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिबिंबन है।
प्रसिद्ध फ़्रांसीसी पूर्वविद व शोधकर्ता लुई मैसिन्यून ने अपने जीवन का एक कालखंड हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के व्यक्तित्व के बारे में शोध पर समर्पित किया और उन्होंने इस संदर्भ में बहुत प्रयास किए हैं। उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम और नजरान के ईसाइयों के बीच मुबाहेला नामक घटना के संबंध में एक शोधपत्र लिखा है जो मदीना में घटी थी। इस लेख में उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर संकेत किया है। वे अपने शोध-पत्र में कहते हैः हज़रत इब्राहीम की प्रार्थना में हज़रत फ़ातेमा के वंश से बारह प्रकाश की किरणों का उल्लेख है... तौरैत में मोहम्मद सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम और उनकी महान सुपुत्री और हज़रत इस्माईल और हज़रत इस्हाक़ जैसे दो सुपुत्र हसन और हुसैन की शुभसूचना है और हज़रत ईसा की इंजील अहमद सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के आने की शुभसूचना देती है जिनके एक महान बेटी होगी।
क़ाहेरा विश्वविद्यालय में इस्लामी इतिहास के शिक्षक डाक्टर अली इब्राहीम हसन भी हज़रत फ़ातेमा की प्रशंसा में कहते हैः हज़रत फ़ातेमा ज़हरा का जीवन इतिहास के स्वर्णिम पन्ने हैं।
उन पन्नों में उनके महान जीवन के विभिन्न पहलुओं को हम देखते हैं किन्तु वह बिलक़ीस या क़्लुपित्रा जैसी नहीं हैं कि जिनका वैभव उनके बड़े सिंहासन, अथाह संपत्ति व अद्वितीय सौंदर्य में दिखाई देता है और उनका साहस लश्कर भेजने और पुरुषों का नेतृत्व करने में नहीं है बल्कि हमारे सामने ऐसी हस्ती है जिनका वैभव पूरी दुनिया में फैला हुआ है। ऐसा वैभव जिसका आधार धन-संपत्ति नहीं बल्कि आत्मा की गहराई से निकला आध्यात्म है।
सुलैमान कतानी नामक ईसाई लेखक, कवि और साहित्यकार ने, जो इस्लामी हस्तियों को पहचनवाने से संबंधित बहुत सी प्रसिद्ध किताबें लिखी हैं, अपनी एक किताब में जिसका हिन्दी रुपान्तरः फ़ातेमा ज़हरा नियाम में छिपी तलवार है, लिखते हैः हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा का स्थान इतना ऊंचा है कि उसके लिए ऐतिहासिक दस्तावेज़ों का उल्लेख किया जाए। उनकी हस्ती के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह मोहम्मद सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की बेटी, अली अलैहिस्सलाम की पत्नी, हसन और हुसैन अलैहेमस्सलाम की मां और संसार की महान महिला हैं। सुलैमान कतानी अपनी किताब के अंत में हज़रत फ़ातेमा ज़हरा को संबोधित करते हुए कहते हैः हे मुस्तफ़ा की बेटी फ़ातेमा! हे धरती की सबसे प्रकाशमय हस्ती। आप ज़मीन पर केवल दो बार मुस्कुराईं। एक बार पिता के चेहरे पर जब वह परलोक सिधारने वाले थे और उन्होंने आपको इस बात की शुभसूचना दी थी कि तुम मुझसे मिलने वाली पहली हस्ती होगी और दूसरी बार आप उस समय मुस्कुराईं जब आप इस नश्वर संसार को छोड़ कर जा रही थीं। आपका जीवन स्नेह से भरा रहा। आपने पवित्र व चरित्रवान जीवन बिताया। सबसे पवित्र मां जिसने दो फूल को जन्म दिए, उनका प्रशिक्षण किया और उन्हें दूसरों को क्षमा करना सिखाया। आपने इस धरती को व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट के साथ विदा कहा और अमरलोक सिधार गयीं हे पैग़म्बर की बेटी! हे अली की पत्नी! हे हसन और हुसैन की मां! और हे सभी संसार व युग की महान महिला!
इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के महान व्यक्तित्व की इन शब्दों में प्रशंसा करते हैः मुसलमान महिलाओं को चाहिए कि अपने व्यक्तिगत, सामाजिक और पारिवारिक जीवन में हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के जीवन को बुद्धिमत्ता और ईश्वरीय पहचान की दृष्टि से आदर्श बनाएं और प्रार्थना, उपासना, इच्छाओं से संघर्ष, मंच पर उपस्थिति, सामाजिक, पारिवारिक, दांपत्य जीवन और बच्चों के प्रशिक्षण से संबंधित बड़े फ़ैसलों में उनका अनुसरण करें क्योंकि इस्लाम की इस महान हस्ती का जीवन यह दर्शाता है कि मुसलमान महिला राजनैतिक व व्यवसायिक मंच पर उपस्थिति और साथ ही समाज में शिक्षा, उपासना, दांपत्य जीवन और बच्चों के प्रशिक्षण के साथ सक्रिय भूमिका निभाने में हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की अनुसरणकर्ता बन सकती है और ईश्वर के महान पैग़म्बर की महान बेटी को अपना आदर्श बना दे
शहादते ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत की तारीख़ पर
हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा फ़ाज़िल लंकरानी (मद्दा ज़िल्लाहुल आली) का पैग़ाम
بسم الله الرحمن الرحيم
ان الذين يوذون الله و رسوله لعنهم الله في الدنيا و الاخرة و اعد لهم عذاباً مهيناً
قال رسول الله (ص) فاطمة بضعة مني يوذيني من اذاها
हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत के दिन हैं। वह ज़हरा जो उम्मे अबीहा और मादरे आइम्मा -ए- मासूमीन अलैहिमुस्सलाम है। आप अहलेबैत इस्मत व तहारत का महवर हैं। आपकी ज़ाते बा बरकत एक ऐसी हक़ीक़त है जिसे आम इंसान तो क्या शिया और मुहिबाबाने अहलेबैत भी नही पहचान सके हैं। आपकी ज़ात की नूरानी हक़ीक़त ज़ुल्म, बुग़्ज़, दुश्मनी, हसद और जिहालत के पर्दों के पीछे छुप कर रह गई और अब क़ियामत तक ज़ाहिर भी नही होगी। शिया ही नही बल्कि तमाम इंसानियत और मलक व मलाकूत भी ऐसे वुजूद पर इफ़्तेख़ार करते हैं और अल्लाह के अता किये हुए इस कौसर को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वस्ल्लम के दीन की बक़ा और इंसानी समाज के उलूम व कमालात से मुज़य्यन होने को आपके बेटों का मरहूने मिन्नत समझते हैं। वाक़ेयन अगर ज़हरा सामुल्लाह अलैहा न होतीं और आइम्मा –ए- मासूमीन अलैहिमु अस्सलाम का वुजूदे मुनव्वर न होता, तो आलमे तकवीन व तशरी पर किस क़द्र अंधेरा छाया हुआ होता ?
قل لا أسئلكم عليه اجراً الا المودة في القربي की रौशनी में तमाम इंसानों पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का एक मानवी हक़ है और वह, यह कि उनके अहलेबैत से मुहब्बत की जाये और जिनमें सबसे पहली फ़र्द हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की ज़ात है। यह हुक्म एक फ़र्ज़ की सूरत में हर ज़माने के इंसानों के लिए है, फ़क़त पैग़म्बरे इस्लाम के ज़माने के लोगों से ही मख़सूस नही है। हज़रत ज़हरा से मुहब्बत का मतलब, उनका एहतेराम, उनकी याद व ज़िक्र को बाक़ी रखना और उन पर होने वाले ज़ुल्मों को ब्यान करना है। हम उन पर होने वाले ज़ुल्मों को कभी नही भूल सकते हैं। तारीख़ गवाह है कि बहुत कम मुद्दत में आप पर इतने ज़ुल्म हुए कि आपकी शहादत के बाद सय्यदुल मुवाह्हिद अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि ज़हरा के रंज व ग़म दायमी है, वह कभी खत्म होने वाले नही हैं। क्या इसके बाद भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शिया और पैग़म्बर (स.) की उम्मते इस हुज़्न व मातम को तर्क कर सकते हैं ? नही, कभी नही। लिहाज़ा अहले बैत के तमाम शियों व मुहिब्बों को चाहिए कि तीन जमादि उस सानी को (जो कि सही रिवायतों की बिना पर हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत की तारीख़ है।) शहज़ादी के ज़िक्र को ज़िंदा रखें, मजालिस करें, आपके ऊपर होने वाले ज़ुल्मों को ब्यान करें और नौहा ख़वानी, मातम व गिरया के ज़रिये हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा से अपनी अक़ीदत को ज़ाहिर करते हुए, आपके हुक़ूक़ के एक हिस्से को आदा फ़रमायें। इन्शाल्लाह।
मुहम्मद फ़ाज़िल लंकरानी
2 जमादि उस सानी सन् 1425 हिजरी क़मरी
जनाबे फ़ातेमा ज़हरा के दफ़्न के मौक़े पर इमाम अली का खुत्बा
इमाम अली ने ये कलेमात सैय्यदतुन निसाइल आलमीन फ़ातेमा ज़हरा (स0) के दफ़्न के मौक़े पर पैग़म्बरे इस्लाम (स0) से राज़दाराना गुफ़्तगू के अन्दाज़ मे कहे थे।
सलाम हो आप पर ऐ ख़ुदा के रसूल (स0) !
मेरी तरफ़ से और आपकी उस दुख़्तर की तरफ़ से जो आपके जवार में नाज़िल हो रही है और बहुत जल्दी आप से मुलहक़ हो रही है।
या रसूलल्लाह! मेरी क़ूवते सब्र आपकी मुन्तख़ब रोज़गार (बरगुज़ीदा) दुख़्तर के बारे में ख़त्म हुई जा रही है और मेरी हिम्मत साथ छोड़े दे रही है सिर्फ़ सहारा यह है के मैंने आपके फ़िराक़ के अज़ीम सदमे और जानकुन हादसे पर सब्र कर लिया है तो अब भी सब्र करूंगा कि मैंने ही आपको क़ब्र में उतारा था और मेरे ही सीने पर सर रखकर आपने इन्तेक़ाल फ़रमाया था।
बहरहाल मैं अल्लाह ही के लिये हूँ और मुझे भी उसी की बारगाह में वापस जाना है।
आज अमानत वापस चली गई और जो चीज़ मेरी तहवील में थी वह मुझसे छुड़ा ली गई। अब मेरा रंज व ग़म दायमी है और मेरी रातें नज़रे बेदारी हैं।
जब तक मुझे भी परवरदिगार उस घर तक न पहुंचा दे जहाँ आपका क़याम है।
अनक़रीब आपकी दुख़्तरे नेक अख़्तर उन हालात की इत्तेला देगी कि किस तरह आपकी उम्मत ने उस पर ज़ुल्म ढ़ाने के लिये इत्तेफ़ाक़ कर लिया था। आप उससे मुफ़स्सिल सवाल फ़रमाएं और जुमला हालात दरयाफ़्त करें।
अफ़सोस कि यह सब उस वक़्त हुआ है जब आपका ज़माना गुज़रे देर नहीं हुई है और अभी आपका तज़किरा बाक़ी है। मेरा सलाम हो आप दोनों पर, उस शख़्स का सलाम जो रूख़सत करने वाला है और दिल तंग व रंजीदा नहीं है।
मैं अगर इस क़ब्र से वापस चला जाऊं तो यह किसी दिले तंगी का नतीजा नहीं है और अगर यहीं ठहर जाऊं तो यह उस वादे के बेऐतबारी नहीं है जो परवरदिगार ने सब्र करने वालों से किया है।
नहजुल बलाग़ाः खुत्बा न. 202)
रसूले अकरम की इकलौती बेटी
मुनाक़िब इब्ने शहर आशोब में है कि जनाबे ख़दीजा के साथ जब आं हज़रत (स.अ.व.व) की शादी हुई तो आप बाकरह थीं। यह तसलीम शुदा अमर है कि क़ासिम अब्दुल्ला यानी तैय्यब व ताहिर और फातेमा ज़हरा बतने ख़दीजा से रसूले इस्लाम की औलाद थीं। इस में इख़्तेलाफ़ है कि ज़ैनब , रूक़य्या , उम्मे कुल्सूम , आं हज़रत की लड़कियां थीं या नहीं , यह मुसल्लम है कि यह लड़कियां ज़हूरे इस्लाम से क़ब्ल काफ़िरों अतबा , पिसराने अबू लहब और अबू आस , इब्ने रबी के साथ ब्याही थीं। जैसा कि मवाहिबे लदुनिया जिल्द 1 स. 197 मुद्रित मिस्र व मुरव्वज उज ज़हब मसूदी जिल्द 2 स. 298 मुद्रित मिस्र से वाज़े है। यह माना नहीं जा सकता कि रसूले इस्लाम अपनी लड़कियों को काफ़रों के साथ ब्याह देते। लेहाज़ा यह माने बग़ैर चारा नहीं है कि यह औरतें हाला बिन्ते ख़वैला हमशीर जनाबे ख़दीजा की बेटियां थीं। इन के बाप का नाम अबू लहनद था। जैसा कि अल्लामा मोतमिद बदख़शानी ने मरजा उल अनस , में लिखा है। यह वाक़ेया है कि यह लड़कियां ज़माना ए कुफ़्र में हाला और अबू लहनद में बाहमी चपकलिश की वजह से जनाबे ख़दीजा के ज़ेरे केफ़ालत और तहते तरबीयत रहीं और हाला के मरने के बाद मुतलक़न उन्हीं के साथ हो गईं और ख़दीजा की बेटी कहलाईं। इसके बाद बा ज़रिया ए जनाबे ख़दीजा आं हज़रत से मुनसलिक हो कर उसी तरह रसूल (स.अ.व.व) की बेटियां कहलाईं। जिस तरह जनाबे ज़ैद मुहावरा अरब के मुताबिक़ रसूल के बेटे कहलाते थे। मेरे नज़दीक इन औरतों के शौहर मुताबिक़ दस्तूरे अरब के मुताबिक़ दामादे रसूल कहे जाने का हक़ रखते हैं। यह किसी तरह नहीं माना जा सकता कि रसूल की सुलबी बेटियां थीं क्यों कि हुज़ूरे सरवरे आलम (स.अ.व.व) का निकाह जब बीबी ख़दीजा से हुआ था तो आपके ऐलाने नबूवत से पहले इन लड़कियों का निकाह मुशरिकों से हो चुका था और हुज़ूर सरकारे दो आलम का निकाह 25 साल के सिन में ख़दीजा से हुआ और 30 साल तक कोई औलाद नहीं हुई और चालीस साल के सिन में आपने ऐलाने नबूवत फ़रमाया और इन लड़कियों का निकाह मुशरिक़ों से आप की चालीस साल की उम्र से पहले हो चुका था , और इस दस साल के अर्से में आपके फ़रज़न्द का भी पैदा होना और तीन लड़कियों का पैदा होना तहरीर किया गया है। जैसा कि मदारिज अल नबूवत में तफ़सील मौजूद है। भला ग़ौर तो कीजिए की दस साल की उमर में चार , पांच औलादें भी पैदा हो गईं और इतनी उमर भी हो गई के निकाह मुशरिक़ों से हो गया। क्या यह अक़ल व फ़हम में आने वाली बात है कि चार साल की लड़कियों का निकाह मुशरिक़ों से हो गया और हज़रत उस्मान से भी एक लड़की का निकाह हालते शिर्क ही में हो गया। जैसा कि मदारिज अल नबूवत में मज़कूर है। इस हक़ीक़त पर ग़ौर करने से मालूम होता है कि लड़कियां हुज़ूर की न थीं बल्कि हाला ही की थीं और इस उम्र में थीं कि इनका निकाह मुशरिक़ों से हो गया था। (सवानेह हयाते सैय्यदा पृष्ठ 34)
अल्लाह तआला ने हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स. को हमारे लिए आइडियल क्यूं बनाया है?
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स. की फ़ज़ीलत व मरतबे को बयान करना इन्सान के बस में नहीं है। अगर कोई उनके मरतबे को देखना चाहता है तो उसे देखना चाहिए कि ख़ुदा और उसके रसूल की नज़र में आपका मरतबा और स्थान क्या है। उन्हें समझने के लिये इन्सान के पास दूरदर्शिता और बसीरत होनी चाहिये। शायद हम जैसे इन्सान न समझ पाएं, हाँ उन्हें जानने के लिये उन आयतों और हदीसों से मदद ली जा सकती है जिनमें उनकी श्रेष्ठता बयान की गई है।
क़ुरआने मजीद में भी बहुत सी आयतें हैं जिनमें आपका स्थान बयान हुआ है और हदीसें भी बहुत सी हैं जिनमें आपकी श्रेष्ठता को बताया गया है। हालांकि इनके अलावा एक रास्ता भी है जिससे हम आपकी सीरत और कैरेक्टर को जान सकते हैं और वह है उनकी ज़िन्दगी का चरित्र। इसलिये हम एक नज़र उनकी ज़िन्दगी के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर डालते हैं और देखते हैं कि उनका चरित्र क्या था और क्योंकि ख़ुदा नें उनको हमारे लिये आईडियल बनाया है इसलिये हम उनसे कुछ सीख कर अपने जीवन में लागू करें।
- शक्ल में, बात करने में और चरित्र में आप रसूले ख़ुदा के जैसी थीं, उन्हें देखने वाले को रसूले ख़ुदा याद आ जाते थे। (हालांकि याद रहे उन्हें किसी नामहरम नें नहीं देखा बल्कि केवल महरम ही उन्हें देखते थे)।
- ख़ुदा की इबादत और उसके साथ राज़ो नयाज़ से आपको बहुत ज़्यादा मोहब्बत थी। आप इतनी ज़्यादा इबादत करतीं थीं कि आपके पैरों में सूजन आ जाती थी और नमाज़ों में अल्लाह के डर से बहुत रोया करती थीं।
- सप्ताह के सारे दिनों में अलग अलग दुआ पढ़ा करती थीं। नमाज़ के बाद भी विशेष दुआएं पढ़तीं थीं। आपकी दुआएं हदीस और दुआ की किताबों में आईं हैं।
- एक दिन आप काम से बहुत ज़्यादा थक गईं तो रसूले ख़ुदा स. के पास गईं ताकि घर के कामों में सहायता के लिये एक दासी के लिये कहें। रसूले ख़ुदा स. नें दासी से भी अच्छी चीज़ उन्हें दी और वह थी एक तसबीह जिसे आप हमेशा पढ़ा करती थीं जो बाद में तसबीहे फ़ातिमा के नाम से मशहूर हुई जिसका पढ़ना हर नमाज़ के बाद मुस्तहेब है। यह तसबीह जनाबे जिबरईल ख़ुदा की तरफ़ से रसूलल्लाह के लिये लेकर आये थे।
- शुरू शुरू में यह तसबीह एक धागे की शक्ल में थी लेकिन जनाबे हमज़ा की शहादत के बाद आप नें उनकी क़ब्र की मिट्टी से एक तसबीह बनवाई। उसके बाद लोगों नें भी ऐसा ही किया यानी जनाबे हमज़ा की मिट्टी से तसबीह बनाई। इस काम का यह असर हुआ कि शहादत की महानता और शहीद की श्रेष्ठता भी लोगों को मालूम हुई।
- जनाबे फ़ातिमा स. अपनी ज़बान से भी दूसरों के लिये हेजाब की ज़रूरत और महत्व को बयान करती थीं और अमल से भी उसे कर के दिखाती थीं बल्कि पवित्रता की सबसे बड़ी आईडियल हैं। आप फ़रमाती थीं कि औरत का सबसे बड़ा गहना यह है कि न कोई नामहरम (अजननबी) मर्द उसे देखे और न उसकी नज़र नामहरम मर्दों की तरफ़ जाए। एक दिन रसूले ख़ुदा स. अपने एक सहाबी के साथ आपके घर आये जोकि देख नहीं सकते थे। जनाबे फ़ातिमा फ़ौरन परदे के पीछे चली गईं।
- कभी कभी आप पूरी रात नमाज़ पढ़ती और इबादत करती थीं और दूसरों के लिये दुआएं किया करती थीं। जब बच्चे आपसे पूछते थे कि आप केवल दूसरों के लिये क्यों दुआ करती हैं तो आप जवाब देतीं: मेरे बच्चों! पहले पड़ोसी फिर घर वाले।
- रसूले ख़ुदा स. आपको बहुत ज़्यादा चाहते थे क्योंकि आपको ख़ुदा से बहुत मोहब्बत थी और दूसरी बात यह थी कि आपको देख कर रसूले ख़ुदा स. को हज़रत ख़दीजा की याद आती थी।
- आप अपने बाबा का बहुत आदर करती थीं, जब भी अल्लाह के रसूल आपके घर आते तो आप उनके एहतेराम के लिये खड़ी हो जातीं और उन्हें उस जगह बैठातीं जो आपने उनके लिये रखी थी।
- आपके पास जो भी होता था चाहे पैसे हों या दूसरी चीज़ें वह ग़रीबों और उन लोगों को दिया करती थीं जिनको ज़रूरत होती थी। एक बार आपने रसूले ख़ुदा स. के पास बहुत सारा कपड़ा भेजा जिससे अल्लाह के रसूल नें बहुत से बच्चों के लिये कपड़े बनवाये।
- आपकी ज़िन्दगी बड़ी सादा थी। दुनिया की कठिनाइयों को बर्दाश्त करती थीं ताकि आख़ेरत की नेमतों को पाएं।
- आप ज़्यादातर घर में पति की सेवा और बच्चों के पालन-पोषण में व्यस्त रहती थीं लेकिन जब दीन के लिये ज़रूरत होती तो घर से बाहर निकलतीं और दीन का डिफ़ेंस करती थीं, जैसे आपने ओहद की जंग में शिरकत की और आपका काम ज़ख़्मियों को मरहम पट्टी कराना था।
- आप ग़ुलामों को आज़ाद करने पर बहुत ज़्यादा ज़ोर देती थीं और उसे ख़ुदा के लिये एक बहुत नेक काम समझती थीं। हज़रत अली अ. नें एक बार आपके लिये एक हार ख़रीदा उसे आपने बेचकर उसके पैसों से एक ग़ुलाम ख़रीदा और उसे आज़ाद कर दिया। रसूले ख़ुदा स. अपनी बेटी के इस काम से बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने आपकी सराहना की।
- आपके घर जो भी आता ख़ाली हाथ वापस नहीं जाता था। एक बार हज़रत अली अ., जनाबे ज़हरा और आपके बच्चों नें तीन दिन तक रोज़ा रखा। जब अफ़्तार का समय होता तो कोई मांगने के लिये आ जाता और सारे लोग उसको अपना खाना दे देते थे। ख़ुदा को उनका यह अमल इतना अच्छा लगा कि उसनें आपके लिये एक सूरा भेजा जिसका नाम सूरए इन्सान (हलअता) है।
- हज़रत अली अ. और जनाबे ज़हरा स. नें घर के कामों को बाँट लिया था। पानी, ईंधन, सौदा लाना और घर से बाहर के काम हज़रत अली अ. के ज़िम्मे थे और खाना बनाना, घर की सफ़ाई और घर के अन्दर के के दूसरे काम जनाबे ज़हरा के ज़िम्मे थे। हज़रत अली अ. घर के अन्दर के कामों में भी आपकी सहायता किया करते थे।
- आप अपने शौहर का बहुत ज़्यादा ख़्याल रखती थीं और उन पर पड़ने वाली मुसीबतों में उनका साथ देती थीं और उनके दुख को कम करने की कोशिश करती थीं। हज़रत अली अ. फ़रमाते थे: जब मैं घर आता था और ज़हरा को देखता था तो मेरे सारे दुख दूर हो जाते थे। हम दोनों कभी ऐसा काम नहीं करते थे जिससे एक दूसरे को दुख हो।
- आप जनाबे हमज़ा के मज़ार पर उनकी ज़ियारत के लिये जाया करती थीं जिसका मक़सद यह था कि ख़ुदा के लिये जान देने और शहीद होने वालों का नाम हमेशा ज़िन्दा रहे और लोग उन्हें भूल न जाएं।
- जब आप के पति और मुसलमानों के इमाम हज़रत अली अ. का हक़ छीन लिया गया और दूसरे लोग उनकी जगह आकर बैठ गए तो आप उनके हक़ के लिये घर से बाहर निकलीं और अपने इमाम का डिफ़ेंस किया और मुसलमानों को यह याद दिलाया कि उनका असली इमाम कौन है और वह किसके पीछे चल पड़े हैं।
- शहादत से पहले आप नें जनाबे असमा से वसीयत की कि उनका जनाज़ा ताबूत में रख कर ले जाया जाए जबकि उस ज़माने में ताबूत की रस्म नहीं थी इससे पता चलता है कि आपके अन्दर कितनी पवित्रता थी और आप को अपने परदे का कितना ख़्याल था।
- आपने हज़रत अली अ. से वसीयत की थी कि आपको रात में ग़ुस्ल दें, रात में कफ़न पहनाएं और रात ही में दफ़्न करें और जिन लोगों नें उन्हें दुख पहुँचाया था उनको जनाज़े में (अंतिम संस्कार) न आने दें इस तरह आप नें सारी दुनिया को बता दिया कि किन लोगों नें उन पर ज़ुल्म किया है और किन लोगों से वह नाराज़ रही हैं।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की इबादत
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा रात्री के एक पूरे चरण मे इबादत मे लीन रहती थीं। वह खड़े होकर इतनी नमाज़ें पढ़ती थीं कि उनके पैरों पर सूजन आ जाती थी।
सन् 110 हिजरी मे मृत्यु पाने वाला हसन बसरी नामक एक इतिहासकार उल्लेख करता है कि" पूरे मुस्लिम समाज मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा से बढ़कर कोई ज़ाहिद, (इन्द्रि निग्रेह) संयमी व तपस्वी नही है।" पैगम्बर की पुत्री संसार की समस्त स्त्रीयों के लिए एक आदर्श है।
जब वह गृह कार्यों को समाप्त कर लेती थीं तो इबादत मे लीन हो जाती थीं।
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम अपने पूर्वज इमाम हसन जो कि हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के बड़े पुत्र हैं उनके इस कथन का उल्लेख करते हैं कि "हमारी माता हज़रत फ़ातिमा ज़हरा बृहस्पतिवार व शुक्रवार के मध्य की रात्री को प्रथम चरण से लेकर अन्तिम चरण तक इबादत करती थीं तथा जब दुआ के लिए हाथों को उठाती तो समस्त आस्तिक नर नारियों के लिए अल्लाह से दया की प्रार्थना करतीं परन्तु अपने लिए कोई दुआ नही करती थीं।
एक बार मैंने कहा कि माता जी आप दूसरों के लिए अल्लाह से दुआ करती हैं अपने लिए दुआ क्यों नही करती? उन्होंने उत्तर दिया कि प्रियः पुत्र सदैव अपने पड़ोसियों को अपने ऊपर वरीयता देनी चाहिये।"
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा एक जाप किया करती थीं जिसमे (34) बार अल्लाहु अकबर (33) बार अलहम्दो लिल्लाह तथा (33) बार सुबहानल्लाह कहती थीं।
आपका यह जाप इस्लामिक समुदाय मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा
हज़रत अमीरूल मोमिनीन अ.स.आज भी ज़िन्दा हैं और हम रोज़ उनके उपदेशों नहजुल बलागा का अध्ययन करते हैं।
हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमुली ने कहा,जिस शख्स ने खुदा को पहचान लिया और उसकी मारिफ़त हासिल की तो वह खुद को भी पहचान लेगा और जो खुद को नहीं पहचानता तो वह अल्लाह की मारिफ़त भी हासिल नहीं कर सकता।
एक रिपोर्ट के अनुसार, हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमुली ने मस्जिद ए आज़म क़ुम में जारी अपने दरस-ए-अख़लाक़ को शरह ए नहजुल बलागा के ख़ुत्बे को बयान करते हुए कहा, अगर हम किताब "काफी" के मवाद पर ग़ौर करें तो हमें मालूम होता है कि मासूमीन अ.स. अपने असहाब से किस तरह गुफ़्तगू करते थे।
इमाम अली अ.स. ने कभी अपने असहाब से नहीं पूछा कि उन्होंने पिछले दरस में क्या सीखा बल्कि उनसे पूछा करते थे कि उन्होंने गुज़श्ता रात को क्या देखा?
हज़रत आयतुल्लाह जवादी आमुली ने कहा, अंबिया अ.स. जो चीज़ें लाए उनमें सबसे अहम बात यह थी कि इल्म का असल ज़रिया इल्म-ए-हुज़ूरी है न कि इल्म-ए-हुसूली! और इल्म-ए-हुज़ूरी की इब्तिदा (शुरुआत) मारिफ़त-ए-नफ़्स से होती है। इंसान खुद को मफ़हूम से नहीं बल्कि इल्म-ए-हुज़ूरी से जानता और पहचानता है।
उन्होंने आगे कहा,इंसान जब खुद को दरक करता है तो वह उसका हक़ीक़ी और खारजी वजूद होता है, न कि ज़ेहनी तसवीर। कभी इंसान मस्जिद या सड़क का तसव्वुर करता है और उनकी तस्वीरें ज़ेहन में लाता है, जो कि इल्म-ए-हुसूली है लेकिन कभी वह खुद इन चीज़ों को देखता है जो कि इल्म-ए-हुज़ूरी है।
इस मरजए तकलीद ने कहा,पैग़ंबर अक़्दस स.अ.व. के बाद सबसे अज़ीम आलिम हज़रत अली अ.स. थे। वे अल्लाह के इज़्न से फरमाते हैं ""ما للعالم اکبر منی"" यानी सारी दुनिया में मेरी तरह का कोई मर्द नहीं है। पैग़ंबर स.अ.व. ने फरमाया: "अली अंफुसना" यानी अली हमारा नफ़्स हैं। जो कुछ अल्लाह ने इंसानों को देना था वह सब अली अ.स. को दिया अली अ.स. आज भी ज़िंदा हैं और हम रोज़ाना उनके फरामीन नहजुल बलागा का मुताला करते हैं।
उन्होंने कहा: हज़रत अली अ.स. ने फरमाया, माल खर्च करने से कम होता है लेकिन इल्म देने से और बढ़ता है। हमें यह भी रिवायत में मिलता है कि पैग़ंबर स.अ.व. ने फरमाया,अगर मैं माल को दो बार कर्ज़ दूं तो यह सदक़ा देने से कहीं बेहतर है क्योंकि इससे लोगों की इज़्ज़त महफूज़ रहती है और वे अपने काम में मसरूफ़ रहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने दिए बुलडोज़र एक्शन पर दिशा निर्देश
सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच ने बुधवार को देश में बुलडोज़र से संपत्तियों को तोड़े जाने को लेकर दिशा निर्देश जारी किए हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार,सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच ने बुधवार को देश में बुलडोज़र से संपत्तियों को तोड़े जाने को लेकर दिशा निर्देश जारी किए हैं।
जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की बेंच ने कहा है कि किसी व्यक्ति के घर या संपत्ति को सिर्फ़ इसलिए तोड़ दिया जाना कि उस पर अपराध के आरोप हैं, क़ानून और शासन के ख़िलाफ़ है।
सुप्रीम कोर्ट ने ये दिशा-निर्देश घरों को बुलडोज़र से तोड़े जाने के ख़िलाफ़ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए दिए हैं।
जस्टिस गवई ने कहा,एक आम नागरिक के लिए घर बनाना कई सालों की मेहनत सपनों और महत्वाकांक्षाओं का नतीजा होता है।
कई राज्यों में ऐसे लोगों के घरों को तोड़ा है, जिन पर सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने का शक़ था यह कानून के अनुसार सही नही हैं।
अपना आदेश सुनाते हुए जस्टिस गवई और जस्टिस विश्वनाथन की बेंच ने कहा, ''हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अगर कार्यपालिका मनमाने ढंग से किसी नागरिक के घर को केवल इस आधार पर तोड़ देती है कि वह किसी अपराध का अभियुक्त है तो कार्यपालिका क़ानून के शासन के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ कार्य करती है।
अगर कार्यपालिका न्यायाधीश के रूप में कार्य करते हुए किसी नागरिक पर केवल अभियुक्त होने के आधार पर विध्वंस का दंड लगाती है तो यह शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत का भी उल्लंघन है।
मुस्लिम युवाओं को इस्लामी शिक्षाओं और तकनीक में आगे होना चाहिए।
मलेशिया के प्रधान मंत्री ने कहा आज के दौर में इल्म ज़रूरी है और मुस्लिम युवाओं को इस्लामी शिक्षाओं और तकनीकी कौशल से लैस होना चाहिए।
एक रिपोर्ट के अनुसार, मलेशियाई प्रधान मंत्री अनवर इब्राहिम ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसे क्षेत्रों में इस्लामी मूल्यों को शामिल करने के लिए मुस्लिम युवाओं को इस्लामी शिक्षाओं और तकनीकी कौशल से लैस होने पर ज़ोर दिया।
मिस्र में अलअजहर विश्वविद्यालय में एक सार्वजनिक भाषण में अनवर इब्राहिम ने नैतिक एआई समाधान विकसित करने में छात्रों का मार्गदर्शन करने के लिए टेक्नोलॉजी शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक ज्ञान की आवश्यकता पर जोर दिया।
अनवर ने कहा,आज के दौर में इल्म ज़रूरी है और मुस्लिम युवाओं को इस्लामी शिक्षाओं और तकनीकी कौशल से लैस होना चाहिए।
प्रधान मंत्री ने छात्रों को इन क्षेत्रों में प्रगति के लिए प्रोत्साहित करने पर ध्यान देने के साथ इस्लामी अध्ययन, चिकित्सा और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले मलेशियाई लोगों के लिए माली सहायता और छात्रवृत्ति में वृद्धि की भी घोषणा की हैं।
मलेशिया के प्रधान मंत्री ने कहा कि कुरान और अरबी कौशल को बनाए रखते हुए इंजीनियरिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और अन्य कौशल सीखने की ज़रूरत हैं।
दुश्मनों की बर्बरता से प्रतिरोध पराजित नहीं होगा। लेबनानी सांसद
लेबनान की संसद के सदस्य अली अम्मार ने कहा है कि अगर इसराइली दुश्मन यह सोच रहे हैं कि वे अपनी बर्बरता से प्रतिरोध के संकल्प को कमज़ोर कर देंगे तो यह उनकी भूल है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, लेबनानी संसद सदस्य अली अम्मार ने कल संसद में भाषण देते हुए कहा कि अगर इसराइली दुश्मन यह सोच रहे हैं कि वह अपनी बर्बरता और क्रूरता से प्रतिरोध के संकल्प को कमजोर और धीमा कर देंगे तो हम उन्हें बताते हैं कि यह उनकी भूल है और दुश्मन को पराजय का सामना करना पड़ेगा।
उन्होंने दाहिया दक्षिण और बेकाअ के जनता के धैर्य और स्थिरता को सलाम पेश करते हुए कहा कि दाहिया दक्षिण और बेकाअ के लोगों ने वास्तव में हमें धैर्य और संकल्प का पाठ सिखाया है।
अली अम्मार ने बेघर लेबनानियों को शरण देने वाले सभी लेबनानियों की सराहना भी की हैं।