رضوی
कर्बला: शऊरे दीनदारी का दर्से जावेदानी
हज़रत हुसैन (अ) विलायत-ए-इलाही के नेता, इमाम आली-मक़ाम जो सत्य और धार्मिकता के उत्थान और झूठ के स्थायी दमन के लिए खड़े हुए, ऐसे शाश्वत हैं और विश्व के इतिहास में अमर आंदोलन, जिसने पहले दिन से सबसे अधिक उत्पीड़ित विद्वानों को प्रेरित किया है, यह खेदजनक है कि सत्य और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए कोई भी बलिदान दिया जा सकता है।
विलायत-ए-इलाही के नेता इमाम हुसैन (अ) का सत्य के उत्थान और असत्य के निरंतर दमन के लिए खड़ा होना दुनिया के इतिहास में एक ऐसा शाश्वत और अमर आंदोलन है, जिसने जरूरतमंद लोगों की यह चाहत पहले दिन से ही है। कहा जाता है कि अधिकारों और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए कोई भी बलिदान दिया जा सकता है, इसीलिए आज जहां भी उपनिवेशवाद और अहंकार के खिलाफ विरोध जताया जाता है, उसे हुसैनवाद की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है। कठिनाइयों और आपदाओं के जवाब में सर्वोच्च इमाम (अ) द्वारा दिया गया सबसे बड़ा बलिदान किसी भी धर्म, पंथ और भौगोलिक सीमाओं से पूरी तरह परे है, और दुनिया जानती है कि सच्चाई और हुसैन (अ) इस्लाम के पाखंडी हैं, जो अल्लाह के रसूल (स) के नशे में हैं और हलाल ईश्वर को मना किया, जिसने हराम किए गए ईश्वर को हलाल किया, जिसने अल्लाह और उसके बंदों के अधिकारों को मार डाला, उन्हें अपमानित किया और उन्हें हमेशा के लिए अपमानित किया और उन्हें अपने पाखंड का सबक सिखाया लोगों के लिए एक सबक इस तरह, मानवता को सम्मान और मूल्य के साथ जीने के लिए एक स्थायी मानचित्र प्रदान किया गया।
कर्बला की त्रासदी अनंत काल की एक महान लड़ाई का नाम है, जिसके बारे में लगातार प्रचार किया जाता है कि धर्म का पुनरुद्धार क्यों अस्तित्व में आया, यह एक अलग जगह है जहां ईश्वरीय इच्छा के उत्तराधिकारी इमाम हुसैन(अ) और उनके अनुयायी और अंसार थे उन्होंने अपने जीवन का बलिदान दिया। उन्होंने एक अनुकरणीय और ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की, जिसकी ताजगी कुरान की आयत "जया अल-हक़ वा ज़हाक अल-बतिलु इन्ना" के बाद भी कम नहीं हुई है अल-बातिल कान ज़हुका" इन शहीदों पर लिखा गया था। मानव के अर्थ को लागू करने से धार्मिकता और सचेत धर्मपरायणता का शाश्वत पाठ प्राप्त हुआ है।
चेतन धार्मिकता और अचेतन धार्मिकता में जमीन-आसमान का अंतर है। हां, हम नियमित रूप से प्रार्थना करते हैं और उपवास करते हैं, लेकिन हम उत्पीड़न, झूठ बोलना, चुगली करना, लोलुपता आदि नैतिक बीमारियों से बीमार हैं। यह अचेतन धार्मिकता है। शोक करने वाले और मातम मनाने वाले लोग हैं, लेकिन वे अहले-बैत (अ) का एक महत्वपूर्ण अधिकार खुम्स का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं हैं, यह हमारी महिलाओं को शोक जुलूसों में भाग लेना चाहिए अपनी नग्नता दिखाने के तरीके से, यह बेहोश पवित्रता है। भले ही रातें कर्बला के शहीदों के शोक में गुजरती हों, लेकिन अगर उन रातों में अनिवार्य सुबह की नमाज़ अदा की जाती है, तो यह बेहोश पवित्रता है चोट लगी है और जिसके कारण उपदेश और पाठ बिल्कुल भी आकर्षक नहीं है और ऐसी स्थिति में धर्म प्रचार का उद्देश्य पूरा नहीं होता है, यह कर्बला की जागरूकता के बिल्कुल विपरीत है और लोग चिंतित हैं, यह इसके लायक नहीं है सचेतन धर्मपरायणता की महिमा |
हम जानते हैं कि अल्लाह के रसूल (स) लोगों के लिए हुज्जत हैं, यानी वही हैं जो दीन के हुक्म जारी करते हैं और शरीयत को विलायत इलाही के जारी करने के लिए नियुक्त किया गया है विलायत अल-फ़क़ीह, जिनका वर्चस्व कर्बला में मौजूद है, कर्बला की लड़ाई प्राचीन काल से समान रूप से लड़ी जा रही है, मानो वह ग़दीर घोषणा के सार को नकारने वालों में से एक हैं और जारी लड़ाई में यज़ीदवाद से लड़ रहे हैं। कर्बला के दृश्य को देखें तो पता चलेगा कि यह शुद्ध चेतन धर्मपरायणता की शाश्वत शिक्षा है।
कर्बला में हबीब इब्ने मज़ाहिर अलअसदी की शहादत
हबीब इब्ने मज़ाहिर अलअसदी आपके अलकाब में फाज़िल, कारी, हाफ़िज़ और फकीह बहुत ज्यादा मशहूर है इनका सिलसिला-ऐ-नसब यह है की हबीब इब्ने मज़ाहिर इब्ने रियाब इब्ने अशतर इब्ने इब्ने जुनवान इब्ने फकअस इब्ने तरीफ इब्ने उम्र इब्ने कैस इब्ने हरस इब्ने सअलबता इब्ने दवान इब्ने असद अबुल कासिम असदी फ़कअसी हबीब के पद्रे बुजुर्गवार जनाबे मज़ाहिर हजरते रसूले करीम स० की निगाह में बड़ी इज्ज़त रखते थे रसूले करीम स० इनकी दावत कभी रद्द नहीं फरमाते थे।
आपके अलकाब में फाज़िल, कारी, हाफ़िज़ और फकीह बहुत ज्यादा मशहूर है इनका सिलसिला-ऐ-नसब यह है की हबीब इब्ने मज़ाहिर इब्ने रियाब इब्ने अशतर इब्ने इब्ने जुनवान इब्ने फकअस इब्ने तरीफ इब्ने उम्र इब्ने कैस इब्ने हरस इब्ने सअलबता इब्ने दवान इब्ने असद अबुल कासिम असदी फ़कअसी हबीब के पद्रे बुजुर्गवार जनाबे मज़ाहिर हजरते रसूले करीम स० की निगाह में बड़ी इज्ज़त रखते थे रसूले करीम स० इनकी दावत कभी रद्द नहीं फरमाते थे।
शहीदे सालिस अल्लमा नूर-उल्लाह-शुस्तरी मजलिस-अल-मोमिनीन में लिखते है की हबीब इब्ने मज़ाहिर को सरकारे दो आलम की सोहबत में रहने का भी शरफ हासिल हुआ था उन्होंने उनसे हदीसे सुनी थी।
वो अली इब्ने अबू तालिब अल० की खिदमत में रहे और तमाम लड़ाइयों (जलम,सिफ्फिन,नहरवान) में उन के शरीक रहे शेख तूसी ने इमाम अली इब्ने अबू तालिब और इमाम हसन अलै० और इमाम हुसैन अलै० सब के असहाब में उन का जिक्र किया है।
शबे आशूर एक शब् की मोहलत के लिए जब हजरत अब्बास उमरे सअद की तरफ गए तो हबीब इब्ने मज़ाहिर आप के हमराह थे।
नमाज़े जोहर आशुरा के मौके पर हसीन ल० इब्ने न्मीर की बद-कलामी का जवाब आप ही ने दे दिया था और इसके कहने पर की ‘हुसैन की नमाज़ क़ुबूल न होगी “आप ने बढ़ कर घोड़े के मुंह पर तलवार लगाईं थी और ब-रिवायत नासेख एक जरब से हसीन की नाक उड़ा दी थी।
आप ने मौका-ऐ-जंग में कारे-नुमाया किये थे। आप इज्ने जिहाद लेकर मैदान में निकले और नबर्द आजमाई में मशगूल हो गए यहाँ तक की बासठ (62) दुश्मनों को कत्ल करके शहीद हो गए।
करबला....अक़ीदा व अमल में तौहीद
तौहीद का अक़ीदा सिर्फ़ मुसलमानों के ज़हन व फ़िक्र पर असर अंदाज़ नही होता बल्कि यह अक़ीदा उसके तमाम हालात शरायत और पहलुओं पर असर डालता है। ख़ुदा कौन है? कैसा है? और उसकी मारेफ़त व शिनाख्त एक मुसलमान की फ़रदी और इज्तेमाई और ज़िन्दगी में उसके मौक़िफ़ इख़्तेयार करने पर क्या असर डालती है? इन तमाम अक़ायद का असर और नक़्श मुसलमान की ज़िन्दगी में मुशाहेदा किया जा सकता है।
हर इंसान पर लाज़िम है कि उस ख़ुदा पर अक़ीदा रखे जो सच्चा है और सच बोलता है अपने दावों की मुख़ालेफ़त नही करता है जिसकी इताअत फ़र्ज़ है और जिसकी नाराज़गी जहन्नमी होने का मुजिब बनती है। हर हाल में इंसान के लिये हाज़िर व नाज़िर है, इंसान का छोटे से छोटा काम भी उसे इल्म व बसीरत से पोशीदा नही है... यह सब अक़ायद जब यक़ीन के साथ जलवा गर होते हैं तो एक इंसान की ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा मुवस्सिर उन्सुर बन जाते हैं। तौहीद की मतलब सिर्फ़ एक नज़रिया और तसव्वुर नही है बल्कि अमली मैदान में इताअत में तौहीद और इबादत में तौहीद भी उसी के जलवे और आसार शुमार होते हैं। इमाम हुसैन (अ) पहले ही से अपने शहादत का इल्म रखते थे और उसके ज़ुज़ियात तक को जानते थे। पैग़म्बर (स) ने भी शहादते हुसैन (अ) की पेशिनगोई की थी लेकिन इस इल्म और पेशिनगोई ने इमाम के इंके़लाबी क़दम में कोई मामूली सा असर भी नही डाला और मैदाने जेहाद व शहादत में क़दम रखने से आपको क़दमों में ज़रा भी सुस्ती और शक व तरदीद ईजाद नही किया बल्कि उसकी वजह से इमाम के शौक़े शहादत में इज़ाफ़ा हुआ, इमाम (अ) उसी ईमान और एतेक़ाद के साथ करबला आये और जिहाद किया और आशिक़ाना अंदाज़ में ख़ुदा के दीदार के लिये आगे बढ़े जैसा कि इमाम से मशहूर अशआर में आया है:
ترکت الخلق طرا فی ھواک و ایتمت العیال لکی اراک
कई मौक़े पर आपके असहाब और रिश्तेदारों ने ख़ैर ख़्वाही और दिलसोज़ी के जज़्बे के तहत आपको करबला और कूफ़े जाने से रोका और कूफ़ियों की बेवफ़ाई और आपके वालिद और बरादर की मजलूमीयत और तंहाई को याद दिलाया। अगरचे यह सब चीज़ें अपनी जगह एक मामूली इंसान के दिल शक व तरदीद ईजाद करने के लिये काफ़ी हैं लेकिन इमाम हुसैन (अ) रौशन अक़ीदा, मोहकम ईमान और अपने अक़दाम व इंतेख़ाब के ख़ुदाई होने के यक़ीन की वजह से नाउम्मीदी और शक पैदा करने वाले अवामिल के मुक़ाबले में खड़े हुए और कज़ाए इलाही और मशीयते परवरदिगार को हर चीज़ पर मुक़द्दम समझते थे, जब इब्ने अब्बास ने आप से दरख़्वास्त की कि इरा़क जाने के बजाए किसी दूसरी जगह जायें और बनी उमय्या से टक्कर न लें तो इमाम हुसैन (अ) ने बनी उमय्या के मक़ासिद और इरादों की जानिब इशारा करते हुए फ़रमाया
انی ماض فی امر رسول اللہ صلی اللہ علیہ و آلہ وسلم و حیث امرنا و انا الیہ راجعون
और यूँ आपने रसूलल्लाह (स) के फ़रमूदात की पैरवी और ख़ुदा के जवारे रहमत की तरफ़ बाज़गश्त की जानिब अपने मुसम्मम इरादे का इज़हार किया, इस लिये कि आपने रास्ते की हक्क़ानियत का यक़ीन, दुश्मन के बातिल होने का यक़ीन, क़यामत व हिसाब के बरहक़ होने का यक़ीन, मौत के हतमी और ख़ुदा से मुलाक़ात का यक़ीन, इन तमाम चीज़ों के सिलसिले में इमाम और आपके असहाब के दिलों में आला दर्जे का यक़ीन था और यही यक़ीन उनको पायदारी, अमल की क़ैफ़ियत और राहे के इंतेख़ाब में साबित क़दमी की रहनुमाई करता था।
कलेम ए इसतिरजा (इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहे राजेऊन) किसी इंसान के मरने या शहीद होने के मौक़े पर कहने के अलावा इमाम हुसैन (अ) मंतिक़ में कायनात की एक बुलंद हिकमत को याद दिलाने वाला है और वह हिकमत यह है कि कायनात का आग़ाज़ व अँजाम सब ख़ुदा की तरफ़ से है। आपने करबला पहुचने तक बारहा इस कलेमे को दोहराया ताकि यह अक़ीदा इरादों और अमल में सम्त व जहत देने का सबब बने।
आपने मक़ामे सालबिया पर मुस्लिम और हानी की खबरे शहादत सुनने के बाद मुकर्रर इन कलेमात को दोहराया और फिर उसी मक़ाम पर ख़्वाब देखा कि एक सवार यह कह रहा है कि यह कारवान तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और मौत भी तेज़ी के साथ उनकी तरफ़ बढ़ रही है, जब आप बेदार हुए तो ख़्वाब का माजरा अली अकबर को सुनाया तो उन्होने आप से पूछा वालिदे गिरामी क्या हम लोग हक़ पर नही हैं? आपने जवाब दिया क़सम उस ख़ुदा की जिसकी तरफ़ सबकी बाज़गश्त है हाँ हम हक़ पर हैं फिर अली अकबर ने कहा: तब इस हालत में मौत से क्या डरना है? आपने भी अपने बेटे के हक़ में दुआ की। (1)
तूले सफ़र में ख़ुदा की तरफ़ बाज़गश्त के अक़ीदे को बार बार बयान करने का मक़सद यह था कि अपने हमराह असहाब और अहले ख़ाना को एक बड़ी क़ुरबानी व फ़िदाकारी के लिये तैयार करें, इस लिये कि पाक व रौशन अक़ायद के बग़ैर एक मुजाहिद हक़ के देफ़ाअ में आख़िर तक साबित क़दम और पायदार नही रह सकता है।
करबला वालों को अपनी राह और अपने हदफ़ की भी शिनाख़्त थी और इस बात का भी यक़ीन था कि इस मरहले में जिहाद व शहादत उनका वज़ीफ़ा है और यही इस्लाम के नफ़अ में है उनको ख़ुदा और आख़िरत का भी यक़ीन था और यही यक़ीन उनको एक ऐसे मैदान की तरफ़ ले जा रहा था जहाँ उनको जान देनी थी और क़ुरबान होना था जब बिन अब्दुल्लाह दूसरी मरतबा मैदाने करबला की तरफ़ निकले तो अपने रज्ज़ में अपना तआरुफ़ कराया कि मैं ख़ुदा पर ईमान लाने वाला और उस पर यक़ीन रखने वाला हूँ। (2)
मदद और नुसरत में तौहीद और फक़त ख़ुदा पर ऐतेमाद करना, अक़ीदे के अमल पर तासीर का एक नमूना है और इमाम (अ) की तंहा तकियागाह ज़ाते किर्दगार थी न लोगों के ख़ुतूत, न उनकी हिमायत का ऐलान और न उनकी तरफ़ आपके हक़ में दिये जाने वाले नारे, जब सिपाहे हुर ने आपके काफ़ले का रास्ता रोका तो आपने एक ख़ुतबे के ज़िम्न में अपने क़याम, यज़ीद की बैअत से इंकार, कूफ़ियों के ख़ुतूत का ज़िक्र किया और आख़िर में गिला करते हुए फ़रमाया मेरी तकिया गाह ख़ुदा है वह मुझे तुम लोगों से बेनियाज़ करता है। सयुग़निल्लाहो अनकुम (3) आगे चलते हुए जब अब्दुल्लाह मशरिकी से मुलाक़ात की और उसने कूफ़े के हालात बयान करते हुए फ़रमाया कि लोग आपके ख़िलाफ़ जंग करने के लिये जमा हुए हैं तो आपने जवाब में फ़रमाया: हसबियलल्लाहो व नेअमल वकील (4)
आशूर की सुबह जब सिपाहे यज़ीद ने इमाम (अ) के ख़ैमों की तरफ़ हमला शुरु किया तो उस वक़्त भी आप के हाथ आसमान की तरफ़ बुलंद थे और ख़ुदा से मुनाजात करते हुए फ़रमा रहे थे: ख़ुदाया, हर सख़्ती और मुश्किल में मेरी उम्मीद, मेरी तकिया गाह तू ही है, ख़ुदाया, जो भी हादेसा मेरे साथ पेश आता है उसमें मेरा सहारा तू ही होता है। ख़ुदाया, कितनी सख़्तियों और मुश्किलात में तेरी दरगाह की तरफ़ रुजू किया और तेरी तरफ़ हाथ बुलंद किये तो तूने उन मुश्किलात को दूर किया। (5)
इमाम (अ) की यह हालत और यह जज़्बा आपके क़यामत और नुसरते इलाही पर दिली ऐतेक़ाद का ज़ाहिरी जलवा है और साथ ही दुआ व तलब में तौहीद के मफ़हूम को समझाता है।
दीनी तालीमात का असली हदफ़ भी लोगों को ख़ुदा से नज़दीक करता है चुँनाचे यह मतलब शोहदा ए करबला के ज़ियारत नामों में ख़ास कर ज़ियारते इमाम हुसैन (अ) में भी बयान हुआ है। अगर ज़ियारत के आदाब को देखा जाये तो उनका फ़लसफ़ा भी ख़ुदा का तक़र्रुब ही है जो कि ऐने तौहीद है इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत में ख़ुदा से मुताख़ब हो के हम यूँ कहते हैं कि ख़ुदाया, कोई इंसान किसी मख़लूक़ की नेमतों और हदाया से बहरामद होने के लिये आमादा होता है और वसायल तलाश करता है लेकिन ख़ुदाया, मेरी आमादगी और मेरा सफ़र तेरे लिये और तेरे वली की ज़ियारत के लिये हैं और इस ज़ियारत के ज़रिये तेरी क़ुरबत चाहता हूँ और ईनाम व हदिये की उम्मीद सिर्फ़ तुझ से रखता हूँ। (6)
और इसी ज़ियारत के आख़िर में ज़ियारत पढ़ने वाला कहता है ख़ुदाया, सिर्फ़ तू ही मेरा मक़सूदे सफ़र है और सिर्फ़ जो कुछ तेरे पास है उसको चाहता हूँ। ''फ़ इलैका फ़क़दतो व मा इनदका अरदतो''
यह सब चीज़े शिया अक़ायद के तौहीदी पहलू का पता देने वाली हैं जिनकी बेना पर मासूमीन (अ) के रौज़ों और अवलिया ए ख़ुदा की ज़ियारत को ख़ुदा और ख़ालिस तौहीद तक पहुचने के लिये एक वसीला और रास्ता क़रार दिया गया है और हुक्मे ख़ुदा की बेना पर उन की याद मनाने की ताकीद है।
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हवाले
(1) बिहारुल अनवार जिल्द 44 पेज 367
(2) बिहारुल अनवार जिल्द 45 पेज 17, मनाक़िब जिल्द 4 पेज 101
(3) मौसूअ ए कलेमाते इमाम हुसैन (अ) पेज 377
(4) मौसूअ ए कलेमाते इमाम हुसैन (अ) पेज 378
(5) बिहारुल अनवार जिल्द 45 पेज 4
(6) तहज़ीबुल अहकाम शेख़ तूसी जिल्द 6 पेज 62
करबला करामाते इंसानी की मेराज
करबला के मैदान में दोस्ती, मेहमान नवाज़ी, इकराम व ऐहतेराम, मेहर व मुहब्बत, ईसार व फ़िदाकारी, ग़ैरत व शुजाअत व शहामत का जो दर्स हमें मिलता है वह इस तरह से यकजा कम देखने में आता है। मैंने ऊपर ज़िक किया कि करबला करामाते इंसानी की मेराज का नाम है।
वह तमाम सिफ़ात जिन का तज़किरा करबला में बतौरे अहसन व अतम हुआ है वह इंसानी ज़िन्दगी की बुनियादी और फ़ितरी सिफ़ात है जिन का हर इंसान में एक इंसान होने की हैसियत से पाया जाना ज़रुरी है। उसके मज़ाहिर करबला में जिस तरह से जलवा अफ़रोज़ होते हैं किसी जंग के मैदान में उस की नज़ीर मिलना मुहाल है। बस यही फ़र्क़ होता है हक़ व बातिल की जंग में।
जिस में हक़ का मक़सद, बातिल के मक़सद से सरासर मुख़्तलिफ़ होता है। अगर करबला हक़ व बातिल की जंग न होती तो आज चौदह सदियों के बाद उस का बाक़ी रह जाना एक ताज्जुब ख़ेज़ अम्र होता मगर यह हक़ का इम्तेयाज़ है और हक़ का मोजिज़ा है कि अगर करबला क़यामत तक भी बाक़ी रहे तो किसी भी अहले हक़ को हत्ता कि मुतदय्यिन इंसान को इस पर ताज्जुब नही होना चाहिये।
अगर करबला दो शाहज़ादों की जंग होती?। जैसा कि बाज़ हज़रात हक़ीक़ते दीन से ना आशना होने की बेना पर यह बात कहते हैं और जिन का मक़सद सादा लौह मुसलमानों को गुमराह करने के अलावा कुछ और होना बईद नज़र आता है तो वहाँ के नज़ारे क़तअन उस से मुख़्तलिफ़ होते जो कुछ करबला में वाक़े हुआ।
वहाँ शराब व शबाब, गै़र अख़लाक़ी व गै़र इंसानी महफ़िलें तो सज सकती थीं मगर वहाँ शब की तारीकी में ज़िक्रे इलाही की सदाओं का बुलंद होना क्या मायना रखता?
असहाब का आपस में एक दूसरों को हक़ और सब्र की तलक़ीन करना का क्या मफ़हूम हो सकता है?। माँओं का बच्चों को ख़िलाफ़े मामता जंग और ईसार के लिये तैयार करना किस जज़्बे के तहत मुमकिन हो सकता है?। क्या यह वही चीज़ नही है जिस के ऊपर इंसान अपनी जान, माल, इज़्ज़त, आबरू सब कुछ क़ुर्बान करने के लिये तैयार हो जाता है मगर उसके मिटने का तसव्वुर भी नही कर सकता।
यक़ीनन यह इंसान का दीन और मज़हब होता है जो उसे यह जुरअत और शुजाअत अता करता है कि वह बातिल की चट्टानों से टकराने में ख़ुद को आहनी महसूस करता है। उसके जज़्बे आँधियों का रुख़ मोड़ने की क़ुव्वत हासिल कर लेते हैं। उसके अज़्म व इरादे बुलंद से बुलंद और मज़बूत से मज़बूत क़िले मुसख़्ख़र कर सकते हैं।
यही वजह है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पाये सबात में लग़ज़िश का न होना तो समझ में आता है कि वह फ़रज़ंदे रसूल (स) हैं, इमामे मासूम (अ) हैं, मगर करबला के मैदान में असहाब व अंसार ने जिस सबात का मुज़ाहिरा किया है उस पर अक़्ल हैरान व परेशान रह जाती है।
अक़्ल उस का तजज़िया करने से क़ासिर रह जाती है। इस लिये कि तजज़िया व तहलील हमेशा ज़ाहिरी असबाब व अवामिल की बेना पर किये जाते हैं मगर इंसान अपनी ज़िन्दगी में बहुत से ऐसे अमल करता है जिसकी तहलील ज़ाहिरी असबाब से करना मुमकिन नही है और यही करबला में नज़र आता है।
हमारा सलाम हो हुसैने मज़लूम पर
हमारा सलाम हो बनी हाशिम पर
हमारा सलाम हो मुख़द्देराते इस्मत व तहारत पर
हमारा सलाम हो असहाब व अंसार पर।
या लैतनी कुन्तो मअकुम।
कर्बला के शहीदो का चेहलूम
२० सफर सन् ६१ हिजरी कमरी, वह दिन है जिस दिन हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों को कर्बला में शहीद कर दिया गया उसी की याद में चेहलूम मानाने असीराने कर्बला आए आज उन्हें शहीदों की याद में ज़ायरीन कर्बला की तरफ चेहलूम मनाने जा रहे हैं।
२० सफर सन् ६१ हिजरी कमरी, वह दिन है जिस दिन हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों को कर्बला में शहीद हुए चालिस दिन हुआ था। पूरी सृष्टि चालिस दिन से हज़रत इमाम हुसैन के शोक में डूबी हुई थी।
जिन लोगों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता करने की आवाज़ सुनी परंतु उनकी सहायता के लिए नहीं गये ऐसे लोगों को अपना वचन तोड़ने की पीड़ा चालिस दिनों से सता रही थी। चालिस दिन हो रहे थे जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कारवां में जीवित बच जाने वाले बच्चों और महिलाओं का शोक उनके हृदयविदारक दुःख का परिचायक था।
चालिस दिन के बाद कर्बला का लुटा हुआ कारवां शाम अर्थात वर्तमान सीरिया से दोबारा कर्बला पहुंचा है। इस कारवां में वे महिलाएं और बच्चे थे जिनके दिल टूट हुए थे और उन्हें पवित्र नगर मदीना भी लौटना था। जब यह कारवां शाम अर्थात वर्तमान सीरिया से दोबारा कर्बला पहुंचा तो उसे दसवीं मोहर्रम के दिन की घटनाओं की याद आ गयी। महिलाओं और बच्चों की रोने की आवाज़ कर्बला के मरुस्थल में गूंजने लगी।
दसवीं मोहर्रम ही वह दुःखद दिन था जब हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके ७२ निष्ठावान साथियों को तीन दिन का भूखा- प्यासा शहीद कर दिया गया था। हर माता अपने शहीद की क़ब्र पर विलाप कर रही थी। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ज्येष्ठ सुपुत्र हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम शहीदों की क़ब्रों को देख रहे थे।
उन्हें याद आया कि जब उनको इन शहीदों विशेषकर अपने पिता के घायल शरीर को कर्बला रेत पर छोड़कर जाना पड़ा था तो उनका मन किस सीमा तक दुःखी था परंतु उन्हें उनकी फूफी हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने सांत्वनापूर्ण वाक्यों से ढारस बंधाई थी और कहा था" जो कुछ तुम देख रहे हो उससे बेचैन मत हो।
ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मानने वालों के एक गुट से वचन लिया है कि वह बिखरे हुए और खून से लथपथ शरीर के अंगों को एकत्रित करेगा और दफ्न करेगा। वह गुट इस धरती पर तुम्हारे पिता की क़ब्र पर ऐसा चिन्ह लगा देगा जो समय बीतने के साथ न तो नष्ट होगा और न ही मिटेगा। अनेकेश्वरवादी और पथभ्रष्ठ लोग उसे मिटाने का प्रयास करेंगे परंतु उनका प्रयास तुम्हारे पिता की और प्रसिद्धि का कारण बनेगा"हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की भविष्यवाणी पूर्णरूप से सही थी।
इतिहास में आया है कि कर्बला के अमर शहीदों के पवित्र शवों को बनी असद क़बीले के लोगों ने दफ्न किया। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का शोकाकुल परिवार शहीदों के अन्य परिजनों के साथ तीन दिन तक कर्बला में रुका रहा और उसने अपने प्रियजनों का शोक मनाया।
इतिहास में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के एक साथी जाबिर बिन अब्दुल्लाह, जो नेत्रहीन थे, बनी हाशिम के क़बीले के कुछ व्यक्तियों के साथ पवित्र मदीना नगर से कर्बला इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र के दर्शन के लिए आये थे। उस समय जब इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने जाबिर को देखा तो कहा" हे जाबिर ईश्वर की सौगन्ध यहीं पर हमारे पुरुषों की हत्या की गई, हमारी महिलाओं को बंदी बनाया गया और हमारे ख़ैमों को जलाया गया"जाबिर ने अपने साथियों से कहा कि वे उन्हें हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र के पास ले चलें।
जाबिर ने अपने हाथ को हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र पर रखा और इतना रोये कि बेहोश हो गये। जब होश आया तो उन्होंने कई बार हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का नाम अपनी ज़बान से लिया और उन्हें पुकार कर कहा" मैं गवाही देता हूं कि आप सर्वश्रेष्ठ पैग़म्बर और सबसे बड़े मोमिन के सुपुत्र हैं। आप सबसे बड़े सदाचारियों की गोदी में पले हैं।
आपने पावन जीवन बिताया और इस दुनिया से पवित्र गये और मोमिनों के हृदयों को अपने वियोग से दुःखी व क्षुब्ध कर दिया तो आप पर ईश्वर का सलाम हो"हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह भी, जिनकी दुख में डूबी आवाज़ दिलों को रुला रही थी, अपने प्राणप्रिय भाई हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ब्र के निकट बैठ गयीं और धीरे- धीरे अपने भाई से बात करना और विलाप करना आरंभ किया।
हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह का हृदय दुःखों से भरा हुआ था परंतु वे कर्बला के महाआंदोलन के बाद की अपनी ज़िम्मेदारियों के बारे में सोच रही थीं। कर्बला की अमर घटना को शताब्दियों का समय बीत चुका है परंतु यह घटना आज भी चमकते सूरज की भांति अत्याचार व अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का मार्ग दिखाती है।
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन के अमर होने का एक कारण उसकी पहचान व स्वरूप है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने महाआंदोलन के आरंभ से कुछ सिद्धांतों को प्रस्तुत किया जिसे हर पवित्र प्रवृत्ति स्वीकार करती और उसकी सराहना करती है।
आज़ादी, न्यायप्रेम और अत्याचार से संघर्ष सदैव ही इतिहास में पवित्र सिद्धांत रहे हैं। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन का लक्ष्य विशुद्ध इस्लाम को मिलावटी इस्लाम से अलग करना था। पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के पश्चात अधिकांश शासक इस्लामी शिक्षाओं को अपने हितों की दिशा में प्रयोग करने का प्रयास करते थे। वे खोखला और फेर बदल किया हुआ इस्लाम चाहते थे ताकि अनभिज्ञ लोगों पर सरलता से शासन कर सकें।
इसी कारण अमवी शासक और उनके बाद की अत्याचारी सरकारें अपनी इच्छा के अनुसार इस्लाम की व्याख्या और उसका प्रचार- प्रसार करती थीं। हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने लोगों को दिग्भ्रमित करने में बनी उमय्या की भूमिका का विश्लेषण करते हुए बड़े गूढ बिन्दु की ओर संकेत किया और कहा" बनी उमय्या ने लोगों के लिए ईमान की पहचान का मार्ग खुला रखा परंतु अनेकेश्वरवाद की पहचान का मार्ग बंद कर दिया।
ऐसा इसलिए किया कि जब वह लोगों को अनेकेश्वरवाद के लिए बुलाए तो लोगों को अनेकेश्वरवाद की पहचान ही न रहे"बनी उमय्या ने नमाज़, रोज़ा और हज जैसे धार्मिक दायित्वों को खोखला करने का बहुत प्रयास किया ताकि लोग इन उपासनाओं के केवल बाह्यरूप पर ध्यान दें। क्योंकि यदि लोग इस्लाम की जीवन दायक शिक्षाओं से अवगत हो जाते तो बनी उमय्या के अत्याचारी शासक अपनी सरकार ही बाक़ी नहीं रख सकते थे। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अनुसार सत्ता उच्च मानवीय लक्ष्यों को व्यवहारिक बनाने का साधन है।
इस आधार पर आप बल देकर कहते हैं कि मैंने सत्ता की प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि ईश्वरीय धर्म के चिन्हों को पहचनवाने के लिए आंदोलन किया। उस अज्ञानता व घुटन के काल में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़िम्मेदारी यह थी कि वे अमवी शासकों की वास्तविकताओं को स्पष्ट करें और इस्लामी क्षेत्रों को इस प्रकार के अयोग्य, और भ्रष्ठ शासकों व लोगों से मुक्ति दिलायें। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मानना था कि समाज की गुमराही, धार्मिक शिक्षाओं से दूरी का परिणाम है।
क्योंकि महान ईश्वर से दूरी मनुष्य को ऐसी घाटी में पहुंचा देती है जहां वह स्वयं से बेगाना हो जाता है। यह वह वास्तविकता है जो हर समय और हर क्षेत्र में जारी है। जिस समय लोग अत्याचारी व भ्रष्ठ शासकों का अनुसरण आरंभ कर देंगे उस समय समाज अपने स्वाभाविक व प्राकृतिक मार्ग से हट जायेगा।
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसे महान व्यक्ति इस बात को नहीं देख सकते थे कि ग़लत लोग, लोगों को ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की दासता स्वीकार करने पर बाध्य करें। जब इस्लाम प्रतिष्ठा, स्वतंत्रता और न्याय का धर्म है तो वह किस प्रकार मनुष्यों के अपमान व दासता को स्वीकार करे और अत्याचार के मुक़ाबले में मौन धारण करे? हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने दर्शा दिया कि जहां पर धर्म का आधार ख़तरे में है, जहां अत्याचार से सांठ- गांठ कर लेना मानवता एवं उच्च मानवीय मूल्यों की हत्या समान है वहां मौन धारण करना ईश्वरीय व्यक्तियों की शैली नहीं है।
हज़रत इमाम हुसैन के महाआंदोलन के अमर होने का एक कारण हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम, जनाब ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा और दूसरे इमामों तथा महान हस्तियों की दूरगामी सोच एवं इस महाआंदोलन के लक्ष्यों को पहचनवाने हेतु उनके प्रयास हैं। बनी उमय्या ने अफवाहें फैलाकर, संदेह उत्पन्न करके और दुष्प्रचार के दूसरे मार्गों का प्रयोग करके वास्तविकता को छिपाने का प्रयास किया और कर्बला की एतिहासिक घटना में असमंजस व संदेह उत्पन्न करने का प्रयास किया परंतु उन सबका प्रयास कर्बला की एतिहासिक घटना के पहले दिन से ही परिणामहीन रहा। क्योंकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन का संदेश पहुंचाने वाले विवेकशील और समय की पूर्ण पहचान रखने वाले लोग थे। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबदीन अलैहिस्सलाम और हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के विभिन्न स्थानों पर दिये जाने वाले एतिहासिक भाषणों ने यज़ीदियों के चेहरों पर पड़ी नक़ाब को हटा दिया और उन्हें बुरी तरह अपमानित कर दिया।
इतिहासकारों ने लिखा है कि हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह की आवाज़ का प्रभाव ऐसा था कि सांस सीनों में रूक जाती थी। उनके भाषण की शैली ऐसी थी कि कूफा नगर के बड़े- बूढे कहते थे कि धन्य है ईश्वर! मानो अली की आवाज़ है जो उनकी बेटी ज़ैनब के गले से निकल रही है। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने कूफावासियों को संबोधित करते हुए कहा" ईश्वर का आभार व्यक्त करती हूं और अपने नाना मोहम्मद, चयनित और पवित्र लोगों पर सलाम भेजती हूं।
हे कूफे के लोगों! हे धोखेबाज़ो और बेवफा लोग तुम लोग उस महिला की भांति हो जो रूई से धागा बुनती है और फिर धागे को रूई बना देती है। तुमने अपने ईमान को अपने जीवन और पाखंड का साधन बना रखा है और तुम्हारी दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारे अंदर आत्ममुग्धता, झूठ, अकारण शत्रुता, तुच्छता और दूसरों पर आरोप लगाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। तुम किस तरह अंतिम पैग़म्बर के पौत्र और स्वर्ग के युवाओं के सरदार की हत्या के कलंक को स्वयं से मिटाओगे। तुम लोगों ने उसकी हत्या की है जो उन लोगों के लिए शरण था जिनके पास कोई शरण नहीं थी, वह परेशान लोगों का सहारा और धर्म व ज्ञान का स्रोत था।
हुसैन मानवता का सत्य की ओर मार्गदर्शन करने वाले, राष्ट्र व समुदाय के अगुवा और ईश्वर के प्रतिनिधि थे। उनके माध्यम से तुम्हारा मार्गदर्शन होता था। उनकी छत्रछाया में तुम्हें कठिनाइयों में आराम मिलता था और उनके प्रकाश से तुम्हें गुमराही से मुक्ति मिलती थी। जान लो कि तुमने बहुत बुरा पाप किया है जिसके कारण तुम ईश्वर की दया से दूर हो गये हो। तुम्हारा प्रयास विफल हो गया है।
ईश्वर के दरबार से तुम्हारा संपर्क टूट गया है और तुमने अपने सौदे में घाटा उठाया है। तुम्हारे पास अब पछताने और हाथ मलने के अतिरिक्त कुछ नहीं है, तुम ईश्वरीय क्रोध के पात्र बन गये हो और तुम्हें अपमान का सामना है" हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के स्पष्ट करने वाले भाषणों के साथ हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का जागरुक भरा भाषण बनी उमय्या के लक्ष्यों के मार्ग की बाधा बन गया।
पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की होशियारी व जानकारी ने आशूरा की एतिहासिक घटना को इतिहास की अमर घटना के रूप में सुरक्षित रखा। पैग़म्बरे इस्लाम के वंश से पवित्र इमामों ने शत्रुओं के प्रचारों और वास्तविकताओं में फेर -बदल करने हेतु उनके प्रयासों को रोकने और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन को अनुचित दर्शाने हेतु शत्रुओं के प्रयासों को विफल बनाने के लिए इस महाआंदोलन के लक्ष्यों को बयान किया। इमामत का महत्व और उसके स्थान को बयान करना तथा समाज में योग्य व भला नेतृत्व, बनी उमय्या के वास्तविक चेहरों को पहचनवाना और उनके अपराधों को स्पष्ट करना इमामों का ईश्वरीय दायित्व था। कर्बला की हृदयविदारक घटना और शहीदों की याद में शोक सभाओं का आयोजन, हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके निष्ठावान साथियों पर पड़ने वाली विपत्तियों पर रोना भी प्रभावी शैली थी जिसका पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने सहारा लिया ताकि कर्बला की अमर व एतिहासिक घटना को फेर- बदल एवं भूलाये जाने से सुरक्षित रखा जा सके।
इस आधार पर कर्बला का महाआंदलन इस्लामी जगत की भौगोलिक सीमा में सीमित नहीं रहा और वह विश्व के स्वतंत्रता प्रेमियों के लिए आदर्श पाठ बन गया। इस प्रकार से कि ग़ैर मुसलमानों ने भी इस महाआंदोल से प्रेरणा ली है। यह वही पैग़म्बरे इस्लाम के वचन का व्यवहारिक होना है जिसमें आपने कहा है कि हुसैन की शहादत के बाद मोमिनों के हृदयों में एक आग जल उठेगी जो कदापि ठंडी नहीं होगी और न बुझेगी
ग़ैबत ए क़ुबरा मे उम्मत का मार्गदर्शन
बारहवें इमाम (अ) के ग़ायब होने के बाद, उम्मत के मार्गदर्शन और इमामत की ज़िम्मेदारी किसकी है? क्या कोई व्यक्ति या एक से अधिक व्यक्ति उम्मत पर विलायत रखता है? अगर विलायत रखता है, तो उसका दायरा क्या है?
एक बहुत ही महत्वपूर्ण और बुनियादी विषय जिस पर ग़ैबत के दौर में ध्यान देना चाहिए, वह है इस्लामी समुदाय के मार्गदर्शन और नेतृत्व का मसला।
यह बात साफ़ है कि इस्लाम के ज़ूहूर से ही, इमामत और मार्गदर्शन का सवाल बना हुआ है। पैग़म्बर मुहम्मद (स) और उनके बाद मासूम इमामों ने न केवल इस्लाम धर्म और अहकाम और उसकी शिक्षाओं को समझाया, बल्कि वे अपने समुदाय के इमाम, सुधारक और नेता भी रहे। इसका मतलब यह है कि सभी मुसलमानों पर यह ज़िम्मेदारी है कि वे उनके आदेशों का पालन करें, व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों मामलों में, और किसी भी शिया मुसलमान को इस बात पर कोई शक नहीं होना चाहिए।"
प्रश्न यह है: बारहवें इमाम (अ) के ग़ैबत ए क़ुबरा मे जाने के बाद उम्मत के मार्गदर्शन और इमामत के लिए कौन ज़िम्मेदार है? क्या कोई एक व्यक्ति या एक से अधिक व्यक्ति उम्मत पर विलायत रखता है? अगर विलायत रखता है तो उसका दायरा क्या है?
इस मूलभूत प्रश्न के उत्तर में, "विलायत ए फ़क़ीह" की चर्चा लंबे समय से होती रही है।
विलायत ए फ़क़ीह की अवधारणा
विलायत शब्द का मूल «वली» है, जिसका मतलब है किसी चीज़ के साथ कुछ और जुड़ना। 1, जहां उनके बीच एक रिश्ता होता है। इसलिए इसे दोस्ती, मदद और पालन-पोषण के अर्थों में भी इस्तेमाल किया जाता है।
इसका सबसे महत्वपूर्ण मतलब होता है किसी चीज़ या व्यक्ति की देखरेख और कामकाज संभालना। इसी अर्थ में «वली» वह होता है जो दूसरों के कामों की ज़िम्मेदारी लेता है और उनका प्रबंधन करता है। यही बात जब «विलायत ए फ़क़ीह» की होती है, तो इसका मतलब होता है कि फ़क़ीह इस ज़िम्मेदारी को निभाता है।
फ़क़ीह शब्द का मूल «फ़िक़्ह» है, जिसका मतलब होता है समझ और ज्ञान, खासकर धार्मिक ज्ञान। 2 «फ़क़ीह» वह व्यक्ति होता है जिसे इस्लामी नियमों और शिक्षा की पूरी जानकारी होती है और जो इन विषयों का विशेषज्ञ होता है। इस ज्ञान के आधार पर वह कुरआन और इस्लामी रिवायतों से व्यक्तिगत और सामाजिक मामलों में अल्लाह का हुक्म निकाल सकता है।
विलायत ए फ़क़ीह का इतिहास
कुछ लोग सोचते हैं कि «विलायत ए फ़क़ीह» एक नया विचार है और इसका इस्लामी फ़िक़्ह या धार्मिक विद्वानों की परंपरा में कोई पुराना आधार नहीं है, और यह सिर्फ़ इमाम ख़ुमैनी (रا) की राजनीतिक सोच से शुरू हुआ है। लेकिन यह एक बड़ी भूल है, जो फ़िक़्ह और मासूम इमामों की शिक्षाओं की अनजाने में न समझने की वजह से पैदा होती है।
विलायत ए फ़क़ीह की जड़ें मासूम इमामों के बयान में मिलती हैं। उन महान शख्सियतों ने धार्मिक और सामाजिक ज़रूरतों की वजह से, फ़ुक़्हा को कुछ विशेष अधिकार और नेतृत्व की अनुमति दी है। और उनके बाद से, इस्लाम मतो में भी विलायत ए फ़क़ीह का विचार लगातार बना रहा है। हम इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है।
शेख मुफीद (मृ. ४१३ हिजरी), जो शिया धर्म के बड़े फ़क़ीहों में से हैं, कहते हैं:
जब कोई न्यायप्रिय सुल्तान (जो कि इमाम मासूम (अ) है) मौजूद नहीं होता, तब न्यायप्रिय, समझदार और विद्वान फ़क़ीहों को वही जिम्मेदारी संभालनी चाहिए जो सुल्तान के कर्तव्य होते हैं। 3
शेख तूसी (मृ. ४६० हिजरी), जिन्हें शेख़ुत ताएफ़ा (शिया समुदाय के बड़े विद्वान) कहा जाता है, कहते हैं:
लोगों के बीच न्याय करना, सज़ा देना और विवाद सुलझाना केवल उसी व्यक्ति के लिए संभव है जिसे सच्चे सुल्तान (मासूम इमाम) की तरफ़ से अनुमति मिली हो। जब इमाम अपने आप ऐसा नहीं कर सकते, तो यह ज़िम्मेदारी बिना किसी संदेह के शिया फ़क़ीहों को सौंपी जाती है। 4
मुहक़्क़िक़ सानी, जो मुहक़्क़िक़ करकी के नाम से मशहूर हैं (मृ. ९४० हिजरी), कहते हैं:
इमामी फ़क़ीहों में यह सहमति है कि एक न्यायप्रिय शिया फ़क़़ीह जो फ़तवा देने के लिए सभी योग्यताएँ रखता हो, वह ग़ैबत के दौरान उन सभी मामलों में जिनमें वह इमाम के प्रतिनिधि बन सकता है, इमामों का वैध़ नायक और प्रतिनिधि होता है। 5
मुल्ला अहमद नराक़ी, जिन्हें फाज़िल नराक़ी के नाम से जाना जाता है (मृ. १२४४ हिजरी), कहते हैं:
जिस भी चीज़ पर पैग़म्बर (स) और इमाम (अ), जो इस्लाम के शासक और रक्षाकर्ता हैं, की विलायत और अधिकार होता है, उसी तरह फ़क़ीह के पास भी वही विलायत और अधिकार होता है, जब तक कि कोई ऐसा कारण न हो जो इसके उलट हो। 6
आयतुल्लाह गुलपाएगानी (र) जो आधुनिक समय के बड़े फ़क़ीह हैं, कहते हैं:
फ़क़ीहों के अधिकार का दायरा बहुत व्यापक होता है... योग्य विलायत-ए-फकीह का दायरा समाज की अध्यक्षता और संचालन से संबंधित सभी मामलों में वही होता है जो इमामों के अधिकार होते हैं, सिवाय उन मामलों के जहाँ किसी स्पष्ट दलील की वजह से यह दायरा कम या अलग हो। 7
ये केवल कुछ उदाहरण हैं शिया फ़क़ीहों के विभिन्न दौरों के विचारों के। इसके अलावा सैंकड़ों और साफ़ उदाहरण मौजूद हैं जो दिखाते हैं कि विलायत ए फ़क़ीह का मसला हमेशा से शिया उलमा के विचारों और बातों में रहा है और सभी ने इसे स्वीकार किया है।
इस्लामी क्रांति के संस्थापत हज़रत इमाम ख़ुमैनी (र) ने अपनी गहरी समझ और दूरदर्शिता से इस इस्लामी और धार्मिक सिद्धांत को खुलकर पेश किया और इस आधार पर इस्लामी नज़रिये को स्थापित किया। उन्होंने इसे मुस्लिम समाज में लागू किया और इसे ग़ैबत के समय में दीन के शासन का सबसे पूर्ण रूप बताया।
श्रृंखला जारी है ---
इक़्तेबास : आयतुल्लाह साफ़ी गुलपाएगानी द्वारा लिखित किताब "पासुख दह पुरशिसे पैरामून इमामत " से (मामूली परिवर्तन के साथ)
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१. मुफ़रेदात-ए-राग़िब, शब्द «वली»
२. लेसान उल अरब, भाग १३, शब्द «फ़िक़्ह»
३. अल मुक़्नेआ, पेज ६७५
४. अल निहाया व नुक़्तेहा, भाग २, पेज १७
५. रसाइल, मुहक्किक करकी, भाग १, पेज १४२
६. अवाएदुल अय्याम, पेज १८७ - १८८
७. अल हिदाया एला मन लहुल विलाया, पेज ७९
जब फ़ैमिली बिखर जाती है तो समाज में बुराइयां अपनी जड़ें फैला देती हैं
एक स्थिर और मजबूत परिवार ही स्वस्थ समाज की नींव होता है। जब परिवारों में एकता, प्रेम और सहयोग की भावना कमजोर पड़ती है, तो समाज में अराजकता, अनैतिकता और अपराध जैसी बुराइयाँ फैलने लगती हैं। परिवार वह पहला स्कूल है जहाँ इंसान को संस्कार, अनुशासन और मानवीय मूल्य सिखाए जाते हैं।
हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने फरमाया,एक स्थिर और मजबूत परिवार ही स्वस्थ समाज की नींव होता है। जब परिवारों में एकता, प्रेम और सहयोग की भावना कमजोर पड़ती है, तो समाज में अराजकता, अनैतिकता और अपराध जैसी बुराइयाँ फैलने लगती हैं। परिवार वह पहला स्कूल है जहाँ इंसान को संस्कार, अनुशासन और मानवीय मूल्य सिखाए जाते हैं।
औरत के हिजाब करने में, औरत के अपने लिए हिजाब को अपनाने में, औरत की इज़्ज़त और एहतेराम है।हिजाब औरत के लिए सुरक्षित माहौल बनाता है।
पश्चिमी सभ्यता में इस सीमा को तोड़ दिया गया है। और अब भी दिन ब दिन इस सीमा को लांघने का क्रम जारी है और इसको अलग अलग नाम भी देते जा रहे हैं, इस मसले ने सबसे पहला ख़राब असर यह पैदा किया कि परिवार और घर उजड़ गया है, फ़ैमिली की बुनियाद कमज़ोर हो गई।
जब किसी समाज में फ़ैमिली उजड़ जाए तो उस वक़्त उस समाज में बुराइयां अपनी जड़ें फैलाना शुरू कर देती हैं।
ज़ियारते अरबईन; इमाम हुसैन (अ) के प्रति प्रेम का सच्चा पैमाना
ज़ियारत अरबईन कोई सामान्य मुस्तहब कार्य नहीं है, बल्कि आस्था, ईमानदारी और सत्य के मार्ग के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक है। जो कोई भी जाने में सक्षम है, लेकिन बिना किसी कारण के खुद को इससे वंचित रखता है, वह वास्तव में प्रेम और निष्ठा व्यक्त करने के एक अद्वितीय अवसर और अवसर को गँवा रहा है।
अरबईन हुसैनी न केवल सय्यद उश-शोहदा (अ) और उनके वफ़ादार साथियों की शहादत का चालीसवा दिन का स्मरणोत्सव है, बल्कि दुनिया भर से हुसैन (अ) प्रेमियों का सबसे बड़ा समागम भी है। एक ऐसा समागम जो भौगोलिक, भाषाई और जातीय सीमाओं को मिटा देता है और दिलों को एक शाश्वत वाचा में बाँध देता है।
यह दिन आशूरा के स्कूल के साथ वाचा को नवीनीकृत करने और इमाम हुसैन (अ) के प्रति प्रेम में ईमानदारी के पैमाने को परखने का अवसर है; जिन्होंने सत्य और न्याय के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। अहल-अल-बैत (अ.स.) की नज़र में, हुसैन (अ.स.) की तीर्थयात्रा न केवल एक आध्यात्मिक यात्रा है, बल्कि आस्था की परीक्षा और व्यावहारिक एवं हार्दिक निष्ठा का मानक भी है।
अल-सादिक (अ.स.) ने कहा: "जो कोई हुसैन (अ.स.) की क़ब्र पर नहीं गया और यह दावा करता है कि वह मरने तक शिया नहीं है, वह हमारे लिए शिया नहीं है, और अगर वह जन्नत वालों में से थे, तो वह जन्नत वालों के बीमारों में से थे।" (कमाल अल-ज़ियारत, पृष्ठ 193)
इमाम जाफ़र सादिक (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कहते हैं:
"जो कोई इमाम हुसैन (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की क़ब्र पर नहीं गया और यह सोचे कि वह हमारे शिया हैं और उसी अवस्था में मर गया, वह हमारा शिया नहीं है; और अगर वह जन्नत वालों में से भी है, तो वह जन्नत वालों का मेहमान है।"
इससे यह स्पष्ट होता है कि केवल प्रेम का इज़हार ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि इमाम के प्रति व्यावहारिक और सचेत लगाव आवश्यक है, और तीर्थयात्रा इस लगाव का सबसे प्रमुख प्रकटीकरण है।
अल-बाकिर (अ.स.) ने कहा: "अगर लोगों को पता होता कि इमाम हुसैन (अ.स.) की तीर्थयात्रा में क्या पुण्य है, तो वे लालसा से मर जाते, और उनकी आत्माएँ लालसा के साथ उससे कट जातीं।" (कामिल अल-ज़ियारत, पृष्ठ 142)
इमाम मुहम्मद अल-बाकिर (अ.स.) इस लगाव की गहराई का वर्णन इस प्रकार करते हैं:
"अगर लोगों को पता होता कि इमाम हुसैन (अ.स.) की तीर्थयात्रा में क्या पुण्य है, तो वे तीर्थयात्रा के जुनून में अपनी जान दे देते, और उस लालसा में उनकी साँसें कट जातीं।"
इससे पता चलता है कि तीर्थयात्रा का पुण्य भौतिक मानकों और मानवीय अवधारणाओं से कहीं ऊँचा है; एक ऐसा खजाना जिसका स्वाद केवल वे प्रेमी ही ले सकते हैं जो इस मार्ग पर चलते हैं।
राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक हमले का मुकाबला आज समाज की प्राथमिकता हैं
इमाम ए जुमआ यज़्द ने कहां, जो कि प्रांत में सर्वोच्च धार्मिक नेता भी हैं ने 12-दिवसीय इजरायल-हमास युद्ध के दौरान ईरान की भूमिका के परिणामों और उससे उत्पन्न आध्यात्मिक परिवर्तनों का वर्णन करते हुए राष्ट्रीय एकता और दुश्मन के सांस्कृतिक हमले का मुकाबला करने पर ज़ोर दिया।
इमाम ए जुमआ यज़्द ने कहां, जो कि प्रांत में सर्वोच्च धार्मिक नेता भी हैं ने 12-दिवसीय इजरायल-हमास युद्ध के दौरान ईरान की भूमिका के परिणामों और उससे उत्पन्न आध्यात्मिक परिवर्तनों का वर्णन करते हुए राष्ट्रीय एकता और दुश्मन के सांस्कृतिक हमले का मुकाबला करने पर ज़ोर दिया।
उन्होंने कहा कि इस घटना ने दुश्मन के नकारात्मक प्रचार और मीडिया तथा सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाई गई गलत धारणाओं को नष्ट कर दिया जो एक बड़ी उपलब्धि है। उन्होंने इस आध्यात्मिक परिवर्तन के प्रति सामूहिक जिम्मेदारी को आवश्यक बताया और समाज में क्रांति के विभिन्न पहलुओं को समझाने पर बल दिया।
आयतुल्लाह नासिरी ने दुश्मनों द्वारा ईरान को विभाजित करने और विभिन्न जातीय समूहों के बीच फूट डालने की योजनाओं का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं।
उन्होंने कहा कि पश्चिम का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रों को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करना है और वे यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि सभी समस्याओं का समाधान पश्चिम पर निर्भरता में है।
उन्होंने यह भी कहा कि दुश्मन इमाम मेहदी की अवधारणा के विरोध में हैं और इस विश्वास को समाज में फैलने से रोकने की योजना बना रहे हैं। अंत में, उन्होंने सांस्कृतिक अधिकारियों से इस्लामी मूल्यों और इमाम मेहदी की शिक्षाओं को बढ़ावा देने के लिए गुणवत्तापूर्ण सामग्री तैयार करने का आग्रह किया।
ईरान ने गाज़ा में नरसंहार रोकने के लिए तत्काल कार्रवाई की मांग की
ईरानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने गाज़ा में पत्रकारों पर इजरायली हमले के जवाब में वैश्विक समुदाय से जायोनी सरकार के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की मांग की है।
ईरानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नसरुल्लाह कानानी ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से आग्रह किया है कि वह गाज़ा में इजरायली सरकार द्वारा किए जा रहे नरसंहार को रोकने के लिए तत्काल और प्रभावी कदम उठाए।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर जारी बयान में उन्होंने कहा कि इजरायली सेना ने गाजा शहर में अल-शिफा अस्पताल के बाहर लगे मीडिया टेंट पर जानबूझकर हवाई हमला किया है ।
जिसमें अलजज़ीरा के पूरे कर्मचारियों को शहीद कर दिया गया। हमले में मारे गए लोगों में अलजज़ीरा अरबी के प्रसिद्ध रिपोर्टर अंस अलशरीफ़, मोहम्मद कारक़ा, फोटोग्राफर इब्राहिम ज़ाहिर और मोहम्मद नौफल शामिल थे। इस हमले में दो अन्य लोग भी मारे गए।
प्रवक्ता ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चेतावनी दी कि हर संवेदनशील इंसान का न्यूनतम कर्तव्य है कि वह इन अत्याचारों की शब्दों में निंदा करे, लेकिन अब दुनिया को इस दर्दनाक नरसंहार को रोकने और अपराधियों को सजा दिलाने के लिए ठोस कार्रवाई करनी होगी।













