बंदगी की बहार- 17

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बंदगी की बहार- 17

रमज़ान का पवित्र महीना जारी है।

आज हम आपको यह बतायेंगे कि रमज़ान के पवित्र महीने में एक ईरानी परिवार क्या करता है। रमज़ान के पवित्र महीने में एक ईरानी बच्चा कहता है”

रमज़ान का महीना आ गया है। यह मेरा पांचवां साल है जब से मैं पूरे रोज़े रख रहा हूं। मेरी मां रसोईघर में इफ्तारी बना रही है यानी रोज़ा खोलने के लिए खानें बना रही है। पूरे कमरे में हलवे विशेष व्यजन और शोले ज़र्द की सुगंध फैली हुई है। एक विशेष प्रकार की मीठी खीर को शोले ज़र्द कहते हैं। पिता जी ताज़ा रोटी के साथ घर में प्रवेश करते हैं। हमारे माता- पिता ने बचपने से ही हमें रोज़ा रखने की आदत डाली है। ईरान में एक परंपरा यह है कि बच्चे को रोज़ा रखने और रोज़े के शिष्टाचारों से परिचित कराने के लिए कुछ समय तक उसे न खाने –पीने की आदत डालते हैं। इस परम्परा को “कल्ले गुन्जिश्की” कहते हैं। जब हमारे मां- बाप किसी से यह कहते थे कि हमने कल्लये गुन्जिश्की रोज़ा रखा है तो हमें यह आभास होता था कि हम बड़े हो गये हैं। हम धीरे- धीरे बड़े हो गये और अब वह समय आ गया है कि हम पूरे रोज़े रखें। जब हम छोटे थे और रोज़ा रखते थे तो हर रोज़े के बदले बड़े- बूढ़े हमें नई व प्रयोग न हुई नोट देते थे उनका यह कार्य हमारे लिए एक प्रकार का प्रोत्साहन था।

बहरहाल रमज़ान का पवित्र महीना आ गया है। चारों ओर विशेष प्रकार का आध्यात्मिक वातावरण व्याप्त है। टेलिवीज़न से दुआएं प्रसारित हो रही हैं। दस्तरखान लग गया है जिस पर पनीर, खाने की ताज़ा सब्जी, दूध, खजूर और दूसरी चीज़ें रख दी गयी हैं। रमज़ान के पवित्र महीने ने एक बार फिर यह संभावना उपलब्ध कर दी है कि परिवार के सदस्य रोज़ा खोलने के समय अधिक से अधिक एक दूसरे के साथ रहें। काफी समय से हम लोग एक साथ दस्तरखान पर नहीं बैठे थे। जैसे ही अज़ान कही गयी मेरे भाई ने ज़रा सा रुके बिना दूध से भरे ग्लास को पी लिया और पिताजी ने दुआ पढ़ी और आराम से कहा कि कबूल बाशद यानी ईश्वर सबके रोज़े को कबूल करे।         

यह उस महीने की कहानी है जो हर प्रकार की घटना से हटकर प्रतिवर्ष हमें एक साथ एकत्रित करता है। यह वह पवित्र महीना है जो हमें अपने पालनहार की उपासना करने और उससे दुआ करने का सुनहरा अवसर प्रदान करता है। इसी तरह यह महीना हमें दूसरों और उन लोगों का हाल- चाल जानने का अवसर प्रदान करता है जो वर्षों से हमारे मित्र हैं।

 

रमज़ान का पवित्र महीना जब आता है तो बहुत से लोगों की जीवन शैली बदल जाती है। खाने पीने, सोने, काम करने यहां तक इस महीने में सामान खरीदने और उसके प्रयोग की शैली भी परिवर्तित हो जाती है। वास्तव में जीवन शैली का परिवर्तित होना इस महीने का मात्र एक उपहार है जो जीवन में बड़े बदलाव का कारण बन सकता है।

रमज़ान के पवित्र महीने की एक बरकत यह है कि जब परिवार के सदस्य एक साथ रोज़ा रखते हैं, साथ में इफ्तारी करते और सहरी खाते हैं तो इससे परिवार के आधार मज़बूत होते हैं जबकि रमज़ान का पवित्र महीना आने से पहले बहुत कम एसा होता था कि परिवार के समस्त सदस्य एक साथ दस्तरखान पर एकत्रित हों। कुछ अपने कार्यों में व्यस्त होने के कारण केवल एक समय का खाना खाते थे वह भी सही समय पर नहीं। जबकि रमज़ान के पवित्र महीने में परिवार के सभी सदस्य इफ्तारी और सहरी के समय एक साथ होने का प्रयास करते हैं।

ईरानी बच्चा आगे कहता हैः माताजी एक धर्मपरायण महिला हैं। उन्होंने बचपने से ही हम सबके अंदर धार्मिक शिक्षाओं की आदत डाल दी है। जब वह हमें घूमाने के लिए पार्क या मनोरंजन स्थलों पर ले जाती हैं वहां पर वह हमें विभिन्न अवसरों पर महान ईश्वर की नेअमतों और उसकी सुन्दरताओं की याद दिलाती हैं। वह पेड़ों के पत्तों में अंतर को हमें बताती हैं। पुष्पों की महक और उसकी सुन्दता को हमारे लिए बयान करती हैं। इस प्रकार से कि हम यह सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि किसने इन फूलों को इतने सुन्दर व रंग बिरंगे रंगों में पैदा किया है। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर है जिसने ब्रह्मांड और उसमें मौजूद समस्त चीज़ों की रचना की है।

 रोज़ा रखने का एक फायदा यह है कि रोज़ा रखने वालों के मध्य धैर्य करने की भावना पैदा और मज़बूत होती है और यह मोमिन लोगों के अधिक कृपालु बनने का कारण बनती है। जिस परिवार के सदस्य रोज़ा रखते हैं उसके सदस्य अधिक कृपालु व दयालु बन जाते हैं विशेषकर पिताजी इस महीने में कृपालु व दयालु बन जाते हैं। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया है कि इस महीने में अपने बड़ों का सम्मान करो और अपने छोटों पर दया करो और सगे- संबंधियों के साथ भलाई करो, अपनी ज़बानों को नियंत्रित रखो और अपनी आंखों को हराम चीज़ों को देखने से बंद कर लो”

रोज़े की जो आध्यात्मिकता होती है विशेषकर सहरी व भोर के समय उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। घर में खाने के लिए दस्तरखान बिछता है, मस्जिदों से पवित्र कुरआन की तिलावत की आवाज़ आती है। टीवी से पवित्र कुरआन की तिलावत और दुआ पढ़ने की आवाज़ आती है इस प्रकार के वातावरण में दोस्तों और सगे- संबंधियों से मिलने की अमिट छाप हमारे दिल और ईमान पर रह जाती है। इस आध्यात्मिक वातावरण में फरिश्ते नाज़िल होते हैं और वे इस पवित्र महीने की महानता, बरकत और संदेश को आसमान वालों के लिए ले जाते हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जो संदेश आसमान तक जायेगा उसका परिमाण मुक्ति व कल्याण होगा। यह एसा ही है कि यह धार्मिक उपासना हर साल आती है ताकि वह अपनी विभूतियों व बरकतों से हमारे व्यवहार व आचरण को बदल दे। पिताजी कहते हैं कि महत्वपूर्ण यह है कि हम पवित्र रमज़ान महीने में उपासना, रोज़े और दुआ को महत्व दें और महान ईश्वर की राह में खर्च करके, पवित्र कुरआन की तिलावत करके और दुआ करके अपने दिलों को प्रकाशमयी बनायें। अगर हम अच्छी तरह उपासना करें, पवित्र कुरआन की तिलावत करें और दुआ करें तो हमारे जीवन में रमज़ान के पवित्र महीने के प्रभाव अधिक होंगे।

मौलवी ने अपनी मसनवी में कुछ मनोवैज्ञानिक शैलियों का प्रयोग करके हमारे व्यवहार को परिवर्तित करने का प्रयास किया है और वह क्रोध को नियंत्रित करने वाली एक कहानी की ओर संकेत किया है। यह कहानी इस बात की सूचक है कि हम अपने इरादों को मज़बूत करके अपनी अनुचित आदतों को छोड़ सकते हैं। विशेषकर रमज़ान का पवित्र महीना एसा अवसर है जिसमें हम अपने अनुचित व्यवहार को परिवर्तित करके उसे सुधार सकते हैं। इसी प्रकार इस पवित्र महीने में हम अपने अवगुणों से मुकाबला हैं और उन्हें छोड़ सकते हैं। श्रोता मित्रो कृपया इस कहानी को ध्यान से सुने।

एक जवान था जिसका व्यवहार अच्छा नहीं था वह अपने दुर्व्यवहार से सदैव अपने आस- पास के लोगों को कष्ट पहुंचाता था। उसने अपनी इस बुरी आदत को सही करने का बहुत प्रयास किया परंतु उसे सही न कर सका। एक दिन उसके पिता ने उसे एक हथोड़ी और कुछ कीलें दीं और उससे कहा कि जब भी तुम्हें क्रोध आये तो एक कील दीवार में ठोंक देना। पहले दिन जवान दीवार पर कई कीलें ठोंकने के लिए बाध्य हुआ क्योंकि उसे बहुत क्रोध आता था और दिन की समाप्ति पर उसे अपने क्रोध की सीमा का अंदाज़ा हुआ। उसके अगले दिन कम क्रोधित होने का प्रयास किया ताकि कम कील दीवार में ठोंकनी पड़े। इस प्रकार वह प्रतिदिन अपने क्रोध की सीमा का अंदाज़ा लगाता रहा और दीवार में हर अगले दिन कम कीलें ठोंकता था। इस प्रकार उसके अंदर अपने क्रोध की आदत को बदलने की आशा उत्पन्न हो गयी।

इस प्रकार वह दिन आ ही गया जब जवान ने एहसास किया कि मेरे व्यवहार से क्रोध की बुरी आदत खत्म हो गयी। उसने पूरी बात अपने पिता से बतायी। उसका बाप एक समझदार और होशियार इंसान था उसने अपने बेटे को प्रस्ताव दिया कि अब हर उस दिन के बदले एक कील दीवार से निकालो जिस दिन भी तुम्हें क्रोध न आये। बहरहाल एक दिन आ गया जब जवान ने दीवार में ठोंकी समस्त कीलों को बाहर निकाल लिया। उसके बाद बाप ने बेटे का हाथ पकड़ा और उस दीवार की ओर ले गया जिसमें उसने कीलों को ठोंका था। उसने अपने बेटे की ओर देखा और कहा शाबाश! बहुत अच्छा काम किये किन्तु दीवार के उस भाग को देखो जहां से तुम कीलें निकाले हो। मेरे बेटे जब तुम क्रोध में कोई बात दूसरे से कहते हो तो वह उस कील की भांति है जो दीवार में तुमने ठोंकी थी यानी तुम अपनी बातों से दूसरों के दिलों में कील ठोंकते हो और इससे दूसरों के दिलों में जो घाव हो जाता है उसका चिन्ह बाकी रहता है और आसानी से उसकी जगह नहीं भरती। जवान अपने बाप की बात से समझ गया कि क्रोध से कितना नुकसान पहुंचता है और इसके बाद उसने दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने का प्रयास किया। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में क्रोध को हर बुराई की जड़ कहा गया है। इंसान क्रोध की हालत में बहुत से एसे कार्य कर बैठता है जिस पर वह बाद में पछताता है। इसीलिए पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में क्रोध को एक अन्य स्थान पर एक प्रकार का पागलपन कहा गया है। क्रोध में इंसान बुद्धि से कम काम लेता है। क्रोध वास्तव में दिल के अंदर जलने वाली एक प्रकार की आग की ज्वाला है। इसलिए रवायतों में कहा गया है कि जब इंसान को क्रोध आये तो उसे पानी पीना चाहिये। जिस इंसान को क्रोध आया हो उसे चाहिये कि अगर वह खड़ा हो तो बैठ जाये यानी अपनी दशा को बदल दे। इसी प्रकार जिस इंसान को क्रोध आया हो उसे चाहिये कि आइने में अपना चेहरा देखे। बहरहाल क्रोध एक एसी बुरी आदत है जो अवगुणों को ज़ाहिर और सदगुणों को छिपा देती है और बुद्धिमान व्यक्ति सदैव एसी चीज़ों को अंजाम देने से बचता है जो उसकी अच्छाइयों को छिपा ले और बुराइयों को ज़ाहिर कर दे।

 

 

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