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लेबनान के इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हिज़्बुल्लाह के महासचिव सैय्यद हसन नस्रुल्लाह ने कहा है कि ग़ज़ा में मौजूदा पीढ़ी और उसका समर्थन करने वाले मोर्चों के हाथों ज़ायोनी सरकार का अंत हो जायेगा।

नौ महीने का समय गुज़र जाने के बावजूद ज़ायोनी सरकार ग़ज़ा युद्ध से अपने किसी भी लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकी है और ग़ज़ा के लोगों के प्रतिरोध के सामने वह विवश व मजबूर हो चुकी है।

सैय्यद हसन नस्रुल्लाह ने नवीं मोहर्रम मंगलवार की रात को कहा कि ग़ज़ा में मौजूदा पीढ़ी और उसका समर्थन करने वाले मोर्चों के हाथों ज़ायोनी सरकार का अंत हो जायेगा और अगर उनके लिए सीमायें खोल दी जायें तो हम देखेंगे कि वे ग़ज़ा के समर्थन में अपने दायित्वों पर अमल करेंगें।

उन्होंने कहा कि तूफ़ाने अक़्सा और एक दूसरे से एकजुटता व समरसता की एक बरकत विशेषकर लेबनान, इराक़ और यमन में यह है कि साम्प्रदायिक उकसाहट कम से कम हो गयी है जबकि अमेरिका ने इस पर वर्षों काम किया है।

हिज़्बुल्लाह के महासचिव ने कहा कि अपेक्षा यह की जा रही है कि तूफ़ाने अक़्सा की जंग में विजयी होने के बाद इस ऑप्रेशन के परिणामों को अपने हित में मोड़ने व दिखाने के लिए सांप्रदायिक मतभेदों को हवा दी जायेगी।

इसी प्रकार उन्होंने कहा कि वर्ष 1948 से जो कुछ हमारे क्षेत्र में हुआ है वह बहुत बड़ा फ़साद है और ज़ायोनी दुश्मन पश्चिम के समर्थन से समस्त अरबों को गिरी हुई नज़रों से देख रहा है।

उन्होंने कहा कि विद्वान और विशेषज्ञ इस बात का आंकलन कर रहे हैं कि ज़ायोनी सरकार की स्थापना के 70 या 80 साल के बाद इस सरकार का अंत हो जायेगा और उन्होंने जो स्वाभाविक व प्राकृतिक, एतिहासिक और सामाजिक जानकारियां प्रदान की हैं वे इस बात की सूचक हैं कि यह सरकार इस समय संवेदनशील चरण में पहुंच गयी है।

 हिज़्बुल्लाह के महासचिव ने कहा कि जिन लोगों का मानना है कि इस्राईल कैंसर की गिल्टी है और इसका अंत होना चाहिये अल्लाह इस सरकार को इस प्रकार के हाथों दंडित करेगा। लेबनान के इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हिज़्बुल्लाह के महासचिव ने कहा कि ज़ायोनी सरकार अपने अंत के समय को पहुंच चुकी है। यह ऐसी स्थिति में है जब तेलअवीव के अधिकारी इस जंग में पराजय से भागने के लिए प्रतिरोध के कमांडरों की हत्या करने की झूठी ख़बरें प्रकाशित कर रहे हैं।

यौमे आशूरा यानी दसवीं मोहर्रम को बुधवार को पूरी अकीदत एहतराम और गमगीन माहौल में मनाया गया,इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों की हक और इंसाफ के लिए दी गई शहादत को याद करते हुए पुराने लखनऊ के इमामबाड़ा नाज़िम साहब से कर्बला तालकटोरा तक जुलूस ए आशूरा निकाला गया जिसमें लखनऊ की सैकड़ों अंजुमनों ने नौहाख्वानी और सीनाज़नी कर कर्बला के शहीदों को ख़िराजे अकीदत पेश किया।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,यौमे आशूरा यानी दसवीं मोहर्रम को बुधवार को पूरी अकीदत एहतराम और गमगीन माहौल में मनाया गया,इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों की हक और इंसाफ के लिए दी गई

शहादत को याद करते हुए पुराने लखनऊ के इमामबाड़ा नाज़िम साहब से कर्बला तालकटोरा तक जुलूस ए आशूरा निकाला गया जिसमें लखनऊ की सैकड़ों अंजुमनों ने नौहाख्वानी और सीनाज़नी कर कर्बला के शहीदों को ख़िराजे अकीदत पेश किया।

इस मौके पर शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जवाद नकवी ने कहा कि इमाम हुसैन ने साढ़े तेरह सौ बरस पहले हिन्दुस्तान में बसने की ख्वाहिश जाहिर की थी लेकिन वह कर्बला में शहीद हो गए। उनकी इस ख्वाहिश को हिन्दुस्तान के रहने वाले हर धर्म के लोग आज भी उसी तरह से मातम और मजलिस के जरिए पूरा करने की कोशिश करते हैं।

लखनऊ के स्वामी सारंग ने भी कहा कि इमाम हुसैन हर हिन्दुस्तानी के दिल में बसते हैं इससे पहले दस दिनों तक घरों में रखे गए ताजियों को कर्बलाओं में सुपुर्द ए खाक किया गया।

गमगीन माहौल में यौमे आशूरा मनाया गया इस मौके पर अज़ादारों ने नौहा मातम के साथ आंसूओं का नज़राने पेश कर ताजियों को अपनी-अपनी कर्बलाओं में सुपुर्द ए खाक कर दिया इसके बाद अजाखानों में मजलिसें शामे गरीबां आयोजित हुई।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,जौनपुर,बुधवार को गमगीन माहौल में यौमे आशूरा मनाया गया इस मौके पर अजादारों ने नौहा मातम के साथ आंसूओं का नज़राने पेश कर ताजियों को अपनी-अपनी कर्बलाओं में सुपुर्द ए खाक कर दिया। इसके बाद अजाखानों में मजलिसें शामे गरीबां आयोजित हुई।

नगर के विभिन्न इलाकों में निर्धारित समय के अनुसार ताजिए उठाये गये। जिसके साथ मातमी अंजुमनों ने नौहा और मातम किया नगर क्षेत्र के अधिकांश ताजिये सदर इमामबारगाह स्थित गंजे शहीदा में सुपुर्द ए खाक किये गये जबकि कुछ ताजिए मोहल्लों की कर्बलाओं में भी सुपुर्द ए खाक हुए। चहारसू चौराहे से उठा जुलूस शिया जामा मस्जिद होता हुआ अपने मुख्य मार्गों से गुजर कर सदर इमामबारगाह पहुंचा।

इसी प्रकार इमामबाड़ा शाह अबुल हसन भंडारी, मीर सैयद अली बलुआघाट, कटघरा, मोहल्ला रिजवीं खां, पुरानी बाजार, ताड़तला, बारादुअरिया, अहियापुर, पानदरीबा के ताजिए भी सदर इमामबारगाह स्थित गंजे शहीदा में दफ्न हुए।

सिपाह मोहल्ले के ताजिये नबी साहब स्थित गंजे शहीदा में दफ्न किये गये। इसके पूर्व बलुआघाट स्थित शाही किला मस्जिद, मोहल्ला दीवान शाह, कबीर, ताड़तला की मस्जिद समेत अन्य स्थानों पर नमाजे आशूरा का आयोजन हुआ।

देर शाम सदर इमामबारगाह की ईदगाह मैदान में मजलिसें शामे गरीबां हुई जिसमे शायरों ने अपने अंदाज में कर्बला के शहीदों को नज़राने अक़ीदत पेश किया।

मौलाना सैय्यद क़मर सुल्तान दिल्ली ने मजलिस को खेताब करते हुए कर्बला में शामे गरीबा का जिक्र करते हुए बताया कि किस तरह हज़रत इमाम हुसैन को उनके 71 साथियों के साथ तीन दिन का भूखा प्यासा शहीद कर दिया। यज़ीदी फौजो ने परिवार की महिलाओं बच्चों पर जो ज़ुल्म ढाया उसे कोई नही भुला सकता है।

इमाम की शहादत के बाद उनके परिवार की महिलाओं को कैद कर लिया गया और बेपर्दा कूफे की गलियों में बेकजावा ऊंटो पर बैठाकर घुमाया गया आज हम सब उन्ही को पुरस देने यहाँ इकठ्ठा हुए है।

 

 

रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने मॉस्को के साथ उर्जा सहयोग के कारण नई दिल्ली पर पड़ रहे दबाव को पूरी तरह से अनुचित बताया। उन्होंने कहा कि भारत एक महान शक्ति है, जो अपने राष्ट्रीय हित खुद ही तय करता है और खुद ही अपने साझेदार चुनता है।

इसके अलावा, लावरोव ने राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच हुई हालिया बैठक पर यूक्रेन की टिप्पणी को अपमानजनक करार दिया।

यहां एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए लावरोव ने कहा, मुझे लता है कि भारत एक महान शक्ति है जो खुद ही अपने राष्ट्रीय हित तय करता है और अपने भागीदार चुनता है। हम जानते हैं कि भारत पर भारी दबाव पड़ रहा है, जो पूरी तरह से अनुचित है। लावरोव प्रधानमंत्री मोदी की हालिया मॉस्को यात्रा और रूस के साथ उर्जा सहयोग को लेकर भारत की हो रही आलोचना के बारे में पूछे गए सवाल का जवाब दे रहे थे।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति और राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप पर हमले को लेकर मीडिया में लगातार चर्चा हो रही है।

इस घटना को लेकर अब एक नई थ्योरी सामने आ रही है, जिसमें यूक्रेन का नाम सामने आ रहा है। यूक्रेन में विपक्ष के नेता विक्टर ने ही अपने देश के राष्ट्रपति जेलेंस्की पर बड़ा आरोप लगाया है।

 विक्टर ने कहा, ट्रंप पर हमले में केवल और केवल यूक्रेन का हाथ हो सकता है, क्योंकि इसमें उसका सबसे ज्यादा फायदा है। उनका कहना है कि ट्रंप अगर चुनाव नहीं जीतते हैं तो यूक्रेन को जो आर्थिक मदद अमेरिका से मिल रही है वो मिलती रहेगी। यही नहीं यूक्रेन की सत्तारुढ़ पार्टी भी सरकार में बनी रहेगी।

विक्टर ऐसा कह रहे हैं तो इसकी और भी वजहें हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में कहा जा रहा है कि जेलेंस्की अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के ज्यादा करीबी हैं। सत्ता में ट्रंप के आने से जेलेंस्की को जंग रोकनी पड़ेगी। कहा जा रहा है कि ट्रंप युद्ध के समर्थक नहीं हैं वो रूस और यूक्रेन जंग का इस वजह से समर्थन नहीं करते हैं, क्योंकि अमेरिका पहले ही 65 बिलियन डॉलर से ज्यादा जेलेंस्की पर खर्च कर चुका है।

लेबनान हिजबुल्लाह के महासचिव ने यह बताते हुऐ कि इज़राईल शासन का विनाश कुरान में एक वादा है कहा,अलअक्सा तूफान की लड़ाई सबसे लंबी और सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक है जिसे दुश्मन ने स्वीकार किया है और यह लड़ाई इजराइल के बड़े खतरे के खिलाफ मुसलमानों की एकता का कारण बन गई है।

लेबनान हिजबुल्लाह के महासचिव ने यह बताते हुऐ कि इज़राईल शासन का विनाश कुरान में एक वादा है कहा,अलअक्सा तूफान की लड़ाई सबसे लंबी और सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक है जिसे दुश्मन ने स्वीकार किया है और यह लड़ाई इजराइल के बड़े खतरे के खिलाफ मुसलमानों की एकता का कारण बन गई है।

अलमनार के अनुसार, लेबनान हिजबुल्लाह के महासचिव ने मंगलवार शाम को अपने भाषण में इस बात पर जोर दिया कि अलअक्सा स्टॉर्म की लड़ाई की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक मुसलमानों के बीच एकता और सांप्रदायिक तनाव में कमी हैं।

सैय्यद हसन नसरुल्लाह ने आशूरा के अवसर पर अपने भाषण की शुरुआत में शोक समारोह में भाग लेने के लिए लोगों को धन्यवाद दिया और उनकी सराहना की उन्होंने हुसैनी स.ल. शोक मनाने वालों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा बलों को भी धन्यवाद दिया और उनकी सराहना की।

नसरुल्लाह ने कल रात ओमान की राजधानी मस्कट के उपनगरीय इलाके में सैय्यद अलशोहदा के शोक समारोह के दौरान गोलीबारी की घटना का जिक्र किया और इस देश की सरकार और राष्ट्र के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त की है।

अपने बयान के दूसरे भाग में उन्होंने अलअक्सा तूफान ऑपरेशन का उल्लेख किया और कहा: इस ऑपरेशन का एक आशीर्वाद और सहायक मोर्चों की एकजुटता यह है कि इसका सांप्रदायिक तनाव को कम करने में सकारात्मक प्रभाव पड़ा है जबकि पश्चिमी जासूसी एजेंसियां पिछले दशक में इसके लिए तनाव काम कर रही थीं और योजना बनाई थी और इस पर भरोसा किया था।

उन्होंने कहा हम एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसका क्षितिज और परिप्रेक्ष्य स्पष्ट है और कुरान का वादा है कि ज़ायोनी शासन को नष्ट कर दिया जाएगा। अलअक्सा स्टॉर्म की लड़ाई सबसे लंबी और सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक है जिसे दुश्मन ने स्वीकार किया है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह लड़ाई प्रतिरोधी देशों व राष्ट्रों की लड़ाई है।

हज़रत अबूल फ़ज़'लिल अब्बास अ.स. की बेहतरीन वफ़ादारी के लिए यही काफ़ी है कि आप फ़ुरात तक गए और पानी नहीं पिया।

यह जो ज़ियादातर कहा जाता है कि इमाम हुसैन (अ) ने हज़रत अब्बास (अ) को पानी लेने भेजा था और जो कुछ मैंने मोतबर किताबों में मसलन "अल इरशाद" और किताब "लुहुफ़ इब्ने ताऊस" में पढ़ा है थोड़ा मुख़्तलिफ़ है [इन रिवायत के मुताबिक़: जो शायद कि इस वाक़िये की अहमियत को और ज़ियादा वाज़ेहतर कर दे।

इन किताबों में यह रिवायत कुछ इस तरह है कि जब आख़िरी लम्हों में अहले हरम के बच्चों, नौमौलूद और छोटी बच्चियों पर प्यास की शिद्दत इस हद तक ज़ियादा हो चुकी थी कि ख़ुद इमाम हुसैन (अ) और अबूल फ़ज़'लिल अब्बास (अ) एक साथ पानी लेने गए हैं।

हज़रत अब्बास (अ) अकेले नहीं गए। ख़ुद इमाम हुसैन (अ) और हज़रत अब्बास (अ) एक साथ पानी लेने गए हैं। आप दोनों हज़रात नहरे फ़ुरात के उस किनारे की जानिब गए जो ख़ैमों से नज़दीक था ताकि पानी ला सकें।

आप दोनों भाइयों के जंग के हवाले से बड़ी हैरानकुन बातें लिखीं गईं हैं।

इन दोनों भाइयों ने बेहद शुजाआना तरीक़े से जंग की।

इमाम हुसैन (अ) तक़रीबन 57 साल की उम्र के हैं लेकिन अपनी शुजाअत और ताक़त के लिहाज़ से बेहतरीन और बेनज़ीर हैं और हज़रत अब्बास (अ) जो 34 साल के हैं अपनी तमामतर ख़ुसूसियात के साथ यह दोनों भाई एक दूसरे के साथ शाना ब शाना दुश्मनों के समंदर के दरमियान दुश्मनों को चीरते हुए नहरे फ़ुरात की तरफ़ रवा हैं ताकि पानी तक पहुंच सकें।

इसी सख़्ततरीन जंग के दौरान अचानक इमाम हुसैन (अ) को महसूस हुआ कि इनके भाई अब्बास (अ) और इनके दरमियान फ़ासला बहुत ज़ियादा हो गया है। इसी दौरान हज़रत अब्बास (अ) पानी पर पहुंच गए।

जिस तरह से नक़्ल हुआ है कि आपने पानी की मश्क को भरा ताकि ख़ैमों तक ले जाएं।

यहां पर हर इंसान अपने को यह इजाज़त ज़रूर देगा कि एक चुल्लू पानी से अपने खुश्क हलक़ को भी तर करे लेकिन यहां वफ़ादारी की इंतिहा थी। जब अबूल फ़ज़'लिल अब्बास (अ) ने पानी की मश्क उठाई और आपकी निग़ाह पानी पर पड़ी तो आपको इमाम हुसैन (अ) के तश्ना लब याद आ गए। शायद बच्चे और बच्चियों की अल अतश की फ़रियादें याद आ गईं। शायद अली असग़र (अ) का रोना और प्यास याद आ गई।

आपने पानी नहीं पिया और नहर से बाहर आ गए। बस यहीं पर मसाएब का पहाड़ टूटा, अचानक इमाम हुसैन (अ) ने भाई की सदा सुनी जो लश्करियों के हुजूम से मैदान से आ रही थी।

ऐ भाई! अपने भाई की मदद को आओ!

हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का जीवन तथा उनका व्यक्तित्व विभिन्न आयामों से समीक्षा योग्य है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम, हज़रत अली अलैहिस्सलाम और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा जैसी हस्तियों के साथ रहने से हज़रत ज़ैनब के व्यक्तित्व पर इन हस्तियों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। हज़रत ज़ैनब ने प्रेम व स्नेह से भरे परिवार में प्रशिक्षण पाया। इस परिवार के वातावरण में, दानशीलता, बलिदान, उपासना और सज्जनता जैसी विशेषताएं अपने सही रूप में चरितार्थ थीं। इसलिए इस परिवार के बच्चों का इतने अच्छे वातावरण में पालन - पोषण हुआ। हज़रत अली अलैहिस्सलाम व फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह के बच्चों में नैतिकता, ज्ञान, तत्वदर्शिता और दूर्दर्शिता जैसे गुण समाए हुए थे, क्योंकि मानवता के सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षकों से उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त किया था।

हज़रत ज़ैनब में बचपन से ही ज्ञान की प्राप्ति की जिज्ञासा थी। अथाह ज्ञान से संपन्न परिवार में जीवन ने उनके सामने ज्ञान के द्वार खोल दिए थे। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों के कथनों के हवाले से इस्लामी इतिहास में आया है कि हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा को ईश्वर की ओर से कुछ ज्ञान प्राप्त था। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अपने एक भाषण में हज़रत ज़ैनब को संबोधित करते हुए कहा थाः आप ईश्वर की कृपा से ऐसी विद्वान है जिसका कोई शिक्षक नहीं है। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा क़ुरआन की आयतों की व्याख्याकार थीं। जिस समय उनके महान पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम कूफ़े में ख़लीफ़ा थे यह महान महिला अपने घर में क्लास का आयोजन करती तथा पवित्र क़ुरआन की आयतों की बहुत ही रोचक ढंग से व्याख्या किया करती थीं। हज़रत ज़ैनब द्वारा शाम और कूफ़े के बाज़ारों में दिए गए भाषण उनके व्यापक ज्ञान के साक्षी हैं। शोधकर्ताओं ने इन भाषणों का अनुवाद तथा इनकी व्याख्या की है। ये भाषण इस्लामी ज्ञान विशेष रूप से पवित्र क़ुरआन पर उस महान हस्ती के व्यापक ज्ञान के सूचक हैं।

हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के आध्यात्मिक स्थान की बहुत प्रशंसा की गई है। जैसा कि इतिहास में आया है कि इस महान महिला ने अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अनिवार्य उपासना के साथ साथ ग़ैर अनिवार्य उपासना करने में भी तनिक पीछे नहीं रहीं। हज़रत ज़ैनब को उपासना से इतना लगाव था कि उनकी गणना रात भर उपासना करने वालों में होती थी और किसी भी प्रकार की स्थिति ईश्वर की उपासना से उन्हें रोक नहीं पाती थी। इमाम ज़ैनुलआबेदीन अलैहिस्सलाम बंदी के दिनों में हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के आध्यात्मिक लगाव की प्रशंसा करते हुए कहते हैः मेरी फुफी ज़ैनब, कूफ़े से शाम तक अनिवार्य नमाज़ों के साथ - साथ ग़ैर अनिवार्य नमाज़ें भी पढ़ती थीं और कुछ स्थानों पर भूख और प्यास के कारण अपनी नमाज़े बैठ कर पढ़ा करती थीं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जो अपनी बहन हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के आध्यात्मिक स्थान से अवगत थे, जिस समय रणक्षेत्र में जाने के लिए अंतिम विदाई के लिए अपनी बहन से मिलने आए तो उनसे अनुरोध करते हुए यह कहा थाः मेरी बहन मध्यरात्रि की नमाज़ में मुझे न भूलिएगा।

हज़रत ज़ैनब के पति हज़रत अब्दुल्लाह बिन जाफ़र की गण्ना अपने काल के सज्जन व्यक्तियों में होती थी। उनके पास बहुत धन संपत्ति थी किन्तु हज़रत ज़ैनब बहुत ही सादा जीवन बिताती थीं भौतिक वस्तुओं से उन्हें तनिक भी लगाव नहीं था। यही कारण था कि जब उन्हें यह आभास हो गया कि ईश्वरीय धर्म में बहुत सी ग़लत बातों का समावेश कर दिया गया है और वह संकट में है तो सब कुछ छोड़ कर वे अपने प्राणप्रिय भाई हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ मक्का और फिर कर्बला गईं।

न्होंने मदीना में एक आराम का जीवन व्यतित करने की तुलना में कर्बला की शौर्यगाथा में भाग लेने को प्राथमिकता दी। इस महान महिला ने अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ उच्च मानवीय सिद्धांत को पेश किया किन्तु हज़रत ज़ैनब की वीरता कर्बला की त्रासदीपूर्ण घटना के पश्चात सामने आई। उन्होंने उस समय अपनी वीरता का प्रदर्शन किया जब अत्याचारी बनी उमैया शासन के आतंक से लोगों के मुंह बंद थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के पश्चात किसी में बनी उमैया शासन के विरुद्ध खुल कर बोलने का साहस तक नहीं था ऐसी स्थिति में हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने अत्याचारी शासकों के भ्रष्टाचारों का पिटारा खोला। उन्होंने अत्याचारी व भ्रष्टाचारी उमवी शासक यज़ीद के सामने बड़ी वीरता से कहाः हे यज़ीद! सत्ता के नशे ने तेरे मन से मानवता को समाप्त कर दिया है। तू परलोक में दण्डित लोगों के साथ होगा। तुझ पर ईश्वर का प्रकोप हो । मेरी दृष्टि में तू बहुत ही तुच्छ व नीच है। तू ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के धर्म को मिटाना चाहता, मगर याद रख तू अपने पूरे प्रयास के बाद भी हमारे धर्म को समाप्त न कर सकेगा वह सदैव रहेगा किन्तु तू मिट जाएगा।

हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की वीरता का स्रोत, ईश्वर पर उनका अटूट विश्वास था। क्योंकि मोमिन व्यक्ति सदैव ईश्वर पर भरोसा करता है और चूंकि वह ईश्वर को संसार में अपना सबसे बड़ा संरक्षक मानता है इसलिए निराश नहीं होता। जब ईश्वर पर विश्वास अटूट हो जाता है तो मनुष्य कठिनाइयों को हंसी ख़ुशी सहन करता है। ईश्वर पर विश्वास और धैर्य, हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के पास दो ऐसी मूल्यवान शक्तियां थीं जिनसे उन्हें कठिनाईयों में सहायता मिली। इसलिए उन्होंने उच्च - विचार और दृढ़ विश्वास के सहारे कर्बला - आंदोलन के संदेश को फैलाने का विकल्प चुना। कर्बला से लेकर शाम और फिर शाम से मदीना तक राजनैतिक मंचों पर हज़रत ज़ैनब की उपस्थिति, अपने भाइयों और प्रिय परिजनों को खोने का विलाप करने के लिए नहीं थी। हज़रत ज़ैनब की दृष्टि में उस समय इस्लाम के विरुद्ध कुफ़्र और ईमान के सामने मिथ्या ने सिर उठाया था। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का आंदोलन बहुत व्यापक अर्थ लिए हुए था। उन्होंने भ्रष्टाचारी शासन को अपमानित करने तथा अंधकार और पथभ्रष्टता में फंसे इस्लामी जगत का मार्गदर्शन करने का संकल्प लिया था। इसलिए इस महान महिला ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के पश्चात हुसैनी आंदोलन के संदेश को पहुंचाना अपना परम कर्तव्य समझा। उन्होंने अत्याचारी शासन के विरुद्ध अभूतपूर्व साहस का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने जीवन के इस चरण में पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के अधिकारों की रक्षा की तथा शत्रु को कर्बला की त्रासदीपूर्ण घटना से लाभ उठाने से रोक दिया। हज़रत ज़ैनब के भाषण में वाक्पटुता इतनी आकर्षक थी कि लोगों के मन में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की याद ताज़ा हो गई और लोगों के मन में उनके भाषणों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों की शहादत के पश्चात हज़रत ज़ैनब ने जिस समय कूफ़े में लोगों की एक बड़ी भीड़ को संबोधित किया तो लोग उनके ज्ञान एवं भाषण शैली से हत्प्रभ हो गए। इतिहास में है कि लोगों के बीच एक व्यक्ति पर हज़रत ज़ैनब के भाषण का ऐसा प्रभाव हुआ कि वह फूट फूट कर रोने लगा और उसी स्थिति में उसने कहाः हमारे माता पिता आप पर न्योछावर हो जाएं, आपके वृद्ध सर्वश्रेष्ठ वृद्ध, आपके बच्चे सर्वश्रेष्ठ बच्चे और आपकी महिलाएं संसार में सर्वश्रेष्ठ और उनकी पीढ़ियां सभी पीढ़ियों से श्रेष्ठ हैं।

कर्बला की घटना के पश्चात हज़रत ज़ैनब ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन को इतिहास की घटनाओं की भीड़ में खोने से बचाने के लिए निरंतर प्रयास किया। यद्यपि कर्बला की त्रासदीपूर्ण घटना के पश्चात हज़रत ज़ैनब अधिक जीवित नहीं रहीं किन्तु इस कम समय में उन्होंने इस्लामी जगत में जागरुकता की लहर दौड़ा दी थी। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने अपनी उच्च- आत्मा और अटूट संकल्प के सहारे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन को अमर बना दिया ताकि मानव पीढ़ी, सदैव उससे प्रेरणा लेती रही। यह महान महिला कर्बला की घटना के पश्चात लगभग डेढ़ वर्ष तक जीवित रहीं और सत्य के मार्ग पर अथक प्रयास से भरा जीवन बिताने के पश्चात वर्ष 62 हिजरी क़मरी में इस नश्वर संसार से सिधार गईं।

एक बार फिर हज़रत ज़ैबन सलामुल्लाह अलैहा की शहादत की पुण्यतिथि पर हम सभी श्रोताओ की सेवा में हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं। कृपालु ईश्वर से हम यह प्रार्थना करते हैं कि वह हम सबको इस महान हस्ती के आचरण को समझ कर उसे अपनाने का साहस प्रदान करे।

 

 

गुरुवार, 18 जुलाई 2024 15:15

आशूरा- वास्तुकला

इस कार्यक्रम में हम कर्बला, इमाम हुसैन (अ) और उनके साथियों की शहादत की याद में निर्माण किए जाने वाले पवित्र स्थलों जैसे कि इमाम बाड़ा और सक्क़ा ख़ाने अर्थात प्याऊ का विवरण पेश करेंगे।

 समाज, परिवार और जलवायु परिस्थितियों की भांति धर्म भी मनुष्य की जीवन शैली को प्रभावित करता है। इसका मतलब यह है कि ईसाई व्यक्ति ईसाई धर्म की शिक्षाओं से प्रभावित होता है और वह अपनी दिनचर्य की आवश्यकताओं में इन शिक्षाओं को दृष्टिगत रखता है, इसी तरह मुसलमान व्यक्ति अपने जीवन में इस्लाम धर्म के सिद्धांतों से प्रभावित होता है और उनके अनुपालन का प्रयास करता है।

 धार्मिक स्थलों को किसी भी धर्म के अनुयायियों के विश्वासों का प्रतीक माना जाता है तथा उस धर्म के अनुयायियों के विश्वासों के साथ उनका मज़बूत संबंध होता है। आशूरा की घटना मानव इतिहास में एक असमान्य घटना है, तथा उससे मिलने वाले पाठ जैसे कि अत्याचार से मुक़ाबला एवं सम्मानजनक मौत अपमानजनक जीवन से बेहतर है, उसे एक समयसीमा से ऊपर उठाकर हर युग एवं हर स्थान के लिए एक संस्कृति के रूप में पेश करते हैं। आशूरा संस्कृति से प्रभावित निर्माणकार्य एवं वास्तुकला शिया समुदाय के अतिरिक्त किसी और समाज में देखने को नहीं मिलती और उनकी निर्माण शैली एक प्रकार से उस घटना की याद दिलाती है।

 ईरान के शहरों और गांवों में हुसैनिये अर्थात इमामबाड़े देखने को मिलते हैं जो अच्छी तरह परिभाषित हैं और आशूरा की घटना से उनका मज़बूत संबंध है। इमामबाड़े इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी अर्थात शोक सभाओं के आयोजन से विशेष होते हैं तथा पुराने शहरों में शहर के मुख्य मार्गों या बाज़ार में स्थित होते हैं कि जो शहर का प्रमुख स्थान माने जाते हैं। मस्जिदों के विपरीत इमामबाड़ों में महराब नहीं होती, इससे मस्जिद और इमामबाड़े के प्रयोग का अंतर स्पष्ट हो जाता है।

 इमामबाड़ों के नामों से पता चलता है कि उनके निर्माता सामान्य रूप से शहरों में रहने वाले धनी एवं प्रभावशाली व्यक्ति रहे हैं। इन लोगों ने इमामबाड़ों से विशेष इमारतें निर्माण करवायीं और कभी कभी यह लोग अपने निवास को मोहर्रम के महीने में इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी और उससे संबंधित कार्यक्रमों के आयोजन के लिए विशेष कर दिया करते थे और उन्हें मजलिसों एवं शोक सभाओं के लिए वक़्फ़ कर दिया कर देते थे। यही कारण है कि अनेक राजकुमारों एवं धनी लोगों के घर इस प्रकार से बनाए जाते थे कि आंगन में छाया की व्यवस्था कर के मजलिसों एवं सभाओं का आयोजन किया जाता था।

 इमामबाड़े का भीतरी भाग अधिकतर तीन भागों में विभाजित होता है। आंगन को अब्बासिया कहा जाता है और वहां इमाम हुसैन (अ) के भाई एवं सेनापति हज़रत अब्बास अलमदार से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, इमामबाड़े के पीछे के कमरे कि जन्हें ज़ैनबिया कहा जाता है महिलाओं के लिए विशेष होते हैं। स्थायी इमामबाड़ों के अलावा, मोहर्रम के महीने में ईरान के शहरों और गांवों में बड़ी संख्या में अस्थायी इमामबड़ों की व्यवस्था की जाती थी। सड़कों के किनारे एक विशेष स्थान को तैयार करना और उन पर नौहे, मरसिये अर्थात शोक गीत एवं दुआएं लिखे हुए बैनर लगाना, वास्तव में यह धार्मिक वास्तुकला का वह रूप है कि जिसे केवल आशूरा अर्थात कर्बला संस्कृति को समझकर ही समझा जा सकता है और उससे संबंध स्थापित किया जा सकता है।

 ईरानी वास्तुकला संस्कृति में आशूरा संस्कृति का दूसरा प्रभाव सक़्क़ाख़ाने या प्याऊ का निर्माण है। प्याऊ, सार्वजनिक रास्तों में उस छोटे से स्थल को कहते हैं कि जिसे स्थानीय लोग राहगीरों को पानी पिलाने के लिए बनाते थे। इस छोटी सी कोठरी में सभी के लिए ठंडा और स्वच्छ पानी उपलब्ध कराया जाता है। प्याऊ के निर्माण का प्रचलन शियों द्वारा कर्बला के शहीदों और प्यासों की याद में हुआ और यह एक पुण्य का कार्य समझा जाता है। प्याऊ में एक बड़ा सा घड़ा रखा जाता था जिसमें पीने का पानी डाला जाता था और उसके पास ज़ंजीर से बांधकर प्याले रखे जाते थे। कुछ प्याऊ स्थायी थे और कुछ विशेष अवसरों विशेष रूप से मोहर्रम के महीने में मातम और अज़ादारी करने वालों के लिए स्थापित किए जाते थे। रात में गुज़रने वालों का ध्यान प्याऊ की ओर दिलाने हेतु प्याऊ के पास दीप जलाये जाते थे कि जिन्हें बाद में पवित्रता का स्थान प्राप्त हो गया और लोग अपनी मनोकामना और मन्नत के पूरा होने की आशा में प्याऊ में दीप जलाते थे।

 जो लोग सक़्क़ाख़ाने या प्याऊ जाते हैं और वहां प्रार्थना करते हैं धर्म में आस्था रखने वाले एवं एक प्रकार से धर्म पर गहरा विश्वास रखते हैं। वे लोग कर्बला की घटना एवं आशूरा अर्थात 10 मोहर्रम के दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों के दुख दर्द की याद में इन स्थलों का सम्मान करते हैं और इस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र परिजनों विशेषकर इमाम हुसैन (अ) के प्रति अपनी आस्था एवं प्रेम को प्रकट करते हैं।

 ग़ौरतलब है कि यद्यपि वर्तमान समय में सक्क़ाख़ानों के निर्माण का प्रचलन नहीं है लेकिन जिन स्थानों पर लोगों के पानी पीने की व्यवस्था की जाती है वहां अच्छी एवं सुन्दर लिपि में इमाम हुसैन (अ) की याद में कथन लिखे हुए होते हैं कि जो इसी प्रकार लोगों के हृदयों में आशूरा संस्कृति का दीप जलाये हुए हैं।

 

 

 

मोहर्रम का महीना इस्लामी महीनों में कई मायनों में बहुत अहम है। इतिहास की बहुत सी अहम घटनाएं इसी महीने में हुई हैं। लेकिन दो घटनाएं ऐसी हैं जो इस महीने के विचार से बुनियादी स्तर पर जुड़ी हैं: लोग रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के मदीना हिजरत और रसूलुल्लाह के दूसरे नवासे हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की कर्बला में शहादत। हिजरत की घटना भी दुश्मनों से इस्लाम की रक्षा के लिए सामने आयी और कर्बला की घटना भी इस्लाम और इस्लामी व्यवस्था के कमज़ोर होने को जीवंत करने के लिए सच का साथ देने वालों के द्वारा उठाये गये क़दम के नतीजे में सामने आयी, इस प्रकार इन दोनों घटनाएं तर्क संगत पाई जाती हैं।

कर्बला की घटना न केवल इस्लामी बल्कि मानव इतिहास की एक बहुत बड़ी त्रासदी है। यही वजह है कि आज लगभग चौदह सौ साल गुज़रने के बावजूद ये घटना लोगों के मन में इस तरह ताज़ा है जैसे ये बस कल की बात है। मानव इतिहास की बहुत सी ऐसे घटनाएं हैं जो इंसानो के अक़्ल और ज़मीर को झिंझोड़  कर रख दिया। जो उसकी याददाश्त के अनमोल और अमिट हिस्सा बनकर रह गए। हजरत हुसैन बिन अली रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की ये घटना ऐसा ही है। ऐसी घटनाएं चाहे कितने ही दर्दनाक और दिल को दुखाने वाले ही क्यों न हों लेकिन वास्तविकता ये है कि वो ब्रह्मांड में खुदा की जारी सुन्नत और फितरत (प्रकृति) के तकाज़े के बिल्कुल मुताबिक होते हैं। अल्लाह की बनाई हुई प्राकृतिक व्यवस्था ये है कि जब भी उसके दीन को कोई खतरा होता है, अल्लाह किसी महान और पवित्र बंदे को दीन के मजबूत क़िले की सुरक्षा के लिए भेज देता है और उसके द्वारा उसकी रक्षा का काम अंजाम देता है।

एक हदीस में जो सुनन अबु दाऊद में शामिल है, बताया गया है कि अल्लाह ताला हर सदी के सिरे पर धर्म को अद्यतन करने और उसकी रक्षा के लिए किसी महान व्यक्ति को चुनता है। ये सिलसिला क़यामत तक बाक़ी रहेगा। हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की गिनती इस्लाम धर्म की उन कुछ महान हस्तियों में होता है जिन्होंने अपने खून से इस्लाम के पौधे को सींचा और उसकी रक्षा  करने को अपना पहला कर्तव्य माना और हक़ीकत ये है कि क़यामत तक के लिए इस्लाम के किले की रक्षा के लिए अपनी जान को न्योछावर कर डालने की एक बेनज़ीर परंपरा स्थापित की।

हक़ीकत ये है कि दुनिया की कोई ऐसी क़ौम नहीं है जिसने इस घटना से प्रेरणा और आध्यात्मिक सीख न हासिल की हो और उसके विचारों और दृष्टिकोणों पर इसका कोई असर न पड़ा हो। महात्मा गांधी कहते हैं किः मैंने इस्लाम के शहीदे आज़म इमाम हुसैन के जीवन का अध्ययन किया है और कर्बला की घटनाओं पर मैंने विचार किया है। इन घटनाओं को पढ़कर मुझे ये स्पष्ट हुआ कि अगर हिंदुस्तान अज़ादी चाहता है तो उसे हज़रत हुसैन की शैली और चरित्र का पालन करना पड़ेगा।''

इस्लामी इतिहास में इस बात पर विद्वान लोग सहमत हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के नवासे की इस शहादत ने इस्लाम की रगों में ताज़ा खून को दौड़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चारों खलीफा के समय के बाद इस्लामी राजनीतिक व्यवस्था जिस फसाद और बिगाड़ का शिकार हुआ। इस्लाम की सामूहिक व राजनीतिक आत्मा इस फसाद से हमेशा परहेज़ करती रही है। लेकिन इतिहास गवाह है कि सत्तावादी होने मिजाज़ किसी भी सिद्धांत और विचारधारा का पाबंद नहीं होता। इस सत्ता और शक्ति की चाहत ने जब इस बात की कोशिश की कि इस्लामी सिद्धांतों की अपनी मनमानी व्याख्या करे, इस्लामी व्यवस्था को उसके असल रुख से मोड़ दे तो हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू ने उम्मत की तरफ से अपना कर्तव्य समझकर इस व्यवस्था की रक्षा में अपनी कीमती जान कुर्बान कर दी। इस तरह शहादत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू सत्य के लिए आखरी हद तक खुद को लुटा देने और न्योछावर कर देने के ऐतिहासिक प्रतीक बन गये। उम्मत का शहीदे आज़म इस बात में यक़ीन रखता है कि हुसैन का क़त्ल वास्तव में यज़ीद की ही मौत है और ये कि इस्लाम की ज़िंदगी कर्बला जैसी घटनाओं में ही छिपी हैः

क़त्ल हुसैन असल में मरगे यज़ीद है

इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद

इसलिए हुसैनी रूह और जज़्बा, उम्मत में हमेशा बरकरार रहा। जब भी इस्लाम के कलमे को ऊंचा करने और सबसे बड़े जिहाद (सबसे बड़ा जिहाद ज़ालिम शासक के सामने कलमए हक़ को बुलंद करना है) के तहत वक़्त की जाबिर ताक़तों के खिलाफ मुकाबला करने की ज़रूरत आई, हुसैनी जज़्बे से भरपूर उम्मत की रक्षा करने वालों ने कभी इससे पीछे नहीं हटे। इसी शहादत की भावना की विरासत को संभाले हुए फ़िलिस्तीन के पीड़ितों ने आधी सदी से अधिक समय से अपने सीनों पर गोलियां खा रहे हैं। ज़ालिम व निर्मम यहूदी शक्तियां उनके अस्तित्व का एक एक कतरा निचोड़ लेने के लिए आमादा हैं लेकिन वो अपना सिर झुकाने और मैदान से पीछे हट जाने के लिए तैयार नहीं हैं। अभी पिछले दिनों आलम अरब दुनिया में जो महान क्रांति हुई और जिसने तानाशाहों की सरकारों के तख्ते पलट दिए और शोषण करने वालों और निरंकुशों के बीच बिखराव पैदा कर दिया, जिसकी गूंज और धमक विभिन्न देशों में अब भी सुनाई दे रही थी, निस्संदेह इस के पीछे यही हुसैनी भावना काम कर रही है। इस समय इस बात की भी कोशिश हो रही है कि कर्बला में हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत को नये अर्थ दिये जायें और इसे ऐसे ऐसे अर्थ पहनाए जायें जिससे इस महान घटना के असल महत्व और उपादेयता बाक़ी न रहे। ये निस्संदेह अस्लाफ इकराम के नज़रिए और मसलक और उम्मत की सामूहिक अंतरात्मा से संघर्षरत है। उसे कभी भी उम्मेत का शहीदे आज़म कुबूल और बर्दाश्त नहीं कर सकता। शहादत इमाम हुसैन के सम्बंध में किसी बहस की नई बिसात बिछाने की जरूरत महसूस नहीं होती। बल्कि मेरी नज़र में ये बिल्कुल बकवास है। अलबत्ता, अल्लामा इब्ने तैमिया ने अपने फतवा में हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत पर जो कुछ लिखा है वो यहाँ पेश कर देना मुनासिब होगा:

'' जिन लोगों ने हज़रत हुसैन का क़त्ल किया या उसका समर्थन किया या उससे सहमत हुआ, उस पर अल्लाह की, मलाइका की और तमाम लोगों की लानत, अल्लाह ताला ने हज़रत हुसैन को इस दिन (यौमे आशूरा) शहादत से सरफ़राज़ किया और इसके ज़रिए उन लोगों को जिन्होंने उन्हें क़त्ल किया था या उनके क़त्ल में मदद की थी या इससे सहमत हुए थे, उन्हें इसके ज़रिए ज़लील (अपमानित) किया। उनकी ये शहादत इस्लाम के पहले के शहीदों की पैरवी में थी। वो और उनके भाई जन्नत में जाने वाले नौजवानों के सरदार हैं। दरअसल हिजरत, जिहाद और सब्र का वो हिस्सा उनको नहीं मिल सका था जो उनके अहले बैत को हासिल था। इसलिए अल्लाह ने उनकी इज़्ज़त व करामत को पूरा करने के लिए उन्हें शहादत से सरफ़राज़ किया। उनका क़त्ल उम्मत के लिए एक बड़ी मुसीबत थी और अल्लाह ताला ने बताया कि मुसीबत के वक्त इन्ना लिल्लाहे वइन्ना एलैहि राजेऊन पढ़ा जाए। कुरान कहता है: सब्र करने वालों को खुश खबरी सुना दो। जब उनको कोई मुसीबत पेश आती है तो वो कहते हैं कि हम अल्लाह के लिए हैं और हमें अल्लाह की तरफ़ ही लौटना है। अल्लाह की उन पर नवाज़िशें और रहमतें हैं और यही लोग हिदायत याफ्ता हैं।'' (फतावा इब्ने तैमिया जिल्द 4 , सफ्हा- 4835)

सल्फ़ सालेहीन के इससे मिलते जुलते बहुत से बयान हैं। जिनका अध्ययन इस विषय पर लिखी गई किताबों में किया जा सकता है। ये अंश इसलिए दिया गया है कि जो लोग इस दृष्टिकोण से हटकर सोचते हैं उन्हें अपने दृष्टिकोण की समीक्षा करनी चाहिए। विशेष रूप से अल्लामा इब्ने तैमिया का दृष्टिकोण ऐसे लोगों की ज़बानों को बंद कर देने के लिए काफी है।

बहरहाल इतिहास में शहादत की घटनाएं हमेशा पेश आती रही हैं और पेश आती रहेंगी, लेकिन हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की घटना के कई पहलुओं से अपने अंदाज़ में अद्वितीय घटना है। रसूलुल्लाह स.अ.व. का नवासा जिसे रसूलुल्लाह स.अ.व. की पीठ पर सवारी का सौभाग्य प्राप्त हो, जिसके होंठों को रसूलुल्लाह स.अ.व. ने चूमा हो जिसे रसूलुल्लाह स.अ.व. ने जन्नत के लोगों का सरदार ठहराया हो, उसे अहयाए (पुनर्जीवन) इस्लाम के जुर्म में बहुत बेदर्दी और सफ्फ़ाकी से क़त्ल कर दी जाए। इस अत्याचार और बर्बर व्यवहार पर ज़मीन और आस्मान जितना भी मातम करें कम है। हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की घटना को उम्मत कभी भुला नहीं सकती। वो उसके मन और आत्मा का हिस्सा बन चुका है। कर्बला की घटना अपनी सभी पीड़ाओं के साथ इस्लाम और उम्मते इस्लाम की रक्षा के लिए समर्पण और बलिदान की प्रेरणा देता रहेगा।