माहे रजब से भरपूर लाभ उठाने के लिए उस्ताद तहरीरी की नसीहतें

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माहे रजब से भरपूर लाभ उठाने के लिए उस्ताद तहरीरी की नसीहतें

तेहरान के प्रसिद्ध उस्ताद-ए-अख़लाक़ उस्ताद मुहम्मद बाक़िर तहरीरी ने माहे-रजब की रूहानी और मानवीय अहमियत पर रोशनी डालते हुए कहा कि माहे-रजब अल्लाह तआला का महीना है, जिसमें ख़ास तौर पर इलाही रहमत नाज़िल होती है। यह रहमत उन्हीं लोगों को नसीब होती है जो अल्लाह के रहेमाना अहकामात की अमली पैरवी करते हैं, और इसकी बुनियाद वाजिबात की पाबंदी और मुहर्रमात से परहेज़ है।

उस्ताद तहरीरी ने कहा कि माहे-रजब इस्तिग़फ़ार और दुआ का महीना है। इस्तिग़फ़ार का मक़सद अंदरूनी आलूदगियों को दूर करना है, लेकिन अगर इंसान जानबूझकर गुनाहों में मुब्तला रहे और सिर्फ़ ज़बानी इस्तिग़फ़ार पर इक्तिफ़ा करे, तो उसका असर कम हो जाता है। असल ज़रूरत यह है कि इंसान इताअत-ए-इलाही का पुख़्ता इरादा करे।

उस्ताद तहरीरी ने रसूल-ए-अकरम स.ल. की एक हदीस का हवाला देते हुए बताया कि माहे-रजब में अल्लाह तआला सातवें आसमान पर एक फ़रिश्ता मुक़र्रर फ़रमाता है, जो रात की शुरुआत से सुबह तक पुकारता रहता

طوبی للذاکرین، طوبی للطائعین

(ख़ुशख़बरि है अल्लाह को याद करने वालों के लिए, ख़ुशख़बरि है इताअत करने वालों के लिए)

उन्होंने वाज़ेह किया कि वास्तविक “तूबा” और सच्ची ख़ुशबख़्ती इसी में है कि इंसान अमीरुल-मोमिनीन अलीؑ की विलायत के दायरे में हो।

उन्होंने ज़िक्र की दो क़िस्में बयान कीं, ज़िक्र-ए-ज़बानी और ज़िक्र-ए-अमली। ज़िक्र-ए-अमली दरअसल इताअत है, और इसकी बुनियाद यह है कि इलाही वाजिबात को ज़िंदगी के तमाम पहलुओं में लागू किया जाए। अगर इसमें कोताही हो, तो उसके नकारात्मक असर ज़ाहिर होते हैं।

उस्ताद तहरीरी ने इस नुक्ते की ओर भी तवज्जोह दिलाई कि कभी-कभी इंसान एक वाजिब अदा करता है, लेकिन दूसरे वाजिब को छोड़ देता है; या नमाज़ पढ़ता है, मगर गुनाहों से परहेज़ नहीं करता। इस तरह आमाल एक-दूसरे के असर को कमज़ोर कर देते हैं। उदाहरण के तौर पर नमाज़ अदा करना नेकी है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति बद-हिजाबी जैसे गुनाह में मुब्तला हो, तो उसकी इस्लाह नरमी और हिकमत के साथ ज़रूरी है।

उन्होंने कहा कि सकारात्मक पहलुओं की निशानदेही के साथ-साथ नकारात्मक बातों पर भी नरम लहजे में तंबीह होनी चाहिए। हम एक शिया समाज में रहते हैं, जहाँ दुश्मनियाँ और आज़माइशें हमेशा रही हैं और ज़ुहूर-ए-इमाम-ए-ज़मानाؑ तक रहेंगी, लेकिन हमें मैदान छोड़ने या अहले-बैतؑ से दूर होने की इजाज़त नहीं हैं।

माहे-रजब की दुआओं पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा कि इस महीने में गहरे मआनी वाली दुआएँ मौजूद हैं, ख़ास तौर पर नमाज़ों के बाद पढ़ी जाने वाली दुआएँ—जिनमें “या मन अर्जूहु लिकुल्ले ख़ैर” जैसी दुआ शामिल है। अगर रोज़ाना सब कुछ मुमकिन न हो, तो कम से कम इन्हें पूरी तरह छोड़ न दिया जाए।आख़िर में उस्ताद तहरीरी ने कहा कि माहे-रजब में बअसत-ए-रसूल-ए-अकरम स.ल. और विलादत-ए-अमीरुल-मोमिनीन अलीؑ जैसी अज़ीम मुनासबतें हैं, जिनसे ग़फ़लत नहीं बरतनी चाहिए।

उन्होंने दुआ की कि अल्लाह तआला इस मुल्क पर अपनी ख़ास रहमत नाज़िल फ़रमाए, इमाम-ए-ज़मानाؑ की इनायतें इस उम्मत को नसीब हों, और इस्लामी इंक़ेलाब जो हज़रत इमाम ख़ुमैनीؒ और रहबर-ए-मुअज़्ज़म की बेमिसाल क़ियादत में तमाम साज़िशों के बावजूद महफ़ूज़ है को और मज़बूती अता फ़रमाए।

उन्होंने ताकीद की कि हम सबको अहले-बैतؑ और इमाम-ए-ज़मानाؑ के साथ दिली, अमली और दुआई ताल्लुक़ को हमेशा ज़िंदा रखना चाहिए।

 

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