इमाम हुसैन अलै. ने यज़ीद बिन मुआविया के ख़िलाफ़ क्यों आंदोलन किया?

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इमाम हुसैन अलै. ने यज़ीद बिन मुआविया के ख़िलाफ़ क्यों आंदोलन किया?

इमाम हुसैन (अ.) का क़ियाम व आंदोलन उस समय हुआ जब इस्लामी समाज यज़ीद, जो मुआविया का बेटा और बनी उमय्या की ख़ानदान से था, की हुकूमत में विनाश की ओर बढ़ रहा था और लोगों के बीच ईश्वरीय आदेश तथा नैतिकताएँ भुलाई जा रही थीं।

इमाम हुसैन (अ.) ने उच्च उद्देश्यों के साथ आंदोलन-ए-अशूरा की शुरुआत की और अपनी शहादत के ज़रिए इस्लाम  धर्म को जीवित रखा।

इमाम हुसैन (अ.) ने अपने भाई इमाम हसन (अ.) की शहादत के बाद, जिन्होंने छह महीने तक मुसलमानों की खिलाफ़त संभाली थी, अपने भाई की संधि का पालन करने और साथ ही मुआविया द्वारा कुछ इस्लामी प्रतीकों के पालन के कारण क़ियाम नहीं किया लेकिन मुआविया द्वारा फैलाए गए अत्याचार, अन्याय और नवाचारों व बिदअतों के सामने वे चुप भी नहीं रहे और जहां तक संभव हुआ, भाषणों और विरोधी पत्रों के माध्यम से मुआविया के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट करते रहे।

इसका एक स्पष्ट उदाहरण यज़ीद जैसे भ्रष्ट, शराबी और नैतिक रूप से गिर चुके व्यक्ति को उत्तराधिकारी बनाए जाने का विरोध था, जो मुआविया के शासनकाल में हुआ। इस संबंध में इमाम हुसैन (अ.) ने हज जैसे विशाल धार्मिक सम्मेलन में भाषण दिया, जिसमें उन्होंने उमय्या शासन के ज़ुल्म व ज़्यादतियों को उजागर किया। इस भाषण ने सरकार के खिलाफ़ एक बड़ा प्रचार आंदोलन खड़ा किया और क़ियाम व आंदोलन की नींव रखी।

यज़ीद-क भ्रष्ट शासक

इमाम हुसैन (अ.) के दौर में सत्ता ऐसे व्यक्ति के हाथ में आ गई थी जिसे मुआविया ने पाला-पोसा था। वह इस्लामी शासन के नाम पर जनता पर शासन करना चाहता था जबकि उसे इस्लाम में कोई आस्था नहीं थी। वह एक अत्याचारी, वासना में डूबा हुआ, व्यभिचारी, धर्मविरोधी और खुला पापी व्यक्ति था।

यज़ीद जब सत्ता में आया तो वह अपने पिता की तरह कम से कम धार्मिक दिखावा भी न कर सका और उसने खुलेआम इस्लामी पवित्रताओं का अपमान करना शुरू कर दिया। वह शराब का आदी और भ्रष्ट व्यक्ति था, जो स्पष्ट रूप से पैग़म्बर (स.) पर ईश्वरीय संदेश के उतरने और उनकी पैग़म्बरी का भी इनकार करता था।

प्रसिद्ध इस्लामी इतिहासकार मसऊदी लिखते हैं: "यज़ीद ने लोगों के साथ ऐसा व्यवहार किया जैसा फ़िरऔन करता था बल्कि फ़िरऔन का व्यवहार उससे बेहतर था।"

यज़ीद की हुकूमत में इस्लाम का फ़ातेहा यानी विनाश व समाप्ति

इमाम हुसैन (अ.) ने उन्हीं दिनों जब मदीने में स्थानीय शासक द्वारा जबरन बैअत लेने का दबाव था तो उसके उत्तर में फरमाया: अब जब मुसलमान यज़ीद जैसे शासक के अधीन हो गए हैं तो इस्लाम का फ़ातेहा पढ़ लेना चाहिए। यानी इस्लाम के ख़त्म होने का फ़ातेहा पढ़ लेना चाहिये।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के अहलुलबैत के अनुयायियों के तीसरे इमाम ने, जब कूफ़ावासियों के निमंत्रण-पत्रों का उत्तर दिया, तो मुसलमानों के नेता की विशेषताओं को इस प्रकार बयान किया।

"... मुसलमानों का इमाम और नेता वह है जो अल्लाह की किताब पर अमल करता हो, न्याय और सत्य का मार्ग अपनाए, सत्य का अनुसरण करे और पूरे दिल से अल्लाह के आदेशों का पालन करे।

यज़ीद ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसमें इस्लामी शासन के नेतृत्व की योग्यताएँ हों और यदि उसका शासन जारी रहता, तो इस्लाम नाम की कोई चीज़ बाक़ी न रहती। इसीलिए मुआविया की मृत्यु के बाद इमाम हुसैन (अ.) के क़ियाम में जो रुकावटें थीं, वे दूर हो चुकी थीं और अब समय आ गया था कि वे अपने नाना के धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए उठ खड़े हों और यज़ीद की अवैध हुकूमत के विरुद्ध अपने विरोध की घोषणा करें।

आशूरा के क़ियाम व आंदोलन के कारण

आशूरा के क़ियाम व आंदोलन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक कारणों के मेल से उत्पन्न हुआ। इसका सबसे मुख्य कारण, पैग़म्बर (स.) की वफ़ात के बाद इस्लाम के मार्ग में आए गहरे भ्रष्टाचार और यज़ीद की भ्रष्ट हुकूमत का सत्ता में आना था जिसने धर्म को केवल सत्ता का साधन बना लिया था। समाज की चुप्पी, अत्याचार, अन्याय और धार्मिक सच्चाइयों के बदले जाने के सामने खामोशी ने इमाम हुसैन (अ.) को इस पर मजबूर कर दिया कि वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की उम्मत के सुधार और धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए क़ियाम करें। समाज के प्रति ज़िम्मेदारी, ईश्वरीय मूल्यों की रक्षा और ज़ालिम सरकार की वैधता को रोकना यह सब इस ऐतिहासिक आंदोलन के प्रमुख प्रेरक तत्व व कारण थे।

क्या यदि यज़ीद की ओर से बैअत के लिए दबाव और कूफ़ावालों का निमंत्रण न होता, तो भी इमाम हुसैन (अ.) विरोध करते?

इस प्रश्न का उत्तर यह है कि इमाम हुसैन (अ.) मुआविया के जीवनकाल में ही यज़ीद के उत्तराधिकारी होने का कड़ा विरोध कर चुके थे और मुआविया की मृत्यु के बाद भी उन्होंने मदीने के शासक द्वारा यज़ीद की खिलाफ़त के लिए बैअत की मांग को स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया था क्योंकि यज़ीद की बैअत करना न केवल एक भ्रष्ट व्यक्ति की खिलाफ़त को स्वीकार करना होता, बल्कि मुआविया द्वारा स्थापित राजशाही और वंशानुगत सत्ता को भी वैधता देना होता।

 इमाम ने कई बार स्पष्ट किया कि वे किसी भी कीमत पर, किसी भी दबाव के तहत, यज़ीद की बैअत नहीं करेंगे। इसलिए, अगर बैअत का दबाव भी न होता, तब भी इमाम हुसैन (अ.) इस अवैध हुकूमत का विरोध करते क्योंकि यज़ीद में मुसलमानों के नेतृत्व और खिलाफ़त की कोई योग्यता नहीं थी।

इमाम हुसैन (अ.) अमर बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर अर्थात "अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना" के नारे के साथ मदीना से चले थे क्योंकि इस्लामी दुनिया बुराई और भ्रष्टाचार से भर गई थी और तत्कालीन शासन स्वयं इन बुराइयों का स्रोत बन चुका था। इमाम (अ.) ने ईश्वरीय कर्तव्य और धार्मिक ज़िम्मेदारी के तहत क़ियाम किया ताकि अपने नाना की उम्मत को गुमराही से बचा सकें।

इमाम हुसैन (अ.) की ज़बानी क़ियाम के उद्देश्यों की व्याख्या

इमाम हुसैन (अ.) ने विभिन्न अवसरों पर अपने ख़ुत्बों, पत्रों, प्रभावशाली बयानों और अपनी वसीयत में क़ियाम-ए-अशूरा के उद्देश्यों और प्रेरणाओं के बारे में स्पष्ट रूप से बात की है। उन्होंने उमय्या  के शासकों के अपराधों के सामने चुप्पी और उनके साथ समझौते को एक माफ़ न करने वाला पाप करार दिया।

इमाम हुसैन (अ.) के क़ियाम व आंदोलन के कुछ प्रमुख उद्देश्य, जिन्हें संक्षेप में इस प्रकार बताया जा सकता है:

  1. अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना

इमाम हुसैन (अ.) ने भूला दी गयी धार्मिक ज़िम्मेदारी को अपने आंदोलन के उद्देश्यों को लागू करने का एक व्यावहारिक साधन बनाया और यह बहुत प्रभावी सिद्ध हुआ। इस विषय में उन्होंने फ़रमाया हे खुदा! मुझे अच्छाई प्रिय है और मैं बुराई और पाप से घृणा करता हूँ।

  1. पैग़म्बर (स.) की उम्मत का सुधार

जब यज़ीद इस्लामी समाज का ख़लीफ़ा व शासक बना और इमाम हुसैन (अ.) ने उससे बैअत नहीं की, तब मदीना से मक्का के लिए रवाना होने से पहले उन्होंने अपने भाई मोहम्मद हनफ़िया को एक वसीयतनामा लिखते हुए अपने क़ियाम का उद्देश्य इस प्रकार स्पष्ट किया:

"... मैं मदीना से न तो किसी निजी चाहत, घमंड या भोगविलास की इच्छा से निकल रहा हूँ और न ही फ़साद फैलाने या ज़ुल्म करने के लिए; बल्कि मेरा उद्देश्य अपने नाना की उम्मत में फैली बुराइयों का सुधार करना है। मेरा मक़सद अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैग़म्बर (स.) और अपने पिता अली बिन अबी तालिब की परंपराओं को ज़िंदा करना चाहता हूँ। जो कोई भी इस मार्ग में अल्लाह के हक़ का सम्मान करते हुए मेरा साथ देगा मैं उसे अपनाऊँगा। फिर अल्लाह मेरे और इस क़ौम के बीच फ़ैसला करेगा और वही सबसे बेहतर फ़ैसला करने वाला है।"

  1. नवाचारों व बिदअतों से संघर्ष और पैग़म्बर (स.) की सुन्नत का पुनर्जीवन

इमाम हुसैन (अ.) ने मक्का पहुँचने के बाद बसरा के क़बीलाई सरदारों को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने फ़रमाया:

मैं अपने दूत को यह पत्र लेकर आपकी ओर भेज रहा हूँ। मैं आपको अल्लाह की किताब और पैग़म्बर (स.) की सुन्नत की ओर बुलाता हूँ; क्योंकि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि पैग़म्बर (स.) की सुन्नत पूरी तरह मिटा व भूला दी गई है और बिदअतें जीवित कर दी गई हैं। यदि आप मेरी बात सुनें तो मैं आपको सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन करूँगा। अल्लाह की सलामती, रहमत और बरकतें आप पर हों।

  1. खुलेआम फैलाए गए भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ संघर्ष

इमाम हुसैन (अ.) ने अपने क़ियाम का उद्देश्य यज़ीद जैसे अत्याचारी और खुलेआम भ्रष्टाचार फैलाने वाले शासक के विरुद्ध संघर्ष बताया।

उन्होंने इराक़ की ओर जाते हुए रास्ते में, "हुर" के सैनिकों को संबोधित करते हुए एक ख़ुत्बे में फ़रमाया:

"लोगों! जान लो कि ये लोग यानी बनी उमय्या अल्लाह के आदेश को त्याग चुके हैं और शैतान की पैरवी को अपने ऊपर अनिवार्य बना लिया है। उन्होंने भ्रष्टाचार को फैलाया है और अल्लाह की सीमाओं व शरीअत को नष्ट कर दिया है।"

  1. असत्य के विरुद्ध संघर्ष और सत्य पर अमल करना

इमाम हुसैन (अ.) ने इराक़ की यात्रा के दौरान एक स्थान पर अपने साथियों को संबोधित करते हुए यह भाषण दिया:

"बुराइयाँ खुलकर सामने आ चुकी हैं और अच्छाई व नैतिकताएँ हमारे समाज से उठ चुकी हैं… क्या तुम नहीं देखते कि अब न तो सत्य पर अमल हो रहा है और न ही असत्य से रोका जाता है? ऐसे हालात में एक सच्चे मोमिन के लिए अपने अल्लाह से मिलने की तड़प होना स्वाभाविक है।

मैं ऐसे अपमानजनक और दूषित वातावरण में मृत्यु को सौभाग्य और अत्याचारियों के साथ जीवन को केवल पीड़ा, अपमान और दुख समझता हूँ।

यह लोग दुनियापरस्त हैं और धर्म केवल उनकी ज़बान की लुग़त बनकर रह गया है। जब तक उनका जीवन सुख-सुविधा में बीतता है तब तक वे धर्म का साथ देते हैं, लेकिन जब परीक्षा का समय आता है, तो सच्चे धार्मिक लोग बहुत कम ही मिलते हैं।

  1. अपमानजनक और घटिया दुनिया की ज़िंदगी को स्वीकार न करना

इमाम हुसैन (अ.) ने, जब उबयदुल्लाह बिन ज़ियाद ने उन्हें मारे जाने या यज़ीद से बैअत करने का विकल्प दिया, तब फ़रमाया

"हम कभी भी अपमान और बेइज़्ज़ती को स्वीकार नहीं करेंगे। अल्लाह, उसका रसूल और मोमिन इसे हमारे लिए स्वीकार नहीं करते।"

कहीं और उन्होंने फरमाया:

"हम (पैग़ंबर के परिवार) कभी भी अपमान स्वीकार नहीं करेंगे, अल्लाह और उसका रसूल इसे हमारे लिए स्वीकार नहीं करते। हमारे पवित्र पिता और माताएं भी हमारे लिए अपमान को मंजूर नहीं करतीं।"

इमाम हुसैन (अ.) के क़ियाम की कुछ विशेषताएँ:

ईश्वरीय मक़सद और उद्देश्यपूर्ण होना

यह क़ियाम केवल राजनीतिक नहीं था, बल्कि धर्म की पुनर्स्थापना और इस्लामी मूल्यों में हुई भ्रांतियों के विरुद्ध एक दिव्य आंदोलन था।

विश्वव्यापी संदेश

आशूरा का संदेश सीमाओं और धर्मों से परे है जो अत्याचार और अन्याय के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देता है।

निःस्वार्थ बलिदान और शहादत की चाह

इमाम हुसैन (अ.) और उनके साथी पूरी जागरूकता के साथ अपने अंत को जानते हुए भी सच के लिए अपनी जानें कुर्बान कर गए। आशूर की रात, अर्थात युद्ध शुरू होने से एक रात पहले, इमाम ने अपने साथियों को आज़ाद कर दिया कि जो चाहे चला जाए और कहा कि जो कल तक उनके साथ रहेगा  वह मारे जाएगा। इसके बावजूद वे सभी रहे और शहादत को स्वीकार किया।

  1. महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका, विशेष रूप से हज़रत ज़ैनब (स.)

आशूरा के बाद आंदोलन को जारी रखने और उसके उद्देश्यों को स्पष्ट करने में हुसैनी कारवां की महिलाओं की बहादुरी और जागरूकता का बड़ा योगदान रहा।

  1. ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थायित्व

यह क़ियाम न केवल इतिहास में अमर रहा, बल्कि मुसलमानों और गैर-मुसलमानों दोनों के सांस्कृतिक और धार्मिक रीति-रिवाजों में गहराई से समा गया।

 हालांकि इमाम हुसैन (अ.) और उनके साथी शहीद हो गये। क्या उनका क़ियाम अपने उद्देश्यों में सफल हुआ?

इमाम हुसैन (अ.) के क़ियाम के दीर्घकालिक प्रभावों में निम्नलिखित बिंदुओं का उल्लेख किया जा सकता है:

स्वतंत्रता की भावना और बड़े अत्याचारियों के खिलाफ संघर्ष का पुनरुत्थान, अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना

इमाम हुसैन (अ.) ने अपने महाआंदोलन के माध्यम से असली आज़ादी, बहादुरी और अत्याचार के विरुद्ध दृढ़ता का अर्थ प्रस्तुत किया।

इमामत की स्थिति और पैग़म्बर के अहलुलबैत की सत्यता की पुष्टि

इस क़ियाम ने असली इमामत को ज़ालिम और ज़ालेमाना खिलाफ़त से अलग किया और उस अहलुलबैत की आध्यात्मिक महानता को जिसे क़ुरान ने पवित्र बताया है, आने वाली पीढ़ियों के लिए स्पष्ट किया।

  1. असली मुहम्मदी इस्लाम (स.) को जीवित रखना

इमाम हुसैन (अ.) की इस पहल ने भ्रष्ट शासकों द्वारा नकली इस्लाम को असली इस्लाम के रूप में पेश करने और धर्म को सत्ता के लिए एक साधन बनाने से रोका।

  1. इतिहास में सभी धार्मिक और न्याय की लड़ाइयों के लिए प्रेरणा

आशूरा का क़ियाम अत्याचार के खिलाफ़ संघर्ष का एक आदर्श बन गया जिसने कई बाद की सदियों में आज़ादी के आंदोलनों और सच्चाई के लिए लड़ने वालों को मार्गदर्शन दिया।

  1. यज़ीद और उमय्या सरकार के असली चेहरे को उजागर करना

अशूरा ने उमय्या शासन के छलपूर्ण चेहरे से पर्दा हटाया और उनके अपराधों को सार्वजनिक किया।

  1. न्याय और ईमान के लिए शहादत और बलिदान की संस्कृति को फैलाना

इमाम और उनके साथियों की शहादत ने मुसलमानों के बीच न्याय और ईमान के लिए समर्पण की भावना को मजबूती से स्थापित किया।

  1. उम्मत और पैग़म्बर के अहलुलबैत (अ.) के बीच गहरा भावनात्मक और बोधगम्य संबंध मजबूत करना

यह घटना लोगों को पैग़म्बर के परिवार से और अधिक गहरे भावनात्मक और धार्मिक रूप से जोड़ती है और उनकी प्रेम व वफादारी को धर्म के सबसे सही मार्ग के रूप में बढ़ावा देती है।

  1. इस्लामी समाज में राजनीतिक जागरूकता और सामाजिक जिम्मेदारी को बढ़ावा देना
  2. इस्लामी समाज में राजनीतिक जागरूकता और सामाजिक ज़िम्मेदारी का बढ़ना

इमाम हुसैन (अ.) के क़ियाम के प्रकाशमान संदेशों ने आने वाले वर्षों में बहुत से लोगों को निश्चेतना की नींद से जागने पर मजबूर किया।

अंतिम शब्द:

अगर हम इमाम हुसैन (अ.) के उद्देश्य को स्पष्ट करना चाहें, तो कहना होगा कि उनका मक़सद धर्म के एक महान फर्ज़ को पूरा करना था, जिसे किसी ने उनसे पहले यहाँ तक कि पैग़म्बर (स.) ने भी नहीं किया था। न तो पैग़म्बर ने यह फर्ज़ निभाया, न अमीरुल-मोमिनीन ने, न इमाम हसन मुजतबा ने, क्योंकि उनके समय इस तरह का संकट मौजूद नहीं था। लेकिन यह महान फर्ज़ था इस्लामी समाज को सही, तोहिदी अर्थात एकेश्वरवादी और क़ुरानी मार्ग पर वापस लाना। यह एक ऐसा फ़र्ज़ है जो मुसलमानों पर हमेशा का फ़र्ज़ है।

 

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