हज़रत मासूमा का स्वर्गवास

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हज़रत मासूमा का जन्म वर्ष 173 हिजरी क़मरी के ज़ीक़ादा महीने में हुआ और वर्ष 201 हिजरी क़मरी के रबीउस्सानी महीनें उन्होंने इस नश्वर संसार से विदा ली। पवित्रता और आध्यात्मिक महानता की दृष्टि से उनका स्थान बहुत ऊंचा है।

संयम, सहनशीलता और दृढ़ता उनके व्यक्तित्व की स्पष्ट विशेषताएं हैं। रबीउस्सानी महीने की दस तारीख़ को हज़रत मासूमा का स्वर्गवास हुआ और पूरा इस्लामी जगत शोक में डूब गया। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिनों में क़ुम नगर में क़दम रखकर इस शहर को हमेशा के लिए सुशोभित कर दिया और इसी नगर में उनका निधन हो गया। हम भी अपने दिलों को इस महान हस्ती की ओर उन्मुख करते हुए उन पर सलाम भेजते हैं। सलाम हो आप पर हे पवित्र, प्रशंसनीय, सदाचारी, बुद्धिमान और ईश्वर की पसंदीदा हस्ती।

हज़रत मासूमा का पालन पोषण एसे ख़ानदान में हुआ जो ज्ञान, सदाचार और शिष्टाचारिक विशेषताओं की दृष्टि से अद्वितीय था। उनके पिता सातवें इमाम हज़रत मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम थे और उनकी माता हज़रत नजमा ख़ातून थीं जिन्हें पहली संतान अर्थात हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के जन्म के बाद ताहेरा अर्थात पवित्र की उपाधि मिली थी। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की संतानों में हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के बाद हज़रत मासूमा ज्ञान और शिष्टाचार की दृष्टि से सबसे बड़े दर्जे पर थीं। यह बात ईश्वरीय दूतों द्वारा उनकी प्रशंसा से पूरी तरह स्पष्ट है।

हज़रत मासूमा को करीमए अहले बैत अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के ख़ानदान की महान दाता की उपाधि मिली जो पैग़म्बरे इस्लाम के वंशजों में से किसी भी महिला को नहीं मिली। उनकी एक अन्य उपाधि थी सिद्दीक़ा अर्थात बड़ी सच्ची महिला। उनकी एक अन्य उपाधि मुहद्देसा अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम तथा अन्य ईश्वरीय दूतों के कथनों की ज्ञानी महिला थी। अपने भाई हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की इमामत के काल में हज़रत मासूमा हदीसें बयान करके आम लोगों को ईश्वरीय तथ्यों से अवगत करवाती थीं। वह अपने पिता और पूर्वजों की हदीसें और कथन बयान करती थीं जो शीया और सुन्नी धर्मगुरुओं के लिए ज्ञान का आधार बनीं। हज़रत मासूमा द्वारा बयान किए गए कथनों में चूंकि किसी शक और संदेह की गुंजाइश नहीं होती थी अतः उन्हें सभी लोग स्वीकार करते थे। उदाहरण स्वरूप हज़रत मासूमा ने एक हदीस बयान की कि पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि जान लो कि जो भी पैग़म्बर के वंशजों की मुहब्बत में मरे व शहीद है।

इतिहासकारों ने लिखा है कि एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के श्रद्धालु फ़िक़ह तथा अन्य विषयों के बारे में अपने कुछ सवाल लेकर मदीना नगर पहुंचे। वह पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से अपने सवालों के जवाब प्राप्त करना चाहते थे। जब यह लोग हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के घर पहुंचे तो पता चला कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम सफ़र पर गए हुए हैं। उन्होंने अपने सवाल लिखित रूप में इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के घर दे दिया और कहा कि जब अगली बार वह मदीना आएंगे तो अपने सवालों के उत्तर ले लेंगे। कुछ दिन बाद वह मदीने से रवाना होने से पहले इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के घर विदा लेने गए तो उन्हें पता चला कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की सुपुत्री हज़रत मासूमा ने सारे सवालों के जवाब लिखकर तैयार कर दिए हैं। अपने सवालों के जवाब पाकर वह सब बहुत ख़ुश हुए। जब वह लोग मदीना से लौट रहे थे तो रास्ते में उन्हें इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम मिले। उन लोगों ने पूरी बात इमाम को बताई। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने सवाल और उनके जवाब देखे तो कहा कि सारे जवाब सही हैं और फिर भावुक होकर कहा कि इस बेटी पर बाप क़ुरबान जाए।

 

वैसे तो नबी और इमाम की एक विशेषता मासूम अर्थात हर प्रकार के गुनाह और ग़लती से सुरक्षित होना है लेकिन कुछ ऐसे लोग भी इतिहास में गुज़रे हैं जो इमाम और नबी न होने क बावजूद अपनी तपस्या और पवित्रता से बहुत महान स्थान पर पहुंचे और उन्होंने ख़ुद को हर प्रकार की ग़लती और भूल से सुरक्षित बना लिया। शिष्टाचारिक बुराइयां उनसे कोसों दूर रहीं। हज़रत मासूमा भी ऐसी ही हस्तियों में से एक थीं। उनका नाम फ़ातेमा कुबरा था लेकिन वह इतने महान आध्यात्मिक स्थान पर पहुंच गईं कि उनके भाई हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम ने उन्हें मासूमा की उपाधि दी। उन्होंने कहा कि जिनके भी क़ुम में मासूमा की क़ब्र की ज़ियारत की उसने मानो मेरी ज़ियारत की है। इससे पहले हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के दादा हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम  भी जब क़ुम और इस शहर की महानता के बारे में बात होती तो हज़रत मासूमा का उल्लेख करते हुए कहते कि क़ुम छोटा कूफ़ा है। स्वर्ग के आठ दरवाज़े हैं और इनमें तीन दरवाज़ें क़ुम की ओर खुलते हैं। मेरी औलाद में से एक महिला वहां दफ़्न होगी जिसका नाम फ़ातेमा होगा और जिसकी सिफ़ारिश से शीया स्वर्ग में जाएंगे।

हज़रत मासूमा ने अपने भाई हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम की ज़ियारत के लिए मदीने से जो यात्रा की वह उनकी राजनैतिक और सामाजिक कार्यशैली को समझने के लिए काफ़ी है। जब अब्बासी ख़लीफ़ा मामून ने हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम को अपना उत्तराधिकारी बनने पर मजबूर दिया और उन्हें मदीना छोड़कर मर्व जाना पड़ा तो हज़रत मासूमा ने अपने भाइयों और श्रद्धालुओं के साथ मर्व जाने का इरादा किया ताकि अब्बासी शासकों के असली चेहरे को बेनक़ाब करें और समाज के लोगों को असली स्थिति से अवगत करवाएं। इस यात्रा में हज़रत मासूमा ने धर्म की शिक्षाओं का प्रचार किया। उन्हेंने इमामत के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों को बयान किया और अब्बासी शासकों की हक़ीक़त आम लोगों के सामने खोल कर रख दी। जब हज़रत मासूमा मदीने से निकलीं और रास्ते में अब्बासी शासक के कारिंदों ने उनके कारवां पर हमला किया और झड़पें हुईं तो सबको मालूम हो गया कि मामून ने हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम को अपना उत्तराधिकारी केवल जनता को धोखा देने और अपनी छवि सुधारने के लिए बनाया है। जब हज़रत मासूमा का कारवां सावे शहर के क़रीब पर पहुंचा और उस पर अब्बासी शासक के कारिंदों का हमला हुआ तो सबको मालूम हो गया कि अब्बासी ख़लीफ़ा पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों का दुशमन है। अब्बासी ख़लीफ़ा के कारिंदों ने हज़रत मासूमा के कारवां का रास्ता रोक लिया और उनके काफ़िले में शामिल कई लोगों को शहीद कर दिया। यह घटना इतनी भयानक थी कि इसके  कारण हज़रत मासूमा गंभीर रूप से बीमार हो गईं। जब हज़रत मासूमा को यह यक़ीन हो गया कि वह मर्व की ओर अपनी यात्रा जारी नहीं रख सकेंगी तो उन्होंने अपने कारवां के लोगों से कहा कि क़ुम की ओर बढ़ें। उन्होंने इसकी वजह भी बयान की। हज़रत मासूमा ने कहा कि मुझे क़ुम ले चलो इस लिए कि मैंने अपने पिता से सुना है कि यह शहर पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के श्रद्धालुओं का है। इस निर्णय से भी हज़रत मासूमा की दूरदर्शिता और ज्ञान पूर्णतः स्पष्ट है।

 

 जब क़ुम के लोगों को यह पता चला कि हज़रत मासूमा इस शहर की ओर आ रही हैं तो पूरा शहर उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ा। सअद ख़ानदान के मूसा इब्ने ख़ज़रज सबसे पहले हज़रत मासूमा के पास जा पहुंचे और हज़रत मासूमा के ऊंट की मेहार अपने हाथ में ले ली और उन्हें अपने घर लाए। लेकिन हज़रत मासूमा सावे की घटना से इतनी आहत थीं कि वह बीमारी से उबर नहीं सकीं और 16 या 17 दिन बाद उनका निधन हो गया।

हज़रत मासूमा ने क़ुम में 16 या 17 दिन मूसा इब्ने ख़ज़रज के घर में एक उपासना स्थल में व्यतीत किए जो आ भी बाक़ी है। इस समय वहां बड़ी वैभवशाली इमारत बनी हुई है जिसमें अनेक कमरे है। और वहां धार्मिक शिक्षार्थी रहते हैं। इस इमारत से लगी हुई एक मस्जिद है।

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