आसमानी किताब क़ुरआन में बार-बार माता-पिता के सम्मान पर ज़ोर दिया गया है, इस विषय का महत्व इतना अधिक है कि ख़ुदा ने इसे एक महत्वपूर्ण सिद्धांत "तौहीद" (एकेश्वरवाद) के साथ रखा और बयान किया है।
महान ईश्वर पवित्र क़ुरआन में कहता हैः और तुम्हारे पालनहार ने आदेश दिया है कि तुम केवल उसी की उपासना करो और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो। यदि उनमें से एक या दोनों तुम्हारे पास वृद्धावस्था को पहुँच जाएँ, तो उन्हें 'उफ़' तक न कहो और न ही उन्हें झिड़को, बल्कि उनसे आदरपूर्ण और नम्रता से बात करो।"
(सूरे इस्रा, आयत 23)
माता-पिता के साथ भलाई और उपकार करना, नबियों अर्थात ईश्दूतों की प्रमुख विशेषताओं में से एक है। इसका तौहीद अर्थात एकेश्वरवाद और अल्लाह की आज्ञापालन के साथ उल्लेख इस बात का प्रमाण है कि यह न केवल एक मानवीय और बौद्धिक कर्तव्य है, बल्कि एक धार्मिक दायित्व भी है।
कभी-कभी हम यह सोचते हैं कि माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना केवल हमारी ओर से एक कृपा है जबकि वास्तविकता यह है कि यह कर्तव्य निभाना हमारी उम्र को लंबा करता है और यह भी कारण बनता है कि हमारे बच्चे भी भविष्य में हमारे साथ भलाई करें।
माता-पिता का सम्मान हमारे भीतर विनम्रता और कृतज्ञता की भावना को मज़बूत करता है, क्योंकि वही हमारे जीवन के पहले शिक्षक होते हैं। उनके साथ सहानुभूति और प्रेम न केवल आंतरिक शांति लाते हैं बल्कि आत्मिक प्रगति का भी मार्ग प्रशस्त करते हैं, क्योंकि विशेष रूप से वृद्धावस्था में माता-पिता की देखभाल करना, धैर्य और सहनशीलता का एक अभ्यास है जो हमारे आध्यात्मिक विकास और नैतिक परिपक्वता में सहायता करता है। साथ ही, उनका आशीर्वाद और संतोष हमारे जीवन में आध्यात्मिक सफलता और बरकत को बढ़ाता है।
इसलिए, माता-पिता के साथ भलाई करना कोई बोझिल कर्तव्य नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, आत्मा की उन्नति और जीवन के गहरे अर्थ को समझने का एक सुनहरा अवसर है।