अहलेबै़त अलैहिमुस्सलाम ने ज़ालिम की मदद करने से रोका है

Rate this item
(0 votes)
अहलेबै़त अलैहिमुस्सलाम ने ज़ालिम की मदद करने से रोका है

मौलाना सैयद अली हाशिम आब्दी ने फरमाया,जिस तरह ज़ुल्म करना बुरा है उसी तरह ज़ालिम की मदद करना भी बुरा है बल्कि मासूमीन अलैहिमुस्सलाम की हदीसों की रोशनी में ज़ालिम की मदद करने वाला और उनके ज़ुल्म पर खामोश रहने वाला, ज़ालिम का साथी है और उनके ज़ुल्म में शरीक है।

हज़रत इमाम ज़ैनुलआबिदीन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया,ख़बरदार! गुनहगारों की हमनशीनी और ज़ालिमों की मदद से बचो।(अल-वसाइल, किताबुत्तिजारह, अबवाब मा युक्तसब, बाब 42, हदीस 1)

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया,जो शख्स ज़ुल्म करता है, और जो उसकी मदद करता है, और जो उस ज़ुल्म पर राज़ी और खुश है — तीनों उस ज़ुल्म में बराबर के शरीक हैं।” (अल-वसाइल, बाब 42, मिन अबवाब मा युक्तसब बिहि, हदीस 2)

जनाब अबू बसीर से र'वायत है कि मैंने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से पूछा कि ज़ालिम हुक्मरानों (यानि बनी उमय्या या आम तौर पर ज़ालिमों) के लिए काम करने का क्या हुक्म है? तो आपने फ़रमाया: नहीं, ऐ अबू मुहम्मद!जो भी उनकी दुनिया (यानि हुकूमत या दौलत) से ज़रा सा भी फायदा उठाए, चाहे वह कलम की स्याही या नोक के बराबर ही क्यों न हो, तो वह अपने दीन में भी उतना ही नुक़सान उठाएगा और उसका दीन उसी क़द्र नाक़िस हो जाएगा।(अल-वसाइल, बाब 42, मिन अबवाब मा युक्तसब बिहि, हदीस 2)

इसी तरह मरहूम कुलैनी र०अ० ने मुत्तसिल सनद के साथ जहम बिन हुमैद से र'वायत नक़्ल की है कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने मुझसे पूछा: “क्या तुम उन (ज़ालिम हुक्मरानों) के सरकारी या दफ़्तरी कामों में शरीक नहीं होते?” मैंने अर्ज़ किया,नहीं।तो इमाम ने पूछा: “क्यों?” मैंने अर्ज़ किया: “अपने दीन की हिफ़ाज़त के लिए।

इमाम ने फ़रमाया: “क्या तुमने इस फैसले पर पुख़्ता इरादा कर लिया है?” मैंने कहा: “जी हां।”तो आपने फ़रमाया: “अब तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए महफ़ूज़ और सलामत हो गया।”
(अल-वसाइल, किताबुत्तेजारह, बाब 42, मिन अबवाब मा युक्तसब बिहि, हदीस 7)

इसी तरह मरहूम कुलैनी र०अ० ने मुत्तसिल सनद के साथ सुलेमान बिन दाऊद मुनक़री से और वह फ़ुज़ैल बिन अय्याज़ से र'वायत करते हैं कि मैंने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से कुछ रोज़ी कमाने वाले पेशों के बारे में पूछा,तो इमाम ने मुझे उनसे मना किया और फ़रमाया: “ऐ फ़ुज़ैल! ख़ुदा की क़सम, इन लोगों (यानि बनी उमय्या या आम तौर पर ग़ासिब ख़ुलफ़ा या उनके साथ तआवुन करने वाले उलमा) का नुक़सान इस उम्मत के लिए तुर्क और दैलम (काफ़िरों और मुशरिकों) के नुक़सान से भी ज़्यादा सख़्त है।मैंने पूछा: “साहिबे-वरअ (परेज़गार व्यक्ति) कौन है?

इमाम ने फ़रमाया: “वह शख्स जो ख़ुदा की हराम की हुई चीज़ों से और उन लोगों (ज़ालिमों) से ताल्लुक़ रखने से परहेज़ करे।

और आखिर में फ़रमाया: “जो शख्स ज़ालिमों की बक़ा (यानी उनके ज़िंदा रहने या हुकूमत बाक़ी रहना) चाहे, तो वह दरअसल यह चाहता है कि ख़ुदा की नाफ़रमानी की जाए।”
(अल-वसाइल, बाब 37, मिन अबवाब अल-अम्र वन्नही, हदीस 6)

मरहूम शेख़ त़ूसी र०अ० ने “तहज़ीब” में मुत्तसिल सनद से याक़ूब बिन यज़ीद से, जो सब्त वलीद बिन सबीह काहिली से र'वायत करते हैं, नक़्ल किया है कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया: “जो शख्स अपना नाम बनी अब्बास के दीवान में दर्ज करवाए यानी उनके मुलाज़िमों या तनख़्वाह लेने वालों की फेहरिस्त में शामिल हो  क़यामत के दिन उसे सूअर की सूरत में उठाया जाएगा।(अल-वसाइल, किताबुत-तिजारह, बाब 42)

इसी तरह शेख़ त़ूसी र०अ० ने “तहज़ीब” में मोअस्सक़ सनद के साथ यूनुस बिन याक़ूब से र'वायत नक़्ल की है कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने मुझ से फ़रमाया: “उन (यानि बनी अब्बास के हुक्मरानों) की किसी मस्जिद की तामीर या इमारत में मदद न करो।(अल-वसाइल, बाब 42, हदीस 8)

इसी तरह मरहूम कुलैनी र०अ० ने भरोसेमंद सनद के साथ वलीद बिन सबीह से र'वायत नक़्ल की है कि उन्होंने कहा: मैंने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में हाज़िरी दी — और उस वक़्त ज़ुरारा को देखा जो आप के पास से वापस जा रहे थे।

फिर इमाम ने मुझसे फ़रमाया: “ऐ वलीद! क्या तुम ज़ुरारा पर हैरान नहीं होते? उन्होंने मुझसे पूछा कि मौजूदा हुकूमती कामों में शरीक होना कैसा है? क्या वह यह चाहते हैं कि मैं मनफी जवाब दूं (मना करूं) और फिर उसे दूसरों तक पहुँचाया जाए?

फिर इमाम ने फ़रमाया: “ऐ वलीद! कब और किस वक्त शियों ने उनके मामलों में शरीक होने के बारे में सवाल किया था?”  (यानी इसका हराम होना इतना ज़ाहिर था कि सवाल की ज़रूरत ही नहीं थी) और आप ने फ़रमाया कि पहले शिया लोग सिर्फ यह सवाल करते थे। क्या उनका खाना खाया जा सकता है? क्या उनका पानी पिया जा सकता है? और क्या उनके दरख़्तों के साए या इमारतों से फ़ायदा उठाया जा सकता है?
(अल-वसाइल, किताबुत्तेजारह, अबवाब मा युक्तसब बिहि, बाब 45, हदीस 1)

मरहूम शेख़ कशी र०अ० ने भी इस हदीस को अपनी किताब रिज़ाल कशी में नक़्ल किया है। (रिज़ाल कशी, पेज 152, हदीस 247)

इसी तरह मरहूम शेख़ त़ूसी र०अ० ने तहज़ीब में एक सनद के साथ जो ज़ाहिर तौर पर मोतबर (भरोसेमंद) और मोअस्सक़ है अम्मार साबाती से र'वायत नक़्ल की कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से पूछा गया: “हुकूमती दफ़्तरों में शरीक होना या नौकरी करना कैसा है?”तो इमाम ने इजाज़त नहीं दी और फ़रमाया नहीं सिवाए इसके कि वह शख़्स बहुत सख़्त तंगी में हो, जिसके पास खाने, पीने और कपड़े के लिए कुछ न हो और कमाई का कोई ज़रिया न हो।
फिर फ़रमाया,अगर वह उनके दफ़्तरों में मुलाज़िम हो जाए और वहाँ से कोई माल हासिल करे, तो उसका ख़ुम्स अहलेबै़त अलैहिमुस्सलाम को दे।(अल-वसाइल, बाब 48, मिन अबवाब मा युक्तसब बिहि, हदीस 3)

इसी तरह जनाब अबुन्नज़र मुहम्मद बिन मसऊद अय्याशी ने अपनी तफ़्सीर में सुलेमान जाफ़री से र'वायत नक़्ल की है कि उन्होंने कहा: “मैंने इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम से अर्ज़ किया: ‘बादशाह के कामों (हुकूमती उमूर) के बारे में आपका क्या हुक्म है?

तो इमाम ने फ़रमाया:ऐ सुलेमान! उनके कामों में शरीक होना, उनकी मदद करना और उनकी ख़्वाहिशों की राह में कोशिश करना — कुफ्र के बराबर है, और जान-बूझकर उनकी तरफ देखना उन कबीरह (बड़े) गुनाहों में से है जो जहन्नम का मुस्तहक़ (हक़दार) बनाते हैं।(अल-वसाइल, बाब 45, मिन अबवाब मा युक्तसब बिहि, हदीस 12)

इसी तरह मरहूम शेख़ त़ूसी र०अ० ने आमाली में मुत्तसिल सनद के साथ अबू क़तादा क़ुम्मी से र'वायत नक़्ल की है कि उन्होंने कहा,मैं इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के पास था कि ज़ियाद क़ुंदी इमाम की ख़िदमत में हाज़िर हुए।
इमाम ने उनसे फ़रमाया: ‘ऐ ज़ियाद! क्या तुम हुकूमत के कारिंदे हो गए हो?

ज़ियाद ने अर्ज़ किया: ‘जी हां, फ़र्ज़ंदे रसूल! मेरे पास इज़्ज़त और मर्तबा तो है, मगर माल व दौलत नहीं। और मैं जो कुछ सरकारी कामों से हासिल करता हूं, उसे अपने भाइयों में बांट देता हूं।’
इमाम ने फ़रमाया: ‘ऐ ज़ियाद! अगर तुम ऐसा करते हो और तुम्हारा नफ़्स तुम्हें लोगों पर ज़ुल्म करने पर आमादा करे! कि जब तुम्हारे पास ताक़त हो — तो अल्लाह की ताक़त और उसके अज़ाब को याद रखो। और याद रखो कि जो कुछ तुमने लोगों से हासिल किया, वह तुमसे चला जाएगा, और जो बोझ तुम ने अपने ऊपर लिया है, वह तुम्हारे साथ रहेगा।(अमाली शेख़ त़ूसी र०अ०, मजलिस 11, हदीस 49, सफ़ा 303)

मरहूम कुलैनी र०अ० ने मुत्तसिल सनद के साथ ज़ियाद बिन अबी सलमा से र'वायत नक़्ल की कि उन्होंने कहा,मैं इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। हज़रत ने मुझसे फ़रमाया: ‘ऐ ज़ियाद! क्या तुम वाक़ई हुकूमत में मुलाज़िम हो गए हो?’
मैंने अर्ज़ किया: ‘जी हां।
इमाम ने पूछा: ‘क्यों?

मैंने कहा: ‘क्योंकि मेरे पास इज़्ज़त व रुतबा तो है, लेकिन कोई ज़रिया नहीं, कुछ लोगों का खर्च मेरे ज़िम्मे हैं और मैं माली तौर पर परेशान हूं।’
इमाम ने फ़रमाया: ‘ऐ ज़ियाद! मैं चाहूं तो ऊँचे पहाड़ से गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो जाऊं, लेकिन यह ज़्यादा पसंद करूंगा कि मैं उनके दरबार में नौकरी करूं, उनके यहाँ कोई ओहदा लूं या उनके किसी दफ़्तर में कदम रखूं सिवाए इसके कि उस नौकरी से किसी मोमिन के लिए आसानी पैदा हो, या उसे क़ैद से रिहा कराया जाए, या उसका क़र्ज़ अदा किया जाए।

फिर इमाम ने फ़रमाया: ‘ऐ ज़ियाद! सबसे हल्का अज़ाब जो अल्लाह किसी ज़ालिम हुकूमती मुलाज़िम पर डालेगा, वह यह है कि क़यामत के दिन उसके लिए आग के ख़ैमे क़ायम किए जाएंगे जब तक हिसाब-किताब पूरा न हो जाए।’
इमाम ने आगे फ़रमाया: ‘ऐ ज़ियाद! अगर तुमने कोई सरकारी काम क़ुबूल किया है, तो अपने दीनी भाइयों के साथ एहसान और नेकी करो ताकि यह नेक काम उस बुरे अमल के असर को कम कर दे।’

और आख़िर में फ़रमाया,ऐ ज़ियाद! जो शख़्स उनके काम में शरीक हो और फिर अपने (शिया) और ग़ैर को एक जैसा समझे, तो उससे कहो: तुमने अहलेबै़त अलैहिमुस्सलाम की विलायत को अपने ऊपर बंद कर लिया है और तुम बड़े झूठे हो।(अल-काफ़ी, जिल्द 5, किताबुल मईशा, बाब 31, हदीस 1)

मरहूम कुलैनी र०अ० ने काफ़ी में हसन बिन हुसैन अंबारी से र'वायत नक़्ल की कि उन्होंने कहा: “मैंने इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम से 14 साल तक सरकारी ज़िम्मेदारी स्वीकार करने के लिए इजाज़त मांगी — यहाँ तक कि आख़िरी ख़त में मैंने लिखा: ‘मुझे डर है कि मेरी जान को ख़तरा हो जाएगा और लोग कहते हैं कि मैंने सरकारी नौकरी से किनारा किया क्योंकि मैं राफ़ज़ी हूं।’” (यानी मुझे राफ़ज़ी और शिया कहकर निशाना बनाया जा रहा है और जान को ख़तरा है।)

तो इमाम ने जवाब में लिखा,मैंने तुम्हारे ख़त से समझ लिया कि तुम जान के डर में हो।
अगर तुम्हें यक़ीन है कि तुम जिस ओहदे पर मुक़र्रर किए जाओगे, वहाँ तुम रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि के अहकाम के मुताबिक़ अमल करोगे, अपने क़रीब के मददगारों और कातिबों को अपनी क़ौम यानी शियों में से चुनोगे, और जो माल तुम्हें हासिल हो, उसे फक़ीरों और मोमिनीन में बांटोगे और अपने लिए सिर्फ़ उतना रखोगे जितना उन्हें देते हो — तो इस सूरत में वह ओहदा क़ुबूल करना जायेज़ है। और अगर यह शर्तें पूरी न हों तो तुम्हें वह ज़िम्मेदारी क़ुबूल करने की इजाज़त नहीं है।”
(अल-काफ़ी, किताबुल मआश, बाब 31, हदीस 4)

मरहूम कुलैनी र०अ० ने मोतबर सनद से मुहम्मद बिन मुस्लिम र०अ० से र'वायत नक़्ल की कि उन्होंने कहा: “मैं मदीना में इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम के घर गया और दरवाज़े के पास बैठा था। आपकी नज़र लोगों पर पड़ी जो क़तार दर क़तार आपके घर के सामने से गुजर रहे थे।
आपने अपने ख़ादिम से पूछा: ‘क्या मदीना में कोई नया वाक़ेआ हुआ है?’ उसने अर्ज़ किया कि आप पर क़ुर्बान, शहर में नया गवर्नर आया है और लोग उसे मुबारकबाद देने जा रहे हैं।

तो इमाम ने फ़रमाया,वह शख़्स जिसे लोग मुबारकबाद दे रहे हैं — यक़ीनन वह आग के दरवाज़ों में से एक दरवाज़ा है।(अल-काफ़ी, किताबुल मआश, बाब 30, हदीस 6)

इसी तरह मरहूम कुलैनी र०अ० ने यहया बिन इब्राहीम बिन मुहाजिर से मुत्तसिल सनद के साथ र'वायत की कि उन्होंने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से अर्ज़ किया: “फ़लां-फ़लां-फ़लां आपको सलाम कहते हैं।इमाम ने फ़रमाया: “व अलेहिमुस्सलाम।मैंने कहा: “वह आपसे दुआ की दरख़्वास्त करते हैं।

आपने फ़रमाया: “क्या हुआ, उन पर क्या मुसीबत आई?मैंने कहा: “अबू जाफ़र मनसूर (अब्बासी बादशाह) ने उन्हें क़ैद कर लिया है।” इमाम ने फ़रमाया: “किस वजह से? क्या मैंने उन्हें मना नहीं किया था? क्या मैंने उन्हें रोका नहीं था? वह आग हैं, वह आग हैं, वह आग हैं!”
(अल-काफ़ी, जिल्द 5, किताबुल मआश, बाब 30, हदीस 8)

मरहूम कुलैनी र०अ० ने मुत्तसिल सनद के साथ अबू बसीर से र'वायत नक़्ल की कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के सामने एक शख़्स का ज़िक्र हुआ जो शियों में से था और हुकूमत में मुलाज़िम हो गया था।

इमाम ने फ़रमाया: “उस शख़्स का अपने (दीनी) भाइयों से क्या रिश्ता है?
मैंने कहा: “उसमें कोई भलाई नहीं।” तो इमाम ने फ़रमाया: “उफ़! वह ऐसा काम कर रहा है जो उसके लिए मुनासिब नहीं और अपने भाइयों के साथ कोई एहसान या नेकी भी नहीं करता।”
(अल-काफ़ी, जिल्द 5, किताबुल मआश, बाब 31, हदीस 2)

मरहूम कुलैनी र०अ० ने मोतबर सनद से अली बिन अबी हमज़ह से र'वायत की: “मेरा एक दोस्त था जो बनी उमय्या के सरकारी कातिबों में से था। उसने मुझसे कहा: ‘इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से मेरे लिए इजाज़त लो।’ मैंने इजाज़त मांगी और हज़रत ने इजाज़त दे दी। जब वह हाज़िर हुआ तो कहा,मैं आप पर क़ुर्बान! मैं उनके दीवान में था, उनसे बहुत माल लिया और उनके कामों में बहुत मशगूल रहा।’

इमाम ने फ़रमाया,अगर यह न होता कि बनी उमय्या के पास लोग होते जो उनके लिए लिखते, टैक्स वसूल करते, उनके लिए लड़ते और उनकी जमाअत में शरीक होते, तो वह हमारा हक़ नहीं छीन सकते थे। अगर लोग उन्हें छोड़ देते, तो उनके पास कुछ भी न रहता।

फिर वह नौजवान बोला,मैं आप पर क़ुर्बान! अब मेरे लिए क्या रास्ता है?’ इमाम ने फ़रमाया: ‘अगर मैं हुक्म दूं तो तुम करोगे?
उसने कहा: ‘जी हां।’फिर इमाम ने उसे हिदायत दी और कहा: ‘अगर तुम इन बातों पर अमल करोगे, तो मैं तुम्हारे लिए जन्नत की ज़मानत लेता हूं।(अल-काफ़ी, जिल्द 5, किताबुल मआश, बाब 3, हदीस 4, सफ़ा 106)

मरहूम कुलैनी र०अ० ने काफ़ी में अली बिन यक़्तीन से र'वायत नक़्ल की कि उन्होंने कहा:“मैंने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से अर्ज़ किया: आपका क्या हुक्म है उन लोगों के बारे में जो हुकूमत के कामों में शरीक होते हैं? आपने फ़रमाया,अगर शरीक होना मजबूरी हो, तो शियों के माल पर हाथ डालने से परहेज़ करो।
रावी (इब्राहीम बिन अबी महमूद) कहते हैं: अली बिन यक़्तीन ने मुझे बताया कि “मैंने शियों से टैक्स ज़ाहिरी तौर पर लिया, लेकिन छुप कर उन्हें वापस दे दिया।”
अल-काफ़ी, जिल्द 5, किताबुल मआश, बाब 31, हदीस 3)

 

Read 4 times