पुत्रि को अपमान और अवैद बेटे का सम्मान

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पुत्रि को अपमान और अवैद बेटे का सम्मान

 इस्लाम से पहले अरब समाज में औरतों का कोई इख़्तियार, इज़्ज़त या हक़ नहीं था। वे विरासत नहीं पाती थीं, तलाक़ का हक़ उनके पास नहीं था और मर्दों को बेहद तादाद में बीवियाँ रखने की इजाज़त थी। बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न किया जाता था और लड़की की पैदाइश को बाइस-ए-शर्म समझा जाता था। औरत की ज़िन्दगी और उसकी क़द्र-ओ-क़ीमत मुकम्मल तौर पर ख़ानदान और मर्दों पर मुनहसिर थी। कभी-कभी ज़िना से पैदा होने वाले बच्चे भी झगड़ों और तनाज़आत का सबब बनते थे।

तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयात 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दीगर क़ौमों व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख्सियत और समाजी मक़ाम” पर चर्चा की है। नीचे इसी सिलसिले का छठा हिस्सा पेश किया जा रहा है:

अरब में औरत की हैसियत और उस दौर का माहौल

(वही माहौल जिसमें क़ुरआन नाज़िल हुआ)

अरब बहुत पहले से जज़ीरा-ए-अरब के ख़ुश्क (सूखे), बे-आब-ओ-गयाह और सख़्त गर्म इलाक़ों में आबाद थे। उनमें से ज़्यादा लोग रेगिस्तान में रहने वाले, ख़ाना-बदोश और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन से दूर थे। उनका गुजर-बसर ज़्यादातर लूटमार और अचानाक हमलों पर होती थी।

अरब एक तरफ़ उत्तर पूर्व में ईरान से, उत्तर में रोम से, दक्षिण में हबशा के शहरों से और पश्चिम में मिस्र और सूडान से जुड़े हुए थे।इसीलिए उनके रस्म-ओ-रिवाज में जहालत और वहशियाना आदतें ग़ालिब थीं, अगरचे यूनान, रोम, ईरान, मिस्र और हिन्दुस्तान की कुछ रवायतों का असर कभी-कभार उनमें भी देखा जा सकता था।

औरत की कोई हैसियत नहीं थी

 अरब औरत को न ज़िन्दगी में कोई इख़्तियार देते थे, न उसकी इज़्ज़त-ओ-हरमत के क़ायल थे। अगर एहतिराम होता भी था तो घराने और ख़ानदान के नाम का, औरत का ज़ाती नहीं। औरतें विरासत में हक़ नहीं रखती थीं। एक मर्द जितनी चाहे बीवियाँ रख सकता था — इस पर कोई हद नहीं थी, जैसे यहूदियों में भी यह रिवाज मौजूब था। तलाक़ का इख़्तियार सिर्फ़ मर्द के पास था; औरत को इसमें कोई हक़ हासिल न था।

बेटी का पैदा होना नंग समझा जाता था

अरब बेटी की पैदाइश को मनहूस और बाइस-ए-शर्म समझते थे। क़ुरआन ने इसी रवैये को बयान करते हुए फ़रमाया: “यतवारा मिनल क़ौमे मिम्मा बुश्शिर बिहि” यानी बेटी की खुशख़बरी सुनकर बाप लोगों से छुपने लगता था।

इसके बरअक्स, बेटे की पैदाइश पर — चाहे वह हक़ीक़ी हो या गोद लिया हुआ — वे बेहद खुश होते थे। यहाँ तक कि वे उस बच्चे को भी अपना बेटा बना लेते थे जो उनके ज़िना के नतीजे में किसी शादीशुदा औरत से पैदा होता। कभी ऐसा होता कि ताक़तवर अफ़राद एक नाजायज़ बच्चे पर झगड़ते और हर शख़्स यह दावा करता कि यह बच्चा मेरा है।

बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न करना

अरब समाज में बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न करना भी आम था। इस ख़ौफ़नाक रस्म की इब्तिदा बनू तमीम क़बीले में हुई। वाक़िआ यह था कि उनकी नुमान बिन मुनज़िर से जंग हुई, जिसमें उनकी कई बेटियाँ असीर हो गईं। यह क़बाइली ग़ैरत बर्दाश्त न कर सके और ग़ुस्से में आकर फ़ैसला किया कि आइन्दा अपनी बेटियों को खुद क़त्ल करेंगे ताकि वे दुश्मन के हाथ न लगें।
यूँ यह ज़ालिमाना रस्म आहिस्ता-आहिस्ता दूसरे क़बीलों में भी फैल गई।

(जारी है…)

(स्रोत: तर्जुमा तफ़्सीर अल-मिज़ान, भाग 2, पेज 403)

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