प्राचीन ग्रीस और रोम में महिलाओं की लाचारी और उत्पीड़न की कहानी

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प्राचीन ग्रीस और रोम में महिलाओं की लाचारी और उत्पीड़न की कहानी

रोम और ग्रीस के पुराने समाजों में औरतों को मा तहत, बे‑इख़्तियार और अमूल्य प्राणी समझा जाता था। उनकी ज़िंदगी के तमाम मामलात चाहे इरादा हो, शादी, तलाक़ या माल‑ओ‑जायदाद सब मर्दों के इख़्तियार में थे। अगर औरत कोई नेकी करती तो उसका फ़ायदा मर्दों को मिलता, लेकिन अगर कोई ग़लती करती तो सज़ा खुद उसे भुगतनी पड़ती। परिवार और नस्ल की बक़ा सिर्फ़ बेटों से वाबस्ता समझी जाती थी।

तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयत 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दूसरे क़ौमों व मज़हबों में औरत के हक़, हैसियत और समाजी मुक़ाम” पर विस्तृत चर्चा की हैं। नीचे उनके बयानात के ख़ुलासे का पाँचवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है।

औरत रोमी समाज में एक तुफ़ैली वुजूद

रोमी समाज में औरत को एक बे‑इख़्तियार और पूरी तरह मर्दों के क़ब्ज़े में रहने वाला वजूद समझा जाता था।
उसकी ज़िंदगी पूरी तरह मर्दों के असर में थी, और उसके फैसलों और इरादों की बागडोर घर के सरबराह के हाथ में होती थी — चाहे वह उसका बाप हो, शौहर हो या कोई और बड़ा मर्द।
घर का सरबराह औरत के साथ जो चाहे कर सकता था — चाहे उसे बेच दे, किसी को तोहफ़े में दे दे या कुछ वक्त की लज़्ज़त के लिए किसी और मर्द को उधार दे दे।
कई बार ऐसा भी होता था कि मर्द अपने क़र्ज़ या माली ज़िम्मेदारी अदा करने के लिए अपनी बहन या बेटी को क़र्ज़‑ख़्वाह के हवाले कर देता था।

अगर औरत कोई नापसंद बात कर दे, तो उसे मारा‑पीटा जाता था, बल्कि कभी‑कभी क़त्ल भी कर दिया जाता था।
औरत की मिल्कियत पर भी मर्दों का हक़ होता था — यहां तक कि अगर औरत को महर में कुछ माल मिले या वह अपनी इजाज़त से कुछ कमाए, उस पर भी मर्द क़ाबिज़ होता।
औरत को विरासत का हक़ नहीं था, और उसकी शादी या तलाक़ के सारे फैसले मर्द ही करते थे।
इस तरह कहा जा सकता है कि रोमी समाज में औरत की ज़िंदगी पूरी तरह मर्दों की रहम‑ओ‑करम पर थी।

ग्रीस (यूनान) में औरत की हैसियत

ग्रीस के पुराने समाज में औरत की हालत लगभग वही थी जो रोमी औरत की थी।
वहाँ भी ख़ानदान और समाज की बुनियाद मर्दों पर रखी गई थी और औरत को सिर्फ़ एक कमज़ोर, मुताबिक़ और ज़रूरत‑मंद मख़्लूक समझा जाता था।
वह न अपनी मर्ज़ी से कुछ कर सकती थी, न किसी मामले में आज़ादी से फैसला ले सकती थी। हमेशा उसे किसी मर्द की सरपरस्ती में रहना पड़ता था।

मगर इन क़ौमों के क़ानूनों में एक अजीब तज़ाद पाया जाता था — अगर औरत को इख़्तियार और आज़ादी से महरूम समझा जाता था, तो उसकी ग़लती की ज़िम्मेदारी उसके सरपरस्त पर होनी चाहिए थी।
लेकिन ऐसा नहीं था।
अगर औरत कोई नेक काम करती तो उसका फ़ायदा मर्द को मिलता; लेकिन अगर कोई जुर्म करती, तो सज़ा उसी को मिलती।

यह तज़ाद बताता है कि इन क़ौमों के नज़दीक औरत को एक बात‑शऊर इंसान नहीं, बल्कि एक मुअज़्ज़र, ख़तरनाक और नापसंद वजूद समझा जाता था — जैसे कोई वायरस जो समाज की सेहत को बिगाड़ देता है।
हाँ, क्योंकि इंसानी नस्ल औरत के बग़ैर बाक़ी नहीं रह सकती थी, इसलिए उसे “ज़रूरी बुराई” समझकर बर्दाश्त किया जाता था।
वह औरत को ऐसे असैर की तरह देखते थे जैसे कोई शिकस्त‑ख़ुर्दा दुश्मन — जिसे ज़िंदा तो रखा जाए मगर हमेशा क़ैद में और मर्दों के मातहत।
अगर वह कोई ख़ता करे तो सख़्त सज़ा मिले, और अगर कोई नेक काम करे तो उसकी तारीफ़ का भी हक़दार न समझा जाए।

सिर्फ़ बेटे ही नस्ल के वारिस

यूनान और रोम के लोग यह मानते थे कि ख़ानदान की बक़ा सिर्फ़ मर्दों से है, और सिर्फ़ बेटे ही असल औलाद हैं।
अगर किसी शख़्स के यहाँ बेटा न होता, तो उसे “अजाक बंद” या “नस्ल‑मुंतक़े” यानी बिना वारिस वाला माना जाता।
इसी अकीदे की वजह से “फ़र्ज़ंद‑ख़्वानदगी” (तनब्बी) का रिवाज पैदा हुआ — जो मर्द बेटों से महरूम होते, वे किसी दूसरे के बेटे को अपना बेटा बना लेते ताकि उनकी नस्ल बाकी रहे।
यहाँ तक कि अगर किसी मर्द को यक़ीन हो जाता कि वह बाँझ है, तो वह अपने भाई या क़रीबी रिश्तेदार से कहता कि उसकी बीवी के साथ रिश्ते क़ायम करे ताकि पैदा होने वाला बच्चा उसका “क़ानूनी बेटा” समझा जाए और ख़ानदान बाक़ी रहे।

शादी और तलाक़ का निज़ाम

यूनान और रोम दोनों जगह “तअद्दुद‑ए‑अज़वाज” यानी एक से ज़्यादा शादियों की इजाज़त थी।
लेकिन यूनान में सिर्फ़ एक बीवी को क़ानूनी और रसमि हैसियत दी जाती थी, बाकी औरतें सिर्फ़ ग़ैर‑रसमि या सनवी हैसियत रखती थीं।

(जारी है…)

(स्रोत: तर्जुमा तफ़्सीर अल‑मीज़ान, भाग २, पेज ४००‑४०१)

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