
رضوی
हज का विशेष कार्यक्रम- 3
एक बार हज के समय बसरा शहर से लोगों का गुट हज के लिए मक्का गया।
जब वे लोग मक्का पहुंचे तो देखा कि मक्कावासियों को बहुत कठिनाइयों का सामना है। मक्के में पानी की बहुत कमी थी। मौसम बहुत गर्म था और पानी कमी की वजह से मक्कावासी बहुत परेशान थे। बसरा के कुछ लोग काबे के पास गए ताकि परिक्रमा करें। उन्होंने ईश्वर से बहुत गिड़गिड़ा के दुआ कि वह मक्कवासियों के लिए अपनी कृपा से वर्षा भेजे। उन्होंने बहुत दुआ की लेकिन उनकी दुआ क़ुबूल होने का कोई चिन्ह ज़ाहिर न हुआ। लोग बेबस थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। उस दौरान एक जवान काबे की ओर बढ़ा। उस जवान ने कहाः ईश्वर जिसे दोस्त रखता है उसकी दुआ स्वीकार करेगा। यह कहकर जवान काबे के पास गया। अपना माथा सजदे में रखा और ईश्वर से दुआ की।
वह जवान सजदे में ईश्वर से कह रहा थाः "हे मेरे स्वामी! तुम्हें मेरी मित्रता की क़सम इन लोगों की बारिश के पानी से प्यास बुझा दे।" अभी जवाब की दुआ पूरी भी न हुयी था कि मौसम बदलने लगा। बादल ज़ाहिर हुआ और बारिश होने लगी। बारिश इतनी मुसलाधार हो रही थी मानो मश्क से पानी बह रहा हो। जवान ने सजदे से सिर उठाया। एक व्यक्ति ने उस जवान से कहाः हे जवान! आपको कहां से पता चला कि ईश्वर आपको दोस्त रखता है, इसलिए आपकी दुआ क़ुबूल करेगा।
जवान ने कहाः चूंकि ईश्वर ने मुझे अपने दर्शन के लिए बुलाया था, इसलिए मैं समझ गया कि वह मुझे दोस्त रखता है। इसलिए मैंने ईश्वर से अपनी दोस्ती के अधिकार के तहत बारिश का निवेदन किया और मेहरबान ईश्वर ने मेरी दुआ सुन ली। यह कह कर जवान वहां से चला गया।
बसरावासियों में से एक व्यक्ति ने पूछाः हे मक्कावासियो! क्या इस जवान को पहचानते हो? लोगों ने कहाः ये पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र अली बिन हुसैन अलैहिस्सलाम हैं।
ईश्वर के घर के सच्चे दर्शनार्थी उसकी कृपा के पात्र होते हैं और ईश्वर उनकी दुआ क़ुबूल करता है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने फ़रमायाः "जो भी काबे को उसके अधिकार को समझते हुए देखे तो ईश्वर उसके पापों को क्षमा कर देता है और जीवन के ज़रूरी मामलों को हर देता है। जो कोई हज या उम्रा अर्थात ग़ैर अनिवार्य हज के लिए अपने घर से निकले, तो घर से निकलने के समय से लौटने तक ईश्वर उसके कर्म पत्र में दस लाख भलाई लिखता और 10 लाख बुराई को मिटा देता है।"
पैग़म्बरे इस्लाम आगे फ़रमाते हैः "और वह ईश्वर के संरक्षण में होगा। अगर इस सफ़र में मर जाए तो ईश्वर उसे स्वर्ग में भेजेगा। उसके पाप माफ़ कर दिए गए, उसकी दुआ क़ुबूल होती है तो उसकी दुआ को अहम समझो क्योंकि ईश्वर उसकी दुआ को रद्द नहीं करता और प्रलय के दिन ईश्वर उसे एक लाख लोगों की सिफ़ारिश करने की इजाज़त देगा।"
कार्यक्रम के इस भाग में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के जीवन के अंतिम हज के बारे में बताएंगे जो पूरा नहीं हो पाया था।
यह साठ हिजरी का समय था। यज़ीद बिन मोआविया सिंहासन पर बैठा था। उसके एक हाथ में शराब का जाम होता था तो दूसरे हाथ से वह अपने बंदर के सिर को सहलाता था जिसे वह अबाक़ैस के नाम से पुकारता था। यज़ीद बंदर को इतना पसंद करता था कि उसे रेशन के कपड़े पहनाता था। उसे दूसरों से ऊपर अपने बग़ल में बिठाता था। यज़ीद भी अपने बाप मुआविया की तरह बादशाही क़ायम करने की इच्छा रखता था लेकिन उसके विपरीत वह इस्लाम के आदेश का विदित रूप से भी पालन नहीं करता था। इस्लामी जगत के लोग इसलिए सीरिया या बग़दाद की हुकुमत का पालन करते थे कि उसे इस्लामी ख़िलाफ़त समझते थे लेकिन दूसरे के मुक़ाबले में यज़ीद का मामला अलग था। वह ज़ाहिरी तौर पर भी इस्लामी आदेशों का पालन करने के लिए तय्यार नहीं था और खुल्लम खुल्लम इस्लाम के आदेशों का उल्लंघन करता था।
मोआविया ने 15 रजब सन 60 हिजरी में दुनिया से जाने से पहले बहुत कोशिश की कि कूफ़ा और मदीना के लोगों से अपने बेटे यज़ीद के आज्ञापालन का वचन ले ले मगर इसमें उसे कामयाबी न मिल सकी। वह मदीना के कुलीन वर्ग के लोगों के पास गया और अपनी मीठी मीठी बातों से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर और अब्दुल्लाह बिन उमर से जिनका मदीनावासी सम्मान करते थे, यज़ीद की आज्ञापालन का प्रण लेने की कोशिश की लेकिन इन लोगों ने इंकार कर दिया। मोआविया ने अपनी मौत के वक़्त यज़ीद को नसीहत करते हुए कहाः "हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम के साथ नर्म रवैया अपनाना। वह पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं और मुसलमानों में उनका ऊंचा स्थान है।" मोआविया जानता था कि अगर यज़ीद ने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम से दुर्व्यवहार किया और अपने हाथ को उनके ख़ून से साना तो वह हुकूमत नहीं कर पाएगा और सत्ता अबू सुफ़ियान के परिवार से निकल जाएगी। यज़ीद खुल्लम खुल्ला पाप करता था, वह भोग विलास के माहौल में पला बढ़ा था और इन्हीं चीज़ों में वह मस्त रहता था। उसमें राजनीति की समझ न थी। वह जवानी व धन के नशे में चूर था।
मोआविया की मौत के बाद यज़ीद ने अपने पिता की नसीहत के विपरीत मदीना के गवर्नर को एक ख़त लिखा जिसमें उसने अपने पिता की मौत की सूचना दी और उसे आदेश दिया कि वह मदीना वासियों से उसके आज्ञापालन का प्रण ले जिसे बैअत कहते हैं। यज़ीद ने मदीना के राज्यपाल को लिखा कि हुसैन बिन अली से भी आज्ञापालन का प्रण लो अगर वह प्रण न लें तो उनका सिर क़लम करके मेरे पास भेज दो। मदीना के राज्यपाल ने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को अपने पास बुलवाया और उन्हें मोआविया की मौत की सूचना दी और उनसे कहा कि वह यज़ीद के आज्ञापालन का प्रण लें। इसके जवाब में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "हे शासक! हम पैग़म्बरे इस्लाम के ख़ानदान से हैं। वह ख़ानदान जिनके घर फ़रिश्तों के आने जाने का स्थान है। यज़ीद शराबी, क़ातिल और खुल्लम खुल्ला पाप करता है। खुल्लम खुल्ला अपराध करता है। मुझ जैसा उस जैसे का आज्ञापालन नहीं कर सकता।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मदीना छोड़ने कर मक्का जाने का फ़ैसला किया। वह 28 रजब सन 60 हिजरी को मदीने से मक्का चले गए।
कूफ़े के लोगों को इस बात का पता चल गया कि पैग़म्बरे इस्लाम के नाति हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम ने यज़ीद की आज्ञापालन का प्रण लेने से इंकार किया है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अनुयाइयों ने उन्हें बहुत से ख़त लिखे और उनसे कूफ़ा आने का निवेदन किया। कूफ़ेवासियों ने अपने ख़त में लिखाः "हमारी ओर आइये हमने आपकी मदद के लिए बहुत बड़ा लश्कर तय्यार कर रखा है।" 8 ज़िलहिज सन 60 हिजरी को उमर बिन साद एक बड़े लश्कर के साथ मक्के में दाख़िल हुआ। उसे हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को हज के दौरान जान से मारने के लिए कहा गया था। 8 ज़िलहिज जिसे तरविया दिवस कहा जाता और इस दिन हाजी अपना हज शुरु करते हैं, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने हज को उम्रे से बदल कर मक्के से निकलने पर मजबूर हुए ताकि पवित्र काबे का सम्मान बना रहे। दूसरी बात यह कि अगर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हज के दौरान क़त्ल हो जाते तो लोग यह न समझ पाते कि उन्हें अत्याचारी यज़ीद का आज्ञापालन न करने की वजह से शहीद किया गया है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जानते थे कि कूफ़ावासी वचन के पक्के नहीं हैं। वह जानते थे कि उनका अंजाम शहादत है लेकिन वह यज़ीद जैसे अत्याचारी की हुकूमत के संबंध में चुप नहीं रह सकते थे। उन्होंने मक्के से निकलने से पहले अपना वसीयत नामा अपने भाई मोहम्मद बिन हन्फ़िया को दिखा जिसमें आपने फ़रमायाः "लोगो! जान लो कि मै सत्तालोभी, भ्रष्ट व अत्याचारी नहीं हूं और न ही ऐसा कोई लक्ष्य रखता हूं। मेरा आंदोलन सुधार लाने के लिए है। मैं उठ खड़ा हुआ हूं ताकि अपने नाना के अनुयाइयों को सुधारूं। मैं भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना चाहता हूं।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मक्के से निकलते वक़्त लोगों से बात की और अपनी बातों से उन्हें समझाया कि उन्होंने यह मार्ग पूरी सूझबूझ से चुना है और जानते हैं कि इसका अंजाम ईश्वर के मार्ग में शहादत है। जो लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मदद करना चाहते थे वे उनसे रास्ते में कहते रहते थे कि इस आंदोलन का अंजाम सत्ता की प्राप्ति नहीं है।
इसलिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने साथ चलने वालों से कहते थे "आपमें से वहीं मेरे साथ चले जो अपनी जान को ईश्वर के मार्ग में क़ुर्बान करने और उससे मुलाक़ात करने का इच्छुक हो।"
यह वादा कितनी जल्दी पूरा हुआ और 10 मोहर्रम सन 61 हिजरी क़मरी को आशूर के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने साथियों के साथ ईश्वर के मार्ग में शहीद हो गए लेकिन अत्याचार को सहन न किया। श्रोताओ! इन्हीं हस्तियों पर पवित्र क़ुरआन के क़मर नामक सूरे की आयत नंबर 54 और 55 चरितार्थ होती है जिसमें ईश्वर कहता हैः "निःसंदेह सदाचारी स्वर्ग के बाग़ में रहेंगे। उस पवित्र स्थान पर जो सर्वशक्तिमान ईश्वर के पास है।"
इमाम ख़ुमैनी र.ह.इज़राईली विचारधारा के ख़िलाफ़ संघर्ष के ध्वजवाहक
इमाम खुमैनी र.ह. के नेतृत्व में शाह का तख्तापलट और ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।
इमाम खुमैनी र.ह. के नेतृत्व में शाह का तख्तापलट और ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता से मुसलमानों के ज़ायोनी-विरोधी संघर्ष तेज़ हो गए और फ़िलिस्तीनियों के संघर्ष की दिशा बदल गई। शाह के शासन को पश्चिम एशिया के संवेदनशील क्षेत्र में पश्चिम और इस्राईल का एक मज़बूत सहयोगी माना जाता था।
शाह के समय में ईरान, इस्राईली वस्तुओं और उत्पादों के आयात का एक बड़ा बाज़ार था जिससे अवैध अतिग्रहणकारी शासन की अर्थव्यवस्था मज़बूत हो रही थी जबकि दूसरी ओर शाह ने इस्राईल की ज़रूरत के तेल का निर्यात करके और उसकी ज़रूरतों को पूरा करके इस शासन की मदद की। दूसरे शब्दों में यूं कहा जा सकता है कि ईरानी तेल, इस्राईली अर्थव्यवस्था और उद्योगों में वह गोली और हथियार बन गया जो फ़िलिस्तीनियों के सीनों को निशाना बना रहे थे।
ईरान, इस्राईली जासूसी अभियानों और क्षेत्र में अरबों के नियंत्रण का अड्डा बन चुका था। इस्राईल के साथ शाह के गुप्त और खुले संबंधों को उजागर करना और मुसलमानों के संयुक्त दुश्मन को शाह की निसंकोच सहायता का विरोध करना, इमाम खुमैनी के आंदोलन के मक़सदों में था। वह ख़ुद ही इस बारे में कहते थे: शाह का विरोध करने के कारणों में एक जिसने हमें शाह के मुक़ाबले में खड़ा कर दिया है, वह शाह द्वारा इस्राईल की मदद थी।
मैंने हमेशा अपने लेखों में कहा है कि शाह ने आरंभ से ही इस्राईल का सहयोग किया है और जब इस्राईल और मुसलमानों के बीच युद्ध अपने चरम पर पहुंचा तो शाह ने मुसलमानों का तेल हड़पना और उसे इस्राईल को देना जारी रखा, मेरे शाह के विरोध का यह ख़ुद ही एक कारण है।
शाह का तख्तापलट और इमाम खुमैनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।
इस्लामी क्रांति के संदेश और उसके नेतृत्व का जनमत पर प्रभाव इतना व्यापक था कि जब अनवर सादात ने कैंप डेविड में समझौते पर हस्ताक्षर किए तो मिस्र सरकार को अरब जिरगा और यहां तक कि रूढ़ीवादी अरब शासन के ग्रुप से निकाल दिया गया और मिस्र पूरी तरह से अलग थलग पड़ गया।
बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले शासन के मुख्य समर्थक अमेरिका और यूरोपीय सरकारें जब इमाम खुमैनी के आंदोलन का सामना करने में हार गयीं तो वे ईरान की इस्लामी क्रांति को रोकने और स्थिति को बदलने के लिए एक प्लेटफ़ार्म पर जमा हो गयीं।
इन्होंने अपने पूर्वी प्रतिद्वंद्वी (पूर्व सोवियत संघ) के साथ गठबंधन कर लिया जोड़ लिया और इस मुद्दे पर इतनी हद तक बढ़ गये कि उन्होंने ईरानी क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने के लिए सद्दाम को उकसाया और ईरान की नवआधार क्रांति और इराक़ के बीच लंबे युद्ध के सभी चरणों में इराक़ के लिए दो महाशक्तियों का भरपूर समर्थन देखने को मिला।
थोपे गए युद्ध को इस्लामी क्रांति को समाप्त करने, ईरान के टुकड़े करने और उसपर क़ब्ज़ा करने के उद्देश्शय से आंरभ किया गया था। इस्लामी गणतंत्र ईरान जो, दुनिया के वंचितों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से भूमिका निभाना चाहता था और जो इस नारे के साथ आगे बढ़ना चाहता था कि "आज ईरान, कल फ़िलिस्तीन।
अब वह अपनी क्रांति के अस्तित्व की सुरक्षा के लिए न चाहते हुए भी युद्ध में खीच लिया गया। यह थोपा गया युद्ध पश्चिमी और अन्य नेताओं के कथनानुसार इस्लामी क्रांति को समाप्त करने के लिए शुरू किया गया था।
इसका एक अन्य उद्देश्य, मुसलमान राष्ट्रों को इस्लामी क्रांति से रोकना था। इस तरह से सद्दाम ने इस्लाम दुश्मन शक्तियों के उकसावे में आकर एक लंबा युद्ध आरंभ किया। इस बारे में इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि जो बहुत खेद का विषय है वह यह है कि महाशक्तियां विशेषकर अमरीका ने सद्दाम को उकसाकर हमारे देश पर हमला करवाया ताकि ईरान की सरकार को अपने देश की सुरक्षा करने में व्यस्त कर दिया जाए जिससे अवैध ज़ायोनी शासन को वृहत्तर इस्राईल के गठन का मौक़ा मिल जाए जो नील से फ़ुरात तक निर्धारित है।
शाह की अत्याचारी सरकार के दौर में इमाम ख़ुमैनी ने इस्राईल और शाह के शासन के बीच संबन्धों का पर्दाफ़ाश किया था। वे इस्लामी जगत के लिए इस्राईल को बड़ा ख़तरा मानते थे। स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ही वे पहले वरिष्ठ धर्मगुरू थे जिन्होंने फ़िलिस्तीन के लिए संघर्ष को ज़कात और सदक़े के माध्यम से जारी रखने का समर्थन किया था।
आरंभ से ही उन्होंने सताए गए फ़िलिस्तीनी राष्ट्र को संगठित करने और उनसे मुस्लिम राष्ट्रों का समर्थन प्राप्त करने के लिए सबसे अधिक प्रभावशाली तरीक़ा पेश किया। उन्होंने अरब जाति की वरिष्ठता, राष्ट्रवादी दृष्टिकोण और दूसरी आयातित ग़ैर इस्लामी विचारधाराओं पर भरोसा करके बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए संघर्ष को, मार्ग से भटकना बताया।
उनको कुछ इस्लामी देशों के नेताओं की अक्षमता तथा निर्भर्ता की जानकारी थी और साथ ही वे इस्लामी जगत की आंतरिक समस्याओं से भलिभांति अवगत थे। इसी के साथ वे धार्मिक मतभेदों के विरोधी थे और इस्लामी राष्ट्रों के नेताओं को एकता का आहवान करते थे। उनका यह भी मानना था कि जबतक सरकारें आम मुसलमानों की इच्छाओं के हिसाब से उनके साथ रहेंगी उस समय तक वे उनका नेतृत्व कर सकती हैं। यदि एसा न हो तो उन राष्ट्रों को वैसा ही करना चाहिए जैसा कि ईरानी राष्ट्र ने शाह के साथ किया।
यहां पर फ़िलिस्तीन के विषय के संदर्भ में ज़ायोनी दुश्मन के विरुद्ध संघर्ष को लेकर इमाम ख़ुमैनी ने कुछ बिदु पेश किये हैं।
अमरीका और इस्राईल के विरुद्ध तेल रणनीति का प्रयोगः
उनहोंने नवंबर 1973 के युद्ध की वर्षगांठ पर इस्लामी देशों को संबोधित करते हुए अपने संदेश में कहा थाः तेल से संपन्न इस्लामी देशों को चाहिए कि वे अपने पास मौजूद सारी संभावनाओं को इस्राईल के विरुद्ध हथकण्डे के रूप में प्रयोग करें। वे उन सरकारों को तेल न बेचें जो इस्राईल की सहायता करते हैं। फ़िलिस्तीन की आज़ादी, इस्लामी पहचान की बहाली पर निर्भरः
हम जबतक इस्लाम की ओर वापस नहीं आते, रसूल अल्लाह के इस्लाम की ओर, उस समय तक मुश्क़िलें बाक़ी रहेंगी। ऐसे में हम न तो फ़िलिस्तीन समस्या का समाधान करा पाएंगे न अफ़ग़ानिस्तान का और न ही किसी दूसरे विषय का।
बारंबार वृहत्तर इस्राईल के गठन का रहस्योदघाटनः
इस्राईल की संसद का मुख्य नारा यह था कि इस्राईल की सीमाएं नील से फ़ुरात तक हैं। उनका यह नारा उस समय भी था जब अवैध ज़ायोनी शासन के गठन के समय ज़ायोनियों की संख्या कम थी। स्वभाविक सी बात है कि शक्ति आने पर वे उसको व्यवहारिक बनाने के प्रयास अवश्य करेंगे।
इमाम ख़ुमैनी ने हमेशा ही इस्राईल की विस्तारवादी नीतियों के ख़तरों और उसका अपनी वर्तमान सीमाओं तक सीमित न रहने के प्रति सचेत किया। वे यह भी कहा करते थे कि इस लक्ष्य पर इस्राईल की ओर से पर्दा डालने का काम आम जनमत को धोखा देने के उद्देश्य से है जबकि इसको चरणबद्ध ढंग से हासिल करने की वह कोशिश करता रहेगा।
ज़ायोनिज़्म और यहूदी में अंतरः
वास्तव में ज़ायोनिज़्म, यहूदी धर्म की आड़ में विस्तारवादी, जातिवादी और वर्चस्ववादी एक एसी प्रक्रिया है जो धर्म के चोले में यहूदी धर्म के लक्ष्यों को पूरा करने का दिखावा करता है। हालांकि जानकार इस बात से भलिभांति अवगत हैं कि इस नाटक के अन्तर्गत ज़ायोनी, फ़िलिस्तीनियों पर अत्याचार करने और उनकी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने का औचित्य पेश कर सकें। यह काम आरंभ में ब्रिटेन के माध्यम से शुरू हुआ था किंतु वर्तमान समय में यह, वाइट हाउस को सौंप दिया गया है। यह बात बहुत ही स्पष्ट है कि नया साम्राज्यवाद, केवल अपने निजी हितों पर ही नज़र रखता है। इमाम ख़ुमैनी, इस वास्तविकता को समझते हुए हमेशा ही ज़ायोनिज़म और यहूदियत में फ़र्क़ के क़ाएल थे। वे ज़ायोनिज़्म को एक राजनीतिक प्रक्रिया मानते थे जो ईश्वरीय दूतों की शिक्षाओं से बिल्कुल अलग और दूर है।
फ़िलिस्तीन की मुक्ति का रास्ताः
एक अरब से अधिक मुसलमानों पर ज़ायोनियों के एक छोटे से गुट के शासन को इमाम ख़ुमैनी बहुत शर्मनाक मानते थे। वे कहते थे कि एसा क्यों है कि वे देश जो सबकुछ रखते हैं और उनके पास शक्ति भी है, उनपर इस्राईल जैसा हुकूमत करे? एसा क्यों है? यह इसलिए है कि राष्ट्र, एक-दूसरे से अलग हैं। सरकारें और राष्ट्र अलग हैं। एक अरब मुसलमान अपनी सारी संभावनाओं के बावजूद बैठे हुए हैं और इस्राईल, लेबनान और फ़िलिस्तीन पर अत्याचार कर रहे है।
ज़ायोनिज़्म के विरुद्ध राष्ट्रों का आन्दोलन और अमरीका पर निर्भर न रहनाः
इमाम ख़ुमैनी ने 16 दिसंबर 1981 को न्यायपालिका के अधिकारियों के साथ मुलाक़ात में इस ओर संकेत किया था कि मुसलमान सरकारों की अमरीका पर निर्भर्ता ही मुसलमानों की समस्याओं का मुख्य कारण हैं। उन्होंने कहा कि मुसलमान बैठे न रहें कि उनकी सरकारें, इस्लाम को ज़ायोनियों के पंजों से मुक्ति दिलाएं।
वे न बैठे रहें कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन उनके लिए काम करें। राष्ट्रों को इस्राईल के सामने उठना होगा। राष्ट्र स्वयं आन्दोलन करके अपनी सरकारों को इस्राईल के मुक़ाबले में खड़ा करें। वे केवल मौखिक भर्त्सना को काफी न समझें। वे लोग जिन्होंने इस्राईल के साथ भाइयों जैसे संबन्ध बनाए हैं वे ही उसकी भर्त्सना भी करते हैं किंतु वास्तव में यह निंदा तो मज़ाक़ की तरह है। अगर मुसलमान बैठकर यह सोचने लगें कि अमरीका या उसके पिट्ठू उनके लिए काम करेंगे तो फिर यह काफ़ला हमेशा ही लंगड़ाता रहेगा।
इमाम ख़ुमैनी र.ह.की बरसी पर दुनियाभर में ट्विटर मुहिम
हुसैनी मूवमेंट ने इस साल भी #KhomeiniForAll नाम से एक खास ट्विटर मुहिम चलाई जो इमाम रुहुल्लाह मूसा ख़ुमैनी र.ह. की बरसी पर शुरू हुई यह ऑनलाइन मुहिम लगातार आठवें साल हो रही है और 2 जून से 8 जून तक जारी रहेगी इसका मकसद इमाम ख़ुमैनी (रह.) की याद को ताज़ा करना और उनके पैग़ाम को पूरी दुनिया में फैलाना है।
हुसैनी मूवमेंट ने इस साल भी #KhomeiniForAll नाम से एक खास ट्विटर मुहिम चलाई जो इमाम रुहुल्लाह मूसा ख़ुमैनी र.ह. की बरसी पर शुरू हुई यह ऑनलाइन मुहिम लगातार आठवें साल हो रही है और 2 जून से 8 जून तक जारी रहेगी इसका मकसद इमाम ख़ुमैनी (रह.) की याद को ताज़ा करना और उनके पैग़ाम को पूरी दुनिया में फैलाना है।
इस साल यह हैशटैग भारत, ईरान, यूरोप, नाइजीरिया और कई दूसरे देशों में सोशल मीडिया पर ट्रेंड करता रहा। लोगों ने इस टैग के साथ इमाम ख़ुमैनी (रह.) के बातें, पुराने वीडियो, तस्वीरें और उनके सोच-विचार शेयर किए।
हुसैनी मूवमेंट ने दुनिया के कई हिस्सों में अपने साथियों के ज़रिए ऑनलाइन और कुछ जगहों पर सीधे कार्यक्रम रखे। इन कार्यक्रमों में लाइव वीडियो, पोस्टर, और बातचीत के सेशन हुए जिनमें खास तौर पर नौजवानों को इमाम ख़ुमैनी (रह.) की सोच और उनकी ज़िंदगी से जोड़ने की कोशिश की गई।
इस मुहिम में ईरान के दूतावास, संस्कृति केंद्र और अलग-अलग देशों के नामी विद्वान, आलिम और समाजसेवी भी शामिल हुए। उन्होंने इमाम ख़ुमैनी (रह.) की रहबरी, उनके इंकलाब, और आज के दौर में उनके पैग़ाम की अहमियत पर बात की।
#KhomeiniForAll की ये मुहिम दिखाती है कि इमाम ख़ुमैनी (रह.) का असर आज भी ज़िंदा है। उनकी बातों और उनके रास्ते पर चलने वाले लोग आज भी दुनिया के हर कोने में मौजूद हैं।
ईरानी क़ौम अपने फ़ैसले की मालिक
इस्लामी क्रांति के नेता ने आज बुधवार 4 जून 2025 को इमाम ख़ुमैनी की 36वीं बरसी के मौक़े पर, उनके मज़ार पर तक़रीर में उन्हें इस्लामी गणराज्य ईरान की शक्तिशाली मज़बूत और विकसित हो रही व्यवस्था का महान निर्माता बताया।
इस्लामी क्रांति के नेता ने आज बुधवार 4 जून 2025 को इमाम ख़ुमैनी की 36वीं बरसी के मौक़े पर, उनके मज़ार पर तक़रीर में उन्हें इस्लामी गणराज्य ईरान की शक्तिशाली मज़बूत और विकसित हो रही व्यवस्था का महान निर्माता बताया।
उन्होंने बल दिया कि इस महान हस्ती के निधन के 36 साल बाद, बड़ी ताक़तों के पतन, कई ध्रुवीय व्यवस्था के वजूद में आने, अमरीका की स्थिति और प्रभाव में तेज़ी से गिरावट, ज़ायोनीवाद से योरोप और अमरीका में भी नफ़रत और क़ौमों में जागरुकता और उनकी ओर से पश्चिमी मूल्यों को नकारने जैसे मसलों में इमाम ख़ुमैनी के वजूद और उनके इंक़ेलाब के प्रभाव को महसूस किया जा सकता है।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने एक धर्मगुरू के ज़रिए ईरानी क़ौम के संगठित होने, सिर से पैर तक हथियारों से लैस पिट्ठू पहलवी शासन के ख़िलाफ़ इमाम (ख़ुमैनी) और क़ौम की ख़ाली हाथों सफलता और ईरान से मुफ़्त का खाने और लूटने वाले अमरीकियों और ज़ायोनियों की बिसात लपेटे जाने जैसे मामलों में पश्चिम की अंदाज़े की ग़लती की ओर इशारा करते हुए कहा कि पश्चिम वालों की अंदाज़े की दूसरी ग़लती इमाम (ख़ुमैनी) की तद्बीर और कोशिशों से इस्लामी गणराज्य व्यवस्था का क़ायम होना था।
इस्लामी इंकेलाब के नेता ने इस बात का ज़िक्र करते हुए कि अमरीकियों को ईरान में एक ऐसी सरकार के सत्ता में आने की उम्मीद थी जो उनके साथ साठगांठ करेगी और उनके अवैध हितों को फिर से सुनिश्चित करेगी, कहा कि इमाम (ख़ुमैनी) ने ईरान में इस्लामी और धार्मिक व्यवस्था पर आधारित एक सिस्टम क़ायम करने के अपने स्पष्ट दृष्टिकोण से, अमरीकियों की इस उम्मीद को भी ख़ाक में मिला दिया और वहीं से दुश्मनों की नुक़सान पहुंचाने वाली साज़िशें शुरू हुयीं।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इस्लामी इंक़ेलाब के ख़िलाफ़ दुश्मनों की कुछ योजनाओं का ज़िक्र करते हुए, इन योजनाओं की विविधता और तीव्रता को तत्कालीन क्रांतियों के इतिहास में अभूतपूर्व बताया और कहा कि इन सभी साज़िशों के पीछे, साम्राज्यावादी सरकारें ख़ास तौर पर अमरीका, ज़ायोनी सरकार और अमरीका की सीआईए, ब्रिटेन की एमआई-6 और क़ाबिज़ ज़ायोनी सरकार की मोसाद जैसी ख़ुफ़िया एजेंसियों का हाथ रहा है।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इन घटिया और नुक़सानदेह कृत्यों का लक्ष्य इस्लामी गणराज्य को कमज़ोर करना बताया और बल दिया कि इन साज़िशों के मुक़ाबले में इस्लामी गणराज्य न सिर्फ़ यह कि कमज़ोर नहीं हुआ बल्कि पूरी ताक़त से अपने रास्ते पर आगे बढ़ रहा है और आगे भी इसी तरह बढ़ता रहेगा।
उन्होंने विलायते फ़क़ीह अर्थात वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व और राष्ट्रीय स्वाधीनता को इमाम ख़ुमैनी के तर्क के दो स्तंभ बताते कहा कि धार्मिक स्वरूप का रक्षक और इंक़ेलाब को भटकने से बचाने वाला वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व, अवाम की भावना और उसके ईमान पर आधारित बलिदान से निकला है और राष्ट्रीय स्वाधीनता भी इमाम ख़ुमैनी के विचारों और लक्ष्यों में शामिल है।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने कहा कि राष्ट्रीय स्वाधीनता का मतलब ईरान और क़ौम दूसरों के सहारे के बिना अपने पैर पर खड़ी हो; अमरीका और उसके जैसों से अपेक्षा न रखे; अपनी समझ से फ़ैसला ले और ज़रूरी क़दम उठाए।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने दुश्मनों की ईरानी क़ौम में "हम कर सकते हैं" की भावना को ख़त्म करने की योजना को, इस बहुमूल्य तत्व को पहचानने की अहमियत का चिन्ह बताया और कहा कि इस वक़्त इसी परमाणु मामले और ओमान की मध्यस्थता से होने वाली बातचीत में, अमरीकियों ने जो योजना पेश की है वह "हम कर सकते हैं" के 100 फ़ीसदी ख़िलाफ़ है।
उन्होंने कहा कि प्रतिरोध का मतलब अक़ीदे के मुताबिक़ अमल और बड़ी ताक़तों की धमकियों और इरादे के सामने न झुकना, राष्ट्रीय स्वाधीना के दूसरे तत्व हैं।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने अपनी स्पीच के दूसरे भाग में परमाणु मसले की व्याख्या करते हुए कहा कि परमाणु उद्योग मूल उद्योग है और विशेषज्ञों के मुताबिक, न्यूक्लियर फ़िज़िक्स, एनर्जी इंजीनियरिंग, मटीरियल इंजीनियरिंग जैसी इंजीनियरिंग और बेसिक साइंस और इसी तरह मेडिकल, एरोस्पेस और इलेक्ट्रानिक्स के सटीक सेंसरों जैसी अहम व सूक्ष्य टेक्नालोजी, परमाणु उद्योग पर निर्भर या उससे प्रभावित है।
उन्होंने यूरेनियम संवर्धन के बिना विशाल परमाणु उद्योग से संपन्नता के बेफ़ायदा होने की वजह बताते हुए कहा कि यूरेनियम संवर्धन और ईंधन के उत्पादन की सहूलत के बिना, 100 परमाणु बिजलीघर भी बेफ़ायदा हैं क्योंकि ईंधन की आपूर्ति के लिए अमरीका की ओर हाथ फैलाना पड़ेगा और वे संभव है इस काम के लिए दसियों शर्त लगाएं जैसा कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में 20 फ़ीसदी संवर्धित ईंधन की आपूर्ति में हमें इस बात का अनुभव हो चुका है।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने 3.5 फ़ीसदी संवर्धित युरेनियम के बदले में आंतरिक ज़रूरत की पूर्ति के लिए 20 फ़ीसदी संवर्धित युरेनियम लेने की तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति की दरख़ास्त पर ईरान के दो दोस्त मुल्कों की मध्यस्थता करने की घटना की ओर इशारा करते हुए कहा कि उस समय अधिकारी इस काम के लिए तैयार हो गए थे और मैंने भी कहा था कि सामने वाला पक्ष 20 फ़ीसदी संवर्धित युरेनियम बंदर अब्बास पहुंचाए और हम टेस्ट करने के बाद, यह मामला अंजाम देंगे और जब उन्होंने हमारी महारत और इसरार को देखा तो अपनी बात से पलट गए और हमको 20 फ़ीसदी संवर्धित ईंधन नहीं दिया।
उन्होंने कहा कि राजनैतिक नोंक-झोंक के उसी दौर में हमारे साइंटिस्टों ने मुल्क के भीतर 20 फ़ीसदी संवर्धित ईंधन के उत्पादन का कारनामा अंजाम दिया।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने, परमाणु मामले में अमरीकियों का बुनियादी मुतालबा, ईरान को इस उद्योग और इससे अवाम को होने वाले अनेक फ़ायदों से पूरी तरह महरूम करना बताया और कहा कि अमरीका के बेअदब और दुस्साहसी नेता, इस इच्छा को मुख़्तलिफ़ तरीक़े से दोहराते हैं।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने इस बात पर बल देते हुए कि अमरीका की विवेकहीन और शोरग़ुल मचाने वाली सरकार की बकवास पर हमारा जवाब स्पष्ट है, कहा कि आज हमारे परमाणु उद्योग के नट-बोल्ट पहले से ज़्यादा कसे जा चुके हैं और अमरीकी और ज़ायोनी अधिकारी जान लें कि वे इस संबंध में कुछ बिगाड़ नहीं सकते।
उन्होंने ईरान के परमाणु उद्योग के अमरीका और दूसरे विरोधियों के दावों पर क़ानून के आधार पर सवाल उठाते हुए कहा कि हम उनसे यह कहना चाहते हैं कि ईरानी क़ौम एक स्वाधीन क़ौम है, आप कौन होते हैं और किस आधार पर युरेनियम संवर्धन करने या न करने के हमारे अधिकार के मसले में हस्तक्षेप कर रहे हैं?
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने अपनी स्पीच के अंत में ग़ज़ा में ज़ायोनी शासन के नाक़ाबिले यक़ीन अपराधों की ओर इशारा करते हुए कि जो वह खाद्य पदार्थ बांटने के नाम पर लोगों को गोलियों से भून रहा है, कहा कि इस हद तक पस्ती, दुष्टता, निर्दयता और शैतानी पर सचमुच हैरत होती है।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने अमरीकियों को भी ज़ायोनी शासन के अपराधों में भागीदार बताते हुए कहा कि यही वजह है जो हम अमरीका के इस इलाक़े से निकलने का मुतलबा कर रहे हैं।
उन्होंने इस्लामी सरकार की ज़िम्मेदारियों को अहम बताते हुए बल दिया कि यह वक़्त सोचने, एहतियात बरतने, निष्पक्षता दिखाने और ख़ामोश रहने का नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर कोई इस्लामी सरकार किसी भी रूप में और किसी भी नाम से चाहे संबंध सामान्य करके, चाहे फ़िलिस्तीनी अवाम को मदद पहुंचाने के रास्ते को बंद करके और चाहे ज़ायोनियों के अपराधों का औचित्य पेश करके, इस शासन का सपोर्ट करती है, वो जान ले कि उसके माथे पर हमेशा क्लंक का टीका लगा रहेगा।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने ज़ायोनियों से सहयोग पर परलोक और अल्लाह की ओर से बदले को बहुत ही कठोर और भारी बताया और कहा कि इस दुनिया में भी क़ौमें इन ग़द्दारियों को भूलेंगी नहीं, इसके अलावा ज़ायोनी शासन के सहारे कोई सरकार सुरक्षित नहीं हो सकती क्योंकि यह शासन अल्लाह के अटल फ़ैसले के नतीजे में बिखर रहा है और ऐसा होने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा
क़ब्ज़ाधारियों को बाहर निकालने के लेबनान के प्रयासों का समर्थन करते हैं, इराक़ची
इस्लामी गणतंत्र ईरान के विदेश मंत्री ने कहा है कि हम लेबनानी सरकार और जनता द्वारा किसी भी तरह से, जिसमें कूटनीति भी शामिल है, क़ब्ज़ाधारियों को बाहर निकालने के सभी प्रयासों का समर्थन करते हैं।
ईरानी विदेश मंत्री सैय्यद अब्बास अराक़ची ने मंगलवार को लेबनान में एक संवाददाता सम्मेलन में कहाः ईश्वर ने चाहा तो हम ईरान और लेबनान के बीच, राजनीतिक और आर्थिक मार्ग का विस्तार करने के अपने रास्ते पर चलते रहेंगे। उन्होंने कहाः इस्लामी गणतंत्र ईरान लेबनान की स्वतंत्रता, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का पूर्ण समर्थन करता है, और हम ऐसे संबंध चाहते हैं, जो आपसी सम्मान, आपसी हितों और एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर आधारित हों।"
ईरानी विदेश मंत्री ने आगे कहाः हम लेबनानी क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर ज़ायोनी शासन द्वारा क़ब्ज़े की निंदा करते हैं और लेबनानी सरकार और लोगों द्वारा कूटनीति सहित किसी भी माध्यम से क़ब्ज़ाधारियों को बाहर निकालने के सभी प्रयासों का समर्थन करते हैं। उन्होंने कहाः लेबनान के पुनर्निर्माण के संबंध में, ईरानी कंपनियां भाग लेने के लिए तैयार हैं, और अगर लेबनानी सरकार इच्छुक है, तो यह लेबनानी सरकार के माध्यम से किया जाएगा। हम लेबनान में राष्ट्रीय संवाद, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय आम सहमति का समर्थन करते हैं, और हम लेबनानी समुदायों द्वारा लिए गए किसी भी निर्णय का समर्थन करेंगे। यह मामले सिर्फ़ लेबनानी जनता से संबंधित हैं और किसी भी विदेशी देश को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
स्पैनिश लेखक: ज़ायोनी शासन अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन करता है
400 से अधिक स्पैनिश लेखकों ने इज़रायल पर अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन करने का आरोप लगाया है और ग़ज़ा पर उसके बर्बर हमलों को तत्काल रोकने का आह्वान किया है। बच्चों, युवाओं और वयस्कों के साहित्य के क्षेत्र में काम करने वाले इन लेखकों ने मंगलवार को एक संयुक्त बयान में कहाः हम अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से इन अंधाधुंध हमलों को तत्काल रोकने और नागरिकों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किए जाने वाले सैन्य उपकरणों के व्यापार पर रोक लगाने का आह्वान करते हैं।
यूरोप परिषद: ग़ज़ा में युद्धविराम स्थापित होना चाहिए
यूरोपीय परिषद के अध्यक्ष एंटोनियो कोस्टा ने ग़ज़ा पट्टी की स्थिति को भयावह बताया और इज़रायली सैन्य हमले को रोकने और युद्ध विराम की आवश्यकता पर बल दिया। कोस्टा ने मंगलवार रात सोशल नेटवर्क एक्स पर लिखाः ग़ज़ा में स्थिति भयावह बनी हुई है। हम इज़रायल से ग़ज़ा में मानवीय सहायता भेजने पर प्रतिबंध पूरी तरह हटाने और अपने हमले बंद करने का आह्वान करते हैं। उन्होंने कहाः युद्ध विराम को तत्काल लागू किया जाना आवश्यक है, जिससे सभी क़ैदियों की रिहाई हो सके और शत्रुता का स्थायी अंत हो सके।
यूक्रेन: रूस ने शांति प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है
यूक्रेनी विदेश मंत्री एंड्री सिबिहा ने मंगलवार रात को एक्स सोशल नेटवर्क पर लिखाः इस्तांबुल में दूसरी बैठक के बाद, यूक्रेन का आधिकारिक निष्कर्ष इस प्रकार हैः रूस ने युद्ध समाप्त करने के लिए यूक्रेन के दृष्टिकोण को रेखांकित करने वाले हमारे दस्तावेज़ पर प्रतिक्रिया नहीं दी है। उनका कहना था कि हम रूस से प्रतिक्रिया चाहते हैं, चुप रहने में बिताया गया हर दिन यह साबित करता है कि वे युद्ध जारी रखना चाहते हैं।
हम यूक्रेन को 1 लाख ड्रोन देंगे, ब्रिटेन
ब्रिटिश सरकार ने बुधवार को घोषणा की कि वह यूक्रेन को ड्रोन की आपूर्ति बढ़ाएगी और अप्रैल 2026 तक कीव को एक लाख सैन्य उपकरण उपलब्ध कराएगी। ब्रिटिश सरकार के अनुसार, ड्रोन की क़ीमत 350 मिलियन पाउंड है, और यह यूक्रेन को दिए जाने वाले 4.5 बिलियन पाउंड के सैन्य सहायता पैकेज का हिस्सा है।
अमेरिका तनाव चाहता है, क्यूबा
क्यूबा के विदेश विभाग में अमेरिकी मामलों के विभाग के उप निदेशक ने वाशिंगटन पर तनाव बढ़ाने और हवाना के साथ सैन्य संघर्ष भड़काने का प्रयास करने का आरोप लगाया है। जोहाना तबलाडा ने मंगलवार को वाशिंगटन स्थित क्यूबा दूतावास में कहा कि शीत युद्ध के दौरान दोनों देशों के बीच, सशस्त्र संघर्ष अच्छा विचार नहीं था। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प का प्रशासन हमारे संबंधों को तनावपूर्ण और ख़राब करना चाहता है और मेरा मानना है कि अगर आवश्यक हुआ तो सैन्य टकराव के लिए भी परिस्थितियां पैदा करना चाहता है।
अमेरिकी पक्ष ने मानवीय सहायता के माध्यम से ग़ज़ा में घुसपैठ करने की परियोजना से हाथ खींच लिया
अमेरिकी समाचार पत्र वाशिंगटन पोस्ट ने बताया कि अमेरिकी परामर्श फ़र्म बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप ने तथाकथित ग़ज़ा मानवीय सहायता फ़ाउंडेशन से अपना नाम वापस ले लिया है, जिसे संयुक्त राज्य अमेरिका और इज़रायल द्वारा समर्थन प्राप्त है। इस फ़ाउंडेशन पर फ़िलिस्तीनियों के बीच आंतरिक कलह पैदा करने के लिए भूख के हथियार का दुरुपयोग करने और जासूसी करने का आरोप है।
हम बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स में परमाणु मामले के राजनीतिकरण पर प्रतिक्रिया देंगे, ईरान
ईरानी उप विदेश मंत्री काज़िम ग़रीबाबादी ने मंगलवार को कहाः अगर बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स की आगामी बैठक में ईरानी मामले से निपटने का तरीक़ा राजनीतिक हुआ, तो दूसरे पक्ष को हमसे यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि हम पूर्ण संयम और बिना प्रतिक्रिया के व्यवहार करना जारी रखेंगे, बल्कि हमारा व्यवहार और नीतियां उनके व्यवहार के अनुसार होंगी।
ग़ाज़ा में इज़राइल के हमले अमानवीय और अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन हैं
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त ने कहा है कि ग़ाज़ा पट्टी में इज़राइली शासन द्वारा आम नागरिकों पर किए जा रहे हमले अंतरराष्ट्रीय क़ानून का उल्लंघन युद्ध अपराध और बिलकुल अमानवीय हैं।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त ने एक बयान में कहा कि ग़ाज़ा पट्टी में एक मानवीय सहायता वितरण केंद्र पर इज़राइली हमले, जो आम नागरिकों को निशाना बना रहे हैं युद्ध अपराध की श्रेणी में आते हैं।
उन्होंने कहा कि यह बेहद दुखद है कि आम नागरिकों को जो थोड़ी-सी खाद्य सहायता पाने की कोशिश कर रहे हैं जानलेवा हमलों का सामना करना पड़ रहा है उन्होंने इन कार्रवाइयों को निर्दयी और अमानवीय बताया।
वोल्कर टर्क ने ज़ोर देकर कहा कि इन अपराधों की तुरंत निष्पक्ष जांच होनी चाहिए और ज़िम्मेदारों को न्याय के कटघरे में लाया जाना चाहिए।उन्होंने कहा,आम नागरिकों पर हमला करना अंतरराष्ट्रीय क़ानून का गंभीर उल्लंघन है और यह युद्ध अपराध के तहत आता है।
टर्क ने यह भी कहा कि फिलिस्तीनी लोगों को ऐसे हालात में डाल दिया गया है कि उन्हें या तो भूख से मरना पड़ेगा या फिर सहायता प्राप्त करने की कोशिश में मार जाना होगा।उन्होंने इज़राइली शासन पर मानवीय सहायता वितरण से संबंधित अंतरराष्ट्रीय मानकों की खुली अवहेलना करने का आरोप लगाया।
उन्होंने आगे कहा,बीते 20 महीनों से आम नागरिकों की हत्या बड़े पैमाने पर तबाही, बार बार जबरन विस्थापन, इज़राइल की अमानवीय बयानबाज़ी, ग़ाज़ा के लोगों को निकालने की धमकी और भुखमरी यह सब अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक सबसे गंभीर अपराधों में गिने जाते हैं।
हजः संकल्प करना
हज का शाब्दिक अर्थ होता है संकल्प करना। वे लोग जो ईश्वर के घर के दर्शन का संकल्प करते हैं, उनको इस यात्रा की वास्तविकता से अवगत रहना चाहिए और उसको बिना पहचान के संस्कारों को पूरा नहीं करना चाहिए
हज का शाब्दिक अर्थ होता है संकल्प करना। वे लोग जो ईश्वर के घर के दर्शन का संकल्प करते हैं, उनको इस यात्रा की वास्तविकता से अवगत रहना चाहिए और उसको बिना पहचान के संस्कारों को पूरा नहीं करना चाहिए
हज का शाब्दिक अर्थ होता है संकल्प करना। वे लोग जो ईश्वर के घर के दर्शन का संकल्प करते हैं, उनको इस यात्रा की वास्तविकता से अवगत रहना चाहिए और उसको बिना पहचान के संस्कारों को पूरा नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि उचित पहचान और परिज्ञान, ईश्वर के घर का दर्शन करने वाले का वास्तविकताओं की ओर मार्गदर्शन करता है जो उसके प्रेम और लगाव में वृद्धि कर सकता है तथा कर्म के स्वाद में भी कई गुना वृद्धि कर सकता है। ईश्वर के घर के दर्शनार्थी जब अपनी नियत को शुद्ध कर लें और हृदय को मायामोह से अलग कर लें तो अब वे विशिष्टता एवं घमण्ड के परिधानों को अपने शरीर से अलग करके मोहरिम होते हैं। मोहरिम का अर्थ होता है बहुत सी वस्तुओं और कार्यों को न करना या उनसे वंचित रहना। लाखों की संख्या में एकेश्वरवादी एक ही प्रकार के सफेद कपड़े पहनकर और सांसारिक संबन्धों को त्यागते हुए मानव समुद्र के रूप में काबे की ओर बढ़ते हैं। यह लोग ईश्वर के निमंत्रण को स्वीकार करने के लिए वहां जा रहे हैं। पवित्र क़ुरआन के सूरए आले इमरान की आयत संख्या ९७ में ईश्वर कहता है कि लोगों पर अल्लाह का हक़ है कि जिसको वहाँ तक पहुँचने का सामर्थ्य प्राप्त हो, वह इस घर का हज करे। एहराम बांधने से पूर्व ग़ुस्ल किया जाता है जो उसकी भूमिका है। इस ग़ुस्ल की वास्तविकता पवित्रता की प्राप्ति है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि मोहरिम हो अर्थात दूरी करो हर उस वस्तु से जो तुमको ईश्वर की याद और उसके स्मरण से रोकती है और उसकी उपासना में बाधा बनती है।मोहरिम होने का कार्य मीक़ात नामक स्थान से आरंभ होता है। वे तीर्थ यात्री जो पवित्र नगर मदीना से मक्का जाते हैं वे मदीना के निकट स्थित मस्जिदे शजरा से मुहरिम होते हैं। इस मस्जिद का नाम शजरा रखने का कारण यह है कि इस्लाम के आरंभिक काल में पैग़म्बरे इस्लाम (स) इस स्थान पर एक वृक्ष के नीचे मोहरिम हुआ करते थे। अब ईश्वर का आज्ञाकारी दास अपने पूरे अस्तित्व के साथ ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता है। अपने विभिन्न प्रकार के संस्कारों और आश्चर्य चकित करने वाले प्रभावों के साथ हज, लोक-परलोक के बीच एक आंतरिक संपर्क है जो मनुष्य को प्रलय के दिन को समझने के लिए तैयार करता है। हज एसी आध्यात्मिक उपासना है जो परिजनों से विदाई तथा लंबी यात्रा से आरंभ होती है और यह, परलोक की यात्रा पर जाने के समान है। हज यात्री सफ़ेद रंग के वस्त्र धारण करके एकेश्वरवादियों के समूह में प्रविष्ट होता है और हज के संस्कारों को पूरा करते हुए मानो प्रलय के मैदान में उपस्थित है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम हज करने वालों को आध्यात्मिक उपदेश देते हुए कहते हैं कि महान ईश्वर ने जिस कार्य को भी अनिवार्य निर्धारित किया और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जिन परंपराओं का निर्धारण किया है, वे चाहे हराम हों या हलाल सबके सब मृत्यु और प्रलय के लिए तैयार रहने के उद्देश्य से हैं। इस प्रकार ईश्वर ने इन संस्कारों को निर्धारित करके प्रलय के दृश्य को स्वर्गवासियों के स्वर्ग में प्रवेश और नरक में नरकवासियों के जाने से पूर्व प्रस्तुत किया है। हज करने वाले एक ही प्रकार और एक ही रंग के वस्त्र धारण करके तथा पद, धन-संपत्ति और अन्य प्रकार के सांसारिक बंधनों को तोड़कर अपनी वास्तविकता को उचित ढंग से पहचानने का प्रयास करते हैं अर्थात उन्हें पवित्र एवं आडंबर रहित वातावरण में अपने अस्तित्व की वास्तविकताओं को देखना चाहिए और अपनी त्रुटियों एवं कमियों को समझना चाहिए। ईश्वर के घर का दर्शन करने वाला जब सफेद रंग के साधारण वस्त्र धारण करता है तो उसको ज्ञात होता है कि वह घमण्ड, आत्ममुग्धता, वर्चस्व की भावना तथा इसी प्रकार की अन्य बुराइयों को अपने अस्तित्व से दूर करे। जिस समय से तीर्थयात्री मोहरिम होता है उसी समय से उसे बहुत ही होशियारी से अपनी गतिविधियों और कार्यों के प्रति सतर्क रहना चाहिए क्योंकि उसे कुछ कार्य न करने का आदेश दिया जा चुका है। मानो वह ईश्वर की सत्ता का अपने अस्तित्व में आभास कर रहा है और उसे शैतान के लिए वर्जित क्षेत्र तथा सुरक्षित क्षेत्र घोषित करता है। इस भावना को मनुष्य के भीतर अधिक प्रभावी बनाने के लिए उससे कहा गया है कि वह अपने उस विदित स्वरूप को परिवर्ति करे जो सांसारिक स्थिति को प्रदर्शित करता है और सांसारिक वस्त्रों को त्याग देता है। जो व्यक्ति भी हज करने के उद्देश्य से सफ़ेद कपड़े पहनकर मोहरिम होता है उसे यह सोचना चाहिए कि वह ईश्वर की शरण में है अतः उसे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जो उसके अनुरूप हो।यही कारण है कि शिब्ली नामक व्यक्ति जब हज करने के पश्चात इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की सेवा में उपस्थित हुआ तो हज की वास्तविकता को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने शिब्ली से कुछ प्रश्न पूछे। इमाम सज्जाद अ. ने शिब्ली से पूछा कि क्या तुमने हज कर लिया? शिब्ली ने कहा हां, हे रसूल के पुत्र। इमाम ने पूछा कि क्या तुमने मीक़ात में अपने सिले हुए कपड़ों को उतार कर ग़ुस्ल किया था? शिब्ली ने कहा जी हां। इसपर इमाम ने कहा कि जब तुम मीक़ात पहुंचे तो क्या तुमने यह संकल्प किया था कि तुम पाप के वस्त्रों को अपने शरीर से दूर करोगे और ईश्वर के आज्ञापालन का वस्त्र धारण करोगे? शिब्ली ने कहा नहीं। अपने प्रश्नों को आगे बढ़ाते हुए इमाम ने शिब्ली से पूछा कि जब तुमने सिले हुए कपड़े उतारे तो क्या तुमने यह प्रण किया था कि तुम स्वयं को धोखे, दोग़लेपन तथा अन्य बुराइयों से पवित्र करोगे? शिब्ली ने कहा, नहीं। इमाम ने शिब्ली से पूछा कि हज करने का संकल्प करते समय क्या तुमने यह संकल्प किया था कि ईश्वर के अतिरिक्त हर चीज़ से अलग रहोगे? शिब्ली ने फिर कहा कि नहीं। इमाम ने कहा कि न तो तुमने एहराम बांधा, न तुम पवित्र हुए और न ही तुमने हज का संकल्प किया। एहराम की स्थिति में मनुष्य को जिन कार्यों से रोका गया है वे कार्य आंतरिक इच्छाओं के मुक़ाबले में मनुष्य के प्रतिरोध को सुदृढ़ करते हैं। उदाहरण स्वरूप शिकार पर रोक और पशुओं को क्षति न पहुंचाना, झूठ न बोलना, गाली न देना और लोगों के साथ झगड़े से बचना आदि। यह प्रतिबंध हज करने वाले के लिए वैस तो एक निर्धारित समय तक ही लागू रहते हैं किंतु मानवता के मार्ग में परिपूर्णता की प्राप्ति के लिए यह प्रतिबंध, मनुष्य का पूरे जीवन प्रशिक्षण करते हैं। एहराम की स्थिति में जिन कार्यों से रोका गया है यदि उनके कारणों पर ध्यान दिया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पशु-पक्षियों और पर्यावरण की सुरक्षा तथा छोटे-बड़े समस्त प्राणियों का सम्मान, इन आदेशों के लक्ष्यों में से है। इस प्रकार के कार्यों से बचते हुए मनुष्य, प्रशिक्षण के एक एसे चरण को तै करता है जो तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय की प्राप्ति के लिए व्यवहारिक भूमिका प्रशस्त करता है। इन कार्यों में से प्रत्येक, मनुष्य को इस प्रकार से प्रशिक्षित करता है कि वह उसे आंतरिक इच्छाओं के बहकावे से सुरक्षित रखे और अपनी आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण की शक्ति प्रदान करता है।हज के दौरान जिन कार्यों से रोका गया है वास्तव में वे एसे कार्यों के परिचायक हैं जो तक़वे तक पहुंचने की भूमिका हैं। एहराम बांधकर मनुष्य का यह प्रयास रहता है कि वह एसे वातावरण में प्रविष्ट हो जो उसे ईश्वर के भय रखने वाले व्यक्ति के रूप में बनाए। हज के दौरान “मोहरिम”
हज,इस्लाम की पहचान
जिस तरह से ईश्वरीय धर्म इस्लाम ने मनुष्य के आत्मिक और आध्यात्मिक आदि पहलुओं पर भरपूर ध्यान दिया है, हज में इस व्यापकता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जिस तरह से ईश्वरीय धर्म इस्लाम ने मनुष्य के आत्मिक और आध्यात्मिक आदि पहलुओं पर भरपूर ध्यान दिया है, हज में इस व्यापकता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हज इस्लाम की एक पहचान है और वह धर्म के सामाजिक, राजनीतिक और आस्था संबंधी आयाम के बड़े
जिस तरह से ईश्वरीय धर्म इस्लाम ने मनुष्य के आत्मिक और आध्यात्मिक आदि पहलुओं पर भरपूर ध्यान दिया है, हज में इस व्यापकता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है
जिस तरह से ईश्वरीय धर्म इस्लाम ने मनुष्य के आत्मिक और आध्यात्मिक आदि पहलुओं पर भरपूर ध्यान दिया है, हज में इस व्यापकता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हज इस्लाम की एक पहचान है और वह धर्म के सामाजिक, राजनीतिक और आस्था संबंधी आयाम के बड़े भाग को प्रतिबिम्बित करता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि हज इस्लाम की पताका है। ज़िलहिज्जा का महीना वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश उतरने की भूमि में महान ईश्वर पर आस्था रखने वालों के महासम्मेलन का महीना है। आज इस महीने का पहला दिन है। इस महान महीने की पहली तारीख को हम अपने हृदयों को वहि की मेज़बान भूमि की ओर ले चलते है तथा महान ईश्वर के प्रेम व श्रद्धा में डूबे लाखों व्यक्तियों की आवाज़ से आवाज़ मिलाते हैं जो हज के संस्कारों में भाग लेने की तैयारी कर रहे हैं, लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैकहे ईश्वर हमने तेरे निमंत्रण को स्वीकार किया। यह पावन ध्वनि ईश्वरीय उपासना और प्रेम की वास्तविकता की सूचक है जो ईश्वर के घर का दर्शन करने वालों की ज़बान पर जारी है। हज उपासना एवं बंदगी व्यक्त करने का एक अन्य अवसर है और उससे ऐसी महानता प्रदर्शित व प्रकट होती है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। इस महानता को समझने के लिए हज के आध्यात्मिक महासम्मेलन में उपस्थित होकर उपासना के लिए माथे को ज़मीन पर रख देना चाहिये। अब विश्व के कोने कोने से हज़ारों मनुष्य काबे की ओर जा रहे हैं। वास्तव में कौन धर्म और पंथ है जो इस प्रकार मनुष्यों को उत्साह के साथ एक स्थान पर एकत्रित कर सकता है। इस का कारण इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं है कि महान ईश्वरीय धर्म इस्लाम लोगों के हृदयों पर शासन कर रहा है और यह इस धर्म की विशेषता है जो श्रृद्धालुओं को इस तरह काबे की ओर ले जा रहा है जैसे प्यासा व्यक्ति पानी के सोते की ओर जाता है। काबे के समीप लाखों मुसलमानों के एकत्रित होने से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के जीवन के कुछ भागों की याद ताज़ा हो जाती है। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने जीवन के अंतिम हज में मुसलमानों को भाई चारे और एकता का आह्वान किया तथा एक दूसरे के अधिकारों का हनन करने से मना किया और कहा हे लोगो! मेरी बात सुनो शायद इसके बाद मैं तुमसे इस स्थान पर भेंट न करूं। हे लोगों! तुम्हारा जीवन और धन एक दूसरे के लिए आज के दिन और इस महीने की भांति उस समय तक सम्मानीय हैं जब तुम ईश्वर से भेंट करोगे और उन पर हर प्रकार का अतिक्रमण हराम है। अब मुसलमानों के विभिन्न गुट व दल इस्लामी जगत के प्रतिनिधित्व के रूप में सऊदी अरब के पवित्र नगर मक्का और मदीना गये हैं ताकि इस्लामी इतिहास की निर्णायक एवं महत्वपूर्ण घटनाओं की याद ताजा करें। पैग़म्बरे इस्लाम की अनुशंसाओं को याद करें और एक दूसरे के साथ भाई चारे व समरसता के साथ उपासना की घाटी में क़दम रखें। विशेषकर इस वर्ष कि जब इस्लामी जागरुकता व चेतना तथा मुसलमानों की पहचान की रक्षा, बहुत महत्वपूर्ण विषय हो गई है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस्लामी जागरुकता हज के मौसम में मुसलमानों के एक स्थान पर एकत्रित होने का एक प्रतिफल है। इस आधार पर इस्लामी जागरुकता को मज़बूत करने के लिए हज का मौसम एक मूल्यवान अवसर है जो विभिन्न धर्मों व सम्प्रदायों के लोगों के मध्य एकता व वैचारिक समरसता से व्यवहारिक होगा। इस्लाम एक परिपूर्ण धर्म के रूप में मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं पर ध्यान देता है और वह मनुष्य की समस्त प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला है। इस्लाम ने मनुष्य के अस्तित्व की पूर्ण पहचान के कारण महान ईश्वर ,मनुष्य और मनुष्यों के एक दूसरे के साथ संबंध के बारे में विशेष व्यवहार व क़ानून निर्धारित किया है। हज और उसके संस्कार इसी कार्यक्रम में से हैं जो मनुष्य की प्रगति व विकास में प्रभावी हो सकता है। जिस प्रकार धर्म ने मनुष्य के आध्यात्म एवं चरित्र आदि जैसे पहलुओं पर ध्यान दिया है हज के मौसम में उसकी व्यापकता को देखा जा सकता है। हज इस्लाम की एक पहचान है और वह धर्म के राजनीतिक सामाजिक एवं आस्था संबंधी पहलुओं के बड़े भाग को प्रतिबिंबित करने वाला है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि हज इस्लाम की पताका है। पताका वह प्रतीक होता है जिसके माध्यम से एक संस्कृति की विशेषताओं को बयान करने का प्रयास किया जाता है। पूरे विश्व से मुसलमान हज के महासम्मेलन में एकत्रित होते हैं। भौतिक सीमाओं से हटकर विभिन्न राष्ट्रों के काले- गोरे समस्त मुसलमान एक स्थान पर एकत्रित होते हैं और व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विशेषताओं व अंतरों पर ध्यान दिये बिना वे समान व संयुक्त कार्य अंजाम देते हैं। यह संयुक्त कार्य किसी विशेष व्यक्ति या राष्ट्र से विशेष नहीं है। इस प्रकार के महासमारोह में है कि इसके संस्कार उसके लक्ष्यों की जानकारी के साथ मनुष्य का मार्गदर्शन एक पहचान की ओर करता है। इस आधार पर धार्मिक पहचान की प्राप्ति को हज का एक प्रतिफल समझा जा सकता है। इस प्रकार से कि एक पूर्वी मामलों के विशेषज्ञ Bernard lewis स्वीकार करते हैं" परेशानी की घड़ी में इस्लामी जगत में मुसलमानों ने बारम्बार यह दर्शा दिया है कि वे धार्मिक समन्वय के परिप्रेक्ष्य में अपनी धार्मिक पहचान बहाल कर लेते हैं। वह पहचान जिसका मापदंड राष्ट्र या क्षेत्र नहीं होता, बल्कि इस की परिभाषा इस्लाम ने की है। ईश्वरीय संदेश उतरने की पावन भूमि में हज आयोजित होने से हज करने वाले के लिए इस्लामी संस्कृति की विशेषताओं व इस्लामी पहचान सेअवगत होने की भूमि प्रशस्त होती है और हज करने वाला दूसरी संस्कृतियों के मध्य अपनी इस्लामी संस्कृति की पहचान उत्तम व बेहतर ढंग से प्राप्त कर सकता है। विश्वस्त इस्लामी स्रोतों पर संक्षिप्त दृष्टि डालने से दावा किया जा सकता है कि हज इस्लाम की व्यापकता का उदाहरण है। पैग़म्बरे इस्लाम हज के कारणों को बयान करते हुए उसकी तुलना समूचे धर्म से करते हैं। मानो महान ईश्वर नेविशेष रूप से इरादा किया है कि हज को उसके समस्त आयामों के साथ एक उपासना का स्थान दे। हज के हर एक संस्कार व कर्म का अपना एक अलग रहस्य है और यही रहस्य है जो हज को विशेष अर्थ प्रदान करता है तथा हज करने वाले के भीतर गहरे परिवर्तिन का कारण बनता है। हज में सफेद वस्त्र धारण करने से लेकर सफा व मरवा नाम की पहाड़ियों के मध्य तेज़ तेज़ चलने, काबे की परिक्रमा, अरफात और मेना नाम के मैदानों में उपस्थिति तक क्रमशः मनुष्य की आत्मा रचनात्मक अभ्यास के चरणों से गुज़रती है ताकि हाजी के मस्तिष्क एवं व्यवहार में गहरा परिवर्तन उत्पन्न हो सके। इस उपासना का पहला लाभ यह है कि हज यात्रा आरंभ होने के साथ सांसारिक लगाव व मोहमाया समाप्त होने लगती है। हज भौतिकि लगाव से मुक्ति पाने का बेहतरीन मार्ग है। हज पर जाने वाला व्यक्ति मानो हाथों और पैरों में पड़ी भौतिक लालसाओंकी बैड़ियों से मुक्ति प्राप्त करके महान परिवर्तन की ओर बढ़ता है। हर प्रकार के व्यक्तिगत, जातीय और वर्गिय भेदभाव से मुक्ति हज का दूसरा सुपरिणाम है। सफेद वस्त्र धारण करने का एक रहस्य यही है कि मनुष्य रंग और हर उस चीज़ से दूर व अलग हो गया है जो सामाजिक एवं जातीय भेदभाव का सूचक हो। इस्लाम में उपासना का रहस्य यह है कि मनुष्य धार्मिक दायित्वों के निर्वाह से स्वयं को सर्वसमर्थ व महान ईश्वर से निकट कर सकता है। हज में उपासना की एक विशेषता यह है कि इस आध्यात्मिक यात्रा में मनुष्य ईश्वरीय भय एवं सामाजिक सदगुणों से सुसज्जित होता है। यह इस्लाम द्वारा मनुष्य के व्यक्तिगत और सामाजिक तथा विभिन्न पहलुओं पर ध्यान दिये जान
सैयद रूहुल्लाह मूसवी ख़ुमैनी महान धर्मगुरू
उन महान हस्तियों के नाम और याद को जीवित रखना जिन्होंने राष्ट्रों के भविष्य को ईश्वरीय विचारों और अपने अथक प्रयासों से उज्जवल बनाया है, एक आवश्यक कार्य है। इस श्रंखला में हम प्रयास करेंगे कि समकालीन ईरान की धर्म व ज्ञान से संबंधित प्रभावी हस्तियों से आपको परिचित कराएं। इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह मानव इतिहास की सबसे उल्लेखनीय हस्तियों में से एक समझे जाते हैं जिन्होंने समकालीन इतिहास में एक ईश्वरीय आंदोलन के माध्यम से पूरे संसार को प्रभावित किया। उन्होंने ईश्वरीय पैग़म्बरों और इमामों की सत्य की आवाज़ को प्रतिबिंबित किया। वे पहलवी शासन के अत्याचारपूर्ण एवं घुटन भरे काल में लोगों के बीच से उठे और एक प्रकाशमान फ़ानूस की भांति लोगों के हृदयों को अन्धकार से प्रकाश की ओर मार्गदर्शित किया। इमाम ख़ुमैनी के आंदोलन से ईरानी जनता के भविष्य को एक नया आयाम मिला और लोग उनके ईश्वरीय मार्गदर्शन की सहायता से, इस्लामी क्रांति की विभूति से लाभान्वित हुए। इस्लामी क्रांति के वर्तमान नेता आयतुल्लाहिल उज़मा इमाम ख़ामेनेई, जो इमाम ख़ुमैनी के सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक हैं, उनके बारे में कहते हैं। इंसाफ़ से देखा जाए तो हमारे प्रिय इमाम और नेता के महान व्यक्तित्व कि तुलना ईश्वर के पैग़म्बरों और इमामों के बाद किसी अन्य व्यक्ति से नहीं की जा सकती। वे हमारे बीच ईश्वर की अमानत, हमारे लिए ईश्वर का तर्क और ईश्वर की महानता का चिन्ह थे। जब मनुष्य उन्हें देखता था तो धर्म के नेताओं की महानता पर उसे विश्वास आ जाता था।
सैयद रूहुल्लाह मूसवी ख़ुमैनी का जन्म 30 शहरीवर वर्ष 1281 हिजरी शमसी बराबर 21 सितम्बर वर्ष 1902 ईसवी को केंद्रीय ईरान के ख़ुमैन नगर में एक धार्मिक व पढ़े लिखे परिवार में हुआ था। उनके पिता एक साहसी धर्मगुरू थे जिन पर लोग अत्यधिक विश्वास करते थे। उन्होंने स्थानीय ग़ुंडों से, जिन्होंने ख़ुमैन नगर के लोगों की जान और उनके माल को ख़तरे में डाल रखा था, कड़ा संघर्ष किया और अंततः उन्हीं के हाथों मारे गए। उस समय इमाम ख़ुमैनी की आयु केवल पांच महीने थी। उन्होंने अपना बचपन अपनी माता की छत्रछाया में व्यतीत किया। वह समय ईरान में संवैधानिक क्रांति और उसके बाद के राजनैतिक व सामाजिक परिवर्तनों का काल था। इमाम ख़ुमैनी इन परिवर्तनों पर गहरी दृष्टि रखते थे और उनसे अनुभव प्राप्त करते थे। उनके बचपन व किशोरावस्था की कुछ प्रभावी घटनाएं उनके द्वारा बनाए गए चित्रों और सुलेखन में प्रतिबिंबित होती हैं। उदाहरण स्वरूप उन्होंने दस वर्ष की आयु में अपनी डायरी में इस्लाम की मर्यादा कहां है? राष्ट्रीय आंदोलन किधर है? शीर्षक के अंतर्गत एक लघु कविता लिखी थी जिसमें राजनैतिक समस्याओं की ओर संकेत किया गया है। पंद्रह वर्ष की आयु में इमाम ख़ुमैनी अपनी स्नेही माता की छाया से भी वंचित हो गए।
इमाम ख़ुमैनी ने बचपन में ही अपनी प्रवीणता के सहारे अरबी साहित्य, तर्कशास्त्र, धर्मशास्त्र और इसी प्रकार उस समय प्रचलित बहुत से ज्ञानों के आरंभिक भाग की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। वर्ष 1297 हिजरी शमसी में वे केंद्रीय ईरान के अराक नगर के उच्च धार्मिक शिक्षा केंद्र में प्रवेश लिया और फिर वहां से पवित्र नगर क़ुम के उच्च धार्मिक शिक्षा केंद्र का रुख़ किया। क़ुम में उन्होंने आयतुल्लाह हायरी जैसे महान धर्मगुरुओं से शिक्षा प्राप्त की। अपनी तीव्र बुद्धि के कारण इमाम ख़ुमैनी ने विभिन्न ज्ञानों की शिक्षा बड़ी तीव्रता से पूरी कर ली। उन्होंने धर्मशास्त्र, उसूले फ़िक़्ह के अतिरिक्त दर्शन शास्त्र की शिक्षा अपने काल के सबसे महान गुरू अर्थात आयतुल्लाह मीरज़ा मुहम्मद अली शाहाबादी से प्राप्त की। इमाम ख़ुमैनी ने वर्ष 1308 हिजरी शमसी में 27 वर्ष की आयु में ख़दीजा सक़फ़ी से विवाह किया।
वर्ष 1316 में जब इमाम ख़ुमैनी की आयु 35 वर्ष थी तो उनकी गणना क़ुम नगर के प्रख्यात धर्मगुरुओं में होने लगी थी। उस समय अधिकांश युवा छात्र उनके पाठों में भाग लेने के इच्छुक होते थे। वर्ष 1320 हिजरी क़मरी तक इमाम रूहुल्लाह ख़ुमैनी अधिकतर पढ़ने, पढ़ाने और पुस्तकें लिखने में व्यस्त रहे किंतु इसी के साथ उनके भीतर अत्याचार से संघर्ष की भावना भी परवान चढ़ती रही। उस काल में उनकी मुख्य चिंता क़ुम के धार्मिक शिक्षा केंद्र की रक्षा और प्रगति थी। वे समाज की परिस्थितियों को दृष्टिगत रख कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि धार्मिक शिक्षा केंद्रों को मज़बूत बनाने तथा लोगों व धर्मगुरुओं के बीच संबंध को सुदृढ़ करने से ही आंतरिक अत्याचारी शासन और विदेशी साम्राज्य के चंगुल से देश की जनता को मुक्ति दिलाई जा सकती है। वे इसी प्रकार समकालीन ईरान के इतिहास से संबंधित पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करके अपने ज्ञान में वृद्धि कर रहे थे। वे अन्य इस्लामी समाजों की राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियों पर गहरी दृष्टि रखते थे। इमाम ख़ुमैनी नूरुल्लाह इस्फ़हानी और शहीद सैयद हसन मुदर्रिस जैसे क्रांतिकारी एवं संघर्षकर्ता धर्मगुरुओं से भी परिचित हुए। इन वर्षों में पहलवी परिवार के पहले शासक रज़ा ख़ान ने पूरे देश में भय व आतंक का वातावरण फैला रखा था और हर उठने वाली आवाज़ का उत्तर हत्या, जेल या निर्वासन से दिया जाता था।
वर्ष 1320 हिजरी शमसी में मुहम्मद रज़ा पहलवी के सत्ता में आने के साथ ही इमाम ख़ुमैनी धार्मिक व राजनैतिक मामलों में अधिक खुल कर सामने आ गए। उन्होंने वर्ष 1340 तक क्रांतिकारी छात्रों का प्रशिक्षण किया और मूल्यवान पुस्तकें लिखीं। इसी के साथ वे राजनैतिक मामलों विशेष कर वर्ष 1329 में तेल उद्योग के राष्ट्रीयकरण के मामले पर भी विशेष ध्यान देते रहे। वर्ष 1340 में शीया मुसलमानों के वरिष्ठ धर्मगुरू आयतुल्लाहिल उज़मा बोरूजेर्दी का निधन हुआ और बहुत से लोगों व धार्मिक छात्रों ने जो इमाम ख़ुमैनी की ज्ञान, नैतिकता व राजनीति से संबंधित विशेषताओं से अवगत थे उन्हें वरिष्ठ धर्मगुरू बनाए जाने की मांग की। ये उस समय की घटनाएं हैं जब वर्ष 1953 के विद्रोह के बाद ईरान में अमरीकी सरकार का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। अमरीकी सरकार ने मुहम्मद रज़ा शाह पर दबाव डाला कि वह दिखावे के लिए कुछ सुधार करे। शाह ने अमरीका के इस दबाव के उत्तर में वर्ष 1962 में कई कार्यक्रमों को पारित किया जिनमें कुछ इस्लाम विरोधी बिंदु भी मौजूद थे। इमाम ख़ुमैनी ने अपनी दूरदर्शिता से इन बातों को भांप लिया और अमरीका के दृष्टिगत सुधारों के मुक़ाबले में पूर्ण रूप से डट गए। उन्होंने क़ुम तथा तेहरान के बड़े धर्मगुरुओं के साथ मिल कर व्यापक विरोध किया किंतु शाह चाहता था कि अमरीकी सुधारों को एक दिखावे के जनमत संग्रह के माध्यम से पारित करवा दे। इमाम ख़ुमैनी ने शाह के जनमत संग्रह के बहिष्कार का आह्वान किया। उनके आग्रह और प्रतिरोध के कारण ईरान के बड़े बड़े धर्म गुरुओं ने खुल कर उस जनमत संग्रह का विरोध किया और उसमें भाग लेने को धार्मिक दृष्टि से हराम या वर्जित घोषित कर दिया। इमाम ख़ुमैनी ने वर्ष 1341 के अंतिम दिनों में शाह के सुधार कार्यक्रमों के विरुद्ध एक कड़ा बयान जारी किया। तेहरान के लोग उनके समर्थन में सड़कों पर निकल आए और पुलिस ने लोगों के प्रदर्शनों पर आक्रमण कर दिया। शाह ने, जो चाहता था कि जिस प्रकार से भी संभव हो, अमरीका के प्रति अपनी वफ़ादारी को सिद्ध कर दे, लोगों के ख़ून से होली खेली।
वर्ष 1342 हिजरी शमसी के आरंभिक दिनों में शाह के एजेंटों ने सादे कपड़ों में क़ुम के एक बड़े धार्मिक शिक्षा केंद्र मदरसए फ़ैज़िया में छात्रों के समूह में उपद्रव मचाया और फिर पुलिस ने उन छात्रों का जनसंहार किया। इसी के साथ तबरीज़ नगर में भी एक धार्मिक शिक्षा केंद्र पर आक्रमण किया गया। उन दिनों क़ुम नगर में इमाम ख़ुमैनी का घर पर प्रतिदिन क्रांतिकारियों और क्रोधित लोगों का जमावड़ा होता था जो धर्मगुरुओं के समर्थन के लिए क़ुम नगर आते थे। इमाम ख़ुमैनी इन भेंटों में पूरी निर्भीकता के साथ शाह को सभी अपराधों का ज़िम्मेदार और अमरीका व इस्राईल का घटक बताते थे तथा आंदोलन चलाने के लिए लोगों का आह्वान किया करते थे। इमाम ख़ुमैनी ने मदरसए फ़ैज़िया के धार्मिक छात्रों के जनसंहार पर दिए गए अपने एक संदेश में कहा कि मैं जब यह भ्रष्ट सरकार हट नहीं जाती तब तक मैं चैन से नहीं बैठूंगा। इसके बाद उन्हें गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। इमाम ख़ुमैनी की गिरफ़्तारी का समाचार मिलते ही 15 ख़ुर्दाद वर्ष 1342 बराबर 5 जून वर्ष 1963 को पूरे ईरान के सभी नगरों की जनता सड़कों पर निकल आई और देश व्यापी प्रदर्शन आरंभ हो गए। लोगों ने या हमें भी मार डालो या ख़ुमैनी को रिहा करो के नारे लगा कर शाह के महल में भूकम्प पैदा कर दिया।
ईरान की जनता के व्यापक विरोध के बाद शाह के सैनिकों ने विशेष रूप से तेहरान व क़ुम में बड़ी निर्ममता के साथ प्रदर्शनों को कुचलने का प्रयास किया किंतु कुछ ही महीने बाद शाह, इमाम ख़ुमैनी को रिहा करने पर विवश हो गया। उन्होंने रिहा होने के बाद शाह की ओर से दी जाने वाली धमकियों की अनदेखी करते हुए अपने विभिन्न भाषणों में लोगों को अत्याचार व तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष का निमंत्रण दिया। उन्होंने अपने एक ऐतिहासिक भाषण में लोगों को अतिग्रहणकारी इस्राईली सरकार के साथ शाह के गुप्त किंतु व्यापक संबंधों के बारे में बताया और साथ ही ईरान के आंतरिक मामलों में अमरीका के अत्याचारपूर्ण हस्तक्षेप से पर्दा उठाते हुए जनता को शाह के राष्ट्र विरोधी कार्यों से अवगत कराया। ये बातें सुन कर ईरानी जनता के क्रोध में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती गई। शाह ने, जब यह देखा कि वह धमकी और लोभ से इमाम ख़ुमैनी को रोक नहीं सकता तो उसने उन्हें देश निकाला दे दिया। वर्ष 1965 के अंत में उन्हें तुर्की और वहां से एक साल बाद इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ निर्वासित कर दिया गया और इस प्रकार उनके चौदह वर्षीय निर्वासन का आरंभ हुआ।
असंख्य कठिनाइयों और दुखों के बावजूद इमाम ख़ुमैनी निर्वासन के दौरान भी संघर्ष से पीछे नहीं हटे। इस अवधि में उन्होंने अपने संदेशों और भाषणों के माध्यमों से कैसेटों व पम्फ़लेटों के रूप में जनता तक पहुंचते थे, लोगों में आशा की किरण को जगाए रखा। इमाम ख़ुमैनी ने वर्ष 1976 में अरबों और इस्राईल के बीच होने वाले छः दिवसीय युद्ध के उपलक्ष्य में एक फ़तवा जारी किया और इस्राईल के सथ मुसलमान राष्ट्रों के हर प्रकार के राजनैतिक एवं आर्थिक संबन्धों और इसी प्रकार इस्राईल निर्मित वस्तुओं के प्रयोग को हराम बताया। इमाम ख़ुमैनी ने ईरान में अपने संघर्ष से जहां ईरान में संघर्षकर्ता बनाए वहीं उन्होंने ईरान के अतिरिक्त इराक, लेबनान, मिस्र, पाकिस्तान तथा अन्य इस्लामी देशों में बड़ी संख्या में अपने अनुयाई बनाए।
इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में आने वाली क्रान्ति
उस दिन महिला, पुरूष, बच्चे और बूढ़े सब ही आए थे। दूर से लोगों का एक ऐसा भव्य जनसमूह दिखाई दे रहा था जिनके, अल्लाहो अकबर-ख़ुमैनी रहबर आकाशभेदी नारों से, उनके पैरों के नीचे धरती कांप रही थी। उस दिन गुरू-अध्यापक-धर्मगुरू-व्यापारी-कारीगर-श्रमिक और कर्मचारी सभी आए थे। ताकि विश्व के सामने व्यवहारिक रूप से इमाम ख़ुमैनी जैसे महान नेता के प्रति अपनी निष्ठा और प्रेम का प्रदर्शन कर सकें। उनमें से प्रत्येक की आंखों में मान-सम्मान और गौरव स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था। यह लोग फूलों के गुलदस्तों और प्रेम से भरे हुए हृदयों के साथ अपने नेता के स्वागत के लिए आए थे। जिस समय सूर्य ने अपनी किरणे बिखेरनी शुरू कीं तो दूर क्षितिज से पवित्रता तथा स्वतंत्रता देखते ही राष्ट्र की ओर से "ख़ुमैनिये इमाम" ख़ुमैनिय इमाम की आवाज़े हर ओर गूंजने लगीं।
उस दिन, बारह बहमन १३५७ हिजरी शम्सी अर्थात की पहली फ़रवरी थी। यह दिन, ईरान में इमाम ख़ुमैनी के प्रवेश का दिन था। उन्हीं दिनों एक पश्चिमी टीकाकार ने लिखा था कि अब वास्तविक शासक के रूप में वरिष्ठ धर्मगुरूओं में से एक वरिष्ठतम धर्मगुरू, राजनेताओं के भी ऊपर आ चुका है। लंदन से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र टाइम्स ने इतिहास के इस वर्तमान अद्वितीय व्यक्तित्व का परिचय कराते हुए लिखा था कि इमाम ख़ुमैनी का व्यक्तित्व ऐसा है कि उन्होंने अपने भाषणों से जनता को सम्मोहित कर लिया है। वे साधारण भाषा में बोलते हैं और अपने समर्थकों का आत्मविश्वास बढ़ाते हैं। उन्होंने यह कार्य करके दिखा दिया है कि बड़ी निर्भीकता के साथ अमरीका जैसी महाशक्ति का मुक़ाबला किया जा सकता है।
इसी संदर्भ में एक फ़्रांसीसी दर्शनशास्त्री और टीकाकार एवं विचारक मीशल फ़ोको लिखते हैं कि आयतुल्ला ख़ुमैनी का व्यक्तित्व, एक चमत्कारी व्यक्तित्व है। कोई भी राजनेता या शासक अपने देश के समस्त संचार माध्यमों की सहायता के बावजूद यह दावा नहीं कर सकता कि उसके संबन्ध जनता के साथ इतने गहरे हैं।
इस्लामी क्रांति के सांस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी केवल एक राजनैतिक क्रांतिकारी नेता नहीं। इस महान व्यक्ति ने अपने जीवन का अधिकांश समय अन्याय के विरूद्ध आवाज़ उठाने में ही व्यतीत कर दिया। वे वर्तमान आदर्शों से भी आगे बढ़कर ऐसे धर्मगुरू थे जो ईश्वरीय दूतों के मार्ग और उनकी शैली का अनुसरण करते थे और वे सत्य व न्याय की स्थापना को सृष्टि की वास्तविक्ता के रूप में देखते थे। यही कारण है कि इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में आने वाली क्रान्ति, केवल ईरानी समाज से विशेष नहीं है। इस्लामी क्रांति इस्लाम और क़ुरआन से प्रभावित थी जो मानव समाज को पवित्रता, सच्चाई, स्वतंत्रता और न्याय की ओर बुलाती है। यह महत्वपूर्ण बातें सभी राष्ट्रों में सम्मान की दृष्टि से देखी जाती हैं। इस प्रकार वर्तमान संसार इस जनक्रांति की स्वतंत्रताप्रेमी और स्वावलम्बी विचार धारा से प्रभावित हुआ और इससे पूरे विश्व में व्यापक स्तर पर जागरूकता तथा जागृति उत्पन्न हुई है।
स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी आत्मविश्वास और ईश्वर पर आस्था की भावना से परिपूर्ण थे। इस संदर्भ में एक तत्कालीन अमरीकी समाज शास्त्री "एलविन टाफ़लर" कहते हैं कि आयतुल्ला ख़ुमैनी ने संसार से कह दिया है कि आज के बाद विश्व पटल पर मुख्य कर्ताधर्ता के रूप में महाशक्तियों की ही गिनती नहीं होगी बल्कि सभी राष्ट्रों को शासन का अधिकार प्राप्त होगा। आयतुल्ला ख़ुमैनी हमसे कहते हैं कि महाशक्तियां, विश्व पर वर्चस्व जमाने के लिए अपने अधिकार की बात कहती हैं, उन्हें यह अधिकार प्राप्त ही नहीं है।
आधुनिक काल में आध्यात्मिक तथा वैचारिक क्रांति के रूप में ईरान की इस्लामी क्रांति को विशेष स्थान प्राप्त है। अन्य क्रांतियों की तुलना में इस्लामी क्रांति की भिन्नता का कारण वह आधुनिकताएं है जो स्वंय निहित है। इसकी इसी विशेषता के कारण तीन दशक बीत जाने के पश्चात इस्लामी क्रांति आज भी राजनैतिक एवं समाजिक विशेषज्ञों के अध्धयन का विषय बनी हुई है। इन सभी बातों के बावजूद हम यह देखते हैं कि सुनियोजित दंग से पश्चिमी सरकारों द्वारा माध्यमों से यह दर्शाने का प्रयास किया जा रहा है कि मानो इस्लामी क्रांति का समापन निकट है और इससे उत्पन्न होने वाली शासन व्यवस्था अक्षम व्यवस्था है।
अपने उदय के चौथे दशक में इस्लामी क्रांति को विशेष प्रकार की परिस्थितियों का सामना है क्योंकि यह आन्दोलन जनता के बीच से उठा है अतः इस्लामी क्रांति, एक जीवंत अस्तित्व के रूप में गतिशील और सक्रिय रही है। यह क्रांति एक के बाद एक, बहुत से उतार-चढ़ावों और बाधाओं से गुज़रती हुई अपने विकास और प्रगति के मार्ग पर अग्रसर है। राजनैतिक मामलों के टीकाकारों के अनुसार इस्लामी क्रांति, वर्तमान कालखण्ड में भी अपनी आरम्भिक ऊर्जा से संपन्न है और इसमें इस बात की क्षमता पायी जाती है कि आने वाली चुनौतियों का वह डटकर मुक़ाबला कर सके। इस क्रांति को साहसी एवं दूरदर्शी वरिष्ट नेतृत्व का समर्थन प्राप्त है जिसने सदैव के लिये ईरान के मार्ग का निर्धारण करते हुए घोषणा की है कि भविष्य में ईरानी राष्ट्र का मार्ग, वही इमाम ख़ुमैनी क्रान्ति महाशक्तियों के मुक़ाबले में प्रतिरोध, वंचितों एवं अत्याचार ग्रस्तों की रक्षा तथा विश्व स्तर पर इस्लाम एवं क़ुरआन के ध्वज को लहराने का मार्ग है। इस इस्लामी क्रांति की मुख्य समर्थक, ईरान की साहसी जनता है। इस जनता ने बड़ी ही संवेदनशील एवं संकटमयी स्थिति में लाखों की संख्या में उपस्थित होकर इस्लामी क्रांति की आकांक्षाओं और उसके महत्तव का सम्मान किया। ३० दिसंबर २००९ को निकलने वाली रैलियों में ईरानी राष्ट्र ने क्रांति की सफलता के तीन दशकों के पश्चात इस्लामी क्रांति के वैभव, महानता और उसकी आकांक्षाओं के प्रति जनसमर्थन का प्रदर्शन किया था। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता के कथनानुसार जब तक कोई भी राष्ट्र पूरी जागरूकता, ईमान आस्था और दृढ़ संकल्प के साथ अपने अधिकारों का समर्थन करता रहेगा निश्चित रूप से वह विजयी रहेगा।
इस्लामी क्रांति, एक सुप्रभात के रूप में थी। ऐसे प्रभात के रूप में जिसने अत्याचारग्रस्त काल में यह विचार प्रस्तुत किया कि राजनीति में नैतिक्ता तथा आध्यात्म का मिश्रण होना चाहिए। इस विषय के दृष्टिगत यह आवश्यक है कि राजनेताओं और शासकों को चाहिए के वे सदाचार, न्याय तथा वास्तविकता की प्राप्ति को अपने कार्यक्रम में सर्वोपरि रखें ताकि पूरे विश्व में न्याय और शांति की स्थापना हो सके। इस क्रांति ने शाह के अत्याचारी शासनकाल में निराश और उदासीय लोगों को आशा और नवजीवन प्रदान किया। भाग्य ने सन १३५७ हिजरी शम्सी अर्थात १९७९ में ईरान की भूमि को स्वतंत्रता एवं ईमान से जोड़ दिया और जनता का मार्गदर्शन प्रकाशमई क्षितिज की ओर किया।
मानवीय एवं आध्यात्मिक मूल्यों इस्लामी क्रांति आई और इसने पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं पर आधारित समाज के गठन के लिए बड़ी संख्या में शहीद अर्पित किये। इस क्रांति में निष्ठा, स्थाइत्व और एकता, स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इस्लामी क्रांति ने जीवित एवं गतिशील प्रक्रिया के रूप में राजनैतिक एवं समाजिक मंच पर इस्लाम की शिक्षाओं को प्रदर्शित किया। इस क्रांति ने यह दर्शा दिया कि धर्म, मानव जीवन के सभी क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका निभा सकता है और वह उसके लिए प्रगति एवं किल्याण के मार्ग को प्रशस्त करने में भी सक्षम है। स्पेन के प्रोफ़ेसर केलबेस कहते हैं कि इस्लामी क्रांति के साथ धर्म जीवित हो गया है। दैनिक जीवन में आध्यात्मिक सुन्दरता पर ध्यान दिया गया। साथ ही अपने समाजिक संबन्धों को सुन्दर बनाने तथा उनकी मुक्ति के लिए धर्म की शक्ति एवं आध्यात्मिक आकर्षणों की ओर झुकाव, बहुत तेज़ी से बढ़ा है। यह सब कुछ विश्व समुदाय में मन एवं मस्तिष्क में इमाम ख़ुमैनी की इस्लामी क्रांति के कारण आरंभ हुआ है।
इस्लामी क्रान्ति के प्रति जनता का संकला और ईरानी जनता पर मश्वरीय अनुकंपाओं का आभार प्रकट करने का दशक भैं ग्यारह फ़रवरी अर्थात बहमन की बारहवीं तारीख़ उन आकांक्षाओं के सम्मान का दिन है जिन्हें इमाम ख़ुमैनी स्वतन्त्रता प्रेमियों के लिये उपहार स्वरूप लाये।
स्वतन्त्रता प्रभात सभी जागरूक एवं सचेत लोगों के लिए मुबारक हो।