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स्कॉटलैंड की मुसलमान पुलिस इकाई ने इस क़दम का स्वागत किया है।

स्कॉटलैंड की पुलिस ने घोषणा की है कि पुलिस में भर्ती के लिए मुसलमान महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए उसने ऐसी वर्दी का प्रबंध किया है जिससे हिजाब हो सकेगा। इससे पहले मुसलमान महिला अफ़सरों को हिजाब करने के लिए बड़े अफ़सरों की सहमति लेनी पड़ती थी परंतु अब आधिकारिक तौर पर मुसलमान पुलिस महिलाएं हिजाब कर सकती हैं।

स्कॉटलैंड की मुसलमान पुलिस इकाई ने इस क़दम का स्वागत किया है।

 इसी बीच स्कॉटलैंड के पुलिस प्रमुख फिल गोर्मले Phil Gormley  ने इस संबंध में कहा कि पुलिस को ऐसे समाज का प्रतिनिधि होना चाहिये जिसकी वह सेवा कर रही है। उन्होंने कहा कि इस घोषणा से मुझे खुशी हो रही है और हम समाज विशेषकर मुसलमान समाज और इसी प्रकार कर्मचारियों व अफसरों के समर्थन का स्वागत करते हैं।

उन्होंने कहा कि हमें आशा है कि पुलिस के लिए हिजाब के विकल्प में वृद्धि से पुलिस में भर्ती के लिए अधिक सहायता मिलेगी और जीवन के अनुभवों में वृद्धि होगी। जारी वर्ष के आरंभ में जो रिपोर्ट स्कॉटलैंड के पुलिस कार्यालय को पेश की गयी थी वह इस बात की सूचक थी कि वर्ष 2015-16 में 4809 महिलाएं पुलिस में भर्ती की इच्छुक थीं जिनमें से 127 महिलाओं का संबंध अल्प संख्यक समुदाय से था।

इसी मध्य स्कॉटलैंड पुलिस की मुसलमान इकाई के प्रमुख फहद बशीर ने इसे सही दिशा में उठाया गया एक क़दम बताया और कहा है कि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस कार्य से मुसलमान और दूसरी जाति व धर्म की महिलाओं को पुलिस में भर्ती के लिए प्रोत्साहन मिलेगां।   

 

 

तेहरान मस्जिदों के इमामों की सुप्रीम लीडर हज़रत आयतुल्लाह ख़ामेनई से मुलाक़ात

अहलेबैत न्यूज़ एजेंसी अबना: इक्कीस अगस्त की तारीख, ऑस्ट्रेलियाई मूल के चरमपंथी यहूदियों की ओर से मस्जिदुल अक़सा को जलाए जाने की सैंतालीसवीं बरसी है, जिसे मस्जिद दिवस के रूप में मनाया जाता है। इक्कीस अगस्त की तारीख को ईरान के सुझाव और अनुरोध पर इस्लामी सहयोग संगठन की ओर से मस्जिद दिवस का नाम दिया गया था ताकि मस्जिदों की पवित्रता और सम्मान को निश्चित बनाया जा सके।
तेहरान की मस्जिदों के इमामों की इस्लामी क्रांति के सुप्रीम लीडर हज़रत आयतुल्लाह ख़ामेनई से होने वाली इस बैठक में उन्होंने मस्जिदों को सांस्कृतिक प्रतिरोध की धुरी और सामाजिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण सेंटर बताया। उन्होंने कहा 47 साल ग़ुज़र जाने के बाद आज भी मस्जिदुल अक़सा मज़लूम और इस्राईल के ज़ुल्म का शिकार है।

 

मस्जिदुल अक़्सा को आग लगाने की 47वीं बरसी पर फ़िलिस्तीनी प्रतिरोधकर्ता गुटों ने इस पवित्र स्थल को बचाने पर बल दिया है।

अलआलम के अनुसार, फ़िलिस्तीनी प्रतिरोधकर्ता गुटों ने मस्जिदुल अक़्सा को यहूदी रंग देने की ज़ायोनी शासन की नीति के तहत इस पवित्र स्थल पर हमलों की भर्त्सना की। स्वशासित फ़िलिस्तीन की संसद में क़ुद्स मामले के प्रमुख अहमद अबू हलबिया ने कहा कि ज़ायोनी, मस्जिदुल अक़्सा के चारों ओर सुरंग खोदने के बावजूद अभी भी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच सके हैं। फ़िलिस्तीन के इस्लामी जेहाद आंदोलन के नेता अहमद मुदल्लिल ने कहा कि प्रतिरोध को जारी रखने और अतिग्रहणकारियों को मस्जिदुल अक़्सा, क़ुद्स और पश्चिमी तट में पराजित करने में ही फ़िलिस्तीनियों का हित है।

 

हमास के प्रवक्ता सामी अबू ज़ोहरी ने कहा कि आज मस्जिदुल अक़्सा में आग लगाने की बरसी का दिन अरब व इस्लामी जगत को यह संदेश देता है कि वह अतिग्रहणकारियों के अपराध के मुक़ाबले में फ़िलिस्तीनियों के प्रतिरोध को मज़बूत करने और मस्जिदुल अक़्सा को बचाने के लिए उठ खड़ा हो। हमास की सैन्य शाखा इज़्ज़ुद्दीन क़स्साम ने भी रफ़ह में एक समारोह में सैन्य परेड आयोजित कर प्रतिरोध की अहमियत को प्रदर्शित किया।

ज़ायोनी शासन ने ग़ज़्ज़ा पट्टी पर मीज़ाइल हमला करके एक बार फिर इस क्षेत्र में संघर्ष विराम का उल्लंघन किया है।

फ़ार्स न्यूज़ एजेन्सी की रिपोर्ट के अनुसार, फ़िलिस्तीनी सूत्रों ने रविवार को गज़्ज़ा पट्टी पर इस्राईल के मीज़ाइल हमले की सूचना दी है।

इसी के साथ ज़ायोनी शासन की वायु सेना ने दावा किया है कि दक्षिणी अवैध अधिकृत क्षेत्रों से होने वाले राकेट हमलों के जवाब में ग़ज़्ज़ा पट्टी को निशाना बनाया गया है।

ज़ायोनी शासन के स्थानीय मीडिया ने भी ज़ायोनी अधिकारियों के हवाले से ग़ज़्ज़ा पट्टी की सीमा के निकट व दक्षिणी अवैध अधिकृत की सीमा के पास मीज़ाइल हमले के सायरबन बजने की ओर संकेत करते हुए दावा किया कि यह सायरन सेदूरात पर राकेट हमले की वजह से बजा किन्तु इसमें कोई घायल नहीं हुआ।  

 

ज़ायोनी शासन, मुसलमानों के अति पवित्र स्थल, मस्जिदुल अक़सा को शहीद करने के प्रयास में अब भी लगा हुआ है।

फ़िलिस्तीन के वक़्फ़ व धार्मिक मामलों के मंत्री ने कहा है कि ज़ायोनी शासन, मस्जिदुल अक़सा को शहीद करने के प्रयास में लगा हुआ है।  उन्होंने कहा कि ज़ायोनी सैनिकों का मस्जिदुल अक़्सा पर धावा, इस पवित्र स्थल को आग लगाने के अपराध से कम नहीं है।

शैख़ यूसुफ़ इदईस ने ज़ायोनियों द्वारा मस्जिदुल अक़्सा को आग लगाने की 47वीं वर्षगांठ के अवसर पर कहा कि इन हमलों के संबंध में विश्व समुदाय की ख़ामोशी ने ज़ायोनियों में इस पवित्र स्थल का अनादर करने का दुस्साहस बढ़ा दिया है। उन्होंने कहा कि क़ुद्स शहर के अतिग्रहण के समय से ज़ायोनी शासन ने मस्जिदुल अक़्सा को गिराने के लिए विभिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाए हैं।

शैख़ यूसुफ़ इदईस ने बताया कि ज़ायोनी, हर महीने 50 बार से ज़्यादा मस्जिदुल अक़्सा पर हमले करते हैं।  

फ़िलिस्तीन के वक़्फ़ व धार्मिक मामलों के मंत्री ने इस्लामी सहयोग सगंठन सहित अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से अपील की कि मस्जिदुल अक़्सा के ख़िलाफ़ ज़ायोनी शासन की उन गतिविधियों को रुकवाने के लिए इस्राईल पर दबाव डाला जाए जिनका लक्ष्य इस पवित्र स्थल की ऐतिहासिक वास्तविकता को बदलना है।

ज्ञात रहे कि 21 अगस्त सन 1969 को आस्ट्रिलियन मूल के एक ज़ायोनी "माइक रोहन" ने मस्जिदुल अक़सा में आग लगाई थी।  रविवार को इस घटना की 47वीं बरसी पर ज़ायोनी शासन ने बैतुल मुक़द्दस में सुरक्षा के कड़े प्रबंध किये थे जिसके कारण यह नगर एक छावनी में परिवर्तित हो गया है।

 

लेबनान के इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हिज़्बुल्लाह के महासचिव ने कहा है कि लेबनान के विरुद्ध नये युद्ध की स्थिति में यह हिज़्बुल्लाह है जो विजयी होगा।

समाचार एजेन्सी मेहर की रिपोर्ट के अनुसार सैयद हसन नसरुल्लाह ने अलमनार टीवी चैनल से इंठ वर्यू में कहा कि वर्ष 2006 के 33 दिवसीय युद्ध में प्रतिरोध को मिलने वाली सफलता असामान्य घटना थी और यह ऐसी स्थिति में है जब जायोनी शासन ने जितना भी युद्ध अरब पक्षों के विरुद्ध किया था उसकी तुलना में उसने 2006 में सबसे अधिक बमबारी की थी और उसे एक लक्ष्य के तहत क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय समर्थन भी प्राप्त था और वह लक्ष्य प्रतिरोध का अंत करना था।

लेबनान के इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हिज़्बुल्लाह के महासचिव ने बल देकर कहा कि अगर लेबनान के विरुद्ध कोई नया युद्ध होता है तो हमे पूरी तरह  विश्वास है कि इस बार भी प्रतिरोध विजयी होगा।

उन्होंने कहा कि जायोनियों की सबसे महत्वपूर्ण स्वीकारोक्ति यह है कि अगर हम हिज़्बुल्लाह को पराजित करना चाहें तो यह कार्य सीधे और आमने -सामने युद्ध से संभव नहीं है और ईरान से भी युद्ध का कोई फायदा नहीं है और इसी कारण वे सीरिया को प्रतिरोध के मार्ग से हटाने की चेष्टा में हैं।

उन्होंने कहा कि आज जो कुछ सीरिया में हो रहा है वह एक प्रकार से 33 दिवसीय युद्ध का प्रतिशोध और उसी युद्ध का जारी रहना है। उन्होंने स्पष्ट किया कि 33 दिवसीय युद्ध का मूल लक्ष्य लेबनान, सीरिया, फिलिस्तीन में प्रतिरोध को समाप्त करना और अंततः ईरान को अलग- थलग करना था। 

उन्होंने कहा कि सीरिया के शत्रुओं की इस देश के राष्ट्रपति बश्शार असद से मूल समस्या यह है कि वह ऐसे नये मध्यपूर्व को स्वीकार नहीं रहे हैं जिसके शासक व अधिकारी अमेरिका के समक्ष नतमस्तक रहें।

उन्होंने अपने भाषण के एक अन्य भाग में बल देकर कहा कि अरब पक्ष और तकफीरी गुट जायोनी शासन के समर्थक की भूमिका निभा रहे हैं।  

 

 

इस्राईल ने लेबनान के प्रतिरोध आंदोलन हिज़्बुल्लाह और फ़िलिस्तीन के इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हमास से मुक़ाबले के नाम पर ज़मीनी और समुद्री सैन्य अभ्यास शुरु किया है।

समाचार एजेंसी क़ुद्स के अनुसार, शुक्रवार से शुरु हुआ यह सैन्य अभ्यास एक हफ़्ते तक जारी रहेगा। एक महीने से कम समय में ज़ायोनी सेना का यह दूसरा ज़मीनी व समुद्री अभ्यास है।

ज़ायोनी वेबसाइट एनआरजी के अनुसार, यह अभ्यास संवेदनशील क्षेत्रों में हमास के नौसैनिक कमान्डोज़ सहित अन्य प्रतिरोधी गुटों के कमान्डोज़ की घुसपैठ की ओर से चिंता के कारण किया जा रहा है।

इससे पहले ज़ायोनी टीवी चैनल-10 ने सीमावर्ती क्षेत्रों में लेबनानी सेना के मीनार के निर्माण के संबंध में, अवैध रूप से बसाए गए ज़ायोनियों की चिंता की ओर इशारा करते हुए कहा था कि इस प्रकार के निर्माण पर इस्राइली सेना की उदासीनता के कारण ज़ायोनी क्रोधित हैं।

ज़ायोनी मीडिया का कहना है कि लेबनान और फ़िलिस्तीन की सीमाओं पर इस तरह की मीनारों के निर्माण से इन सीमाओं पर इस्राइली सेना के सुरक्षा उपाय नाकाम हो जाएंगे।

दक्षिणी लेबनान और पश्चिमी बेक़ा से ज़ायोनी सैनिकों को खदेड़ने के 16 साल बाद आज भी ज़ायोनी शासन लेबनानी सेना, जनता और प्रतिरोध की क्षमता से डरता है।

ज्ञात रहे 25 मई 2000 को लेबनान की भूमि से ज़ायोनी खदेड़े गए थे और लेबनान की अतिग्रहित भूमि का एक भाग आज़ाद हुआ था।     

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन में समाज के वंचित वर्ग के साथ मिल कर रहने का जो मानदंड है वह गरिमा का उसूल है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की नज़र में जो क़ुरआन का दृष्टिकोण है, हर व्यक्ति की गरिमा होती है जो ईश्वर की ओर से दी गयी है। इसलिए हर उस समाज में संबंध का आधार मानवीय प्रतिष्ठा होगी जो ईश्वरीय मूल्यों पर चलता हो। ऐसे समाज में मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुंचाने वाली चीज़ों का चलन नहीं होता।

 

11 ज़ीक़ादा पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का शुभ जिन्म दिवस है। ईरान में 1 ज़ीक़ादा से 11 ज़ीकादा को दहे करामत अर्थात मानव गरिमा का दस दिन घोषित किया गया है।

मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा को इंसान की मूल विशेषताओं के रूप में अहमियत हासिल रही है और इस विशेषता पर इंसान के बारे में होने वाले अध्ययनों में विशेष रूप से ध्यान दिया गया है।

 

गरिमा इंसान के उच्च स्थान और अन्य प्राणियों से उसकी श्रेष्ठता को बयान करती है। हर धर्म, मत और मानव विज्ञान में इस विषेशता की विशेष आयाम से समीक्षा की गयी है।

मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा के विषय को इस्लामी क्रान्ति के संविधान में विशेष रूप से अहमियत दी गयी है। इसी प्रकार मानवीय गरिमा को इस्लाम के बुनियादी उसूलों जैसे एकेश्वरवाद, पैग़म्बरी और प्रलय जैसे मूल उसूलों के साथ बयान किया गया है।

 

ईरान में 1 से 11 ज़ीक़ादा के बीच के दिनों ने यह अवसर प्रदान किया कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के अनुयायी न सिर्फ़ ईरान बल्कि पूरी दुनिया में जहां कहीं भी हों, मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा के अर्थ और इस्लामी शिक्षाओं, संस्कृति और मुसलमान महापुरुषों के आचरण के ज़रिए इसे व्यवहारिक रूप से समझें। मानवीय गरिमा से परिचय इस्लामी व मानवीय संबंधों के आधार पर समाज की स्थापना के लिए  पृष्ठिभूमि है।

 

धार्मिक ग्रंथों पर ध्यान देने से यह बिन्दु स्पष्ट हो जाता है कि मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा का आधार एकेश्वरवाद पर गहरी आस्था और सभी इंसान में पैदाइश की दृष्टि से समानता होने पर टिका है। इंसान पैदाइशी सज्जनता के कारण अन्य प्राणियों पर श्रेष्ठता रखता है। दूसरा बिन्दु इस विशेषता की दृष्टि से सभी आदमी एक समान हैं क्योंकि सब इंसान को ईश्वर ने पैदा किया है और सबके सब ईश्वर के मोहताज हैं। क़ुरआनी शिक्षाओं के अनुसार, कोई भी इंसान इंसानियत की दृष्टि से किसी दूसरे इंसान से श्रेष्ठ नहीं है बल्कि ईश्वर के आदेश का पालन और उसका भय एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति पर श्रेष्ठता का आधार है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के हुजरात सूरे की आयत नंबर 13 में ईश्वर कह रहा है, ईश्वर के निकट तुम में सबसे ज़्यादा सम्मानीय वह है जो उससे सबसे ज़्यादा डरता हो।

 

आस्था का यह आधार जिसे क़ुरआन ने बताया है, एक ओर जातीय भाषाई और मौंगोलिक अंतरों को नकारता है तो दूसरी ओर मानव समाज के एक एक व्यक्ति को उनके बीच विदित अंतर के बावजूद एक दूसरे से जोड़ता है और सुसंगत मानता है। इस दृष्टिकोण में मानवीय गरिमा तक पहुंचने का मार्ग ईश्वरीय आदेश के पालन और उससे डरने में निहित है। दूसरे शब्दों में गरिमा तक पहुंचने के लिए दुनिया में ईश्वर की परम सत्ता को मानना होगा और हर स्थिति में ईश्वर का पालन करना होगा। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के आचरण में यह विशेषता भलिभांति दिखाई देती है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की नज़र में मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा को हासिल करने का एक रास्ता ईश्वरीय आदेश का पालन और उससे डरना है। इब्राहीम बिन अब्बास के हवाले से रवायत में है, “एक दिन एक व्यक्ति ने उनसे कहा, ईश्वर की सौगंध ज़मीन पर आपके बाप-दादाओं से ज़्यादा कोई सज्जन दिखाई नहीं देता। तो इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा, ईश्वर के डर से उन्हें सज्जनता मिली।”

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम दूसरों का सम्मान ख़ास तौर पर समाज के वंचित वर्ग का सम्मान करने पर विशेष रूप से ध्यान देते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का एक नौकर उनके व्यवहार व आचरण के एक पहलू के बारे में कहता है, “जब भी इमाम को दिन चर्या से ख़ाली समय मिलता तो परिवार के सदस्यों और पास में रहने वालों को अपने पास बुलाते और उनके बात करते। जब भी दस्तरख़ान पर मौजूद होते तो छोटे-बड़े यहां तक कि नौकरों को भी दस्तरख़ान पर बुलाते थे।”

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के इससे भी श्रेष्ठ मानवीय आचरण की एक मिसाल यासिर नामक नौकर ने बयान की है। वह कहता है, “इमाम नौकरों व मज़दूरों से कहते थे कि अगर मैं तुम लोगों के पास इस स्थिति में पहुंचू कि तुम लोग खाना खा रहे हो तो खड़े मत होना यहां तक कि खाना समाप्त हो जाए।” अकसर ऐसा होता था कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम हममें से किसी को किसी काम के लिए बुलाते और हम कह देते थे कि खाना खा रहे हैं तो कहते थे उसे खाना ख़त्म करने दो।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने ऐसे दौर में परिवार के सदस्यों और अपने पास रहने वालों के साथ ऐसा व्यवहार अपनाया कि जब उस दौर में नैतिकता के मानदंड कुछ और थे। उस दौर के अज्ञानता के दौर में नौकरों और नौकरानियों को कोई अधिकार हासिल नहीं था और वे अपने स्वामियों के निकट होने का साहस नहीं कर सकते थे लेकिन इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की दानशीलता के दस्तरख़ान पर सब नौकर बैठते थे और इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उनसे प्रेमपूर्ण व्यवहार में कहते थे कि तुम लोग भी इंसान हो और तुम्हें भी मानवीय व नैतिक अधिकार हासिल है अगर ऐसा न हो तुम्हारे साथ भी अत्याचार हुआ है।

 

बल्ख़ का एक व्यक्ति इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ख़ुरासान के सफ़र में उनके साथ था और उनके इस व्यवहार को अपनी आंखों से देखता है। वह कहता है,“ख़ुरासान के सफ़र में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के साथ था। एक दिन उन्हें जब खाने की इच्छा हुयी तो उन्होंने सभी नौकरों को जिसमें अश्वेत भी थे और दूसरे लोगों को दस्तरख़ान पर बुलाया। मैंने कहा बेहतर होगा कि वे दूसरे दस्तरख़ान पर खाना खाएं। उन्होंने कहा, हम सबका पालनहार एक है। हमारी मां हव्वा और बाप आदम हैं और पुन्य कर्म पर निर्भर है।” 

 

जो चीज़ इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन में समाज के वंचित वर्ग के साथ मिल कर रहने में मानदंड के रूप में दिखाई देती है वह गरिमा का उसूल है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की नज़र में हर व्यक्ति को ईश्वर की ओर से विशेष स्थान हासिल है। इसलिए ईश्वरीय मूल्यों पर आधारित समाज में मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा संबंध का आधार बनती है और इस गरिमा को नुक़सान पहुंचाने वाली चीज़ों को छोड़ दिया जाता है। मिसाल के तौर पर मानवीय गरिमा को नुक़सान पहुंचाने वाला एक तत्व आज़ादी का छिन जाना है। इस संदर्भ में ज़करिया नामक एक व्यक्ति कहता है, “मैंने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से उस ग़ैर मुसलमान व्यक्ति के बारे में परामर्श मांगा जो भूख व निर्धनता के कारण अपने बेटे को मेरे पास लाया और उसने कहा, मेरा बेटा तुम्हारे अधिकार में है तुम खाना पानी दो और उसे ग़ुलाम बना लो।”

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा, “इंसान आज़ाद है। आज़ाद स्थिति में उसे ख़रीदा और बेचा नहीं जा सकता। यह काम करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है।”

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इस बात से मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा का पता चलता है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की नज़र में इंसान आज़ाद है और उसकी आर्थिक ज़रूरतें उसे दूसरों का ग़ुलाम नहीं बना सकतीं और ईश्वर की ओर से उसे हासिल आज़ादी नहीं छीन सकती चाहे वह ग़ैर मुसलमान ही क्यों न हो। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का यह व्यवाहर ख़ास तौर पर समाज के वंचित वर्ग के लोगों के साथ ज़्यादा दिखाई देता है क्योंकि गरिमा पर आधारित नैतिकता से इंसान अपनी पहचान पाता है, अपने स्थान को पहचानता है और यही चीज़ व्यक्तिगत व सामाजिक गतिविधियों का स्रोत बनती है। इसके मुक़ाबले में लोगों के साथ अपमानजनक व्यवहार और उनके मानवीय स्थान को नज़रअंदाज़ करने के कारण आत्मसम्मान के ख़त्म होने सहित दूसरे नुक़सानदेह परिणाम सामने आते हैं।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के आचरण में मानवीय गरिमा की रक्षा की एक और मिसाल दान-दक्षिणा के समय लोगों की इज़्ज़त की रक्षा है। मानवीय प्रतिष्ठा व आत्म-सम्मान पर आंच आने की एक स्थिति ऐसी होती है जब किसी व्यक्ति को ख़ास तौर पर खोतपीते व्यक्ति को विशेष स्थिति में दूसरों के पैसों की मदद की ज़रूरत पड़े। प्रायः ऐसे लोगों के लिए दूसरों से मदद मांगना बड़ा सख़्त होता है। यसअ बिन हम्ज़ा नामक व्यक्ति कहता है कि एक दिन बहुत लोगों के साथ इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पास बैठा मौजूद उनके बातचीत कर रहा था। लोग उनसे धार्मिक कर्तव्यों और धर्म में हलाल व वर्जित चीज़ों के बारे में सवाल कर रहे थे। इस बीच एक व्यक्ति पहुंचा। उसने सलाम करने के बाद इमाम से अपना परिचय कराया और कहा कि आपके अनुयाइयों में हूं। अपने घर से हज के लिए गया था और अब रास्ते का ख़र्च खो गया है। आपसे मदद चाहता हूं ताकि अपने शहर पहुंच सकूं और चूंकि सदक़ा नामक दान पाने का पात्र नहीं हूं अपने घर पहुंच कर आपकी ओर से मदद के पैसों को आपके नाम पर दान कर दूंगा। इस बीच इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उसे ढारस बंधाई और उससे बैठने के लिए कहा। थोड़ी देर बाद सभा में सिर्फ़ तीन लोग मौजूद थे। इस बीच इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम दूसरे कमरे में गए। कुछ देर के बाद उन्होंने अपना हाथ दरवाज़े से बाहर निकाला और कहा, वह ख़ुरासानी व्यक्ति कहा है? उसने कहा मौजूद हूं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा यह 200 दीनार ले लो, सफ़र सहित दूसरे ख़र्चे पूरे करना और मेरी तरफ़ से दान करने की ज़रूरत नहीं है। अब चले जाओ ताकि आमना-सामना न हो। मौजूद लोगों में से एक व्यक्ति ने पूछाः मैं आप पर क़ुर्बान जाऊं आपने उसके साथ भलाई की और बहुत ज़्यादा पैसे दिए। क्यों उसके सामने नहीं आए? इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा, मुझे पसंद नहीं कि निवेदन करने की पीड़ा उसके चेहरे पर देखूं।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के विचार व व्यवहार से पता चलता है कि इस्लामी महापुरुषों के निकट मानवीय गरिमा और इंसान का सम्मान कितनी अहमियत रखता है। कुल मिलाकर यह नतीजा निकाला जा सकता है कि इस्लामी शिक्षाओं में इंसान को सब प्राणियों में श्रेष्ठ बताया गया है। यह पैदाइशी गरिमा बहुत से इस्लामी आदेश व अधिकार का आधार है। इस्लामी संस्कृति में दूसरों के साथ मिल कर रहने का उसूल इंसान की गरिमा के मद्देनज़र बनाया गया है जिसकी मिसाल इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के व्यवहार में दिखाई देती है।

 

लेबनान के हिज़बुल्लाह आंदोलन के महासचिव ने कहा है कि 33 दिवसीय युद्ध के दौरान इस्राईली सेना के ढांचे को भारी अघात पहुंचा और इस शासन की महत्वकांक्षा उसकी लज्जाजनक पराजय का कारण बनी।

सैयद हसन नसरुल्लाह ने शनिवार को सन 2006 में इस्राईल के खिलाफ युद्ध में विजय की दसवीं सालगिरह पर भाषण में बल दिया कि इस्राईल और अमरीका ने वर्ष 2006 के युद्ध में पराजय का सामना किया और उस युद्ध का फैसला भी आज यमन के युद्ध की तरह, अमरीका ने किया था। 

सैयद हसन नसरुल्लाह ने कहा कि इस युद्ध में इस्राईली उद्देश्यों की विफलता, इस्लामी प्रतिरोध की सब से बड़ी उपलब्धि रही है। 

हिज़्बुल्लाह के महासचिव ने कहा कि आज इस्राईल, इस्लामी प्रतिरोध से भयभीत है और आज दस साल पहले की तुलना में लेबनान अधिक सुरक्षित है तथा दक्षिणी लेबनान इस्राईल के साथ बिना किसी शांति समझौते के सुरक्षित व शांत है। 

सैयद हसन नसरुल्लाह ने इसी प्रकार उन सभी देशों के प्रति आभार प्रकट किया जो इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन के साथ खड़े हैं। 

याद रहे जूलाई सन 2006 में इस्राईली सेना और लेबनान के हिज़्बुल्लाह आंदोलन के मध्य हुए युद्ध में लेबनान को विजय प्राप्त हुई थी और इस दौरान 119 इस्राईली सैनिक मारे गये थे। 

इस युद्ध में हिज़्बुल्लाह ने अवैध अधिकृत फिलिस्तीन के विभिन्न क्षेत्रों पर राकेट की बारिश कर दी थी।   

 

ज़ायोनी शासन द्वारा फ़िलिस्तीनियों के घर तोड़ने पर फ़्रांस ने तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की है।

फ़्रांस ने कहा है कि फ़िलिस्तीनियों के घरों को अकारण तोड़ा जाना, अन्तर्राष्ट्रीय नियमों का खुला उल्लंघन है।

फ्रांस के विदेशमंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा है कि हम इस्राईल से मांग करते हैं कि वह यह काम न करे क्योंकि यह अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के विरुद्ध है।  प्रवक्ता ने कहा कि इस वर्ष इस्राईल द्वारा फ़िलिस्तीनियों के घरों को तोड़े जाने की यह तीसरी घटना है जो वास्तव में खेदजनक है।  उन्होंने कहा कि इससे पहले भी हाल ही में फ़िलिस्तीनियों की कृषि की भूमिकों को क्षति पहुंचाई गई थी।

फ्रांसीसी विदेश मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि बड़े खेद की बात है कि दक्षिणी अलख़लील नगर में भी एेसी कई परियोजनाओं को ज़ायोनी शासन ने क्षति पहुंचाई जिसके लिए धन, यूरोपीय संघ ने दिया था।

ज्ञात रहे कि इससे पहले फ़िलिस्तीन की मानवाधिकार संस्था ने बताया था कि इस वर्ष के आरंभ में इस्राईल ने जार्डन नदी के पश्चिमी तट पर फ़िलिस्तीनियों के लगभग 168 घर गिरा दिये जिसके कारण 740 फ़िलिस्तीनी बेघर हो गए जिनके पास अबतक कोई रहने का सहारा नहीं है।