رضوی

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 संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने ग़ज़्ज़ा में युद्ध-विराम समझौते को नाज़ुक और बार-बार तोड़ा जाने वाला बताते हुए इसके पूर्ण सम्मान की अपील की है। उन्होंने कहा कि युद्ध-विराम, फ़िलिस्तीनी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार और दो-राष्ट्र समाधान का रास्ता खोल सकता है।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने ग़ज़्ज़ा में युद्ध-विराम समझौते को नाज़ुक और बार-बार तोड़ा जाने वाला बताते हुए इसके पूर्ण सम्मान की अपील की है। उन्होंने कहा कि युद्ध-विराम, फ़िलिस्तीनी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार और दो-राष्ट्र समाधान का रास्ता खोल सकता है।

न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान गुटेरेस ने कहा,ग़ज़्ज़ा में युद्ध-विराम नाज़ुक दौर में है, इसका बार-बार उल्लंघन होता है, लेकिन यह अभी भी लागू है। मैं मज़बूत अपील करता हूँ कि युद्ध-विराम का पूरा सम्मान किया जाए और इसे बातचीत के दूसरे चरण का आधार बनाया जाए, ताकि फ़िलिस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार और दो-राष्ट्र समाधान के लिए परिस्थितियाँ तैयार हो सकें।

उन्होंने बताया कि मानवीय प्रतिबंधों के बावजूद ग़ज़्ज़ा में राहत कार्य बढ़ाए जा रही हैं। गुटेरेस ने कहा, “कुछ मुश्किलें और अवरोध अब भी मौजूद हैं, लेकिन हम ग़ज़्ज़ा में अपनी मानवीय सहायता को तेज़ी से बढ़ा रहे हैं।उन्होंने जोड़ा आगे संयुक्त राष्ट्र के कदमों का फ़ैसला निश्चित रूप से सुरक्षा परिषद ही करेगी।

अंत में उन्होंने कहा अक्टूबर 2023 से अब तक इज़रायल ने घिरे हुए ग़ज़्ज़ा पट्टी में लगभग 70 हज़ार फ़िलिस्तीनियों को मार दिया है, जिनमें बड़ी संख्या महिलाओं और बच्चों की है। इज़रायल ने क्षेत्र के ज़्यादातर हिस्सों को मलबे में बदल दिया है और लगभग पूरी आबादी को बेघर कर दिया है।

हिंदुस्तान मे सुप्रीम लीडर के प्रतिनिधि हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन डॉ. अब्दुल-मजीद हकीम-इलाही ने अपने वफ्द के हमराह अमीर-ए-जमाअत-ए-इस्लामी हिंद, डॉ. सैयद सादतुल्लाह हुसैनी से दिल्ली में अहम मुलाकात की। दोनों रहनुमाओं ने असर-ए-हाज़िर के चैलेंजेज़, नौजवान नस्ल के फ़िक्री मसाइल, इस्लामी दुनिया की मौजूदा हालत और मुस्तक़बिल के मुश्तरका इल्मी व तर्बियती मंसूबों पर तफ़सीली गुफ़्तगू की।

हिंदुस्तान में वली-ए-फकीह के प्रतिनिधि हुज्‍जतुल-इस्‍लाम वल-मुस्‍लिमीन डॉ. अब्दुल-मजीद हकीम-इलाही ने अपने हमराह वफ्द के साथ जमाअत-ए-इस्‍लामी हिंद के मरकज़ी दफ्तर में अमीर-ए-जमाअत, डॉ. सैयद सादतुल्लाह हुसैनी से अहम और मानीखेज मुलाकात की। यह मुलाकात दोनों इदारों के तवील फ़िक्री व समाजी तअल्लुक़ात को मज़ीद मज़बूत बनाने की समत मे एक फ़ैसला-कुन क़दम क़रार दी जा रही है।

मुलाकात का आग़ाज़ निहायत खुशगवार फ़ज़ा में हुआ। अमीर-ए-जमाअत-ए-इस्लामी हिंद डॉ. सैयद सादतुल्लाह हुसैनी ने वफ्द का ख़ैर-मक़दम करते हुए कहा कि सुप्रीम लीडर के दफ़्तर और "जमाअत-ए-इस्लामी हिंद" के बाहमी तअल्लुक़ात कई दहाइयों पर मुहीत हैं। उन्होंने इस अम्र पर ज़ोर दिया कि जमाअत-ए-इस्लामी हिंद मुअतदिल इस्लाम की तर्जुमान है और बैनेल-मज़ाहिब गुफ्तगू को अपनी फ़िक्री आसास का बुनियादी हिस्सा समझती है।

हुज्‍जतुल-इस्लाम वल-मुस्‍लिमीन हकीम-इलाही ने अपनी गुफ्तगू में नौजवान नस्ल के फ़िक्री बहरान, सोशल मीडिया के वसी असरात और मग़रिबी तहज़ीबी यलगार के ख़तरात का तफ़सीली जाएज़ा पेश किया।

उन्होंने कहा कि आज सत्तर फ़ीसद नौजवान इंटरनेट से बराहे-रास्त अपनी फ़िक्री ग़िज़ा हासिल कर रहे हैं, ऐसे में दीऩी मराकिज़, उलेमा और जमाअत-ए-इस्लामी जैसे इदारों पर ज़िम्मेदारी पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ चुकी है।

उन्होंने आलमी सतह पर बढ़ती खुदकुशी की शरह, खांदानी निज़ाम के बिखरने और दीऩी शऊर की कमजोरी को संजीदा मसाइल क़रार देते हुए कहा कि इस्लामी इदारों को मौसर ऑनलाइन मौजूदगी इख़्तियार करना अब ना गुज़ीर हो चुका है।

हकीम-इलाही ने इस्लाम की मौजूदा तीन नमायां तअबीरत को वाज़ेह अंदाज़ में बयान किया:

  1. तकफ़ीरी इस्लाम — शिद्दत-पसंदी, फ़िर्क़ावारियत और तशद्दुद पर क़ायम फ़िक्र; जिसकी मिसाले दाइश, अल-कायदा और बोकोहहराम जैसे गिरोह हैं।
  2. लिबरल इस्लाम — इस्लामी तालीमात को मग़रिबी अफ़कार के ताबे करने की कोशिश, जिसके नतीजे में फ़िलस्तीन और ग़ज़्ज़ा जैसे मसाइल पर आलम-ए-इस्लाम कमज़ोर नज़र आता है।
  3. मुअतदिल इस्लाम — इंसाफ़, गुफ़्तगू, अमन और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ मज़ाहमत पर क़ायम वो रास्ता जिससे ईरान, हिंदुस्तानी उलेमा और जमाअत-ए-इस्लामी हिंद इत्तेफ़ाक रखते हैं।

उन्होंने 12 रोज़ा ईरान–इस्राईल जंग के दौरान ईरान की हिमायत पर जमाअत-ए-इस्लामी हिंद का ख़ास शुक्रिया अदा किया।

मुलाकात में दोनों इदारों ने मुस्तकबिल के तआवुन के लिए मुतअद्दिद नुक्तों पर इत्तेफ़ाक किया, जिनमें मुश्तरका इल्मी व तहक़ीक़ी मंसूबों का आग़ाज़, फ़िक्री व सकाफ़ती प्रोग्राम, सेमिनार और कॉन्फ़्रेंसों का इनक़ाद, नौजवान नस्ल के लिए तर्बियती वर्कशॉप्स और ऑनलाइन तालीमी मवाद की मुश्तरका तैय्यारी शामिल है।

अमीर-ए-जमाअत-ए-इस्लामी हिंद, डॉ. सादतुल्लाह हुसैनी ने इस तआवुन का ख़ैर-मक़दम करते हुए कहा कि यह शेयरकत वक़्त की बुनियादी ज़रूरत है और जमाअत-ए-इस्लामी हिंद इसे पूरी संजीदगी से आगे बढ़ाएगी।

मुलाकात दोस्ताना और बावक़ार माहौल में इख़्तताम-पज़ीर हुई, जिसके बाद जमाअत-ए-इस्लामी हिंद ने वफ्द के अज़ाज़ में ज़ियाफ़त-ए-अशाइया का एहतमाम किया। इस मुलाक़ात को दोनों इदारों के दरमियान फ़िक्री हम-आहंगी, दीऩी तआवुन और मुश्तरका मंसूबों के एक नए बाब का आग़ाज़ क़रार दिया जा रहा है।

तारागढ़ अजमेर के इमाम जुमा ने नमाज़-ए-जुमे के ख़ुतबों में अय्याम-ए-फ़ातिमिया की मुनासबत से जनाब सय्यदा फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) के फ़ज़ाइल बयान करते हुए कहा कि जनाब फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की मारफ़त और मोहब्बत को अपनाना इंसान की सआदत का ज़रिया है। रिवायतों के मुताबिक़, किसी नबी की नबुव्वत उस वक़्त तक मुकम्मल नहीं हुई जब तक उन्होंने हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की मोहब्बत और फ़ज़ीलत का इकरार न किया।

हुज्जतुल-इस्लाम मौलाना सैयद नकी महदी ज़ैदी ने तारागढ़ अजमेर, हिंदुस्तान में नमाज़-ए-जुमे के ख़ुतबों में नमाज़ियों को तक़वा-ए-इलाही की नसीहत के बाद, हसब-ए-साबिक़ इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के वसीयत-नामा की शरह व तफ़सीर करते हुए ख़वातीन के हुक़ूक़ का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि अय्याम-ए-अज़ा-ए-फ़ातिमिया (सला मुल्ला अलैहा) की मुनासबत को पेशे-नज़र रखते हुए बेहतर है कि इन दिनों में इस्लाम में ख़वातीन का मकाम और उनका ज़िक्र किया जाए।

उन्होंने मज़ीद कहा कि इस्लाम एक मुकम्मल तरीक़ा-ए-ज़िंदगी और ज़ाबिता-ए-हयात है, जो इंसान की तमाम पहलुओं में रहनुमाई करता है। इस्लाम में औरत का मकाम बहुत अहम है, जो इंसानी मुआशरत की बुनियाद है। इस्लाम ने औरत को वो हुक़ूक़ दिए हैं जो किसी दूसरे मज़हब या क़ौम में नहीं मिलते। मसलन, इस्लाम ने औरतों को पहले ही मीरास का हक़ दिया, वहां जहाँ दुनिया के दूसरे हिस्सों में औरतों को ऐसा हक़ हासिल नहीं था।

तारागढ़ के इमाम जुमा ने कहा कि औरत को इस्लाम में माँ, बीवी, बहन, बेटी और मुआशरे के एक अफ़राद के तौर पर अहम हुक़ूक़ दिए गए हैं। जैसा कि रसूल-ए-अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि जन्नत माँ के क़दमों तले है जो औरत के मकाम व मरतबा की अहमियत को बयान करता है। ज़ौजा (पत्नि) की हैसियत से मेहर और नान-ओ-नफ़क़ा के बारे में इस्लाम की तालीमात मौजूद हैं, और अगर बेटी है तो इस्लाम ने उसके लिए भी हक़-ए-मीरास तय किया है।

उन्होंने कहा कि औरत को उसके हुक़ूक़ से महरूम करना इस्लाम की तालीमात के खिलाफ़ है। इस्लाम ने औरतों के इन हुक़ूक़ को बयान करके उनकी अज़मत, हरमत और मकाम को वाज़ेह किया है।

हुज्जतुल-इस्लाम मौलाना नकी महदी ज़ैदी ने कहा कि जनाब-ए-फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की मा’रिफ़त और मोहब्बत को अपनाना इंसान की सआदत का ज़रिया है। रिवायतों के मुताबिक़ किसी नबी की नबुव्वत उस वक़्त तक मुकम्मल नहीं हुई जब तक उन्होंने हज़रत फ़ातिमा (सला मुल्ला अलैहा) की मोहब्बत और फ़ज़ीलत का इकरार न किया।

उन्होने कहा कि हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की शख्सियत इंसानी फहम व इद्राक़ की हदूद से ऊपर है। उनकी मोहब्बत, उनकी मा’रिफ़त और उनकी तालीमात को अपनाना हमारी मुआशरती और रूहानी तरक़्क़ी का ज़ामिन है।

उन्होंने मज़ीद तौक़ीद की कि अय्याम-ए-अज़ा-ए-फ़ातिमिया को पिछले सालों से ज़्यादा इस साल भी जोश-ओ-ख़रोश के साथ मनाया जाए, ताकि इस मुक़द्दस हस्ती की तालीमात नई नस्ल तक पहुँचा सकें और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की सीरत को नशर कर सकें।

तारागढ़ के इमाम जुमा हुज्जतुल-इस्लाम मौलाना नकी महदी ज़ैदी ने दिल्ली में पेश आए बम ब्लास्ट के हादसे की सख़्त अल्फ़ाज़ में मज़म्‍मत करते हुए कहा कि हम इस अलमनाक व अफ़सोसनाक हादसे पर इंतिहाई दुख और अफ़सोस का इज़हार करते हैं और मुतासिरा ख़ानदानों के साथ हमदर्दी और यकजहती का इज़हार करते हुए, हम सब मिलकर मुल्क में अम्न-ओ-अमान और भाईचारे की दुआ करते हैं।

 नजफ अशरफ़: इराक़ के इमाम ए जुमआ हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैय्यद सदरुद्दीन क़बानची ने कहा कि इराक़ के हालिया संसदीय चुनाव पूर्ण शांति, व्यापक जनसहभागिता और बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त होने के कारण देश के आधुनिक राजनीतिक इतिहास के सर्वश्रेष्ठ चुनाव साबित हुआ हैं।

नजफ अशरफ़ के इमाम-ए-जुमा हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैय्यद सदरुद्दीन क़बानची ने हुसैनिया आज़म फ़ातिमिया में नमाज़-ए-जुमआ के खुत्बे में इराक़ के हालिया संसदीय चुनावों को "इतिहास के सर्वश्रेष्ठ और सबसे सफल चुनाव" करार दिया। उन्होंने कहा कि जनता ने भरपूर भागीदारी और शांतिपूर्ण माहौल में अपनी इच्छा व्यक्त की और दुनिया ने इराक़ के इस बड़े राष्ट्रीय कर्तव्य को देखा।

उन्होंने चुनावी सफलता के तीन मूलभूत कारक गिनाए: पहला: जनता का मजबूत और दृढ़ संकल्प। दूसरा: जागरूकता, जिसके माध्यम से जनता ने राजनीतिक चुनौतियों का सामना किया। तीसरा: मरजईत का मार्गदर्शन, जिसने चुनावी प्रक्रिया को सही दिशा दी।

उन्होंने इस सफलता को हज़रत साहिबुल अस्र इमाम मेंहदी अज्जलल्लाहु तआला फरजहुश शरीफ की कृपा और सहायता का परिणाम बताते हुए दुआ-ए-नुदबा के वाक्य उद्धृत किए और कहा कि यदि इमाम जमाना की दयादृष्टि न होती तो देश के दुश्मन मुश्किलें खड़ी कर देते।

इमाम-ए-जुमआ ने सभी इराक़ी जनता, युवाओं, महिलाओं, बुजुर्गों और चुनावी संस्थानों विशेषकर चुनाव आयोग का आभार व्यक्त किया और इसे कौम की महान जीत" करार दिया। उन्होंने कहा कि अब अगला चरण तीनों उच्च पदों (राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद अध्यक्ष) के चुनाव का है, जिसमें किसी भी वर्ग को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

अपने दूसरे खुत्बे में उन्होंने कासिम बिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की पुण्यतिथि के अवसर पर अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की कब्रों की विभिन्न देशों में बिखरी होने का उल्लेख किया और यह अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की मजलूमियत है।

मशहूर कुरआन शिक्षक और अख्लाक के प्रोफेसर हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन हुसैन अन्सारियान ने कहा कि सोच-समझकर और अर्थपूर्ण शब्द इंसान की तकदीर बदल देते हैं, जबकि बेमानी शब्दों की कोई कीमत नहीं है। मोमिन की पहचान यह है कि हुसैन अ.स. का नाम सुनते ही दिल पिघल जाए और आँख नम हो जाए।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हुसैन अन्सारियान ने तेहरान के हुसैनिया हमदानी में इयाम-ए-फातिमिया के मौके पर संबोधित करते हुए "कलिमा" की हकीकत और उसकी असरअंदाजी पर बातचीत की। उन्होंने कहा कि वे शब्द जिनमें अर्थ होता है, जैसे कमाल, हया, ग़ैरत और मुरुव्वत, इंसान की शख्सियत को संवारते हैं, लेकिन बेमानी शब्द सिर्फ आवाज़ हैं और कोई कद्र व कीमत नहीं रखते।

उन्होंने हज़रत आदम और हव्वा (अ.स.) के वाक़िए का ज़िक्र करते हुए कहा कि कुरआन साफ कहता है कि शैतान ने उन्हें धोखे में डाला। उन्होंने इस गलत ख्याल की तरदीद की कि हव्वा की वजह से आदम जन्नत से निकले।यह कुरआन के खिलाफ और मादर-ए-इंसानियत की तौहीन है।

उन्होंने कहा कि यह वाक़िया इंसान को सिखाता है कि एक छोटी सी फिसलन भी बड़ी नेमतों से महरूम कर सकती है, और उम्मत-ए-मुहम्मदिया भी गुनाह के नतीजों से मुस्तसना नहीं है।

हुज्जतुल इस्लाम अन्सारियान ने आगे कहा कि हज़रत आदम ने जो "कलिमात" खुदा से सीखे, उन्हें पढ़ने से उनकी तौबा कुबूल हुई। यही कलिमात शरई हैं जिनकी बदौलत निकाह के कुछ शब्दों से दो गैर-महरम एक पल में महरम हो जाते हैं।

उन्होंने कहा कि हुसैन (अ.स.) का नाम सुनकर दिल का पिघल जाना मोमिन की निशानी है, यह एक कलिमे का असर है।

उस्ताद-ए-अखलाक़ ने कुरआन करीम को "कलिमातुल्लाह" का सबसे बड़ा मजमुआ करार देते हुए कहा कि इसके मानी का कोई अंत नहीं है। उन्होंने कहा कि इंसान भी खुदा का एक "कलिमा" है; मायने रखने वाला वह है जो ईमान, तक्वा और अमल-ए-सालेह रखता हो, और बेमानी वह है जो ज़िंदगी सिर्फ ख्वाहिशों में गुज़ार दे।

रोम और ग्रीस के पुराने समाजों में औरतों को मा तहत, बे‑इख़्तियार और अमूल्य प्राणी समझा जाता था। उनकी ज़िंदगी के तमाम मामलात चाहे इरादा हो, शादी, तलाक़ या माल‑ओ‑जायदाद सब मर्दों के इख़्तियार में थे। अगर औरत कोई नेकी करती तो उसका फ़ायदा मर्दों को मिलता, लेकिन अगर कोई ग़लती करती तो सज़ा खुद उसे भुगतनी पड़ती। परिवार और नस्ल की बक़ा सिर्फ़ बेटों से वाबस्ता समझी जाती थी।

तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयत 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दूसरे क़ौमों व मज़हबों में औरत के हक़, हैसियत और समाजी मुक़ाम” पर विस्तृत चर्चा की हैं। नीचे उनके बयानात के ख़ुलासे का पाँचवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है।

औरत रोमी समाज में एक तुफ़ैली वुजूद

रोमी समाज में औरत को एक बे‑इख़्तियार और पूरी तरह मर्दों के क़ब्ज़े में रहने वाला वजूद समझा जाता था।
उसकी ज़िंदगी पूरी तरह मर्दों के असर में थी, और उसके फैसलों और इरादों की बागडोर घर के सरबराह के हाथ में होती थी — चाहे वह उसका बाप हो, शौहर हो या कोई और बड़ा मर्द।
घर का सरबराह औरत के साथ जो चाहे कर सकता था — चाहे उसे बेच दे, किसी को तोहफ़े में दे दे या कुछ वक्त की लज़्ज़त के लिए किसी और मर्द को उधार दे दे।
कई बार ऐसा भी होता था कि मर्द अपने क़र्ज़ या माली ज़िम्मेदारी अदा करने के लिए अपनी बहन या बेटी को क़र्ज़‑ख़्वाह के हवाले कर देता था।

अगर औरत कोई नापसंद बात कर दे, तो उसे मारा‑पीटा जाता था, बल्कि कभी‑कभी क़त्ल भी कर दिया जाता था।
औरत की मिल्कियत पर भी मर्दों का हक़ होता था — यहां तक कि अगर औरत को महर में कुछ माल मिले या वह अपनी इजाज़त से कुछ कमाए, उस पर भी मर्द क़ाबिज़ होता।
औरत को विरासत का हक़ नहीं था, और उसकी शादी या तलाक़ के सारे फैसले मर्द ही करते थे।
इस तरह कहा जा सकता है कि रोमी समाज में औरत की ज़िंदगी पूरी तरह मर्दों की रहम‑ओ‑करम पर थी।

ग्रीस (यूनान) में औरत की हैसियत

ग्रीस के पुराने समाज में औरत की हालत लगभग वही थी जो रोमी औरत की थी।
वहाँ भी ख़ानदान और समाज की बुनियाद मर्दों पर रखी गई थी और औरत को सिर्फ़ एक कमज़ोर, मुताबिक़ और ज़रूरत‑मंद मख़्लूक समझा जाता था।
वह न अपनी मर्ज़ी से कुछ कर सकती थी, न किसी मामले में आज़ादी से फैसला ले सकती थी। हमेशा उसे किसी मर्द की सरपरस्ती में रहना पड़ता था।

मगर इन क़ौमों के क़ानूनों में एक अजीब तज़ाद पाया जाता था — अगर औरत को इख़्तियार और आज़ादी से महरूम समझा जाता था, तो उसकी ग़लती की ज़िम्मेदारी उसके सरपरस्त पर होनी चाहिए थी।
लेकिन ऐसा नहीं था।
अगर औरत कोई नेक काम करती तो उसका फ़ायदा मर्द को मिलता; लेकिन अगर कोई जुर्म करती, तो सज़ा उसी को मिलती।

यह तज़ाद बताता है कि इन क़ौमों के नज़दीक औरत को एक बात‑शऊर इंसान नहीं, बल्कि एक मुअज़्ज़र, ख़तरनाक और नापसंद वजूद समझा जाता था — जैसे कोई वायरस जो समाज की सेहत को बिगाड़ देता है।
हाँ, क्योंकि इंसानी नस्ल औरत के बग़ैर बाक़ी नहीं रह सकती थी, इसलिए उसे “ज़रूरी बुराई” समझकर बर्दाश्त किया जाता था।
वह औरत को ऐसे असैर की तरह देखते थे जैसे कोई शिकस्त‑ख़ुर्दा दुश्मन — जिसे ज़िंदा तो रखा जाए मगर हमेशा क़ैद में और मर्दों के मातहत।
अगर वह कोई ख़ता करे तो सख़्त सज़ा मिले, और अगर कोई नेक काम करे तो उसकी तारीफ़ का भी हक़दार न समझा जाए।

सिर्फ़ बेटे ही नस्ल के वारिस

यूनान और रोम के लोग यह मानते थे कि ख़ानदान की बक़ा सिर्फ़ मर्दों से है, और सिर्फ़ बेटे ही असल औलाद हैं।
अगर किसी शख़्स के यहाँ बेटा न होता, तो उसे “अजाक बंद” या “नस्ल‑मुंतक़े” यानी बिना वारिस वाला माना जाता।
इसी अकीदे की वजह से “फ़र्ज़ंद‑ख़्वानदगी” (तनब्बी) का रिवाज पैदा हुआ — जो मर्द बेटों से महरूम होते, वे किसी दूसरे के बेटे को अपना बेटा बना लेते ताकि उनकी नस्ल बाकी रहे।
यहाँ तक कि अगर किसी मर्द को यक़ीन हो जाता कि वह बाँझ है, तो वह अपने भाई या क़रीबी रिश्तेदार से कहता कि उसकी बीवी के साथ रिश्ते क़ायम करे ताकि पैदा होने वाला बच्चा उसका “क़ानूनी बेटा” समझा जाए और ख़ानदान बाक़ी रहे।

शादी और तलाक़ का निज़ाम

यूनान और रोम दोनों जगह “तअद्दुद‑ए‑अज़वाज” यानी एक से ज़्यादा शादियों की इजाज़त थी।
लेकिन यूनान में सिर्फ़ एक बीवी को क़ानूनी और रसमि हैसियत दी जाती थी, बाकी औरतें सिर्फ़ ग़ैर‑रसमि या सनवी हैसियत रखती थीं।

(जारी है…)

(स्रोत: तर्जुमा तफ़्सीर अल‑मीज़ान, भाग २, पेज ४००‑४०१)

रोम और ग्रीस के पुराने समाजों में औरतों को मा तहत, बे‑इख़्तियार और अमूल्य प्राणी समझा जाता था। उनकी ज़िंदगी के तमाम मामलात चाहे इरादा हो, शादी, तलाक़ या माल‑ओ‑जायदाद सब मर्दों के इख़्तियार में थे। अगर औरत कोई नेकी करती तो उसका फ़ायदा मर्दों को मिलता, लेकिन अगर कोई ग़लती करती तो सज़ा खुद उसे भुगतनी पड़ती। परिवार और नस्ल की बक़ा सिर्फ़ बेटों से वाबस्ता समझी जाती थी।

तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयत 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दूसरे क़ौमों व मज़हबों में औरत के हक़, हैसियत और समाजी मुक़ाम” पर विस्तृत चर्चा की हैं। नीचे उनके बयानात के ख़ुलासे का पाँचवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है।

औरत रोमी समाज में एक तुफ़ैली वुजूद

रोमी समाज में औरत को एक बे‑इख़्तियार और पूरी तरह मर्दों के क़ब्ज़े में रहने वाला वजूद समझा जाता था।
उसकी ज़िंदगी पूरी तरह मर्दों के असर में थी, और उसके फैसलों और इरादों की बागडोर घर के सरबराह के हाथ में होती थी — चाहे वह उसका बाप हो, शौहर हो या कोई और बड़ा मर्द।
घर का सरबराह औरत के साथ जो चाहे कर सकता था — चाहे उसे बेच दे, किसी को तोहफ़े में दे दे या कुछ वक्त की लज़्ज़त के लिए किसी और मर्द को उधार दे दे।
कई बार ऐसा भी होता था कि मर्द अपने क़र्ज़ या माली ज़िम्मेदारी अदा करने के लिए अपनी बहन या बेटी को क़र्ज़‑ख़्वाह के हवाले कर देता था।

अगर औरत कोई नापसंद बात कर दे, तो उसे मारा‑पीटा जाता था, बल्कि कभी‑कभी क़त्ल भी कर दिया जाता था।
औरत की मिल्कियत पर भी मर्दों का हक़ होता था — यहां तक कि अगर औरत को महर में कुछ माल मिले या वह अपनी इजाज़त से कुछ कमाए, उस पर भी मर्द क़ाबिज़ होता।
औरत को विरासत का हक़ नहीं था, और उसकी शादी या तलाक़ के सारे फैसले मर्द ही करते थे।
इस तरह कहा जा सकता है कि रोमी समाज में औरत की ज़िंदगी पूरी तरह मर्दों की रहम‑ओ‑करम पर थी।

ग्रीस (यूनान) में औरत की हैसियत

ग्रीस के पुराने समाज में औरत की हालत लगभग वही थी जो रोमी औरत की थी।
वहाँ भी ख़ानदान और समाज की बुनियाद मर्दों पर रखी गई थी और औरत को सिर्फ़ एक कमज़ोर, मुताबिक़ और ज़रूरत‑मंद मख़्लूक समझा जाता था।
वह न अपनी मर्ज़ी से कुछ कर सकती थी, न किसी मामले में आज़ादी से फैसला ले सकती थी। हमेशा उसे किसी मर्द की सरपरस्ती में रहना पड़ता था।

मगर इन क़ौमों के क़ानूनों में एक अजीब तज़ाद पाया जाता था — अगर औरत को इख़्तियार और आज़ादी से महरूम समझा जाता था, तो उसकी ग़लती की ज़िम्मेदारी उसके सरपरस्त पर होनी चाहिए थी।
लेकिन ऐसा नहीं था।
अगर औरत कोई नेक काम करती तो उसका फ़ायदा मर्द को मिलता; लेकिन अगर कोई जुर्म करती, तो सज़ा उसी को मिलती।

यह तज़ाद बताता है कि इन क़ौमों के नज़दीक औरत को एक बात‑शऊर इंसान नहीं, बल्कि एक मुअज़्ज़र, ख़तरनाक और नापसंद वजूद समझा जाता था — जैसे कोई वायरस जो समाज की सेहत को बिगाड़ देता है।
हाँ, क्योंकि इंसानी नस्ल औरत के बग़ैर बाक़ी नहीं रह सकती थी, इसलिए उसे “ज़रूरी बुराई” समझकर बर्दाश्त किया जाता था।
वह औरत को ऐसे असैर की तरह देखते थे जैसे कोई शिकस्त‑ख़ुर्दा दुश्मन — जिसे ज़िंदा तो रखा जाए मगर हमेशा क़ैद में और मर्दों के मातहत।
अगर वह कोई ख़ता करे तो सख़्त सज़ा मिले, और अगर कोई नेक काम करे तो उसकी तारीफ़ का भी हक़दार न समझा जाए।

सिर्फ़ बेटे ही नस्ल के वारिस

यूनान और रोम के लोग यह मानते थे कि ख़ानदान की बक़ा सिर्फ़ मर्दों से है, और सिर्फ़ बेटे ही असल औलाद हैं।
अगर किसी शख़्स के यहाँ बेटा न होता, तो उसे “अजाक बंद” या “नस्ल‑मुंतक़े” यानी बिना वारिस वाला माना जाता।
इसी अकीदे की वजह से “फ़र्ज़ंद‑ख़्वानदगी” (तनब्बी) का रिवाज पैदा हुआ — जो मर्द बेटों से महरूम होते, वे किसी दूसरे के बेटे को अपना बेटा बना लेते ताकि उनकी नस्ल बाकी रहे।
यहाँ तक कि अगर किसी मर्द को यक़ीन हो जाता कि वह बाँझ है, तो वह अपने भाई या क़रीबी रिश्तेदार से कहता कि उसकी बीवी के साथ रिश्ते क़ायम करे ताकि पैदा होने वाला बच्चा उसका “क़ानूनी बेटा” समझा जाए और ख़ानदान बाक़ी रहे।

शादी और तलाक़ का निज़ाम

यूनान और रोम दोनों जगह “तअद्दुद‑ए‑अज़वाज” यानी एक से ज़्यादा शादियों की इजाज़त थी।
लेकिन यूनान में सिर्फ़ एक बीवी को क़ानूनी और रसमि हैसियत दी जाती थी, बाकी औरतें सिर्फ़ ग़ैर‑रसमि या सनवी हैसियत रखती थीं।

(जारी है…)

(स्रोत: तर्जुमा तफ़्सीर अल‑मीज़ान, भाग २, पेज ४००‑४०१)

ईरान के हौज़ा ए इल्मिया के अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रमुख हुज्‍जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मुफीद हुसैनी कोहसारी ने कहा कि 12 दिन की जंग के बाद पूरी दुनिया के दिमाग़ और दिल, इस्लामी इन्क़ेलाब के शुरुआती दौर की तरह, इस्लामी गणराज्य ईरान की ओर माएल हुए हैं।

हौज़ा ए इल्मिया ईरान के अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रमुख हुज्‍जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मुफीद हुसैनी कोहसारी ने बलाग़-ए-मुबीन मीडिया कमेटी की एक बैठक में हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) की शहादत के दिनों पर ताज़ियत पेश करते हुए साल 1447 हिजरी क़मरी को “पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद स.अ.व की पैदाइश के 1500वें साल” के रूप में मनाने की तैयारियों और उसकी अहमियत पर बात की।

उन्होंने कहा,पैग़ंबर-ए-अकरम स.अ.व को 40 साल की उम्र में नुबुव्वत मिली और आपने 13 साल मक्का में गुज़ारे। यानी जब आपने मक्का से मदीना हिजरत की, तो आपकी उम्र 53 साल थी। वही साल हमारी तक़रीब का साल है। इसलिए हिजरी कैलेंडर चाहे शम्सी हो या क़मरी, हिजरत से शुरू होता है। अब 1447 में 53 जोड़िए तो 1500 होता है इसी हिसाब से यह गणना तय की गई।

उन्होंने आगे कहा,यह विषय कैसे आम और मज़बूत हुआ? शुरुआत में देश में कुछ लोगों ने यह सवाल उठाया कि ‘साल 1447 पैग़ंबर (स.अ.व) की पैदाइश का 1500वां साल है क्या इस पर कोई बड़ा काम नहीं होना चाहिए? इन्हीं सवालों और तवज्जो ने इन तैयारियों की शुरुआत की। फिर हमने देखा कि क्या यह हिसाब दुनिया के दूसरे इस्लामी विद्वानों के लिए भी क़ाबिले-क़बूल है या नहीं।

उन्होंने बताया,चूंकि यह मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठ सकता था इसलिए ज़रूरी था कि इसे इस्लामी और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी मान्यता मिले। इसी सिलसिले में ईरान की विदेश मंत्रालय ने सऊदी अरब में मौजूद मशहूर इस्लामी संस्था ‘जिद्दा फ़िक़्ही असेंबली’ से आधिकारिक तौर पर पत्राचार किया।

उन्होंने लिखित जवाब दिया कि हाँ, यह हिसाब सही है यह साल वास्तव में पैग़ंबर-ए-इस्लाम (स.अ.व) की पैदाइश का 1500वां साल है। उन्होंने यह भी कहा कि पूरे इस्लामी जगत को इस अवसर पर जश्न और कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए। जिद्दा असेंबली ने इस पर एक सर्वसम्मत और मज़बूत बयान जारी किया।

कोहसारी ने कहा,यह एक ऐतिहासिक और रणनीतिक मौक़ा है। जिस तरह हाल के वर्षों में अरबाईन और ग़दीर जैसे मौक़ों ने बड़ी तरक़्क़ी की है, उसी तरह अब पैग़ंबर-ए-अकरम (स.अ.व) की शख्सियत पर आधारित प्रोग्रामों और कॉन्फ़्रेंसेज़ की ज़रूरत है।

उन्होंने इज़राईली अत्याचारों और दुनिया पर उनके असर की ओर इशारा करते हुए कहा,12 दिन की जंग और ख़ास तौर पर ‘तूफ़ान-उल-अक़्सा’ और ग़ाज़ा की तबाही के बाद दुनिया को एक बहुत अहम पैग़ाम मिला जिसे हमने गंभीरता से नहीं लिया। सब समझ गए कि इस्राईल ज़ालिम है, और हक़ की नहीं बल्कि बातिल की तरफ़ है।

यह बातचीत या कानून को नहीं मानता न इंसानियत, न धर्मों की क़दर करता है। ग़ाज़ा पर बेरहम हमलों ने इस्राईल को दुनिया में रुसवा कर दिया है। जनमत से लेकर अंतरराष्ट्रीय संगठनों तक सबने पूछा,इसका क्या मतलब है? 60 हज़ार लोग मारे जा चुके हैं! तो फिर संयुक्त राष्ट्र? हेग कोर्ट? मानवाधिकार कहाँ हैं?

अंत में उन्होंने कहा,12 दिन की जंग के बाद पूरी दुनिया के दिल और दिमाग इस्लामी इन्क़ेलाब के शुरुआती दौर की तरह ईरान की तरफ़ झुक गए हैं। यहाँ तक कि वहाबी, सलफ़ी, और ज़ायोनी ईसाई जिन्हें यह बताया गया था कि ‘ईरान और इस्राईल अंदर से मिले हुए हैं’ अब पूछ रहे हैं: ‘तो फिर ईश्वर की मर्ज़ी क्या थी?’ और कुछ इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि ईश्वर की मर्ज़ी इस्राईल की हिफ़ाज़त नहीं, बल्कि उसके पतन में है।

 हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मोहम्मद अली रंजबर ने कहा,इस्लामी गणतंत्र ईरान की विदेश नीति धार्मिक तर्कशक्ति और न्यायशास्त्र के सिद्धांतों पर आधारित है।

बाकिरूल उलूम यूनिवर्सिटी, क़ुम के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख और विश्वविद्यालय के फैकल्टी सदस्य हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मोहम्मद अली रंजबर ने नेतृत्व और राष्ट्रीय कूटनीति शीर्षक से आयोजित एक शैक्षणिक सत्र में हौज़ा और विश्वविद्यालय के शिक्षकों और शोधकर्ताओं की उपस्थिति में इस्लामी गणतंत्र की विदेश नीति की संरचना को समझाते हुए कहा,संविधान के अनुच्छेद 110 के अनुसार, सभी क्षेत्रों सहित विदेश नीति के प्रमुख नीतिगत मामलों का निर्धारण व्यवस्था के नेता की जिम्मेदारी है।

उन्होंने विदेश नीति के शासन ढांचे को विस्तार से समझाते हुए नेतृत्व संस्थान और सलाहकार संस्थानों की भूमिका स्पष्ट की और कहा,ईरान की विदेश नीति दो भागों से मिलकर बनी है: घोषित नीति, जिसे विदेश मंत्रालय लागू करता है और परिचालन नीति, जो देश की अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों की वास्तविक प्रकृति को दर्शाती है और वह अंततः इस्लामी क्रांति के नेता और संबंधित विशेष संस्थानों के अधिकार में होती है।

इस्लामिक प्रोपेगेशन ऑफिस, हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के उप-निदेशक ने वार्ता प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए इसके पाँच मुख्य चरणों यानी वार्ता प्रक्रिया से पहले से लेकर वार्ता की बहाली तक का विश्लेषण प्रस्तुत किया और कहा,इस्लामी गणतंत्र ईरान ने सभी चरणों में दुश्मन के मुकाबले रणनीतिक जानकारी की सुरक्षा और इसके बुद्धिमान प्रबंधन पर जोर दिया है और इस्लामी व्यवस्था के प्रत्येक सैन्य, राजनयिक और सलाहकार संस्थान ने राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्रगति में अपनी विशिष्ट भूमिका निभाई है।

बाकिरूल उलूम यूनिवर्सिटी के इस शिक्षक ने कहा, इस्लामी गणतंत्र ईरान की विदेश नीति तीन सिद्धांतों ,सम्मान, बुद्धिमत्ता और हितसाधन - पर आधारित है और इन सिद्धांतों का पालन राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा और वैश्विक स्तर पर ईरान की स्थिति को मजबूत करने के लिए महत्वपूर्ण है।

उल्लेखनीय है कि सत्र के अंत में एक प्रश्नोत्तर सत्र भी आयोजित किया गया, जिसमें विदेश नीति के कार्यान्वयन की प्रक्रिया, जनता और प्रमुख बुद्धिजीवियों की भूमिका और नीति निर्माण में न्यायशास्त्र के सिद्धांतों के पालन जैसे विषयों पर चर्चा की गई।

आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद सईदी ने कहा,दुनियावी मंसब और नेमतें ख़ुदा की अमानत हैं और हर ज़िम्मेदार क़यामत के दिन अपने अमल के बारे में जवाबदेह होगा।

इमाम-ए-जुमआ क़ुम और मुतवल्ली-ए-हरम-ए-मुतह्हर हज़रत मासूमा सल्लल्लाहु अलैहा आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद सईदी ने अदालत के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन ग़ुलाम हुसैन मोहसिनी एजेई की मौजूदगी में होने वाली प्रांतीय प्रशासनिक परिषद की बैठक में गुफ़्तगो के दौरान कहा,जो भी शख्स किसी ज़िम्मेदारी के मंसब पर फ़ाइज़ होता है, उसे जान लेना चाहिए कि यह मक़ाम एक इलाही अमानत है और कोई नेमत ऐसी नहीं जिसके बारे में सवाल न किया जाए। इंसान को चाहिए कि वक़्त गुज़रने से पहले खिदमत के मौक़ों की क़द्र करे।

उन्होंने रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिही व सल्लम के एक फ़रमान की तरफ इशारा करते हुए कहा, हसरत के वक़्त आने से पहले इंसान को ग़ौर करना चाहिए कि कौन से काम उसे करने चाहिए थे और वह छोड़ बैठा है और पशेमानी से पहले इस्लाह का मौक़ा हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।

कुम के इमाम-ए-जुमआ ने अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम के फ़रमान की रोशनी में कहा, अक़्लमंद इंसान वह है जो पशेमानी से पहले इस्लाह-ए-नफ्स और दुरुस्त अमल की तरफ मुतवज्जह हो और खिदमत के मौक़ों से फ़ायदा उठाए।

ज़िम्मेदारी एक इलाही नेमत है जिसकी क़द्र करना ज़रूरी है क्योंकि एक दिन हम सबसे उन इमकानात और मौक़ों के बारे में सवाल होगा जो हमें अता किए गए।

आयतुल्लाह सईदी ने अपनी गुफ़्तगो के दौरान इमाम सादिक अलैहिस्सलाम की सीरत का हवाला देते हुए कहा,हक़ीकी ज़िक्र और याद-ए-ख़ुदा यह है कि इंसान लोगों की मुश्किलात को हल करे और उनकी खिदमत को इबादत समझे। बाज़ ओकात बन्दगां-ए-ख़ुदा की हाजत-रवाई ज़ाहिरी इबादतों से भी ज़्यादा बाफ़ज़ीलत होती है क्योंकि ख़ुदा की खुशनुदी बन्दों की खिदमत में मुज़म्मर है।