رضوی

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एक लेबनानी अखबार ने क़बूला है कि लाल सागर में यमन के नौसैनिक युद्ध के अनुभव ने अमेरिकी सैन्य परिवर्तन में एक मोड़ पैदा कर दिया है।

लाल सागर में यमन के असमैट्रिक हमलों का मुकाबला करने में नाकाम रहने के बाद, अमेरिका ने अपने सैन्य दृष्टिकोण को बदलते हुए ड्रोन और समुद्री रोबोट्स के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल की ओर रुख किया है। पार्स टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, लेबनान के अख़बार अल-अख़बार ने एक लेख में लिखा: लाल सागर में यमन के नौसैनिक युद्ध का अनुभव अमेरिकी सैन्य परिवर्तन में एक अहम मोड़ साबित हुआ है। इस अरब मीडिया ने जोर देकर कहा: यमन युद्ध ने दिखाया कि पारंपरिक और महंगी मिसाइलें अब पर्याप्त नहीं हैं। इसीलिए, पेंटागन ने "रेप्लिकेटर" नामक एक कार्यक्रम पेश किया है जिसका मकसद बड़ी संख्या में सस्ते ड्रोन और रोबोट बनाना है ताकि बिना पायलट वाले हथियारों की तैनाती में तेजी लाई जा सके।

 पहले चरण में, अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने साल 2023 के अंत में ड्रोन और ड्रोन-रोधी चेतावनी व रक्षा प्रणालियों खरीदने के लिए 500 मिलियन डॉलर का फंड आवंटित किया। वित्तीय वर्ष 2025 में इस राशि में 500 मिलियन डॉलर और की बढ़ोतरी की योजना है। अमेरिकी नौसेना का यह भी इरादा है कि वह जहाज-आधारित विमानों और एयरबोर्न माइंस का निर्माण करे, जो एक नई रक्षा पंक्ति के तौर पर काम करेंगे। ये ऐसे उपकरण हैं जो अपेक्षाकृत कम कीमत पर बिना पायलट वाले हमलावरों का मुकाबला करने में सक्षम होंगे। लेकिन जो साफ है, वह यह कि लाल सागर में यमन की लड़ाइयों में यमनी बलों द्वारा सटीक और सस्ते ड्रोन और मिसाइलों के इस्तेमाल ने उन्नत पश्चिमी बेड़ों को गंभीर चुनौतियाँ पेश की हैं। यह बदलाव साल 2023 के अंत में शुरू हुआ, जब अमेरिकी-यूरोपीय-इजरायली गठबंधन को अप्रत्याशित प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।

 अमेरिकी वरिष्ठ अधिकारियों ने स्वीकार किया कि सरल और कम लागत वाले उपकरणों ने भारी और महंगे सैन्य ढाँचों को उलझा कर रख दिया है। इस हकीकत ने वाशिंगटन और यहाँ तक कि बीजिंग को भी अपनी नौसैनिक रणनीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है। यमन के अनुभव से प्रेरित होकर, चीन ने भी अमेरिकी पारंपरिक वर्चस्व का मुकाबला करने के एक तरीके के रूप में ड्रोन और समुद्री रोबोट्स के क्षेत्र में निवेश को अपनी एजेंडा सूची में शामिल किया है। 

 

यमन पर हमले और गज़ा में इज़राइली शासन के निरंतर अत्याचारों के जवाब में कुछ अफ़्रीक़ी देशों की जनता ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किए।

ट्यूनीशिया के नागरिकों ने शनिवार शाम वाशिंगटन में इज़राइल के दूतावास के सामने ज़ायोनी विरोधी प्रदर्शन करके गज़ा पट्टी में नरसंहार जारी रहने और यमन की राजधानी सना पर इजरायल के हालिया हमले की निंदा की। इस प्रदर्शन में शामिल लोगों ने ज़ायोनी शासन को अमेरिकी समर्थन की निंदा करते हुए "अमेरिका, आक्रमणकारी उकसाने वाला", "अमेरिका, इजरायल का प्रोत्साहनकर्ता" और "अमेरिका, गज़ा की नाकेबंदी का समर्थक" जैसे नारे लगाए।

 ग़ैर-सरकारी संगठन "ट्यूनीशिया नेटवर्क अगेंस्ट नॉर्मलाइजेशन" द्वारा आयोजित इस प्रदर्शन में, प्रदर्शनकारियों ने यमन के लोगों को संबोधित करते हुए नारे लगाए: "यमन ज़ायोनिज़्म और साम्राज्यवाद से नहीं डरता", "यमन, जीत की ओर बढ़ो" और "यमन दृढ़, नाकेबंदी के आगे नहीं झुकेगा"।

 पिछले गुरुवार को ज़ायोनी शासन के लड़ाकू विमानों ने सना को निशाना बनाया, जिसमें यमन के प्रधानमंत्री और सरकार के कई सदस्य शहीद हो गए। इस हवाई हमले के जवाब में, देश के अंसारुल्लाह आंदोलन के वरिष्ठ सदस्य मोहम्मद अल-बखिती ने गज़ा के लिए यमन के समर्थन पर जोर देते हुए कहा: ज़ायोनी दुश्मन के साथ हमारी लड़ाई एक नए चरण में प्रवेश कर गई है और यमनी अधिकारियों की हत्या के जुर्म में क़ब्ज़ाधारियों को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

 इससे पहले, ट्यूनीशिया के नागरिकों ने शुक्रवार शाम देश की राजधानी में ज़ायोनी विरोधी प्रदर्शन करके फिलिस्तीनी प्रतिरोध के समर्थन में नारे लगाए और गज़ा की नाकेबंदी और वहां के निवासियों के नरसंहार की निंदा करते हुए पुकार लगाई: "नाकेबंदी और भूख, नाश हो जाए", "प्रतिरोध जिंदाबाद", "गज़ा दृढ़ रहो", "जैतून की डाली नहीं गिरेगी"।

मौरितानिया के नागरिकों ने भी नौआकशोट में जुमे की नमाज़ के बाद ज़ायोनी विरोधी प्रदर्शन किए और फिलिस्तीनी प्रतिरोध का समर्थन जारी रखने तथा इजरायल का समर्थन करने वाले देशों के राजदूतों को निष्कासित करने की मांग की। इस प्रदर्शन में मौरितानिया की राजनीतिक-धार्मिक हस्तियाँ भी मौजूद थीं। प्रदर्शनकारियों के बीच एक मौरितानियाई हस्ती ने अपने भाषण में कहा: गज़ा के निवासियों के साथ एकजुटता धार्मिक और मानवीय दायित्व है, और गज़ा में युद्ध रुकने और इस पट्टी की नाकेबंदी टूटने तक मौरितानिया के लोग अपने प्रदर्शन जारी रखेंगे। कुछ समय पहले, कुछ मीडिया ने मौरितानिया सरकार के ज़ायोनी शासन के साथ संबंधों की खबरें प्रकाशित की थीं, जिनकी अभी तक मौरितानियाई अधिकारियों ने पुष्टि नहीं की है।

 मोरक्को के हज़ारों लोगों ने भी शुक्रवार शाम देश के विभिन्न शहरों में ज़ायोनी विरोधी प्रदर्शन करके गज़ा में नरसंहार जारी रहने और वहाँ के निवासियों को भूखा रखे जाने की निंदा की।

ये प्रदर्शन तन्जा, ततुआन और शफ़शाऊन (उत्तर), दारुल बैज़ा और जदीदा (पश्चिम), अंज़कान, तारौदंत (दक्षिण), बर्केन और ओजदा (पूर्व) जैसे शहरों में आयोजित किए गए। इनमें शामिल लोगों ने गज़ा के अकाल और विनाश की तस्वीरें लहराते हुए इज़राइल द्वारा फिलिस्तीनियों को भूखा रखने की नीति को समाप्त करने की मांग की। मोरक्को के प्रदर्शनकारियों ने "गज़ा में नरसंहार रोको" और "फिलिस्तीन एक अमानत है" जैसे बैनर लेकर "मोरक्को की जय हो, दृढ़ गज़ा की जय हो" और "मोरक्को-फिलिस्तीन एक राष्ट्र है" के नारे लगाए।

 ज़ायोनी सैनिकों द्वारा गज़ा पट्टी पर कब्ज़े के दौरान 63,000 से अधिक फिलिस्तीनियों की मौत हो चुकी है, जिनमें से अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं। इसके अलावा, इस पट्टी की नाकेबंदी जारी रहने के कारण, गज़ा के 322 निवासियों की भूख से मौत हो गई है, जिनमें से 121 बच्चे हैं।

 इन कई अफ़्रीक़ी देशों में प्रदर्शन, इस महाद्वीप के लोगों का इजरायल और फिलिस्तीन के कब्जे वाले इलाकों और पश्चिम एशिया में इसके अत्याचारी कार्यों के प्रति दृष्टिकोण का एक उदाहरण है।

 अफ्रीका की जनता का दृष्टिकोण, विशेष रूप से इस महाद्वीप के मुस्लिम देशों में, इजरायल के प्रति, फिलिस्तीन के साथ ऐतिहासिक एकजुटता, साम्राज्यवाद का अनुभव और समकालीन भू-राजनीतिक प्रभावों का मिश्रण है। इस दृष्टिकोण को कुछ मुख्य बिंदुओं में देखा जा सकता है:

 फिलिस्तीन के साथ ऐतिहासिक एकजुटता

 अफ़्रीक़ी देश, खासकर वे जिन्होंने साम्राज्यवादियों के ख़िलाफ़ और स्वतंत्रता संग्राम का अनुभव किया है, अपने आप को फिलिस्तीनी जनता के साथ एक प्लेटफ़ार्म पर देखते हैं।

 अफ़्रीक़ी स्वतंत्रता सेनानी नेताओं जैसे नेल्सन मंडेला ने बार-बार फिलिस्तीन के मकसद का समर्थन किया है और इजरायली कब्जे की तुलना रंगभेद से की है।

 अफ़्रीक़ी इस्लामी देशों के रुख

 इस्लामी देश जैसे सूडान, माली, मौरितानिया और अल्जीरिया आम तौर पर इजरायल के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हैं और फिलिस्तीनियों के अधिकारों का समर्थन करते हैं।

 

हालाँकि, कुछ देशों जैसे मोरक्को और सूडान ने हालिया वर्षों में राजनयिक और आर्थिक दबावों के चलते इजरायल के साथ अपने रिश्ते सामान्य किए हैं (अब्राहम समझौते) जिसकी इन देशों की जनता में काफी आलोचना हुई है।

 जनता की राय और मीडिया

 कई अफ़्रीक़ी समुदायों में, खासकर मुसलमानों के बीच, इजरायल को अत्याचार और कब्जे का प्रतीक माना जाता है।

 

अफ़्रीक़ी देशों के स्थानीय मीडिया और सोशल मीडिया अक्सर गज़ा और यमन पर इजरायली हमलों की खबरों को आलोचनात्मक अंदाज में दिखाते हैं और फिलिस्तीनी पीड़ितों के साथ हमदर्दी आम बात है।

 सरकारों और जनता के नज़रिए में फ़र्क़

  जहाँ कुछ सरकारों ने आर्थिक या राजनीतिक कारणों से इज़राइल के साथ अपने संबंध बढ़ाए हैं, वहीं कई देशों की जनता अब भी इज़राइल की आलोचक बनी हुई है।

 इस अंतर के कारण कुछ सरकारें अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अंदरूनी प्रतिक्रियाओं से बचने के लिए संभलकर रुख अपनाती हैं। 

मंगलवार, 02 सितम्बर 2025 13:08

नज़्म व ज़ब्त

हज़रत अली (अ.) नो फ़रमायाः मैं तुम्हे तक़वे और नज़्म की वसीयत करता हूँ।

हम जिस जहान में ज़िन्दगी बसर करते हैं यह नज़्म और क़ानून पर मोक़ूफ़ है। इसमें हर तरफ़ नज़्म व निज़ाम की हुकूमत क़ायम है। सूरज के तुलूअ व ग़ुरूब और मौसमे बहार व ख़िज़ा की तबदीली में दक़ीक़ नज़्म व निज़ाम पाया जाता है।

कलियों के चटकने और फूलों के खिलने में भी बेनज़मी नही दिखाई देती। कुर्रा ए ज़मीन, क़ुर्से ख़ुरशीद और दिगर तमाम सय्यारों की गर्दिश भी इल्लत व मालूल और दक़ीक़ हिसाब पर मबनी है। इस बात में कोई शक नही है कि अगर ज़िन्दगी के इस वसीअ निज़ाम के किसी भी हिस्से में कोई छोटी सी भी ख़िलाफ़ वर्ज़ी हो जाये तो तमाम क़ुर्रात का निज़ाम दरहम बरहम हो जायेगा और कुर्रात पर ज़िन्दगी ख़त्म हो जायेगी। पस ज़िन्दगी एक निज़ाम पर मोक़ूफ़ है।

इन सब बातों को छोड़ते हुए हम अपने वुजूद पर ध्यान देते हैं, अगर ख़ुद हमारा वुजूद कज रवी का शिकार हो जाये तो हमारी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ जायेगी। हर वह मौजूद जो मौत को गले लगाता है मौत से पहले उसके वुजूद में एक ख़लल पैदा होता है जिसकी बिना पर वह मौत का लुक़मा बनता है।

इस अस्ल की बुनियाद पर इंसान, जो कि ख़ुद एक ऐसा मौजूद है जिसके वुजूद में नज़्म पाया जाता है और एक ऐसे वसीअ निज़ामे हयात में ज़िन्दगी बसर करता है जो नज़्म से सरशार है, इजतेमाई ज़िन्दगी में नज़्म व ज़ब्त से फ़रार नही कर सकता।

आज की इजतेमाई ज़िन्दगी और माज़ी की इजतेमाई ज़िन्दगी में फ़र्क़ पाया जाता है। कल की इजतेमाई ज़िन्दगी बहुत सादा थी मगर आज टैक्निक, कम्पयूटर, हवाई जहाज़ और ट्रेन के दौर में ज़िन्दगी बहुत दक़ीक़ व मुनज़बित हो गई है।

आज इंसान को ज़रा सी देर की वजह से बहुत बड़ा नुक़्सान हो जाता है। मिसाल को तौर पर अगर कोई स्टूडैन्ट खुद को मुनज़्ज़म न करे तो मुमकिन है कि किसी कम्पटीशन में तीन मिनट देर से पहुँचे, ज़ाहिर है कि यह बेनज़मी उसकी तक़दीर को बदल कर रख देगी। इस मशीनी दौर में ज़िन्दगी की ज़रूरतें हर इंसान को नज़्म की पाबन्दी की तरफ़ मायल कर रही हैं। इन सबको छोड़ते हुए जब इंसान किसी मुनज़्ज़म इजतेमा में क़रार पाता है तो बदूने तरदीद उसका नज़्म व निज़ाम उसे मुतास्सिर करता है और उसे इनज़ेबात की तरफ़ खींच लेता है।

एक ऐसा ज़रीफ़ नुक्ता जिस पर तवज्जो देने में ग़फ़लत नही बरतनी चाहिए यह है कि नज़्म व पाबन्दी का ताल्लुक़ रूह से होता है और इंसान इस रूही आदत के तहत हमेशा खुद को बाहरी इमकान के मुताबिक़ ढालता रहता है। मिसाल के तौर पर अगर किसी मुनज़्ज़म आदमी के पास कोई सवारी न हो और उसके काम करने की जगह उसके घर से दूर हो तो उसका नज़्म उसे मजबूर करेगा कि वह अपने सोने व जागने के अमल को इस तरह नज़्म दे कि वक़्त पर अपने काम पर पहुँच सके।

इस बिना पर जिन लोगों में नज़्म व इनज़ेबात का जज़्बा नही पाया जाता अगर उनका घर काम करने की जगह से नज़दीक हो और उनके पास सवारी भी मौजूद वह तब भी काम पर देर से ही पहुँचेगा।

इस हस्सास नुक्ते पर तवज्जो देने से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि नज़्म व पाबन्दी का ताल्लुक़ इंसान की रूह से है और इसे आहिस्ता आहिस्ता तरबियत के इलल व अवामिल के ज़रिये इंसान के वुजूद में उतरना चाहिए।

इसमें कोई शक नही है कि इंसान में इस जज्बे को पैदा करने के लिए सबसे पहली दर्सगाह घर का माहौल है। कुछ घरों में एक खास नज़्म व ज़ब्त पाया जाता है, उनमें सोने जागने, खाने पीने और दूसरे तमाम कामों का वक़्त मुऐयन है। जाहिर है कि घर का यह नज़्म व ज़ब्त ही बच्चे को नज़्म व निज़ाम सिखाता है। इस बिना पर माँ बाप नज़्म व निज़ाम के उसूल की रिआयत करके ग़ैरे मुस्तक़ीम तौर पर अपने बच्चों को नज़्म व इनज़ेबात का आदी बना सकते हैं।

सबसे हस्सास नुक्ता यह है कि बच्चों को दूसरों की मदद की ज़रूरत होती है। यानी माँ बाप उन्हें नींद से बेदार करें और दूसरे कामों में उनकी मदद करें। लेकिन यह बात बग़ैर कहे ज़ाहिर है कि उनकी मदद करने का यह अमल उनकी उम्र बढ़ने के साथ साथ ख़त्म हो जाना चाहिए।

क्योंकि अगर उनकी मदद का यह सिलसिला चलता रहा तो वह बड़े होने पर भी दूसरों की मदद के मोहताज रहेंगे। इस लिए कुछ कामों में बच्चों की मदद करनी चाहिए और कुछ में नही, ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा होना सीखें और हर काम में दूसरों की तरफ़ न देखें।

माँ बाप को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि बच्चों का बहुत ज़्यादा लाड प्यार भी उन्हे बिगाड़ने और खराब करने का एक आमिल बन सकता है। इससे आहिस्ता आहिस्ता बच्चों में अपने काम को दूसरों के सुपुर्द करने का जज़्बा पैदा हो जायेगा फिर वह हमेशा दूसरों के मोहताज रहेंगे।

ज़िमनन इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि नज़्म व निज़ाम एक वाक़ियत हैं लेकिन इसका दायरा बहुत वसीअ है। एक मुनज़्ज़म इंसान इस निज़ाम को अपने पूरे वुजूद में उतार कर अपनी रूह, फ़िक्र, आरज़ू और आइडियल सबको निज़ाम दे सकता है। इस बिना पर एक मुनज़्ज़म इंसान इस हस्ती की तरह अपने पूरे वुजूद को निज़ाम में ढाल सकता है।

निज़ाम की कितनी ज़्यादा अहमियत है इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी उम्र के सबसे ज़्यादा बोहरानी हिस्से यानी शहादत के वक़्त नज़्म की रिआयत का हुक्म देते हुए फ़रमाया है।

اوصيكم بتقوى الله و نظم امركم

तुम्हें तक़वे व नज़्म की दावत देता हूँ।

अरबी अदब के क़वाद की नज़र से कलमा ए अम्र की ज़मीर की तरफ़ इज़ाफ़त इस बात की हिकायत है कि नज़्म तमाम कामों में मनज़ूरे नज़र है, न सिर्फ़ आमद व रफ़्त में। क्योंकि उलमा का यह मानना है कि जब कोई मस्दर ज़मीर की तरफ़ इज़ाफ़ा होता है तो उमूम का फ़ायदा देता है।

इस सूरत में मतलब यह होगा कि तमाम कामों में नज़्म की रिआयत करो। यानी सोने,जागने, इबादत करने, काम करने और ग़ौर व फ़िक्र करने वग़ैरा तमाम कामों में नज़्म होना चाहिए।

इस्लाम में नज़्म व निज़ाम की अहमियत

इस्लाम नज़्म व इन्ज़ेबात का दीन है। क्योंकि इस्लाम की बुनियाद इंसान की फ़ितरत पर है और इंसान का वुजूद नज़्म व इन्ज़ेबात से ममलू है इस लिए ज़रूरी है कि इंसान के लिए जो दीन व आईन लाया जाये उसमे नज़्म व इन्ज़ेबात पाया जाता हो। मिसाल के तौर पर मुसलमान की एक ज़िम्मेदारी वक़्त की पहचान है।

यानी किस वक़्त नमाज़ शुरू करनी चाहिए ? किस वक़्त खाने को तर्क करना चाहिए ? किस वक़्त इफ़्तार करना चाहिए ? कहाँ नमाज़ पढ़नी चाहिए और कहाँ नमाज़ नही पढ़नी चाहिए? कहाँ नमाज़ चार रकत पढ़नी चाहिए कहाँ दो रकत ? इसी तरह नमाज़ पढ़ते वक़्त कौनसे कपड़े पहनने चाहिए और कौन से नही पहनने चाहिए ? यह सब चीज़ें इंसान को नज़्म व इन्ज़ेबात से आशना कराती हैं।

इस्लाम में इस बात की ताकीद की गई है और रग़बत दिलाई गई है कि मुसलमानों को चाहिए कि अपनी इबादतों को नमाज़ के अव्वले वक़्त में अंजाम दें।

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपने बेटे को अव्वले वक़्त नमाज़ पढ़ने की वसीयत की।

انه قال يا بنى اوصك با لصلوة عند وقتها

ऐ मेरे बेटे नमाज़ को नमाज़ के अव्वले वक़्त में पढ़ना।

ज़ाहिर है कि फ़राइज़े दीने (नमाज़े पनजगाना) को अंजाम देने का एहतेमाम इंसान में तदरीजी तौर पर इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करेगा।

ऊपर बयान किये गये मतालिब से यह बात सामने आती है कि पहली मंज़िल में जज़्बा ए नज़्म व इन्ज़ेबात माँ बाप की तरफ़ से बच्चों में मुन्तक़िल होना चाहिए। ज़ाहिर है कि स्कूल का माहौल भी बच्चों में नज़्म व इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करने में बहुत मोस्सिर है।

स्कूल का प्रंसिपिल और मास्टर अपने अख़लाक़ व किरदार के ज़रिये शागिर्दों में नज़्म व इन्ज़ेबात को अमली तौर पर मुन्तक़िल कर सकते हैं। इसको भी छोड़िये, स्कूल का माहौल अज़ नज़रे टाइम टेबिल ख़ुद नज़्म व ज़ब्त का एक दर्स है।

शागिर्द को किस वक़्त स्कूल में आना चाहिए और किस वक़्त सकूल से जाना चाहिए? स्कूल में रहते हुए किस वक़्त कौनसा दर्स पढ़ना चाहिए? किस वक़्त खेलना चाहिए? किस वक़्त इम्तेहान देना चाहिए ? किस वक़्त रजिस्ट्रेशन कराना चाहिए? यह सब इन्ज़ेबात सिखाने के दर्स हैं।

ज़ाहिर है कि बच्चों और शागिर्दों नज़्म व इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करने के बारे में माँ बाप और उस्तादों की सुस्ती व लापरवाही जहाँ एक ना बख़शा जाने वाला गुनाह हैं वहीँ बच्चों व जवानों की तालीम व तरबियत के मैदान में एक बड़ी ख़ियानत भी है।

क्योंकि जो इंसान नज़्म व इन्ज़ेबात के बारे में नही जानता वह ख़ुद को इजतेमाई ज़िन्दगी के मुताबिक़ नही ढाल सकता। इस वजह से वह शर्मिन्दगी के साथ साथ मजबूरन बहुत से माद्दी व मानवी नुक़्सान भी उठायेगा।

 

मंगलवार, 02 सितम्बर 2025 13:07

इबादत, नहजुल बलाग़ा की नज़र में

नहजुल बलाग़ा का इजमाली तआरुफ़

नहजुल बलाग़ा वह अज़ीमुल मरतबत किताब है जिस को दोनो फ़रीक़ के उलामा मोतबर समझते हैं, यह मुक़द्दस किताब इमाम अली अलैहिस सलाम के पैग़ामात और गुफ़तार का मजमूआ है जिस को अल्लामा रज़ी अलैहिर रहमा ने तीन हिस्सों में तरतीब दिया है। जिन का इजमाली तआरुफ़ ज़ैल में किया जा रहा है:

  1. पहला हिस्सा: ख़ुतबात

नहजुल बलाग़ा का पहला और सब से मुहिम हिस्सा, इमाम अली अलैहिस सलाम के ख़ुतबात पर मुशतमिल है जिन को इमाम (अ) ने मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर बयान फ़रमाया है, उन ख़ुतबों की कुल तादाद (241) है जिन में सब से तूलानी ख़ुतबा 192 है जो ख़ुतब ए क़ासेआ के नाम से मशहूर है और सब से छोटा ख़ुतबा 59 है।

  1. दूसरा हिस्सा: ख़ुतूत

यह हिस्सा इमाम अली अलैहिस सलाम के ख़ुतूत पर मुशतमिल है जो आप ने अपने गवर्नरों, दोस्तों, दुश्मनों, क़ाज़ियों और ज़कात जमा करने वालों के लिये लिखें है, उन सब में 53 वां ख़त सब से बड़ा है जो आप ने अपने मुख़लिस सहाबी मालिके अशतर को लिखा है और सब से छोटा ख़त 79 वां है जो आप ने फौ़ज के अफ़सरों को लिखा है।

  1. तीसरा हिस्सा: कलेमाते क़िसार

नहजुल बलाग़ा का आख़िरी हिस्सा 480 छोटे बड़े हिकमत आमेज़ कलेमात पर मुशतमिल है जिन को कलेमाते क़िसार कहा जाता है यानी मुख़तसर कलेमात, उन को कलेमाते हिकमत और क़िसारुल हिकम भी कहा जाता है। यह हिस्ला अगरचे मुख़तसर बयान पर मुशतमिल है लेकिन उन के मज़ामीन बहुत बुंलद पाया हैसियत रखते हैं जो नहजुल बलाग़ा की ख़ूब सूरती को चार चाँद लगा देते हैं।

मुक़द्दमा

इतना के नज़दीक इंसान जितना ख़ुदा से करीब हो जाये उस का उस का मरतबा व मक़ाम भी बुलंद होता जायेगा और जितना उस का मरतबा बुलंद होगा उसी हिसाब से उस की रुह को तकामुल हासिल होता जायेगा। यहाँ तक कि इंसान उस मक़ाम पर पहुच जाता है कि जो बुलंद तरीन मक़ाम है जहाँ वह अपने और ख़ुदा के दरमियान कोई हिजाब व पर्दा नही पाता हत्ता कि यहाँ पहुच कर इंसान अपने आप को भी भूल जाता है।

यहाँ पर इमाम सज्जाद अलैहिस सलाम का फ़रमान है जो इसी मक़ाम को बयान करता है। आप फ़रमाते हैं:

इलाही हब ली कमालल इंकेताए इलैक............(1)

ख़ुदाया मेरी तवज्जो को ग़ैर से बिल्कुल मुनक़ताकर दे और हमारे दिलों को अपनी नज़रे करम की रौशनी से मुनव्वर कर दे हत्ता कि बसीरते क़ुलूब से नूर के हिजाब टूट जायें और तेरी अज़मत के ख़ज़ानों तक पहुच जायें।

इस फ़रमाने मासूम से मालूम होता है कि जब इंसान खुदा से मुत्तसिल हो जाता है तो उस की तवज्जो ग़ैरे ख़ुदा से मुनक़ता हो जाती है। खुदा के अलावा सब चीज़ें उस की नज़र में बे अरज़िश रह जाती है। वह ख़ुद को ख़ुदा वंदे की मिल्कियत समझता है और अपने आप को ख़ुदा की बारगाह में फ़क़ीर बल्कि ऐने फ़क़र समझता है और ख़ुदा को ग़नी बिज़ ज़ात समझता है। जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

अबदन ममलूकन या यक़दिरो अला शय.......। (2)

इंसान ख़ुदा का ज़र ख़रीद ग़ुलाम है और यह ख़ुद किसी शय पर क़ुदरत नही रखता है।

लिहाज़ा ख़ुदा वंदे आलम का क़ुर्ब कैसे हासिल किया जाये ता कि यह बंदा ख़ुदा का महबूब बन जाये और ख़ुदा उस का महबूब बन जाये। मासूमीन अलैहिमुस सलाम फ़रमाते हैं:

खुदा से नज़दीक़ और क़ुरबे इलाही हासिल करने का वाहिद रास्ता उस की इबादत और बंदी है यानी इँसान अपनी फ़रदी व समाजी ज़िन्दगी में सिर्फ़ ख़ुदा को अपना मलजा व मावा क़रार दे।

जब इंसान अपना सब कुछ ख़ुदा को क़रार देगा तो उसका हर काम इबादत शुमार होगा। तालीम व तअल्लुम भी इबादत, कस्ब व तिजारत भी इबादत, फ़रदी व समाजी मसरुफ़ियात भी इबादत गोया हर वह काम जो पाक नीयत से और खु़दा के लिये होगा वह इबादत के ज़ुमरे में आयेगा।

अभी इबादत की पहचान और तारीफ़ के बाद हम इबादत की अक़साम और आसारे इबादत को बयान करते हैं ता कि इबादत की हक़ीक़त को बयान किया जा सके। ख़ुदा वंदे आलम से तौफ़ीक़ात ख़ैर की तमन्ना के साथ अस्ल मौज़ू की तरफ़ आते हैं।

इबादत की तारीफ़

इबादत यानी झुक जाना उस शख़्स का जो अपने वुजूद व अमल में मुस्तक़िल न हो उस की ज़ात के सामने जो अपने वुजूद व अमल में इस्तिक़लाल रखता हो।

यह तारीफ़ बयान करती है कि तमाम कायनात में ख़ुदा के अलावा कोई शय इस्तिक़लाल नही रखती फ़क़त जा़ते ख़ुदा मुस्तक़िल व कामिल है और अक़्ल का तक़ाज़ा है कि हर नाक़िस को कामिल की ताज़ीम करना चाहिये चूं कि ख़ुदा वंदे आलम कामिल और अकमल ज़ात है बल्कि ख़ालिक़े कमाल है लिहाज़ा उस ज़ात के सामने झुकाव व ताज़ीम व तकरीम मेयारे अक़्ल के मुताबिक़ है।

इबादत की अक़साम

इमाम अली अलैहिस सलाम नहजुल बलाग़ाके अंदर तौबा करने वालों की तीन क़िस्में बयान फ़रमाते हैं:

इन्ना क़ौमन अबदुल्लाहा रग़बतन फ़ तिलका इबादतुत तुज्जार.......। (3)

कुछ लोग ख़ुदा की इबादत ईनाम के लालच में करते हैं यह ताजिरों की इबादत है और कुछ लोग ख़ुदा की इबादत ख़ौफ़ की वजह से करते हैं यह ग़ुलामों की इबादत है और कुछ लोग ख़ुदा की इबादत उस का शुक्र बजा लाने के लिये करते हैं यह आज़ाद और ज़िन्दा दिल लोगों की इबादत हैं।

इस फ़रमान में इमाम अली अलैहिस सलाम ने इबादत को तीन क़िस्मों में तक़सीम किया है।

पहली क़िस्म: ताजिरों की इबादत

यानी कुछ लोग रग़बत औक ईनाम की लालच में ख़ुदा की इबादत करते हैं। इमाम (अ) फ़रमाते हैं कि यह हक़ीक़ी इबादत नही है बल्कि यह ताजिरों की तरह ख़ुदा से मामला चाहता है जैसे ताजिर हज़रात का हम्म व ग़म फ़कत नफ़ा और फ़ायदा होता है किसी की अहमियत उस की नज़र में नही होती। उसी तरह से यह आबिद जो इस नीयत से ख़ुदा के सामने झुकता है दर अस्ल ख़ुदा की अज़मत का इक़रार नही करता बल्कि फ़क़त अपने ईनाम के पेशे नज़र झुक रहा होता है।

दूसरी क़िस्म: ग़ुलामों की इबादत

इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि कुछ लोग ख़ुदा के ख़ौफ़ से उस की बंदगी करते हैं यह भी हक़ीक़ इबादत नही है बल्कि ग़ुलामों की इबादत है जैसे एक ग़ुलाम मजबूरन अपने मालिक की इताअत करता है उस की अज़मत उस की नज़र में नही होती। यह आबिद भी गोया ख़ुदा की अज़मत का मोअतरिफ़ नही है बल्कि मजबूरन ख़ुदा के सामने झुक रहा है।

तीसरी क़िस्म: हक़ीक़ी इबादत

इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि कुछ लोग ऐसे हैं जो ख़ुदा की इबादत और बंदगी उस की नेंमतों का शुक्रिया अदा करने के लिये बजा लाते हैं, फ़रमाया कि यह हक़ीक़ी इबादत है। चूँ कि यहाँ इबादत करने वाला अपने मोहसिन व मुनईमे हकी़क़ी को पहचान कर और उस की अज़मत की मोअतरिफ़ हो कर उस के सामने झुक जाता है जैसा कि कोई अतिया और नेमत देने वाला वाजिबुल इकराम समझा जाता है और तमाम दुनिया के ग़ाफ़िल इंसान उस की अज़मत को तसलीम करते हैं। इसी अक़ली क़ानून की बेना पर इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि जो शख़्स उस मुनईमे हक़ीक़ी को पहचान कर उस के सामने झुक जाये। उसी को आबिदे हक़ीक़ी कहा जायेगा और यह इबादत की आला क़िस्म है।

नुकता

ऐसा नही है कि पहली दो क़िस्म की इबादत बेकार है और उस का कोई फ़ायदा नही है हरगिज़ ऐसा नही है बल्कि इमाम अलैहिस सलाम मरातिबे इबादत को बयान फ़रमाना चाहते हैं। अगर कोई पहली दो क़िस्म की इबादत बजा लाता है तो उस को उस इबादत का सवाब ज़रुर मिलेगा। फ़क़त आला मरतबे की इबादत से वह शख़्स महरुम रह जाता है। चूँ कि बयान हुआ कि आला इबादत तीसरी क़िस्म की इबादत है।

इबादत के आसार

  1. दिल की नूरानियत

इबादत के आसार में से एक अहम असर यह है कि इबादत दिल को नूरानियत और सफ़ा अता करती है और दिल को तजल्लियाते ख़ुदा का महवर बना देती है। इमाम अलैहिस सलाम इस असर के बारे में फ़रमाते हैं:

इन्नल लाहा तआला जअलज ज़िक्रा जलाअन लिल क़ुलूब। (4)

ख़ुदा ने ज़िक्र यानी इबादत को दिलों की रौशनी क़रार दिया है। भरे दिल उसी रौशनी से क़ुव्वते समाअत और सुनने की क़ुव्वत हासिल करते हैं और नाबीना दिल बीना हो जाते हैं।

  1. ख़ुदा की मुहब्बत

इबादत का दूसरा अहम असर यह है कि यह मुहब्बते ख़ुदा का ज़रिया है। इंसान महबूबे खुदा बन जाता है और ख़ुदा उस का महबूब बन जाता है। इमाम अलैहिस सलाम नहजुल बलाग़ा में फ़रमाते हैं:

ख़ुश क़िस्मत है वह इंसान है जो अपने परवरदिगार के फ़रायज़ को अंजाम देता है और मुश्किलात व मसायब को बरदाश्त करता है और रात को सोने से दूरी इख़्तियार करता है। (5)

इमाम अलैहिस सलाम के फ़रमान का मतलब यह है कि इंसान उन मुश्किलात को ख़ुदा की मुहब्बत की वजह से तहम्मुल करता है और मुहब्बते ख़ुदा दिल के अंदर न हो तो कोई शख़्स इन मुश्किलात को बर्दाश्त नही करेगा। जैसा कि एक और जगह पर इस अज़ीमुश शान किताब में फ़रमाते हैं:

बेशक इस ज़िक्र (इबादत) के अहल मौजूद हैं जो दुनिया के बजाए उसी का इंतेख़ाब करते हैं। (6)

यानी अहले इबादत वह लोग हैं जो मुहब्बते ख़ुदा की बेना पर दुनिया के बदले यादे ख़ुदा को ज़्यादा अहमियत देते हैं और दुनिया को अपना हम्म व ग़म नही बनाते बल्कि दुनिया को वसीला बना कर आला दर्जे की तलाश में रहते हैं।

  1. गुनाहों का मिट जाना

गुनाहों का मिट जाना यह एक अहम असर है। इबादत के ज़रिये गुनाहों को ख़ुदा वंदे करीम अपनी उतूफ़त और मेहरबानी की बेना पर मिटा देता है। चूँ कि गुनाहों के ज़रिये इंसान का दिल सियाह हो जाता है और जब दिल उस मंज़िल पर पहुच जाये तो इंसान गुनाह को गुनाह ही नही समझता। जब कि इबादत व बंदगी और यादे ख़ुदा इंसान को गुनाहों की वादी से बाहर निकाल देती है। जैसा कि इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं:

बेशक यह इबादत गुनाहों को इस तरह झाड़ देती है जैसे मौसमें ख़ज़ाँ में पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं। (7)

बाद में इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि रसूले ख़ुदा (स) ने नमाज़ और इबादत को एक पानी के चश्मे से तशबीह दी है जिस के अंदर गर्म पानी हो और वह चश्मा किसी के घर के दरवाज़े पर मौजूद हो और वह शख़्स दिन रात पाँच मरतबा उस के अंदर ग़ुस्ल करे तो बदन की तमाम मैल व आलूदगी ख़त्म हो जायेगी, फ़रमाया नमाज़ भी इसी तरह ना पसंदीदा अख़लाक़ और गुनाहों को साफ़ कर देती है।

नमाज़ की अहमियत

नमाज़ वह इबादत है कि तमाम अंबिया ए केराम ने इस की सिफ़ारिश की है। इस्लाम के अंदर सबसे बड़ी इबादत नमाज़ है जिस के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का इरशाद है कि अगर नमाज़ कबूल न हुई तो कोई अमल कबूल नही होगा फिर फ़रमाया कि नमाज़ जन्नत की चाभी है और क़यामत के दिन सब से पहले नमाज़ के बारे में सवाल होगा।

क़ुरआने मजीद के अंदर नमाज़ को शुक्रे ख़ुदा का ज़रिया बताया गया है। बाज़ हदीसों में नमाज़ को चश्मे और नहर से तशबीह दी गई है जिस में इंसान पांच मरतबा ग़ुस्ल करता है। इन के अलावा बहुत सी अहादीस नमाज़ की अज़मत और अहमियत पर दलालत करती है। इमाम अलैहिस सलाम नहजुल बलाग़ा में फ़रमाते हैं:

नमाज़ क़ायम करो और उस की मुहाफ़ेज़त करो और उस पर ज़्याद तवज्जो दो और ज़्यादा नमाज़ पढ़ो और उस के वसीले से ख़ुदा का क़ुर्ब हासिल करो। (8)

चूं कि ख़ुदा वंदे आलम क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:

नमाज़ ब उनवाने फ़रीज ए वाजिब अपने अवका़त पर मोमिनीन पर वाजिब है। (9)

फिर फ़रमाया:

क़यामत के दिन अहले जन्नत, जहन्नम वालों से सवाल करेगें। कौन सी चीज़ तुम्हे जहन्नम में ले कर आई है वह जवाब देगें कि हम अहले नमाज़ नही थे।

फिर इमाम अलैहिस सलाम 199 वें ख़ुतबे में फ़रमाते हैं:

नमाज़ का हक़ वह मोमिनीन पहचानते हैं जिन को दुनिया की ख़ूब सूरती धोका न दे और माल व दौलत और औलाद की मुहब्बत नमाज़ से न रोक सके। एक और जगह पर फ़रमाते हैं:

तुम नमाज़ के अवक़ात की पाबंदी करो वह शख़्स मुझ से नही है जो नमाज़ को ज़ाया कर दे। (10)

एक और जगह पर फ़रमाते हैं:

ख़ुदारा, ख़ुदारा नमाज़ को अहमियत दो चूं कि नमाज़ तुम्हारे दीन का सुतून है। (11)

इस हदीस के अलावा और भी काफ़ी हदीसें अहमियते नमाज़ को बयान करती हैं चूँ कि इख़्तेसार मद्दे नज़र है लिहाज़ा इन ही चंद हदीसों पर इकतेफ़ा किया जाता है। फ़क़त एक दो मौरिद मुलाहेज़ा फ़रमायें:

  1. नमाज़ कुरबे ख़ुदा का ज़रिया है।

इमाम (अ) नहजुल बलाग़ा में फ़रमाते हैं:

नमाज़ कुरबे ख़ुदा का सबब है।

  1. नमाज़ महवरे इबादत

रसूले इस्लाम (स) फ़रमाते हैं कि नमाज़ दीन का सुतून है। सबसे पहले नाम ए आमाल में नमाज़ पर नज़र की जायेगी और अगर नमाज़ कबूल हुई तो बक़िया आमाल देखे जायेगें। अगर नमाज़ कबूल न हुई तो बाक़ी आमाल भी क़बूल नही होगें।

इमाम (अ) फ़रमाते हैं:

जान लो कि तमाम दूसरे आमाल तेरी नमाज़ के ताबे होने चाहियें। (12)

अज़मते नमाज़

इमाम अली अलैहिस सलाम नहजुल बलाग़ा में इरशाद फ़रमाते हैं:

नमाज़ से बढ़ कर कोई अमल ख़ुदा को महबूब नही है लिहाज़ा कोई दुनियावी चीज़ तूझे अवक़ाते नमाज़ से ग़ाफ़िल न करे।

वक़्ते नमाज़ की अहमियत

इमाम अलैहिस सलाम इसी किताब में फ़रमाते हैं:

नमाज़ को मुअय्यन वक़्त के अंदर अंजाम दो, वक़्त से पहले भी नही पढ़ी जा सकती और वक़्त से ताख़ीर में भी न पढ़ों।

इमाम अलैहिस सलाम जंगे सिफ़्फ़ीन में जंग के दौरान नमाज़ पढ़ने की तैयारी फ़रमाते हैं, इब्ने अब्बास ने कहा कि ऐ अमीरुल मोमिनीन हम जंग में मशग़ूल हैं यह नमाज़ का वक़्त नही है तो इमाम (अ) ने फ़रमाया कि ऐ इब्ने अब्बास, हम नमाज़ के लिये ही तो जंग लड़ रहे हैं। इमाम (अ) ने ज़वाल होते ही नमाज़ के लिये वुज़ू किया और ऐन अव्वले वक़्त में नमाज़ को अदा कर के हमें दर्स दिया है कि नमाज़ किसी सूरत में अव्वल वक़्त से ताख़ीर न की जाये।

नमाजे तहज्जुद या नमाज़े शब

नमाज़े शब या नमाज़े तहज्जुद एक मुसतहब्बी नमाज़ है जिस की गयारह रकतें हैं आठ रकअत नमाज़े शब की नीयत से, दो रकअत नमाज़े शफ़ा की नीयत से और एक रकअत नमाज़े वित्र की नीयत से पढ़ी जाती है, नमाज़े शफ़ा के अंदक क़ुनूत नही होता और नमाज़े वित्र एक रकअत है जिस में कुनूत के साथ चालीस मोमिनीन का नाम लिया जाता है। यह नमाज़ मासूमीन (अ) पर वाजिब होती है। मासूमीन (अ) ने इस नमाज़ की बहुत ताकीद की है। चूं कि इस के फ़वायद बहुत ज़्यादा है।

नमाज़े शब की बरकात

  1. नमाज़े शब तंदरुस्ती का ज़रिया है।
  2. ख़ूशनूदी ए ख़ुदा का ज़रिया है।
  3. नमाज़े शब अख़लाक़े अंबिया की पैरवी करना है।
  4. रहमते ख़ुदा का बाइस है। (15)

इमाम अली (अ) नमाज़े शब की अज़मत को बयान करते हुए फ़रमाते हैं:

मैंने जब से रसूले ख़ुदा (स) से सुना है कि नमाज़े शब नूर है तो उस को कभी तर्क नही किया हत्ता कि जंगे सिफ़्फ़ीन में लैलतुल हरीर में भी उसे तर्र नही किया। (16)

नमाज़े जुमा की अहमियत

नमाज़े जुमा के बारे में भी इमाम अलैहिस सलाम ने नहजुल बलाग़ा में बहुत ताकीद फ़रमाई है:

पहली हदीस

जुमे के दिन सफ़र न करो और नमाज़े जुमा शिरकत करो मगर यह कि कोई मजबूरी हो। (17)

दूसरी हदीस

इमाम अली अलैहिस सलामा जुमे के ऐहतेराम में नंगे पांव चल कर नमाज़े जुमा में शरीक होते थे और जुते हाथ में ले लेते थे। (18)

हवाले

  1. मफ़ातीहुल जेनान, मुनाजाते शाबानियां, शेख़ अब्बास क़ुम्मी
  2. सूर ए नहल आयत 75
  3. नहजुल बलाग़ा हिकमत 237
  4. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 222
  5. नहजुल बलाग़ा ख़ुतब 45
  6. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 222
  7. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 199
  8. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 199
  9. सूर ए निसा आयत 103
  10. दआयमुल इस्लाम जिल्द 2 पेज 351
  11. नहजुल बलाग़ा ख़त 47
  12. नहजुल बलाग़ा ख़त 27
  13. शेख सदूक़, अल ख़ेसाल पेज 621
  14. नहजुल बलाग़ा ख़त 27
  15. क़ुतबुद्दीन रावन्दा, अद दअवात पेज 76
  16. बिहारुल अनवार जिल्द 4
  17. नहजुल बलाग़ा ख़त 69
  18. दआयमुल इस्लाम जिल्द 1 पेज 182

 

मंगलवार, 02 सितम्बर 2025 13:06

ख़ुशी क्या है

हमारे जन्म के पहले दिन ही ईश्वर अपनी तत्वदर्शिता द्वारा हमसे कहता है कि जीवन मधुर है और हमें अपने जीवन काल में यह सीखने का प्रयास करना चाहिए कि उचित मार्ग कौन से हैं ताकि उसपर चलकर हम मधुर जीवन व्यतीत कर सकें। यदि हमारा मनोबल सुदृढ़ होगा और हम प्रसन्नचित रहें गे तो ईश्वर के इस वरदान द्वारा हम अपनी ख़ुशियों में दूसरों को भी भागीदार बना सकते हैं। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शन्ति एवं प्रसन्नता की भावना उत्पन्न करने के लिए आन्तरिक अभ्यास की आवश्यकता है। ख़ुश और प्रसन्नचित रहना संभव है एक अल्प अवधि के लिए हमें ख़ुश करे हंसा दे परन्तु आन्तरिक अभ्यास के बिना यह बड़ी जल्दी ही हमारी आत्मिक परेशानी एवं उदासीनता का कारण बन जाता है।

 जीवन में संभव है घर, गाड़ी या आधुनिक घरेलू उपकरण इत्यादि ख़रीदने पर हमें ख़ुशी हो परन्तु उल्लेखनीय है कि वास्तविक प्रसन्नता के लिए इन चीज़ों की आवश्यकता नहीं है। हमें ईश्वरिय वरदानों तथा विभूतियों को प्राप्त करके अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए। दूसरों से प्रेम करना ,रिश्तेदारों से मिलना - जुलना, अपने परिवार और साथियों का सम्मान और नैतिक मूल्यों का पालन जीवन में वास्तविक प्रसन्नता का कारण बनता है। यहां पर हम मधुर जीवन व्यतीत करने की कुछ पद्धीतयों पर प्रकाश डाल रहे हैं।

 हमें परिस्थितियों पर दृष्टि रखनी चाहिए। जैसे घर पर अपने परिवार वालों के साथ भोजन करते समय हमें अपने कल की परिक्षा की चिन्ता करने के स्थान पर अपने परिवार के सदस्यों के बारे में सोचना चाहिए, उनसे बात करनी चाहिए। जब हम किसी रोचक घटना को याद करके हंसते हैं तो प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले हांरमोनों की संख्या में वृद्धि हो जाती है और तनाव उत्पन्न करने वाले हांरमोन कम हो हाते हैं।

 वर्तमान समय में अधिकांश लोग पूरी नींद नहीं सो पाते। हमें अपने सोने का समय निर्धारित करना चाहिए। जो कार्य हमें पसन्द नहीं या उसमें रुचि नहीं है उन्हें अपनी गतिविधियों से निकाल देना ही उचित है। जो कार्य करने हैं उनकी सूची बनाएं। इनमें से जो जो कार्य कर चुके हैं उनपर निशान लगा दें। इससे मनुष्य को शान्ति का आभास होता है। एक समय में एक ही काम करें। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जिन लोगों के कई व्यवसाय होते हैं उनको उच्च रक्त चाप का अधिक ख़तरा रहता है। यह याद रखिए कि टेलिफ़ोन पर बात करने के साथ साथ खाना बनाने या सफ़ाई करने से कहीं बेहतर यह है कि आप आराम से एक कुर्सी पर बैठ कर टेलिफ़ोन पर बात करें।

 अपने बगीचे में रुचि लीजीए। इससे ताज़ी हवा मिलने और शरीरिक सक्रियता के अतिरिक्त तनाव कम होगा और आप प्रसन्नचित होंगे। अपने हाथ से लगाए हुए पौधों को फूलते फलते देख कर कौन है जिसका मन फूला नहीं समाए गा नए अनुसंधानों से पता लगा है कि सुगंध मनुष्य में तनाव को कम करती है फूलों के बगीचे में टहलने से मनुष्य को अपूर्व शन्ति का आभास होता है। आज के इस शोरशराबे के जीवन में पुस्तकालय, संग्रहालय, बाग़ या धार्मिक स्थल शान्त स्थान समझे जाते हैं। शान्ति प्राप्त करने के लिए इनमें से किसी का भी चयन किया जा सकता है।

 दूसरों की सहायता करना, मनुष्य में सहायता की भावना उत्पन्न करने के अतिरिक्त हमारे भीतर यह भावना भी उत्पन्न करता है कि हम अपनी समस्याओं को महत्वहीन समझें। प्रसन्नचित लोग दूसरों की सहायता के लिए अधिक तत्पर रहते हैं और दूसरों की सहायता के लिए तत्पर रहने वाले अधिक प्रसन्नचित रहते हैं। नि:सन्देह किसी की सहायता करके जो आनन्द प्राप्त होता है उसको वार्णित नहीं किया जा सकता है।

 

आप अवश्य ही जानते होंगे कि तनाव को दूर करने के लिए व्यायाम हर दवा से बेहतर है। आप अकेले टहलकर अपने बारे में सोच कर लाभ उठा सकते हैं। धीरे धीरे पैदल चलने से हत्दय की गति सुचारु रुप से चलती है, रक्त चाप नियंत्रित रहता है। अपने निकट संबंधियों के साथ अपने संबंधों को महत्व देना चाहिए।

 विभिन्न आयु के १,३०० पुरुष एवं महिलाओं पर अनुसंधान द्वारा पता चला है कि जिन लोगों के घनिष्ठ मित्रों की संख्या अधिक है उनमें रक्त चाप, रक्त की चर्बी, शरकरा तथा तनाव के हारमोन अपनी उचित सीमा में होते हैं। इसके विपरित अकेले रहने वाले या जिनके मित्र कम हैं ऐसे लोगों में समय से पूर्व मृत्यु का ख़तरा अधिक रहता है।

 मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जिन लोगों में मज़बूत धार्मिक आस्था है वे अधिक प्रसन्नचित होते हैं। ऐसे लोग कठिनाइयों का सामना करने में अधिक सक्षम होते हैं। ईश्वर पर आस्था द्वारा मनुष्य अपने जीवन का अर्थ समझ लेता है। यहां तक कि यदि मनुष्य को धर्म पर अधिक विश्वास न भी हो परन्तु आध्यात्मवाद में उसकी रुचि हो, फिर भी सकारात्मक विचारों द्वारा वो अपना जीवन मधुर बना सकता है।

 अन्त में हम यह कहें गे कि हमारे पास जो ईश्वरीय विभूतियां हैं यदि हम उनकी गणना करें तो हम देखें गे कि वो कृपालु तथा दयालु ईश्वर हमसे कितना प्रेम करता है। हमारा स्वास्थय, हमारे मित्र, हमारा परिवार, हमारी स्वतन्त्रता और शिक्षा इत्यादि हर चीज़ उसी की प्रदान की हुई विमूति है। जो लोग इन विभूतियों को दृष्टिगत रखते हुए ईश्वर का आभार व्यक्त करते हैं, वे अपने जीवन में सुखी रहते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर पर पूरा भरोसा रहता है।

और इस प्रकार मनुष्य अपने जीवन की हर सफलता तथा विफलता को ईश्वर की इच्छा समझ कर स्वीकार कर लेता है और इस प्रकार मनुष्य का जीवन मधुर हो जाता है।

 

 

मंगलवार, 02 सितम्बर 2025 13:05

क़ुरआन की ख़ुसूसियत

कलामे इलाही, क़ुरआन तुम्हारे दरमियान ऐसा बोलने वाला है जिस की ज़बान हक़ कहने से थकती नही है, और हमेशा हक़ कहती है, और ऐसा घर है कि जिस के अरकान मुनहदिम नही होते हैं, और ऐसा साहिबे इज़्ज़त है कि जिस के साथी कभी शिकस्त नही खा सकते हैं।

आशकार नूर और मोहकम रस्सी:

तुम्हारे लिए ज़रूरी है कि क़ुरआन पर अमल करो कि ये अल्लाह की मोहकम रस्सी, आशकार नूर, और शिफ़ा बख़्श है कि जो तिश्नगी को ख़त्म नही करता है, जो उस से तमस्सुक करे उस को बचाने वाला और जो उस से मुतमस्सिक हो जाए उस को निजात देने वाला है, उस में बातिल को राह नही है कि उस से पलटा दिया जाए, तकरार और आयात की मुसलसल समाअत उस को पुराना नही बनाती है और कान उस को सुनने से थकते नही हैं।

क़ुरआन हिदायत है:

जान लो! क़ुरआन ऐसा नसीहत करने वाला है जो धोखा नही देता, और ऐसा हिदायत करने वाला है जो गुमराह नही करता, और ऐसा क़ाऍल करने वाला है जो झूठ नही बोलता, कोई भी क़ुरआन का हम नशीन नही हुआ मगर ये कि उस के इल्म में इज़ाफ़ा और दिल की तारीकी और गुमराही में कमी हुई ।

जान लो कि क़ुरआन के होते हुए किसी और चीज़ की ज़रूरत नही रह जाती और बग़ैर क़ुरआन के कोई बे नियाज़ नही है।

पस अपने दर्दों का इलाज क़ुरआन से करो और सख़्तियों में उस से मदद मांगो, कि क़ुरआन में बहुत बड़ी बीमारियों कुफ़्र, निफ़ाक़, सर कशी और गुमराही का इलाज मौजूद है।

पस क़ुरआन के ज़रिये से अपनी ख़्वाहिशों को ख़ुदा से तलब करो, और क़ुरआन की दोस्ती से ख़ुदा की तरफ़ आओ, और क़ुरआन के ज़रिये से ख़ल्क़े ख़ुदा से कुछ तलब न करो इस लिये कि ख़ुदा से क़ुरबत के लिए क़ुरआन से अच्छा कोई वसीला नही है, आगाह रहो!कि क़ुरआन की शिफ़ाअत मक़बूल, और उसका कलाम तस्दीक़ शुदा है। क़यामत में क़ुरआन जिस की शिफ़ाअत करो वह बख़्श दिया जाएगा, और क़ुरआन जिस की शिकायत करे वह महकूम है, क़यामत के दिन आवाज़ लगाने वाला आवाज़ लगाएगा

“जान लो! जिस के पास जो भी पूंजी है और जिस ने जो भी काटा है उस को क़ुरआन पर तौला जाएगा” पस तुम को क़ुरआन पर अमल करना चाहिये, क़ुरआन की पैरवी करो और उसके ज़रिए ख़ुदा को पहचानो, क़ुरआन से नसीहत हासिल करो और अपनी राए व नज़र को क़ुरआन पर अरज़ा करो और अपने मतलूबात को क़ुरआन के ज़रिए से नकार दो।

अहमियते क़ुरआन

 

क़ुरआन दिलों की बहार:

जान लो! ख़ुदावंदे आलम ने किसी को क़ुरआन से बेहतर कोई नसीहत नही फ़रमाई हैं, कि यही ख़ुदा की मोहकम रस्सी, और उस का अमानतदार वसीला है। उस में दलों की बहार का सामान और इल्म के सर चश्में हैं दिलों की बहार और इल्म व हिक्मत का चश्मा है...।

दिल के लिए क़ुरआन के जैसी रौशनी नही हो सकती, ख़ुसूसन उस मुआशरे में जहां दिलों के मरीज़, ग़ाफ़ेलीन और धोखा देने वाले रहते हैं।

क़ुरआन बंदों पर ख़ुदा की हुज्जत:

जान लो! क़ुरआन अम्र करने वाला भी है और रोकने वाला भी है और गोया भी, वह मख़लूक़ात पर ख़ुदा की हुज्जत है।

दर्दों की दवा:

क़ुरआन से बात करके देखो, ये ख़ुद नही बोलेगा बल्कि मैं तुम को उस के मआरिफ़ से मुत्तलअ करूगां। जान लो! क़ुरआन में आइन्दा का इल्म....तुम्हारे दर्दों का सामान है...।

फ़ुरक़ान :

क़ुरआन ऐसा नूर है जो मद्धम नही हो सकता, ऐसा चिराग़ है जो बुझ नही करता। वह समन्दर है जिस की थाह नही मिल करती और ऐसा रास्ता है जिस पर चलने वाला भटक नही सकता, ऐसी शोआ है जिसकी ज़ौ तारीक नही हो सकती, और ऐसा बातिल व हक़ का इम्तियाज़ है जिस का बुरहान कमज़ोर नही हो सकता,... और ऐसी शफ़ा है जिस में बीमारी का कोई ख़ौफ़ नही है, ऐसी इज़्ज़त है जिस के अंसार पसपा नही हो सकते हैं, और ऐसा हक़ है जिस के आवान बे यार व मददगार नही छोड़े जा सकते हैं।

उलूम का दरिया:

क़ुरआन ईमान की कान, इल्म का चश्मा और समन्दरे अदालत का बाग़ और हौज़, इस्लाम का संगे बुनियाद और असास, हक़ की वादी और उसका हमवार मैदान है, ये वह समन्दर है जिसे पानी निकालने वाले ख़त्म नही कर सकते हैं, और वह चश्मा है जिसे उलचने वाले ख़ुश्क नही कर सकते हैं। वह घाट है जिस पर वारिद होने वाले उस का पानी कम नही कर सकते हैं। और वह मंज़िल है जिस की राह पर चलने वाले मुसाफ़िर भटक नही सकते हैं, वह निशाने मंज़िल है जो राह गीरों की नज़रों से ओझल नही हो सकता है....।

फ़ैसला क़ुरआन कि बुनियाद पर हो न कि अश्ख़ास पर:

याद रखो! हम ने अफ़राद को हकम नही बनाया था बल्कि क़ुरआन को हकम क़रार दिया था

ये क़ुरआन वह मकतूब है जो दो जिल्दों के दरमियान छिपा है, लेकिन मुश्किल ये है कि ये ख़ुद नही बोलता है और उसे तरजुमान की ज़रूरत है और तरजुमान अफ़राद ही होते हैं उस क़ौम ने हमें दावत दी कि हम क़ुरआन से फ़ैसला कराएं तो हम तो क़ुरआन से रू गरदानी करने वाले नही थे।

जब्कि ख़ुदा ने फ़रमा दिया है कि अपने एख़्तिलाफ़ात को ख़ुदा और रसूल की तरफ़ मोड़ दो और ख़ुदा की तरफ़ मोड़ने का मतलब उसकी किताब से फ़ैसला कराना ही है और रसूल की तरफ़ मोड़ने का मक़सद भी सुन्नत का इत्तेबा है और ये तैय है कि अगर किताबे ख़ुदा से सच्चाई के साथ फ़ैसला लिया जाये तो उस के सब से ज़्यादा हक़दार हम ही हैं और इसी तरह सुन्नते पैग़म्बर के लिये सब से ज़्यादा अवला व अक़रब हम ही हैं।

जामईयते क़ुरआन:

क़ुरआन में तुम्हारे पहले की ख़बर, तुम्हारे बाद की पेशीनगोई और तुम्हारे दरमियानी हालात के अहकाम सब पाए जाते हैं।

क़ुरआन को भुला देना:

एक ऐसा वक़्त आएगा कि जब लोगों के दरमियान क़ुरआन क़ुरआन सिर्फ़ निशानी के तौर पर और इस्लाम सिवाये नाम के बाक़ी न रह जाएगा। उस की मस्जिदें आबाद होंगीं लेकिन हिदायत से ख़ाली होंगी...।

इन चंद नमूनों से हम को अच्छी तरह अंदाज़ा होता है कि अगर हम को क़ुरआन के बारे में और उसके उलूम व मआरिफ़ का अंदाज़ा लगाना है तो हमें ख़ुद क़ुरआन से पूछना होगा “जो कि ख़ुद ज़बान नही रखता है” या फ़िर उसके दर पर आना होगा जहां क़ुरआन नाज़िल हुआ और उस ज़बान से क़ुरआनियात और उलूमे क़ुरआन को अख़्ज़ करना होगा जो ये कहे कि सलूनी सलूनी क़ब्ला अन तफ़क़ेदूनी और जिसको क़ुरआन के हर असरार व रुमूज़ का इल्म हो और जो आयात के मकान, ज़मान और शान नुज़ूल से वाक़िफ़ हो। और उन सब के लिये हम को दरे अली (अ0) पर आना पड़ेगा और उनकी नज़र से हम को क़ुरआन को देखना होगा और उनके कलाम से क़ुरआन की हक़ीक़ी तफ़सीर मालूम करनी होगी जो हक़ीक़ी मुफ़स्सिरे क़ुरआन है।

और आप के इरशादात व फ़रमूदात को हालिन करने के लिये हम को उस किताब की तरफ़ रुजू करना होगा जो कलामे इलाही तो नही लेकिन लिसानुल्लाह के दहने मुबारक से निकले हुए पाक कलाम हैं जो तहता कलामिल ख़ालिक़ और फ़ौक़ा कलामिल मख़लूक़ है। हम ज़ेरे नज़र मक़ाले में इस बात की कोशिश करेंगे कि क़ारेईन की ख़िदमत में तफ़सीर क़ुरआन को नहजुल बलाग़ा के तनाज़ुर में पेश करें।

 

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने एक रिवायत में एक ऐसे कार्य का वर्णन किया है जो क़यामत के दिन हिसाब-किताब को आसान बना देगा।

निम्नलिखित रिवायत "बिहार उल-अनवर" पुस्तक से ली गई है। इस रिवायत का पाठ इस प्रकार है:

قال الصادق علیه السلام:

اِنَّ صِلَةَ الرَّحِمِ تُهَوِّنُ الْحِسابَ يَوْمَ الْقِيامَةِ

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने फ़रमाया:

निसंदेह, सिले रहम क़यामत के दिन हिसाब-किताब को आसान बना देती है।

बिहार उल-अनवार: भाग 74, पेज 102

मौलाना सय्यद करामत हुसैन शऊर जाफ़री ने कहा है कि 9 रबीअ उल अव्वल मुस्लिम उम्माह के लिए निष्ठा के नवीनीकरण और आध्यात्मिक जागृति का दिन है, लेकिन यह कहना अफ़सोस की बात है कि कुछ जगहों पर इस दिन को इसके मूल उद्देश्य के विपरीत तुच्छ गतिविधियों और शब्दाडंबर के साथ मनाया जाता है, जो कुरान, सुन्नत और अहले-बैत (अ) की शिक्षाओं के बिल्कुल विपरीत है।

प्रसिद्ध विचारक, लेखक और दैनिक सदाक़त के प्रधान संपादक मौलाना सय्यद करामत हुसैन शऊर जाफ़री ने कहा है कि 9 रबीअ उल अव्वल मुस्लिम उम्माह के लिए निष्ठा के नवीनीकरण और आध्यात्मिक जागृति का दिन है, लेकिन यह कहना अफ़सोस की बात है कि कुछ जगहों पर इस दिन को इसके मूल उद्देश्य के विपरीत तुच्छ गतिविधियों और शब्दाडंबर के साथ मनाया जाता है, जो कुरान, सुन्नत और अहले-बैत (अ) की शिक्षाओं के बिल्कुल विपरीत है।

उन्होंने बताया कि इमाम हसन असकरी (अ) की शहादत के बाद, हज़रत हुज्जत बिन अल-हसन अल-महदी (अ) के व्यक्तित्व में इमामत जारी रही और इस लिहाज़ से यह दिन मोमिनों के लिए खुशी और संतुष्टि का स्रोत है, और अहले-बैत (अ) के चाहने वाले इसे "ईद-उल-ज़हरा (अ)" के रूप में मनाते हैं। हालाँकि, यह खुशी केवल बाहरी अभिव्यक्तियों का नाम नहीं है, बल्कि ज्ञान, आज्ञाकारिता और ज़िम्मेदारी का ऐलान है।

सय्यद करामत हुसैन शऊर जाफ़री ने कहा कि पवित्र क़ुरआन में मोमिनों का गुण भाषावाद से दूर रहना बताया गया है, जबकि इमाम जाफ़र सादिक (अ) ने कहा, "हमारे लिए शोभा का स्रोत बनो, शर्म और अपमान का स्रोत मत बनो।" इसी प्रकार, पवित्र पैगंबर (स) ने भी कहा कि उनके मिशन का उद्देश्य अख़लाक़ को पाय तकमील तक पहुचाना था।

उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि 9 रबीअ उल-अव्वल को, दुआ ए अहद, ज़ियारत आले-यासीन और ज़ियारत आशूरा के माध्यम से, इमाम अस्र (अ) के प्रति अपने लगाव को नवीनीकृत करना चाहिए। साथ ही, उन्होंने वैज्ञानिक और बौद्धिक सभाओं के आयोजन, युवाओं के धार्मिक प्रशिक्षण और गरीबों व अनाथों की सेवा को इस दिन की सच्ची भावना बताया।

उन्होंने कहा कि अगर हम इस दिन को केवल लहो लइब और खेल कूद में बर्बाद करते हैं, तो यह इमाम (अ) के सामने शर्म की बात होगी, लेकिन अगर हम इसे इबादत, सेवा और आज्ञाकारिता के साथ बिताएँ, तो यह दिन हमारी सामूहिक महानता का आधार बन सकता है। कुरान कहता है: "अल्लाह किसी कौम की हालत तब तक नहीं बदलता जब तक कि वे अपनी हालत न बदल लें।"

अंत में, उन्होंने अपील की कि 9 रबीअ उल अव्वल को न केवल ईद के रूप में मनाया जाना चाहिए, बल्कि अहद के नवीनीकरण के दिन के रूप में भी मनाया जाना चाहिए और जलसों को अल्लाह, कुरान, दुआ और मानवता की सेवा के स्मरण से सजाया जाना चाहिए ताकि दुनिया देख सके कि इमाम (अ) के अनुयायी एक प्रतिष्ठित और जागरूक राष्ट्र हैं।

हज़रत इमाम ए ज़माना अ.स. की गैबत की दो हैसियतें थीं एक सुग़रा और दूसरी कुबरा। ग़ैबते सुग़रा की मुद्दत 5 साल थी। उसके बाद ग़ैबते कुबरा शुरू हो गई। ग़ैबते सुग़रा के ज़माने में आपका एक नायबे ख़ास होते थे, जिसके ज़ेरे एहतमाम हर क़िस्म का निज़ाम चलता था। सवाल व जवाब ,ख़ुम्स व ज़क़ात और दिगर मराहिल उसी के वास्ते से तै होते थे। ख़ुसूसी मक़ामात पर उसी के ज़रिये और सिफ़ारिश से सुफ़रा मुक़र्र किए जाते थे।

हज़रत इमाम ए ज़माना अ.स. की गैबत की दो हैसियतें थीं एक सुग़रा और दूसरी कुबरा। ग़ैबते सुग़रा की मुद्दत 5 साल थी। उसके बाद ग़ैबते कुबरा शुरू हो गई। ग़ैबते सुग़रा के ज़माने में आपका एक नायबे ख़ास होते थे, जिसके ज़ेरे एहतमाम हर क़िस्म का निज़ाम चलता था। सवाल व जवाब ,ख़ुम्स व ज़क़ात और दिगर मराहिल उसी के वास्ते से तै होते थे। ख़ुसूसी मक़ामात पर उसी के ज़रिये और सिफ़ारिश से सुफ़रा मुक़र्र किए जाते थे।

हज़रत उस्मान बिन सईद अमरी सब से पहले जिन्हें नायबे ख़ास होने की सआदत नसीब हुई, उनका नामे नामी, व इस्मे गिरामी उस्मान बिन सईद अमरी था। आप हज़रत इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम और इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के मोतमिद और मुख़लिस असहाब में से थे। आपका ताल्लुक़ क़बीला -ए- बनी असद से था। आपकी कुन्नियत अबू उमर थी और आप सामरा के क़रिय -ए- असकर के रहने वाले थे। वफ़ात के बाद आपको बग़दाद में दरवाज़ा जबला के क़रीब मस्जिद में दफ़्न किया गया।

मुहम्मद बिन उस्मान बिन सईद हज़रत उस्मान बिन सईद अमरी की वफ़ात के बाद इमाम अलैहिस्सलाम ने आपके फ़रज़न्द मुहम्मद बिन उस्मान बिन सईद इस अज़ीम मंज़िल पर फ़ाइज़ किया। आपकी कुन्नियत अबू जाफ़र थी। आपने वफ़ात से 2 माह क़ब्ल अपनी क़ब्र ख़ुदवा दी थी।

आपका कहना था कि मै यह इस लिए कर रहा हूँ कि मुझे इमाम अलैहिस्सलाम ने बता दिया है और मैं अपनी तारीख़े वफ़ात से भी वाक़िफ़ हूँ। आपकी वफ़ात जमादिल अव्वल सन् 305 हिजरी में वाक़े हुई और आप माँ के क़रीब बमक़ाम दरवाज़ा -ए- कूफ़ा सरे राह दफ़्न हुए।

हुसैन बिन रूह (र.)मुहम्मद बिन उस्मानकी वफ़ात के बाद हज़रत इमाम अलैहिस्सलाम के हुक्म से हज़रत हुसैन बिन रूह (र.) इस मनसबे अज़ीम पर फ़ाइज़ हुए।जाफ़र बिन मुहम्मद बिन उस्मान सईद का कहना है कि मेरे वालिद मुहम्मद बिन उस्मान ने मेरे सामने जनाब हुसैन बिन रौह को अपने बाद इस मनसब की ज़िम्मेदारी के मुताअल्लिक़ इमाम अलैहिस्सलाम का पैग़ाम पहुँचाया था।

जनाब हुसैन बिन रौह की कुन्नियत अबू क़ासिम थी। आप महल्ले नौ बख़्त के रहने वाले थे। आप ख़ुफ़िया तौर पर तमाम इस्लामी मुमालिक का दौरा किया करते थे। आप दोनों फ़िर्क़ों के नज़दीक मोतमिद, सिक़ा और सालेह क़रार दिये गये हैं। आपकी वफ़ात शाबान 326, हिजरी में हुई और आप महल्ले नौ बख़्त कूफ़े में दफ़न हुए।

अली बिन मुहम्मद अल समरी हुसैन बिन रौह (र0) की वफ़ात के बाद इमाम अलैहिस्सलाम के हुक्म से जनाब अली बिन मुहम्मद अल समरी इस ओहदा -ए- जलील पर फ़ाइज़ हुए। आपकी कुन्नियत अबुल हसन थी। आप अपने फ़राइज़ अंजाम दे रहे थे, जब वक़्त क़रीब आया तो आपसे कहा गया कि आप अपने बाद का क्या इन्तेज़ाम करेंगें। आपने फ़रमाया कि अब आईन्दा यह सिलसिला न रहेगा।
(मजालेसुल मोमेनीन, सफ़ा 89 व जज़ीर ?ए- ख़िज़रा, सफ़ा 6, व अनवार उल हुसैनिया, सफ़ा 55)

मुल्ला जामी अपनी किताब शवाहेदुन नुबूव्वत के सफ़ा 214 में लिखते है कि मुहम्मद समरी के इन्तेक़ाल से 6 दिन पहले इमाम अलैहिस्सलाम का एक फ़रमान नाहिया मुक़द्दसा से बरामद हुआ। जिसमें उनकी वफ़ात का ज़िक्र और सिलसिल ?ए- सिफ़ारत के ख़त्म होने का तज़किरा था। इमाम मेंहदी अलैहिस्सलाम के ख़त के अल्फ़ाज़ यह हैं।
بسم الله الرحمن الرحيم يا علي يابن محمداعظم الله اجرا خوائنك فيك فعنك ميت ما بينك و بين سنت ايام فاعظم امرك ولا ترض الي احد يا قوم مقامك بعد وفاتك فقد وقعت الغيبة التامة فلا ظهور الي بعد باذن الله تعالي و ذلك بعدة العامد
तर्जमाः- ऐ अली बिन मुहम्मद ! ख़ुदा वन्दे आलम तुम्हारे भाईयों और दोस्तों को अजरे जमील अता करे। तुम्हें मालूम है कि तुम 6, दिन में वफ़ात पाने वाले हो, तुम अपने इन्तेज़ामात कर लो और आइन्दा के लिये आपना कोई क़ायम मक़ाम तजवीज़ व तलाश न करो। इस लिए कि ग़ैबत कुबरा वाक़े हो गई होगी और इज़्ने ख़ुदा के बग़ैर ज़हूर ना मुमकिन होगा। या ज़हूर बहुत तवील अर्से के बाद होगा।

ग़रज़ कि 6, दिन गुज़रने के बाद हज़रत अबुल हसन अली बिन मुहम्मद अल समरी बतारीख़ 15 शाबान 329 हिजरी इन्तेक़ाल फ़रमा गये और फ़िर कोई ख़ुसूसी सफ़ीर मुक़र्र नही हुआ और ग़ैबते कुबरा शुरू हो गई

इमामे जमाा (अ) की मारफ़त और मुंतज़ेरान के कर्तव्य " पुस्तक डॉ. इब्राहिम शफ़ीई सर्वस्तानी द्वारा लिखित एक मूल्यवान संकलन है, जो महदीवाद के सही सिद्धांतों को समझाने और गुप्तकाल के दौरान प्रतीक्षितों के कर्तव्यों का वर्णन करने का एक उत्कृष्ट प्रयास है।

इस पुस्तक में लेखक ने इमामे ज़माना (अ) की मारफ़त के आवश्यक सिद्धांतों की व्याख्या की है और साथ ही गुप्तकाल के दौरान प्रतीक्षित पर लगाए गए दायित्वों और कर्तव्यों पर भी प्रकाश डाला है।

नौवीं रबी-उल-अव्वल के अवसर पर, यह पुस्तक हज़रत हुज्जत बिन अल-हसन (अ) के संबंध में ज्ञान और अंतर्दृष्टि को बढ़ाने का एक साधन बनने हेतु पवित्र पैगंबर (स) के संबंध में एक मूल्यवान कृति के रूप में प्रस्तुत की गई है।

इस पुस्तक में, लेखक ने महदीवाद के विभिन्न पहलुओं को शोध-आधारित और प्रामाणिक दृष्टिकोण से परखने का प्रयास किया है। इसमें इमाम ज़माना (अ) की विशेषताएँ, ग़ैबत का इतिहास, प्रतीक्षारत लोगों के व्यक्तिगत और सामूहिक कर्तव्य, तथा इमाम ज़माना (अ) का ज़ुहूर, स्थापना और अंतिम क्रांति जैसे विषय शामिल हैं।

इस पुस्तक की संरचना निम्नलिखित सात भागों में विभाजित है:

  1. इमाम महदी (अ) का जीवन और व्यक्तित्व
  2. इमाम महदी (अ) की शनाख्त
  3. प्रतीक्षा के सिद्धांत और कार्य
  4. ज़ुहूर और आख़ेरुज़ ज़मान
  5. ज़ुहूर के वक्त का निर्धारण
  6. ज़ुहूर के बाद की दुनिया
  7. महदी संस्कृति के विस्तार और प्रतीक्षा की अभिव्यक्तियों के आवश्यक मुद्दे

यह पुस्तक महदीवाद और ज़माना (अ) के ग़ैबत के दौरान प्रतीक्षारत लोगों के कर्तव्यों के विषय में रुचि रखने वालों के लिए एक मूल्यवान स्रोत मानी जाती है।