17 रबीउल अव्वल मीलादे मुबारक पैग़म्बरे इस्लाम और इमाम जाफ़र सादिक़

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17 रबीउल अव्वल मार्गदर्शन और प्रकाश के दूत पैग़म्बरे इस्लाम (स) का शुभ जन्म दिवस है।

सन 570 ईसवी को रबीउल अव्वल के महीने में पवित्र मक्का शहर में हज़रत का जन्म हुआ था। पैग़म्बरे इस्लाम के जन्म के वर्ष और महीने के बारे में समस्त मुसलमानों के बीच सहमति है, हालांकि मुसलमानों के बीच उनके जन्म दिवस के बारे में थोड़ा सा मतभेद है। सुन्नी मुसलमानों के अनुसार, हज़रत रसूले ख़ुदा का जन्म सोमवार, 12 रबीउल अव्वल को हुआ था, जबकि शियों का मानना है कि हज़रत का जन्म शुक्रवार, 17 रबीउल अव्वल को हुआ था। इसलिए ईरान में शिया विद्वानों और सुन्नी विद्वानों के दृष्टिकोणों का सम्मान करते हुए और समस्त मुसलमानों के बीच एकता के उद्देश्य से 12 से 17 रबीउल अव्वल तक एकता सप्ताह की घोषणा की गई और दुनिया भर के मुसलमान इस सप्ताह का सम्मान करते हैं।

 

इसी प्रकार, 17 रबीउल अव्वल को शिया मुसलमानों के छठे इमाम हज़रत जाफ़र बिन मोहम्मद (अ) का शुभ जन्म दिवस भी है। छठे इमाम सादिक़ के नाम से प्रसिद्ध हैं। हज़रत के अन्य उपनाम साबिर, ताहिर और फ़ाज़िल भी हैं लेकिन तत्कालीन सुन्नी मुस्लिम विद्वानों ने हज़रत को सही और सच्ची हदीस बयान करने के कारण सादिक का लक़ब दिया, जो सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) से विशेष किया है। वे इस रहस्यवादी किताब में इमाम का गुणगान कुछ इस प्रकार से करते हैं, अगर उनके किसी एक गुण का बखान करूं तो वह मेरे शब्दों और लेख में नहीं समा सकती, वे महान एवं संपूर्ण मार्गदर्शक थे। वे इस्लाम धर्म के समस्त मतों के इमाम थे, इसी प्रकार वे रहस्यवाद में रूची रखने वालों के मार्गदर्शक थे। आम लोग हों या विद्वान सभी उनका सम्मान करते थे। वे सत्य और वास्तविकता को उजागर करने वाले और क़ुरान एवं रहस्यों के अद्वितीय व्याख्याकार थे।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपनी पूरी उम्र मानव समाज के लिए न्याय, शिक्षा और नैतिकता के लिए प्रयास किया। वे एकता और भाईचारे को उत्कृष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पहला क़दम बताते थे। इसीलिए मदीना पहुंचकर और आरम्भ में ही इस्लामी व्यवस्था की स्थापना करके, कई महत्वपूर्ण संधियां कीं। सबसे पहली संधि मदीना शहर के लोगों के साथ, इसमें मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम सभी शामिल थे।

इस संधि के पहले अनुच्छेद में, मदीना वासियों के लिए धर्म के चयन की आज़ादी का उल्लेख है और दुश्मन के मुक़ाबले में एकता पर बल दिया गया है। दूसरी संधि, मुहाजिर अर्थात अप्रवासियों और अंसार अर्थात स्थानीय लोगों के बीच भाईचारे की संधि थी। पलायनकर्ता पैग़म्बरे इस्लाम ने मस्जिदुन्नबी में मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहा, आपस में दो दो लोग भाई बन जाएं। इस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने मुसलमानों के बीच भाईचारे को बढ़ावा दिया और उनके बीच एकता को मज़बूत बनाया। ईश्वर पर ईमान की छत्रछाया, पैग़म्बरे इस्लाम की सिफ़ारिशों और आकाशवाणी के प्रति मुसलमानों के समर्पण के फलस्वरूप, यही एकता उनकी सफलता का कारण बनी।

 

 

पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी इमामों ने भी उनकी शैली अपनायी। जिस प्रकार, पैग़म्बरे इस्लाम मुसलमानों के बीच किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता की अनुमति नहीं देते थे, उसी तरह से उनके उत्तराधिकारी इमामों ने भी क़ुरान और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण को आधार बनाकर मुसलमानों के बीच फूट डालने और साम्प्रदायिकता की अनुमति नहीं दी। इसलिए कि एकता बुद्धि और शरीयत के अनुसार, एक ज़रूरत है। साम्प्रदायिक मतभेदों के कारण मुसलमानों की एकता को भंग करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के बाद, उनके उत्तराधिकारी हज़रत अली (अ) ने इस्लामी समाज में एकजुटता बने रहने के उद्देश्य से अपना अधिकार त्याग दिया और मुसलमानों के बीच फूट नहीं पड़ने दी। यही कारण है कि इमामों के जीवन में सुन्नी मुसलमानों से दूरी नहीं मिलेगी। उनका सुन्नी मुसलमानों के साथ अच्छा संपर्क और संबंध था। उनका ख़याल रखते थे और उनके साथ बैठकर खाना खाते थे। व्यवसाय में उन्हें अपना सहभागी बनाते थे और धार्मिक समारोहों में एक साथ भाग लेते थे। इसी प्रकार अपने अनुयाईयों से सिफ़ारिश करते थे कि हर उस क़दम से बचें।

दूसरे इमामों की भांति इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) भी शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करते थे और उन्हें इस्लामी अधिकारों में भागीदार मानते थे। वे फ़रमाते थेः मुसलमान, मुसलमान का भाई है और एक मुसलमान भाई पर दूसरे मुसलमान का अधिकार यह है कि वह अपना पेट नहीं भरता है, ऐसी स्थिति में कि जब उसका भाई भूखा होता है, वह ख़ुद पानी नहीं पीता है, जब उसका भाई प्यासा होता है, वह ख़ुद को नहीं ढांपता है, जब उसके भाई के पास ख़ुद को ढांपने के लिए कुछ नहीं होता है और मुसलमान भाई पर दूसरे मुसलमान भाई का अधिकार कितना अधिक है।

 

जब मआविया बिन वहब ने हज़रत से ग़ैर शियों के साथ बर्ताव के बारे में सवाल किया तो आप ने फ़रमाया, उन धर्मगुरूओं की ओर देखो जिनका वह अनुसरण करते हैं, जैसा वे बर्ताव करते हैं वैसा ही बर्ताव तुम करो, ईश्वर की सौगंध वे अपने रोगियों की देखभाल करते हैं और उनकी शव यात्रा में भाग लेते हैं और उनके लाभ और नुक़सान के लिए गवाही देते हैं और उनकी अमानत वापस करते हैं।

यही कारण है कि हम छठे इमाम के जीवन में देखते हैं कि वे समस्त मुसलमानों और समस्त इंसानों की आर्थिक सहायता करते थे। उनके एक शिष्य मोअल्ला बिन ख़नीस का कहना है, बारिश की एक रात इमाम सादिक़ (अ) बनी साएदा मोहल्ले में जाने के लिए अपने घर से बाहर निकले, मैं भी उनके पीछे पीछे चल दिया। रास्ते में कोई चीज़ उनके हाथ से गिर गई। मैं निकट गया और सलाम किया। मैंने देखा कि उनके कांधे पर जो रोटियां लदी हैं उनमें से कुछ गिर गई हैं। मैंने उन्हें उठाया और उन्हें दिया और कहा, मैं आपके क़ुर्बान जाऊं, अगर आपकी अनुमति हो तो इस भार को मैं उठा लूं? फ़रमायाः नहीं, इसे मैं ख़ुद ही उठाऊंगा। मोअल्ला आगे कहते हैं, बनी साएदा के यहां तक मैं इमाम के साथ गया, वहां मैंने कुछ निर्धन लोगों को सोते हुए देखा। इमाम जाफ़र सादिक़ आगे बढ़े, इस तरह से कि किसी की आंख न खुल जाए, उन्होंने हर एक के पास एक रोटी रखी, यह ऐसी स्थिति में था कि जब वे इमाम के अनुयाई नहीं थे।

सुन्नी मुसलमानों के चार इमामों में से एक इमाम शाफ़ेई, इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) को बहुत बड़ा ज्ञानी और विशिष्ट व्यक्ति मानते हैं और कहते हैं कि बड़ी संख्या में धर्मगुरूओं ने इमाम से ज्ञान प्राप्त किया, जो एक विशिष्टता है। मोअतज़ली साहित्यकार जाहिज़ कहता है, जाफ़र इब्ने मोहम्मद का ज्ञान और धर्मशास्त्र दुनिया पर छा गया है।      

               

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैः लोगों के बीच जब मतभेद हो जाए उस समय उनके बीच शांति की स्थापना और जब उनके बीच दूरी हो जाए उनके बीच दोस्ती करवाना, एक ऐसा पुण्य व दान है जिसे ईश्वर पसंद करता है। इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम (स) की एक हदीस है जो कोई सुबह उठे लेकिन मुसमलानों के मामलों पर विचार न करे तो वह उनमें से नहीं है, और जो कोई मदद के लिए पुकार रहे किसी व्यक्ति की आवाज़ सुने लेकिन उसकी मदद न करे तो वह मुसलमान नहीं है।

यह और इस प्रकार की अन्य हदीसें मुलमानों के बीच एकता और बिना किसी भेदभाव के लोगों की सहायता पर बल देती हैं। क्योंकि इसी प्रकार लोगों के बीच एकता और एकजुटता की  स्थापना हो सकती है और दुश्मन निराश हो सकता है। इसलिए कि जहां लोगों के बीच सद्भावना होगी वहां दुश्मन की चालें सफल नहीं हो सकतीं।  

 

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