رضوی

رضوی

तौहीद का अक़ीदा सिर्फ़ मुसलमानों के ज़हन व फ़िक्र पर असर अंदाज़ नही होता बल्कि यह अक़ीदा उसके तमाम हालात शरायत और पहलुओं पर असर डालता है। ख़ुदा कौन है? कैसा है? और उसकी मारेफ़त व शिनाख्त एक मुसलमान की फ़रदी और इज्तेमाई और ज़िन्दगी में उसके मौक़िफ़ इख़्तेयार करने पर क्या असर डालती है? इन तमाम अक़ायद का असर और नक़्श मुसलमान की ज़िन्दगी में मुशाहेदा किया जा सकता है।
हर इंसान पर लाज़िम है कि उस ख़ुदा पर अक़ीदा रखे जो सच्चा है और सच बोलता है अपने दावों की मुख़ालेफ़त नही करता है जिसकी इताअत फ़र्ज़ है और जिसकी नाराज़गी जहन्नमी होने का मुजिब बनती है। हर हाल में इंसान के लिये हाज़िर व नाज़िर है, इंसान का छोटे से छोटा काम भी उसे इल्म व बसीरत से पोशीदा नही है... यह सब अक़ायद जब यक़ीन के साथ जलवा गर होते हैं तो एक इंसान की ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा मुवस्सिर उन्सुर बन जाते हैं। तौहीद की मतलब सिर्फ़ एक नज़रिया और तसव्वुर नही है बल्कि अमली मैदान में इताअत में तौहीद और इबादत में तौहीद भी उसी के जलवे और आसार शुमार होते हैं। इमाम हुसैन (अ) पहले ही से अपने शहादत का इल्म रखते थे और उसके ज़ुज़ियात तक को जानते थे। पैग़म्बर (स) ने भी शहादते हुसैन (अ) की पेशिनगोई की थी लेकिन इस इल्म और पेशिनगोई ने इमाम के इंके़लाबी क़दम में कोई मामूली सा असर भी नही डाला और मैदाने जेहाद व शहादत में क़दम रखने से आपको क़दमों में ज़रा भी सुस्ती और शक व तरदीद ईजाद नही किया बल्कि उसकी वजह से इमाम के शौक़े शहादत में इज़ाफ़ा हुआ, इमाम (अ) उसी ईमान और एतेक़ाद के साथ करबला आये और जिहाद किया और आशिक़ाना अंदाज़ में ख़ुदा के दीदार के लिये आगे बढ़े जैसा कि इमाम से मशहूर अशआर में आया है:

ترکت الخلق طرا فی ھواک و ایتمت العیال لکی اراک
कई मौक़े पर आपके असहाब और रिश्तेदारों ने ख़ैर ख़्वाही और दिलसोज़ी के जज़्बे के तहत आपको करबला और कूफ़े जाने से रोका और कूफ़ियों की बेवफ़ाई और आपके वालिद और बरादर की मजलूमीयत और तंहाई को याद दिलाया। अगरचे यह सब चीज़ें अपनी जगह एक मामूली इंसान के दिल शक व तरदीद ईजाद करने के लिये काफ़ी हैं लेकिन इमाम हुसैन (अ) रौशन अक़ीदा, मोहकम ईमान और अपने अक़दाम व इंतेख़ाब के ख़ुदाई होने के यक़ीन की वजह से नाउम्मीदी और शक पैदा करने वाले अवामिल के मुक़ाबले में खड़े हुए और कज़ाए इलाही और मशीयते परवरदिगार को हर चीज़ पर मुक़द्दम समझते थे, जब इब्ने अब्बास ने आप से दरख़्वास्त की कि इरा़क जाने के बजाए किसी दूसरी जगह जायें और बनी उमय्या से टक्कर न लें तो इमाम हुसैन (अ) ने बनी उमय्या के मक़ासिद और इरादों की जानिब इशारा करते हुए फ़रमाया

انی ماض فی امر رسول اللہ صلی اللہ علیہ و آلہ وسلم و حیث امرنا و انا الیہ راجعون
और यूँ आपने रसूलल्लाह (स) के फ़रमूदात की पैरवी और ख़ुदा के जवारे रहमत की तरफ़ बाज़गश्त की जानिब अपने मुसम्मम इरादे का इज़हार किया, इस लिये कि आपने रास्ते की हक्क़ानियत का यक़ीन, दुश्मन के बातिल होने का यक़ीन, क़यामत व हिसाब के बरहक़ होने का यक़ीन, मौत के हतमी और ख़ुदा से मुलाक़ात का यक़ीन, इन तमाम चीज़ों के सिलसिले में इमाम और आपके असहाब के दिलों में आला दर्जे का यक़ीन था और यही यक़ीन उनको पायदारी, अमल की क़ैफ़ियत और राहे के इंतेख़ाब में साबित क़दमी की रहनुमाई करता था।
कलेम ए इसतिरजा (इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहे राजेऊन) किसी इंसान के मरने या शहीद होने के मौक़े पर कहने के अलावा इमाम हुसैन (अ) मंतिक़ में कायनात की एक बुलंद हिकमत को याद दिलाने वाला है और वह हिकमत यह है कि कायनात का आग़ाज़ व अँजाम सब ख़ुदा की तरफ़ से है। आपने करबला पहुचने तक बारहा इस कलेमे को दोहराया ताकि यह अक़ीदा इरादों और अमल में सम्त व जहत देने का सबब बने।
आपने मक़ामे सालबिया पर मुस्लिम और हानी की खबरे शहादत सुनने के बाद मुकर्रर इन कलेमात को दोहराया और फिर उसी मक़ाम पर ख़्वाब देखा कि एक सवार यह कह रहा है कि यह कारवान तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और मौत भी तेज़ी के साथ उनकी तरफ़ बढ़ रही है, जब आप बेदार हुए तो ख़्वाब का माजरा अली अकबर को सुनाया तो उन्होने आप से पूछा वालिदे गिरामी क्या हम लोग हक़ पर नही हैं? आपने जवाब दिया क़सम उस ख़ुदा की जिसकी तरफ़ सबकी बाज़गश्त है हाँ हम हक़ पर हैं फिर अली अकबर ने कहा: तब इस हालत में मौत से क्या डरना है? आपने भी अपने बेटे के हक़ में दुआ की। (1)
तूले सफ़र में ख़ुदा की तरफ़ बाज़गश्त के अक़ीदे को बार बार बयान करने का मक़सद यह था कि अपने हमराह असहाब और अहले ख़ाना को एक बड़ी क़ुरबानी व फ़िदाकारी के लिये तैयार करें, इस लिये कि पाक व रौशन अक़ायद के बग़ैर एक मुजाहिद हक़ के देफ़ाअ में आख़िर तक साबित क़दम और पायदार नही रह सकता है।
करबला वालों को अपनी राह और अपने हदफ़ की भी शिनाख़्त थी और इस बात का भी यक़ीन था कि इस मरहले में जिहाद व शहादत उनका वज़ीफ़ा है और यही इस्लाम के नफ़अ में है उनको ख़ुदा और आख़िरत का भी यक़ीन था और यही यक़ीन उनको एक ऐसे मैदान की तरफ़ ले जा रहा था जहाँ उनको जान देनी थी और क़ुरबान होना था जब बिन अब्दुल्लाह दूसरी मरतबा मैदाने करबला की तरफ़ निकले तो अपने रज्ज़ में अपना तआरुफ़ कराया कि मैं ख़ुदा पर ईमान लाने वाला और उस पर यक़ीन रखने वाला हूँ। (2)

मदद और नुसरत में तौहीद और फक़त ख़ुदा पर ऐतेमाद करना, अक़ीदे के अमल पर तासीर का एक नमूना है और इमाम (अ) की तंहा तकियागाह ज़ाते किर्दगार थी न लोगों के ख़ुतूत, न उनकी हिमायत का ऐलान और न उनकी तरफ़ आपके हक़ में दिये जाने वाले नारे, जब सिपाहे हुर ने आपके काफ़ले का रास्ता रोका तो आपने एक ख़ुतबे के ज़िम्न में अपने क़याम, यज़ीद की बैअत से इंकार, कूफ़ियों के ख़ुतूत का ज़िक्र किया और आख़िर में गिला करते हुए फ़रमाया मेरी तकिया गाह ख़ुदा है वह मुझे तुम लोगों से बेनियाज़ करता है। सयुग़निल्लाहो अनकुम (3) आगे चलते हुए जब अब्दुल्लाह मशरिकी से मुलाक़ात की और उसने कूफ़े के हालात बयान करते हुए फ़रमाया कि लोग आपके ख़िलाफ़ जंग करने के लिये जमा हुए हैं तो आपने जवाब में फ़रमाया: हसबियलल्लाहो व नेअमल वकील (4)
आशूर की सुबह जब सिपाहे यज़ीद ने इमाम (अ) के ख़ैमों की तरफ़ हमला शुरु किया तो उस वक़्त भी आप के हाथ आसमान की तरफ़ बुलंद थे और ख़ुदा से मुनाजात करते हुए फ़रमा रहे थे: ख़ुदाया, हर सख़्ती और मुश्किल में मेरी उम्मीद, मेरी तकिया गाह तू ही है, ख़ुदाया, जो भी हादेसा मेरे साथ पेश आता है उसमें मेरा सहारा तू ही होता है। ख़ुदाया, कितनी सख़्तियों और मुश्किलात में तेरी दरगाह की तरफ़ रुजू किया और तेरी तरफ़ हाथ बुलंद किये तो तूने उन मुश्किलात को दूर किया। (5)

इमाम (अ) की यह हालत और यह जज़्बा आपके क़यामत और नुसरते इलाही पर दिली ऐतेक़ाद का ज़ाहिरी जलवा है और साथ ही दुआ व तलब में तौहीद के मफ़हूम को समझाता है।
दीनी तालीमात का असली हदफ़ भी लोगों को ख़ुदा से नज़दीक करता है चुँनाचे यह मतलब शोहदा ए करबला के ज़ियारत नामों में ख़ास कर ज़ियारते इमाम हुसैन (अ) में भी बयान हुआ है। अगर ज़ियारत के आदाब को देखा जाये तो उनका फ़लसफ़ा भी ख़ुदा का तक़र्रुब ही है जो कि ऐने तौहीद है इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत में ख़ुदा से मुताख़ब हो के हम यूँ कहते हैं कि ख़ुदाया, कोई इंसान किसी मख़लूक़ की नेमतों और हदाया से बहरामद होने के लिये आमादा होता है और वसायल तलाश करता है लेकिन ख़ुदाया, मेरी आमादगी और मेरा सफ़र तेरे लिये और तेरे वली की ज़ियारत के लिये हैं और इस ज़ियारत के ज़रिये तेरी क़ुरबत चाहता हूँ और ईनाम व हदिये की उम्मीद सिर्फ़ तुझ से रखता हूँ। (6)
और इसी ज़ियारत के आख़िर में ज़ियारत पढ़ने वाला कहता है ख़ुदाया, सिर्फ़ तू ही मेरा मक़सूदे सफ़र है और सिर्फ़ जो कुछ तेरे पास है उसको चाहता हूँ। ''फ़ इलैका फ़क़दतो व मा इनदका अरदतो''
यह सब चीज़े शिया अक़ायद के तौहीदी पहलू का पता देने वाली हैं जिनकी बेना पर मासूमीन (अ) के रौज़ों और अवलिया ए ख़ुदा की ज़ियारत को ख़ुदा और ख़ालिस तौहीद तक पहुचने के लिये एक वसीला और रास्ता क़रार दिया गया है और हुक्मे ख़ुदा की बेना पर उन की याद मनाने की ताकीद है।

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हवाले
(1) बिहारुल अनवार जिल्द 44 पेज 367

(2) बिहारुल अनवार जिल्द 45 पेज 17, मनाक़िब जिल्द 4 पेज 101

(3) मौसूअ ए कलेमाते इमाम हुसैन (अ) पेज 377

(4) मौसूअ ए कलेमाते इमाम हुसैन (अ) पेज 378

(5) बिहारुल अनवार जिल्द 45 पेज 4

(6) तहज़ीबुल अहकाम शेख़ तूसी जिल्द 6 पेज 62

रविवार, 14 जुलाई 2024 06:58

इंतेख़ाबे शहादत

वाक़ेया ए करबला रज़्म व बज़्म, सोज़ व गुदाज़ के तास्सुरात का मजमूआ नही, बल्कि इंसानी कमालात के जितने पहलु हो सकते हैं और नफ़सानी इम्तियाज़ात के जो भी असरार मुमकिन हैं उन सब का ख़ज़ीनादार है, सानेहा ए करबला तारीख़ का एक दिल ख़राश वाक़ेया ही नही, ज़ुल्म व बरबरियत और ज़िन्दगी की एक ख़ूँ चकाँ दास्तान ही नही, फ़रमाने शाही में दर्ज नंगी ख़्वाहिशों की रुदादे फ़ितना ही नही बल्कि हुर्रियते फ़िक्र, निफ़ाज़े अदल और इंसान के बुनियादी हुक़ूक़ की बहाली की एक अज़ीमुश शान तहरीक भी है।

वाक़ेया ए करबला बाक़ी तारीख़ी वक़ायए में एक मुम्ताज़ मक़ाम और जुदागाना हैसियत रखता है चुनाँचे वह अपने मुनफ़रिद वसायल व ज़रायेअ और बुलंद व वाज़ेह अहदाफ़ व मकासिद ले कर तारीख़ की पेशानी पर चमकते हुए सितारे की मानिन्द नुमायाँ हुआ और ज़ुल्म व बरबरियत, ला क़ानूनियत, जाहिलियत के अफ़कार व नज़रियात, मुलूकियत के तारीक और इस्लाम दुश्मन अनासिर के बनाए ज़ुल्मत कदों में रौशन चिराग़ बन कर ज़हूर पज़ीर हुआ।

जब इस्लाम का चिराग़ ख़ामोंश किया जा रहा था और बनामे इस्लाम ख़िलाफ़े दीन व शरीयत अमल अंजाम दिये जा रहे थे, ज़लालत की तारीकी ने जहान को अपनी आग़ोश में समेट लिया था इंसान के बुनियादी हुक़ूक़ की ख़िलाफ़ वर्ज़ी आमेराना सोच को जन्म दे चुकी थी आमिरे मुतलक़ की ज़बान से निकला हुआ हर लफ़्ज़ क़ानून का दर्जा इख़्तियार कर चुका था और गुलशने हस्ती से सर उठा कर चलने का दिल नवाज़ मौसम रुख़सत हो चुका था, सिर्फ़ इस्लाम का नाम बाक़ी था, वह भी ऐसा इस्लाम कि जिस का रहबर यज़ीदे पलीद था, लोग कुफ़्र को ईमान, ज़ुल्म को अद्ल, झूट को सदाक़त, मयनोशी व ज़ेनाकारी को तक़वा व फ़ज़ीलत, फ़रेबकारी को इफ़्तेख़ार समझते थे और हक़ को उस के हमराह जानते थे कि जो क़ुदरत के साथ शमशीर ब कफ़ हो, अपने और बेगाने यही तसव्वुर करते थे कि यज़ीद ख़लीफ़ ए पैग़म्बर, हाकिमे इस्लाम और मुजरी ए अहकामे क़ुरआन है चूँ कि उस के क़ब्ज़ा ए क़ुदरत में हुकूमत और ताक़त है और हमेशा ऐसे ही रहेगी क्योकि यह हुकूमते इस्लामी है जिस का शेयार यह है कि व ला ख़बरुन जाआ व ला वहीयुन नज़ल।

गोया नक़्शे इस्लाम हमेशा के लिये सफ़ह ए हस्ती से मिटने वाला था और इंसानियत के लिये कोई उम्मीद बाक़ी न रह गई थी हर तरफ़ तारीकी अपने गेसू फ़ैलाए हुए थी।

ऐसे वक़्त में ख़ुरशीदे शहादत ने तूलू हो कर शहादत की शाहराह पर अज़्म व जुरअत के ऐसे बहत्तर चिराग़ रौशन किये कि जो महकूम अक़वाम, मज़लूम तबक़ात और इस्तेमार के ख़िलाफ़ अपनी आज़ादी की जंग लड़ने वाले हुर्रियत पसंदों के लिये मीनार ए नूर बन गये। इमाम हुसैन (अ) ने अपनी शहादत के ज़रिये ऐलान कर दिया तारीकी नही है, इस्लाम सिर्फ़ ताक़त का नाम नही है, हक़ व हक़ीक़त आशकार हो गई और हुज्जत ख़ल्क़ पर तमाम हो गई।

जब इमाम हुसैन (अ) ने यह देखा कि इस्लाम के पाकीज़ा व आला तरीन निज़ाम की हिफ़ाज़त की ज़मानत फ़राहम करने का सिर्फ़ एक ही रास्ता है तो आप ने दिल व जान से शहादत को क़बूल फ़रमाया क्योकि उसूल व अक़ायद तमाम चीज़ों से बरतर हैं हर शय उन पर क़ुर्बान की जा सकती है मगर उन्हे किसी शय पर क़ुर्बान नही किया जा सकता।

इमाम हुसैन (अ) ने शहादत को इस लिये इख़्तियार किया क्योकि शहादत में वह राज़ मुज़मर थे कि जो ज़ाहिरी फ़तहयाबी में नही थे, फ़तह के अंदर दरख़्शंदी ए शहादत नही थी, फ़तह गौहर को संग से जुदा नही कर सकती थी, शहादत दिल में जगह बनाती है जब कि फ़तह दिल पर असर करती भी है और कभी नही भी करती, शहादत दिलों को तसख़ीर करती है फ़तहयाबी पैकर को, शहादत ईमान को दिल में डालती है, शहादत से हिम्मत व जुरअत लाती है।

शहादत मुक़द्दस तरीन शय है उस को आशकारा होना चाहिये, अगर शहादत अलनी व आशकारा न हो तो हलाकत से नज़दीक होती है।

इमाम हुसैन (अ) शहादत के रास्ते को इख़्तियार व इंतेख़ाब करने में आज़ाद थे, दलील आप का मकतूब है:

हुसैन बिन अली (अ) की जानिब से मुहम्मद हनफ़िया और तमाम बनी हाशिम के नाम:

तुम में से जो हम से आ मिलेगा वह शहीद हो जायेगा और जो हमारे साथ नही आ मिलेगा वह फ़तह व कामयाबी व कामरानी से हम किनार नही होगा।

(कामिलुज़ ज़ियारात पेज 75, बिहारुल अनवार जिल्द 44 पेज 230)

अगर इमाम हुसैन अलैहिस सलाम ज़ाहिरी फ़तह को इंतेख़ाब करते तो दुनिया में शायद पहचाने नही जाते और हुसैन बिन अली (अ) का वह किरदार कि जो किलीदे शआदत था बशरीयत पर आशकार न हो पाता। इमाम हुसैन (अ) चाहते थे कि नबी ए अकरम (स) का दीन मिटने न पाये और इंसानियत तकामुल की राहों को तय कर जाये। लिहाज़ा फ़तहे ज़ाहिरी को छोड़ कर शहादते उज़मा को इख़्तियार किया कि जिस ने फिक्रे बशर की रहनुमाई और अख़लाक़ व किरदार को बुलंद व बाला कर के जुँबिशे फिक्री व जुँबिशे आतिफ़ी को दुनिया में ईजाद कर दिया, अज़ादारी इमाम हुसैन (अ) जुँबिशे आतिफ़ी का एक जावेदान नमूना है।

शहादते हुसैनी (अ) के असरात में मशहूर है कि आशूर के दिन सूरज को ऐसा गहन लगा कि उस दिन दोपहर को सितारे निकल आये।

(नफ़सुल महमूम पेज 484)

ख़ूने हुसैन (अ) आबे हयात था कि जिस ने इस्लाम को जावेद कर के मारेफ़त के गराँ बहाँ दुर को बशरीयत के सामने पेश करते हुए सही राह दिखा कर इंसानियत को हमेशा के लिये अपना मरहूने मिन्नत कर दिया।

पेशवाए शहीदान पेज 97

माहे मोहर्रम में दुनियाभर के कोने कोने में अजादारी का माहौल है। तेहरान के इमाम खुमैनी इमाम बारगाह में आयोजित मजलिस में अयातुल्लाह खामेनेई समेत ईरान के राष्ट्रपति एवं अन्य पदाधिकारी भी मौजूद रहे।

मुहर्रम के महीने की शुरुआत से नाइजीरिया सहित कुछ अफ्रीकी देशों के विभिन्न शहरों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के शोक में मजलिस आयोजित की गई इस मौके पर जवान नौजवान बच्चे औरतें ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।

मुहर्रम के महीने की शुरुआत से नाइजीरिया सहित कुछ अफ्रीकी देशों के विभिन्न शहरों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के शोक में मजलिस आयोजित की गई इस मौके पर जवान नौजवान बच्चे औरतें ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।

अलकफ़ील के अनुसार, मुहर्रम के महीने की शुरुआत में, नाइजीरिया सहित कुछ अफ्रीकी देशों में अबा अब्दुल्ला अलहुसैन अ.स.के लिए शोक सभाएँ आयोजित की हैं।

मोहर्रम के महीने में अफ्रीका देश के विभिन्न शहरों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के शोक में मजलिस आयोजित की गई

इस केंद्र की प्रचार इकाई के प्रमुख सैय्यद मुस्लिम अल-जाबरी ने कहा, यह हुसैनी सभाएं हुसैनी संस्कृति को फैलाने और इमाम हुसैन अ.स. और उनके परिवार और साथियों पर ज़ुल्म व्यक्त करने के उद्देश्य से मुहर्रम और सफ़र के महीनों के दौरान काले महाद्वीप के कई देशों में आयोजित की जाती हैं।

उन्होंने आगे कहा,इन कार्यक्रमों में तंजानिया, मॉरिटानिया, सेनेगल, घाना, मेडागास्कर, केन्या, रवांडा, कैमरून, नाइजर, नाइजीरिया, बेनिन गणराज्य, सिएरा लियोन आदि देशों में मुहर्रम के महीने के लिए शोक सभाएं और विशेष भाषण आयोजित करना शामिल है।

मोहर्रम के महीने में अफ्रीका देश के विभिन्न शहरों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के शोक में मजलिस आयोजित की गई

नाइजीरिया में यह समारोह अहलेबेत की एक बड़ी भीड़ की उपस्थिति के साथ कडुना शहर में आयोजित किया गया।

इस शहर में आस्तान अब्बासी के बौद्धिक और सांस्कृतिक मामलों के विभाग के मिशनरी शेख इब्राहीम मूसा यूसुफ़ ने मासूम इमामों के शब्दों में इमाम हुसैन अ.स. के कष्टों पर रोने के गुणों के विषय पर एक भाषण दिया।

मोहर्रम के महीने में अफ्रीका देश के विभिन्न शहरों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के शोक में मजलिस आयोजित की गई

भारत ने जटिल हो चुके फिलिस्तीन मसले के शांतिपूर्ण समाधान के लिए अपनी ऐतिहासिक और अटूट प्रतिबद्धता जताई है। उसने बातचीत के आधार पर दो देश समाधान का समर्थन किया जिससे इस्राईल के साथ शांति से फिलिस्तीन के संप्रभु, स्वतंत्र और व्यवहार्य देश की स्थापना हो सके।

संयुक्त राष्ट्र में भारत के उप स्थायी प्रतिनिधि राजदूत आर रवींद्र ने फिलिस्तीनी शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र एजेंसी के एक सम्मेलन में यह बयान दिया। उन्होंने कहा कि भारत ने हमेशा बातचीत के आधार पर द्वि-राष्ट्र समाधान का समर्थन किया है, जिससे फिलिस्तीन के एक संप्रभु, स्वतंत्र और व्यवहार्य राष्ट्र की स्थापना हो सके। उन्होंने फिलिस्तीन के शांतिपूर्ण समाधान के लिए भारत की ऐतिहासिक और अटूट प्रतिबद्धता जताई। उन्होंने कहा कि भारत ने ग़ज़्ज़ा में चल रहे जनसंहार एक सैद्धांतिक रुख अपनाया है और महिलाओं तथा बच्चों समेत नागरिकों की मौत की कड़ी निंदा की है।

 

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की रैली में गोलियां चलने की खबर है जिसमे ट्रम्प घायल हो गए हैं। उनके दाहिने कान को छूकर गोली निकल गई। उनके दाहिने कान से खून निकलने लगा और उनके चेहरे पर भी खून के निशान देखे गए। वह पेन्सिलवेनिया में रैली कर रहे थे, जब एक के बाद एक कई गोलियां चलीं। वीडियो में ट्रम्प के कान पर खून दिखाई दे रहा है।

सामने आई रैली की वीडियो में देखा जा सकता है कि डोनाल्ड ट्रम्प गोलियां चलने के बाद वहीं पोडियम पर झुक जाते हैं। इसके बाद सीक्रेट सर्विस एजेंट (उनके सिक्योरिटी गार्ड) उन्हें घेर लेते हैं। इस दौरान ट्रम्प को देखा जा सकता है कि वह भीड़ की तरफ अपना हाथ उठाकर उन्हें संबोधित कर रहे हैं। सीक्रेट सर्विस ने एक बयान में कहा कि ट्रम्प सुरक्षित हैं और उनकी सुरक्षा के लिए उपाय लागू किए गए हैं। ट्रम्प के मंच से उतरने के तुरंत बाद पुलिस ने रैली ग्राउंड को खाली करा दिया। सीक्रेट सर्विस इस गोलीबारी की हत्या की कोशिश के रूप में जांच कर रही है।

शनिवार, 13 जुलाई 2024 07:32

इमाम हुसैन के बा वफ़ा असहाब

इमाम हुसैन अलैहिस सलाम ने फ़रमाया:मैंने अपने असहाब से आलम और बेहतर किसी के असहाब को नही पाया।

हमारी दीनी तालीमात का पहला स्रोत क़ुरआने मजीद है। क़ुरआन के बाद हम जिन रिवायात का तज़किरा करते हैं वह दो तरह की हैं: 1. जिन को दरमियाने सुखन इस्तेमाल किया जाता है। 2. जिन को उनवाने कलाम क़रार दिया जाता है। दूसरी क़िस्म के बर अक्स पहली क़िस्म के सिलसिले में सनद के हवाले से ज़्यादा बहस नही होती है।

आम्मा व ख़ास्सा के अकसर मुहद्देसीन ने इस रिवायत का ज़िक्र किया है और बाज़ ने रावी के नाम के साथ ज़िक्र करने के बजाए सिर्फ़ क़ाला के साथ इस रिवायत को बयान किया है जो मुहद्दिस के इस यक़ीन पर दलालत करता है कि यह इमाम (अ) का कलाम है।

हम भी ‘ला आलम’ का इस्तेमाल करते हैं  और इमाम (अ) ने भी इस को इस्तेमाल किया है लेकिन मुतकल्लिम के ऐतेबार से इस के मअना बदल जाते हैं। हम यह जुमला कहें तो हमारी जिहालत पर दलालत करता है लेकिन जब यही लफ़्ज़ एक मुहक़्क़िक़, उस्ताद या मरजअ इस्तेमाल करता है तो यह उस चीज़ के अदमे वुजूद पर दलालत करता है। यह इकतेसाबी इल्म के उलामा हैं अब अगर इसी कलेमे को आलिमे इल्मे लदुन्नी इस्तेमाल कर रहा है तो इस का मतलब यह होगा कि इस कायनात में मेरे असहाब से बेहतर असहाब पाये ही नही जाते।

हो सकता है कि ज़ेहन में यह सवाल आये कि जब ला आलम का मअना ला यूजद है तो इमाम (अ) ने ला यूजद क्यों नही कहा तो इस का जवाब यह है कि यूजद फ़ेअले मुज़ारअ है जो हाल या ज़्यादा से ज़्यादा मुस्तिक़बिल के सिलसिले में दलालत करता है कि मेरे असहाब के जैसे असहाब नही पाये जाते है या नही पाये जायेगें लेकिन यह माज़ी को शामिल नही होता है। अगर माज़ी का सिग़ा इस्तेमाल किया जाये तो यह हाल व मुसतक़बिल को शामिल नही होगा। उन सब के बर ख़िलाफ़ ला आलम का ताअल्लुक़ मुतकल्लिम के इल्म से ताअल्लुक़ रखता है। अगर यह कलेमा एक फ़क़ीह इस्तेमाल करे तो इस का मतलब यह होगा कि फ़िक़ह की किताबों में यह मसला नही है इस का मतलब यह नही है कि ऐसा मसला कभी पेश ही नही आया या पेश नही आयेगा क्योकि हर आदमी अपने दायर ए इल्म के ऐतेबार से गुफ़तुगू करता है वह उस के आगे नही बता सकता। लिहाज़ा मुतकल्लिम के इल्म का दायरा जितना वसी होगा उस पर ला इल्म का दायरा भी उतना ही वसीअ होगा। अब अगर ऐसा मुतकल्लिम इस्तेमाल करे जो माज़ी के बारे में भी जानता हो और हाल व मुसतक़बिल के बारे में भी तो इस का मतलब है कि मेरे जैसे असहाब न माज़ी में थे न हाल में हैं और न ही कभी हो सकेगें।

यह ख़ुसूसियत सिर्फ़ असहाब की नही है कि वह अफ़ज़ल हैं बल्कि करबला मंसूब हुई तो अफ़ज़ल ज़मीन, अफ़ज़ल ख़ाक बन गई। ग़मख़्वार बहुत से हैं लेकिन हुसैनी ग़मख़ार अफ़ज़ल हैं इस लिये अगर हमें भी अफ़ज़ल बनना है तो हुसैनी बनना होगा।

इस जुमले का मतलब यह है कि जैसे असहाब इमाम हुसैन (अ) के हैं वैसे न रसूले ख़ुदा (स) के असहाब थे न अली (अ), न हसन (अ) के, क्योकि दुनिया में दूसरे अफ़राद के असहाब लायक़े तज़किरा भी नही हैं। ज़ाहिर है कि इमाम दूसरे अफ़राद के असहाब से अपने असहाब का तक़ाबुल नही करेगें। अब अगर यह पैग़म्बर (स) के असहाब से बरतर हैं तो दुनिया के तमाम असहाब से बरतर हैं।

बाज़ रिवायात में औला के बजाए औफ़ा का लफ़्ज़ है। लफ़्ज़े वफ़ा सुनने से पहले अहद व पैमान ज़ेहन में आता है कि जिसे पूरा किया जाये लेकिन तारीख़ ने इमाम हुसैन (अ) के साथ उन के असहाब का कोई ऐसा अहद व पैमान नक़्ल नही किया है बल्कि बाज़ असहाब तो रास्ते से आ कर मिलें हैं। सिर्फ़ एक अहद है और वह आलमे ज़र का अहद है। इस की ताईद उन रिवायात से भी होती है जिस में इमाम (अ) ने फ़रमाया कि मेरे यह असहाब आलमे ज़र में भी मेरे साथ थे नीज़ यह कि असहाब की एक फ़ेहरिस्त पहले से मौजूद थी।

इसी वजह से ख़ुद ख़ानदाने बनी हाशिम के बाज़ अफ़राद इमाम (अ) के साथ नही आये क्योकि यह एक राज़े इलाही है जो आलमे ज़र में तय हो चुका था और इसी से इस ऐतेराज़ का जवाब भी मिल जाता है कि जो बाज़ अहले सुन्नत करते हैं कि अगर कूफ़ा के अफ़राद नही आये तो ख़ुद ख़ानदाने बना हाशिम के भी बाज़ अफ़राद नही आये?

इस के अलावा अफ़ज़ल होने की कोई वजह होती है। यह असहाब किस ज़ाविये से, किस जेहत से सब से बेहतर हैं। तीन चीज़ें फ़र्ज़ की जा सकती है:

    इजमाल, यानी इमाम (अ) की नज़र में कोई जेहत थी ही नही और यह नामुमकिन है।

    तक़ईद, कलाम में कोई क़ैद भी नही है।

    इतलाक़, जब क़ैद नही है तो इस का मतलब यह है कि मेरे असहाब हर ऐतेबार से दूसरे असहाब से बेहतर हैं। चाहे वह मारेफ़त का मैदान हो या इबादत, इताअत का हो या अख़लाक़ का।

 

यहाँ पर सिर्फ़ मारेफ़त का तज़किरा करता हूँ। जंग में मौला ए कायनात मुसल्ला बिछा देते हैं तो इब्ने अब्बास सवाल करते हैं कि मौला यह नमाज़ का वक़्त है? इमाम (अ) ने फ़रमाया कि हम इसी नमाज़ के लिये तो जंग कर रहे हैं। शायद इमाम हुसैन (अ) ने अमदन नमाज़ के लिये ख़ुद नही कहा ता कि मालूम हो जाये कि मेरे असहाब माले ग़नीमत या किसी और बुनियाद पर जंग नही कर रहे हैं।

इमाम (अ) जब यह फ़रमाते हैं तो इब्ने मज़ाहिर उठ कर यह कहते हैं

कि मेरे मौला, हम अपनी औरतों को क़बील ए बनी असद में क्यो भेजें?

इमाम (अ) ने फ़रमाया क्योकि मेरे बाद मेरी ख़्वातीन को असीर किया जायेगा।

यह सुन कर इब्ने मज़ाहिर ख़ैमे में जाते हैं और अपनी ज़ौजा को यह पैग़ाम सुनाते हैं वह कहती है कि आप का क्या इरादा है? इब्ने मज़ाहिर कहते हैं कि उठ कर मेरे साथ चलो वह कहती है ‘मा अनसफ़तनी यबना मज़ाहिर’ आप ने इंसाफ़ नही किया। क्या आप को यह गवारा है कि अहले बैत (अ) की ख़्वातीन असीर हो जायें और मैं अमान में रहूँ। आप जायें मर्दों का साथ दें.....।

क़ासिम इमाम हसन बिन अली (अ) के बेटे थे और आप की माता का नाम “नरगिस” था मक़तल की पुस्तकों ने लिखा है कि आप एक सुंदर और ख़ूबसरत चेहरे वाले नौजवान थे और आपका चेहरा चंद्रमा की भाति चमकता था। क़ासिम बिन हसन कर्बला के मैदान में अपने चचा की तरफ़ से लड़ने वाले थे आपने 13 या 14 साल की आयु में यज़ीद की हज़ारों के सेना के साथ युद्ध किया और शहीद

हज़रते क़ासिम बिन इमाम हसन अ स

क़ासिम इमाम हसन बिन अली (अ) के बेटे थे और आप की माता का नाम “नरगिस” था मक़तल की पुस्तकों ने लिखा है कि आप एक सुंदर और ख़ूबसरत चेहरे वाले नौजवान थे और आपका चेहरा चंद्रमा की भाति चमकता था।

क़ासिम बिन हसन कर्बला के मैदान में अपने चचा की तरफ़ से लड़ने वाले थे आपने 13 या 14 साल की आयु में यज़ीद की हज़ारों के सेना के साथ युद्ध किया और शहीद हुए।

अबू मख़नफ़ हमीद बिन मुसलिम के माध्यम से कहता है कि हमीद ने रिवायत कीः हुसैन के साथियों में से एक लड़का जो ऐसा लगता था कि जैसे चाँद का टुकड़ा हो बाहर आया उसके हाथ में तलवार थी एक कुर्ता पहन रखा था और उसने जूता पहन रखा था जिसकी एक डोरी काटी गई थी और मैं कभी भी यह नही भूल सकता कि वह उसके बाएं पैरा का जूता था।

हज़रत क़ासिम की शादी

क़ासिम बिन हसन कर्बला के मैदान में अभी 15 साल के नहीं हुए थे, मक़तले अबी मख़नफ़ में आया हैः क़ासिम कर्बला में 14 साल के थे, अल्लामा मजलिसी का मानना है कि हज़रत क़ासिम की शादी के बारे में कोई ठोस दस्तावेज़ मौजूद नहीं है।

हज़रत क़ासिम की शादी को सबसे पहले इन दो किताबों मे बयान किया गया है, शेख़ फ़ख़्रुद्दीन तुरैही की पुस्तक “मुंतख़बुल मरासी”, और दूसरी मुल्ला हुसैन काशेफ़ी की पुस्तक “रौज़तुल शोहदा”। और यह दोनों पहली मक़तल की पुस्तकें है जो फ़ारसी भाषा में लिखी गई हैं।

इस बारे में रिवायत बयान की जाती है कि मदीने से कर्बला की यात्रा के बीच हसन बिन हसन ने अपने चचा से आपकी दो बेटियों में से एक से शादी का प्रस्ताव रखा।

इमाम हुसैन ने कहाः जो तुमको अधिक पसंद हो उसको चुन लो, हसन शर्मा गये और कोई उत्तर नहीं दिया।

इमाम हुसैन ने फ़रमायाः मैंने तुम्हारे लिये फ़ातेमा का चुनाव किया है जो मेरी माँ और पैग़म्बर की बेटी के जैसी है।

इससे पता चलता है कि कर्बला में फ़ातेमा अवश्य मौजूद थी। अब अगर हम यह मान लें कि क़ासिम की शादी हुई है , तो हमको यह कहना होगा कि इमाम हुसैन की दो बेटिया थी जिनका नाम फ़ातेमा था जिनमें से एक की शादी हसन के साथ की गई और दूसरी की क़ासिम के साथ, या हम यह कहें कि वह बेटी जिसकी शादी क़ासिम के साथ हुई है उसका नाम फ़ातेमा नहीं था, और इतिहास की पुस्तकों ने उसका नाम लिखने में ग़ल्ती की है, और अगर हम क़ासिम की शादी को सही न मानें तो हम यह कह सकते हैं कि रावियों और मक़तल के लिखने वालों ने गल्ती से हसन के स्थान पर क़ासिम का नाम लिख दिया है और यहीं से क़ासिम की शादी की बात सामने आई है।

बहर हाल कारण कोई भी हो लेकिन आशूरा की घटनाओं के अधिकतर शोधकर्ताओं ने क़ासिम की शादी को ग़लत माना है, मोहद्दिस क़ुम्मी मुनतहल आमाल और नफ़सुल महमूल में क़ासिम की शादी का इन्कार करते हैं और लिखते हैं: इतिहास लिखने वालों ने हसन के स्थान पर ग़ल्ती से क़ासिम का नाम लिख दिया है।

शहीद मुतह्हरी भी क़ासिम की शादी को सही नहीं मानते हैं और कहते हैं कि किसी भी मोतबर पुस्तक में इस चीज़ के बारे में बयान नहीं किया गया है और हाजी नूरी का भी यह मानना है कि मुल्लाह हुसैन काशेफ़ी वह पहले इंसान है जिन्होंने अपनी पुस्तक रौज़तुश शोहदा में इस बात को लिखा है और यह ग़लत है।

शबे आशूर

आशूर की रात को क़ासिम की आयु 13 (1) या 16 साल थी। (2)

मक़तल की किताबों में है कि आशूर की रात इमाम हुसैन ने चिराग़ को बुझा दिया और फ़रमायाः जो भी जाना चाहता है चला जाए, लेकिन कोई न गया हर तरफ़ से रोने की आवाज़े बुलंद हो गई, उसके बाद इमाम हुसैन ने आशूर के दिन शहीद होने वालों के नाम बताने शुरू किये, कभी का अब्बास तुम्हारे शाने काटे जाएंगे, तो कभी कहा अकबर तुम्हारे सीने में बरछी लगेगी, कभी हबीब का नाम लिया को तभी जौन का, कभी औन व मोहम्मद को शहादत की सूचना दी तो कभी मुसलिम बिन औसजा को इस बीच क़ासिम हैं जो एक कोने में खड़े हुए हैं और अपने नाम की प्रतीक्षा कर रहे हैं, लेकिन चूँकि क़ासिम की आयु अभी बहुत कम है इसलिये उनसे धैर्य नहीं रखा जाता है और इमाम हुसैन से कहते हैं, हे चचा क्या कल मैं भी शहीद होऊँगा?

हुसैन क़ासिम से पूछते हैं कि मौत तुम्हारी नज़र में कैसी है?

आपने कहाः शहद से अधिक मीठी

इमाम ने कहाः हां ऐ क़ासिम कल तुम भी शहीद होगे।

युद्ध की अनुमति मांगना

 

 

क़ासिम औन और मोहम्मद के बाद इमाम हुसैन के पास आते हैं और कहते हैं चचा जान अब मुझे में मरने की अनुमति दे दीजिये। लेकिन हुसैन ने आपको अनुमति नहीं दी आपने बहुत इसरार किया और आख़िरकार इमाम ने उनको अनुमति दे दी, एक रिवायत में है कि इमाम सज्जाद (अ) से एक हदीस में आया है कि क़ासिम अली अकबर के बाद मैदाने जंग में गये हैं। (3)

आप मैदान में आते हैं और परंपरा के अनुसार सिंहनाद पढ़ते हैं

إن تُنكِرونی فَأَنَا فَرعُ الحَسَن        سِبطُ النَّبِیِّ المُصطَفى وَالمُؤتَمَن

هذا حُسَینٌ كَالأَسیرِ المُرتَهَن (4)        بَینَ اُناسٍ لا سُقوا صَوبَ المُزَن

उसके बाद आपने युद्ध करना शुरू किया और 35 यज़ीदियों को मार गिराया। (5)

उमरो बिन सईद बिन नफ़ैल अज़्ज़ी ने जब आपको जंग करते हुए देखा तो क़सम खाईः अबी उस पर हमला करूँगा और उसको मार दूँगा।

उससे लोगों ने कहाः सुब्हान अल्लाह यह तुम क्या कार्य करोगे?

तुम देख रहे हो कि उसको चारों तरफ़ से घेरा चा चुका है और यही लोग उसको मार देंगे।

उसने कहाः ईश्वर की सौगंध मैं स्वंय उसकी हत्या करूँगा, उसने यह कहा और क़ासिम पर हमला कर दिया, और क़ासिम के सर पर तलवार मारी, क़ासिम घोड़े से गिर गये।

आवाज़ दी चचा जान सहायता कीजिये, इमाम हुसैन ने नफ़ैल पर हमला किया और उसका हाथ काट दिया, घुड़सवार नफ़ैल को बचाने के लिये दौड़े लेकिन इस दौड़ में क़ासिम का नाज़ुक बदन घोड़ों की टापों के बीट माला हो गया, और क़ामिस इस दुनिया से चले गये। (6)

ज़ियारते नाहिया में हज़रत क़ासिम पर यूँ मरसिया पढ़ा गया हैः

السَّلامُ عَلَى القاسِمِ بنِ الحَسَنِ بنِ عَلِیٍّ، المَضروبِ عَلى هامَتِهِ، المَسلوبِ لامَتُهُ، حینَ نادَى الحُسَینَ عَمَّهُ، فَجَلا عَلَیهِ عَمُّهُ كَالصَّقرِ، وهُوَ یَفحَصُ بِرِجلَیهِ التُّرابَ وَ الحُسَینُ یَقولُ : «بُعداً لِقَومٍ قَتَلوكَ ! و مَن خَصمُهُم یَومَ القِیامَةِ جَدُّكَ و أبوكَ

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(1)     मक़तले ख़्वारज़मी

(2)     लेबाबुल अंसाब

(3)     अमाली शेख़ सदूक़, पेज 226

(4)     मक़तले ख़्वारज़मी

(5)     मक़तले ख़्वारज़मी

(6)     तरीख़े तबरी और प्रसिद्ध स्रोत

तेहरान के इमाम ख़ुमैनी इमामबाड़े में शुक्रवार 6 मोहर्रम की रात को शहीदों के सरदार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पहली मजलिस का आयोजन हुआ, जिसमें इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने शिरकत की।

तेहरान के इमाम ख़ुमैनी इमामबाड़े में शुक्रवार 6 मोहर्रम की रात को शहीदों के सरदार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पहली मजलिस का आयोजन हुआ, जिसमें इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने शिरकत की।

 

लखनऊ के मशहूर छोटे इमामबाड़े, हुसैनाबाद में हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मौलाना अकी़ल अब्बास मरूफी़ ने खिताब करते हुए फरमाया,क्या वाकियन इस बात को तस्लीम किया जा सकता है कि जिस रसूल ने रिसालते इलाहिया की तबलीग़ में तमाम रंजो अलम उठाए, काटों भरे दुश्वार रास्ते तये किए, तरहं तरहं की सख्ति़यां और अज़ीयतें बर्दाश्त की और किसी छोटे से छोटे हुक्मे इलाही को बयां करने से गुरेज नहीं किया तो इतने बड़े मसले, मसले खि़लाफत को कैसे छोड़ सकता है और मुसलमानों का रहनुमा, रहबर और ख़लीफा़ और इमाम मुअय्यन किए बग़ैर कैसे लोगों को उनके हाल पर छोड़ कर दुनिया से चला जाए?

लखनऊ के मशहूर छोटे इमामबाड़े, हुसैनाबाद में 2 साल से रात 8:15 बजे अशरा ए मजालिस का एहतिमाम किया जा रहा है जिस अशरा ए मजालिस को मौलाना अकी़ल अब्बास मारूफी़ साहब खि़ताब कर रहे हैं मौलाना ने फरमाया,

मजलिस को खि़ताब करते हुए मौलाना ने फरमाया,क्या वाके़यन इस बात को तस्लीम किया जा सकता है कि जिस रसूल ने रिसालते इलाहिया की तबलीग़ में तमाम रंजो अलम उठाए, काटों भरे दुश्वार रास्ते तये किए, तरहं तरहं की सख्ति़यां और अज़ीयतें बर्दाश्त की और किसी छोटे से छोटे हुक्मे इलाही को बयां करने से गुरेज नहीं किया तो इतने बड़े मसले, मसले खि़लाफत को कैसे छोड़ सकता है और मुसलमानों का रहनुमा, रहबर और ख़लीफा़ और इमाम मुअय्यन किए बग़ैर कैसे लोगों को उनके हाल पर छोड़ कर दुनिया से चला जाए?

इसके बाद मौलाना ने करबला में हुए जुल्म को बयान किया तो मजमा अश्कबार हो गया।