رضوی

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क़यामत, अल्लाह तआला की रहमत, दया, हिकमत, नीति और उसके न्याय की नुमाइश का स्थान है इस बारे में क़ुर्आने मजीद में यह फ़रमाता हैः

उसने अपने ऊपर रहमत को लिख लिया है निश्चित रूप से वह तुम्हे क़यामत के दिन एक जगह जमा करेगा, जिसमें कोई शक नहीं है।

रहमत, अल्लाह तआला के उन गुणों में से जिन्हें सिफ़ाते कमालिया कहा जाता है और जिसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला मख़लूक़ात (जीवों) की ज़रूरतों का पूरा करने वाला है और उनमें से हर एक को उसके कमाल व कौशल की तरफ़ रहनुमाई करके इसके मुनासिब व उचित स्थान तक पहुँचाता है। इंसानी ज़िन्दगी की विशेषताएं साफ़ तौर पर इंसान की अबदी व अनन्त ज़िन्दगी को बयान करती हैं इसलिए एक ऐसी जगह होना ज़रूरी है कि जहाँ इंसान अबदी ज़िन्दगी बिता सके।

क़यामत अल्लाह की नीति के अनुसार भी है क्योंकि यह दुनिया, कि जो लगातार हरकत और तब्दीली में है अगर यह उस प्वाइंट तक न पहुँचे कि जहाँ ठहराव हो तो यह दुनिया अपने आख़री लक्ष्य, मक़सद और मंज़िल तक नहीं पहुँचेगी और अल्लाह तआला से जो हर प्रकार से हकीम व नीतिज्ञ है, बेमक़सद काम अन्जाम पाना असम्भव है, जैसा कि इरशाद होता हैः

क्या तुमने यह सोच रखा है कि हमने तुमको बेकार पैदा किया है और तुम हमारी तरफ़ पलटा कर नहीं लाये जाओगे?

दूसरे स्थान पर यह बयान करने के बाद कि आसमान और ज़मीन और जो कुछ इनके बीच है अल्लाह तआला ने उन सब को बेकार पैदा नहीं किया है। क़यामत को बयान करने के बाद यह फ़रमाता हैः

क़यामत का एक और फ़लसफ़ा यह है कि अच्छे और बुरे तथा मोमिन और काफ़िर के बारे में अल्लाह तआला का न्याय पूरी तरह से लागू हो जाए क्योंकि दुनिया में सारे इन्सानों के एक साथ ज़िन्दगी गुज़ारने के आधार पर अल्लाह तआला के न्याय के अनुसार इनाम व सज़ा देने के क़ानून पर पूरी तरह अमल नामुमकिन है इस आधार पर एक ऐसी जगह का होना ज़रूरी है कि जहाँ अल्लाह तआला के इनाम व सज़ा पर आधारित क़ानून के लागू होने का इमकान पाया जाता हो, इस बारे में क़ुरआने मजीद में इरशाद होता हैः

 

 क्या हम मोमिनों और अच्छे काम करने वालों को ज़मीन पर फ़साद व उपद्रव फैलाने वालों और परहेज़गारों व सदाचारियों को गुनाहगारों व पापियों के बराबर क़रार देंगे?

इसी तरह इरशाद होता हैः

क्या हम बात मानने वालों को अपराधियों के बराबर क़रार देंगे, तुम्हे क्या हो गया है, कैसे फ़ैसला करते हो?

इस्लाम की निगाह में वह अमल सही है जो अल्लाह उसके रसूल स.अ. और इमामों के हुक्म के मुताबिक़ हों क्योंकि यही सेराते मुस्तक़ीम है, और जितना इंसान इस रास्ते से दूर होता जाएगा उतना ही गुमराही से क़रीब होता जाएगा।

इंसान को शरीयत के हिसाब से अमल करना चाहिए और ख़ुदा के अहकाम पर हर हाल में अमल करना चाहिए और इसी तरह दीनी अख़लाक़ पर अमल करना भी हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है, तभी उसको पता चलेगा कि उसके आमाल कहां तक अल्लाह के लिए हैं, और इसी तरह पैग़म्बर स.अ. और मासूमीन अ.स. की सीरत को अपनी ज़िंदगी के लिए आइडियल बनाना चाहिए ताकि अल्लाह हमें जिस रास्ते पर चलते हुए देखना चाहता है हम उस पर चल सकें, और सबसे ज़्यादा अहम बात यह कि अगर इंसान अपने आमाल को अल्लाह का पसंदीदा देखना चाहता है तो उसे आमाल में ख़ुलूस लाना पड़ेगा। ख़ुलूस, बंदगी की रूह का नाम है, ख़ुलूस के बिना इबादत किसी काम की नहीं है जैसाकि इमाम सादिक़ अ.स. ने फ़रमाया कि नीयत अमल से बेहतर है और याद रखना कि अमल की हक़ीक़त का नाम नीयत ही है। (उसूले काफ़ी, जिल्द 2, पेज 16) इसलिए अगर नीयत में ख़ुलूस नहीं पाया गया तो नीयत बेकार और जब नीयत बेकार तो अमल किसी क़ाबिल नहीं रह जाएगा।

ख़ुलूस का मतलब नीयत का शिर्क और दिखावे से पाक रखना है, हदीसों में बयान हुआ है कि ख़ुलूस का संबंध दिल से है उसके बारे में किसी सामने की चीज़ के जैसा फ़ैसला नहीं किया जा सकता जैसाकि पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि अल्लाह तुम्हारी दौलत और तुम्हारे चेहरों का नहीं देखता बल्कि उसकी निगाहें तुम लोगों के दिल और तुम्हारे आमाल पर रहती हैं। (मीज़ानुल-हिकमह, जिल्द 2, पेज 16)

इंसान का अपने को ख़ुलूस की उस मंज़िल तक पहुंचाना कि उसका हर काम केवल अल्लाह के लिए हो यह बहुत सख़्त काम है और हर कोई आसानी से इस मंज़िल तक पहुंचने का दावा नहीं कर सकता, हालांकि इंसान को मायूस नहीं होना चाहिए बल्कि जितना हो सके अपनी नीयत और आमाल में ख़ुलूस पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए, ज़ाहिर है कि जिस तरह इंसान अपने बदन को सही आकार में लाने के लिए पसीना बहाता है रोज़ दौड़ता है और दूसरे बहुत से काम करता है तब कहीं जा कर धीरे धीरे उसका बदन सही शेप में आता है उसी तरह अपनी रूह की पाकीज़गी और नीयत और आमाल में ख़ुलूस पैदा करने के लिए धीरे धीरे क़दम उठाना होगा, और जिस तरह अपने जिस्म को सही शेप में लाने के लिए हम कम मेहनत से शुरू करते हैं और फिर घंटों मेहनत करते और पसीना बहाते हैं उसी तरह ख़ुलूस पैदा करने के लिए शुरू में अपनी नीयत और अमल में ख़ुलूस लाने के लिए धीरे धीरे अपने दिल और दिमाग़ से शिर्क और दिखावे को दूर करें और फिर पूरे ध्यान के साथ हर छोटे बड़े काम में ख़ुलूस लाने की कोशिश करें, जो लोग ख़ुलूस की ऊंचाईयों तक पहुंचे हैं उन्होंने कड़ी मेहनत की है अपने नफ़्स के साथ जेहाद किया है अपनी ख़्वाहिशों को मारा है तब जा कर अपनी नीयत को ख़ालिस कर सके हैं और तब कहीं जा कर उनके अमल अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ हुए हैं।

इंसान को हमेशा अल्लाह से दुआ करना चाहिए कि वह काम के आख़िर तक ख़ुलूस बाक़ी रखने की तौफ़ीक़ दे, क्योंकि कभी कभी बीच रास्ते में कुछ ऐसी मुश्किलें आ जाती हैं जिनसे इंसान का ख़ुलूस को आख़िर तक बाक़ी रख पाना मुमकिन नहीं होता। हदीसों की किताबों में नीयत और अमल में ख़ुलूस पैदा करने के कुछ तरीक़े बताए हैं जिनमें से कुछ की तरफ़ इशारा किया जा रहा है ताकि उनको पहचान के और उन पर अमल कर के पता चल सके कि ख़ुलूस वाले काम किस के तरह होते हैं।

1- पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि ख़ुलूस वाले इंसान की चार तरीक़े की पहचान हैं, पहले यह कि उसका दिल पाक साफ़ होता है, दूसरे यह कि उसके हाथ पैर और दूसरे बदन के हिस्से सही और सालिम होते हैं, तीसरे यह कि लोग उनके नेक कामों से फ़ायदा हासिल करते हैं, चौथे यह कि उनसे लोगों को किसी तरह का कोई ख़तरा नहीं होता। (तोहफ़ुल-ओक़ूल, पेज 16)

 

2- इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि जिसका ज़ाहिर और बातिन एक जैसा हो और सामने और पीठ पीछे की बातें एक जैसी हों हक़ीक़त में उसने अमानत को अदा कर दिया और अपनी इबादतों में ख़ुलूस पैदा कर लिया है। (नहजुल बलाग़ा, ख़त न. 26)

3- इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि ख़ुलूस की आख़िरी हद गुनाहों से बचना है। (बिहारुल अनवार, जिल्द 74, पेज 213)

4- एक दूसरी रिवायत में मौला अमीर अ.स. ही का फ़रमान है कि ख़ालिस इबादत उसे कहते हैं कि जिसमें इंसान अल्लाह के अलावा किसी और से थोड़ी भी उम्मीद न रखता हो और अपने गुनाहों के अलावा किसी से न डरता हो। (बिहारुल अनवार, जिल्द 74, पेज 229)

5- इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. फ़रमाते हैं कि ख़ालिस अमल वही है जिसमें इंसान अल्लाह के अलावा किसी और की तारीफ़ का इंतेज़ार न करे।

 (उसूल काफ़ी, जिल्द 2, पेज 16)

6- इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. फ़रमाते हैं कि कोई भी बंदा उस समय तक ख़ुलूस तक नहीं पहुंच सकता जब तक लोगों की तारीफ़ की चाहत ख़त्म न कर दे। (मिश्कातुल अनवार, पेज 11, अख़लाक़े अमली, आयतुल्लाह महदवी कनी, पेज 421)

7- हदीस में यह भी ज़िक्र हुआ है कि ख़ुलूस की शुरूआत अल्लाह के अलावा हर किसी से उम्मीद का तोड़ना है। (फ़ेहरिस्ते मौज़ूई ग़ोरर, पेज 430)

इन सभी हदीसों की रौशनी में यह बात साफ़ हो जाती है कि इबादत की बुनियाद ख़ुलूस है और आमाल को इबादत उसी समय कहा जा सकता है जब उसमें ख़ुलूस पाया जाता होगा, इस्लाम ने हमेशा अच्छे अमल को सराहा है , कभी अमल की भरमार के चलते अमल की रूह यानी ख़ुलूस और नीयत का साफ़ होना छूट जाए इसे इस्लाम सपोर्ट नहीं करता, अगर आप अपने अमल में ख़ुलूस का पता लगाना चाहते हैं तो आप कुछ समय तक अपने अमल और रोज़ाना के कामों पर ध्यान दीजिए और अपने दिल की गहराईयों में जा कर देखिए उसका हिसाब किताब कीजिए, अगर किसी वाजिब को सबके सामने ख़ुलूस से अंजाम नहीं दे सकते तो उसे भी तंहाई में अंजाम दीजिए, हालांकि बहुत कम होता है कि वाजिब अहकाम को अदा करने में दिखावा हो लेकिन अगर किसी को ऐसा लगता है कि वाजिब में भी दिखावा हो सकता है तो उसे भी अकेले में छिप कर अंजाम देना चाहिए क्योंकि ज़्यादातर दिखावे की मुश्किल लोगों के लिए मुस्तहब कामों में होती है, हमें केवल इस बात का ध्यान रखना है कि अमल वाजिब हो या मुस्तहब उसके अंदर दिखावा नहीं आना चाहिए और उसकी पहचान के लिए एक तरीक़ा यह भी है कि अमल अंजाम देने के बाद अपने नफ़्स की जांच पड़ताल करें अगर दुनिया की मोहब्बत और अल्लाह के अलावा किसी और को ख़ुश करने का इरादा और नीयत मिले तो समझ लीजिए उस अमल में ख़ुलूस नहीं है और अगर अमल के अंजाम के बाद अल्लाह से क़रीब होने का एहसास और उसको ख़ुश करने जैसा तसव्वुर पैदा हो तो समझ लीजिए आपने ख़ुलूस से अंजाम दिया है।

ध्यान रहे कभी कभी इंसान सवाब को हासिल करने और जन्नत में जाने के लिए अमल अंजाम देता है, ऐसा करने का बिल्कुल यह मतलब नहीं कि उस अमल में ख़ुलूस नहीं पाया जाता, और आख़िर में अपने इस लेख को को इस अहम हदीस पर ख़त्म कर रहे हैं कि जिसमें इमाम अ.स. ने फ़रमाया कि अपनी उम्मीदों को कम करो ताकि तुम्हारे अमल में ख़ुलूस पैदा हो। (फ़ेहरिस्ते मौज़ूई ग़ोरर, पेज 91, मेराजुस्-सआदह, पेज 491, चेहेल हदीस, इमाम ख़ुमैनी र.ह., पेज 51-55)

ईरान की सांस्कृतिक उच्च क्रांति परिषद के एक सदस्य ने कहा है कि जो व्यक्ति या समाज अपने आप को कुछ न समझे वह कुछ नहीं कर सकता।

ईरान की सांस्कृतिक उच्च क्रांति परिषद के एक सदस्य हसन रहीमपूर अज़्ग़दी ने राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सक्रिय जवानों को संबोधित करते हुए भविष्य के निर्माण के लिए अतीत की पहचान के महत्व पर बल दिया और कहा कि अतीत को पहचाने बिना भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता। इस आधार पर सबसे पहले यह सोचना चाहिये कि आप किसके वारिस हैं? आपसे पहले विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले या तो जंग के मोर्चे पर गोली खाते थे या जंग के मोर्चे के पीछे हक़ की रक्षा में बुरा भला सुनते थे या कुर्दिस्तान और सीस्तान प्रांतों में कुमले आतंकवादियों के हाथों मारे जाते थे।

इंसान को पैदा करने का तर्क व फ़ल्सफ़ा और अहलेबैत को सही ढ़ंग से पहचानने का तरीक़ा

रहीमपर अज़्ग़दी ने धर्म और अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम को सही तरह से समझने में मौजूद व प्रचलित कुछ भ्रांतियों की आलोचना करते हुए कहा कि आमतौर पर प्रचलित आदत के अनुसार जैसे ही अहलेबैत का नाम आता है हमारी हाजतें हमारी नज़रों के सामने आ जाती हैं जबकि हक़ीक़त यह है कि इंसान की सबसे बड़ी ज़रूरत सही रास्ते का मिल जाना और उस पर चलना है और केवल अपनी भौतिक ज़रूरतों के लिए धर्म और अहलेबैत अलै. को नहीं अपनाना चाहिये।

वह इसी प्रकार कहते हैं कि धार्मिक शिक्षाओं में आया है कि दुनिया कठिनाइयों व समस्याओं की जगह है। इंसान की रचना का तर्क व फ़ल्सफ़ा इन कठिनाइयों को यथासंभव मार्ग से पार करना है। उन्होंने बल देकर कहा कि जो लोग कठिनाई व समस्या का सामना किये बिना दुनिया को हासिल करना चाहते हैं उन लोगों ने धर्म और अहलैत को सही तरह से नहीं समझा।

 आज की दुनिया में दीनदारी और स्वयं पर टीका-टिप्पणी

धार्मिक शिक्षाकेन्द्र और विश्वविद्यालय के उस्ताद और बुद्धिजीवी रहीमपूर अज़्ग़दी कहते हैं कि हम इंसान आमतौर पर धार्मिक संस्कारों को काफ़ी समझते हैं और हमारी दीनदारी भी विदित है यानी विदित व ज़ाहिर में हम धार्मिक हैं। वह कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है कि लोग ज़बान से अल्लाह को क़बूल करते हैं परंतु वे अमल और ज़िन्दगी में अल्लाह पर विश्वास नहीं रखते और ईमान उनके अमल में दिखाई नहीं देता है क्योंकि हम अल्लाह को हाज़िर व नाज़िर नहीं मानते हैं। हम तौबा करते हैं मगर झूठ बोलते हैं दूसरों का हक़ खाते हैं, मुर्दों को देखते हैं परंतु मौत पर यक़ीन व विश्वास नहीं रखते हैं हम अपने हितों के प्रयास में रहते हैं मगर कष्ट उठाये बिना जबकि इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार ईमान और अच्छे अमल के बिना कोई भी स्वर्ग में नहीं जायेगा और उसका अच्छा अंजाम नहीं होगा।

भ्रष्टाचार और अन्याय से मुक़ाबला करने वाल को पैग़म्बरों की भांति समस्याओं का सामना होगा

रहीमपूर अज़्ग़दी ने पैग़म्बरों और नेक बंदों द्वारा धर्म के लिए उठाई गई समस्याओं और कठिनाइयों की ओर संकेत करते हुए कहा कि हम लोग आमतौर पर उस वक़्त राजनीतिक व सांस्कृतिक गतिविधियां अंजाम देते हैं जब हमारी समस्याओं और ज़रूरतों का समाधान हो चुका होता है। अगर इस रास्ते में हमको किसी से कोई समस्या न हो, हमें कोई नुकसान न हो, हम बुरा-भला नहीं सुनेंगे यानी हमारा कोई दुश्मन नहीं होगा यानी हम कुछ नहीं हैं और हम किसी भी बातिल, भ्रष्टाचार और अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े नहीं हुए हैं जबकि जन्नत के चारों ओर समस्यायें हैं यानी समस्याओं का सामना किये बिना स्वर्ग हासिल नहीं किया जा सकता। तो जब भी हमारी ज़िन्दगी का रास्ता साफ़ हो यानी ज़िन्दगी में हमें किसी समस्या प्रकार की समस्या का सामना न हो तो हम स्वर्ग की ओर या बेहतर तरीक़े से कहूं कि इबादत के रास्ते में नहीं हैं।

उस इबादत का कोई मूल्य नहीं है जो हमें परिवर्तित न कर दे

रहीमपूर अज़्ग़दी पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम रज़ा अलै. के हवाले से एक रिवायत की ओर संकेत करते हैं जिसमें इमाम फ़रमाते हैं जो अल्लाह से तौफ़ीक़ चाहता है मगर पसीना न बहाये यानी परिश्रम न करे, ख़तरा मोल न ले तो उसने स्वयं का मज़ाक़ उड़ाया है। इसी प्रकार वह बल देकर कहते हैं कि ज़िम्मेदारी के बिना धर्म लोगों के लिए अफ़ीम और बहुत ख़तरनाक है। अगर हम हर साल हज, तीर्थ स्थलों और मशहद की यात्रा पर जाते हैं परंतु हमारे जीवन में कोई परिवर्तन उत्पन्न नहीं होता है तो उसका कोई फ़ायदा नहीं है। इन सब ज़ियारतों पर जाने के बजाये महान व धार्मिक हस्तियों के आदेशों पर अमल करना चाहिये।

स्वयं की आलोचना करने का महत्व

रहीमपूर अज़्ग़दी स्वयं पर टीका- टिप्पणी करने के महत्व की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि जो व्यक्ति या समाज अपना हिसाब- किताब न करे वह विफ़ल व नाकाम है। जो कमज़ोरों व असहाय लोगों की मदद न करे, जिसके अंदर दूसरों की सेवाभाव जज़्बा न हो और वह धार्मिक होने का दावा करे परंतु कोई स्टैंड नहीं लेता है न मुर्दाबाद को मानता है न ज़िन्दाबाद को, वह सबसे सहमत है या सबका विरोधी है, बेहतरीन हालत में अहलेबैत से प्रेम करने वाला है न कि अहलेबैत का शिया।

अहलुल-बैत (अ.स) समाचार एजेंसी -अबना- के अनुसार ज़ायोनी मीडिया ने मंगलवार सुबह दावा किया कि ऐनुल-असद पर मिसाइल हमले में कम से कम 2 अमेरिकी सैनिक मारे गए।

इससे पहले पेंटागन ने एक बयान में कहा था कि ऐनुल-असद अड्डे पर मिसाइल हमले में कई अमेरिकी सैनिक घायल हो गए हैं।

पेंटागन ने अपने बयान में कहा था कि घायल अमेरिकी सैनिकों की स्थिति के बारे में अभी भी कोई विस्तृत जानकारी नहीं है और हम नुकसान का आकलन कर रहे हैं।

सोमवार रात को अल-मयादीन नेटवर्क ने अपने सूत्रों के हवाले से खबर दी थी कि ऐनुल-असद अड्डे पर तीन धमाके सुने गए हैं।

बांग्लादेश के हालात पर भारत सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। इसमें विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बांग्लादेश की स्थिति की जानकारी दी। वहीं बांग्लादेश के मुद्दे को लेकर कांग्रेस ने सरकार का साथ दे रही है। मंगलवार को कांग्रेस सांसदों ने कहा कि बांग्लादेश के मामले में दोनों सदनों में चर्चा की जरूरत है।

कांग्रेस सांसद कार्ति पी चिदंबरम ने कहा कि बांग्लादेश में जो भी हो रहा है वह काफी चिंताजनक है। हमारे नागरिकों की सुरक्षा पर विचार किया जा रहा है। देश की सीमाओं और नागरिकों की सुरक्षा काफी महत्वपूर्ण है।

 

सामने आने वाली जानकारियों और तस्वीरों के अनुसार, ग़ज़ा में युद्ध के सैन्य अपराधियों में इस्राईली शासन के कई एथलीट शामिल हैं।

जिस समय पेरिस ग्रीष्मकालीन ओलंपिक खेल चल रहे थे, उसी समय इस्राईली शासन की टीमें और सैनिक-एथलीट, इन खेल मैदानों पर हाज़िर हुए और मैदान में उतर कर उन्होंने अपने झंडे तक लहराए।

एक खेल आयोजन से हटकर, ये खेल इस्राईली शासन के प्रोपेगैंडा द्वारा एक राजनीतिक शो के अवसर में तब्दील हो गया है। दूसरी तरफ़ और भी स्पष्ट तरीक़े से, वे समाचारों में इस्राईल के युद्ध अपराधों को कम करने और उन्हें सामान्य दिखाने में पूरी तरह से सक्षम रहे। 

पार्सटुडे की इस रिपोर्ट में ओलंपिक में इस्राईल की अवैध उपस्थिति को लेकर कई विरोधाभास और विचारणीय बिंदु बताए गए हैं:

1- ओलंपिक, और अधिक क़त्लेआम का अवसर

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने अपने वीडियो संदेश में देशों से ओलंपिक युद्धविराम की परिधि में अपने हथियार ज़मीन पर रखने को कहा, 24 घंटे से भी कम समय में, कार्रवाई की स्वतंत्रता के साथ ही इस्राईली सेनाओं ने दैरुल बलह के पास एक स्कूल पर हवाई हमले किए जिसके परिणामस्वरूप कम से कम 30 फ़िलिस्तीनियों की मौत हो गई और 100 से अधिक लोग घायल हो गए।

ये अपराध ओलंपिक के दिनों में ही अंजाम दिए गये और साथ ही ओलंपिक के मौक़े पर, इस्राईली शासन ने चुपचाप अपनी आक्रामकता और हमलों को अंजाम दिया है।

प्रोपेगैंडे के लिए ओलंपिक

 इस्राईली शासन अपने अपराधों को छुपाने के लिए खेल को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करता है और अपने अपराधों को तथाकथित गेम लांड्रिंग करता है।

यह हाज़िरी, इस्राईली शासन को अपने अपराधों को वैध बनाने और विश्व स्तर पर एक नरम शक्ति के रूप में इस्तेमाल करने में मदद करती है। पेरिस 2024 ओलंपिक में इस्राईली टीम की भागीदारी को बेन्यामीन नेतन्याहू के लिए एक बड़ी प्रचार जीत भी माना जाता है।

3 -रूस और IOC का दोहरा मापदंड

आईओसी ने यूक्रेन युद्ध पर रूस पर प्रतिबंध लगा दिया हैं जबकि उसने इस्राईल के ख़िलाफ़ कोई भी इस तरह की मिलती जुलती कार्रवाई नहीं की है जिसने खेल प्रतिष्ठानों पर बमबारी की और ओलंपियंस सहित कई एथलीटों और कोचों को मार डाला।

दूसरी ओर, ग़ज़ा पर हमलों की वजह से खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेने से इस्राईल का बहिष्कार करने या उस पर प्रतिबंध लगाने का व्यापक अनुरोध हुआ। इस पर जवाबी कार्रवाई करते हुए, ओआईसी ओलंपिक समिति ने ज़िम्मेदारी से इनकार कर दिया और एक सतही बयान जारी किया। आईओसी के अध्यक्ष थॉमस बाख़ ने कहा, हम राजनीतिक नहीं हैं, हम एथलीटों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं।

4 - सैनिक-एथलीटों का प्रदर्शन

जारी जानकारियों और तस्वीरों के अनुसार, इस्राईली शासन के कई एथलीट ग़ज़ा में युद्ध अपराधियों में हैं। पत्रकार करीम ज़ीदान इस बारे में लिखते हैं: पेरिस ओलंपिक में भाग लेने वाले 88 इस्राईली एथलीटों में, कम से कम 30 ने सार्वजनिक रूप से युद्ध और आईडीएफ़ का समर्थन किया है।

हालांकि, इस्राईली शासन की उपस्थिति को युद्ध-विरोधी समर्थकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के व्यापक विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

उनका मानना ​​है कि अमेरिका और पश्चिम के दबाव में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय गूंगा बना हुआ है और इस्राईली शासन द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन से गंभीरता से निपटने में असमर्थ है।

बेशक, लोगों के ग्रुप्स अब तक बेकार नहीं हुए हैं और उन्होंने पेरिस ओलंपिक में इस्राईली शासन की उपस्थिति पर अधिक ध्यान आकर्षित कर रखा है।

"फिलिस्तीन ज़िंदाबाद" और "फ़्रीडम फ़ॉर ग़ज़ा" जैसे फ़िलिस्तीन समर्थक ग्राफ़िक्स पूरे शहर में देखे जा सकते हैं।

 

 

 

मजलिस ए ख़बरगान रहबरी के उप प्रमुख ने कहा कि प्रतिरोध मोर्चा कब्ज़ा करने वाली इज़राईली सरकार को करारा जवाब देगा,और इस्माइल हनियेह की शहादत प्रतिरोध मोर्चे और फ़िलिस्तीनी राष्ट्र के लिए बाधित नहीं होगा।

एक रिपोर्ट के अनुसार,मजलिस ए ख़बरगान रहबरी के उप प्रमुख सैयद हाशिम हुसैनी बुशहरी ने इमाम सादिक अ.स.के गार्ड्समैन और कमांडरों के कार्यकर्ताओं की एक सभा को संबोधित करते हुए इस्माइल हनियेह की शहादत पर शोक व्यक्त किया।

उन्होंने कहा कि पिछले दिनों देश में एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी और इस्लामी क्रांति के नेता की व्याख्या के अनुसार, दुश्मन ने हमारे प्रिय अतिथि को हमसे छीन लिया और उसे धोखे से शहीद कर दिया।

उन्होंने यह बयान करते हुए कहां प्रतिरोध मोर्चा कब्जा करने वाली ज़ायोनी सरकार को जवाब देगा इज़राईल को अपने काम पर पछतावा होगा, उन्होंने कहा कि इस्माइल हानियेह की शहादत इस्माइल हनियेह की शहादत प्रतिरोध मोर्चे और फ़िलिस्तीनी राष्ट्र के लिए बाधित नहीं होगा।

सैयद हाशिम हुसैनी बुशहरी ने जामिया मद्रासीन क़ुम के प्रमुख से कहा कि धार्मिक और इस्लामी संस्कृति में एक पद रखना मौलिक नहीं है, लेकिन एक विनम्र अधिकारी वह है जो अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास करता है।

 

बांग्लादेश में पिछले एक महीने से चल रहे छात्र आंदोलनों के बाद शेख़ हसीना सरकार गिर चुकी है वह देश छोड़ कर जा चुकी है। कहा जा रहा है कि यह आंदोलन का परिणाम है, लेकिन करीब से देखने पर इसके और पहलू भी नजर आ रहे हैं। यह यकीन करना मुश्किल है कि किसी देश में निहत्थे आंदोलनकारियों ने एक संपन्न सरकार को एक महीने से भी कम समय में उखाड़ फेंका। पिछले कुछ सालों के घटनाक्रम पर नजर डालें तो मालूम पड़ता है कि बांग्लादेश पर अमेरिका की पैनी नजर रही है।

शेख हसीना के तख्तापलट से अमेरिका खुश नजर आ रहा है। हसीना सरकार पहले ही आरोप लगा चुकी है कि अमेरिका देश में अपना एक मिलिट्री बेस चाहता है। अमेरिका ने इसी साल हुए बांग्लादेश चुनाव में भी कई सवाल खड़े किए थे। बांग्लादेश संकट में अब अमेरिका के हाथ होने की भी बात सामने आ रही है।

शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद अमेरिका के विदेश विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर ने कहा, “अमेरिका बांग्लादेश के लोगों के साथ खड़ा है।” अमेरिका ने हसीना के इस्तीफे का स्वागत किया और अंतरिम सरकार के गठन के लिए सभी पार्टियों को आगे आने का आग्रह किया।

अमेरिकी विदेश विभाग का ये बयान चौंकाता है क्योंकि एक प्रधानमंत्री का इस तरह से तख्तापलट होना, लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ माना जाता है।

 

गाज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने घोषणा की है कि शहीदों की संख्या 39,623 और घायलों की संख्या 91,469 हो गई हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक , गाज़ा में युद्ध शुरू हुए 304 दिन बीत चुके हैं इस मौके पर गाज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने घोषणा की है कि शहीदों की संख्या 39 हज़ार 623 तक पहुंच गई है।

गाज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, 91,469 लोग घायल हुए हैं, और 10,000 से अधिक फिलिस्तीनियों के शव अभी भी इमारतों के मलबे के नीचे दबे हुए हैं और बचाव दल शहीदों के शवों को खोजने या निकालने में असमर्थ हैं।

गाज़ा स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह भी घोषणा की हैं की कब्जे वाली ज़ायोनी सेना ने पिछले 24 घंटों में नागरिकों के खिलाफ तीन और हमले किए हैं जिसके परिणामस्वरूप 40 शहीद और 71 घायल हुए हैं

65 हिजरी में मरवान के मरने के बाद उसका बेटा अब्दुल मलिक मिस्त्र व शाम का बादशाह तसलीम किया गया। यह बनी उमय्या का असलन नमूना था चूंकि मुसतबद फ़रेबी और ईमान से दूर था। वह अजीब क़ाबलियत के साथ अपनी खि़लाफ़त को मुस्तहकम करने में मसरूफ़ हुआ। उसकी राह में मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फी और अब्दुल्ला इब्ने ज़ुबैर रूकावट थे। उनके बाद जमादुस्सानिया 73 हिजरी में अब्दुल मलिक इब्ने मरवान तमाम मुमालिके इस्लाम का अकेला बादशाह बन गया। इब्ने ज़ुबैर से लड़ने में चूंकि हज्जाज बिन यूसुफ़ अमवी जरनल ने नुमायां किरदार अदा किया था इस लिये अब्दुल मलिक बिन मरवान ने उसे हिजाज़ का गर्वनर बना दिया था।

75 हिजरी में अब्दुल मलिक ने इसे अपनी मशरिक़ी सलतनत, ईराक़, फ़ारस और सिस्तान, किरमान और ख़ुरासान का जिसमें काबुल और कुछ हिस्सा मावरा अल नहर का भी शामिल था वायस राय बना दिया।

हज्जाज ने अपनी हिजाज़ की गर्वनरी के ज़माने में मदीने के लोगों पर जिनमें असहाबे रसूल (स. अ.) भी थे बड़े बड़े ज़ुल्म किये। ईराक़ में अपनी बीस बरस की गर्वनरी के दौरान में उसने तक़रीबन डेढ़ लाख (1,50000 और बा रवायत मिशक़ात 5,00000 पांच लाख) बन्दगाने ख़ुदा का ख़ून बहाया था। जिनमें से बहुत लोगों पर झूठे इल्ज़ाम और बोहतान लगाये गये थे। उसकी वफ़ात के वक़्त 50,000 (पचास हज़ार) मर्द व ज़न क़ैद ख़ानों में पड़े हुए उसकी जान को रो रहे थे। बे सख़फ़ (बग़ैर छत) क़ैद ख़ाना उसी की ईजाद है।

इब्ने ख़ल्क़ान लिखता है कि अब्दुल मलिक बड़ा ज़ालिम और सफ़्फ़ाक था और ऐसे ही उसके गवरनर, हज्जाज ईराक़ में, मेहरबान ख़ुरासान में, हश्शाम इब्ने इस्माईल हिजाज़ और मग़रेबी अरब में और उसका बेटा अब्दुल्लाह मिस्त्र में, हस्सान बिन नोमान मग़रिब में, हज्जाज का भाई मोहम्मद बिन यूसुफ़ यमन में, मोहम्मद बिन मरवान जज़ीरे में, यह सब के सब ज़ालिम और सफ़्फ़ाक थे। और मसूदी लिखता है कि बे परवाही से ख़ून बहाने में अब्दुल मलिक के आमिल इसी के नक़्शे क़दम पर चलते थे मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि यह कंजूस, बे रहम, सफ़्फ़ाक, वायदा खि़लाफ़, दग़ा बाज़ बे ईमान था। यह मतलब बरारी के लिये सब कुछ किया करता था। अख़तल इसके दरबार का मशहूर शायर और ज़हरी मशहूर मोहद्दिस था जिसने सब से अव्वल हदीस की किताब लिखी। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 42)

ज़हरी का असल नाम इमाम अबू बकर मोहम्मद बिन मुस्लिम बिन अबीद उल्ला इब्ने शहाब ज़हरी मदनी शामी था। यह ताबई फ़क़ीह और मोहद्दिस था। 51 हिजरी में पैदा हो कर 124 हिजरी में फ़ौत हुआ। मदीने के नामी मोहद्दिसों और फ़की़हो में था, अब्दुल मलक और हश्शाम ख़ुल्फ़ा बनी उमय्या की सोहबत में रहा। इमाम मालिक का उस्ताद और इल्मे हदीस का मदून था।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 5 सफ़ा 79 सफ़ा 19, 20)

 बहुत से उलमा ने लिखा है कि अब्दुल मलक बिन मरवान ने हुक्म दे दिया था कि अली इब्ने हुसैन (अ.स.) को गिरफ़्तार कर के शाम पहुँचा दिया जाए। चुनांचे आप को जंजीरों में जकड़ कर मदीने से बाहर एक ख़ेमें में ठहरा दिया गया।

ज़हरी का बयान है कि मैं उन्हें रूख़सत करने के लिये उनकी खि़दमत में हाज़िर हुआ। जब मेरी नज़र हथकड़ी और बेड़ियों पर पड़ी तो मेरी आंखांे से आंसू निकल पड़े और मैं अर्ज़ परदाज़ हुआ कि काश आपके बजाए लोहे के ज़ेवरात मैं पहन लेता और आप इससे बरी हो जाते। आपने फ़रमाया ज़हरी तुम मेरी हथकड़ियां, बेड़ी और मेरे तौक़े गरां बार को देख कर घबरा रहे हो सुनों ! मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है। (शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 177 व अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 422 हयातुल औलिया जिल्द 3 सफ़ा 135 तबा मिस्त्र)

अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई बा हवाला ज़हरी लिखते हैं कि इस वाक़ेए के बाद अब्दुल मलिक इब्ने मरवान के पास गया मैंने कहा कि ‘‘ ऐ अमीर , लैयसा अली इब्नुल हुसैन हैस तज़न अन्दा मशगू़ल बे रब्बेही ’’ इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) पर किसी क़िस्म का कोई इल्ज़ाम नहीं है। वह तेरी हुकूमत के मामेलात से कोई दिलचस्पी नहीं रखते वह ख़ालिस अल्लाह वाले हैं। कि ज़हरी के तज़किरे ख़ुसूसी के बाद अब्दुल मलिक इब्ने मरवान ने हज्जाज बिन यूसुफ़ को लिखा कि ‘‘ अन यजूतनेबा देमा बनी अब्दुल मुत्तलिब ’’ बनी हाशिम को सताने और उनके ख़ून बहाने से इज्तेनाब करें। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 119)

अल्लामा शिबली लिखते हैं कि बादशाह ने हज्जाज को इज्तेनाब की वजह भी लिखी थी और वह यह थी कि बनी उमय्या के अकसर बादशाह उन्हें सताकर जल्द तबाह हो गए हैं। (नूरूल अबसार सफ़ा 127) ग़रज़ अब्दुल मलिक के ज़माने में इस वाक़िये के बाद से औलादे अबु तालिब हज्जाज के हाथों से अमान में रही। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 141)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और बुनियादे काबा ए मोहतरम व नसबे हजरे असवद

71 हिजरी में अब्दुल मलिक बिन मरवान ने ईराक़ पर लशकर कशी कर के मसअब बिन ज़ुबैर को क़त्ल किया फिर 72 हिजरी में हज्जाज बिन यूसुफ़ को एक अज़ीम लशकर के साथ अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर को क़त्ल करने के लिये मक्के मोअज़्ज़मा रवाना किया। (अबुल फ़िदा) वहीं पहुँच कर हज्जाज ने इब्ने ज़ुबैर से जंग की इब्ने ज़ुबैर ने ज़बर दस्त मुक़ाबला किया और बहुत सी लड़ाईयां हुईं, आखि़र में इब्ने ज़ुबैर महसूर हो गए, और हज्जाज ने इब्ने ज़ुबैर को काबे से निकालने के लिये काबे पर संग बारी शुरू कर दी यही नहीं बल्कि उसे खुदवा डाला। इब्नु ज़ुबैर जमादिल आखि़र 73 हिजरी में क़त्ल हुआ। (तारीख़ इब्नुल वरदी) और हज्जाज जो ख़ाना ए काबा की बुनियाद तक ख़राब कर चुका था, इसकी तामीर की तरफ़ मुतवज्जे हुआ।

अल्लामा सद्दूक़ किताब एललुश शराए में लिखते हैं कि हज्जाज के हदमे काबा के मौक़े पर लोग उसकी मिट्टी तक उठा कर ले गए और काबा को इस तरह लूट लिया कि इसकी कोई पुरानी चीज़ बाक़ी न रही। फिर हज्जाज को ख़्याल पैदा हुआ कि इसकी तामीर करानी चाहिए। चुनान्चे उस ने तामीर का प्रोग्राम मुरत्तब कर लिया और काम शुरू करा दिया। काम की अभी बिल्कुल इब्तेदाई मंज़िल थी कि एक अज़दहा बरामद हो कर ऐसी जगह बैठ गया जिसके हटे बग़ैर काम आगे नहीं बढ़ सकता था। लोगों ने इस वाक़िए की इत्तेला हज्जाज को दी, हज्जाज घबरा उठा और लोगों को जमा कर के उन से मशविरा किया कि अब क्या करना चाहिए। जब लोग इसका हल निकालने से का़सिर रहे तो एक शख़्स ने खड़े हो कर कहा कि आज कर फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) यहां आए हुए हैं बेहतर होगा कि उन से दरयाफ़्त कराया जाए यह मसला उनके अलावा कोई हल नहीं कर सकता। चुनान्चे हज्जाज ने आपको ज़हमते तशरीफ़ आवरी दी। आपने फ़रमाया हज्जाज तूने ख़ाना ए काबा को अपनी मीरास समझ लिया । तूने तो बेनाए इब्राहीम (अ.स.) उखड़वा कर रास्ते में डलवा दिया। ‘‘ सुन ! तुझे ख़ुदा उस वक़्त तक काबे की तामीर में कामयाब न होने देगा जब तक तू काबे का लूटा हुआ सामान वापस न मंगाएगा। यह सुन कर ऐलान किया कि काबे से मुतअल्लिक़ जो शय भी किसी के पास हो वह जल्द अज़ जल्द वापस करें चुनान्चे लोगों ने पत्थर मिट्टी वग़ैरा जमा कर दी। जब सब कुछ जमा हो गया तो आप उस अज़दहे के क़रीब गए और वह हट कर एक तरफ़ हो गया। आपने उसकी बुनियाद इस्तेवार की और हज्जाज से फ़रमाया कि इसके ऊपर तामीर करो ‘‘ फ़ल ज़ालिक सार अल बैत मरतफ़अन ’’ फिर इसी बुनियाद पर ख़ाना ए काबा की तामीर बुलन्द हुई। किताब अल ख़राएज वल हराए में अल्लामा कुतब रावन्दी लिखते हैं कि जब तामीरे काबा उस मक़ाम तक पहुँची जिस जगह हजरे असवद नसब करना था यह दुशवारी पैदा हुई कि जब कोई आलिम, ज़ाहिद, क़ाजी़ उसे नस्ब करता था तो ‘‘ यताज़ल ज़लव यज़तरब वला यसतक़र ’’ हजरे असवद मुताज़लज़िल और मुज़तरिब रहता और अपने मुक़ाम पर ठहरता न था बिल आखि़र इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बुलाए गए और आपने बिस्मिल्लाह कह कर उसे नसब कर दिया, यह देख कर लोगों ने अल्लाहो अकबर का नारा लगाया। (दमए साकेबा जिल्द 2 सफ़ा 437) उल्मा व मुवर्रेख़ीन का बयान है कि हज्जाज बिन यूसुफ़ ने यज़ीद बिन माविया ही की तरह ख़ाना ए काबा पर मिनज़नीक़ से पत्थर वग़ैरा फिकवाए थे।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और अब्दुल मलिक बिन मरवान का हज

बादशाहे दुनिया अब्दुल मलिक बिन मरवान अपने अहदे हुकूमत में अपने पाये तख़्त से हज के लिये रवाना हो कर मक्के मोअज़्ज़मा पहुँचा और बादशाहे दीन हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) भी मदीना ए मुनव्वरा से रवाना हो कर पहुँच गए। मनासिके हज के सिलसिले में दोनों का साथ हो गया। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) आगे आगे चल रहे थे और बादशाह पीछे पीछे चल रहे था। अब्दुल मलिक को यह बात नागवार हुई और उसने आपसे कहा क्या मैंने आप के बाप को क़त्ल किया है जो आप मेरी तरफ़ मुतवज्जे नहीं होते? आपने फ़रमाया कि जिसने मेरे बाप को क़त्ल किया है उसने अपनी दुनिया व आख़ेरत ख़राब कर ली ह,ै क्या तू भी यही हौसला रखता है? उसने कहा नहीं। मेरा मतलब यह है कि आप मेरे पास आयें ताकि मैं आपसे कुछ माली सुलूक करूँ। आपने इरशाद फ़रमाया, मुझे तेरे माले दुनिया की ज़रूरत नहीं है, मुझे देने वाला ख़ुदा है। यह कह कर आपने उसी जगह ज़मीन पर रिदाए मुबारक डाल दी और काबे की तरफ़ इशारा कर के कहा, मेरे मालिक इसे भर दे। इमाम (अ.स.) की ज़बान से अल्फ़ाज़ का निकलना था कि रिदाए मुबारक मोतियों से भर गई। आपने उसे राहे ख़ुदा में दे दिया। (दमए साकेबा, जन्नातुल ख़ुलूद सफ़ा 23)

बद किरदार और रिया कार हाजियों की शक्ल

इमामुल हदीस ज़हरी का बयान है कि मैं हज के मौक़े पर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) के पास मक़ामे अराफ़ात में खड़ा हाजियों को देख रहा था। दफ़तन मेरे मुहं से निकला कि मौला कितने लाख हाजी हैं और कितना ज़बरदस्त शोर मचा हुआ है। हज़रत ने फ़रमाया कि मेरे क़रीब आओ। जब मैं बिल्कुल नज़ीद हुआ तो आपने मेरे चेहरे पर हाथ फेर कर फ़रमाया, ‘‘ अब देखो ’’ जब मैं ने फिर नज़र की तो मुझे लाखों आदमियों में दस हज़ार के एक के तनासुब से इन्सान दिखाई दिये बाक़ी सब के सब बन्दर , कुत्ते, सुअर, भेड़िये और इसी तरह के जानवर नज़र आये। यह देख कर मैं हैरान रह गया। आपने फ़रमाया कि सुनो ! जो सही नियत और सही अक़ीदे के बग़ैर हज करते हैं उनका यही हश्र होता है। ऐ ज़हरी नेक नियत और हमारी मोवद्दत व मोहब्बत के बग़ैर सारे आमाल बेकार हैं। (तफ़सीरे इमाम हसन असकरी व दमए साकेबा, जिल्द 2 सफ़ा 438)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और एक मर्दे बल्ख़ी

अल्लामा शेख़ तरही और अल्लामा मजलिसी रक़म तराज़ हैं कि बलख़ का रहने वाला एक दोस्त दारे आले मोहम्मद (अ.स.)  हमेशा हज किया करता था और जब हज को आता था तो मदीने जा कर इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की ज़ियारत का शरफ़ भी हासिल किया करता था। एक मरतबा हज से लौटा तो उसकी बीवी ने कहा कि तुम हमेशा अपने इमाम की खि़दमत मे तोहफ़े ले जाते हो मगर उन्होंने आज तक तुम को कुछ न दिया। उसने कहा तौबा करो तुम्हारे लिये यह कहना सज़ावार नहीं है, वह इमामे ज़माना हैं। वह मालिके दीनो दुनियां हैं। वह फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हैं। वह तुम्हारी बातें सुन रहे हैं। यह सुन कर वह ख़ामोश हो गई। अगले साल जब वह हज से फ़राग़त कर के इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की खि़दमत में पहुँचा और सलाम व दस्त बोसी के बाद आपके पास बैठा तो आप ने खाना तलब फ़रमाया। हुक्मे इमाम (अ.स.) से मजबूर हो कर उसने इमाम (अ.स.) के साथ खाना खाया। जब दोनों खाना खा चुके तो इमाम के दोस्त बलख़ी ने हाथ धुलाना चाहा। आपने फ़रमाया तू महमान है, यह तेरा काम नहीं। उसने इसरार किया और हाथ धुलाना शुरू कर दिया। जब तश्त भर गया तो आपने पूछा यह क्या है। उसने कहा ‘‘ पानी ’’ हज़रत ने फ़रमाया नहीं ‘‘ याक़ूते अहमर ’’ हैं। जब उसने ग़ौर से देखा तो वह तश्त ‘‘ याकूते सुर्ख ’’ से भरा हुआ था। इसी तरह ‘‘ ज़मुर्रदे सब्ज़ ’’ और ‘‘ दुरे बैज़ ’’ से भर गया। यानी तीन बार ऐसा ही हुआ यह देख कर वह हैरान हो गया और आपके हाथों का बोसा देने लगा। हज़रत ने फ़रमाया इसे लेते जाओ और अपनी बीवी को दे देना और कहना कि हमारे पास और कुछ माले दुनिया से नहीं है। वह शख़्स शरमिन्दा हो कर बोला, मौला आपको हमारी बीवी की बात किसने बता दी? इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया हमें सब मालूम हो जाता है। उसके बाद वह इमाम (अ.स.) से रूख़सत हो कर बीवी के पास पहुँचा। जवाहेरात दे कर सारा वाक़ेया बयान किया। बीवी ने कहा आइन्दा साल मैं भी चल कर ज़ियारत करूँगी। जब दूसरे साल बीवी हमराह रवाना हुई, तो रास्ते में इन्तेक़ाल कर गई। वह शख़्स हज़रत की खि़दमत में रोता पीटता हाज़िर हुआ। हज़रत ने दो रकअत नमाज़ पढ़ कर फ़रमाया, जाओ तुम्हारी बीवी भी ज़िन्दा हो गई है। उस ने क़याम गाह पर लौट कर बीवी को ज़िन्दा पाया। जब वह हाज़िरे खि़दमत हुई तो कहने लगी, ख़ुदा की क़सम इन्होंने मुझे मलकुल मौत से कह कर ज़िन्दा किया था और उस से कहा था कि यह मेरी ज़ायरा है। मैंने इसकी उम्र तीस साल बढ़वा ली है।

(अल मुन्तखि़ब वल बिहार)