رضوی

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हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा मकारिम ने कहा: अरबईन केवल एक मार्च (परेड) नहीं है; यह प्यार, ईसार और इंसानियत का एक बड़ा खज़ाना है, जिसका इस दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है।

आयतुल्लहिल उज़्मा नासिर मकारि शिराज़ी ने अपने लेख में अरबईन की महत्ता पर कहा: अरबईन केवल एक मार्च (परेड) नहीं है; यह प्यार, बलिदान और मानवता का एक बड़ा खजाना है। जिस आकर्षण की वजह से इमाम हुसैन (अ) हैं, वह ऐसी परिस्थितियाँ बनाता है जो दुनिया में कहीं और नहीं मिलती हैं।

आपने कहीं देखा है कि एक छोटी लड़की बैठ जाए, सिर पर सीनी रखे और उसमें ज़ायरों (यात्री) के लिए पानी या टिशू रखे? या बिना किसी दावे के जूते पालिश करे, ज़ायरों के पैर मसाज करे, बिना किसी उम्मीद के!

अरबईन में हर चीज़ सबसे बेहतरीन होती है: सबसे बड़ा इज्तेमाअ, सबसे अच्छा स्वागत, सबसे प्यार और सबसे गहरी एकता।

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमोली ने कहा: अरबईन की ज़ियारत (यात्रा) इंसान को बेचैनी और घबराहट से रोकती है। और सय्यद उश शोहदा (अ) का असली मकसद लोगों को शिक्षित और उनका तज़किया करना था। इस रास्ते में उन्होंने अपनी बातों और हाव-भाव से काम किया।

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमोली ने एक लेख में अरबईन की ज़ियारत पर ध्यान देने की बात की और कहा:

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ) ने फ़रमाया: "मोमिन और शिया की पाँच निशानियाँ हैं: 51 रकअत नमाज़ पढ़ना, ज़ियारत अरबईन हुसैनी, दाहिने हाथ में अंगूठी पहनना, मिट्टी पर सज्दा करना और जोर से 'बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्राहीम कहना।"

51 रकअत का मतलब है रोजाना के सत्रह रकअत वाजिब के साथ नाफ़्ला नमाज़ें, जो वाजिब नमाज़ की कमी और कमजोरियों को पूरा करती हैं; खासकर सहर के वक्त नमाज़ ए शब, जो बहुत फायदेमंद है। यह 51 रकअत नमाज़ शियो की खासियत है और पैग़म्बर (स) की मेराज का तोहफा है। शायद नमाज़ की इतनी तारीफ का रहस्य यही है कि इसका तरीका मेराज से आया है और यह इंसान को भी मेराज की तरफ ले जाती है।

ज़ियारत अरबईन की अहमियत सिर्फ़ इसलिए नहीं है कि यह ईमान के निशानों में से है, बल्कि इस हदीस के मुताबिक़ यह वाजिब और नफ़्ल नमाज़ की तरह अहम है। जैसे नमाज़ दीन और शरियत का स्तंभ है, वैसे ही ज़ियारत अरबईन और कर्बला का वाकया विलायत का स्तंभ है।

दूसरे शब्दों में, पैग़म्बर मोहम्मद (स) के फ़रमान के अनुसार: नबूवत का सार (निचोड़) क़ुरआन और इतरत है। إنی تارک فیکم الثقلین... کتاب الله و... عترتی أهل بیتی इन्नी तारेकुन फ़ीकुमुस सक़्लैन ... किताबल्लाह व ... इतरती अहलो बैती किताब खुदा का खुलासा दीने इलाही है उसका एक स्तंभ (मजबूत आधार) नमाज़ है। और इतरत का सार ज़ियारत अरबईन है। ये दोनों स्तंभ इमाम असकरी (अ) हदीस में साथ में बताये गए हैं। लेकिन सबसे जरूरी यह समझना है कि नमाज़ और ज़ियारत अरबईन इंसान को कैसे सच्चा धार्मिक और ईमानदार बनाते हैं।

नमाज़ के बारे में खुद अल्लाह ने बहुत सारी बातें बताई हैं। जैसे कि उसने कहा है: इंसान की फितरत में खुदा पर एकता होनी चाहिए, लेकिन जब बुरी घटनाएं होती हैं तो इंसान बेचैन हो जाता है और जब अच्छी बातें होती हैं तो वह खुश होने से भी खुद रोकता है, सिवाय उन नमाज़ पढने वालों के। ये लोग अपनी फितरत की बुरी आदतों को कंट्रोल कर सकते हैं और बेचैनी, जल्दी गुस्सा होना और रोकने वाली आदतों से दूर रहते हैं और खास दुआओं के हकदार होते हैं।
अल्लाह ने फ़रमाया है: "إنّ الإنسان خلق هلوعاً إذا مسّه الشرّ جزوعاً و إذا مسّه الخیر منوعاً إلّا المصلّین इन्नल इनसाना ख़ोलेक़ा हुलूअन इज़ा मस्सहुश शर्रो जुज़ूआन व इज़ा मस्सहूल ख़ैरो मनूअन इल्लल मुसल्लीन "

ज़ियारत अरबईन भी इंसान को बेचैनी, जल्दबाजी और खुद रोकने वाली आदतों से बचाती है। और कहा गया है कि सय्यद उश शोहदा (अ) का असली मकसद लोगों को शिक्षित और उनका तज़किया करना था। उन्होंने यह काम न केवल अपनी बातों और हाव-भाव से किया, बल्कि अपने जान देने वाले बलिदान से भी। ये दोनों रास्ते मिलकर उनकी खास पहचान हैं।

शुकुफ़ाई अक़्ल दर परतौ ए नहज़त ए हुसैनी, २२७-२२९

गुरुवार, 14 अगस्त 2025 17:47

ज़ियारते अरबईन

सलाम हो हुसैन पर, सलाम हो कर्बला के असीरों पर, सलाम हो कटे हुए सरों पर, सलाम हो प्यासे बच्चों पर, सलाम हो टूटे हुए कूज़ों पर,

सलाम हो उन थके हुए क़दमों पर जो चेहलुम पर हुसैन की माँ कायनात की शहज़ादी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के सामने शोक व्यक्त करने के लिए कर्बला की तरफ़ पैदल चले जा रहे हैं।

सलाम हो उन अज़ादारों पर जो इश्के हुसैन में पैरों में पड़े हुए छालों के साथ पैदल चल रहे है

चेहलुम शीअत और इन्सानियत के इतिहास का ऐसा दिन है जब हर हुसैन का चाहने वाला यह सोंचता है कि चेहलुम के दिन आपके हरम में पहुँच कर आपको पुरसा दे आपके सामने शोक व्यक्त करे।

और यही वह दिन है जिसके बारे में हमारी दुआओं की पुस्तकों में एक ज़ियारत के बारे में लिखा गया है कि इस ज़ियारत को उस दिन पढ़ना चाहिए और वह ज़ियारत है

ज़ियारते अरबईन

ज़ियारते अरबईन के बारे में इमाम हसन अस्करी (अ) फ़रमाते हैं:

 

मोमिन की पाँच निशानियाँ है

  1. एक दिन में 51 रकअत नमाज़ पढ़ना।
  2. दाहिने हाथ में अंगूठी पहनना।
  3. मिट्टी पर सजदा करना।
  4. बिस्मिल्लाह को तेज़ आवाज़ में पढ़ना।
  5. ज़ियारते अरबई पढ़ना।

तो यह वह ज़ियारत है जो मोमिन की निशानियों में से है, अब प्रश्न यह उठता है कि आख़िर इस ज़ियारत में है क्या जो इसको मोमिन की निशानियों में से कहा गया है।

इस लेख में हम संक्षिप्त रूप में ज़ियारते अरबईन के बार में और उसमें क्या बयान किया गया है बताएंगे।

इमाम हुसैन (अ) के मक़ामात

यह वह महान ज़ियारत है जिसमें इमाम हुसैन (अ) के मक़ामात के बयान किया गया है कि इमाम हुसैन कौन थे और उनके क्या मक़ामात थे।

आपके बारे में कहा गया है कि हुसैन ख़ुदा के वली है, इमाम हुसैन अल्लाह के हबीब है हुसैन अल्लाह के ख़लील है।

अब यहा पर यह संदेह न पैदा हो कि यह कैसे हो सकता है कि हुसैन ख़लील और हबीब हों क्योंकि यह तो इब्राहीम और पैग़म्बर थे, तो याद रखिए कि हुसैन को नबियों का वारिस कहा गया है तो जो विशेषताएं पहले के नबियों में थी वही हुसैन में भी मौजूद हैं, अगर इब्राहीम ख़लील हुए तो वह हुसैन का सदक़ा है क्योंकि आयत में कहा गया है कि

وَإِنَّ مِن شِیعَتِهِ لَإِبْرَاهِیمَ.

इब्राहीम उनके शियों में से थे।

फिर कहा गया है कि हुसैन शहीद हैं, शहीद का महत्व क्या है ? शहादत वह स्थान है जो ख़ुदा हर एक को नही देता है

हुसैन असीरे कुरोबात हैं,

यह असीरे कुरोबात क्या है?

इसका अर्थ समझने के लिए इस मिसाल को देखें , कभी आपने किसी भेड़िये को देखा है भेड़िये की आदत यह होती है कि अगर वह किसी भेड़ के गल्ले पर हमला कर दे तो वह आख़िर कितनी भेड़ों को खा सकता है एक या दो इससे अधिक नही लेकिन अगर वह हलमा कर दे तो वह जितनी भेड़ों को पाता है मार देता है खा पाए या न खा पाए, यानी भेड़िये का गुण यह है कि जिसको पाए क़त्ल कर दो अगर एक बेड़िये की यह आदत होती है तो आप सोंचें कि अगर किसी एक भेड़ पर दस भेड़िये हमला कर दें तो उस भेड़ का क्या होगा उसमें क्या बचेगा।

इसी प्रकार इमाम हुसैन (अ) भी थे जब यज़ीदी भेड़ियों ने इमाम हुसैन पर हमला किया तो हुसैन में कुछ नहीं बचा जिसके बताया जा सकता, एक लाश ती जिसका सर कटा हुआ था लिबास नहीं था, जिस्म घोड़ों की टापों से पामाल था, जिस्म टुकड़े टुकड़े हो चुका था।

फ़ातेमा का वह हुसैन कहां था.... जिसे उन्होंने बहुत प्यार से चक्कियां पीस पीस कर पाला था।

हुसैन क़तीले अबरात हैः यानी हुसैन की शहादत रहती दुनिया तक के लिए लोगों के रिए इबरत बन गई।

फ़िर इस ज़ियारत में ज़ियारत पढ़ने वाला कहता है कि मैं गवाही देता हूँ कि हुसैन ख़ुदा के वही हैं उनको शहादत के माध्यम से सम्मान दिया गया.... और हुसैन नबियों के वारिस हैं

हुसैन नबियों के वारिस हैं हर चीज़ में अगर नूह ने अपने ज़माने में तूफ़ान देका तो वारिसे नूह ने हुमराही के तूफ़ान से मुक़ाबला किया अगर मूसा ने अपने ज़माने के फ़िरऔन को ग़र्क़ किया तो वारिसे मूसा ने युग के फ़िरऔर यज़ीद को डिबो दिया, अगर याबूक़ ने अपने यूसुफ़ को खो दिया तो वारिसे याक़ूब हुसैन ने अपने यूसुफ़ अली अक़बर के सीने पर भाला लगा देखा।

फिर इसके बाद इस ज़ियारत में उन लोगों के बारे में कहा गया है जो हुसैन के दुश्मन थे।

किन लोगों ने हुसैन से शत्रुता की

हुसैन के शत्रु वह लोग हैं जिनको इस दुनिया ने धोखा दिया, उन्होंने इस दुनिया के चार दिन के जीवन के लिए रसूल ने नवासे को शहीद कर दिया और सदैव के लिए ख़ुदा का क्रोध ख़रीद लिया, यह लोग दुनिया की चकाचौंध में खो गए और आख़ेरत को भूल गए और उसके बाद

न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम

यह दुनिया क्या है?

दुनिया एक बूढ़ी कुवांरी औरत की तरह है जिसने श्रंगार कर लिया है और इस संसार के सारे लोगों से शादी की है लेकिन किसी हो भी स्वंय पर हावी नहीं होने दिया है और अपने सारे पतियों की हत्या कर दी है।

यह है दुनिया की वास्तविक्ता

न दुनिया मिली और न ही आख़ेरत दुनिया में लानती क़रार पाए और आख़ेरत में नर्क की आग उनका ठिकाना बनी।

यह ज़ियारत बता रही है कि हुसैन के शत्रु सभी आरम्भ से ही बेदीन नहीं थे बल्कि कुछ वह लोग भी थे जो ईश्वर की इबादत करने वाले थे लेकिन जब इम्तेहान का मौक़ा आया तो वह फ़ेल हो गए।

आपने बलअम बाऊर का वाक़ेआ तो सुना ही होगा, वह बलअम जिसके पास इसमे आज़म था जिससे वह बड़े बड़े काम कर सकता था लेकिन उसने इस इसमें आज़म को ख़ुदा के नबी मूसा के मुक़ाबले में प्रयोग किया और हमेशा के लिए ख़ुदा के क्रोध का पात्र बन गया।

इसी प्रकार वह इबादत करने वाले जो ख़ुदा के वली हुसैन के मुक़ाबले में आ गए वह हमेशा के लिए ख़ुदा के क्रोध का पात्र बन गए।

इसके बाद ज़ियारत पढ़ने वाला हुसैन पर सलाम भेजता है, सलाम हो तुम पर हे पैग़म्बर के बेटे मैं गवाही देता हूँ कि आप ख़ुदा की अमानत के अमानतदार हैं... आप मज़लूम शहीद किए गए, ख़ुदा आपका साथ छोड़ देने वालों पर अज़ाब करेगा और उन पर जिन्होंने आपको क़त्ल किया।

फिर कहता है, ख़ुदा लानत करे उस उम्मत पर जिन्होंने आपको क़त्ल किया और उस उम्मत पर जिन्होंने इसको सुना और इस पर राज़ी रहे।

हे ख़ुदा मैं मुझे गवाह बनाता हूँ कि मैं उसका दोस्त हो जिसने उनसे दोस्ती रखी और उनका दुश्मन हो जिन्होंने उनसे शत्रुता दिखाई।

मेरी सहायता आपके लिए तैयार है।

और यही कारण है कि आज जैसा जैसा समय व्यतीत होता जा रही है हुसैन का चेलहुल और अज़ीम होता जा रहा है यह पैदल चलने वालों का काफ़िला बढ़ता जा रहा है आज लोग 1000 से भी अधिक किलोमीटर का फ़ासेला पैदल तै कर के आ रहे हैं ख़तरा है, मौत का डर हैं लेकिन हुसैन के इन आशिक़ों पर किसी चीज़ का असर नहीं है, और इसीलिए कहा गया है कि इमामे ज़माना के ज़ुहूर का समय जितना पास आता जाएगा हुसैन का चेहलुम उनता ही अधिक शानदार और अज़ीम होता जाएगा।

मैं गवाही देता हूँ कि मैं आप पर विश्वास रखता हूँ और आपके पलट कर आने पर मेरा अक़ीदा है मेरा दिल आपके साथ है, मैं आपके साथ हूँ आपके साथ हूँ, आपके शत्रुओं के साथ नहीं हूँ।

ख़ुदा का सलाम हो आपकी आत्मा पर आपके शरीर पर आपके अपस्थित पर अनुपस्थित पर आपके ज़ाहिर और बातिन पर।

अंत में ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हमको हुसैन के सच्चे मानने वालों में शुमार करे

या मौहम्दा सल्ला अलैका मलाएकातुस् समा व हाज़ल हुसैनो मुरम्मेलुम बिद्देमा। मुक़त्तेउल आज़ा व बिनातोका सबाता।

रावी कहता है खुदा  की क़सम मैं हज़रत ज़ैनब के वो बैन फरामोश नही करूँगा। जो उन्होने अपने भाई हुसैन की लाश पर किऐ। आप ग़मनाक अन्दाज़ मे बैन करती थी।

 या मौहम्मद ऐ जददे बुर्जुगवार आप पर आसमान के फरिशते दरुद भेजते है और ये आप हुसैन है कि जो रेत पर अपने खून मे ग़लता है। इसके आज़ा एक दुसरे से जुदा हो चुके है और ये तेरी बेटियाँ है जो क़ैदी बनी हुई है। मैं इन मज़ालिम पर खुदा, मुस्तुफा, अली ए मुरतुज़ा, फातेमा ज़हरा और हमज़ा सैय्यदुश शोहदा की बारग़ाह में शिकायत करती हूँ या मौहम्मदा ये आप का हुसैन है जो सर ज़मीने करबला पर बरहना व उरया पड़ा है औऱ बादे सबा इस पर खाक डाल रही है। ये आपका हुसैन है जो ज़िनाज़ादो के जुल्मो सितम की बिना पर कत्ल किया गया।

वा हुज़्ना।

वा अकबरा।

गोया आज के दिन मेरे जद्दे बुज़ुर्गवार रसूले खुदा इस दुनिया से चले गऐ है।

ऐ मौहम्मद के अस्हाब। ये तुम्हारे पैग़म्बर की औलाद है। जिन को कैदीयो की तरह क़ैद करके ले जा रहे है।

दूसरी रिवायत मे मनकूल है कि हज़रत जैनब ने फरमायाः ऐ रसूल अल्लाह आज आपकी बेटीयाँ क़ैदी है और बेटे क़त्ल हो गऐ और बादे सबा उनपर खाक डाल रही है। ये आपका हुसैन है कि जिसका सिर पसे गर्दन से जुदा किया गया है और  उसका अमामा और चादर लूट ली गई है। मेरे माँ बाप इस पर कुरबान हो उस पर कि जिसके लश्कर को सोमवार के दिन जुल्मो सितम का निशाना बनाया गया। मेरे माँ बाप कुरबान को उस पर कि जिसके खेमो को जला दिया गया।

मेरे बाबा कुरबान हो उस पर कि जिसकी वापसी की उम्मीद नही की जा सकती। और जिस के जख्म ऐसे नही कि जिसका इलाज किया जा सके। मेरे माँ बाप उस पर कुरबान हो जिसपर मैं खुद भी फिदा होना पसंद करती हूँ।

मेरे माँ बाप उस पर कुरबान कि जिसका दिल ग़मो गुस्सा से भरा हुआ था और इसी हाल मे दुनिया से चला गया।

मेरे माँ बाप उस पर फिदा कि जिसको तिशना लब शहीद कर दिया गया।

मेरे माँ बाप फिदा उस पर कि जिसके जद पैगंबरे खुदा हज़रते मौहम्मदे मुस्तुफा है।

इसके बाद रावी कहता है कि जनाबे ज़ैनब के गिरयाओ बुका ने दोस्तो दुश्मन सब को रूला दिया।

(लहूफ)

गुरुवार, 14 अगस्त 2025 17:46

जनाबे ज़ैनब (अ) का शहादत दिवस

हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का जीवन तथा उनका व्यक्तित्व विभिन्न आयामों से समीक्षा योग्य है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम, हज़रत अली अलैहिस्सलाम और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा जैसी हस्तियों के साथ रहने से हज़रत ज़ैनब के व्यक्तित्व पर इन हस्तियों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। हज़रत ज़ैनब ने प्रेम व स्नेह से भरे परिवार में प्रशिक्षण पाया। इस परिवार के वातावरण में, दानशीलता, बलिदान, उपासना और सज्जनता जैसी विशेषताएं अपने सही रूप में चरितार्थ थीं। इसलिए इस परिवार के बच्चों का इतने अच्छे वातावरण में पालन - पोषण हुआ। हज़रत अली अलैहिस्सलाम व फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह के बच्चों में नैतिकता, ज्ञान, तत्वदर्शिता और दूर्दर्शिता जैसे गुण समाए हुए थे, क्योंकि मानवता के सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षकों से उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त किया था।

हज़रत ज़ैनब में बचपन से ही ज्ञान की प्राप्ति की जिज्ञासा थी। अथाह ज्ञान से संपन्न परिवार में जीवन ने उनके सामने ज्ञान के द्वार खोल दिए थे। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों के कथनों के हवाले से इस्लामी इतिहास में आया है कि हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा को ईश्वर की ओर से कुछ ज्ञान प्राप्त था। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अपने एक भाषण में हज़रत ज़ैनब को संबोधित करते हुए कहा थाः आप ईश्वर की कृपा से ऐसी विद्वान है जिसका कोई शिक्षक नहीं है। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा क़ुरआन की आयतों की व्याख्याकार थीं। जिस समय उनके महान पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम कूफ़े में ख़लीफ़ा थे यह महान महिला अपने घर में क्लास का आयोजन करती तथा पवित्र क़ुरआन की आयतों की बहुत ही रोचक ढंग से व्याख्या किया करती थीं। हज़रत ज़ैनब द्वारा शाम और कूफ़े के बाज़ारों में दिए गए भाषण उनके व्यापक ज्ञान के साक्षी हैं। शोधकर्ताओं ने इन भाषणों का अनुवाद तथा इनकी व्याख्या की है। ये भाषण इस्लामी ज्ञान विशेष रूप से पवित्र क़ुरआन पर उस महान हस्ती के व्यापक ज्ञान के सूचक हैं।

हज़रतज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के आध्यात्मिक स्थान की बहुत प्रशंसा की गई है। जैसा कि इतिहास में आया है कि इस महान महिला ने अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अनिवार्य उपासना के साथ साथ ग़ैर अनिवार्य उपासना करने में भी तनिक पीछे नहीं रहीं। हज़रत ज़ैनब को उपासना से इतना लगाव था कि उनकी गणना रात भर उपासना करने वालों में होती थी और किसी भी प्रकार की स्थिति ईश्वर की उपासना से उन्हें रोक नहीं पाती थी। इमाम ज़ैनुलआबेदीन अलैहिस्सलाम बंदी के दिनों में हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के आध्यात्मिक लगाव की प्रशंसा करते हुए कहते हैः मेरी फुफी ज़ैनब, कूफ़े से शाम तक अनिवार्य नमाज़ों के साथ - साथ ग़ैर अनिवार्य नमाज़ें भी पढ़ती थीं और कुछ स्थानों पर भूख और प्यास के कारण अपनी नमाज़े बैठ कर पढ़ा करती थीं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जो अपनी बहन हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के आध्यात्मिक स्थान से अवगत थे, जिस समय रणक्षेत्र में जाने के लिए अंतिम विदाई के लिए अपनी बहन से मिलने आए तो उनसे अनुरोध करते हुए यह कहा थाः मेरी बहन मध्यरात्रि की नमाज़ में मुझे न भूलिएगा।

हज़रतज़ैनब के पति हज़रत अब्दुल्लाह बिन जाफ़र की गण्ना अपने काल के सज्जन व्यक्तियों में होती थी। उनके पास बहुत धन संपत्ति थी किन्तु हज़रत ज़ैनब बहुत ही सादा जीवन बिताती थीं भौतिक वस्तुओं से उन्हें तनिक भी लगाव नहीं था। यही कारण था कि जब उन्हें यह आभास हो गया कि ईश्वरीय धर्म में बहुत सी ग़लत बातों का समावेश कर दिया गया है और वह संकट में है तो सब कुछ छोड़ कर वे अपने प्राणप्रिय भाई हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ मक्का और फिर कर्बला गईं।

न्होंने मदीना में एक आराम का जीवन व्यतित करने की तुलना में कर्बला की शौर्यगाथा में भाग लेने को प्राथमिकता दी। इस महान महिला ने अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ उच्च मानवीय सिद्धांत को पेश किया किन्तु हज़रत ज़ैनब की वीरता कर्बला की त्रासदीपूर्ण घटना के पश्चात सामने आई। उन्होंने उस समय अपनी वीरता का प्रदर्शन किया जब अत्याचारी बनी उमैया शासन के आतंक से लोगों के मुंह बंद थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के पश्चात किसी में बनी उमैया शासन के विरुद्ध खुल कर बोलने का साहस तक नहीं था ऐसी स्थिति में हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने अत्याचारी शासकों के भ्रष्टाचारों का पिटारा खोला। उन्होंने अत्याचारी व भ्रष्टाचारी उमवी शासक यज़ीद के सामने बड़ी वीरता से कहाः हे यज़ीद! सत्ता के नशे ने तेरे मन से मानवता को समाप्त कर दिया है। तू परलोक में दण्डित लोगों के साथ होगा। तुझ पर ईश्वर का प्रकोप हो । मेरी दृष्टि में तू बहुत ही तुच्छ व नीच है। तू ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के धर्म को मिटाना चाहता, मगर याद रख तू अपने पूरे प्रयास के बाद भी हमारे धर्म को समाप्त न कर सकेगा वह सदैव रहेगा किन्तु तू मिट जाएगा।

 हज़रतज़ैनब सलामुल्लाहअलैहा की वीरता का स्रोत, ईश्वर पर उनका अटूट विश्वास था। क्योंकि मोमिन व्यक्ति सदैव ईश्वर पर भरोसा करता है और चूंकि वह ईश्वर को संसार में अपना सबसे बड़ा संरक्षक मानता है इसलिए निराश नहीं होता। जब ईश्वर पर विश्वास अटूट हो जाता है तो मनुष्य कठिनाइयों को हंसी ख़ुशी सहन करता है। ईश्वर पर विश्वास और धैर्य, हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के पास दो ऐसी मूल्यवान शक्तियां थीं जिनसे उन्हें कठिनाईयों में सहायता मिली। इसलिए उन्होंने उच्च - विचार और दृढ़ विश्वास के सहारे कर्बला - आंदोलन के संदेश को फैलाने का विकल्प चुना। कर्बला से लेकर शाम और फिर शाम से मदीना तक राजनैतिक मंचों पर हज़रत ज़ैनब की उपस्थिति, अपने भाइयों और प्रिय परिजनों को खोने का विलाप करने के लिए नहीं थी। हज़रत ज़ैनब की दृष्टि में उस समय इस्लाम के विरुद्ध कुफ़्र और ईमान के सामने मिथ्या ने सिर उठाया था। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का आंदोलन बहुत व्यापक अर्थ लिए हुए था। उन्होंने भ्रष्टाचारी शासन को अपमानित करने तथा अंधकार और पथभ्रष्टता में फंसे इस्लामी जगत का मार्गदर्शन करने का संकल्प लिया था। इसलिए इस महान महिला ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के पश्चात हुसैनी आंदोलन के संदेश को पहुंचाना अपना परम कर्तव्य समझा। उन्होंने अत्याचारी शासन के विरुद्ध अभूतपूर्व साहस का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने जीवन के इस चरण में पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के अधिकारों की रक्षा की तथा शत्रु को कर्बला की त्रासदीपूर्ण घटना से लाभ उठाने से रोक दिया। हज़रत ज़ैनब के भाषण में वाक्पटुता इतनी आकर्षक थी कि लोगों के मन में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की याद ताज़ा हो गई और लोगों के मन में उनके भाषणों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों की शहादत के पश्चात हज़रत ज़ैनब ने जिस समय कूफ़े में लोगों की एक बड़ी भीड़ को संबोधित किया तो लोग उनके ज्ञान एवं भाषण शैली से हत्प्रभ हो गए। इतिहास में है कि लोगों के बीच एक व्यक्ति पर हज़रत ज़ैनब के भाषण का ऐसा प्रभाव हुआ कि वह फूट फूट कर रोने लगा और उसी स्थिति में उसने कहाः हमारे माता पिता आप पर न्योछावर हो जाएं, आपके वृद्ध सर्वश्रेष्ठ वृद्ध, आपके बच्चे सर्वश्रेष्ठ बच्चे और आपकी महिलाएं संसार में सर्वश्रेष्ठ और उनकी पीढ़ियां सभी पीढ़ियों से श्रेष्ठ हैं।

कर्बलाकी घटना के पश्चात हज़रत ज़ैनब ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन को इतिहास की घटनाओं की भीड़ में खोने से बचाने के लिए निरंतर प्रयास किया। यद्यपि कर्बला की त्रासदीपूर्ण घटना के पश्चात हज़रत ज़ैनब अधिक जीवित नहीं रहीं किन्तु इस कम समय में उन्होंने इस्लामी जगत में जागरुकता की लहर दौड़ा दी थी। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने अपनी उच्च- आत्मा और अटूट संकल्प के सहारे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन को अमर बना दिया ताकि मानव पीढ़ी, सदैव उससे प्रेरणा लेती रही। यह महान महिला कर्बला की घटना के पश्चात लगभग डेढ़ वर्ष तक जीवित रहीं और सत्य के मार्ग पर अथक प्रयास से भरा जीवन बिताने के पश्चात वर्ष 62 हिजरी क़मरी में इस नश्वर संसार से सिधार गईं।

 एकबार फिरहज़रत ज़ैबन सलामुल्लाह अलैहा की शहादत की पुण्यतिथि पर हम सभी श्रोताओ की सेवा में हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं। कृपालु ईश्वर से हम यह प्रार्थना करते हैं कि वह हम सबको इस महान हस्ती के आचरण को समझ कर उसे अपनाने का साहस प्रदान करे।

हज़रत हुसैन (अ) विलायत-ए-इलाही के नेता, इमाम आली-मक़ाम जो सत्य और धार्मिकता के उत्थान और झूठ के स्थायी दमन के लिए खड़े हुए, ऐसे शाश्वत हैं और विश्व के इतिहास में अमर आंदोलन, जिसने पहले दिन से सबसे अधिक उत्पीड़ित विद्वानों को प्रेरित किया है, यह खेदजनक है कि सत्य और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए कोई भी बलिदान दिया जा सकता है।

विलायत-ए-इलाही के नेता इमाम हुसैन (अ) का सत्य के उत्थान और असत्य के निरंतर दमन के लिए खड़ा होना दुनिया के इतिहास में एक ऐसा शाश्वत और अमर आंदोलन है, जिसने जरूरतमंद लोगों की यह चाहत पहले दिन से ही है। कहा जाता है कि अधिकारों और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए कोई भी बलिदान दिया जा सकता है, इसीलिए आज जहां भी उपनिवेशवाद और अहंकार के खिलाफ विरोध जताया जाता है, उसे हुसैनवाद की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है। कठिनाइयों और आपदाओं के जवाब में सर्वोच्च इमाम (अ) द्वारा दिया गया सबसे बड़ा बलिदान किसी भी धर्म, पंथ और भौगोलिक सीमाओं से पूरी तरह परे है, और दुनिया जानती है कि सच्चाई और हुसैन (अ) इस्लाम के पाखंडी हैं, जो अल्लाह के रसूल (स) के नशे में हैं और हलाल ईश्वर को मना किया, जिसने हराम किए गए ईश्वर को हलाल किया, जिसने अल्लाह और उसके बंदों के अधिकारों को मार डाला, उन्हें अपमानित किया और उन्हें हमेशा के लिए अपमानित किया और उन्हें अपने पाखंड का सबक सिखाया लोगों के लिए एक सबक इस तरह, मानवता को सम्मान और मूल्य के साथ जीने के लिए एक स्थायी मानचित्र प्रदान किया गया।

कर्बला की त्रासदी अनंत काल की एक महान लड़ाई का नाम है, जिसके बारे में लगातार प्रचार किया जाता है कि धर्म का पुनरुद्धार क्यों अस्तित्व में आया, यह एक अलग जगह है जहां ईश्वरीय इच्छा के उत्तराधिकारी इमाम हुसैन(अ) और उनके अनुयायी और अंसार थे उन्होंने अपने जीवन का बलिदान दिया। उन्होंने एक अनुकरणीय और ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की, जिसकी ताजगी कुरान की आयत "जया अल-हक़ वा ज़हाक अल-बतिलु इन्ना" के बाद भी कम नहीं हुई है अल-बातिल कान ज़हुका" इन शहीदों पर लिखा गया था। मानव के अर्थ को लागू करने से धार्मिकता और सचेत धर्मपरायणता का शाश्वत पाठ प्राप्त हुआ है।

चेतन धार्मिकता और अचेतन धार्मिकता में जमीन-आसमान का अंतर है। हां, हम नियमित रूप से प्रार्थना करते हैं और उपवास करते हैं, लेकिन हम उत्पीड़न, झूठ बोलना, चुगली करना, लोलुपता आदि नैतिक बीमारियों से बीमार हैं। यह अचेतन धार्मिकता है। शोक करने वाले और मातम मनाने वाले लोग हैं, लेकिन वे अहले-बैत (अ) का एक महत्वपूर्ण अधिकार खुम्स का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं हैं, यह हमारी महिलाओं को शोक जुलूसों में भाग लेना चाहिए अपनी नग्नता दिखाने के तरीके से, यह बेहोश पवित्रता है। भले ही रातें कर्बला के शहीदों के शोक में गुजरती हों, लेकिन अगर उन रातों में अनिवार्य सुबह की नमाज़ अदा की जाती है, तो यह बेहोश पवित्रता है चोट लगी है और जिसके कारण उपदेश और पाठ बिल्कुल भी आकर्षक नहीं है और ऐसी स्थिति में धर्म प्रचार का उद्देश्य पूरा नहीं होता है, यह कर्बला की जागरूकता के बिल्कुल विपरीत है और लोग चिंतित हैं, यह इसके लायक नहीं है सचेतन धर्मपरायणता की महिमा |

हम जानते हैं कि अल्लाह के रसूल (स) लोगों के लिए हुज्जत हैं, यानी वही हैं जो दीन के हुक्म जारी करते हैं और शरीयत को विलायत इलाही के जारी करने के लिए नियुक्त किया गया है विलायत अल-फ़क़ीह, जिनका वर्चस्व कर्बला में मौजूद है, कर्बला की लड़ाई प्राचीन काल से समान रूप से लड़ी जा रही है, मानो वह ग़दीर घोषणा के सार को नकारने वालों में से एक हैं और जारी लड़ाई में यज़ीदवाद से लड़ रहे हैं। कर्बला के दृश्य को देखें तो पता चलेगा कि यह शुद्ध चेतन धर्मपरायणता की शाश्वत शिक्षा है।

 हबीब इब्ने मज़ाहिर अलअसदी आपके अलकाब में फाज़िल, कारी, हाफ़िज़ और फकीह बहुत ज्यादा मशहूर है इनका सिलसिला-ऐ-नसब यह है की हबीब इब्ने मज़ाहिर इब्ने रियाब इब्ने अशतर इब्ने इब्ने जुनवान इब्ने फकअस इब्ने तरीफ इब्ने उम्र इब्ने कैस इब्ने हरस इब्ने सअलबता इब्ने दवान इब्ने असद अबुल कासिम असदी फ़कअसी हबीब के पद्रे बुजुर्गवार जनाबे मज़ाहिर हजरते रसूले करीम स० की निगाह में बड़ी इज्ज़त रखते थे रसूले करीम स० इनकी दावत कभी रद्द नहीं फरमाते थे।

आपके अलकाब में फाज़िल, कारी, हाफ़िज़ और फकीह बहुत ज्यादा मशहूर है इनका सिलसिला-ऐ-नसब यह है की हबीब इब्ने मज़ाहिर इब्ने रियाब इब्ने अशतर इब्ने इब्ने जुनवान इब्ने फकअस इब्ने तरीफ इब्ने उम्र इब्ने कैस इब्ने हरस इब्ने सअलबता इब्ने दवान इब्ने असद अबुल कासिम असदी फ़कअसी हबीब के पद्रे बुजुर्गवार जनाबे मज़ाहिर हजरते रसूले करीम स० की निगाह में बड़ी इज्ज़त रखते थे रसूले करीम स० इनकी दावत कभी रद्द नहीं फरमाते थे।

शहीदे सालिस अल्लमा नूर-उल्लाह-शुस्तरी मजलिस-अल-मोमिनीन में लिखते है की हबीब इब्ने मज़ाहिर को सरकारे दो आलम की सोहबत में रहने का भी शरफ हासिल हुआ था उन्होंने उनसे हदीसे सुनी थी।

वो अली इब्ने अबू तालिब अल० की खिदमत में रहे और तमाम लड़ाइयों (जलम,सिफ्फिन,नहरवान) में उन के शरीक रहे शेख तूसी ने इमाम अली इब्ने अबू तालिब और इमाम हसन अलै० और इमाम हुसैन अलै० सब के असहाब में उन का जिक्र किया है।

शबे आशूर एक शब् की मोहलत के लिए जब हजरत अब्बास उमरे सअद की तरफ गए तो हबीब इब्ने मज़ाहिर आप के हमराह थे।

नमाज़े जोहर आशुरा के मौके पर हसीन ल० इब्ने न्मीर की बद-कलामी का जवाब आप ही ने दे दिया था और इसके कहने पर की ‘हुसैन की नमाज़ क़ुबूल न होगी “आप ने बढ़ कर घोड़े के मुंह पर तलवार लगाईं थी और ब-रिवायत नासेख एक जरब से हसीन की नाक उड़ा दी थी।

आप ने मौका-ऐ-जंग में कारे-नुमाया किये थे। आप इज्ने जिहाद लेकर मैदान में निकले और नबर्द आजमाई में मशगूल हो गए यहाँ  तक की बासठ (62) दुश्मनों को कत्ल करके शहीद हो गए।

गुरुवार, 14 अगस्त 2025 17:41

करबला....अक़ीदा व अमल में तौहीद

तौहीद का अक़ीदा सिर्फ़ मुसलमानों के ज़हन व फ़िक्र पर असर अंदाज़ नही होता बल्कि यह अक़ीदा उसके तमाम हालात शरायत और पहलुओं पर असर डालता है। ख़ुदा कौन है? कैसा है? और उसकी मारेफ़त व शिनाख्त एक मुसलमान की फ़रदी और इज्तेमाई और ज़िन्दगी में उसके मौक़िफ़ इख़्तेयार करने पर क्या असर डालती है? इन तमाम अक़ायद का असर और नक़्श मुसलमान की ज़िन्दगी में मुशाहेदा किया जा सकता है।
हर इंसान पर लाज़िम है कि उस ख़ुदा पर अक़ीदा रखे जो सच्चा है और सच बोलता है अपने दावों की मुख़ालेफ़त नही करता है जिसकी इताअत फ़र्ज़ है और जिसकी नाराज़गी जहन्नमी होने का मुजिब बनती है। हर हाल में इंसान के लिये हाज़िर व नाज़िर है, इंसान का छोटे से छोटा काम भी उसे इल्म व बसीरत से पोशीदा नही है... यह सब अक़ायद जब यक़ीन के साथ जलवा गर होते हैं तो एक इंसान की ज़िन्दगी में सबसे ज़्यादा मुवस्सिर उन्सुर बन जाते हैं। तौहीद की मतलब सिर्फ़ एक नज़रिया और तसव्वुर नही है बल्कि अमली मैदान में इताअत में तौहीद और इबादत में तौहीद भी उसी के जलवे और आसार शुमार होते हैं। इमाम हुसैन (अ) पहले ही से अपने शहादत का इल्म रखते थे और उसके ज़ुज़ियात तक को जानते थे। पैग़म्बर (स) ने भी शहादते हुसैन (अ) की पेशिनगोई की थी लेकिन इस इल्म और पेशिनगोई ने इमाम के इंके़लाबी क़दम में कोई मामूली सा असर भी नही डाला और मैदाने जेहाद व शहादत में क़दम रखने से आपको क़दमों में ज़रा भी सुस्ती और शक व तरदीद ईजाद नही किया बल्कि उसकी वजह से इमाम के शौक़े शहादत में इज़ाफ़ा हुआ, इमाम (अ) उसी ईमान और एतेक़ाद के साथ करबला आये और जिहाद किया और आशिक़ाना अंदाज़ में ख़ुदा के दीदार के लिये आगे बढ़े जैसा कि इमाम से मशहूर अशआर में आया है:

ترکت الخلق طرا فی ھواک و ایتمت العیال لکی اراک
कई मौक़े पर आपके असहाब और रिश्तेदारों ने ख़ैर ख़्वाही और दिलसोज़ी के जज़्बे के तहत आपको करबला और कूफ़े जाने से रोका और कूफ़ियों की बेवफ़ाई और आपके वालिद और बरादर की मजलूमीयत और तंहाई को याद दिलाया। अगरचे यह सब चीज़ें अपनी जगह एक मामूली इंसान के दिल शक व तरदीद ईजाद करने के लिये काफ़ी हैं लेकिन इमाम हुसैन (अ) रौशन अक़ीदा, मोहकम ईमान और अपने अक़दाम व इंतेख़ाब के ख़ुदाई होने के यक़ीन की वजह से नाउम्मीदी और शक पैदा करने वाले अवामिल के मुक़ाबले में खड़े हुए और कज़ाए इलाही और मशीयते परवरदिगार को हर चीज़ पर मुक़द्दम समझते थे, जब इब्ने अब्बास ने आप से दरख़्वास्त की कि इरा़क जाने के बजाए किसी दूसरी जगह जायें और बनी उमय्या से टक्कर न लें तो इमाम हुसैन (अ) ने बनी उमय्या के मक़ासिद और इरादों की जानिब इशारा करते हुए फ़रमाया

انی ماض فی امر رسول اللہ صلی اللہ علیہ و آلہ وسلم و حیث امرنا و انا الیہ راجعون
और यूँ आपने रसूलल्लाह (स) के फ़रमूदात की पैरवी और ख़ुदा के जवारे रहमत की तरफ़ बाज़गश्त की जानिब अपने मुसम्मम इरादे का इज़हार किया, इस लिये कि आपने रास्ते की हक्क़ानियत का यक़ीन, दुश्मन के बातिल होने का यक़ीन, क़यामत व हिसाब के बरहक़ होने का यक़ीन, मौत के हतमी और ख़ुदा से मुलाक़ात का यक़ीन, इन तमाम चीज़ों के सिलसिले में इमाम और आपके असहाब के दिलों में आला दर्जे का यक़ीन था और यही यक़ीन उनको पायदारी, अमल की क़ैफ़ियत और राहे के इंतेख़ाब में साबित क़दमी की रहनुमाई करता था।
कलेम ए इसतिरजा (इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहे राजेऊन) किसी इंसान के मरने या शहीद होने के मौक़े पर कहने के अलावा इमाम हुसैन (अ) मंतिक़ में कायनात की एक बुलंद हिकमत को याद दिलाने वाला है और वह हिकमत यह है कि कायनात का आग़ाज़ व अँजाम सब ख़ुदा की तरफ़ से है। आपने करबला पहुचने तक बारहा इस कलेमे को दोहराया ताकि यह अक़ीदा इरादों और अमल में सम्त व जहत देने का सबब बने।
आपने मक़ामे सालबिया पर मुस्लिम और हानी की खबरे शहादत सुनने के बाद मुकर्रर इन कलेमात को दोहराया और फिर उसी मक़ाम पर ख़्वाब देखा कि एक सवार यह कह रहा है कि यह कारवान तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और मौत भी तेज़ी के साथ उनकी तरफ़ बढ़ रही है, जब आप बेदार हुए तो ख़्वाब का माजरा अली अकबर को सुनाया तो उन्होने आप से पूछा वालिदे गिरामी क्या हम लोग हक़ पर नही हैं? आपने जवाब दिया क़सम उस ख़ुदा की जिसकी तरफ़ सबकी बाज़गश्त है हाँ हम हक़ पर हैं फिर अली अकबर ने कहा: तब इस हालत में मौत से क्या डरना है? आपने भी अपने बेटे के हक़ में दुआ की। (1)
तूले सफ़र में ख़ुदा की तरफ़ बाज़गश्त के अक़ीदे को बार बार बयान करने का मक़सद यह था कि अपने हमराह असहाब और अहले ख़ाना को एक बड़ी क़ुरबानी व फ़िदाकारी के लिये तैयार करें, इस लिये कि पाक व रौशन अक़ायद के बग़ैर एक मुजाहिद हक़ के देफ़ाअ में आख़िर तक साबित क़दम और पायदार नही रह सकता है।
करबला वालों को अपनी राह और अपने हदफ़ की भी शिनाख़्त थी और इस बात का भी यक़ीन था कि इस मरहले में जिहाद व शहादत उनका वज़ीफ़ा है और यही इस्लाम के नफ़अ में है उनको ख़ुदा और आख़िरत का भी यक़ीन था और यही यक़ीन उनको एक ऐसे मैदान की तरफ़ ले जा रहा था जहाँ उनको जान देनी थी और क़ुरबान होना था जब बिन अब्दुल्लाह दूसरी मरतबा मैदाने करबला की तरफ़ निकले तो अपने रज्ज़ में अपना तआरुफ़ कराया कि मैं ख़ुदा पर ईमान लाने वाला और उस पर यक़ीन रखने वाला हूँ। (2)

मदद और नुसरत में तौहीद और फक़त ख़ुदा पर ऐतेमाद करना, अक़ीदे के अमल पर तासीर का एक नमूना है और इमाम (अ) की तंहा तकियागाह ज़ाते किर्दगार थी न लोगों के ख़ुतूत, न उनकी हिमायत का ऐलान और न उनकी तरफ़ आपके हक़ में दिये जाने वाले नारे, जब सिपाहे हुर ने आपके काफ़ले का रास्ता रोका तो आपने एक ख़ुतबे के ज़िम्न में अपने क़याम, यज़ीद की बैअत से इंकार, कूफ़ियों के ख़ुतूत का ज़िक्र किया और आख़िर में गिला करते हुए फ़रमाया मेरी तकिया गाह ख़ुदा है वह मुझे तुम लोगों से बेनियाज़ करता है। सयुग़निल्लाहो अनकुम (3) आगे चलते हुए जब अब्दुल्लाह मशरिकी से मुलाक़ात की और उसने कूफ़े के हालात बयान करते हुए फ़रमाया कि लोग आपके ख़िलाफ़ जंग करने के लिये जमा हुए हैं तो आपने जवाब में फ़रमाया: हसबियलल्लाहो व नेअमल वकील (4)
आशूर की सुबह जब सिपाहे यज़ीद ने इमाम (अ) के ख़ैमों की तरफ़ हमला शुरु किया तो उस वक़्त भी आप के हाथ आसमान की तरफ़ बुलंद थे और ख़ुदा से मुनाजात करते हुए फ़रमा रहे थे: ख़ुदाया, हर सख़्ती और मुश्किल में मेरी उम्मीद, मेरी तकिया गाह तू ही है, ख़ुदाया, जो भी हादेसा मेरे साथ पेश आता है उसमें मेरा सहारा तू ही होता है। ख़ुदाया, कितनी सख़्तियों और मुश्किलात में तेरी दरगाह की तरफ़ रुजू किया और तेरी तरफ़ हाथ बुलंद किये तो तूने उन मुश्किलात को दूर किया। (5)

इमाम (अ) की यह हालत और यह जज़्बा आपके क़यामत और नुसरते इलाही पर दिली ऐतेक़ाद का ज़ाहिरी जलवा है और साथ ही दुआ व तलब में तौहीद के मफ़हूम को समझाता है।
दीनी तालीमात का असली हदफ़ भी लोगों को ख़ुदा से नज़दीक करता है चुँनाचे यह मतलब शोहदा ए करबला के ज़ियारत नामों में ख़ास कर ज़ियारते इमाम हुसैन (अ) में भी बयान हुआ है। अगर ज़ियारत के आदाब को देखा जाये तो उनका फ़लसफ़ा भी ख़ुदा का तक़र्रुब ही है जो कि ऐने तौहीद है इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत में ख़ुदा से मुताख़ब हो के हम यूँ कहते हैं कि ख़ुदाया, कोई इंसान किसी मख़लूक़ की नेमतों और हदाया से बहरामद होने के लिये आमादा होता है और वसायल तलाश करता है लेकिन ख़ुदाया, मेरी आमादगी और मेरा सफ़र तेरे लिये और तेरे वली की ज़ियारत के लिये हैं और इस ज़ियारत के ज़रिये तेरी क़ुरबत चाहता हूँ और ईनाम व हदिये की उम्मीद सिर्फ़ तुझ से रखता हूँ। (6)
और इसी ज़ियारत के आख़िर में ज़ियारत पढ़ने वाला कहता है ख़ुदाया, सिर्फ़ तू ही मेरा मक़सूदे सफ़र है और सिर्फ़ जो कुछ तेरे पास है उसको चाहता हूँ। ''फ़ इलैका फ़क़दतो व मा इनदका अरदतो''
यह सब चीज़े शिया अक़ायद के तौहीदी पहलू का पता देने वाली हैं जिनकी बेना पर मासूमीन (अ) के रौज़ों और अवलिया ए ख़ुदा की ज़ियारत को ख़ुदा और ख़ालिस तौहीद तक पहुचने के लिये एक वसीला और रास्ता क़रार दिया गया है और हुक्मे ख़ुदा की बेना पर उन की याद मनाने की ताकीद है।

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हवाले
(1) बिहारुल अनवार जिल्द 44 पेज 367

(2) बिहारुल अनवार जिल्द 45 पेज 17, मनाक़िब जिल्द 4 पेज 101

(3) मौसूअ ए कलेमाते इमाम हुसैन (अ) पेज 377

(4) मौसूअ ए कलेमाते इमाम हुसैन (अ) पेज 378

(5) बिहारुल अनवार जिल्द 45 पेज 4

(6) तहज़ीबुल अहकाम शेख़ तूसी जिल्द 6 पेज 62

करबला के मैदान में दोस्ती, मेहमान नवाज़ी, इकराम व ऐहतेराम, मेहर व मुहब्बत, ईसार व फ़िदाकारी, ग़ैरत व शुजाअत व शहामत का जो दर्स हमें मिलता है वह इस तरह से यकजा कम देखने में आता है। मैंने ऊपर ज़िक किया कि करबला करामाते इंसानी की मेराज का नाम है।

वह तमाम सिफ़ात जिन का तज़किरा करबला में बतौरे अहसन व अतम हुआ है वह इंसानी ज़िन्दगी की बुनियादी और फ़ितरी सिफ़ात है जिन का हर इंसान में एक इंसान होने की हैसियत से पाया जाना ज़रुरी है। उसके मज़ाहिर करबला में जिस तरह से जलवा अफ़रोज़ होते हैं किसी जंग के मैदान में उस की नज़ीर मिलना मुहाल है। बस यही फ़र्क़ होता है हक़ व बातिल की जंग में।

जिस में हक़ का मक़सद, बातिल के मक़सद से सरासर मुख़्तलिफ़ होता है। अगर करबला हक़ व बातिल की जंग न होती तो आज चौदह सदियों के बाद उस का बाक़ी रह जाना एक ताज्जुब ख़ेज़ अम्र होता मगर यह हक़ का इम्तेयाज़ है और हक़ का मोजिज़ा है कि अगर करबला क़यामत तक भी बाक़ी रहे तो किसी भी अहले हक़ को हत्ता कि मुतदय्यिन इंसान को इस पर ताज्जुब नही होना चाहिये।

 अगर करबला दो शाहज़ादों की जंग होती?। जैसा कि बाज़ हज़रात हक़ीक़ते दीन से ना आशना होने की बेना पर यह बात कहते हैं और जिन का मक़सद सादा लौह मुसलमानों को गुमराह करने के अलावा कुछ और होना बईद नज़र आता है तो वहाँ के नज़ारे क़तअन उस से मुख़्तलिफ़ होते जो कुछ करबला में वाक़े हुआ।

वहाँ शराब व शबाब, गै़र अख़लाक़ी व गै़र इंसानी महफ़िलें तो सज सकती थीं मगर वहाँ शब की तारीकी में ज़िक्रे इलाही की सदाओं का बुलंद होना क्या मायना रखता?

असहाब का आपस में एक दूसरों को हक़ और सब्र की तलक़ीन करना का क्या मफ़हूम हो सकता है?। माँओं का बच्चों को ख़िलाफ़े मामता जंग और ईसार के लिये तैयार करना किस जज़्बे के तहत मुमकिन हो सकता है?। क्या यह वही चीज़ नही है जिस के ऊपर इंसान अपनी जान, माल, इज़्ज़त, आबरू सब कुछ क़ुर्बान करने के लिये तैयार हो जाता है मगर उसके मिटने का तसव्वुर भी नही कर सकता।

यक़ीनन यह इंसान का दीन और मज़हब होता है जो उसे यह जुरअत और शुजाअत अता करता है कि वह बातिल की चट्टानों से टकराने में ख़ुद को आहनी महसूस करता है। उसके जज़्बे आँधियों का रुख़ मोड़ने की क़ुव्वत हासिल कर लेते हैं। उसके अज़्म व इरादे बुलंद से बुलंद और मज़बूत से मज़बूत क़िले मुसख़्ख़र कर सकते हैं।

यही वजह है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पाये सबात में लग़ज़िश का न होना तो समझ में आता है कि वह फ़रज़ंदे रसूल (स) हैं, इमामे मासूम (अ) हैं, मगर करबला के मैदान में असहाब व अंसार ने जिस सबात का मुज़ाहिरा किया है उस पर अक़्ल हैरान व परेशान रह जाती है।

अक़्ल उस का तजज़िया करने से क़ासिर रह जाती है। इस लिये कि तजज़िया व तहलील हमेशा ज़ाहिरी असबाब व अवामिल की बेना पर किये जाते हैं मगर इंसान अपनी ज़िन्दगी में बहुत से ऐसे अमल करता है जिसकी तहलील ज़ाहिरी असबाब से करना मुमकिन नही है और यही करबला में नज़र आता है।

 हमारा सलाम हो हुसैने मज़लूम पर

हमारा सलाम हो बनी हाशिम पर

हमारा सलाम हो मुख़द्देराते इस्मत व तहारत पर

हमारा सलाम हो असहाब व अंसार पर।

या लैतनी कुन्तो मअकुम।

 

 

 

बुधवार, 13 अगस्त 2025 11:16

कर्बला के शहीदो का चेहलूम

२० सफर सन् ६१ हिजरी कमरी, वह दिन है जिस दिन हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों को कर्बला में शहीद कर दिया गया उसी की याद में चेहलूम मानाने असीराने कर्बला आए आज उन्हें शहीदों की याद में ज़ायरीन कर्बला की तरफ चेहलूम मनाने जा रहे हैं।

२० सफर सन् ६१ हिजरी कमरी, वह दिन है जिस दिन हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों को कर्बला में शहीद हुए चालिस दिन हुआ था। पूरी सृष्टि चालिस दिन से हज़रत इमाम हुसैन के शोक में डूबी हुई थी।

जिन लोगों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता करने की आवाज़ सुनी परंतु उनकी सहायता के लिए नहीं गये ऐसे लोगों को अपना वचन तोड़ने की पीड़ा चालिस दिनों से सता रही थी। चालिस दिन हो रहे थे जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कारवां में जीवित बच जाने वाले बच्चों और महिलाओं का शोक उनके हृदयविदारक दुःख का परिचायक था।

चालिस दिन के बाद कर्बला का लुटा हुआ कारवां शाम अर्थात वर्तमान सीरिया से दोबारा कर्बला पहुंचा है। इस कारवां में वे महिलाएं और बच्चे थे जिनके दिल टूट हुए थे और उन्हें पवित्र नगर मदीना भी लौटना था। जब यह कारवां शाम अर्थात वर्तमान सीरिया से दोबारा कर्बला पहुंचा तो उसे दसवीं मोहर्रम के दिन की घटनाओं की याद आ गयी। महिलाओं और बच्चों की रोने की आवाज़ कर्बला के मरुस्थल में गूंजने लगी।

दसवीं मोहर्रम ही वह दुःखद दिन था जब हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके ७२ निष्ठावान साथियों को तीन दिन का भूखा- प्यासा शहीद कर दिया गया था। हर माता अपने शहीद की क़ब्र पर विलाप कर रही थी। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ज्येष्ठ सुपुत्र हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम शहीदों की क़ब्रों को देख रहे थे।

उन्हें याद आया कि जब उनको इन शहीदों विशेषकर अपने पिता के घायल शरीर को कर्बला रेत पर छोड़कर जाना पड़ा था तो उनका मन किस सीमा तक दुःखी था परंतु उन्हें उनकी फूफी हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने सांत्वनापूर्ण वाक्यों से ढारस बंधाई थी और कहा था" जो कुछ तुम देख रहे हो उससे बेचैन मत हो।

ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मानने वालों के एक गुट से वचन लिया है कि वह बिखरे हुए और खून से लथपथ शरीर के अंगों को एकत्रित करेगा और दफ्न करेगा। वह गुट इस धरती पर तुम्हारे पिता की क़ब्र पर ऐसा चिन्ह लगा देगा जो समय बीतने के साथ न तो नष्ट होगा और न ही मिटेगा। अनेकेश्वरवादी और पथभ्रष्ठ लोग उसे मिटाने का प्रयास करेंगे परंतु उनका प्रयास तुम्हारे पिता की और प्रसिद्धि का कारण बनेगा"हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की भविष्यवाणी पूर्णरूप से सही थी।

इतिहास में आया है कि कर्बला के अमर शहीदों के पवित्र शवों को बनी असद क़बीले के लोगों ने दफ्न किया। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का शोकाकुल परिवार शहीदों के अन्य परिजनों के साथ तीन दिन तक कर्बला में रुका रहा और उसने अपने प्रियजनों का शोक मनाया।

इतिहास में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के एक साथी जाबिर बिन अब्दुल्लाह, जो नेत्रहीन थे, बनी हाशिम के क़बीले के कुछ व्यक्तियों के साथ पवित्र मदीना नगर से कर्बला इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र के दर्शन के लिए आये थे। उस समय जब इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने जाबिर को देखा तो कहा" हे जाबिर ईश्वर की सौगन्ध यहीं पर हमारे पुरुषों की हत्या की गई, हमारी महिलाओं को बंदी बनाया गया और हमारे ख़ैमों को जलाया गया"जाबिर ने अपने साथियों से कहा कि वे उन्हें हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र के पास ले चलें।

जाबिर ने अपने हाथ को हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र पर रखा और इतना रोये कि बेहोश हो गये। जब होश आया तो उन्होंने कई बार हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का नाम अपनी ज़बान से लिया और उन्हें पुकार कर कहा" मैं गवाही देता हूं कि आप सर्वश्रेष्ठ पैग़म्बर और सबसे बड़े मोमिन के सुपुत्र हैं। आप सबसे बड़े सदाचारियों की गोदी में पले हैं।

आपने पावन जीवन बिताया और इस दुनिया से पवित्र गये और मोमिनों के हृदयों को अपने वियोग से दुःखी व क्षुब्ध कर दिया तो आप पर ईश्वर का सलाम हो"हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह भी, जिनकी दुख में डूबी आवाज़ दिलों को रुला रही थी, अपने प्राणप्रिय भाई हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ब्र के निकट बैठ गयीं और धीरे- धीरे अपने भाई से बात करना और विलाप करना आरंभ किया।

हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह का हृदय दुःखों से भरा हुआ था परंतु वे कर्बला के महाआंदोलन के बाद की अपनी ज़िम्मेदारियों के बारे में सोच रही थीं। कर्बला की अमर घटना को शताब्दियों का समय बीत चुका है परंतु यह घटना आज भी चमकते सूरज की भांति अत्याचार व अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का मार्ग दिखाती है।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन के अमर होने का एक कारण उसकी पहचान व स्वरूप है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने महाआंदोलन के आरंभ से कुछ सिद्धांतों को प्रस्तुत किया जिसे हर पवित्र प्रवृत्ति स्वीकार करती और उसकी सराहना करती है।

आज़ादी, न्यायप्रेम और अत्याचार से संघर्ष सदैव ही इतिहास में पवित्र सिद्धांत रहे हैं। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन का लक्ष्य विशुद्ध इस्लाम को मिलावटी इस्लाम से अलग करना था। पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के पश्चात अधिकांश शासक इस्लामी शिक्षाओं को अपने हितों की दिशा में प्रयोग करने का प्रयास करते थे। वे खोखला और फेर बदल किया हुआ इस्लाम चाहते थे ताकि अनभिज्ञ लोगों पर सरलता से शासन कर सकें।

इसी कारण अमवी शासक और उनके बाद की अत्याचारी सरकारें अपनी इच्छा के अनुसार इस्लाम की व्याख्या और उसका प्रचार- प्रसार करती थीं। हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने लोगों को दिग्भ्रमित करने में बनी उमय्या की भूमिका का विश्लेषण करते हुए बड़े गूढ बिन्दु की ओर संकेत किया और कहा" बनी उमय्या ने लोगों के लिए ईमान की पहचान का मार्ग खुला रखा परंतु अनेकेश्वरवाद की पहचान का मार्ग बंद कर दिया।

ऐसा इसलिए किया कि जब वह लोगों को अनेकेश्वरवाद के लिए बुलाए तो लोगों को अनेकेश्वरवाद की पहचान ही न रहे"बनी उमय्या ने नमाज़, रोज़ा और हज जैसे धार्मिक दायित्वों को खोखला करने का बहुत प्रयास किया ताकि लोग इन उपासनाओं के केवल बाह्यरूप पर ध्यान दें। क्योंकि यदि लोग इस्लाम की जीवन दायक शिक्षाओं से अवगत हो जाते तो बनी उमय्या के अत्याचारी शासक अपनी सरकार ही बाक़ी नहीं रख सकते थे। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अनुसार सत्ता उच्च मानवीय लक्ष्यों को व्यवहारिक बनाने का साधन है।

इस आधार पर आप बल देकर कहते हैं कि मैंने सत्ता की प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि ईश्वरीय धर्म के चिन्हों को पहचनवाने के लिए आंदोलन किया। उस अज्ञानता व घुटन के काल में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़िम्मेदारी यह थी कि वे अमवी शासकों की वास्तविकताओं को स्पष्ट करें और इस्लामी क्षेत्रों को इस प्रकार के अयोग्य, और भ्रष्ठ शासकों व लोगों से मुक्ति दिलायें। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मानना था कि समाज की गुमराही, धार्मिक शिक्षाओं से दूरी का परिणाम है।

क्योंकि महान ईश्वर से दूरी मनुष्य को ऐसी घाटी में पहुंचा देती है जहां वह स्वयं से बेगाना हो जाता है। यह वह वास्तविकता है जो हर समय और हर क्षेत्र में जारी है। जिस समय लोग अत्याचारी व भ्रष्ठ शासकों का अनुसरण आरंभ कर देंगे उस समय समाज अपने स्वाभाविक व प्राकृतिक मार्ग से हट जायेगा।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसे महान व्यक्ति इस बात को नहीं देख सकते थे कि ग़लत लोग, लोगों को ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की दासता स्वीकार करने पर बाध्य करें। जब इस्लाम प्रतिष्ठा, स्वतंत्रता और न्याय का धर्म है तो वह किस प्रकार मनुष्यों के अपमान व दासता को स्वीकार करे और अत्याचार के मुक़ाबले में मौन धारण करे? हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने दर्शा दिया कि जहां पर धर्म का आधार ख़तरे में है, जहां अत्याचार से सांठ- गांठ कर लेना मानवता एवं उच्च मानवीय मूल्यों की हत्या समान है वहां मौन धारण करना ईश्वरीय व्यक्तियों की शैली नहीं है।

हज़रत इमाम हुसैन के महाआंदोलन के अमर होने का एक कारण हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम, जनाब ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा और दूसरे इमामों तथा महान हस्तियों की दूरगामी सोच एवं इस महाआंदोलन के लक्ष्यों को पहचनवाने हेतु उनके प्रयास हैं। बनी उमय्या ने अफवाहें फैलाकर, संदेह उत्पन्न करके और दुष्प्रचार के दूसरे मार्गों का प्रयोग करके वास्तविकता को छिपाने का प्रयास किया और कर्बला की एतिहासिक घटना में असमंजस व संदेह उत्पन्न करने का प्रयास किया परंतु उन सबका प्रयास कर्बला की एतिहासिक घटना के पहले दिन से ही परिणामहीन रहा। क्योंकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन का संदेश पहुंचाने वाले विवेकशील और समय की पूर्ण पहचान रखने वाले लोग थे। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबदीन अलैहिस्सलाम और हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के विभिन्न स्थानों पर दिये जाने वाले एतिहासिक भाषणों ने यज़ीदियों के चेहरों पर पड़ी नक़ाब को हटा दिया और उन्हें बुरी तरह अपमानित कर दिया।

इतिहासकारों ने लिखा है कि हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह की आवाज़ का प्रभाव ऐसा था कि सांस सीनों में रूक जाती थी। उनके भाषण की शैली ऐसी थी कि कूफा नगर के बड़े- बूढे कहते थे कि धन्य है ईश्वर! मानो अली की आवाज़ है जो उनकी बेटी ज़ैनब के गले से निकल रही है। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने कूफावासियों को संबोधित करते हुए कहा" ईश्वर का आभार व्यक्त करती हूं और अपने नाना मोहम्मद, चयनित और पवित्र लोगों पर सलाम भेजती हूं।

हे कूफे के लोगों! हे धोखेबाज़ो और बेवफा लोग तुम लोग उस महिला की भांति हो जो रूई से धागा बुनती है और फिर धागे को रूई बना देती है। तुमने अपने ईमान को अपने जीवन और पाखंड का साधन बना रखा है और तुम्हारी दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारे अंदर आत्ममुग्धता, झूठ, अकारण शत्रुता, तुच्छता और दूसरों पर आरोप लगाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। तुम किस तरह अंतिम पैग़म्बर के पौत्र और स्वर्ग के युवाओं के सरदार की हत्या के कलंक को स्वयं से मिटाओगे। तुम लोगों ने उसकी हत्या की है जो उन लोगों के लिए शरण था जिनके पास कोई शरण नहीं थी, वह परेशान लोगों का सहारा और धर्म व ज्ञान का स्रोत था।

हुसैन मानवता का सत्य की ओर मार्गदर्शन करने वाले, राष्ट्र व समुदाय के अगुवा और ईश्वर के प्रतिनिधि थे। उनके माध्यम से तुम्हारा मार्गदर्शन होता था। उनकी छत्रछाया में तुम्हें कठिनाइयों में आराम मिलता था और उनके प्रकाश से तुम्हें गुमराही से मुक्ति मिलती थी। जान लो कि तुमने बहुत बुरा पाप किया है जिसके कारण तुम ईश्वर की दया से दूर हो गये हो। तुम्हारा प्रयास विफल हो गया है।

ईश्वर के दरबार से तुम्हारा संपर्क टूट गया है और तुमने अपने सौदे में घाटा उठाया है। तुम्हारे पास अब पछताने और हाथ मलने के अतिरिक्त कुछ नहीं है, तुम ईश्वरीय क्रोध के पात्र बन गये हो और तुम्हें अपमान का सामना है" हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के स्पष्ट करने वाले भाषणों के साथ हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का जागरुक भरा भाषण बनी उमय्या के लक्ष्यों के मार्ग की बाधा बन गया।

पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की होशियारी व जानकारी ने आशूरा की एतिहासिक घटना को इतिहास की अमर घटना के रूप में सुरक्षित रखा। पैग़म्बरे इस्लाम के वंश से पवित्र इमामों ने शत्रुओं के प्रचारों और वास्तविकताओं में फेर -बदल करने हेतु उनके प्रयासों को रोकने और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन को अनुचित दर्शाने हेतु शत्रुओं के प्रयासों को विफल बनाने के लिए इस महाआंदोलन के लक्ष्यों को बयान किया। इमामत का महत्व और उसके स्थान को बयान करना तथा समाज में योग्य व भला नेतृत्व, बनी उमय्या के वास्तविक चेहरों को पहचनवाना और उनके अपराधों को स्पष्ट करना इमामों का ईश्वरीय दायित्व था। कर्बला की हृदयविदारक घटना और शहीदों की याद में शोक सभाओं का आयोजन, हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके निष्ठावान साथियों पर पड़ने वाली विपत्तियों पर रोना भी प्रभावी शैली थी जिसका पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने सहारा लिया ताकि कर्बला की अमर व एतिहासिक घटना को फेर- बदल एवं भूलाये जाने से सुरक्षित रखा जा सके।

इस आधार पर कर्बला का महाआंदलन इस्लामी जगत की भौगोलिक सीमा में सीमित नहीं रहा और वह विश्व के स्वतंत्रता प्रेमियों के लिए आदर्श पाठ बन गया। इस प्रकार से कि ग़ैर मुसलमानों ने भी इस महाआंदोल से प्रेरणा ली है। यह वही पैग़म्बरे इस्लाम के वचन का व्यवहारिक होना है जिसमें आपने कहा है कि हुसैन की शहादत के बाद मोमिनों के हृदयों में एक आग जल उठेगी जो कदापि ठंडी नहीं होगी और न बुझेगी