رضوی
तेल अवीव से अधिक यहूदियों ने पलायन किया
एक इज़रायली मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो सालों में बड़ी संख्या में इज़रायली बस्तियों में रहने वाले लोग राजनीतिक संकट बढ़ने और सरकार पर भरोसा घटने की वजह से क़ब्ज़े वाले इलाकों को छोड़ रहे हैं।
अख़बार द मार्कर ने आज रिपोर्ट में बताया कि हाल के वर्षों में बसने वालों के बीच असामान्य स्तर का पलायन देखा गया है। इस मीडिया ने आधिकारिक आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि औसतन हर महीने 6,016 बसने वाले क़ब्ज़े वाले इलाकों को छोड़ रहे हैं, जो मौजूदा सरकार के आने से पहले के चार साल की तुलना में लगभग दोगुना है।
रिपोर्ट के अनुसार, जाने वालों में से वापस लौटने वालों को हटाकर की संख्या भी बढ़कर हर महीने 3,910 हो गई है, जबकि पहले यह संख्या सिर्फ 1,146 थी। रिपोर्ट यह भी दिखाती है कि पलायन करने वालों में ज़्यादातर पढ़े-लिखे युवा हैं, और 2024 में 14 प्रतिशत पलायन के साथ तेल अवीव सबसे ऊपर है, जबकि 2010 में यह संख्या लगभग 9.6 प्रतिशत थी।
इसके साथ ही द मार्कर चेतावनी देता है कि, जारी राजनीतिक संकट और गहरे आंतरिक मतभेद, साथ ही सरकार और आधिकारिक संस्थाओं पर भरोसे में आई कमी, इस पलायन को और तेज़ कर सकते हैं। इज़रायली कैबिनेट ने अब तक इस मुद्दे पर कोई औपचारिक चर्चा नहीं की है और न ही बसने वालों के पलायन को रोकने के लिए कोई कदम उठाया है।
अख़बार के अनुसार, तेल अवीव सुरक्षा और सामाजिक नाकामियों का जवाब देने के बजाय समस्याओं पर पर्दा डालने की नीति अपना रहा है और 7 अक्टूबर की घटनाओं की स्वतंत्र जांच समिति बनाने से भी बच रहा है।
प्रतिरोध मोर्चे के पतन का मतलब आत्मसमर्पण है, इसलिए प्रतिरोध जारी रहेगा: हिज़्बुल्लाह
लेबनानी संसद में प्रतिरोध मोर्चा गठबंधन पार्टी के सदस्य श्री हसन इज़ अल-दीन ने कहा है कि आत्मसमर्पण करना प्रतिरोध मोर्चा के पतन के समान है, इसलिए हम किसी भी परिस्थिति में आत्मसमर्पण नहीं करेंगे।
लेबनानी संसद में प्रतिरोध मोर्चा के वफ़ादारी गठबंधन के वरिष्ठ सदस्य हसन इज़्ज़ अल-दीन ने यूसुफ़ अहमद के नेतृत्व वाले फ़िलिस्तीन मुक्ति लोकतांत्रिक मोर्चे के एक उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल के साथ एक बैठक में ज़ोर देकर कहा कि घेराबंदी, दबाव और धमकियों के बावजूद, अमेरिकी आज तक इस क्षेत्र पर नियंत्रण हासिल नहीं कर पाए हैं।
हसन इज़्ज़ अल-दीन ने ज़ोर देकर कहा कि प्रतिरोध के सामने केवल दो ही मैदान हैं: युद्ध का मैदान और नरसंहार का मैदान। नरसंहार के इस मैदान में दुश्मन जीत गया, लेकिन युद्ध के मैदान में न तो उसे जीत मिली और न ही उसने अपने लक्ष्य हासिल किए, ठीक वैसे ही जैसे प्रतिरोध के शहीद सैयद हसन नसरल्लाह ने 7 अक्टूबर को प्रतिरोध अभियान शुरू होने के बाद अपने पहले भाषण में स्पष्ट रूप से कहा था कि हम हमास और फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध को कमज़ोर नहीं होने देंगे, क्योंकि उनका पतन पूरे प्रतिरोध मोर्चे का पतन है, इसलिए इस प्रतिरोध के लिए हमारा समर्थन इस दृढ़ विश्वास और पूरी समझ पर आधारित है कि हमारी रक्षा एक निवारक रक्षा है।
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि अपनी विशाल तकनीकी श्रेष्ठता के बावजूद, इज़राइल ने कभी कोई युद्ध नहीं जीता है, क्योंकि केवल सैन्य श्रेष्ठता ही किसी संघर्ष का परिणाम निर्धारित नहीं कर सकती, और विजय प्राप्त करने के लिए भौतिक तत्व, यानी हथियार और तकनीक के साथ-साथ आध्यात्मिक तत्व, यानी इच्छाशक्ति, इरादे और जुनून, की भी आवश्यकता होती है।
लेबनान के सांसद ने आगे कहा कि यही कारण है कि प्रतिरोध जीत हासिल करने में सक्षम रहा, क्योंकि उसके पास दोनों तत्व मौजूद हैं, जबकि दुश्मन के पास केवल पहला तत्व है, दूसरा नहीं।
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि अमेरिकियों का तर्क "शक्ति का तर्क" है, लेकिन वे उत्पीड़न और ज़बरदस्ती से शासन नहीं कर सकते, क्योंकि शासन उत्पीड़न से नहीं, बल्कि न्याय से स्थापित होता है; इसलिए, यह इच्छा बनी हुई है और बनी रहेगी।
हसन इज़्ज़ अल-दीन ने कहा कि गाज़ा में जो हुआ, वही लेबनान में भी हो रहा है, क्योंकि दुश्मन यहाँ भी अपनी नीति लागू करना चाहता है, इसलिए प्रतिरोध को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने के लिए आर्थिक, वित्तीय, सामाजिक और कानूनी दबाव डाला जा रहा है।
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि हालाँकि, हमारी स्थिति स्पष्ट है और वह यह है कि हम मृत्यु को स्वीकार करेंगे, लेकिन हथियार नहीं डालेंगे। हम किसी भी परिस्थिति में घुटने नहीं टेकेंगे, क्योंकि यह कृत्य शहीदों के खून के साथ विश्वासघात होगा।
अल-वफ़ा अल-मुकावमा के वरिष्ठ सदस्य ने लेबनानी सरकार से आह्वान किया कि वह अपना रुख सुधारे और दुश्मन को युद्धविराम लागू करने, आक्रामक अभियानों को समाप्त करने, लेबनानी क्षेत्र के अंदर कब्ज़े वाले इलाकों से हटने और कैदियों को रिहा करने के लिए मजबूर करे, क्योंकि ये प्रस्ताव 1701 के सहमत प्रावधानों में से हैं, जिन्हें अमेरिकी हरी झंडी के तहत दुश्मन लगातार लागू करने से बचता रहा है।
सभी इस्लामी स्रोत हज़रत फातेमा ज़हेरा स.अ. के उच्च दर्जे और हैसियत पर एकमत हैं
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मोहम्मद तकी रहबर ने कहा,मुस्लिम महिलाओं को चाहिए कि वे अपने जीवन के सभी पहलुओं में मकतब ए फातेमी से सबक लें हज़रत फातेमा ज़हरा स.अ. ईमान, पवित्रता, ज्ञान और संघर्ष का सही नमूना हैं और मुस्लिम महिलाओं के लिए हर क्षेत्र में सबसे अच्छा आदर्श हैं।
इस्लामिक सलाहकार परिषद के प्रतिनिधि हुजतुल इस्लाम वलमुस्लिमीन मोहम्मद तकी रहबर ने हज़रत फातेमा ज़हरा स.अ.के उच्च दर्जे की ओर इशारा करते हुए कहा,सभी इस्लामी स्रोत, चाहे शिया हों या अहले सुन्नत, इस महान हस्ती के दर्जे और हैसियत पर एकमत हैं। प्रामाणिक अहले सुन्नत स्रोतों जैसे सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम में फज़ाइल-ए-फातेमा के शीर्षक से अलग अध्याय मौजूद हैं जो हज़रत ज़हरा (स.अ.) के उच्च दर्जे का सबूत हैं।
उन्होंने कहा, हज़रत फातेमा ज़हेरा स.अ. का दर्जा इतना ऊंचा है कि पैगंबर-ए-इस्लाम (स.अ.व.) ने फरमाया,
إنما فاطمه بضعة منی یؤذینی ما آذاها
यानी फातिमा मेरा एक टुकड़ा हैं, जो उन्हें तकलीफ देता है वह मुझे तकलीफ देता है। एक और रिवायत में है,फातिमतु ज़हरा सैय्यदतु निसाइ अहलिल जन्नह" यानी फातिमा जन्नत की औरतों की सरदार हैं। सहीह बुखारी के पांचवें खंड में हज़रत ज़हरा (स.अ.) की नमाज़ों के बाद और सहर (सुबह) के समय की दुआएं और मुनाजात भी दर्ज हैं जिन्हें बाद में एक अलग किताब के रूप में छापा गया है।
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मोहम्मद तकी रहबर ने कहां,हज़रत ज़हेरा (स.अ.) की शख्सियत के वैश्विक प्रभाव की ओर इशारा करते हुए कहा, सऊदी अरब के एक बुद्धिजीवी डॉक्टर अब्दुह यमानी ने "इन्नहा फातिमतुज़ ज़हरा" नाम से किताब लिखी है जिसका फारसी अनुवाद उन्होंने खुद "फातिमतुज़ ज़हेरा" नाम से प्रकाशित किया।
उन्होंने इस किताब के दो चुने हुए वाक्यों का जिक्र करते हुए कहा, फातेमा का इतिहास बयान करना असल में इस्लामी उम्मत के बुनियादी इतिहास को पेश करना है; शुरुआत की पीड़ा और मुसीबतें, रिसालत के शुरुआती दौर की जद्दोजहद, कुरैश के ज़ुल्म के दौर में पैगंबर-ए-इस्लाम (स.अ.व.) के साथ डटे रहना, बाप के साथ हर कदम पर खड़ी वह बाअ़िज़्ज़त, बहादुर, आज्ञाकारी, अमानतदार और अदब वाली बेटी, जो मुस्तफा (स.अ.व.) की झलक थी और मदरसा-ए-नबूवत में तरबियत पाकर ऊंचे अखलाकी फज़ाइल के साथ फरिश्तों के हमदर्जा बन गई। इस्लामी उम्मत खासकर महिलाएं इस महान खातून-ए-इस्लाम से सबक लेती हैं।
इस्लामिक सलाहकार परिषद के प्रतिनिधि ने कहा,इस्लामी उम्मत खासकर मुस्लिम महिलाएं और बेटियां अपने जीवन के हर पहलू में हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ.) से सीख लें।
मुबल्लीग़े दीन का व्यवहार उसकी तकरीर से अधिक प्रभावशाली होती है
हौज़ा ए इल्मिया चहार महाल बख़्तियारी के प्रबंधक ने कहा, एक धर्म प्रचारक का व्यवहार उसके भाषण से अधिक प्रभाव रखता है। प्रचार तभी प्रभावी साबित होता है जब दीन प्रचारक बच्चों और युवाओं की भाषा में उनसे संवाद करने से परिचित हों और वर्तमान पीढ़ी की वास्तविक आवश्यकताओं को समझकर उनसे प्रभावी संपर्क स्थापित करें।
ईरान के प्रांत चहार महाल व बख़्तियारी में हौज़ा ए इल्मिया के प्रबंधक हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन इसहाक सईदी ने अपनी बातचीत के दौरान मदरसों और बच्चों, युवाओं के बीच प्रचार और शैक्षणिक गतिविधियों में लगे उलेमा और प्रचारकों तथा सांस्कृतिक जिम्मेदारों के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा,याद रखें कि एक मुबल्लीग़े दीन का व्यवहार उसके भाषण से अधिक प्रभावशाली होता है।
उन्होंने हाल के वर्षों में जटिल सॉफ्ट वॉर का उल्लेख करते हुए कहा, आज दुश्मन ने युवाओं को निशाना बना लिया है और उनके ईमान और उम्मीदों पर हमला कर रहा है। अगर युवा का ईमान और उम्मीद छीन लिया जाए तो बाकी सभी मंसूबे खुद युवाओं के हाथों पूरे करा लिए जाते हैं।
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सईदी ने कहा, आज असली युद्ध न तो मिसाइल का है और न ही ड्रोन का, बल्कि असली युद्ध दिमागों और मनोविज्ञान का युद्ध है। दुश्मन दिमागों पर कब्ज़ा कर रहा है और उनके साथ खेल रहा है, इसलिए हमें इस हमले का मुकाबला करना होगा।
उन्होंने कहा,हमें समाज के साझा मूल्यों पर काम करना चाहिए, जैसे माता-पिता का सम्मान, सच्चाई, दयालुता, दोस्तों की मदद, शिष्टाचार, शिक्षक का सम्मान जैसे मामले जो हमारी आने वाली पीढ़ी की मजबूत शिक्षा की नींव हैं।
अय्यामे फातेमीया का जिंदा रखना दीन की सबसे बड़ी खिदमत है।आयतुल्लाहिल उज़्मा वहीद खुरासानी
आयतुल्लाहिल उज़्मा वहीद खुरासानी ने जोर देकर कहा कि वर्तमान युग में दीन की सबसे महत्वपूर्ण और सबसे बड़ी सेवा अय्यामे फातेमीया का पुनरुत्थान है। हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा कि सीरत की विशेषता यह है कि उनके पवित्र जीवन में "तवल्ला" और "तबर्रा" दोनों सिद्धांत पूरी महानता के साथ एकत्रित हैं और इन सिद्धांतों की पहचान ही अय्याम-ए-फातिमा के पुनरुत्थान का वास्तविक उद्देश्य है।
आयतुल्लाहिल उज़्मा वहीद खुरासानी ने कहा कि हज़रत ज़हेरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत वास्तव में एक ऐसा मामला है जिसे जीवित रखना उम्मत की जिम्मेदारी है, क्योंकि यह मामला न केवल ऐतिहासिक है बल्कि इसकी एक आस्थागत स्थिति भी है।
उन्होंने सिद्दीक़ा ए ताहिरा सलामुल्लाह अलैहा के रात में दफन होने से संबंधित एक रिवायत बयान करते हुए कहा असबग़ बिन नबाता कहते हैं कि अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम से पूछा गया कि हज़रत फातिमा सलामुल्लाह अलैहा को रात के समय क्यों दफनाया गया?
इमाम अलैहिस्सलाम ने फरमाया,फातेमा सलामुल्लाह अलैहा एक समूह से नाराज थीं और नहीं चाहती थीं कि वे उनकी नमाज-ए-जनाजा या अंतिम संस्कार में शामिल हों। और जो व्यक्ति उन लोगों की वलायत (शासन/अधिकार) रखता हो, उसके लिए फातिमा के किसी भी बेटे की नमाज-ए-जनाजा पढ़ना हराम है। (अल-अमाली, शैख सदूक, पृष्ठ 755)
आयतुल्लाह वहीद खुरासानी ने फरमाया,आखिर वह कौन सा जुल्म था जिस पर फातिमा ज़हेरा सलामुल्लाह अलैहा गुस्से में थीं? क्या वजह थी कि उन्होंने साफ घोषणा कर दी कि कुछ लोग मेरे अंतिम संस्कार में शामिल न हों? इन सवालों पर विचार ही अय्याम-ए-फातेमीया के पुनरुत्थान का सार है।
उन्होंने कहा कि अय्याम-ए-फातेमीया का पुनरुत्थान सिर्फ मजलिसों और मातम का नाम नहीं है, बल्कि उन सच्चाइयों को दुनिया के सामने पेश करना है जो हज़रत ज़हेरा सलामुल्लाह अलैहा ने अपने कर्म, विरोध और वसीयत के जरिए उम्मत तक पहुंचाए।
सऊदी अरब में उमराह करने गए 42 भारतीयों की बस दुर्घटना में मौत
सोमवार तड़के सऊदी अरब के मुफ़रीहाट क्षेत्र के पास एक दर्दनाक सड़क दुर्घटना हुई, जिसमें मक्का से मदीना की ओर जा रही एक बस एक डीज़ल टैंकर से टकरा गई शुरुआती आधिकारिक और मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, इस दुर्घटना में कम से कम 42 भारतीय की मौत की खबर है।
सोमवार तड़के सऊदी अरब के मुफ़रीहाट क्षेत्र के पास एक दर्दनाक सड़क दुर्घटना हुई, जिसमें मक्का से मदीना की ओर जा रही एक बस एक डीज़ल टैंकर से टकरा गई शुरुआती आधिकारिक और मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, इस दुर्घटना में कम से कम 42 भारतीय की मौत की खबर है।
मृतकों में कई ऐसे ज़ायरीन शामिल बताए जा रहे हैं जिनका संबंध हैदराबाद और उसके आसपास के इलाक़ों से है।
दुर्घटना सुबह के शुरुआती घंटे में हुई, जब बस, उमराह यात्रा पूरी कर चुके तीर्थयात्रियों को लेकर मक्का से मदीना की ओर बढ़ रही थी। यह मार्ग आमतौर पर अत्यधिक व्यस्त रहता है और मक्का-मदीना हाईवे पर भारी मात्रा में ट्रैफिक रहती है। रिपोर्टों के अनुसार बस, तेज़ रफ़्तार में थी और सामने से आ रहे डीज़ल टैंकर से टकरा गई, जिससे टक्कर का प्रभाव अत्यंत गंभीर हो गया।
टक्कर इतनी भीषण थी कि बस का अगला हिस्सा पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। कई यात्री टक्कर की तीव्रता के कारण मौके पर ही मर गए, जबकि कुछ गंभीर रूप से घायल हुए। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, टक्कर के तुरंत बाद बस के भीतर अफरा-तफरी मच गई और कई यात्री फंसे रह गए, जिन्हें निकालने में बचावकर्मियों को काफ़ी मेहनत करनी पड़ी।
दुर्घटना की जानकारी मिलते ही स्थानीय प्रशासन, आपातकालीन सेवा दल, पुलिस और नागरिक रक्षा बल तुरंत घटनास्थल पर पहुँचे। बचाव अभियान जारी है और घायलों को नजदीकी अस्पतालों में पहुँचाया जा रहा है। कई यात्रियों की हालत गंभीर बताई जा रही है।
अधिकारियों ने बताया कि मृतकों की पहचान का काम जारी है और वास्तविक संख्या की आधिकारिक पुष्टि अभी शेष है। भारतीय दूतावास भी स्थानीय अधिकारियों के संपर्क में है और पीड़ितों की जानकारी जुटा रहा है।
फ़दक के सच्चे गवाहों को झुठलाया गया
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा का फ़दक छीना गया और आपने उसे वापस मांगा तो उस समय की सरकार यानी जाली पहले ख़लीफ़ा ने आपसे गवाह मांगे कि साबित करो यह फ़िदक तुम्हारा है, आपने गवाह के तौर पर इमाम अली, उम्मे एमन और पैग़म्बर के दास रेबाह को प्रस्तुत किया, लेकिन इन लोगों की गवाही कबूल नहीं की और सच्चे गवाहों को झुठला दिया गया
जब हज़रत फ़ातेमा ज़हरा का फ़दक छीना गया और आपने उसे वापस मांगा तो उस समय की सरकार यानी पहले ख़लीफ़ा ने आपसे गवाह मांगे कि साबित करो यह फ़िदक तुम्हारा है, आपने गवाह के तौर पर इमाम अली, उम्मे एमन और पैग़म्बर के दास रेबाह को प्रस्तुत किया, लेकिन इन लोगों की गवाही को स्वीकार नहीं किया गया।
अब सबसे पहला प्रश्न यह है कि एक क़ाज़ी या जज गवाह क्यों मांगता है?
क़ाज़ी गवाह इसलिए मांगता है कि उसके पता चल सके कि कौस सच बोल रहा है और कौन झूठ।
लेकिन अगर दावा करने वाला वह व्यक्ति हो जो कि ख़ुद मासूम हो तो उसके बाद गवाही का कोई प्रश्न नहीं रह जाता है क्योंकि मासूम झूठ नहीं बोलता है,
वह अमीरुम मोमिनीन जिनकी महानता और अज़मत के बारे में क़ुरआन में अलग अलग आयतों में अलग अलग अंदाज़ में बयान किया गया है, वह अमीरुल मोमिनी जिसके लिए आयत उतरी है कि वह इमाम मुबीन है وَكُلَّ شَيْءٍ أَحْصَيْنَاهُ فِي إِمَامٍ مُّبِينٍ वह अमीरुल मोमिनीन जिनकी गवाही को क़ुरआन ने सच्चा माना और कहाः قُلْ كَفَىٰ بِاللَّـهِ شَهِيدًا بَيْنِي وَبَيْنَكُمْ وَمَنْ عِندَهُ عِلْمُ الْكِتَابِ वह अमीरुल मोमिनीन जिनके बारे में कहा गया وَقُلِ اعْمَلُوا فَسَيَرَى اللَّـهُ عَمَلَكُمْ وَرَسُولُهُ وَالْمُؤْمِنُونَ वह अली जिनकी महानता और इस्मत की गवाही स्वंय क़ुरआन ने इन शब्दों में दी है إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّـهُ لِيُذْهِبَ عَنكُمُ الرِّجْسَ أَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيرًا इन आयतों को हमने केवल नमूने के तौर पर पेश किया है, लेकिन इस सारी विशेषताओं के बाद भी जब अली ने फ़िदक के लिए गवाही दी तो आपकी गवाही स्वीकार नहीं की गई, और आश्चर्य की बात तो यह है कि जो लोग अदालते सवाबा का झंढा उठाएं हुए हैं और कहते हैं कि सारे सहाबी सच्चे हैं उन्होंने पैग़म्बर के नफ़्स की बात को स्वीकार नहीं किया।
दूसरा प्रश्न यह है कि हज़रते ज़हरा जो कि आयते ततहीर में समिलित हैं और उम्मे एमन जिनको स्वर्ग की महिला कहा गया है क्या उनकी गवाही झूठी हैं?!!!
क्या यह संभव है कि फ़ातेमा ज़हरा एक झूठी चीज़ का दावा करें?
सही मुस्लमि में अहलेबैत (अ) की फ़ज़ीलत के अध्याय में हदीस नम्बर 6261 और सुनने तिरमिज़ी में फ़ज़ाएल फ़ातेमा के अध्याय में हदीस नम्बर 3871 में आयते ततहीर को लिखा है।
अब प्रश्न यह है कि अगर क़रार यह हो कि फ़ातेमा और अली की बात में भी झूठ की शंका हो और मेरे जैसे आम इन्सान की बात में भी झूठ की शंका हो, इन जैसे महान लोगों से भी गवाह मांगा जाए और मेरे जैसे आम आदमी से भी तो फिर यह आयते ततहीर का लाभ क्या है और ईश्वर ने इसको क्यों उतारा है?
इतिहास गवाह है कि हुजै़मा (जिन्होंने पैग़म्बर के बारे में गवाही दी जब्कि उन्होंने देखा भी नहीं था और उनका तर्क यह था कि हमारा विश्वास यह है कि पैग़म्बर मासूम है उन्होंने स्वर्ग और नर्क की ख़बरें दी है तो वह चूंकि मासूम हैं इसलिए झूठ नहीं बोल सकते) के दावे को बिना किसी गवाह के स्वीकार कर लिया गया और वह ज़ुश्शहादतैन (दो गवाह वाले) के नाम से प्रसिद्ध हुए। लेकिन अहलेबैत जो मासूम हैं और जिनके लिए आयते ततहीर नाज़िल हुई उनसे गवाही मांगी गई और हद यह है कि गवाही के बाद भी उनकी बात स्वीकार नहीं की गई।
सुन्नी किताबों में भी यह हदीस विभिन्न शब्दों में आई है कि अली हक़ के साथ हैं और हक़ अली के साथ, अगर इसके बाद भी अली की गवाही स्वीकार ना की जाए तो इस हदीस का क्या मतलब रह जाता है? वह अली जो स्वंय सच और झूठ का मापदंड हैं क्या उनके बारे में यह संभावना रह जाती है कि आप झूठ बोलेंगे!!!?
मजमउज़्ज़वाए में इसी हदीस को दूसरे तरीक़े से बयान किया गया है कि पैग़म्बर ने इमाम अली की तरफ़ इशारा किया और फ़रमायाः
الحق مع ذا و الحق مع ذا
तारीख़े बग़दाद ने उम्मे सलमा से यह रिवायत की है कि जब जंगे सिफ़्फ़ीन में लोग सच और झूठ को नहीं पहचान पा रहे थे तब इस हदीस ने बहुत से लोगों का मार्गदर्शन किया और बताया कि हक़ किस गुट के साथ है, हदीस इस प्रकार है
علی مع الحق والحق مع علی و لن یفترقا حتی یرد علی الحوض یوم القیامة
रबीउल अबरार जिल्द 1 पेज 828 में उम्मे सलमा से रिवायत है कि पैग़म्बर ने फ़रमायाः
علی مع الحق و القران والحق والقران مع علی ولن یفترقا حتی یرد علی الحوض
इन सारी हदीसों के बाद प्रश्न यह नहीं रह जाता है कि अली सच बोल रहे हैं या झूठ बल्कि प्रश्न यह है कि आपकी बात स्वीकार क्यों नहीं की गई, क्योंकि इन सारी हदीसों और आयतों के बाद भी आपकी बात को स्वीकार ना करना इसी तरह है कि कोई क़ुरआन या पैग़म्बर की बात को स्वीकार ना करे।
अब रहा सवाल उम्मे एमन की गवाही का तो यह वह महिला हैं जिनके बारे में पैग़म्बर ने फ़रमाया था कि आप स्वर्ग कि महिलाओं में से हैं।
तबक़ातुल क़ुबरा जिल्द 10 पेज 213 और अलएसाबा जिल्द 8 पेज 172 हदीस 11892 में इस हदीस को लिखा है
من سره ان یتزوج امرءة من اهل الجنة فلیتزوج ام ایمن
यो यह चाहता है कि स्वर्ग की नारी के साथ विवाह करे तो वह उम्मे एमन के साथ शादी करे।
जिस महिला के बारे में पैग़म्बर ने यह फ़रमाया हो क्या वह झूठ बोल सकती है? अगर नहीं तो उनकी गवाही को स्वीकार क्यों नहीं किया गया?
सोनने अबी दाऊद जिल्द 3 पेज 306 हदीस 3607 में आया है कि जब ज़ुश्शहादतैन ने गवाही दी पैग़म्बरे इस्लाम ने उस एक व्यक्ति की गवाही तो दो लोगों की गवाही के तौर पर स्वीकार किया
सही बुख़ारी जिल्द 3 पेज 57 में लिखता है कि जब बैहरैन से जीत का माल अबूबक्र के पास लाया गया तो तो जाबिर ने एक दावा किया और कहा कि पैग़म्बर ने मुझ से वादा किया था कि जब बैहरैन का माल आएगा तो मैं तुमको दूंगा।
बिर के इस दावे पर बिना किसी गवाही और दलील के आपको वह माल दे दिया गया और कहा कि पैग़म्बर ने तुमसे जितना वादा किया था उतना ले लो।
कितने आश्चर्य की बात है कि जब जाबिर किसी चीज़ का दावा करते हैं तो उनसे गवाही तक नहीं मांगी जाती है और उनकी बात को स्वीकार कर लिया जाता है लेकिन जब नबी की बेटी अपना हक़ मांगती है तो उससे कहा जाता है कि गवाह लाओं, और गवाह लाने के बाद भी उसकी बात को स्वीकार नहीं किया जाता है!!!
फ़िदक की हकीकत, तारीख के आईने में
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) और फ़िदक के बारे बहुत से प्रश्न किए हैं जैसे कि फ़िदक का वास्तविक्ता क्या है? और क्या फ़िदक के बारे में सुन्नियों की किताबों में बयान किया गया है या नहीं।हम अपनी इस श्रखलावार बहस में कोशिश करेंगे कि सुन्नियों की महत्वपूर्ण एतिहासिक किताबों में फ़िदक के बारे में विभिन्न पहलुओं को बयान करें और उस पर बहस करें।
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) और फ़िदक के बारे बहुत से प्रश्न किए हैं जैसे कि फ़िदक का वास्तविक्ता क्या है? और क्या फ़िदक के बारे में सुन्नियों की किताबों में बयान किया गया है या नहीं।
हम अपनी इस श्रखलावार बहस में कोशिश करेंगे कि सुन्नियों की महत्वपूर्ण एतिहासिक किताबों में फ़िदक के बारे में विभिन्न पहलुओं को बयान करें और उस पर बहस करें।
यह लेख केवल प्रस्तावना भर है जिसमें हम वह सारी बहसें जो फ़िदस से सम्बंधित हैं और जिनके बारे में हम बहस करेंगे उनको आपके सामने बयान करेंगें, और फ़िदक के बारे में अपने दावों और अक़ीदों को स्पष्ट करें।
सूरा असरा आयत 26 में ख़ुदा फ़रमाता हैः
وَآتِ ذَا الْقُرْبَىٰ حَقَّهُ وَالْمِسْكِينَ وَابْنَ السَّبِيلِ
हे पैग़म्बर अपने परिजनों का हक दे दो
मोतबर रिवायतों में आया है कि इस आयत के नाज़िल होने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) को आदेश होता है कि फ़िदक को हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) को दें।फ़िदक विभिन्न पहलुओं से बहुत ही गंभीर और महत्वपूर्ण मसला है जिनमें से एक उसका इतिहास है
फ़िदक इतिहास के पन्नों में:
इस बहस में सबसे पहली बात या प्रश्न यह है कि फ़िदक क्या है? और क्यों फ़िदक का मसला महत्वपूर्ण है?
यह फ़िदक मीरास था या एक उपहार था? जिसमें पैग़म्बर को आदेश दिया गया था कि फ़ातेमा को दिया जाए।
पैग़म्बर (स) की वफ़ात के बाद फ़िदक का क्या हुआ? यह फ़िदक क्या वह सम्पत्ति थी जिसकों मुसलमानों के बैतुल माल में वापस जाना चाहिए था या हज़रत ज़हरा का हक़ था?
यहां पर बहुस सी शंकाए या प्रश्न भी पाए जाते हैं जैसे यह कि फ़ातेमा ज़हरा (स) जो कि पैग़म्बर की बेटी हैं जो संसारिक सुख और सुविधा से दूर थी, जो मासूम है, जिनकी पवित्रता के बारे में आयते ततहीर नाज़िल हुई है, वह क्यों फ़िदक को प्राप्त करने के लिए उठती हैं? और वह प्रसिद्ध ख़ुत्बा जिसको "ख़ुत्बा ए फ़िदक" कहा जाता है आपने बयान फ़रमाया। आख़िर एसा क्या हुआ कि वह फ़ातेमा (स) जो नमाज़ तक पढ़ने के लिए मस्जिद में नहीं जाती थीं आपने मस्जिद में जाकर यह ख़ुत्बा दिया। जो आज हमारे हाथों में एक एतिहासिक प्रमाण के तौर पर हैं।
इस्लामिक इतिहास में फ़िदक के साथ कब क्या हुआ? हम अपनी इस बहस यानी फ़िदक तारीख़ के पन्नों में बयान करेंगे। और वह शंकाएं जो फ़िदक के बारे में हैं उनको बिना किसी तअस्सुब के बयान और उनका उत्तर देंगे।
हमने अपने पिछले लेख़ों में फ़ातेमा ज़हरा की उपाधियों और उनके स्थान को बयान किया है, फ़ातेमा (स) वह हैं जिनकों पैग़म्बर ने अपनी माँ कहा है, जिनकी मासूमियत और पवित्रता की गवाही क़ुरआन दे रहा है, यही कारण है कि यह फ़िदक का मसला हमारे अक़ीदों से मिलता है कि वह फ़ातेमा (स) जो मासूम हैं उनकी बात को स्वीकार नहीं किया जा रहा है।
हज़रत ज़हेरा (स) वह हैं जिनके बारे में शिया और सुन्नी एकमत है कि उनका क्रोध ईश्वर का क्रोध है और उनकी प्रसन्नता ईश्वर की प्रसन्नता है, फ़ातेमा (स) वह है जिनको दुश्मनों के तानों के उत्तर में कौसर बना कर पैग़म्बर को दिया था।
ख़ुदा हज़रत ज़हरा (स) मापदंड हैं, कि पैग़म्बर की शहादत के बाद जो घटनाएं घटी उनमें फ़ातेमा (स) ने क्या प्रतिक्रिया दिखाई, आपने जो प्रतिक्रिया दिखाई आज को युग में हमारे लिए हक़ को बातिल और सच को झूठ से अलग करने वाला है।
सवाल यह है कि आज हम किस सोंच का अनुसरण करें, उस सोंच का जो हज़रत अली (अ) को पैग़म्बर के बाद उनका जानशीन और ख़लीफ़ा मानती है या उस सोंच का जो पैग़म्बर के बाद सक़ीफ़ा में चुनाव के माध्यम से ख़लीफ़ा बनाती है, या उन मज़हबों का अनुसरण करें जिनके इमाम पैग़म्बर की मौत के दसियों साल बाद पैदा हुए?
हज़रत ज़हरा (स) पैग़म्बर की शहादत के बाद किसकों उनके बाद के इमाम के तौर पर स्वीकार करती है (याद रखिए कि इमामत की बहस इतनी महत्वपूर्ण है कि उसके बारे में पैग़म्बर ने फ़रमाया है कि जो अपने ज़माने के इमाम को ना पहचाने उसकी मौत जाहेलियत (यानी क़ुफ़्र) की मौत है) क्या वह पहले ख़लीफ़ा को इमाम मानती है? या नहीं।
फ़िदक एक बहाना है इस बात का ताकि लोगों को जगा सकें लोगों को जागरुक बना सकें, अगर क़ुरआन इब्राहीम द्वारा इमामत के सवाल के उत्तर में कहता है कि ज़ालिम को इमामत नहीं मिल सकती है, तो फ़ातेमा (स) जब खड़ी होती हैं और कहती हैं कि यह फ़िदक मेरा हक़ है और मुझ से छीना गया है। उनकी यह प्रतिक्रिया हमको और आपको क्या समझा रही है? यह बता रही है कि फ़ातेमा (स) पर ज़ुल्म हुआ है और ज़ालिम रसूल का ख़लीफ़ा नहीं हो सकता है
फ़ातेमा ज़हरा (स) का क़याम केवल ज़मीन के एक टुकड़े के लिए नहीं था, बल्कि आपका यह क़याम उन सारे लोगों को जगाने के लिए था जो ग़दीर के मैदान में मौजूद थे और जिन्होंने अली (अ) की बैअत की थी।
एक ऐसा युग आरम्भ हो गया था कि जब पैग़म्बर के कथन से मुंह फिरा लिया गया था, और ऐसे युग में फ़ातेमा (स) का फ़िदक को वापस मांगना वास्तव में विलायत, इमामत और अली (अ) की ख़िलाफ़त का मांगना था।
यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है, सुन्नियों के प्रसिद्ध आलिम इब्ने अबिलहदीद ने यही प्रश्न अपने उस्ताद से किया। वह कहता है कि मैंने अपने उस्ताद से प्रश्न कियाः क्या फ़िदक के बारे में फ़ातेमा (स) का दावा सच्चा था?
उस्ताद ने कहाः हां
मैंने कहाः तो क्यों पहले ख़लीफ़ा ने फ़िदक फ़ातेमा को नहीं दिया, जब्कि उनको पता था कि फ़ातेमा सच बोल रही है।
तो उस्ताद मुस्कुराए और कहाः अगर अबू बक्र फ़ातेमा के दावा करने पर फ़िदक उन को दे देते, तो वह कल उनके पास आतीं और अपने पति के लिए ख़िलाफ़त का दावा करती, और उनको सत्ता से हटा देतीं और उनके पास कोई जवाब भी ना होता, क्योंकि उन्होंने फ़िदक को दे कर यह स्वीकार कर लिया होता कि फ़ातेमा जो दावा करती हैं वह सच होता है।
इसके बाद इब्ने अबिलहदीद कहता हैः यह एक वास्तविक्ता है अगरचे उस्ताद ने यह बात मज़ाक़ में कहीं थी।
इब्ने अबिलहदीद की यह बात प्रमाणित करती है कि फ़िदक की घटना एक सियासी घटना थी जो ख़िलाफ़त से मिली हुई थी और फ़ातेमा (स) का फ़िदक का मांगना केवल एक ज़मीन का टुकड़ा मांगना नहीं था।
यही कारण है कि फ़ातेमा (स) की बात स्वीकार नहीं की गई पैग़म्बर के नफ़्स अली की बात स्वीकार नहीं की गई, उम्मे एमन जो कि स्वर्ग की महिलाओं में से हैं उनकी बात स्वीकार नहीं की गई।
हम अपनी बहसों में यही बात प्रमाणित करने की कोशिश करेंगे किः
मार्गदर्शन और हिदायत का मापदंड हज़रते ज़हरा (स) हैं, हमको देखना होगा कि आपने किसको स्वीकार किया और किसको अस्वीकार।
आख़िर क्यों हज़रत ज़हरा (स), इमाम अली (अ) और उम्मे एमन की बात को स्वीकार नहीं किया गया?
हम अपनी बहसों में साबित करेंगे कि पैग़म्बर ने अपने जीवनकाल में ही ईश्वर के आदेश से फ़िदक को हज़रते ज़हरा (स) को दिया था और आपने पैग़म्बर के जीवन में उसको अपनी सम्मपत्ति बनाया था।
फ़ातेमा ज़हरा (स) ने कुछ लोगों की वास्तविक्ता को साबित करने और इमामत को उसके वास्तविक स्थान पर लाने के लिए क़याम किया जिसका पहला क़दम फ़िदक है।
यह इमामत का मसला छोटा मसला नहीं है, ख़ुदा ने हमारे लिए पसंद नहीं किया है कि जो हमारा इमाम और रहबर हो वह मासूम ना हो, लेकिन हमने इसका उलटा किया मासूम को छोड़कर गै़र मासूम को अपना ख़लीफ़ा बना लिया।
अगर हज़रत ज़हरा (स) फ़िदक को वापस ले लेती तो जिस तर्क से फ़िदक वापस लेती उसी तर्क से ख़िलाफ़ को भी अली (अ) के लिए वापस ले लेतीं और यही कारण है कि आप अपने दावे तो प्रमाणित करने के लिए ख़ुद गवाही देती हैं, अली (अ) गवाही देते हैं उम्मे एमन गवाही देती हैं, लेकिन इस सबकी गवाही रद कर दी जाती है।
जब हज़रत ज़हरा (स) देखती हैं कि फ़िदक को हदिया और पैग़म्बर का दिया हुआ उपहार यह लोग मानने के लिए तैयार नहीं है, तो वह मीरास का मसला उठाती है, कि अगर तुम लोग उपहार मानने के लिए तैयार नहीं हो तो कम से कम पैग़म्बर की मीरास तो मानों जो मुझको मिलनी चाहिए।
और यही वह समय था कि जब इस्लामी दुनिया में सबसे पहली जाली हदीस गढ़ी गई और कहा गया कि पैग़म्बर ने फ़रमाया हैः
نحن معاشر الانبياء لا نورث
हम पैग़म्बर लोग मीरास नहीं छोड़ते हैं।
हज़रते ज़हरा (स) साबित करती है किः इस हदीस को किसी ने नहीं सुना है यह हदीस क़ुरआन के विरुद्ध है। क्योंकि क़ुरआन में साफ़ साफ़ शब्दों में पैग़म्बरों की मीरास के बारे में बयान किया गया है कि वह मीरास छोड़ते हैं।
और एक समय वह भी आता है कि जब हज़रत ज़हरा (स) को फ़िदक के दस्तावेज़ वापस दे दिए जाते हैं, लेकिन कुछ लोगों की साज़िश के बाद दोबारा फ़िदक फ़ातेमा (स) से छीन लिया जाता है।
इसके बाद हज़रत ज़हरा (स) नया कदम उठाती है, वह ज़हरा (स) जिसका घर उसकी मस्जिद थी वह अपने छीने हुए हक़ के लिए क़याम करती हैं और मस्जिद में आती है और एक महान ख़ुत्बा देती हैं जो ज्ञान से भरा हुआ है ताकि आज जो हम और आप बैठे है ताकि जान सकें कि इमाम अली (अ) और उनके बाद ग्यारह इमामों की इमामत का मसला कोई कम मसला नहीं है बल्कि यह एक सोंच और रास्ता है जन्नत का जान सकें और उसका अनुसरण कर सकें।
और अंत में हज़रत ज़हरा (स) अंसार को सहायता के लिए बुलाती हैं।
और उसके बाद आप एक और क़दम उठाती हैं और आप वसीयत करती हैं किः "हे अली मुझे रात में ग़ुस्ल देना रात में कफ़न पहनाना और रात में दफ़्न करना और मेरी क़ब्र का निशान मिटा देना और मैं राज़ी नहीं हूँ कि जिन लोगों ने मुझे परेशान किया और दुख का कारण बने वह मेरे जनाज़े में समिलित हों"।
क्या आपने कभी सोंचा है कि पैग़म्बर की शहादत के बाद क्यों हदीस को बयान करने और उसको लिखने से रोका गया?
इसका कारण यही था कि अगर पैग़म्बर की हदीसों को नहीं रोका गया तो वास्तविक्ता प्रकट हो जाएगी और उनका भेद खुल जाएगा।
यही कारण था कि पहले दौर में हदीस को बयान करने से रोका गया, उसका बाद के दौर में हदीसों को जलाया गया, और उसके बाद के दौर में जाली हदीसें गढ़ी गईं।
अरब समाज मे महिलाएँ सामाजिक अधिकारो से क्यो महरूम थी?
इस्लाम से पहले अरब समाज में औरतों का कोई इख़्तियार, इज़्ज़त या हक़ नहीं था। वे विरासत नहीं पाती थीं, तलाक़ का हक़ उनके पास नहीं था और मर्दों को बेहद तादाद में बीवियाँ रखने की इजाज़त थी। बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न किया जाता था और लड़की की पैदाइश को बाइस-ए-शर्म समझा जाता था। औरत की ज़िन्दगी और उसकी क़द्र-ओ-क़ीमत मुकम्मल तौर पर ख़ानदान और मर्दों पर मुनहसिर थी। कभी-कभी ज़िना से पैदा होने वाले बच्चे भी झगड़ों और तनाज़आत का सबब बनते थे।
तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयात 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दीगर क़ौमों व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख्सियत और समाजी मक़ाम” पर चर्चा की है। नीचे इसी सिलसिले का सातवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है:
अरब समाज मे औरत का मक़ाम
अल्लामा तबातबाई लिखते हैं कि अरब समाज में कुछ ऐसे परिवार भी थे जो अपनी बेटियों को शादी के मामले में कुछ हद तक अधिकार देते थे, यानी उनकी रज़ामंदी और पसंद का एहतराम करते थे। यह रवैया ज़्यादातर उन परिवारो में पाया जाता था जो उच्च वर्ग के तरीक़ों से प्रभावित थे।
कुल मिला कर अरबों का औरतों के साथ बर्ताव तहज़ीबयाफ़्ता और वहशी क़बीलों के रवैयों का एक अजीब सा मेल था।
औरतों को क़ानूनी इख़्तियार न देना
उन्हें सियासी और सामाजिक मामलों में — जैसे हुकूमत, जंग, या फिर अपने निकाह पर भी — शामिल न करना, यह सब उन असरात में से था जो अरबों ने रोम और ईरान जैसी ताक़तवर क़ौमों से लिए थे।
जबकि औरतों को क़त्ल करना, ज़िंदा दफ़्न कर देना या उन पर ज़ुल्म ढाना ये रवैये उन्होंने वहशी और बर्बर क़बीलों से अपनाए थे।
तो इस तरह औरत की वंचना का ताल्लुक घर के सरबराह की ख़ुदाई से नहीं था, बल्कि ताक़तवर का कमज़ोर को दबा लेने और अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने का नतीजा था।
क़बीलों का अजीब अक़ीदा “अपने ख़ुदा को खा जाना”
अरब समाज का कुल मिलाकर हाल यह था कि वे बुतपरस्त थे। मर्द और औरत दोनों बुतों की पूजा करते थे। उनका अक़ीदा सितारों और फ़रिश्तों के बारे में वही था जो क़दीम साबियों का था। अलग-अलग क़बीले अपनी पसंद और चाहत के मुताबिक़ अलग-अलग बुत बनाते थे।
कुछ क़बीले सितारों और फ़रिश्तों की (जिन्हें वे ख़ुदा की बेटियाँ समझते थे) मूर्तियाँ बनाते और उनकी पूजा करते थे। बुत कभी पत्थर के, कभी लकड़ी के और कभी मिट्टी के होते थे।
हद तो तब हुई जब क़बीला बनी हनीफ़ा ने क़हत (सूखे) के ज़माने में खजूर, कश्क (सूखा दही), चरबी और आटे से एक बुत बनाया और सालों उसकी पूजा करते रहे। लेकिन जब शदीद भूख लगी तो उन्होंने अपने ही “ख़ुदा” को खा लिया!
इस वाक़े पर एक शायर ने तंज़ किया “क़बीला बनी हनीफ़ा ने क़हत के ज़माने में अपने परवरदिगार को खा लिया; न अपने माबूद से डरे और न ही इस अंजाम-ए-बद से ख़ौफ़ खाया।”
कुछ क़बीले जब नया सुंदर पत्थर देख लेते थे तो पुराने बुत को छोड़कर नए को ख़ुदा बना लेते थे। और अगर कुछ न मिलता तो मिट्टी का ढेला बना लेते, उस पर बकरी का दूध दुहते और उसी के चारों तरफ़ तवाफ़ शुरू कर देते!
औरतों की फ़िक्री कमज़ोरी और ख़ुराफ़ात का फैलाव
इस सामाजिक ज़ुल्म और महरूमी ने औरतों में शदीद ज़हनी कमज़ोरी पैदा कर दी थी। वे तरह-तरह के वहमों, गुमानों और ख़ुराफ़ात का शिकार हो गई थीं। तारीख़ी किताबों में ऐसी बहुत सी मिसालें दर्ज हैं जिनसे पता चलता है कि उस दौर की औरतें हादसों और रोज़मर्रा ज़िंदगी के मामलात के बारे में अजीब-ओ-ग़रीब तसव्वुरात रखती थीं।
यह था ज़माना-ए-जाहिलियत और इस्लाम के ज़ुहूर से पहले मुख़्तलिफ़ क़ौमों के समाजों में औरत की हालत का एक मुख़्तसर ख़ाका।
(जारी है…)
(स्रोत: तरजुमा तफ़्सीर अल-मीज़ान, भाग 2, पेज 404)
उत्पीड़न के विरुद्ध प्रतिरोध और सत्य व न्याय की रक्षा के क्रांतिकारी समर्थक
शहीद एडवार्डो आनीली तारीख़ में सिर्फ़ एक नाम नहीं बल्के एक ज़िंदा और बेदार हक़ीक़त है; ऐसी हक़ीक़त जो ईरान और पूरी दुनियाए-इस्लाम में मुक़ावमत की अलामत है और इटली के लिए भी आलमी इस्तिकबार की ग़ुलामी से निज़ात का रोशन नमूना बन सकती है।
एडवार्डो आनीली (1954-2000) की शहादत के पचीसवें साल में भी हक़ीक़त ज़िंदा है और माजरा के नए पहलू वाज़ेह होते जा रहे हैं।
इटली के मशहूर सनअती ख़ानदान का यह फ़र्ज़ंद, एडवार्डो आनीली जो फ़िएट इटली की सबसे बड़ी गाड़ी बनाने वाली कंपनी जैसी आलमी शोहरत याफ़्ता कंपनी का वारिस बन सकता था एक मुख़्तलिफ़ रास्ते पर गामज़न हुआ; ईमान का रास्ता, आज़ादी का रास्ता और ज़ुल्म व इस्तिकबार के मुक़ाबले डट जाने का रास्ता।
एक चहारुम सदी गुज़र गई कि शहीद महदी एडवार्डो आंदेली ने मज़लूमाना और ग़रीबाना तरीक़े से जाम-ए-शहादत नोश किया।
एडवार्डो आनीली ने इस्लाम क़ुबूल करके मज़हब-ए-अहल-ए-बैत अ.स. और इन्क़िलाब-ए-इस्लामी की पैरवी इख़्तियार की, और न सिर्फ़ अपने ख़ानदान के रिवायती रास्ते से दूर हुआ बल्कि इटली और इस्लाम-ए-नाब-ए-मुहम्मदी स.अ.व. के दरमियान मआनवी पुल बन गया।
उसने सिदक़ और शुजाअत के साथ, शदीद दबाव के बावजूद, अपनी इस्लामी और इन्क़िलाबी शनाख़्त को दुनिया के फ़ायदों के लिए क़ुर्बान न किया।
उनकी शहादत जो एक मुनज़्ज़म मन्सूबे के तहत वक़ूअ पज़ीर हुई आज भी कई सवालात को जनम देती है।
नए शवाहिद इस हक़ीकत की तरफ़ इशारा करते हैं कि उसे फ़िएट की जानशिनी से दूर करना किसी बड़े प्लान का हिस्सा था ऐसा मन्सूबा जो एक मुसलमान और शिया वारिस की मौजूदगी को बर्दाश्त नहीं कर सकता था।
आज भी एडवार्डो की याद एक रोशन चराग़ की तरह क़ुलूब और अफ़्कार को मुनव्वर करती है।
वह मिल्लतों और तहज़ीबों के दरमियान एक मज़बूत पुल है; ज़ुल्म के मुक़ाबले इस्तेक़ामत और हक़ व अदालत के दिफ़ा का इन्क़िलाबी दाई था।
शहीद एडवार्डो आनीली तारीख़ में सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि एक ज़िंदा और बेदार हक़ीक़त है ऐसी हक़ीक़त जो ईरान और पूरी दुनियाए-इस्लाम में मुक़ावमत की अलामत है और इटली के लिए भी आलमी इस्तिकबार की ग़ुलामी से निजात का रोशन नमूना बन सकती है।













