رضوی
गज़्जा में 20 हज़ार शांति सैनिक भेजने के लिए तैयार है।इंडोनेशिया
इंडोनेशिया ने घोषणा की है कि वह गज़्ज़ा में शांति बनाए रखने के लिए 20 हजार सैनिक भेजने के लिए तैयार है।
इंडोनेशिया के रक्षा मंत्रालय ने घोषणा की है कि यह देश गाजा में शांति बनाए रखने के लिए 20 हजार सैनिक भेजने के लिए तैयार है।
रक्षा मंत्री जाफरी शम्सुद्दीन के अनुसार, यदि ये सैनिक भेजे गए तो उनका प्राथमिक मिशन इलाज, पुनर्निर्माण और मानवीय सहायता उपलब्ध कराना होगा।
यह घोषणा ऐसे समय में सामने आया है जब जॉर्डन के राजा अब्दुल्ला द्वितीय जकार्ता के दौरे पर हैं और उन्होंने इंडोनेशिया के राष्ट्रपति से गाजा के भविष्य के लिए डोनाल्ड ट्रम्प की 20-सूत्रीय योजना पर बातचीत की है।
इस योजना के तहत गाजा में युद्धविराम को स्थिर करने के लिए एक बहुराष्ट्रीय सेना तैनात की जाएगी।
अमेरिका अब तक इंडोनेशिया, मिस्र, अज़रबैजान, संयुक्त अरब अमीरात और कतर सहित कई देशों से इस सेना में शामिल होने के लिए बातचीत कर चुका है, जबकि इज़राइल ने तुर्की की शामिल होने का विरोध किया है।
धर्म के प्रति गहरी समझ अल्लाह की ओर से भलाई का प्रतीक है, डॉ. सय्यदा तस्नीम मूसावी
जामिआ अल-मुस्तफ़ा कराची में डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने दरस-ए-अख़लाक़ में “रूहानी बीमारी की पहचान और इलाज” के विषय पर भाषण दिया। उन्होंने इस्लामी हदीस— पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम— की रोशनी में रूहानी बीमारियों के आत्मिक सुधार के अमली (व्यावहारिक) तरीके विस्तार से बताये।
जामेअतुल मुस्तफ़ा कराची के महिला विभाग के तहत “रूहानी बीमारी की पहचान और उसका इलाज” के शीर्षक से दरस-ए-अख़लाक़ की ग्यारहवीं बैठक आयोजित हुई। इस अहम विषय पर जामिआ की प्रिंसिपल मोहतरमा डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने खिताब किया
डॉ. मूसीवी ने “रूहानी बीमारी की पहचान और उसकी तरबियत” के विषय को रसूल-ए-अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) की मशहूर हदीस — إذا أراد الله بعبدٍ خيرًا فقهه في الدين، وزهده في الدنيا، وبصره عيوبه — के हवाले से बहुत इल्मी और समझदारी के अंदाज़ में बयान किया।
उन्होंने कहा कि यह हदीस इंसान के आध्यात्मिक विकास के तीन क्रमिक पड़ाव की तरफ़ इशारा करती है:
(1) धर्म की गहराई को जानना
जब अल्लाह किसी बंदे के लिए भलाई चाहता है, तो उसे दीनी समझ और गहरी दूरदर्शिता देता है, जिसके ज़रिए वह अल्लाही अहकाम और अख़लाक़ी असूलों की गहराई को समझ पाता है।
(2) दुनिया से बे-रग़बती
दीनी बसीरअत का लाज़मी नतीजा यह है कि इंसान फ़ानी दुनिया की चमक-दमक से बेपरवाह होकर आख़िरत की अबदी हकीकत पर अपना ध्यान केंद्रित करता है।
(3) अपने दोषों की समझ
दुनिया से बेरुख़ी इंसान के बातिन को रौशन करती है। फिर वह अपने नैतिक दोषों और रूहानी कमज़ोरियों को पहचानकर इस्लाह-ए-नफ़्स की तरफ़ बढ़ता है।
रूहानी बीमारियों की निशानियाँ
डॉ. तसनीम मूसीवी ने कहा कि जैसे जिस्मानी बीमारियों की ज़ाहिरी अलामतें होती हैं, उसी तरह रूहानी बीमारियों की भी कुछ पहचान होती हैं — जैसे बेचैनी और बेतक़रारी, इबादत में सुस्ती, नेक अमल से बेदिलपन, गुनाह पर अफ़सोस न होना, बदगुमानी , हसद , और दिल की खशू की कमी।
रूहानी बीमारियों के कारण
उन्होंने बताया कि दुनियादारी की मोहब्बत, भौतिकता, गुनाहों की आदत, अल्लाह की याद से लापरवाही, और परहेज़गार लोगों से दूर रहना ये सब रूहानी बीमारियों की बुनियादी वजहें हैं। दुनिया के कामों में हद से ज़्यादा मशग़ूल होना, रूहानी ज़वाल की शुरुआत होता है।
इनकी पहचान के तरीके
- अहले इल्म की रौशन रहनुमाई लेना।
- नेक व सालेह दोस्तों की संगत में रहना।
- दुश्मनों की तनक़ीदसे अपनी कमज़ोरियों को पहचानना।
- लगातार मुहासबा-ए-नफ़्स करना।
नतीजा और सीख
पाठ के आखिर में मोहतरमा डॉ. तसनीम ज़हरा मूसीवी ने ज़ोर देकर कहा कि रूहानी बीमारियों की सही समय पर पहचान और उनका इलाज न सिर्फ़ इंसान की नैतिक मज़बूती का ज़रिया है, बल्कि उसे अल्लाह के क़ुर्ब और दिली इत्मिनान तक भी पहुंचा देता है।
उन्होंने कहा कि अगर इंसान रूहानी बीमारी को वक़्त पर पहचान ले और सही रूहानी, अख़लाक़ी और सामाजिक कदम उठाए, तो वह न सिर्फ़ अंदरूनी सुकून पाता है बल्कि समाज में भी बेहतर किरदार अदा करता है। रूहानी सेहत की अहमियत को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक सेहतमंद रूह इंसान की ज़िंदगी में खुशी, सुकून और कामयाबी लाती है।
धर्म के प्रति गहरी समझ अल्लाह की ओर से भलाई का प्रतीक है, डॉ. सय्यदा तस्नीम मूसावी
जामिआ अल-मुस्तफ़ा कराची में डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने दरस-ए-अख़लाक़ में “रूहानी बीमारी की पहचान और इलाज” के विषय पर भाषण दिया। उन्होंने इस्लामी हदीस— पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम— की रोशनी में रूहानी बीमारियों के आत्मिक सुधार के अमली (व्यावहारिक) तरीके विस्तार से बताये।
जामेअतुल मुस्तफ़ा कराची के महिला विभाग के तहत “रूहानी बीमारी की पहचान और उसका इलाज” के शीर्षक से दरस-ए-अख़लाक़ की ग्यारहवीं बैठक आयोजित हुई। इस अहम विषय पर जामिआ की प्रिंसिपल मोहतरमा डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने खिताब किया
डॉ. मूसीवी ने “रूहानी बीमारी की पहचान और उसकी तरबियत” के विषय को रसूल-ए-अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) की मशहूर हदीस — إذا أراد الله بعبدٍ خيرًا فقهه في الدين، وزهده في الدنيا، وبصره عيوبه — के हवाले से बहुत इल्मी और समझदारी के अंदाज़ में बयान किया।
उन्होंने कहा कि यह हदीस इंसान के आध्यात्मिक विकास के तीन क्रमिक पड़ाव की तरफ़ इशारा करती है:
(1) धर्म की गहराई को जानना
जब अल्लाह किसी बंदे के लिए भलाई चाहता है, तो उसे दीनी समझ और गहरी दूरदर्शिता देता है, जिसके ज़रिए वह अल्लाही अहकाम और अख़लाक़ी असूलों की गहराई को समझ पाता है।
(2) दुनिया से बे-रग़बती
दीनी बसीरअत का लाज़मी नतीजा यह है कि इंसान फ़ानी दुनिया की चमक-दमक से बेपरवाह होकर आख़िरत की अबदी हकीकत पर अपना ध्यान केंद्रित करता है।
(3) अपने दोषों की समझ
दुनिया से बेरुख़ी इंसान के बातिन को रौशन करती है। फिर वह अपने नैतिक दोषों और रूहानी कमज़ोरियों को पहचानकर इस्लाह-ए-नफ़्स की तरफ़ बढ़ता है।
रूहानी बीमारियों की निशानियाँ
डॉ. तसनीम मूसीवी ने कहा कि जैसे जिस्मानी बीमारियों की ज़ाहिरी अलामतें होती हैं, उसी तरह रूहानी बीमारियों की भी कुछ पहचान होती हैं — जैसे बेचैनी और बेतक़रारी, इबादत में सुस्ती, नेक अमल से बेदिलपन, गुनाह पर अफ़सोस न होना, बदगुमानी , हसद , और दिल की खशू की कमी।
रूहानी बीमारियों के कारण
उन्होंने बताया कि दुनियादारी की मोहब्बत, भौतिकता, गुनाहों की आदत, अल्लाह की याद से लापरवाही, और परहेज़गार लोगों से दूर रहना ये सब रूहानी बीमारियों की बुनियादी वजहें हैं। दुनिया के कामों में हद से ज़्यादा मशग़ूल होना, रूहानी ज़वाल की शुरुआत होता है।
इनकी पहचान के तरीके
- अहले इल्म की रौशन रहनुमाई लेना।
- नेक व सालेह दोस्तों की संगत में रहना।
- दुश्मनों की तनक़ीदसे अपनी कमज़ोरियों को पहचानना।
- लगातार मुहासबा-ए-नफ़्स करना।
नतीजा और सीख
पाठ के आखिर में मोहतरमा डॉ. तसनीम ज़हरा मूसीवी ने ज़ोर देकर कहा कि रूहानी बीमारियों की सही समय पर पहचान और उनका इलाज न सिर्फ़ इंसान की नैतिक मज़बूती का ज़रिया है, बल्कि उसे अल्लाह के क़ुर्ब और दिली इत्मिनान तक भी पहुंचा देता है।
उन्होंने कहा कि अगर इंसान रूहानी बीमारी को वक़्त पर पहचान ले और सही रूहानी, अख़लाक़ी और सामाजिक कदम उठाए, तो वह न सिर्फ़ अंदरूनी सुकून पाता है बल्कि समाज में भी बेहतर किरदार अदा करता है। रूहानी सेहत की अहमियत को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक सेहतमंद रूह इंसान की ज़िंदगी में खुशी, सुकून और कामयाबी लाती है।
धर्म के प्रति गहरी समझ अल्लाह की ओर से भलाई का प्रतीक है, डॉ. सय्यदा तस्नीम मूसावी
जामिआ अल-मुस्तफ़ा कराची में डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने दरस-ए-अख़लाक़ में “रूहानी बीमारी की पहचान और इलाज” के विषय पर भाषण दिया। उन्होंने इस्लामी हदीस— पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम— की रोशनी में रूहानी बीमारियों के आत्मिक सुधार के अमली (व्यावहारिक) तरीके विस्तार से बताये।
जामेअतुल मुस्तफ़ा कराची के महिला विभाग के तहत “रूहानी बीमारी की पहचान और उसका इलाज” के शीर्षक से दरस-ए-अख़लाक़ की ग्यारहवीं बैठक आयोजित हुई। इस अहम विषय पर जामिआ की प्रिंसिपल मोहतरमा डॉक्टर सैय्यदा तसनीम ज़हरा मूसीवी ने खिताब किया
डॉ. मूसीवी ने “रूहानी बीमारी की पहचान और उसकी तरबियत” के विषय को रसूल-ए-अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) की मशहूर हदीस — إذا أراد الله بعبدٍ خيرًا فقهه في الدين، وزهده في الدنيا، وبصره عيوبه — के हवाले से बहुत इल्मी और समझदारी के अंदाज़ में बयान किया।
उन्होंने कहा कि यह हदीस इंसान के आध्यात्मिक विकास के तीन क्रमिक पड़ाव की तरफ़ इशारा करती है:
(1) धर्म की गहराई को जानना
जब अल्लाह किसी बंदे के लिए भलाई चाहता है, तो उसे दीनी समझ और गहरी दूरदर्शिता देता है, जिसके ज़रिए वह अल्लाही अहकाम और अख़लाक़ी असूलों की गहराई को समझ पाता है।
(2) दुनिया से बे-रग़बती
दीनी बसीरअत का लाज़मी नतीजा यह है कि इंसान फ़ानी दुनिया की चमक-दमक से बेपरवाह होकर आख़िरत की अबदी हकीकत पर अपना ध्यान केंद्रित करता है।
(3) अपने दोषों की समझ
दुनिया से बेरुख़ी इंसान के बातिन को रौशन करती है। फिर वह अपने नैतिक दोषों और रूहानी कमज़ोरियों को पहचानकर इस्लाह-ए-नफ़्स की तरफ़ बढ़ता है।
रूहानी बीमारियों की निशानियाँ
डॉ. तसनीम मूसीवी ने कहा कि जैसे जिस्मानी बीमारियों की ज़ाहिरी अलामतें होती हैं, उसी तरह रूहानी बीमारियों की भी कुछ पहचान होती हैं — जैसे बेचैनी और बेतक़रारी, इबादत में सुस्ती, नेक अमल से बेदिलपन, गुनाह पर अफ़सोस न होना, बदगुमानी , हसद , और दिल की खशू की कमी।
रूहानी बीमारियों के कारण
उन्होंने बताया कि दुनियादारी की मोहब्बत, भौतिकता, गुनाहों की आदत, अल्लाह की याद से लापरवाही, और परहेज़गार लोगों से दूर रहना ये सब रूहानी बीमारियों की बुनियादी वजहें हैं। दुनिया के कामों में हद से ज़्यादा मशग़ूल होना, रूहानी ज़वाल की शुरुआत होता है।
इनकी पहचान के तरीके
- अहले इल्म की रौशन रहनुमाई लेना।
- नेक व सालेह दोस्तों की संगत में रहना।
- दुश्मनों की तनक़ीदसे अपनी कमज़ोरियों को पहचानना।
- लगातार मुहासबा-ए-नफ़्स करना।
नतीजा और सीख
पाठ के आखिर में मोहतरमा डॉ. तसनीम ज़हरा मूसीवी ने ज़ोर देकर कहा कि रूहानी बीमारियों की सही समय पर पहचान और उनका इलाज न सिर्फ़ इंसान की नैतिक मज़बूती का ज़रिया है, बल्कि उसे अल्लाह के क़ुर्ब और दिली इत्मिनान तक भी पहुंचा देता है।
उन्होंने कहा कि अगर इंसान रूहानी बीमारी को वक़्त पर पहचान ले और सही रूहानी, अख़लाक़ी और सामाजिक कदम उठाए, तो वह न सिर्फ़ अंदरूनी सुकून पाता है बल्कि समाज में भी बेहतर किरदार अदा करता है। रूहानी सेहत की अहमियत को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक सेहतमंद रूह इंसान की ज़िंदगी में खुशी, सुकून और कामयाबी लाती है।
बद अख़लाक़ी; जीवन में कड़वाहट का कारण
अमीरुल मोमेनीन इमाम अली (अ) ने एक रिवायत में बुरे अखलाक़ की विशेषताएँ बताई हैं।
निम्नलिखित रिवायत "ग़ेरर अल हिकम" पुस्तक से ली गई है। इस रिवायत का पाठ इस प्रकार है:
قال امیرالمؤمنين عليه السلام:
أَلسَّيِّئُ الْخُلُقِ كَثيرُ الطَّيْشِ مُنَغَّصُ الْعَيْشِ
अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ) ने फ़रमाया:
बद अख़लाक़ व्यक्ति बहुत क्रोधी होता है और जीवन को कड़वा और अप्रिय बना देता है।
ग़ेरर अल हिकम, हदीस 1604
मेलबर्न में ICV की गोल्डन जुबली समारोह/ हुज्जतुल इस्लाम सैयद अबुल क़ासिम रिज़वी का अहम खिताब
इस्लामिक काउंसिल ऑफ विक्टोरिया (ICV) ने अपनी आधी सदी के सेवा कार्यों का जश्न एक गरिमामय समारोह में मनाया, जिसमें ऑस्ट्रेलिया भर के उलेमा, मंत्रियों, संसद सदस्यों और समुदाय प्रतिनिधियों ने भाग लेकर संस्था की धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय सेवाओं को श्रद्धांजलि अर्पित की।
मेलबर्न ऑस्ट्रेलिया में इस्लामिक काउंसिल ऑफ विक्टोरिया (आईसीवी) की 50 वर्षीय सेवाओं की मान्यता में एक भव्य समारोह आयोजित किया गया, जिसने ऑस्ट्रेलियाई मुस्लिम समुदाय की एकता, सक्रियता और सामाजिक जागरूकता का सुंदर प्रदर्शन पेश किया। विभिन्न मसलक के उलेमा, सरकारी अधिकारी, समुदाय नेता और गणमान्य अतिथियों की उपस्थिति ने समारोह के महत्व को और बढ़ा दिया।
समारोह की अध्यक्षता आईसीवी के अध्यक्ष श्री मोहम्मद मोईनुद्दीन ने की, जबकि ऑस्ट्रेलियन फेडरेशन ऑफ इस्लामिक काउंसिल्स (ICV) के अध्यक्ष डॉ. रातिब जुनैद मुख्य अतिथि थे। इस अवसर पर शिया उलेमा काउंसिल ऑफ ऑस्ट्रेलिया के अध्यक्ष हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मौलाना सैय्यद अबुल कासिम रिजवी, इमाम मोहम्मद नवास और अन्य समुदाय हस्तियां भी मौजूद थीं।
ICV पिछले पचास वर्षों से ऑस्ट्रेलिया में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व और सेवा करने वाले सबसे महत्वपूर्ण संस्थानों में से एक है। इसके तहत सत्तर से अधिक मस्जिदें और इस्लामिक केंद्र सक्रिय हैं, जहां शिक्षा और प्रशिक्षण, सामाजिक कल्याण, युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन, अंतर-धर्म सद्भाव और समुदाय विकास जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निरंतर सेवाएं प्रदान की जा रही हैं।
समारोह में वक्ताओं ने ICV की आधी सदी तक फैली सेवाओं का विवरण प्रस्तुत किया और ऑस्ट्रेलियाई मुस्लिम समुदाय की प्रगति और स्थिरता में संस्था की सक्रिय भूमिका की सराहना की। इस्लामोफोबिया की बढ़ती चुनौतियों, युवाओं के चरित्र निर्माण, कुरआनी शिक्षाओं के प्रसार और सीरत-ए-नबवी सल्लल्लाहु अलैहि व आलिही वसल्लम के व्यावहारिक क्रियान्वयन जैसे विषयों पर भी विस्तृत चर्चा हुई। प्रस्तुत की गई विशेष प्रस्तुति ने सभी प्रतिभागियों को अत्यंत प्रभावित किया।
समारोह को संबोधित करते हुए हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मौलाना सैय्यद अबुल कासिम रिजवी ने आईसीवी को आधी सदी पूरी करने पर बधाई दी और संस्था की निरंतर सेवाओं की सराहना की। उन्होंने कहा: हमारी जिम्मेदारी है कि युवा पीढ़ी का सही मार्गदर्शन करें, बेहतर भविष्य की नींव रखें और प्रेम, सम्मान, मानवता की सेवा और शांति के संदेश को व्यापक रूप से फैलाएं।
प्रतिभागियों ने इस समारोह को मेलबर्न के समुदाय इतिहास का एक महत्वपूर्ण और यादगार अध्याय करार दिया, जिसने सहयोग, एकता और साझा सेवा की भावना को मजबूती प्रदान की।
इस्लामिक काउंसिल ऑफ विक्टोरिया की पचास वर्षीय सेवाएं निश्चित रूप से ऑस्ट्रेलियाई मुस्लिम समुदाय के लिए प्रकाश और मार्गदर्शन का स्रोत हैं और यह संस्था भविष्य में भी उसी जोश और उत्साह के साथ धर्म और मानवता की सेवा जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध है।
लेबनान में इसराइल मुसलमान युद्धविराम का उल्लंघन कर रहा है।लेबनान
लेबनान के दक्षिणी क्षेत्र में एक इज़रायली ड्रोन के गिरने की घटना ने एक बार फिर दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण हालात को सुर्खियों में ला दिया है।
लेबनान के दक्षिणी क्षेत्र में एक इज़रायली ड्रोन के गिरने की घटना ने एक बार फिर दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण हालात को सुर्खियों में ला दिया है। स्थानीय सूत्रों ने बताया कि यह बिना पायलट वाला विमान लेबनान की अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट स्थित कफ़रकला क्षेत्र में शनिवार दोपहर अचानक नीचे गिर गया, जिसके बाद इसे तुरंत लेबनानी सुरक्षा बलों ने अपने कब्ज़े में ले लिया।
अल जाज़ीरा के अनुसार, लेबनान में यह पहली बार नहीं है जब इज़रायल का कोई ड्रोन या लड़ाकू विमान लेबनानी हवाई क्षेत्र में देखा गया हो। पिछले कई वर्षों से लेबनान लगातार संयुक्त राष्ट्र को शिकायत दर्ज कराता रहा है कि इज़रायल उसके हवाई क्षेत्र का बार-बार उल्लंघन करता है।
लेबनान का कहना है कि, यह कदम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1701 का सीधा उल्लंघन है, जो 2006 में 33-दिवसीय इज़रायल-लेबनान युद्ध के बाद पारित किया गया था। इस प्रस्ताव में साफ़ तौर पर कहा गया है कि लेबनान और फ़िलिस्तीन के हवाई या ज़मीनी क्षेत्र में किसी भी प्रकार का सैन्य अतिक्रमण प्रतिबंधित है।
इस प्रस्ताव के तहत दक्षिणी लेबनान में संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना (UNIFIL) भी तैनात है, जिसका उद्देश्य सीमा पर शांति बनाए रखना और किसी भी तरह की सैन्य गतिविधि की निगरानी करना है। इसके बावजूद, लेबनान का कहना है कि इज़रायली ड्रोन और लड़ाकू विमान अक्सर क्षेत्र में गश्त करते रहते हैं। कई घटनाओं में लेबनानी सेना ने इन उड़ानों का ज़िक्र अपनी मैदानी रिपोर्टों में किया है।
कुछ मौकों पर लेबनान की सुरक्षा एजेंसियों ने गिरे हुए ड्रोन से ऐसे उपकरण और इलेक्ट्रॉनिक हिस्से भी बरामद किए हैं, जिनसे उनके जासूसी मिशन पर काम करने की पुष्टि होती है। नवीनतम घटना ने भी इस शक को और मज़बूत किया है कि, इज़रायल सीमा क्षेत्रों में निगरानी गतिविधियाँ तेज़ कर रहा है। लेबनान सरकार इस मुद्दे को फिर से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की तैयारी कर रही है।
मुश्केलात मे इमाम ज़माना (अ) से मदद और राब्ता कैसे हासिल करे?
मुशकेलात को क़बूल करना, ख़ास दुआओं और ज़ियारतों का एहतमाम करना, नमाज़-ए-इस्तेग़ासा और इमाम-ए-ज़माना (अ) की मारफ़त में इज़ाफ़ा ये सब बातें दिल को सुकून देती हैं और दुनिया की सख्तियों को बर्दाश्त करना आसान बना देती हैं, क्योंकि इमाम (अ) की मौजूदगी और इनायत इंसान के लिए मुश्किलों से गुज़रने का रास्ता हमवार करती है और रूहानी आराम पैदा करती है।
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन महदी यूसुफ़ियान, मरकज़-ए-तखस्सुसी महदवियत के माहिर ने “इमाम-ए-ज़माना (अज्) से राब्ता करने का तरीका; मुश्किलात में सुकून” के मौज़ू पर गुफ़्तगू की है, जो आपकी ख़िदमत में पेश है।
बिस्मिल्लाह हिर रहमानिर रहीम
इमाम ज़माना अलैहिस्सलाम के ख़ुतूत (तौक़ीअ) के बारे में कुछ अहम बातें क़ाबिले तवज्जोह हैं। आम तौर पर इमाम महदी अलैहिस्सलाम के ख़ुतूत के लिए “तौक़ीअ” (यानी लिखित जवाब या दस्तख़तशुदा ख़त) का लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है।
इमाम ज़माना (अज्) के तौक़ीआत दो क़िस्म के हैं:
- वो ख़त जो लोग इमाम को लिखते थे।
- ये ख़त नव्वाब-ए-ख़ास (इमाम के खास प्रतिनिधियो) के ज़रिए इमाम तक पहुंचाए जाते थे। फिर इमाम अलैहिस्सलाम उन ख़तों के नीचे जवाब लिखते और नव्वाब उन्हें वापस लोगों तक पहुंचाते थे।
- वो ख़त जो खुद इमाम महदी अलैहिस्सलाम की तरफ़ से जारी होते थे।
- ये ख़ुतूत सीधे इमाम की तरफ़ से होते और लोगों तक पहुंचाए जाते थे।
मरहूम शेख़ मुफ़ीद नव्वाब-ए-ख़ास के ज़माने में मौजूद नहीं थे; वे कई साल बाद पैदा हुए। इसलिए सवाल पैदा होता है कि इमाम के ख़ुतूत शेख़ मुफ़ीद तक कैसे पहुंचे?
तहक़ीक़ात से मालूम होता है कि ज़माने-ए-नियाबत-ए-ख़ास में भी कभी-कभार इमाम अलैहिस्सलाम अपनी मसलहत से सीधे कुछ अफ़राद को ख़ुतूत रसूल फरमाते थे।
इसलिए शेख़ मुफ़ीद की तरफ़ मंसूब ख़ुतूत भी शायद इसी क़िस्म के हैं।
इमाम अलैहिस्सलाम को शेख़ मुफ़ीद के इल्म, मरतबे और शिया समाज पर उनके असर की वजह से उनसे ख़ास मोहब्बत थी। यही वजह थी कि उनकी वफ़ात के बाद एक तौक़ीअ आम लोगों तक पहुंची और मशहूर हुई।
अगरचे कुछ लोग दो सौ साल के फासले और नव्वाब-ए-ख़ास के ना होने की वजह से इन ख़ुतूत पर शक करते हैं, मगर तारीखी शवाहिद इमाम की ख़ास इनायत की ताइद करते हैं।
सवाल: हम इमाम ज़माना (अज्) से कैसे राब्ता कायम करें ताकि मुश्किल हालात आसानी से बर्दाश्त हो सकें?
जवाब:
- दुनिया की सख्तियों को हकीकत समझ कर क़बूल करना।
- इमाम ज़माना (अज्) का ज़हूर या उनसे राब्ता ये मतलब नहीं कि सारी समस्याएं खत्म हो जाएं, बल्कि ये दिल को ताक़त देता है कि हम उन सख्तियों को बेहतर अंदाज़ में बर्दाश्त कर सकें।
- इमाम ज़माना (अज्) हमारा राब्ता हैं खुदा से।
- इमाम खुदा के ख़लीफ़ा और उसकी हुज्जत हैं। वो हमें खुदा से जोड़ने के लिए रहनुमाई करते हैं। इसलिए इमाम की तवज्जो और तालीमात मुश्किल वक़्त में हमारे लिए बड़ी मददगार साबित होती हैं।
- दुआ और ज़ियारत का सहारा।
- ज़ियारत-ए-आले-यासीन जैसी ज़ियारतें पढ़ने से दिल को सुकून मिलता है। सिर्फ़ इमाम को सलाम कहना भी दिल को इत्मिनान देता है। नमाज़-ए-इस्तेग़ासा बिहज़रत-ए-इमाम ज़माना (दो रकअत) और उसके बाद एक मुख़्तसर दुआ इंसान के अंदर रूहानी सुकून और इमाम से क़ल्बी वाबस्तगी पैदा करती है।
- मआरिफ़त-ए-इमाम को बढ़ाना।
- इमाम से गहरा राब्ता मआरिफ़त का मोहताज है। मआरिफ़त इंसान के दिल में मोहब्बत, यक़ीन और इख़लास पैदा करती है, जिससे आमाल भी खुदा की रज़ा के लिए ज़्यादा ख़ालिस हो जाते हैं।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम का एक खुबसूरत इरशाद है:
एक शख़्स सख्त एहसास और तकलीफ़ में मुबतला था।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया: “अगर तुम यक़ीन रखते हो कि अल्लाह सबसे ज़्यादा रहम करने वाला है और वो हमेशा बंदों के लिए सबसे बेहतर चाहता है, तो ये हालत जिसमें तुम हो — तुम्हारे लिए इसी वक्त सबसे बेहतर फ़ैसला है।”
इस हकीकत को समझ लेने से इंसान मुश्किलात को आसानी से बर्दाश्त कर लेता है, क्योंकि उसे यक़ीन होता है कि इमाम ज़माना (अज्) उसके साथ हैं, और बहुत सी बलाएँ और तकलीफ़ें इमाम की इनायत से हम तक पहुंचने से पहले ही टल जाती हैं।
नतीजा:
दुआ, ज़ियारत और इमाम ज़माना (अज्) के साथ रूहानी तवज्जो के ज़रिए दिल को सुकून और मआरिफ़त में इज़ाफ़ा होता है।
जब इंसान ये हकीकत समझ लेता है कि इमाम की निगाह-ए-लुत्फ़ हर लम्हा उस पर है, तो दुनिया की सारी सख्तियाँ बहुत हल्की महसूस होने लगती हैं।
पुत्रि को अपमान और अवैद बेटे का सम्मान
इस्लाम से पहले अरब समाज में औरतों का कोई इख़्तियार, इज़्ज़त या हक़ नहीं था। वे विरासत नहीं पाती थीं, तलाक़ का हक़ उनके पास नहीं था और मर्दों को बेहद तादाद में बीवियाँ रखने की इजाज़त थी। बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न किया जाता था और लड़की की पैदाइश को बाइस-ए-शर्म समझा जाता था। औरत की ज़िन्दगी और उसकी क़द्र-ओ-क़ीमत मुकम्मल तौर पर ख़ानदान और मर्दों पर मुनहसिर थी। कभी-कभी ज़िना से पैदा होने वाले बच्चे भी झगड़ों और तनाज़आत का सबब बनते थे।
तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयात 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दीगर क़ौमों व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख्सियत और समाजी मक़ाम” पर चर्चा की है। नीचे इसी सिलसिले का छठा हिस्सा पेश किया जा रहा है:
अरब में औरत की हैसियत और उस दौर का माहौल
(वही माहौल जिसमें क़ुरआन नाज़िल हुआ)
अरब बहुत पहले से जज़ीरा-ए-अरब के ख़ुश्क (सूखे), बे-आब-ओ-गयाह और सख़्त गर्म इलाक़ों में आबाद थे। उनमें से ज़्यादा लोग रेगिस्तान में रहने वाले, ख़ाना-बदोश और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन से दूर थे। उनका गुजर-बसर ज़्यादातर लूटमार और अचानाक हमलों पर होती थी।
अरब एक तरफ़ उत्तर पूर्व में ईरान से, उत्तर में रोम से, दक्षिण में हबशा के शहरों से और पश्चिम में मिस्र और सूडान से जुड़े हुए थे।इसीलिए उनके रस्म-ओ-रिवाज में जहालत और वहशियाना आदतें ग़ालिब थीं, अगरचे यूनान, रोम, ईरान, मिस्र और हिन्दुस्तान की कुछ रवायतों का असर कभी-कभार उनमें भी देखा जा सकता था।
औरत की कोई हैसियत नहीं थी
अरब औरत को न ज़िन्दगी में कोई इख़्तियार देते थे, न उसकी इज़्ज़त-ओ-हरमत के क़ायल थे। अगर एहतिराम होता भी था तो घराने और ख़ानदान के नाम का, औरत का ज़ाती नहीं। औरतें विरासत में हक़ नहीं रखती थीं। एक मर्द जितनी चाहे बीवियाँ रख सकता था — इस पर कोई हद नहीं थी, जैसे यहूदियों में भी यह रिवाज मौजूब था। तलाक़ का इख़्तियार सिर्फ़ मर्द के पास था; औरत को इसमें कोई हक़ हासिल न था।
बेटी का पैदा होना नंग समझा जाता था
अरब बेटी की पैदाइश को मनहूस और बाइस-ए-शर्म समझते थे। क़ुरआन ने इसी रवैये को बयान करते हुए फ़रमाया: “यतवारा मिनल क़ौमे मिम्मा बुश्शिर बिहि” यानी बेटी की खुशख़बरी सुनकर बाप लोगों से छुपने लगता था।
इसके बरअक्स, बेटे की पैदाइश पर — चाहे वह हक़ीक़ी हो या गोद लिया हुआ — वे बेहद खुश होते थे। यहाँ तक कि वे उस बच्चे को भी अपना बेटा बना लेते थे जो उनके ज़िना के नतीजे में किसी शादीशुदा औरत से पैदा होता। कभी ऐसा होता कि ताक़तवर अफ़राद एक नाजायज़ बच्चे पर झगड़ते और हर शख़्स यह दावा करता कि यह बच्चा मेरा है।
बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न करना
अरब समाज में बेटियों को ज़िन्दा दफ़्न करना भी आम था। इस ख़ौफ़नाक रस्म की इब्तिदा बनू तमीम क़बीले में हुई। वाक़िआ यह था कि उनकी नुमान बिन मुनज़िर से जंग हुई, जिसमें उनकी कई बेटियाँ असीर हो गईं। यह क़बाइली ग़ैरत बर्दाश्त न कर सके और ग़ुस्से में आकर फ़ैसला किया कि आइन्दा अपनी बेटियों को खुद क़त्ल करेंगे ताकि वे दुश्मन के हाथ न लगें।
यूँ यह ज़ालिमाना रस्म आहिस्ता-आहिस्ता दूसरे क़बीलों में भी फैल गई।
(जारी है…)
(स्रोत: तर्जुमा तफ़्सीर अल-मिज़ान, भाग 2, पेज 403)
भारत मे सुप्रीम लीडर के प्रतिनिधि ने दिल्ली में आतंकवादी हमले की कड़ी निंदा की
हिंदुस्तान में वली-ए-फ़क़ीह के प्रतिनिधि हुज्जतुउल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन अब्दुल-मजीद हकीम इलाही ने दिल्ली में हुए दहशतगर्दाना हमले की सख़्त मज़म्मत करते हुए उसे इंसानियत के ख़िलाफ़ संगीन जुर्म क़रार दिया और मुतासिरीन के अहले-ख़ाना से दिली ताज़ियत का इज़हार किया।
दिल्ली में हुए हालिया दहशतगर्दाना हमले ने जहाँ कई बेगुनाह हिंदुस्तानियों की जानें लीं, वहीं मुल्क भर में ग़म व अँदोह का माहौल क़ायम कर दिया। इस अफ़सोसनाक सानेह पर हिंदुस्तान में वली-ए-फ़क़ीह के नमायंदे हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन अब्दुल-मजीद हकीम इलाही ने एक ताज़ियती व मज़म्मती पैग़ाम जारी किया है।
उन्होंने कहा कि इंतिहाई अफ़सोस के साथ हमें इत्तिला मिली कि दिल्ली में दहशतगर्दों की जानिब से किए गए इस बुज़दिलाना हमले के बाइस मुतअद्दिद मुअज़्ज़ज़ शेहरी जान-बहक और ज़ख़्मी हुए, जिसने हमें शदीद रंज और तकलीफ़ में मुबतला कर दिया है।
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन हकीम इलाही ने अपने पैग़ाम में वाज़ेह किया कि दहशतगर्दी का हर इक़दाम नाक़ाबिल-ए-मआफ़ी जुर्म है, जो इंसानी, अख़लाक़ी और बैनेल-अक़वामी उसूलों की सरीह ख़िलाफ़वर्जी है। उन्होंने इस हमले को “मुजरिमाना और सफ़्फाक़ाना” क़रार देते हुए सख़्त तरीन अल्फ़ाज़ में मज़म्मत की।
उन्होंने कहा कि हमारा मौक़िफ़ हमेशा से वाज़ेह रहा है कि दहशतगर्दी ख़्वाह कहीं भी हो, क़ाबिल-ए-मज़म्मत है, और इसके तदारुक के लिए आलमी सतह पर मुश्तरका कोशिशें ना-गुज़ीर हैं। उन्होंने दहशतगर्द अनासिर और उनके सरग़नों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कारवाई को वक़्त की ज़रूरत क़रार दिया।
हिंदुस्तान में सुप्रीम लीडर के प्रतिनिधि ने भारत सरकार, जनता और ख़ास तौर पर पसमान्दगान से दिली ताज़ियत का इज़हार करते हुए ख़ुदावंद-ए-मुतआल से जान-बहक होने वालों के लिए मग़फ़िरत, ज़ख़्मियों की जल्द शिफ़ा और अहले-ख़ाना के लिए सब्र-ए-जमील की दुआ की।
अपने पैग़ाम के इख़्तिताम पर उन्होंने उम्मीद ज़ाहिर की कि हिंदुस्तान हमेशा अम्न, इस्तिहकाम और तरक़्क़ी का मरकज़ बना रहे।













