رضوی

رضوی

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) चूंकि फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) थे इस लिये आप में सीरते मोहम्मदिया का होना लाज़मी था। अल्लामा मोहम्मद इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि एक शख़्स ने आपको बुरा भला कहा, आपने फ़रमाया , भाई मैंने तो तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा अगर कोई हाजत रखता हो तो बता ताकि मैं पूरी करूं। वह शरमिन्दा हो कर आपके अख़लाख का कलमा पढ़ने लगा।

(मतालेबुल सुवेल सफ़ा 267)

अल्लामा हजरे मक्की लिखते हैं, एक शख़्स ने आपकी बुराई आपके मुंह पर की, आपने उस से बे तवज्जीही बरती। उसने मुख़ातिब कर के कहा मैं तुम को कह रह हूँ। आप ने फ़रमाया मैं हुक्मे ख़ुदा ‘‘ वा अर्ज़ अनालन जाहेलीन ’’ जाहिलों की बात की परवाह न करो, पर अमल कर रहा हूँ। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120)

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि एक शख़्स ने आप से आ कर कहा कि फ़लां शख़्स आपकी बुराई कर रहा था। आपने फ़रमाया कि मुझे उसके पास ले चलो, जब वहां पहुँचे, तो उस से फ़रमाया भाई जो बात तूने मेरे लिये कही है, अगर मैंने ऐसा किया हो तो खु़दा मुझे बख़्शे और अगर नहीं किया तो ख़ुदा तुझे बख़्शे कि तूने बोहतान लगाया।

एक रवायत में है कि आप मस्जिद से निकल कर चले तो एक शख़्श आपको सख़्त अल्फ़ाज़ में गालियां देने लगा। आपने फ़रमाया कि अगर कोई हाजत रखता है तो मैं पूरी करूँ, ‘‘ अच्छा ले ’’ यह पांच हज़ार दिरहम। वह शरमिन्दा हो गया।

एक रवायत में है कि एक शख़्स ने आप पर बोहतान बांधा। आपने फ़रमाया मेरे और जहन्नम के दरमियान एक खाई है अगर मैंने उसे तय कर लिया तो परवाह नहीं, जो जी चाहे कहो और अगर उसे पार न कर सकूं तो मैं इस से ज़्यादा बुराई का मुस्तहक़ हूँ जो तुमने की। (नूरूल अबसार सफ़ा 126- 127)

अल्लामा दमीरी लिखते हैं कि एक शामी हज़रत अली (अ.स.) को गालियां दे रहा था। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने फ़रमाया, भाई तुम मुसाफ़िर मालूम होते हो, अच्छा मेरे साथ चलो, मेरे यहां क़याम करो और जो हाजत रखते हो बताओ ताकि मैं पूरी करूं। वह शरमिन्दा हो कर चला गया। (हैवातुल हैवान जिल्द 1 सफ़ा 121)

अल्लामा तबरिसी लिखते हैं कि एक शख़्स ने आपसे बयान किया कि फ़लां शख़्स आपको गुमराह और बिदअती कहता है। आपने फ़रमाया अफ़सोस है कि तुम ने उसकी हम नशीनी और दोस्ती का कोई ख़्याल न रखा और उसकी बुराई मुझसे बयान कर दी। देखो यह ग़ीबत है अब ऐसा कभी न करना। (एहतेजाज सफ़ा 304)

जब कोई सायल आपके पास आता तो ख़ुश व मसरूर हो जाते थे और फ़रमाते थे कि ख़ुदा तेरा भला करे कि तू मेरा ज़ादे राहे आख़ेरत उठाने के लिये आ गया है। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 263)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) सहीफ़ा ए कामेला में इरशाद फ़रमाते हंै, ख़ुदा वन्दा मेरा कोई दरजा न बढ़ा, मगर यह कि इतना ही खुद मेरे नज़दीक मुझको घटा और मेरे लिये कोई ज़ाहिरी इज़्ज़त न पैदा कर मगर यह कि ख़ुद मेरे नज़दीक इतनी ही बातनी लज़्ज़त पैदा कर दे।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और सहीफ़ा ए कामेला

किताब सहीफ़ा ए कामेला आपकी दुआओं का मजमूआ है। इसमें बेशुमार उलूम व फ़ुनून के जौहर मौजूद हैं। यह पहली सदी की तसनीफ़ है। (मआलिम अल उलेमा सफ़ा 1 तबआ ईरान) इसे उलेमा ए इस्लाम ने ज़ुबूरे आले मोहम्मद (स.अ.) और इन्जीले अहलेबैत (अ.स.) कहा है। (नेयाबुल मोअद्दता सफ़ा 499 व फ़ेहरिस्त कुतुब ख़ाना ए तेहरान सफ़ा 36) और उसकी फ़साहत व बलाग़त मआनी को देख कर उसे कुतुबे समाविया और सहफ़े लौहिया व अरशिया का दरजा दिया गया है। (रियाज़ुल सालीक़ैन सफ़ा 1) इसकी चालीस हज़ार शरहें हैं जिनमें मेरे नज़दीक रियाज़ुल सालीकैन को फ़ौकी़यत हासिल है।

हश्शाम बिन अब्दुल मलिक और क़सीदा ए फ़रज़दक़

अब्दुल मलिक इब्ने मरवान का सन् 105 में ख़लीफ़ा होने वाला बेटा हश्शाम बिन अब्दुल मलिक अपने बा पके अहदे हुकूमत में एक मरतबा हज्जे बैतुल्लाह के लिये मक्के मोअज़्ज़मा गया। मनासिके हज बजा लाने के सिलसिले में तवाफ़ से फ़राग़त के बाद हजरे असवद का बोसा देने आगे बढ़ा और पूरी कोशिश के बवजूद हाजियों की कसरत की वजह से हजरे असवद के पास न पहुँच सका। आखि़र कार एक कुर्सी पर बैठ कर मजमे के छटने का इन्तेज़ार करने लगा। हश्शाम के गिर्द उसके मानने वालों का अम्बोह कसीर था। यह बैठा हुआ इन्तेज़ार ही कर रहा था कि नागाह एक तरफ़ से फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बरामद हुए। आपने तवाफ़ के बाद ज्यों ही हजरे असवद की तरफ़ रूख़ किया मजमा फटना लगा, हाजी हटने लगे, रास्ता साफ़ हो गया और आप क़रीब पहुँच कर तक़बील फ़रमाने लगे। हश्शाम जो कुर्सी पर बैठा हुआ था हालात का मुतालेआ कर रहा था जल भुन कर ख़ाक हो गया और उसके साथी बहरे हैरत में ग़र्क़ हो गये। एक मुंह चढ़े ने हश्शाम से पूछा, हुज़ूर यह कौन हैं? हश्शाम ने यह समझते हुए कि अगर तअर्रूफ़ करा दिया और इन्हें बता दिया कि यह ख़ानदाने रिसालत के चश्मों चिराग़ हैं तो कहीं मेरे मानने वालों की निगाह मेरी तरफ़ से फिर कर उनकी तरफ़ मुड़ न जाये। तजाहुले आरोफ़ाना के तौर पर कहने लगा, ‘‘ मआ अरफ़ा ’’ मैं नहीं पहचानता। यह सुन कर शायरे दरबार जनाब फ़रज़दक़ से न रहा गया और उन्होंने शामियों की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा, ‘‘ अना अराफ़ा ’’ इसे मैं जानता हूँ कि यह कौन हैं, ‘‘ मुझ से सुनो ’’ यह कह कर उन्होंने इरतेजालन और फ़िल बदीहा एक अज़ीम उश्शान क़सीदा पढ़ना शुरू कर दिया जिसका पहला शेर यह है तरजुमा यह वह शख़्स है जिस को खाना ए काबा हिल्लो हरम सब पहचानते हैं और उसके क़दम रखने की जगह, क़दम की चाप को ज़मीन बतहा भी महसूस कर लेती है। मैं इस रदीफ़ में इस क़सीदे का उर्दू मनजूम तरजुमा र्दजे ज़ैल करता हूँ।

यह वह है जानता है मक्का जिसके नक़्शे क़दम

ख़ुदा का घर भी है, आगाह और हिल्लो हरम

जो बेहतरीन ख़लाएक़ है उस का है फ़रज़न्द

है पाक व ज़ाहिद व पाकीज़ा व बुलन्द हशम

कु़रैश लिखते हैं जब , इसे तू कहते हैं

बुर्ज़ुगियों पे हुई इसकी इन्तेहाए करम

इस क़सीदे के तमाम नाक़ेलीन ने पहला शेर यह लिखा है।

हाज़ल लज़ी ताअररूफ अल बतहा व तातहू

वाअल बैतया अरफ़हू वाअलहलव अलहरम

लेकिन यह मालूम होने के बाद कि क़सीदे के लिये मतला ज़रूरी होता है। उसे पहला शेर क़रार नहीं दिया जा सकता, अल बत्ता यह मुम्किन है कि यह समझा जाए कि शायर ने मौक़े के लेहाज़ से अपने क़सीदे की इस वक़्त पढ़ने की इब्तेदा इसी शेर से की थी और मुवर्रेख़ीन ने इसी शेर को पहला शेर क़रार दे दिया। अल्लामा अब्दुल्लाह इब्ने मोहम्मद इब्ने यूसुफ़ ज़ाज़नी अल मौतूफ़ी 231 हिजरी शरहे सबहे मुअल्लेक़ात में लिखते हैं कि इस क़सीदे का पहला शेर यह है।

या साएली एन हल अलजदू व अल करम

अन्दी बयान अज़ा, तलाबहा क़दम

क़सीदाऐ फ़रज़दक़ के मुतालिक़ एक ग़लत फ़हमी और उसका इज़ाला

इमामे अहले सुन्नत मोहम्मद अब्दुल क़ादिर सईद अलराफ़ई ने 1927 ई0 में शाएर अरब अबू अलतमाम हबीब अदस बिन हारस ताई आमली शामी बग़दाद के कीवान ‘‘ हमासह ’’ के मिस्र तबा कराया है। इसकी जिल्द 2 सफ़ा 284 पर इस क़सीदे के इब्तेदाई 6 अश्आर को नक़ल कर के लिखा है कि यह अश्आर ‘‘ हज़ीन अल कनानी ’’ के हैं। इसने उन्हें अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मलिक बिन मरवान की मदह में कहे थे, साथ ही साथ यह भी लिखा है ‘‘व अलनास यरोदन हाज़ह अल बयात अलप फ़रज़ोक़ यमदह बहा अली इबनुल हुसैन बिन अबी तालिब व हैग़लतमन रदहाफ़ह लान हाज़ा लेस ममायदहा बेही मिस्ल अली बिन अल हुसैन व लहमन अल फ़ज़ल अलबा हरमालैसा ला हद फ़ी वक़तहू ’’ और लोेग जो इन अबयात के मुताअल्लिक़ यह रवायत करते हैं कि यह फ़रज़दक़ के हैं और उसने उन्हें मदहे ‘‘ इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ‘‘ में कहा है ग़लत है क्यों कि यह अशआर उनके शायाने शान नहीं हैं वह तो अपने वक़्त के सब से बड़े साहेबे फ़ज़ीलत थे। मैं कहता हूँ कि यह अशआर फ़रज़दक ही के हैं क्यों कि इसे बेशुमार फ़हूल उलमा व मुवर्रेख़ीन ने उन्हीं के अश्आर तसलीम किए हैं जिनमें इमाम अल मोहक़ेक़ीन अल्लामा शेख़ मुफ़ीद अलै हिर रहमा मौतूफ़ी 413 हिजरी व इमाम ज़दज़नी अल मौतूफ़ी 431 हिजरी व अल्लामा इब्ने हजर मक्की व हाफ़िज़ अबू नईम और साहेबे मज़ा फिल अदब शामिल हैं। मुलाहेज़ा हो इरशाद मुफ़ीद सफ़ा 399 तबा ईरान 1303 इन उलमा के तसलीम करने के बाद किसी फ़रदे वाहिद के इनकार से कोई असर नहीं पड़ा।

पहुँच गया है यह इज़्ज़त की उस बुलन्दी पर

जहां पर जा सके इस्लाम के अरब व अजम

                 यह चाहता है कि ले हाथों हाथ रूकने हतीम

                 जो चूमने हजरे असवद , आए निज़्दे हरम

छड़ी है हाथ में , जिसके महकती है ख़ुशबू

व्ह हाथ जो नहीं इज़्ज़त में और शान में कम

                 नज़र झुकाए हैं सब यह हया है रोब से लोग

                 जो मुस्कुराए तो आजाए, बात करने का दम

जबीं के नूरे हिदायत से , कुफ्ऱ घटता है यूँ

ज़ियाए महर से तारीकियाँ,  हों जैसे कम

                 फ़ज़ीलत और नबीयो की इसके जद से है पस्त

                 तमाम उम्मतें, उम्मत से इसके रूतबे में कम

यह वह दरख़्त है जिसकी है जड़ खुदा का रसूल

इसी से फ़ितरत व आदात भी हैं पाक बहम

                 यह फ़ात्मा का है , फ़रज़न्द ‘‘ तू नहीं वाक़िफ़ ’’

                 इसी के जद से नबियों का बढ़ सका न क़दम

अज़ल से लिखी है , हक़ ने शराफ़तों अज़्ज़त

चला इसी के लिये लौह पर खु़दा का क़लम

                 जो कोई ग़ैज़ दिला दे , तो शेर से बढ़ जाए

                 सितम करे कोई इस पर तो मौत का नहीं ग़म

ज़र्र न होगा उसे तू , बने हज़ार अन्जान

इसे तो जानते हैं सब अरब तमाम अजम

                बरसते हब्र हैं हाथ इसके जिनका फ़ैज़ है आम

 

                 वह बरसा करते हैं , यकसाँ कभी नहीं हुए कम

वह नरम है, कि डर जल्द बाज़ियों का नहीं

है हुसने ख़ुल्क, इसी की तो ज़ीनते बाहम

                 मुसिबतों में क़बीलों के , बार उठाता है

                 हैं जितने खूब शमाएल, हैं इतने खूब करम

कभी न उसने कहा ‘‘ ला ’’ बजुज़ तशहुद के

अगर न होता तशहुद तो होता ‘‘ ला ’’ भी नअम

                 खि़लाफ़े वादा नहीं करता , यह मुबारक ज़ात

                 है मेज़ बान भी, अक़ल व इरादह भी है बहम

तमाम ख़लक़ पे एहसाने आम है इसका

इसी से उठ गया अफ़लासो रंजो फ़क्रा क़दम

            मोहब्बत इसकी है ‘‘ दीन ’’ और अदावत इसकी है कुफ़्र

है क़ुरबा इसका , निजातो पनाह का आलम

शुमार ज़ाहिदों का हो , तो पेशवा यहा हो

कि बेहतरीन ख़लाएक़ , इसीको कहते है हम

                 पहुँचना इसकी सख़ावत , ग़ैर मुम्किन है

                 सख़ी हों लाख न पांएगे इसकी गरदे क़दम

जो क़हत की हो  यह अबरे बारां हैं

जो भड़के जंग की आतिश यह शेर से नहीं कम

                 न मुफ़लिसी का असर है , फ़राग़ दस्ती पर

                 कि इसको ज़र की ख़ुशी है न बेज़री का अलम

इसी की चाह से जाती है आफ़त और बदी

इसी की वजह से आती है नेकी और करम

                 इसी का ज़िक्र मुक़द्दम है बाद ज़िक्रे खु़दा

                 इसी के नाम से हर बात ख़त्म करते हैं हम

मज़म्मत आने से इसके क़रीब भागती है

करीमे ख़लक़ हैं होती नहीं सख़ावत कम

                 ख़ुदा बन्दों में है कौन ऐसा जिसका सर

                 इसी घराने के एहसान से हुआ न हो ख़म

ख़ुदा को जानता है जो इसे भी जानता है

इसी के घर से मिला उम्मतों को दीन बहम

इस क़सीदे को सुन कर हश्शाम ग़ैज़ो ग़ज़ब से पेचो ताब खाने लगा और उसका नाम दरबारी शोअरा की फ़ेहरीस्त से निकाल कर उसे बमुक़ाम असफ़ान क़ैद कर दिया। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को जब इसकी क़ैद का हाल मालूम हुआ तो आपने बारह हज़ार दिरहम उसके पास भेजा। फ़रज़दक़ ने यह कह कर वापिस कर दिया कि मैंने दुनियावी उजरत के लिये क़सीदा नहीं कहा है इस से मैं क़सदे सवाब का इरादा रखता हूँ। हज़रत ने फ़रमाया कि हम आले मोहम्मद (अ.स.) का यह उसूल है कि जो चीज़ दे देते हैं फिर उसे वापस नहीं लेते। तुम इसे ले लो। खुदा तुम्हारी नियत का अजरे अज़ीम देगा, वह सब कुछ जानता है। ‘‘ फ़ा क़बलहल फ़रज़दक़ ’’ फ़रज़दक़ ने उसे क़ुबूल कर लिया। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120 मतालेबुल सुवेल सफ़ा 226, अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 403, मजालिसे अदब, जिल्द 6 सफ़ा 254, वसीलतुन नजात सफ़ा 320, तारीख़े अहमदी सफ़ा 328, तारीख़े आइम्मा सफ़ा 369, हुलयतुल अवलिया हाफ़िज़ अबू नईम रिसाला हक़ाएक लख़नऊ)

अल्लामा इब्ने हसन जारचवी लिखते हैं कि ‘‘ हश्शाम उनको एक हज़ार दीनार सालाना दिया करता था जब उसने यह रक़म बन्द कर दी तो यह बहुत परेशान हुए। माविया बिने अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़रे तय्यार ने कहा, फ़रज़दक़ घबराते क्यों हो , कितने साल ज़िन्दा रहने की उम्मीद है? उन्होंने कहा यही बीस साल। फ़रमाया कि यह बीस हज़ार दीनार ले लो और हश्शाम का ख़्याल छोड़ दो। उन्होंने कहा मुझे अबू मोहम्मद अली इब्नुल हुसैन (अ.स.) ने भी रक़म इनायत फ़रमाने का इरादा किया था मगर मैंने क़बूल नहीं किया। मैं दुनिया का नहीं आख़ेरत के अज्र का उम्मीदवार हूँ।

बेहारूल अनवार में है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने चालीस दीनार अता फ़रमाये और हुआ भी ऐसी ही कि फ़रज़दक़ उसके बाद चालीस साल और ज़िन्दा रहे। (तज़किरा मोहम्मद (स. .अ.) व आले मोहम्मद (अ.स.) जिल्द 2 सफ़ा 190)

 

 

 

क़यामत, अल्लाह तआला की रहमत, दया, हिकमत, नीति और उसके न्याय की नुमाइश का स्थान है इस बारे में क़ुर्आने मजीद में यह फ़रमाता हैः

उसने अपने ऊपर रहमत को लिख लिया है निश्चित रूप से वह तुम्हे क़यामत के दिन एक जगह जमा करेगा, जिसमें कोई शक नहीं है।

रहमत, अल्लाह तआला के उन गुणों में से जिन्हें सिफ़ाते कमालिया कहा जाता है और जिसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला मख़लूक़ात (जीवों) की ज़रूरतों का पूरा करने वाला है और उनमें से हर एक को उसके कमाल व कौशल की तरफ़ रहनुमाई करके इसके मुनासिब व उचित स्थान तक पहुँचाता है। इंसानी ज़िन्दगी की विशेषताएं साफ़ तौर पर इंसान की अबदी व अनन्त ज़िन्दगी को बयान करती हैं इसलिए एक ऐसी जगह होना ज़रूरी है कि जहाँ इंसान अबदी ज़िन्दगी बिता सके।

क़यामत अल्लाह की नीति के अनुसार भी है क्योंकि यह दुनिया, कि जो लगातार हरकत और तब्दीली में है अगर यह उस प्वाइंट तक न पहुँचे कि जहाँ ठहराव हो तो यह दुनिया अपने आख़री लक्ष्य, मक़सद और मंज़िल तक नहीं पहुँचेगी और अल्लाह तआला से जो हर प्रकार से हकीम व नीतिज्ञ है, बेमक़सद काम अन्जाम पाना असम्भव है, जैसा कि इरशाद होता हैः

क्या तुमने यह सोच रखा है कि हमने तुमको बेकार पैदा किया है और तुम हमारी तरफ़ पलटा कर नहीं लाये जाओगे?

दूसरे स्थान पर यह बयान करने के बाद कि आसमान और ज़मीन और जो कुछ इनके बीच है अल्लाह तआला ने उन सब को बेकार पैदा नहीं किया है। क़यामत को बयान करने के बाद यह फ़रमाता हैः

क़यामत का एक और फ़लसफ़ा यह है कि अच्छे और बुरे तथा मोमिन और काफ़िर के बारे में अल्लाह तआला का न्याय पूरी तरह से लागू हो जाए क्योंकि दुनिया में सारे इन्सानों के एक साथ ज़िन्दगी गुज़ारने के आधार पर अल्लाह तआला के न्याय के अनुसार इनाम व सज़ा देने के क़ानून पर पूरी तरह अमल नामुमकिन है इस आधार पर एक ऐसी जगह का होना ज़रूरी है कि जहाँ अल्लाह तआला के इनाम व सज़ा पर आधारित क़ानून के लागू होने का इमकान पाया जाता हो, इस बारे में क़ुरआने मजीद में इरशाद होता हैः

 

 क्या हम मोमिनों और अच्छे काम करने वालों को ज़मीन पर फ़साद व उपद्रव फैलाने वालों और परहेज़गारों व सदाचारियों को गुनाहगारों व पापियों के बराबर क़रार देंगे?

इसी तरह इरशाद होता हैः

क्या हम बात मानने वालों को अपराधियों के बराबर क़रार देंगे, तुम्हे क्या हो गया है, कैसे फ़ैसला करते हो?

इस्लाम की निगाह में वह अमल सही है जो अल्लाह उसके रसूल स.अ. और इमामों के हुक्म के मुताबिक़ हों क्योंकि यही सेराते मुस्तक़ीम है, और जितना इंसान इस रास्ते से दूर होता जाएगा उतना ही गुमराही से क़रीब होता जाएगा।

इंसान को शरीयत के हिसाब से अमल करना चाहिए और ख़ुदा के अहकाम पर हर हाल में अमल करना चाहिए और इसी तरह दीनी अख़लाक़ पर अमल करना भी हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है, तभी उसको पता चलेगा कि उसके आमाल कहां तक अल्लाह के लिए हैं, और इसी तरह पैग़म्बर स.अ. और मासूमीन अ.स. की सीरत को अपनी ज़िंदगी के लिए आइडियल बनाना चाहिए ताकि अल्लाह हमें जिस रास्ते पर चलते हुए देखना चाहता है हम उस पर चल सकें, और सबसे ज़्यादा अहम बात यह कि अगर इंसान अपने आमाल को अल्लाह का पसंदीदा देखना चाहता है तो उसे आमाल में ख़ुलूस लाना पड़ेगा। ख़ुलूस, बंदगी की रूह का नाम है, ख़ुलूस के बिना इबादत किसी काम की नहीं है जैसाकि इमाम सादिक़ अ.स. ने फ़रमाया कि नीयत अमल से बेहतर है और याद रखना कि अमल की हक़ीक़त का नाम नीयत ही है। (उसूले काफ़ी, जिल्द 2, पेज 16) इसलिए अगर नीयत में ख़ुलूस नहीं पाया गया तो नीयत बेकार और जब नीयत बेकार तो अमल किसी क़ाबिल नहीं रह जाएगा।

ख़ुलूस का मतलब नीयत का शिर्क और दिखावे से पाक रखना है, हदीसों में बयान हुआ है कि ख़ुलूस का संबंध दिल से है उसके बारे में किसी सामने की चीज़ के जैसा फ़ैसला नहीं किया जा सकता जैसाकि पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि अल्लाह तुम्हारी दौलत और तुम्हारे चेहरों का नहीं देखता बल्कि उसकी निगाहें तुम लोगों के दिल और तुम्हारे आमाल पर रहती हैं। (मीज़ानुल-हिकमह, जिल्द 2, पेज 16)

इंसान का अपने को ख़ुलूस की उस मंज़िल तक पहुंचाना कि उसका हर काम केवल अल्लाह के लिए हो यह बहुत सख़्त काम है और हर कोई आसानी से इस मंज़िल तक पहुंचने का दावा नहीं कर सकता, हालांकि इंसान को मायूस नहीं होना चाहिए बल्कि जितना हो सके अपनी नीयत और आमाल में ख़ुलूस पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए, ज़ाहिर है कि जिस तरह इंसान अपने बदन को सही आकार में लाने के लिए पसीना बहाता है रोज़ दौड़ता है और दूसरे बहुत से काम करता है तब कहीं जा कर धीरे धीरे उसका बदन सही शेप में आता है उसी तरह अपनी रूह की पाकीज़गी और नीयत और आमाल में ख़ुलूस पैदा करने के लिए धीरे धीरे क़दम उठाना होगा, और जिस तरह अपने जिस्म को सही शेप में लाने के लिए हम कम मेहनत से शुरू करते हैं और फिर घंटों मेहनत करते और पसीना बहाते हैं उसी तरह ख़ुलूस पैदा करने के लिए शुरू में अपनी नीयत और अमल में ख़ुलूस लाने के लिए धीरे धीरे अपने दिल और दिमाग़ से शिर्क और दिखावे को दूर करें और फिर पूरे ध्यान के साथ हर छोटे बड़े काम में ख़ुलूस लाने की कोशिश करें, जो लोग ख़ुलूस की ऊंचाईयों तक पहुंचे हैं उन्होंने कड़ी मेहनत की है अपने नफ़्स के साथ जेहाद किया है अपनी ख़्वाहिशों को मारा है तब जा कर अपनी नीयत को ख़ालिस कर सके हैं और तब कहीं जा कर उनके अमल अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ हुए हैं।

इंसान को हमेशा अल्लाह से दुआ करना चाहिए कि वह काम के आख़िर तक ख़ुलूस बाक़ी रखने की तौफ़ीक़ दे, क्योंकि कभी कभी बीच रास्ते में कुछ ऐसी मुश्किलें आ जाती हैं जिनसे इंसान का ख़ुलूस को आख़िर तक बाक़ी रख पाना मुमकिन नहीं होता। हदीसों की किताबों में नीयत और अमल में ख़ुलूस पैदा करने के कुछ तरीक़े बताए हैं जिनमें से कुछ की तरफ़ इशारा किया जा रहा है ताकि उनको पहचान के और उन पर अमल कर के पता चल सके कि ख़ुलूस वाले काम किस के तरह होते हैं।

1- पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि ख़ुलूस वाले इंसान की चार तरीक़े की पहचान हैं, पहले यह कि उसका दिल पाक साफ़ होता है, दूसरे यह कि उसके हाथ पैर और दूसरे बदन के हिस्से सही और सालिम होते हैं, तीसरे यह कि लोग उनके नेक कामों से फ़ायदा हासिल करते हैं, चौथे यह कि उनसे लोगों को किसी तरह का कोई ख़तरा नहीं होता। (तोहफ़ुल-ओक़ूल, पेज 16)

 

2- इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि जिसका ज़ाहिर और बातिन एक जैसा हो और सामने और पीठ पीछे की बातें एक जैसी हों हक़ीक़त में उसने अमानत को अदा कर दिया और अपनी इबादतों में ख़ुलूस पैदा कर लिया है। (नहजुल बलाग़ा, ख़त न. 26)

3- इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि ख़ुलूस की आख़िरी हद गुनाहों से बचना है। (बिहारुल अनवार, जिल्द 74, पेज 213)

4- एक दूसरी रिवायत में मौला अमीर अ.स. ही का फ़रमान है कि ख़ालिस इबादत उसे कहते हैं कि जिसमें इंसान अल्लाह के अलावा किसी और से थोड़ी भी उम्मीद न रखता हो और अपने गुनाहों के अलावा किसी से न डरता हो। (बिहारुल अनवार, जिल्द 74, पेज 229)

5- इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. फ़रमाते हैं कि ख़ालिस अमल वही है जिसमें इंसान अल्लाह के अलावा किसी और की तारीफ़ का इंतेज़ार न करे।

 (उसूल काफ़ी, जिल्द 2, पेज 16)

6- इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. फ़रमाते हैं कि कोई भी बंदा उस समय तक ख़ुलूस तक नहीं पहुंच सकता जब तक लोगों की तारीफ़ की चाहत ख़त्म न कर दे। (मिश्कातुल अनवार, पेज 11, अख़लाक़े अमली, आयतुल्लाह महदवी कनी, पेज 421)

7- हदीस में यह भी ज़िक्र हुआ है कि ख़ुलूस की शुरूआत अल्लाह के अलावा हर किसी से उम्मीद का तोड़ना है। (फ़ेहरिस्ते मौज़ूई ग़ोरर, पेज 430)

इन सभी हदीसों की रौशनी में यह बात साफ़ हो जाती है कि इबादत की बुनियाद ख़ुलूस है और आमाल को इबादत उसी समय कहा जा सकता है जब उसमें ख़ुलूस पाया जाता होगा, इस्लाम ने हमेशा अच्छे अमल को सराहा है , कभी अमल की भरमार के चलते अमल की रूह यानी ख़ुलूस और नीयत का साफ़ होना छूट जाए इसे इस्लाम सपोर्ट नहीं करता, अगर आप अपने अमल में ख़ुलूस का पता लगाना चाहते हैं तो आप कुछ समय तक अपने अमल और रोज़ाना के कामों पर ध्यान दीजिए और अपने दिल की गहराईयों में जा कर देखिए उसका हिसाब किताब कीजिए, अगर किसी वाजिब को सबके सामने ख़ुलूस से अंजाम नहीं दे सकते तो उसे भी तंहाई में अंजाम दीजिए, हालांकि बहुत कम होता है कि वाजिब अहकाम को अदा करने में दिखावा हो लेकिन अगर किसी को ऐसा लगता है कि वाजिब में भी दिखावा हो सकता है तो उसे भी अकेले में छिप कर अंजाम देना चाहिए क्योंकि ज़्यादातर दिखावे की मुश्किल लोगों के लिए मुस्तहब कामों में होती है, हमें केवल इस बात का ध्यान रखना है कि अमल वाजिब हो या मुस्तहब उसके अंदर दिखावा नहीं आना चाहिए और उसकी पहचान के लिए एक तरीक़ा यह भी है कि अमल अंजाम देने के बाद अपने नफ़्स की जांच पड़ताल करें अगर दुनिया की मोहब्बत और अल्लाह के अलावा किसी और को ख़ुश करने का इरादा और नीयत मिले तो समझ लीजिए उस अमल में ख़ुलूस नहीं है और अगर अमल के अंजाम के बाद अल्लाह से क़रीब होने का एहसास और उसको ख़ुश करने जैसा तसव्वुर पैदा हो तो समझ लीजिए आपने ख़ुलूस से अंजाम दिया है।

ध्यान रहे कभी कभी इंसान सवाब को हासिल करने और जन्नत में जाने के लिए अमल अंजाम देता है, ऐसा करने का बिल्कुल यह मतलब नहीं कि उस अमल में ख़ुलूस नहीं पाया जाता, और आख़िर में अपने इस लेख को को इस अहम हदीस पर ख़त्म कर रहे हैं कि जिसमें इमाम अ.स. ने फ़रमाया कि अपनी उम्मीदों को कम करो ताकि तुम्हारे अमल में ख़ुलूस पैदा हो। (फ़ेहरिस्ते मौज़ूई ग़ोरर, पेज 91, मेराजुस्-सआदह, पेज 491, चेहेल हदीस, इमाम ख़ुमैनी र.ह., पेज 51-55)

ईरान की सांस्कृतिक उच्च क्रांति परिषद के एक सदस्य ने कहा है कि जो व्यक्ति या समाज अपने आप को कुछ न समझे वह कुछ नहीं कर सकता।

ईरान की सांस्कृतिक उच्च क्रांति परिषद के एक सदस्य हसन रहीमपूर अज़्ग़दी ने राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में सक्रिय जवानों को संबोधित करते हुए भविष्य के निर्माण के लिए अतीत की पहचान के महत्व पर बल दिया और कहा कि अतीत को पहचाने बिना भविष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता। इस आधार पर सबसे पहले यह सोचना चाहिये कि आप किसके वारिस हैं? आपसे पहले विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले या तो जंग के मोर्चे पर गोली खाते थे या जंग के मोर्चे के पीछे हक़ की रक्षा में बुरा भला सुनते थे या कुर्दिस्तान और सीस्तान प्रांतों में कुमले आतंकवादियों के हाथों मारे जाते थे।

इंसान को पैदा करने का तर्क व फ़ल्सफ़ा और अहलेबैत को सही ढ़ंग से पहचानने का तरीक़ा

रहीमपर अज़्ग़दी ने धर्म और अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम को सही तरह से समझने में मौजूद व प्रचलित कुछ भ्रांतियों की आलोचना करते हुए कहा कि आमतौर पर प्रचलित आदत के अनुसार जैसे ही अहलेबैत का नाम आता है हमारी हाजतें हमारी नज़रों के सामने आ जाती हैं जबकि हक़ीक़त यह है कि इंसान की सबसे बड़ी ज़रूरत सही रास्ते का मिल जाना और उस पर चलना है और केवल अपनी भौतिक ज़रूरतों के लिए धर्म और अहलेबैत अलै. को नहीं अपनाना चाहिये।

वह इसी प्रकार कहते हैं कि धार्मिक शिक्षाओं में आया है कि दुनिया कठिनाइयों व समस्याओं की जगह है। इंसान की रचना का तर्क व फ़ल्सफ़ा इन कठिनाइयों को यथासंभव मार्ग से पार करना है। उन्होंने बल देकर कहा कि जो लोग कठिनाई व समस्या का सामना किये बिना दुनिया को हासिल करना चाहते हैं उन लोगों ने धर्म और अहलैत को सही तरह से नहीं समझा।

 आज की दुनिया में दीनदारी और स्वयं पर टीका-टिप्पणी

धार्मिक शिक्षाकेन्द्र और विश्वविद्यालय के उस्ताद और बुद्धिजीवी रहीमपूर अज़्ग़दी कहते हैं कि हम इंसान आमतौर पर धार्मिक संस्कारों को काफ़ी समझते हैं और हमारी दीनदारी भी विदित है यानी विदित व ज़ाहिर में हम धार्मिक हैं। वह कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है कि लोग ज़बान से अल्लाह को क़बूल करते हैं परंतु वे अमल और ज़िन्दगी में अल्लाह पर विश्वास नहीं रखते और ईमान उनके अमल में दिखाई नहीं देता है क्योंकि हम अल्लाह को हाज़िर व नाज़िर नहीं मानते हैं। हम तौबा करते हैं मगर झूठ बोलते हैं दूसरों का हक़ खाते हैं, मुर्दों को देखते हैं परंतु मौत पर यक़ीन व विश्वास नहीं रखते हैं हम अपने हितों के प्रयास में रहते हैं मगर कष्ट उठाये बिना जबकि इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार ईमान और अच्छे अमल के बिना कोई भी स्वर्ग में नहीं जायेगा और उसका अच्छा अंजाम नहीं होगा।

भ्रष्टाचार और अन्याय से मुक़ाबला करने वाल को पैग़म्बरों की भांति समस्याओं का सामना होगा

रहीमपूर अज़्ग़दी ने पैग़म्बरों और नेक बंदों द्वारा धर्म के लिए उठाई गई समस्याओं और कठिनाइयों की ओर संकेत करते हुए कहा कि हम लोग आमतौर पर उस वक़्त राजनीतिक व सांस्कृतिक गतिविधियां अंजाम देते हैं जब हमारी समस्याओं और ज़रूरतों का समाधान हो चुका होता है। अगर इस रास्ते में हमको किसी से कोई समस्या न हो, हमें कोई नुकसान न हो, हम बुरा-भला नहीं सुनेंगे यानी हमारा कोई दुश्मन नहीं होगा यानी हम कुछ नहीं हैं और हम किसी भी बातिल, भ्रष्टाचार और अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े नहीं हुए हैं जबकि जन्नत के चारों ओर समस्यायें हैं यानी समस्याओं का सामना किये बिना स्वर्ग हासिल नहीं किया जा सकता। तो जब भी हमारी ज़िन्दगी का रास्ता साफ़ हो यानी ज़िन्दगी में हमें किसी समस्या प्रकार की समस्या का सामना न हो तो हम स्वर्ग की ओर या बेहतर तरीक़े से कहूं कि इबादत के रास्ते में नहीं हैं।

उस इबादत का कोई मूल्य नहीं है जो हमें परिवर्तित न कर दे

रहीमपूर अज़्ग़दी पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम रज़ा अलै. के हवाले से एक रिवायत की ओर संकेत करते हैं जिसमें इमाम फ़रमाते हैं जो अल्लाह से तौफ़ीक़ चाहता है मगर पसीना न बहाये यानी परिश्रम न करे, ख़तरा मोल न ले तो उसने स्वयं का मज़ाक़ उड़ाया है। इसी प्रकार वह बल देकर कहते हैं कि ज़िम्मेदारी के बिना धर्म लोगों के लिए अफ़ीम और बहुत ख़तरनाक है। अगर हम हर साल हज, तीर्थ स्थलों और मशहद की यात्रा पर जाते हैं परंतु हमारे जीवन में कोई परिवर्तन उत्पन्न नहीं होता है तो उसका कोई फ़ायदा नहीं है। इन सब ज़ियारतों पर जाने के बजाये महान व धार्मिक हस्तियों के आदेशों पर अमल करना चाहिये।

स्वयं की आलोचना करने का महत्व

रहीमपूर अज़्ग़दी स्वयं पर टीका- टिप्पणी करने के महत्व की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि जो व्यक्ति या समाज अपना हिसाब- किताब न करे वह विफ़ल व नाकाम है। जो कमज़ोरों व असहाय लोगों की मदद न करे, जिसके अंदर दूसरों की सेवाभाव जज़्बा न हो और वह धार्मिक होने का दावा करे परंतु कोई स्टैंड नहीं लेता है न मुर्दाबाद को मानता है न ज़िन्दाबाद को, वह सबसे सहमत है या सबका विरोधी है, बेहतरीन हालत में अहलेबैत से प्रेम करने वाला है न कि अहलेबैत का शिया।

अहलुल-बैत (अ.स) समाचार एजेंसी -अबना- के अनुसार ज़ायोनी मीडिया ने मंगलवार सुबह दावा किया कि ऐनुल-असद पर मिसाइल हमले में कम से कम 2 अमेरिकी सैनिक मारे गए।

इससे पहले पेंटागन ने एक बयान में कहा था कि ऐनुल-असद अड्डे पर मिसाइल हमले में कई अमेरिकी सैनिक घायल हो गए हैं।

पेंटागन ने अपने बयान में कहा था कि घायल अमेरिकी सैनिकों की स्थिति के बारे में अभी भी कोई विस्तृत जानकारी नहीं है और हम नुकसान का आकलन कर रहे हैं।

सोमवार रात को अल-मयादीन नेटवर्क ने अपने सूत्रों के हवाले से खबर दी थी कि ऐनुल-असद अड्डे पर तीन धमाके सुने गए हैं।

बांग्लादेश के हालात पर भारत सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। इसमें विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बांग्लादेश की स्थिति की जानकारी दी। वहीं बांग्लादेश के मुद्दे को लेकर कांग्रेस ने सरकार का साथ दे रही है। मंगलवार को कांग्रेस सांसदों ने कहा कि बांग्लादेश के मामले में दोनों सदनों में चर्चा की जरूरत है।

कांग्रेस सांसद कार्ति पी चिदंबरम ने कहा कि बांग्लादेश में जो भी हो रहा है वह काफी चिंताजनक है। हमारे नागरिकों की सुरक्षा पर विचार किया जा रहा है। देश की सीमाओं और नागरिकों की सुरक्षा काफी महत्वपूर्ण है।

 

सामने आने वाली जानकारियों और तस्वीरों के अनुसार, ग़ज़ा में युद्ध के सैन्य अपराधियों में इस्राईली शासन के कई एथलीट शामिल हैं।

जिस समय पेरिस ग्रीष्मकालीन ओलंपिक खेल चल रहे थे, उसी समय इस्राईली शासन की टीमें और सैनिक-एथलीट, इन खेल मैदानों पर हाज़िर हुए और मैदान में उतर कर उन्होंने अपने झंडे तक लहराए।

एक खेल आयोजन से हटकर, ये खेल इस्राईली शासन के प्रोपेगैंडा द्वारा एक राजनीतिक शो के अवसर में तब्दील हो गया है। दूसरी तरफ़ और भी स्पष्ट तरीक़े से, वे समाचारों में इस्राईल के युद्ध अपराधों को कम करने और उन्हें सामान्य दिखाने में पूरी तरह से सक्षम रहे। 

पार्सटुडे की इस रिपोर्ट में ओलंपिक में इस्राईल की अवैध उपस्थिति को लेकर कई विरोधाभास और विचारणीय बिंदु बताए गए हैं:

1- ओलंपिक, और अधिक क़त्लेआम का अवसर

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने अपने वीडियो संदेश में देशों से ओलंपिक युद्धविराम की परिधि में अपने हथियार ज़मीन पर रखने को कहा, 24 घंटे से भी कम समय में, कार्रवाई की स्वतंत्रता के साथ ही इस्राईली सेनाओं ने दैरुल बलह के पास एक स्कूल पर हवाई हमले किए जिसके परिणामस्वरूप कम से कम 30 फ़िलिस्तीनियों की मौत हो गई और 100 से अधिक लोग घायल हो गए।

ये अपराध ओलंपिक के दिनों में ही अंजाम दिए गये और साथ ही ओलंपिक के मौक़े पर, इस्राईली शासन ने चुपचाप अपनी आक्रामकता और हमलों को अंजाम दिया है।

प्रोपेगैंडे के लिए ओलंपिक

 इस्राईली शासन अपने अपराधों को छुपाने के लिए खेल को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करता है और अपने अपराधों को तथाकथित गेम लांड्रिंग करता है।

यह हाज़िरी, इस्राईली शासन को अपने अपराधों को वैध बनाने और विश्व स्तर पर एक नरम शक्ति के रूप में इस्तेमाल करने में मदद करती है। पेरिस 2024 ओलंपिक में इस्राईली टीम की भागीदारी को बेन्यामीन नेतन्याहू के लिए एक बड़ी प्रचार जीत भी माना जाता है।

3 -रूस और IOC का दोहरा मापदंड

आईओसी ने यूक्रेन युद्ध पर रूस पर प्रतिबंध लगा दिया हैं जबकि उसने इस्राईल के ख़िलाफ़ कोई भी इस तरह की मिलती जुलती कार्रवाई नहीं की है जिसने खेल प्रतिष्ठानों पर बमबारी की और ओलंपियंस सहित कई एथलीटों और कोचों को मार डाला।

दूसरी ओर, ग़ज़ा पर हमलों की वजह से खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेने से इस्राईल का बहिष्कार करने या उस पर प्रतिबंध लगाने का व्यापक अनुरोध हुआ। इस पर जवाबी कार्रवाई करते हुए, ओआईसी ओलंपिक समिति ने ज़िम्मेदारी से इनकार कर दिया और एक सतही बयान जारी किया। आईओसी के अध्यक्ष थॉमस बाख़ ने कहा, हम राजनीतिक नहीं हैं, हम एथलीटों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं।

4 - सैनिक-एथलीटों का प्रदर्शन

जारी जानकारियों और तस्वीरों के अनुसार, इस्राईली शासन के कई एथलीट ग़ज़ा में युद्ध अपराधियों में हैं। पत्रकार करीम ज़ीदान इस बारे में लिखते हैं: पेरिस ओलंपिक में भाग लेने वाले 88 इस्राईली एथलीटों में, कम से कम 30 ने सार्वजनिक रूप से युद्ध और आईडीएफ़ का समर्थन किया है।

हालांकि, इस्राईली शासन की उपस्थिति को युद्ध-विरोधी समर्थकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के व्यापक विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

उनका मानना ​​है कि अमेरिका और पश्चिम के दबाव में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय गूंगा बना हुआ है और इस्राईली शासन द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन से गंभीरता से निपटने में असमर्थ है।

बेशक, लोगों के ग्रुप्स अब तक बेकार नहीं हुए हैं और उन्होंने पेरिस ओलंपिक में इस्राईली शासन की उपस्थिति पर अधिक ध्यान आकर्षित कर रखा है।

"फिलिस्तीन ज़िंदाबाद" और "फ़्रीडम फ़ॉर ग़ज़ा" जैसे फ़िलिस्तीन समर्थक ग्राफ़िक्स पूरे शहर में देखे जा सकते हैं।

 

 

 

मजलिस ए ख़बरगान रहबरी के उप प्रमुख ने कहा कि प्रतिरोध मोर्चा कब्ज़ा करने वाली इज़राईली सरकार को करारा जवाब देगा,और इस्माइल हनियेह की शहादत प्रतिरोध मोर्चे और फ़िलिस्तीनी राष्ट्र के लिए बाधित नहीं होगा।

एक रिपोर्ट के अनुसार,मजलिस ए ख़बरगान रहबरी के उप प्रमुख सैयद हाशिम हुसैनी बुशहरी ने इमाम सादिक अ.स.के गार्ड्समैन और कमांडरों के कार्यकर्ताओं की एक सभा को संबोधित करते हुए इस्माइल हनियेह की शहादत पर शोक व्यक्त किया।

उन्होंने कहा कि पिछले दिनों देश में एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी और इस्लामी क्रांति के नेता की व्याख्या के अनुसार, दुश्मन ने हमारे प्रिय अतिथि को हमसे छीन लिया और उसे धोखे से शहीद कर दिया।

उन्होंने यह बयान करते हुए कहां प्रतिरोध मोर्चा कब्जा करने वाली ज़ायोनी सरकार को जवाब देगा इज़राईल को अपने काम पर पछतावा होगा, उन्होंने कहा कि इस्माइल हानियेह की शहादत इस्माइल हनियेह की शहादत प्रतिरोध मोर्चे और फ़िलिस्तीनी राष्ट्र के लिए बाधित नहीं होगा।

सैयद हाशिम हुसैनी बुशहरी ने जामिया मद्रासीन क़ुम के प्रमुख से कहा कि धार्मिक और इस्लामी संस्कृति में एक पद रखना मौलिक नहीं है, लेकिन एक विनम्र अधिकारी वह है जो अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास करता है।

 

बांग्लादेश में पिछले एक महीने से चल रहे छात्र आंदोलनों के बाद शेख़ हसीना सरकार गिर चुकी है वह देश छोड़ कर जा चुकी है। कहा जा रहा है कि यह आंदोलन का परिणाम है, लेकिन करीब से देखने पर इसके और पहलू भी नजर आ रहे हैं। यह यकीन करना मुश्किल है कि किसी देश में निहत्थे आंदोलनकारियों ने एक संपन्न सरकार को एक महीने से भी कम समय में उखाड़ फेंका। पिछले कुछ सालों के घटनाक्रम पर नजर डालें तो मालूम पड़ता है कि बांग्लादेश पर अमेरिका की पैनी नजर रही है।

शेख हसीना के तख्तापलट से अमेरिका खुश नजर आ रहा है। हसीना सरकार पहले ही आरोप लगा चुकी है कि अमेरिका देश में अपना एक मिलिट्री बेस चाहता है। अमेरिका ने इसी साल हुए बांग्लादेश चुनाव में भी कई सवाल खड़े किए थे। बांग्लादेश संकट में अब अमेरिका के हाथ होने की भी बात सामने आ रही है।

शेख हसीना के देश छोड़ने के बाद अमेरिका के विदेश विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर ने कहा, “अमेरिका बांग्लादेश के लोगों के साथ खड़ा है।” अमेरिका ने हसीना के इस्तीफे का स्वागत किया और अंतरिम सरकार के गठन के लिए सभी पार्टियों को आगे आने का आग्रह किया।

अमेरिकी विदेश विभाग का ये बयान चौंकाता है क्योंकि एक प्रधानमंत्री का इस तरह से तख्तापलट होना, लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ माना जाता है।

 

गाज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने घोषणा की है कि शहीदों की संख्या 39,623 और घायलों की संख्या 91,469 हो गई हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक , गाज़ा में युद्ध शुरू हुए 304 दिन बीत चुके हैं इस मौके पर गाज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय ने घोषणा की है कि शहीदों की संख्या 39 हज़ार 623 तक पहुंच गई है।

गाज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, 91,469 लोग घायल हुए हैं, और 10,000 से अधिक फिलिस्तीनियों के शव अभी भी इमारतों के मलबे के नीचे दबे हुए हैं और बचाव दल शहीदों के शवों को खोजने या निकालने में असमर्थ हैं।

गाज़ा स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह भी घोषणा की हैं की कब्जे वाली ज़ायोनी सेना ने पिछले 24 घंटों में नागरिकों के खिलाफ तीन और हमले किए हैं जिसके परिणामस्वरूप 40 शहीद और 71 घायल हुए हैं