رضوی

رضوی

 अच्छे और धर्मपरायण बंदों के चेहरे पर ईमान और इबादत के निशान होने चाहिए और बंदगी व सज्दा का प्रभाव उनके चेहरे पर दिखाई देना चाहिए। इस्लामी आदाब, हया, इफ्फत और बाहरी अनुशासन का पालन करना दूसरों को धर्म की ओर आकर्षित करता है और एकांतवास व विरक्ति से बचाता है। पुरुष और महिला दोनों इस बात के जिम्मेदार हैं कि वे अपने बाहरी रूप और व्यवहार से ईमान, नमाज और तक्वा का नूर प्रकट करें ताकि दूसरे लोग उनके चरित्र से प्रभावित हों।

हुज्जतुल इस्लाम वाल मुस्लिमीन मांदगारी ने अपने एक भाषण में अच्छे लोगों के चेहरे के विषय पर चर्चा करते हुए कहा,अम्र बिल मारूफ (भलाई का आदेश देना) और नही अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) करने वालों की प्रमुख विशेषताओं में से एक, सूरह फतह की इस सुंदर आयत का व्यावहारिक उदाहरण बनना है जहाँ कहा गया है, मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं और जो लोग उनके साथ हैं, वे काफिरों पर सख्त और आपस में दयालु हैं।

आप उन्हें रुकू और सज्दा करते हुए देखते हैं, वे अल्लाह का अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता चाहते हैं। उनकी पहचान उनके चेहरों पर सज्दे के निशान से है। तो इस आयत के अंत में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उनके चेहरों पर सज्दे और बंदगी के प्रभाव दिखाई देते हैं।

उन्होंने आगे कहा, रिवायतों  में भी इस बात पर जोर दिया गया है और कुरानिक दलीलों के साथ-साथ हमारे पास एक तार्किक, युक्तिसंगत और सामान्य दलील भी मौजूद है। अगर किसी दुकान में कोई चीज मौजूद हो तो दुकानदार हमेशा उसकी एक नमूना शोकेस में रखता है।

इसी तरह अगर हमारे दिल में अल्लाह पर ईमान और कयामत पर यकीन मौजूद है तो उसकी कोई न कोई निशानी हमारे बाहरी रूप और चेहरे पर भी दिखाई देनी चाहिए।

हालांकि इंसान का आंतरिक स्वरूप अधिक महत्व रखता है लेकिन बाहरी रूप (जाहिर) भी बेअसर नहीं है। जब हम "अच्छे और धर्मपरायण बंदों के चेहरे" की बात करते हैं तो इसका मतलब यह है कि हर व्यक्ति को अपने बाहरी रूप में भी ईमान और धार्मिकता के संकेत दिखाने चाहिए।

हुज्जतुल इस्लाम मांदगारी ने कहा,महिलाओं को अच्छे बंदों का चेहरा अपनी शांति, गरिमा, लज्जा और पवित्रता के माध्यम से प्रकट करना चाहिए और बाहरी शिष्टाचार का पालन करना चाहिए। इसी तरह पुरुष, जो यह कहना चाहते हैं कि "हम इस्लामी व्यवस्था के सिपाही हैं चाहे वे प्रबंधक हों, कार्यकर्ता, पुलिस अधिकारी, सिपाही, सैनिक, कार्यालय कर्मचारी, वकील, मंत्री या कमांडर, उन्हें भी अपने चेहरे और व्यवहार में इबादत और बंदगी के प्रभाव प्रकट करने चाहिए।

उन्होंने आगे कहा,हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि इंसान भगवान न करे कृत्रिम रूप से माथे पर कोई निशान बनाए ताकि सब देखें, बल्कि जब कोई चालीस या पचास साल नमाज और सज्दे का पाबंद रहे तो उसका प्रभाव स्वाभाविक रूप से उसके चेहरे पर स्पष्ट हो जाता है। इसलिए अच्छे और धर्मपरायण बंदों का चेहरा भी धार्मिकता और इस्लामी शिष्टाचार के संकेतों का केंद्र होना चाहिए।

 

आज पूरे ईरान में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत का ग़म मनाया जा रहा है जगह जगह मजलिस और जुलूस निकाले जा रहे हैं।

ईरान में आज इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत का शोक मनाया जा रहा है।

आज पैग़म्बरे इस्लाम स.ल. के पौत्र इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के दुखद अवसर पर पूरे ईरान में शोक सभाएं आयोजित की जा रही हैं और जूलूस निकाले जा रहे हैं।

दुनिया भर में और ख़ास तौर पर ईरान में शिया मुसलमान अपने आठवें इमाम हज़रत इमाम अली रज़ा अ.स. की शहादत की बरसी पर शोक और ग़म मना रहे हैं।

उधर ख़ुरासाने रज़वी प्रांत के गवर्नर ने कहा है कि अब तक 26 लाख 15 तीर्थयात्री और श्रद्धालु पवित्र नगर मशहद पहुंच चुके हैं।

ख़बरों में बताया गया है कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए 10 हज़ार से अधिक पाकिस्तानी तीर्थयात्री ज़मीनी रास्ते से पवित्र नगर मशहद पहुंच चुके हैं जबकि सैकड़ों भारतीय श्रद्धालु भी मशहद में मौजूद हैं।

 

 

 

आठवें इमाम हज़रत रज़ा अलैहिस्सलाम के शहादत के मौके पर श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ पड़ा मशहद के चारों तरफ़ दूर दूर की बस्तियों, गावों और शहरों से श्रद्धालु पैदल चलकर मशहद पहुंचे जबकि दुनया के दर्जनों देशों से भी श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या मशहद में नज़र आई।

पैग़म्बरे इस्लाम के वंशज और शिया मसलक के मानने वालों के आठवें इमाम हज़रत रज़ा अलैहिस्सलाम के शहादत दिवस पर शनिवार को पूरा ईरान शोक में डूबा रहा।

आठवें इमाम हज़रत रज़ा अलैहिस्सलाम के शहादत के मौके पर श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ पड़ा मशहद के चारों तरफ़ दूर दूर की बस्तियों, गावों और शहरों से श्रद्धालु पैदल चलकर मशहद पहुंचे जबकि दुनया के दर्जनों देशों से भी श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या मशहद में नज़र आई।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े के पैग़म्बरे आज़म में लाखों लोगों का मजमा नज़र आया और सबने बड़ी श्रद्धा से इमाम रज़ा का शहादत दिवस मनाया।

इस मौक़े पर सारे ही लोग शोकाकुल थे मगर जिस एकता व समरसता का प्रदर्शन किया गया वो अपने आप में बहुत बड़ा संदेश है।

कल के दिन मशहद में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के हरम में कई पारम्परिक कार्यक्रम आयोजित किए गए जिसमें श्रद्धालुओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के शहादत दिवस पर पवित्र नगर क़ुम में भी श्रद्धालुओं ने भव्य कार्यक्रम आयोजित किया क़ुम में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की बहन हज़रत मासूमा का रौज़ा है श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या ने क़ुम में हज़रत मासूमा के रौज़े में पहुंच कर ताज़ियत संवेदना पेश करने के कार्यक्रम में हिस्सा लिया।

 

 

 

 

 

हम देखते हैं कि दुनिया अपने सांसारिक विकास और वैज्ञानिक व शैक्षणिक प्रगति में कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रही है; हज़ारों-लाखों वर्षों के मानव इतिहास को समेटा जा रहा है। धरती और आकाश की आयु निर्धारित करने के साथ-साथ, धरती और आकाश में होने वाले परिवर्तनों और घटनाओं के कालखंडों का भी वर्णन किया जा रहा है। हज़ारों वर्ष पूर्व के मानव और यहाँ तक कि पशुओं की हड्डियों और अवशेषों का अवलोकन और वैज्ञानिक विश्लेषण करके, सम्पूर्ण सभ्यता का एक मानचित्र प्रस्तुत किया जा रहा है, लेकिन दूसरी ओर, यह त्रासदी भी है कि केवल चौदह-पंद्रह सौ वर्ष पूर्व घटित स्पष्ट, विस्तृत और प्रसिद्ध घटनाओं के इतिहास को लेकर दुविधा बनी हुई है।

 हम देखते हैं कि दुनिया अपने सांसारिक विकास और वैज्ञानिक व शैक्षणिक प्रगति में कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रही है; हज़ारों-लाखों वर्षों के मानव इतिहास को समेटा जा रहा है। धरती और आकाश की आयु निर्धारित करने के साथ-साथ, धरती और आकाश में होने वाले परिवर्तनों और घटनाओं के कालखंड बताए जा रहे हैं। हज़ारों साल पहले मौजूद इंसानों और यहाँ तक कि जानवरों की हड्डियों और अवशेषों का अवलोकन और वैज्ञानिक विश्लेषण करके पूरी सभ्यता का नक्शा पेश किया जा रहा है, लेकिन दूसरी ओर, यह त्रासदी भी है कि केवल चौदह या पंद्रह सौ साल पहले घटित स्पष्ट, विस्तृत और प्रसिद्ध घटनाओं के इतिहास को लेकर दुविधा बनी हुई है।

मुस्लिम उम्माह का एक दुर्भाग्य यह है कि जिस पैग़म्बर (स) के हम अनुयायी और अनुयायी हैं, उनके बारे में हमें पर्याप्त निश्चित जानकारी नहीं है; वह किस दिन, किस वर्ष और किस समय इस दुनिया में आए? यानी उनका जन्मदिन और उनके आगमन का दिन कब है? इसी तरह, हमारे पास इस बारे में भी पर्याप्त निश्चित जानकारी नहीं है कि हमारे पैग़म्बर (स) किस दिन, किस तारीख को, कैसे और किस समय इस दुनिया से चले गए, यानी उनका निधन और उनके वियोग का दिन कब है?

जन्म के दिन के बारे में जो बहाना बनाया जाता है वह यह है कि उस समय कैलेंडर नहीं बना था, महीना और साल तय नहीं हुआ था, और लोगों में अपने बच्चों के जन्म के दिन को लिखने या याद रखने की इच्छा और रिवाज़ नहीं था। हालाँकि इस बहाने में कोई सच्चाई नहीं है, लेकिन अगर हम एक पल के लिए इस बहाने को मान भी लें, तो ठीक तिरसठ साल बाद, पवित्र क़ुरआन लिखा जा चुका था, अभियानों की तारीखें दर्ज की जा चुकी थीं, मक्का की हिजरत और फ़तह की तारीखें दर्ज की जा चुकी थीं। दूसरे शब्दों में, नबी-ए-पाक के ज़माने की सारी घटनाएँ लिखी या कही जा चुकी थीं, तो फिर ऐसा क्या हुआ कि नबी-ए-पाक (स) के इस दुनिया से रुख़सत होने का दिन याद नहीं रहता? विश्लेषण के लिए बहुत सी बातें कही जा सकती हैं और ऐतिहासिक प्रमाणों को सामने रखकर हज़ारों बातें कही जा सकती हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि या तो मुसलमान समुदाय को अपने नबी-ए-पाक (स) के रुख़सत होने के दिन में कोई दिलचस्पी नहीं है या फिर कुछ ऐसे छुपे हुए राज़ हैं जो रुख़सत होने के दिन के ज़िक्र से बिखर जाते हैं।

मुसलमानों के इतिहास में अपने ही रसूल (स) के स्वर्गवास के कारणों को लेकर मतभेद हैं। ख़ैबर की लड़ाई में दिए गए ज़हर से लेकर भयंकर बुखार तक, कई अलग-अलग कहानियाँ सुनाई जाती हैं। रसूल (स) का इतिहास रसूल (स) के परिवार और रिश्तेदारों से लेने के बजाय उनसे लेने की अटूट आदत के कारण, कई मामलों में अंतराल या मतभेद हैं। यह अंतराल पाटा जा सकता था और यह मतभेद दूर हो सकता था यदि रसूल (स) के परिवार यानी अहले बैत (अ) की बातों पर भरोसा किया जाता और उन पर विश्वास किया जाता। जन्म के मामले में, यदि हज़रत अबू तालिब (अ) और सय्यदा फ़ातिमा बिन्त असद (अ) और उनके परिवार से परामर्श किया जाता, तो रसूल (स) के जन्म के मामले में कोई मतभेद न होता। इसी प्रकार, मृत्यु, शहादत या वफ़ात के मामले में, यदि जगत के स्वामी हज़रत अली (अ) और सय्यदा अल-निसा अल-आलमीन (अ) फ़ातिमा अल-ज़हरा (स) और उनकी संतानों के कथनों को स्वीकार कर लिया जाता, तो विदा के दिन के मामले में कोई अंतर नहीं होता।

मुस्लिम इतिहासकारों को पैग़म्बर (स) की जीवनी या पैग़म्बर (स) के जीवन और जीवन का वर्णन उनके जन्म से शुरू होकर उनके संपूर्ण जीवन की घटनाओं से होते हुए, अंततः पैगम्बर (स) के अंतिम दिनों तक पहुँचने और उनके इस दुनिया से चले जाने के कारणों का उल्लेख करने के लिए बाध्य किया गया है। यदि मुस्लिम इतिहासकारों के बस में होता, तो वे पैगम्बर (स) के अंतिम दिनों, विशेषकर उनके विदा होने के दिन का उल्लेख न करते, परन्तु यह उल्लेख संभव नहीं है। अल्लाह की कसम, आखिर क्या बात है और क्या हक़ीक़त है कि इतिहासकारों ने पैग़म्बर (स) के जाने के कारणों और उनकी बीमारी के कारणों पर विस्तार से चर्चा की है, पैग़म्बर की वफ़ात के दिन की तो बात ही छोड़ दीजिए, और यहाँ तक कि पैग़म्बर की वफ़ात के दिन का ज़िक्र भी इस तरह किया है कि आज पूरी उम्मत या तो अपने पैग़म्बर (स) के जाने के दिन से अनजान है, या जानबूझकर चुप है या फिर मतभेद में है।

अगर हम ख़ुद मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखे गए इतिहास पर एक नज़र डालें, तो हम तीन बातें निकाल सकते हैं, जिन पर पैग़म्बर (स) की वफ़ात के अध्याय लिखते समय ध्यान नहीं दिया गया या ध्यान में नहीं रखा गया। इन तीन बातों में तीन घटनाएँ भी शामिल हैं। पहली घटना ख़ैबर की लड़ाई के मौक़े पर पैग़म्बर (स) को ज़हर दिए जाने से जुड़ी है, जिसका असर उनके शरीर पर लगातार बना रहा। शायद हमारे इतिहासकार ज़हर दिए जाने की इस घटना के पीछे की साज़िश के विवरण से बचना चाहते थे। दूसरी घटना बुखार की बढ़ती गंभीरता और पैगम्बर (स) का अपने साथियों से संपर्क कम होना और केवल अपने परिवार तक ही सीमित रहना था। तीसरी घटना क़र्तस की घटना है, जो एक प्रसिद्ध घटना है। इस घटना पर टिप्पणी करने और अपना रुख स्पष्ट करने से बचने की नीति ने भी संभवतः हमें पैग़म्बर (स) की मृत्यु का विस्तृत उल्लेख लिखने की अनुमति नहीं दी।

हमारे शोध के अनुसार, शायद यही कारण है कि पैग़म्बर (स) का जन्मदिन न मनाने, या इसके उत्सव का विरोध करने, या इसे एक नवीनता घोषित करने का वास्तविक कारण यह प्रतीत होता है कि यदि उम्मत को पैगंबर का जन्मदिन मनाने की अनुमति दी जाती या प्रोत्साहित किया जाता, और उम्मत ने पैगंबर के जन्मदिन को उनके जन्म के दिन, खुशी के साथ मनाया होता,एक बार ज़िक्र हो जाने के बाद, जब उनकी वफ़ात का दिन आएगा, तो उम्मत इस दिन को मनाते हुए अपने नबी की बीमारी का ज़िक्र ज़रूर करेगी। फिर बीमारी की प्रकृति और स्थिति के बारे में बात करेगी। फिर बीमारी के दौरान घटित घटनाओं का वर्णन करेगी। फिर प्यारे नबी (स) की बीमारी और बीमारी के दौरान उनका ध्यान रखने और बेपरवाह व उदासीन रहने के बारे में बात करेगी। इसीलिए इतिहासकारों ने नबी (स) के निधन का कोई निश्चित दिन नहीं बताया है ताकि अगर आने वाली पीढ़ियाँ पिछले इतिहास के बारे में पूछें, तो उन्हें कोई निश्चित जानकारी, कोई स्पष्ट ऐतिहासिक संदर्भ न मिले। कोई प्रामाणिक राय न मिले। कोई निर्विवाद और सर्वमान्य बात न मिले। इस तरह, उम्मत क़यामत के दिन ढोल-नगाड़े बजाती हुई अपने नबी (स) की उपस्थिति में पहुँचेगी, जहाँ सारे पर्दे उठ जाएँगे, सारे राज़ खुल जाएँगे, सारे नकाब उतार दिए जाएँगे, सारे तथ्य प्रकाश में आ जाएँगे और पूरा प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत किया जाएगा।

लेखक: सय्यद इज़हार महदी बुखारी

 इमाम हसन मुज्तबा (अ) की जीवनी हमें यह भी बताती है कि असली ताकत तलवार में नहीं, बल्कि चरित्र की दृढ़ता, सिद्धांतों पर दृढ़ता और उच्च नैतिकता में निहित है।

सफ़र की 28 तारीख़ न केवल पवित्र पैग़म्बर (स) की वफ़ात का दिन है, बल्कि उनके प्रिय नवासे इमाम हसन मुज्तबा (अ) की शहादत का भी दिन है। उनके जीवन और शहादत में समस्त मानवता के लिए बुद्धिमत्ता, शांति और बलिदान का एक गहरा और शाश्वत संदेश निहित है। समय की बारीकियों को समझते हुए, उन्होंने शांति स्थापित करने का जो निर्णय लिया, वह एक झटका लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह उस समय की सबसे बड़ी जीत थी।

उम्मत की एकता का महान लक्ष्य

इमाम हसन (अ) ने देखा कि अगर वे लड़ेंगे, तो मुस्लिम उम्मत और भी विभाजित हो जाएगी। आंतरिक गृहयुद्ध के कारण हज़ारों निर्दोष लोग मारे जाएँगे और इस्लाम के दुश्मनों को इसका फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिलेगा। आपका यह फ़ैसला सिर्फ़ अपनी सत्ता का त्याग नहीं था, बल्कि उम्माह की एकता और अस्तित्व के लिए एक महान बलिदान था। यह कार्य आज भी हमें सिखाता है कि बड़े लक्ष्यों के लिए निजी हितों का त्याग करना ही सच्चा नेतृत्व है।

धैर्य, त्याग और बुद्धि

इमाम हसन की शांति हमें सिखाती है कि कभी-कभी, सही होते हुए भी, हमें बुद्धि और धैर्य का सहारा लेना चाहिए। दिखावटी युद्ध के बजाय, उन्होंने अपने चरित्र और धैर्य से झूठ पर विजय प्राप्त की। उनके इस बलिदान ने इस्लाम की मूल शिक्षाओं को, जो शांति, भाईचारे और सहिष्णुता पर आधारित हैं, सुरक्षित रखा। यह संदेश आज भी हमारे लिए एक प्रकाशस्तंभ है, व्यक्तिगत क्रोध और बदले की भावना से ऊपर उठकर एक बड़े लक्ष्य के लिए बलिदान देने का।

मानवता के लिए संदेश

इमाम हसन मुज्तबा (अ) की जीवनी हमें यह भी बताती है कि असली शक्ति तलवार में नहीं, बल्कि चरित्र की दृढ़ता, सिद्धांतों पर अडिगता और उच्च नैतिकता में निहित है। ज़हर दिए जाने के बावजूद, उन्होंने अपने हत्यारे का नाम तक नहीं बताया, ताकि कोई नया राजद्रोह न पनपे। यही क्षमा का वह महान उदाहरण है जो आज भी इंसानों को एक-दूसरे से प्रेम और सहिष्णुता की शिक्षा देता है।

आज के समय में इमाम हसन (अ) का संदेश

इमाम हसन (अ) का जीवन आज के अशांत समय में हमें शांति, भाईचारा और क्षमा का पाठ पढ़ाता है। हमें अपनी सोच, सामाजिक संबंधों और वैश्विक स्तर पर इन सिद्धांतों को अपनाने की ज़रूरत है ताकि अराजकता और नफ़रत के बजाय एक शांतिपूर्ण और बेहतर दुनिया की स्थापना हो सके। इमाम हसन (अ) का जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची सफलता किसी की जान लेने में नहीं, बल्कि दिल जीतने में है।

हुज्जतुल इस्लाम मुस्तफा ऐज़दरी ने समाज में मस्जिद की वास्तविक भूमिका पर प्रकाश डाला और कहा: मस्जिदो को जन समस्याओं के समाधान का केंद्र होना चाहिए।

किरमान प्रांत में मस्जिद मामलों के प्रमुख, हुज्जतुल इस्लाम मुस्तफा ऐज़दरी ने मस्जिद दिवस के नामकरण की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला और कहा: मस्जिद दिवस का नाम तब रखा गया जब एक ज़ायोनी ने 1348 हिजरी (1969 ई) में अल-अक्सा मस्जिद में आग लगा दी थी। इस नामकरण का उद्देश्य यह है कि हम मस्जिद के महत्व और स्थान को बेहतर ढंग से समझ सकें।

उन्होंने आगे कहा: समाज के सभी सदस्यों को मस्जिद की वास्तविक भूमिका और उसकी स्थिति को समझना चाहिए जैसा कि अल्लाह के रसूल (स) के समय में थी और मस्जिदों को समाज की सार्वजनिक आवश्यकताओं और समस्याओं के समाधान का केंद्र बनाने का प्रयास करना चाहिए।

मस्जिद की ऐतिहासिक भूमिका का उल्लेख करते हुए, हुज्जतुल इस्लाम ऐज़दरी ने कहा: इस्लाम के इतिहास में, मस्जिद केवल नमाज़ और व्यक्तिगत इबादत का स्थान नहीं थी। इस्लाम के प्रारंभिक काल में, मस्जिद निर्णय लेने, न्यायपालिका, शिक्षा और प्रशिक्षण, यहाँ तक कि सामूहिक व्यवस्था और अनुशासन का केंद्र थी।

उन्होंने कहा: मस्जिद के भीतर ही कई महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक घटनाएँ घटीं, और इस स्थिति ने मस्जिद को मुस्लिम उम्माह के जीवन में एक निर्णायक स्थान प्रदान किया, लेकिन समय के साथ, इनमें से कई भूमिकाएँ अन्य संस्थाओं को हस्तांतरित कर दी गईं और मस्जिद अधिकांशतः एक उपासना स्थल तक ही सीमित रह गई।

किरमान में मस्जिद मामलों के प्रमुख ने सर्वोच्च नेता के कथनों पर ज़ोर दिया और कहा: आयतुल्लाह ख़ामेनेई कहते हैं कि मस्जिद सभी अच्छे कार्यों का केंद्र बन सकती है; यह आत्म-सुधार, मानव विकास, हृदय निर्माण और विश्व निर्माण, शत्रु का सामना करने, इस्लामी सभ्यता का निर्माण करने और व्यक्तियों में अंतर्दृष्टि उत्पन्न करने का केंद्र है।

हज़रत इमाम रज़ा अ.स.फाउंडेशन, तालकटोरा, लखनऊ की ओर से परचम-ए-गुंबद-ए-हज़रत इमाम अली रज़ा अ.स. मशहद, ईरान की ज़ियारत, कर्बला अज़ीम अल्लाह खान, लखनऊ में आयोजित किया जाएगा।

पिछले वर्षों की तरह इस वर्ष भी 29 सफर, यानि 24 अगस्त 2025, रविवार को, नमाज़-ए-मगरिब के बाद कर्बला अज़ीम अल्लाह खान, तालकटोरा, लखनऊ ,जो कि हज़रत इमाम अली रज़ा अ.स. के हज़रत के हुसैनी शबीहे की तरह है) में शहीद हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स) की याद में एक मजलस-ए-अज़ा का आयोजन किया जा रहा है। इस सभा को संबोधित करेंगे आदरणीय मौलाना सैयद रज़ी हैदर ईरान कल्चर हाउस से।

मजलस के बाद शबीह ए हज़रत मासूमा क़ुम से परचम-ए-गुंबद-ए-हज़रत इमाम अली रज़ा अ.स. (मशहद ईरान) मोमिनों के साथ नौहा-ख़्वानी और सीना-ज़नी करते हुए कर्बला अज़ीम अल्लाह खान तक ले जाया जाएगा।

अतः सभी मोमिनों से विनती है कि अधिक से अधिक संख्या में इस कार्यक्रम में शरीक हों और हज़रत इमाम अली रज़ा अ.स.के गुंबद से आए हुए इस पवित्र परचम की ज़ियारत कर के फज़ीलत हासिल करें।

नोट: नमाज़-ए-मगरिबें जमाअत के साथ अदा की जाएगी, इसके तुरंत बाद मजलस-ए-अज़ा शुरू हो जाएगी।

A.I.R. चैरिटेबल फाउंडेशन लखनऊ

हज़रत इमाम अली रज़ा अ.स फाउंडेशन, तालकटोरा, लखनऊ

शनिवार, 23 अगस्त 2025 11:33

इमाम, इलाही रहमत के अवतार

 इमाम ज़माना (अलैहिस्सलाम) भले ही ग़ायब हैं, लेकिन वह एक रहमत का बादल हैं जो हमेशा बरसता रहता है। वह लोगों के सूखे रेगिस्तान को जीवन और खुशियाँ देता है। जो व्यक्ति इस प्यार के केंद्र से दया और मोहब्बत महसूस नहीं करता, वह वास्तव में बड़ा कमी वाला है।

इमाम अस्र (अलैहिस्सलाम) के एक अनजाने पहलू में से एक है उनकी इंसानों के प्रति प्यार और मोहब्बत। अफसोस की बात है कि पहले से ही इमाम को सिर्फ तलवार, खून-ख़राबा, सख्ती और बदले की नजर से दिखाया गया है, और उन्हें एक कठोर इंसान बताया गया है। लेकिन वास्तव में वह अल्लाह की असीम दया के रूप में, अपनी उम्मत के प्यार करने वाले पिता और दयालु साथी हैं।

एक हदीस क़ुदसी में, जब अम्बिया और आइम्मा का ज़िक्र खत्म होता है, वहाँ यह बात आती है:

"وَ أُکملُ ذَلِکَ بِابْنِهِ م‏ ح ‏م ‏د رَحْمَةً لِلْعَالَمِین‏ व अकमलो ज़ालेका बेइब्नेहि मीम हे मीम दाल रहमतन लिल आलामीना"

और मैं इसे उसके बेटे (म ह म द) से पूरा करता हूँ, जो सारी दुनिया के लिए रहमत है। (काफ़ी, भाग 1, पेज 528)

और खुद इमाम की एक हदीस में आया है:

"أَنَّ رَحْمَةَ رَبِّکُمْ وَسِعَتْ کُلَّ شَی‏ءٍ وَ أَنَا تِلْکَ الرَّحْمَة अन्ना रहमता रब्बेकुम वसेअत कुल्ला शैइन व अना तिलकल रहमता "

निश्चय ही तुम्हारे रब की रहमत हर चीज़ को अपने नीचे लेती है और मैं वही अनंत रहमत हूँ। (बिहार उल अनवार, भाग 53, पेज 11)

मासूम इमामों के बयान में ऐसा कहा गया है:

"وَ أَشْفَقَ عَلَیهِمْ مِنْ آبَائِهِمْ وَ أُمَّهَاتِهِم व अशफ़क़ा अलैहिम मिन आबाएहिम व उम्माहातेहिम "

[इमाम] अपने लोगों के प्रति अपने पिता और माता से भी ज्यादा दयालु होते हैं। (बिहार उल अनवार, भाग 25, पेज 117)

इमाम ज़माना (अलैहिस्सलाम) एक महान शिक्षक, कोमल दिल वाले मार्गदर्शक और लोगों के दयालु पिता हैं। वे हर वक्त और हर हाल में अपने लोगों की भलाई का ध्यान रखते हैं। भले ही उन्हें उनकी ज़रूरत न हो, फिर भी वे सबसे अधिक दया और कृपा उनके लिए बरसाते हैं। जैसा कि उन्होंने खुद कहा है:

"لَوْ لَا مَا عِنْدَنَا مِنْ مَحَبَّةِ صَلَاحِکُمْ وَ رَحْمَتِکُمْ وَ الْإِشْفَاقِ عَلَیکُمْ لَکُنَّا عَنْ مُخَاطَبَتِکُمْ فِی شُغُل लौला मा इंदना मिन महब्बते सलाहेकुम व रहमतेकुम वल इश्फ़ाक़े अलैकुम लकुन्ना अन मुख़ातबतेकुम फ़ी शोग़ोलिन"

 अगर यह सच न होता कि हम तुम्हारी भलाई चाहते हैं, तुम्हारे प्रति दया और ममता रखते हैं, तो हम तुम्हारी बुरी आदतों की वजह से तुम्हारी ओर ध्यान देना बंद कर देते। (बिहार उल अनवार, भाग 53, पेज 179)

इसलिए, इमाम ज़माना (अलैहिस्सलाम) भले ही ग़ायब हैं, लेकिन वह एक रहमत का बादल हैं जो हमेशा बरसता रहता है। वह लोगों के सूखे रेगिस्तान को जीवन और खुशियाँ देता है। जो व्यक्ति इस प्यार के केंद्र से दया और मोहब्बत महसूस नहीं करता, वह वास्तव में बड़ा कमी वाला है।

"اللهم هَبْ لَنَا رَأْفَتَهُ وَ رَحْمَتَهُ وَ دُعَاءَهُ وَ خَیرَه अल्लाहुम्मा हब लना राफ़तहू व रहमतहू व दुआअहू व ख़ैरहू "

हे खुदा! हमें उनके करुणा, रहमत, दुआ और भलाई दे। (मफातीहुल जिनान, दुआएं नुदबा)

श्रृंखला जारी है ---

इक़्तेबास : किताब "नगीन आफरिनिश" से (मामूली परिवर्तन के साथ)

हौज़ा इल्मिया के प्रमुख आयतुल्लाह अली रज़ा अराफी ने कहा कि पैगंबर मुहम्मद स.अ.व. मानवता की सर्वोच्चता, नैतिकता, ज्ञान और दृढ़ता का एक संपूर्ण आदर्श हैं, जिनके पवित्र जीवन से हमें व्यक्तिगत, सामाजिक और सभ्यतागत जीवन के हर पहलू के लिए मार्गदर्शन मिलता है।

ईरान के हौज़ा इल्मिया के प्रमुख, आयतुल्लाह अली रज़ा अराफी ने कहा कि पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) मानवता की सर्वोच्चता, नैतिकता, ज्ञान और दृढ़ता का एक संपूर्ण आदर्श हैं, जिनके पवित्र जीवन से हमें व्यक्तिगत, सामाजिक और सभ्यतागत जीवन के हर पहलू के लिए मार्गदर्शन मिलता है।

यह बात उन्होंने हज़रत फातिमा मासूमा स.अ. के हरम के "शबिस्तान नजमा खातून" हॉल में "चिकित्सक दिवस" के अवसर पर आयोजित एक समारोह में संबोधन के दौरान कही। इस समारोह का आयोजन यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल साइंसेज और नर्सिंग संगठन द्वारा किया गया था।

आयतुल्लाह अराफी ने कहा कि अल्लाह के रसूल (स.अ.व.) ने अपने व्यक्तित्व के तीन प्रमुख पहलू दुनिया के सामने रखे: ज्ञान और समझ, अल्लाह के मार्ग में दृढ़ता, और नैतिकता। वह लोगों के बीच में बैठते, गरीबों के साथ भोजन करते, किसी को तुच्छ नहीं समझते और हमेशा अच्छे स्वभाव और खुशमिजाज रहते थे। वह कभी भी व्यक्तिगत बदला नहीं लेते थे, बल्कि केवल अल्लाह के दीन के लिए नाराज़ होते थे।

क़ुम के इमाम जुमआ ने कहा कि पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) संतोष, सादगीपूर्ण जीवन और परहेजगारी की मिसाल थे। वह तोहफे स्वीकार करते, परिवार वालों का सम्मान करते और महिलाओं की गरिमा के हिमायती थे। उनकी महफिल गरिमा और शर्म का आईना होती थी और वह हर व्यक्ति को समान महत्व देते थे।

उन्होंने आगे कहा कि इस्लामी समाज तभी सम्मान और महानता प्राप्त कर सकता है जब वह ज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी आगे बना रहे।

आयतुल्लाह अराफी ने कोरोना जैसी वैश्विक महामारी और अन्य संकटों में डॉक्टरों और चिकित्सा कर्मियों के बलिदानों की सराहना करते हुए कहा कि हमारे चिकित्सा विशेषज्ञों ने देश को गौरवान्वित किया है और इन सेवाओं को हमेशा याद रखा जाएगा।

उन्होंने यह भी कहा कि सरकार और जिम्मेदार संस्थाओं को चाहिए कि वे स्वास्थ्य प्रणाली और चिकित्सा के क्षेत्र को और मजबूत करें ताकि ईरान ज्ञान और नैतिकता के क्षेत्र में दुनिया के लिए एक आदर्श बन सके।

हौज़ा एलमिया की सुप्रीम काउंसिल के सचिव, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अहमद फरोख फाल ने कहा है कि इस्लाम नाबे मोहम्मदी (शुद्ध मुहम्मदी इस्लाम) शुरुआत से ही अहंकार (स्तेकबार) के खिलाफ है और ईरानी राष्ट्र की प्रतिष्ठा इसी में निहित है कि वह दुश्मन के सामने डटकर खड़ा रहे।

हौज़ा एलमिया की सुप्रीम काउंसिल के सचिव, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अहमद फरोख फाल ने कहा है कि इस्लाम नाबे मोहम्मदी (शुद्ध मुहम्मदी इस्लाम) शुरुआत से ही अहंकार (स्तेकबार) के खिलाफ है और ईरानी राष्ट्र की प्रतिष्ठा इसी में निहित है कि वह दुश्मन के सामने डटकर खड़ा रहे।

हुज्जतुल इस्लाम फरोख फाल ने कहा कि इस्लाम के इतिहास में यह सच्चाई स्पष्ट है कि यहूदियों और अरब जाहिलियत ने हमेशा कुरान और शुद्ध इस्लाम के खिलाफ साजिशें रची क्योंकि इस्लाम ने नस्ल, राष्ट्रीयता और रंग की श्रेष्ठता को खारिज करके तक़वा को मानदंड बनाया।

उन्होंने कहा कि पैगंबर मोहम्मद (स.अ.व.) ने हुदैबिया और खैबर जैसे मौकों पर दुश्मनों की चालों को विफल किया और फरमाया कि जो लोग सिर्फ फायदे और लूट के लालच में हैं, वो उम्मत का हिस्सा नहीं बन सकते।

उन्होंने कहा कि इमाम खामेनेई र.ह. ने भी इसी सच्चाई को उजागर किया और जायोनीज़्म (सियोनिज्म) और वैश्विक अहंकार को इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया, और आज क्रांति के नेता (इमाम खामेनेई) इसी राह पर दृढ़ता के साथ खड़े हैं। उनके अनुसार,हमारा धर्मों और उनके अनुयायियों से दुश्मनी नहीं है, बल्कि हमारी दुश्मनी अहंकार और सियोनिज्म से है।

हुज्जतुल इस्लाम फरोख फाल ने घटना खैबर का उदाहरण देते हुए कहा कि जिस तरह इमाम अली (अ.स.) ने अल्लाह की दी हुई शक्ति से क़िला खैबर फतह किया, उसी तरह इमाम खामेनेई (र.ह.) और क्रांति के नेता ने ईमान और अल्लाह पर भरोसे (तवक्कुल) की ताकत से दुश्मन की योजनाओं पर विफलता की मोहर लगाई।

उन्होंने कहा कि दुश्मन ईरान को कमजोर और विभाजित करने की भरपूर कोशिश कर रहा है लेकिन अल्लाह की इच्छा (माशियत-ए-इलाही) और राष्ट्र की जागरूकता ने इन साजिशों को नाकाम कर दिया है।

अपने संबोधन के अंत में उन्होंने कहा,इस्लाम में दुश्मन के सामने आत्मसमर्पण की कोई जगह नहीं है। ईरानी राष्ट्र की प्रतिष्ठा दृढ़ता, प्रतिरोध और यहां तक कि शहादत में है। शहीद हमारे मार्गदर्शक प्रकाश हैं और हमें प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि हर हाल में इस्लाम, विलायत और व्यवस्था के प्रति वफादार रहेंगे।