
رضوی
हम गज़्जा में किसी भी प्रकार की युद्धविराम योजना का स्वागत करते हैं।हमास
फिलिस्तीनी प्रतिरोध आंदोलन हमास ने एक बार फिर उस सहमति पर अपनी प्रतिबद्धता और पालन-पोषण को दोहराया, जो उसने 18 अगस्त को अन्य फिलिस्तीनी समूहों के साथ मध्यस्थों द्वारा प्रस्तुत युद्धविराम योजना के संदर्भ में की थी।
हमास ने एक बयान में कहा कि वह किसी भी ऐसी योजना या प्रस्ताव का स्वागत करता है जो स्थायी युद्धविराम, गाज़ा पट्टी से कब्जाधारियों की पूरी वापसी, बिना किसी शर्त के मानवीय सहायता की प्रवेश और मध्यस्थों के साथ गंभीर बातचीत के माध्यम से बंधकों के वास्तविक आदान-प्रदान को संभव बनाए।
इसी बीच, गाज़ा में कैदी यहूदी बंधकों के परिवारों ने एक बयान जारी कर कहा कि नेतन्याहू जो कि इस्राएली कब्जाधारी सरकार के प्रधानमंत्री हैं, से आग्रह किया है कि वे युद्ध विराम स्वीकार करें और तुरंत बातचीत करके गाज़ा युद्ध समाप्त करें तथा बंदियों को वापस लाएं।
फिलिस्तीन सूचना केंद्र की रिपोर्ट के अनुसार, यहूदी बंधकों के परिवारों ने नेतन्याहू से तत्काल एक प्रतिनिधि दल भेजने का आग्रह किया है जो युद्ध समाप्त करने और बंधकों की वापसी के लिए बातचीत कर सके।
बयान में हमास द्वारा मध्यस्थों के प्रस्ताव को स्वीकार करने की बात का जिक्र करते हुए नेतन्याहू सरकार की ओर से इस प्रस्ताव पर ठोस जवाब न देने की आलोचना की गई है।
यहूदी बंधकों के परिवारों ने जोर दिया कि नेतन्याहू की सत्ता में बने रहने की चिंता, बंधकों की वापसी और जीवन रक्षा से ऊपर नहीं होनी चाहिए।
अंत में, परिवारों ने इस्राएली कैबिनेट से अपील की है कि वे हमास द्वारा स्वीकृत उस समझौते को स्वीकार करें और तुरंत बातचीत शुरू करें।
सीरत ए नबवी पर अमल ही उम्मत के मसलों का असली हल
हौज़ा ए इल्मिया ईरान की सुप्रीम काउंसिल के प्रमुख आयतुल्लाह मोहम्मद मेहदी शब ज़िंदादार ने कहा है कि उम्मते मुस्लिमा की निज़ात और सामाजिक समस्याओं का असली और स्थायी हल पैगंबर मुहम्मद (स.ल.व.) और अहलुल बेत अलैहिमुस्सलाम की सीरत पर अमल करने में निहित है।
ईरान की हौज़ा ए इल्मिया सुप्रीम काउंसिल के प्रमुख आयतुल्लाह मोहम्मद मेहदी शब ज़िंदा दार ने कहा है कि आज के दौर में मुस्लिम उम्मत को जिन सामाजिक, नैतिक और राजनैतिक समस्याओं का सामना है, उनका असली और स्थायी हल सिर्फ और सिर्फ पैगंबर इस्लाम हज़रत मोहम्मद (स.) और अहलेबैत (अ.) की सीरत पर अमल करने में है।
यह बात उन्होंने क़ुम शहर में आयोजित एक धार्मिक सम्मेलन "उम्मत-ए-अहमद" में कही, जो पैगंबर (स.ल.व.) और इमाम जाफर सादिक़ (अ.स.) की विलादत की खुशी में आयोजित किया गया था।
आयतुल्लाह शब ज़िंदा दार ने अपने संबोधन में कहा कि पैगंबर (स.) ने हमेशा हालात और मौकों को दीन की तबलीग और इस्लामी उसूलों के प्रचार के लिए बेहतरीन अंदाज़ में इस्तेमाल किया। उन्होंने कहा कि यह तरीका आज के दौर में उलमा, शिक्षकों और माता-पिता के लिए भी एक मिसाल है।
उन्होंने इमाम जमाअत की तीन अहम ज़िम्मेदारियाँ गिनाईं:मोमिनों के लिए दुआ और सिफ़ारिश,रूहानी मार्गदर्शन,और बंदों को अल्लाह की बारगाह तक पहुँचाना।
उनका कहना था कि एक आलिम-ए-दीन के लिए यह बहुत बड़ा शर्फ (गौरव) है कि वह लोगों को ख़ुदा की मरिफत और क़ुर्ब की राह दिखाए।
उन्होंने कहा कि पैगंबर (स.ल.व.) ने गुनाहों और नेकियों को मामूली न समझने की हिदायत दी थी। छोटे गुनाह इकट्ठा होकर बड़े बन जाते हैं, वहीं छोटा सा नेक अमल भी अल्लाह की नजर में बड़ा दर्जा पा सकता है। उन्होंने अल्लाह की रहमत की मिसाल देते हुए कहा कि जैसे माँ अपने बच्चे को गर्मी से बचाती है, वैसे ही बल्कि उससे कहीं ज़्यादा, अल्लाह अपने बंदों पर रहमत करता है।
आयतुल्लाह शब ज़िंदा दार ने आगे कहा कि एक आलिम की असली कामयाबी की बुनियाद दो बातें हैं परहेज़गारी और खैरख्वाही। अगर किसी आलिम में ये दोनों गुण मौजूद हों, तो उसका असर समाज में देर तक बाक़ी रहता है।
उन्होंने यह भी कहा कि जनता का भरोसा हासिल करना भी सीरत-ए-नबवी का एक अहम हिस्सा है। पैगंबर (स.) की इसी खूबी की वजह से लोग बड़ी संख्या में इस्लाम में दाख़िल हुए।
अंत में उन्होंने जोर देकर कहा कि मुसलमानों को चाहिए कि वे अपनी व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनीतिक जिंदगी में पैगंबर (स.ल.) और अहलेबैत (अ.) की सीरत को अपनाएं, ताकि वे इज़्ज़त और अम्न के साथ ज़िंदगी गुज़ार सकें और दुश्मनों की साज़िशों को नाकाम बना सकें।
ईरानी राष्ट्र की सफलता का रहस्य वली ए फकीह की पैरवी है: शेख अब्दुल्लाह दक्क़ाक़
बहरीन के प्रमुख धार्मिक विद्वान शेख अब्दुल्लाह दक्क़ाक़ ने कहा है कि दुश्मन की हालिया 12-दिवसीय युद्ध संबंधी साजिश ईरानी राष्ट्र की एकता और वली-ए-फकीह की दूरदर्शिता के कारण सफस हो गई। उन्होंने जोर देकर कहा कि विलायत-ए-फकीह, शहीदों के परिवार और राष्ट्रीय एकता ये तीन मूल कारक हैं जिनकी वजह से ईश्वर की दया ईरान पर बरसी और दुश्मन अपने शैतानी षड्यंत्रों में नाकाम रहा हैं।
क़ुम में आयोजित 'उम्मत-ए-अहमद' सम्मेलन में खिताब करते हुए शेख दक्क़ाक़ ने पैगंबर-ए-इस्लाम (स.अ.व.) के जन्मदिन और इमाम जाफर सादिक (अ.स.) के जन्मदिन के अवसर पर कहा कि जिस तरह पैगंबर-ए-इस्लाम (स.अ.व.) के जन्म के अवसर पर चमत्कार प्रकट हुए, आज भी ईश्वरीय कृपा उम्मत (मुस्लिम समुदाय) को घेरे हुए है।
उन्होंने कहा कि दुश्मन ने एक योजना तैयार की थी जिसमें ईरान के उच्च सैन्य कमांडरों और परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या और महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सुविधाओं को नष्ट करना शामिल था, लेकिन मुसलमानों के नेता (वली-ए-अम्र) आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली खामेनेई की बुद्धिमान नेतृत्व और ईरानी राष्ट्र की दृढ़ता ने इस साजिश को विफल कर दिया।
शेख दक्क़ाक़ के अनुसार, विलायत-ए-फकीह यानी आयतुल्लाहिल उज़मा खामेनेई जैसे एक दुर्लभ व्यक्तित्व के नेतृत्व ने युद्ध को संभाला, साथ ही शहीदों के परिवारों ने, यानी उस राष्ट्र ने जिसने क्रांति की रक्षा के लिए खून की कुर्बानियाँ दीं, और राष्ट्रीय एकता यानी वह कारक जिसने दुश्मन के सपने को चकनाचूर कर दिया और गृहयुद्ध की योजना को दफन कर दिया।
उन्होंने कहा कि ईरानी राष्ट्र इन्हीं सिद्धांतों पर कायम रहते हुए इस गिरोह को इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.) के सुपुर्द करेगा। आज उम्मत की एकता, दुश्मन के मुकाबले में सबसे बड़ी ढाल है, जैसा कि पैगंबर-ए-इस्लाम (स.अ.व.) भी एकेश्वरवाद और एकता एतेहाद-ए-कलिमा के लिए भेजे गए थे।
रसूल ए अक़रम स.ल.व.व. की तालीमात में वहदत और उख़ुव्वत
आज उम्मते मुस्लिमा में फैल रही तफ़रक़ा और इंटेरश्न इस्लाम के पतन का बड़ा कारण है रसूल ए अक़रम (स.ल.व.) को सबसे ज़्यादा तकलीफ़ इसी बात की है कि उनकी उम्मत आपस में बंटी हुई है। हम उनके जन्मदिन की खुशियाँ मनाते हैं, लेकिन असली खुशी उनकी उस बात में है कि उम्मत में इत्तेहाद और भाईचारा हो।
आज उम्मते मुस्लिमा में फैल रही तफ़रक़ा और इंटेरश्न इस्लाम के पतन का बड़ा कारण है रसूल ए अक़रम (स.ल.व.) को सबसे ज़्यादा तकलीफ़ इसी बात की है कि उनकी उम्मत आपस में बंटी हुई है। हम उनके जन्मदिन की खुशियाँ मनाते हैं, लेकिन असली खुशी उनकी उस बात में है कि उम्मत में इत्तेहाद और भाईचारा हो।
अल्लाह तआला ने फरमाया है,मुहम्मद रसूलुल्लाह हैं, और जो उनके साथ हैं, वे काफ़िरों पर सख़्त और आपस में बहुत मेहरबान हैं। (सूरह अल-फतह: 29)
रसूल ए अक़रम ने अपनी तालीमात से एक बंटे हुए समाज को एकजुट किया। लेकिन आज के दौर में आपस के झगड़े इस्लाम की तरक्की में सबसे बड़ी बाधा हैं।
वहदत (इत्तेहाद) का मतलब
सभी मुसलमान अपने ईमान और मत छोड़ दें, यह ज़रूरी नहीं। न ही किसी एक ग्रुप के झंडे के नीचे सबको आ जाना चाहिए। बल्कि, वहदत का मतलब है कि सब अपने आम मुद्दों पर एक हों, अपने छोटे मतभेदों को अपनी सीमाओं तक रखें, एक दूसरे की इज़्ज़त करें और मिलकर दुश्मनों का सामना करें।
रसूल की सीरत और अख़ुव्वत का अनुबंध:
मदीना में आने के बाद, रसूल ने सबसे पहला काम किया मुहाजर और अनसार को भाई बना दिया। यह केवल शब्द नहीं, बल्कि जिम्मेदारी और अधिकारों का बंटवारा था।
क़ुरआन में फरमाया गया,हमने कोई पैग़ंबर नहीं भेजा, सिवाय इसके कि उसकी इसलाह की जाए।(सूरह अन-निसा: 64)
रसूल सिर्फ नसीहत देने नहीं आए थे, बल्कि उनकी आज़्ञा से समाज को मजबूत और एकजुट बनाना चाहते थे।
क़ुरआन का पैग़ाम-ए-वहदत:
क़ुरआन बार-बार झगड़ों से मना करता है,अल्लाह और उसके रसूल की इसलाह करो, और आपस में झगड़ा मत करो, वरना तुम कमजोर हो जाओगे।" (सूरह अल-अनफ़ाल: 46)और कहता है,उन लोगों की तरह मत बनो जो बंट गए।(सूरह आल इमरान: 105)
वहदत में बाधाएं:
ईमान और फसक बराबर नहीं हो सकते। (सूरह अस-सज्दा: 18)
इसीलिए, वहदत के लिए सबसे पहले नैतिक और आध्यात्मिक सुधार ज़रूरी है। अफ़सोस, आज ईमाम और उम्मत में वहदत की कमी की बड़ी वजह नैतिक कमजोरी है।
नतीजा:
रसूल ए अक़रम की तालीमात में वहदत और अख़ुव्वत की बहुत अहमियत है। उन्होंने मुसलमानों को एक शरीर बताया, जिसमें अगर एक हिस्सा दर्द में हो तो पूरा शरीर बेचैन होता है। इतिहास भी गवाह है कि जब मुसलमान एकजुट हुए, तो दुनिया की सबसे ताक़तवर ताक़त बने, और जब बंट गए तो शरमिंदगी मिली।
आज की सबसे ज़रूरी बात है कि हम अपने मतभेदों को छोड़ कर आम मुद्दों पर एक हों, एक दूसरे की इज़्ज़त करें और दुश्मनों के खिलाफ एकजुट हों। यही रसूल की असली तालीम है और हमारी कामयाबी की चाबी।
क्या ईरान में महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार और अवसर प्राप्त हैं?
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफ़लता के बाद कुछ पश्चिमी देशों ने यह प्रचार करने की कोशिश की कि ईरानी महिलाओं के साथ अन्याय हुआ है।
साल 1979 ईसवी में इस्लामी क्रांति की सफ़लता के बाद ईरानी समाज में महिलाओं की स्थिति के प्रति दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन आया। कुछ लोगों की धारणा के विपरीत इस्लामी गणराज्य केवल महिलाओं की भागीदारी में न केवल कोई बाधा नहीं बना, बल्कि इस्लामी शिक्षाओं और इमाम खुमैनी रह. के निर्देशों के आधार पर महिलाओं को शैक्षणिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में वृद्धि और विकास का अवसर प्रदान किया।
आधिकारिक और विश्वसनीय आंकड़ों के आधार पर इन प्रगति को उजागर करती है।
इमाम ख़ुमैनी रह. और इमाम ख़ुमैनी रह. का महिलाओं के बारे में दृष्टिकोण
इमाम ख़ुमैनी रह. ईरान की इस्लामी गणराज्य के संस्थापक, हमेशा समाज में महिलाओं और पुरुषों के अधिकारों की समानता पर जोर देते थे। उन्होंने कहा:
इस्लामी समाज में महिलाएँ स्वतंत्र हैं और उन्हें विश्वविद्यालय, सरकारी कार्यालय और संसद में जाने से किसी भी प्रकार की रोक नहीं है।
इमाम ख़ुमैनी रह. इस्लामी क्रांति के नेता ने 27 आज़ार 1403 हिजरी शमसी को हजारों महिलाओं और लड़कियों से मुलाकात में इस्लामी चार्टर के एक मूल सिद्धांत को उद्धृत किया:
महिला और पुरुष के बीच आध्यात्मिक प्रगति और उच्चतर मानव जीवन की प्राप्ति में कोई अंतर नहीं है।
उन्होंने कहा कि इस्लाम के दृष्टिकोण से शारीरिक भिन्नताओं के बावजूद, पुरुष और महिला दोनों ही असीमित मानसिक और व्यावहारिक क्षमताओं और प्रतिभाओं के पात्र हैं। यही कारण है कि महिलाओं को पुरुषों की तरह, और कुछ मामलों में आवश्यक रूप से, विभिन्न वैज्ञानिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, अंतरराष्ट्रीय, सांस्कृतिक और कलात्मक क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
शिक्षा और अध्ययन
ईरानी इस्लामी क्रांति के बाद, शिक्षा और अध्ययन के क्षेत्र में महिलाओं की पहुँच में महत्वपूर्ण बदलाव आया है:
महिलाओं की साक्षरता दर, जो क्रांति से पहले 15% थी, अब 80% से अधिक हो गई है।
ईरान के विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने वाले छात्रों में 61% लड़कियाँ हैं।
विश्वविद्यालयों के फैकल्टी में 33% और मेडिकल साइंसेज़ में 44% सदस्य महिलाएँ हैं।
स्वास्थ्य और चिकित्सा
स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में ईरानी इस्लामी गणराज्य ने महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए प्रभावशाली क़दम उठाए हैं:
ईरानी महिलाओं की जीवन प्रत्याशा 78 वर्ष तक पहुँच गई है।
प्रसव के समय माताओं की मृत्यु दर 100,000 जन्मों में 20 मामलों तक घट गई है।
ईरान के स्वास्थ्यकर्मी कर्मचारियों में 70% से अधिक महिलाएँ हैं।
ग्रामीण और क़बायली क्षेत्रों में 99% और शहरी क्षेत्रों में 100% लोगों के लिए सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज उपलब्ध है।
ईरान ने नवजात शिशुओं और 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में कमी के मामले में वैश्विक रैंक हासिल की है।
क्या यमनी ड्रोन ने अमेरिकी नौसैनिक रणनीति को चुनौती दे दी है?
एक लेबनानी अखबार ने क़बूला है कि लाल सागर में यमन के नौसैनिक युद्ध के अनुभव ने अमेरिकी सैन्य परिवर्तन में एक मोड़ पैदा कर दिया है।
लाल सागर में यमन के असमैट्रिक हमलों का मुकाबला करने में नाकाम रहने के बाद, अमेरिका ने अपने सैन्य दृष्टिकोण को बदलते हुए ड्रोन और समुद्री रोबोट्स के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल की ओर रुख किया है। पार्स टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, लेबनान के अख़बार अल-अख़बार ने एक लेख में लिखा: लाल सागर में यमन के नौसैनिक युद्ध का अनुभव अमेरिकी सैन्य परिवर्तन में एक अहम मोड़ साबित हुआ है। इस अरब मीडिया ने जोर देकर कहा: यमन युद्ध ने दिखाया कि पारंपरिक और महंगी मिसाइलें अब पर्याप्त नहीं हैं। इसीलिए, पेंटागन ने "रेप्लिकेटर" नामक एक कार्यक्रम पेश किया है जिसका मकसद बड़ी संख्या में सस्ते ड्रोन और रोबोट बनाना है ताकि बिना पायलट वाले हथियारों की तैनाती में तेजी लाई जा सके।
पहले चरण में, अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने साल 2023 के अंत में ड्रोन और ड्रोन-रोधी चेतावनी व रक्षा प्रणालियों खरीदने के लिए 500 मिलियन डॉलर का फंड आवंटित किया। वित्तीय वर्ष 2025 में इस राशि में 500 मिलियन डॉलर और की बढ़ोतरी की योजना है। अमेरिकी नौसेना का यह भी इरादा है कि वह जहाज-आधारित विमानों और एयरबोर्न माइंस का निर्माण करे, जो एक नई रक्षा पंक्ति के तौर पर काम करेंगे। ये ऐसे उपकरण हैं जो अपेक्षाकृत कम कीमत पर बिना पायलट वाले हमलावरों का मुकाबला करने में सक्षम होंगे। लेकिन जो साफ है, वह यह कि लाल सागर में यमन की लड़ाइयों में यमनी बलों द्वारा सटीक और सस्ते ड्रोन और मिसाइलों के इस्तेमाल ने उन्नत पश्चिमी बेड़ों को गंभीर चुनौतियाँ पेश की हैं। यह बदलाव साल 2023 के अंत में शुरू हुआ, जब अमेरिकी-यूरोपीय-इजरायली गठबंधन को अप्रत्याशित प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।
अमेरिकी वरिष्ठ अधिकारियों ने स्वीकार किया कि सरल और कम लागत वाले उपकरणों ने भारी और महंगे सैन्य ढाँचों को उलझा कर रख दिया है। इस हकीकत ने वाशिंगटन और यहाँ तक कि बीजिंग को भी अपनी नौसैनिक रणनीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है। यमन के अनुभव से प्रेरित होकर, चीन ने भी अमेरिकी पारंपरिक वर्चस्व का मुकाबला करने के एक तरीके के रूप में ड्रोन और समुद्री रोबोट्स के क्षेत्र में निवेश को अपनी एजेंडा सूची में शामिल किया है।
अफ़्रीक़ी जनता पर ज़ायोनी शासन के यमन और गज़ा के खिलाफ अत्याचारों का क्या प्रभाव पड़ा है?
यमन पर हमले और गज़ा में इज़राइली शासन के निरंतर अत्याचारों के जवाब में कुछ अफ़्रीक़ी देशों की जनता ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किए।
ट्यूनीशिया के नागरिकों ने शनिवार शाम वाशिंगटन में इज़राइल के दूतावास के सामने ज़ायोनी विरोधी प्रदर्शन करके गज़ा पट्टी में नरसंहार जारी रहने और यमन की राजधानी सना पर इजरायल के हालिया हमले की निंदा की। इस प्रदर्शन में शामिल लोगों ने ज़ायोनी शासन को अमेरिकी समर्थन की निंदा करते हुए "अमेरिका, आक्रमणकारी उकसाने वाला", "अमेरिका, इजरायल का प्रोत्साहनकर्ता" और "अमेरिका, गज़ा की नाकेबंदी का समर्थक" जैसे नारे लगाए।
ग़ैर-सरकारी संगठन "ट्यूनीशिया नेटवर्क अगेंस्ट नॉर्मलाइजेशन" द्वारा आयोजित इस प्रदर्शन में, प्रदर्शनकारियों ने यमन के लोगों को संबोधित करते हुए नारे लगाए: "यमन ज़ायोनिज़्म और साम्राज्यवाद से नहीं डरता", "यमन, जीत की ओर बढ़ो" और "यमन दृढ़, नाकेबंदी के आगे नहीं झुकेगा"।
पिछले गुरुवार को ज़ायोनी शासन के लड़ाकू विमानों ने सना को निशाना बनाया, जिसमें यमन के प्रधानमंत्री और सरकार के कई सदस्य शहीद हो गए। इस हवाई हमले के जवाब में, देश के अंसारुल्लाह आंदोलन के वरिष्ठ सदस्य मोहम्मद अल-बखिती ने गज़ा के लिए यमन के समर्थन पर जोर देते हुए कहा: ज़ायोनी दुश्मन के साथ हमारी लड़ाई एक नए चरण में प्रवेश कर गई है और यमनी अधिकारियों की हत्या के जुर्म में क़ब्ज़ाधारियों को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
इससे पहले, ट्यूनीशिया के नागरिकों ने शुक्रवार शाम देश की राजधानी में ज़ायोनी विरोधी प्रदर्शन करके फिलिस्तीनी प्रतिरोध के समर्थन में नारे लगाए और गज़ा की नाकेबंदी और वहां के निवासियों के नरसंहार की निंदा करते हुए पुकार लगाई: "नाकेबंदी और भूख, नाश हो जाए", "प्रतिरोध जिंदाबाद", "गज़ा दृढ़ रहो", "जैतून की डाली नहीं गिरेगी"।
मौरितानिया के नागरिकों ने भी नौआकशोट में जुमे की नमाज़ के बाद ज़ायोनी विरोधी प्रदर्शन किए और फिलिस्तीनी प्रतिरोध का समर्थन जारी रखने तथा इजरायल का समर्थन करने वाले देशों के राजदूतों को निष्कासित करने की मांग की। इस प्रदर्शन में मौरितानिया की राजनीतिक-धार्मिक हस्तियाँ भी मौजूद थीं। प्रदर्शनकारियों के बीच एक मौरितानियाई हस्ती ने अपने भाषण में कहा: गज़ा के निवासियों के साथ एकजुटता धार्मिक और मानवीय दायित्व है, और गज़ा में युद्ध रुकने और इस पट्टी की नाकेबंदी टूटने तक मौरितानिया के लोग अपने प्रदर्शन जारी रखेंगे। कुछ समय पहले, कुछ मीडिया ने मौरितानिया सरकार के ज़ायोनी शासन के साथ संबंधों की खबरें प्रकाशित की थीं, जिनकी अभी तक मौरितानियाई अधिकारियों ने पुष्टि नहीं की है।
मोरक्को के हज़ारों लोगों ने भी शुक्रवार शाम देश के विभिन्न शहरों में ज़ायोनी विरोधी प्रदर्शन करके गज़ा में नरसंहार जारी रहने और वहाँ के निवासियों को भूखा रखे जाने की निंदा की।
ये प्रदर्शन तन्जा, ततुआन और शफ़शाऊन (उत्तर), दारुल बैज़ा और जदीदा (पश्चिम), अंज़कान, तारौदंत (दक्षिण), बर्केन और ओजदा (पूर्व) जैसे शहरों में आयोजित किए गए। इनमें शामिल लोगों ने गज़ा के अकाल और विनाश की तस्वीरें लहराते हुए इज़राइल द्वारा फिलिस्तीनियों को भूखा रखने की नीति को समाप्त करने की मांग की। मोरक्को के प्रदर्शनकारियों ने "गज़ा में नरसंहार रोको" और "फिलिस्तीन एक अमानत है" जैसे बैनर लेकर "मोरक्को की जय हो, दृढ़ गज़ा की जय हो" और "मोरक्को-फिलिस्तीन एक राष्ट्र है" के नारे लगाए।
ज़ायोनी सैनिकों द्वारा गज़ा पट्टी पर कब्ज़े के दौरान 63,000 से अधिक फिलिस्तीनियों की मौत हो चुकी है, जिनमें से अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं। इसके अलावा, इस पट्टी की नाकेबंदी जारी रहने के कारण, गज़ा के 322 निवासियों की भूख से मौत हो गई है, जिनमें से 121 बच्चे हैं।
इन कई अफ़्रीक़ी देशों में प्रदर्शन, इस महाद्वीप के लोगों का इजरायल और फिलिस्तीन के कब्जे वाले इलाकों और पश्चिम एशिया में इसके अत्याचारी कार्यों के प्रति दृष्टिकोण का एक उदाहरण है।
अफ्रीका की जनता का दृष्टिकोण, विशेष रूप से इस महाद्वीप के मुस्लिम देशों में, इजरायल के प्रति, फिलिस्तीन के साथ ऐतिहासिक एकजुटता, साम्राज्यवाद का अनुभव और समकालीन भू-राजनीतिक प्रभावों का मिश्रण है। इस दृष्टिकोण को कुछ मुख्य बिंदुओं में देखा जा सकता है:
फिलिस्तीन के साथ ऐतिहासिक एकजुटता
अफ़्रीक़ी देश, खासकर वे जिन्होंने साम्राज्यवादियों के ख़िलाफ़ और स्वतंत्रता संग्राम का अनुभव किया है, अपने आप को फिलिस्तीनी जनता के साथ एक प्लेटफ़ार्म पर देखते हैं।
अफ़्रीक़ी स्वतंत्रता सेनानी नेताओं जैसे नेल्सन मंडेला ने बार-बार फिलिस्तीन के मकसद का समर्थन किया है और इजरायली कब्जे की तुलना रंगभेद से की है।
अफ़्रीक़ी इस्लामी देशों के रुख
इस्लामी देश जैसे सूडान, माली, मौरितानिया और अल्जीरिया आम तौर पर इजरायल के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हैं और फिलिस्तीनियों के अधिकारों का समर्थन करते हैं।
हालाँकि, कुछ देशों जैसे मोरक्को और सूडान ने हालिया वर्षों में राजनयिक और आर्थिक दबावों के चलते इजरायल के साथ अपने रिश्ते सामान्य किए हैं (अब्राहम समझौते) जिसकी इन देशों की जनता में काफी आलोचना हुई है।
जनता की राय और मीडिया
कई अफ़्रीक़ी समुदायों में, खासकर मुसलमानों के बीच, इजरायल को अत्याचार और कब्जे का प्रतीक माना जाता है।
अफ़्रीक़ी देशों के स्थानीय मीडिया और सोशल मीडिया अक्सर गज़ा और यमन पर इजरायली हमलों की खबरों को आलोचनात्मक अंदाज में दिखाते हैं और फिलिस्तीनी पीड़ितों के साथ हमदर्दी आम बात है।
सरकारों और जनता के नज़रिए में फ़र्क़
जहाँ कुछ सरकारों ने आर्थिक या राजनीतिक कारणों से इज़राइल के साथ अपने संबंध बढ़ाए हैं, वहीं कई देशों की जनता अब भी इज़राइल की आलोचक बनी हुई है।
इस अंतर के कारण कुछ सरकारें अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अंदरूनी प्रतिक्रियाओं से बचने के लिए संभलकर रुख अपनाती हैं।
नज़्म व ज़ब्त
हज़रत अली (अ.) नो फ़रमायाः मैं तुम्हे तक़वे और नज़्म की वसीयत करता हूँ।
हम जिस जहान में ज़िन्दगी बसर करते हैं यह नज़्म और क़ानून पर मोक़ूफ़ है। इसमें हर तरफ़ नज़्म व निज़ाम की हुकूमत क़ायम है। सूरज के तुलूअ व ग़ुरूब और मौसमे बहार व ख़िज़ा की तबदीली में दक़ीक़ नज़्म व निज़ाम पाया जाता है।
कलियों के चटकने और फूलों के खिलने में भी बेनज़मी नही दिखाई देती। कुर्रा ए ज़मीन, क़ुर्से ख़ुरशीद और दिगर तमाम सय्यारों की गर्दिश भी इल्लत व मालूल और दक़ीक़ हिसाब पर मबनी है। इस बात में कोई शक नही है कि अगर ज़िन्दगी के इस वसीअ निज़ाम के किसी भी हिस्से में कोई छोटी सी भी ख़िलाफ़ वर्ज़ी हो जाये तो तमाम क़ुर्रात का निज़ाम दरहम बरहम हो जायेगा और कुर्रात पर ज़िन्दगी ख़त्म हो जायेगी। पस ज़िन्दगी एक निज़ाम पर मोक़ूफ़ है।
इन सब बातों को छोड़ते हुए हम अपने वुजूद पर ध्यान देते हैं, अगर ख़ुद हमारा वुजूद कज रवी का शिकार हो जाये तो हमारी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ जायेगी। हर वह मौजूद जो मौत को गले लगाता है मौत से पहले उसके वुजूद में एक ख़लल पैदा होता है जिसकी बिना पर वह मौत का लुक़मा बनता है।
इस अस्ल की बुनियाद पर इंसान, जो कि ख़ुद एक ऐसा मौजूद है जिसके वुजूद में नज़्म पाया जाता है और एक ऐसे वसीअ निज़ामे हयात में ज़िन्दगी बसर करता है जो नज़्म से सरशार है, इजतेमाई ज़िन्दगी में नज़्म व ज़ब्त से फ़रार नही कर सकता।
आज की इजतेमाई ज़िन्दगी और माज़ी की इजतेमाई ज़िन्दगी में फ़र्क़ पाया जाता है। कल की इजतेमाई ज़िन्दगी बहुत सादा थी मगर आज टैक्निक, कम्पयूटर, हवाई जहाज़ और ट्रेन के दौर में ज़िन्दगी बहुत दक़ीक़ व मुनज़बित हो गई है।
आज इंसान को ज़रा सी देर की वजह से बहुत बड़ा नुक़्सान हो जाता है। मिसाल को तौर पर अगर कोई स्टूडैन्ट खुद को मुनज़्ज़म न करे तो मुमकिन है कि किसी कम्पटीशन में तीन मिनट देर से पहुँचे, ज़ाहिर है कि यह बेनज़मी उसकी तक़दीर को बदल कर रख देगी। इस मशीनी दौर में ज़िन्दगी की ज़रूरतें हर इंसान को नज़्म की पाबन्दी की तरफ़ मायल कर रही हैं। इन सबको छोड़ते हुए जब इंसान किसी मुनज़्ज़म इजतेमा में क़रार पाता है तो बदूने तरदीद उसका नज़्म व निज़ाम उसे मुतास्सिर करता है और उसे इनज़ेबात की तरफ़ खींच लेता है।
एक ऐसा ज़रीफ़ नुक्ता जिस पर तवज्जो देने में ग़फ़लत नही बरतनी चाहिए यह है कि नज़्म व पाबन्दी का ताल्लुक़ रूह से होता है और इंसान इस रूही आदत के तहत हमेशा खुद को बाहरी इमकान के मुताबिक़ ढालता रहता है। मिसाल के तौर पर अगर किसी मुनज़्ज़म आदमी के पास कोई सवारी न हो और उसके काम करने की जगह उसके घर से दूर हो तो उसका नज़्म उसे मजबूर करेगा कि वह अपने सोने व जागने के अमल को इस तरह नज़्म दे कि वक़्त पर अपने काम पर पहुँच सके।
इस बिना पर जिन लोगों में नज़्म व इनज़ेबात का जज़्बा नही पाया जाता अगर उनका घर काम करने की जगह से नज़दीक हो और उनके पास सवारी भी मौजूद वह तब भी काम पर देर से ही पहुँचेगा।
इस हस्सास नुक्ते पर तवज्जो देने से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि नज़्म व पाबन्दी का ताल्लुक़ इंसान की रूह से है और इसे आहिस्ता आहिस्ता तरबियत के इलल व अवामिल के ज़रिये इंसान के वुजूद में उतरना चाहिए।
इसमें कोई शक नही है कि इंसान में इस जज्बे को पैदा करने के लिए सबसे पहली दर्सगाह घर का माहौल है। कुछ घरों में एक खास नज़्म व ज़ब्त पाया जाता है, उनमें सोने जागने, खाने पीने और दूसरे तमाम कामों का वक़्त मुऐयन है। जाहिर है कि घर का यह नज़्म व ज़ब्त ही बच्चे को नज़्म व निज़ाम सिखाता है। इस बिना पर माँ बाप नज़्म व निज़ाम के उसूल की रिआयत करके ग़ैरे मुस्तक़ीम तौर पर अपने बच्चों को नज़्म व इनज़ेबात का आदी बना सकते हैं।
सबसे हस्सास नुक्ता यह है कि बच्चों को दूसरों की मदद की ज़रूरत होती है। यानी माँ बाप उन्हें नींद से बेदार करें और दूसरे कामों में उनकी मदद करें। लेकिन यह बात बग़ैर कहे ज़ाहिर है कि उनकी मदद करने का यह अमल उनकी उम्र बढ़ने के साथ साथ ख़त्म हो जाना चाहिए।
क्योंकि अगर उनकी मदद का यह सिलसिला चलता रहा तो वह बड़े होने पर भी दूसरों की मदद के मोहताज रहेंगे। इस लिए कुछ कामों में बच्चों की मदद करनी चाहिए और कुछ में नही, ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा होना सीखें और हर काम में दूसरों की तरफ़ न देखें।
माँ बाप को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि बच्चों का बहुत ज़्यादा लाड प्यार भी उन्हे बिगाड़ने और खराब करने का एक आमिल बन सकता है। इससे आहिस्ता आहिस्ता बच्चों में अपने काम को दूसरों के सुपुर्द करने का जज़्बा पैदा हो जायेगा फिर वह हमेशा दूसरों के मोहताज रहेंगे।
ज़िमनन इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि नज़्म व निज़ाम एक वाक़ियत हैं लेकिन इसका दायरा बहुत वसीअ है। एक मुनज़्ज़म इंसान इस निज़ाम को अपने पूरे वुजूद में उतार कर अपनी रूह, फ़िक्र, आरज़ू और आइडियल सबको निज़ाम दे सकता है। इस बिना पर एक मुनज़्ज़म इंसान इस हस्ती की तरह अपने पूरे वुजूद को निज़ाम में ढाल सकता है।
निज़ाम की कितनी ज़्यादा अहमियत है इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी उम्र के सबसे ज़्यादा बोहरानी हिस्से यानी शहादत के वक़्त नज़्म की रिआयत का हुक्म देते हुए फ़रमाया है।
اوصيكم بتقوى الله و نظم امركم
तुम्हें तक़वे व नज़्म की दावत देता हूँ।
अरबी अदब के क़वाद की नज़र से कलमा ए अम्र की ज़मीर की तरफ़ इज़ाफ़त इस बात की हिकायत है कि नज़्म तमाम कामों में मनज़ूरे नज़र है, न सिर्फ़ आमद व रफ़्त में। क्योंकि उलमा का यह मानना है कि जब कोई मस्दर ज़मीर की तरफ़ इज़ाफ़ा होता है तो उमूम का फ़ायदा देता है।
इस सूरत में मतलब यह होगा कि तमाम कामों में नज़्म की रिआयत करो। यानी सोने,जागने, इबादत करने, काम करने और ग़ौर व फ़िक्र करने वग़ैरा तमाम कामों में नज़्म होना चाहिए।
इस्लाम में नज़्म व निज़ाम की अहमियत
इस्लाम नज़्म व इन्ज़ेबात का दीन है। क्योंकि इस्लाम की बुनियाद इंसान की फ़ितरत पर है और इंसान का वुजूद नज़्म व इन्ज़ेबात से ममलू है इस लिए ज़रूरी है कि इंसान के लिए जो दीन व आईन लाया जाये उसमे नज़्म व इन्ज़ेबात पाया जाता हो। मिसाल के तौर पर मुसलमान की एक ज़िम्मेदारी वक़्त की पहचान है।
यानी किस वक़्त नमाज़ शुरू करनी चाहिए ? किस वक़्त खाने को तर्क करना चाहिए ? किस वक़्त इफ़्तार करना चाहिए ? कहाँ नमाज़ पढ़नी चाहिए और कहाँ नमाज़ नही पढ़नी चाहिए? कहाँ नमाज़ चार रकत पढ़नी चाहिए कहाँ दो रकत ? इसी तरह नमाज़ पढ़ते वक़्त कौनसे कपड़े पहनने चाहिए और कौन से नही पहनने चाहिए ? यह सब चीज़ें इंसान को नज़्म व इन्ज़ेबात से आशना कराती हैं।
इस्लाम में इस बात की ताकीद की गई है और रग़बत दिलाई गई है कि मुसलमानों को चाहिए कि अपनी इबादतों को नमाज़ के अव्वले वक़्त में अंजाम दें।
हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपने बेटे को अव्वले वक़्त नमाज़ पढ़ने की वसीयत की।
انه قال يا بنى اوصك با لصلوة عند وقتها
ऐ मेरे बेटे नमाज़ को नमाज़ के अव्वले वक़्त में पढ़ना।
ज़ाहिर है कि फ़राइज़े दीने (नमाज़े पनजगाना) को अंजाम देने का एहतेमाम इंसान में तदरीजी तौर पर इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करेगा।
ऊपर बयान किये गये मतालिब से यह बात सामने आती है कि पहली मंज़िल में जज़्बा ए नज़्म व इन्ज़ेबात माँ बाप की तरफ़ से बच्चों में मुन्तक़िल होना चाहिए। ज़ाहिर है कि स्कूल का माहौल भी बच्चों में नज़्म व इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करने में बहुत मोस्सिर है।
स्कूल का प्रंसिपिल और मास्टर अपने अख़लाक़ व किरदार के ज़रिये शागिर्दों में नज़्म व इन्ज़ेबात को अमली तौर पर मुन्तक़िल कर सकते हैं। इसको भी छोड़िये, स्कूल का माहौल अज़ नज़रे टाइम टेबिल ख़ुद नज़्म व ज़ब्त का एक दर्स है।
शागिर्द को किस वक़्त स्कूल में आना चाहिए और किस वक़्त सकूल से जाना चाहिए? स्कूल में रहते हुए किस वक़्त कौनसा दर्स पढ़ना चाहिए? किस वक़्त खेलना चाहिए? किस वक़्त इम्तेहान देना चाहिए ? किस वक़्त रजिस्ट्रेशन कराना चाहिए? यह सब इन्ज़ेबात सिखाने के दर्स हैं।
ज़ाहिर है कि बच्चों और शागिर्दों नज़्म व इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करने के बारे में माँ बाप और उस्तादों की सुस्ती व लापरवाही जहाँ एक ना बख़शा जाने वाला गुनाह हैं वहीँ बच्चों व जवानों की तालीम व तरबियत के मैदान में एक बड़ी ख़ियानत भी है।
क्योंकि जो इंसान नज़्म व इन्ज़ेबात के बारे में नही जानता वह ख़ुद को इजतेमाई ज़िन्दगी के मुताबिक़ नही ढाल सकता। इस वजह से वह शर्मिन्दगी के साथ साथ मजबूरन बहुत से माद्दी व मानवी नुक़्सान भी उठायेगा।
इबादत, नहजुल बलाग़ा की नज़र में
नहजुल बलाग़ा का इजमाली तआरुफ़
नहजुल बलाग़ा वह अज़ीमुल मरतबत किताब है जिस को दोनो फ़रीक़ के उलामा मोतबर समझते हैं, यह मुक़द्दस किताब इमाम अली अलैहिस सलाम के पैग़ामात और गुफ़तार का मजमूआ है जिस को अल्लामा रज़ी अलैहिर रहमा ने तीन हिस्सों में तरतीब दिया है। जिन का इजमाली तआरुफ़ ज़ैल में किया जा रहा है:
- पहला हिस्सा: ख़ुतबात
नहजुल बलाग़ा का पहला और सब से मुहिम हिस्सा, इमाम अली अलैहिस सलाम के ख़ुतबात पर मुशतमिल है जिन को इमाम (अ) ने मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर बयान फ़रमाया है, उन ख़ुतबों की कुल तादाद (241) है जिन में सब से तूलानी ख़ुतबा 192 है जो ख़ुतब ए क़ासेआ के नाम से मशहूर है और सब से छोटा ख़ुतबा 59 है।
- दूसरा हिस्सा: ख़ुतूत
यह हिस्सा इमाम अली अलैहिस सलाम के ख़ुतूत पर मुशतमिल है जो आप ने अपने गवर्नरों, दोस्तों, दुश्मनों, क़ाज़ियों और ज़कात जमा करने वालों के लिये लिखें है, उन सब में 53 वां ख़त सब से बड़ा है जो आप ने अपने मुख़लिस सहाबी मालिके अशतर को लिखा है और सब से छोटा ख़त 79 वां है जो आप ने फौ़ज के अफ़सरों को लिखा है।
- तीसरा हिस्सा: कलेमाते क़िसार
नहजुल बलाग़ा का आख़िरी हिस्सा 480 छोटे बड़े हिकमत आमेज़ कलेमात पर मुशतमिल है जिन को कलेमाते क़िसार कहा जाता है यानी मुख़तसर कलेमात, उन को कलेमाते हिकमत और क़िसारुल हिकम भी कहा जाता है। यह हिस्ला अगरचे मुख़तसर बयान पर मुशतमिल है लेकिन उन के मज़ामीन बहुत बुंलद पाया हैसियत रखते हैं जो नहजुल बलाग़ा की ख़ूब सूरती को चार चाँद लगा देते हैं।
मुक़द्दमा
इतना के नज़दीक इंसान जितना ख़ुदा से करीब हो जाये उस का उस का मरतबा व मक़ाम भी बुलंद होता जायेगा और जितना उस का मरतबा बुलंद होगा उसी हिसाब से उस की रुह को तकामुल हासिल होता जायेगा। यहाँ तक कि इंसान उस मक़ाम पर पहुच जाता है कि जो बुलंद तरीन मक़ाम है जहाँ वह अपने और ख़ुदा के दरमियान कोई हिजाब व पर्दा नही पाता हत्ता कि यहाँ पहुच कर इंसान अपने आप को भी भूल जाता है।
यहाँ पर इमाम सज्जाद अलैहिस सलाम का फ़रमान है जो इसी मक़ाम को बयान करता है। आप फ़रमाते हैं:
इलाही हब ली कमालल इंकेताए इलैक............(1)
ख़ुदाया मेरी तवज्जो को ग़ैर से बिल्कुल मुनक़ताकर दे और हमारे दिलों को अपनी नज़रे करम की रौशनी से मुनव्वर कर दे हत्ता कि बसीरते क़ुलूब से नूर के हिजाब टूट जायें और तेरी अज़मत के ख़ज़ानों तक पहुच जायें।
इस फ़रमाने मासूम से मालूम होता है कि जब इंसान खुदा से मुत्तसिल हो जाता है तो उस की तवज्जो ग़ैरे ख़ुदा से मुनक़ता हो जाती है। खुदा के अलावा सब चीज़ें उस की नज़र में बे अरज़िश रह जाती है। वह ख़ुद को ख़ुदा वंदे की मिल्कियत समझता है और अपने आप को ख़ुदा की बारगाह में फ़क़ीर बल्कि ऐने फ़क़र समझता है और ख़ुदा को ग़नी बिज़ ज़ात समझता है। जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:
अबदन ममलूकन या यक़दिरो अला शय.......। (2)
इंसान ख़ुदा का ज़र ख़रीद ग़ुलाम है और यह ख़ुद किसी शय पर क़ुदरत नही रखता है।
लिहाज़ा ख़ुदा वंदे आलम का क़ुर्ब कैसे हासिल किया जाये ता कि यह बंदा ख़ुदा का महबूब बन जाये और ख़ुदा उस का महबूब बन जाये। मासूमीन अलैहिमुस सलाम फ़रमाते हैं:
खुदा से नज़दीक़ और क़ुरबे इलाही हासिल करने का वाहिद रास्ता उस की इबादत और बंदी है यानी इँसान अपनी फ़रदी व समाजी ज़िन्दगी में सिर्फ़ ख़ुदा को अपना मलजा व मावा क़रार दे।
जब इंसान अपना सब कुछ ख़ुदा को क़रार देगा तो उसका हर काम इबादत शुमार होगा। तालीम व तअल्लुम भी इबादत, कस्ब व तिजारत भी इबादत, फ़रदी व समाजी मसरुफ़ियात भी इबादत गोया हर वह काम जो पाक नीयत से और खु़दा के लिये होगा वह इबादत के ज़ुमरे में आयेगा।
अभी इबादत की पहचान और तारीफ़ के बाद हम इबादत की अक़साम और आसारे इबादत को बयान करते हैं ता कि इबादत की हक़ीक़त को बयान किया जा सके। ख़ुदा वंदे आलम से तौफ़ीक़ात ख़ैर की तमन्ना के साथ अस्ल मौज़ू की तरफ़ आते हैं।
इबादत की तारीफ़
इबादत यानी झुक जाना उस शख़्स का जो अपने वुजूद व अमल में मुस्तक़िल न हो उस की ज़ात के सामने जो अपने वुजूद व अमल में इस्तिक़लाल रखता हो।
यह तारीफ़ बयान करती है कि तमाम कायनात में ख़ुदा के अलावा कोई शय इस्तिक़लाल नही रखती फ़क़त जा़ते ख़ुदा मुस्तक़िल व कामिल है और अक़्ल का तक़ाज़ा है कि हर नाक़िस को कामिल की ताज़ीम करना चाहिये चूं कि ख़ुदा वंदे आलम कामिल और अकमल ज़ात है बल्कि ख़ालिक़े कमाल है लिहाज़ा उस ज़ात के सामने झुकाव व ताज़ीम व तकरीम मेयारे अक़्ल के मुताबिक़ है।
इबादत की अक़साम
इमाम अली अलैहिस सलाम नहजुल बलाग़ाके अंदर तौबा करने वालों की तीन क़िस्में बयान फ़रमाते हैं:
इन्ना क़ौमन अबदुल्लाहा रग़बतन फ़ तिलका इबादतुत तुज्जार.......। (3)
कुछ लोग ख़ुदा की इबादत ईनाम के लालच में करते हैं यह ताजिरों की इबादत है और कुछ लोग ख़ुदा की इबादत ख़ौफ़ की वजह से करते हैं यह ग़ुलामों की इबादत है और कुछ लोग ख़ुदा की इबादत उस का शुक्र बजा लाने के लिये करते हैं यह आज़ाद और ज़िन्दा दिल लोगों की इबादत हैं।
इस फ़रमान में इमाम अली अलैहिस सलाम ने इबादत को तीन क़िस्मों में तक़सीम किया है।
पहली क़िस्म: ताजिरों की इबादत
यानी कुछ लोग रग़बत औक ईनाम की लालच में ख़ुदा की इबादत करते हैं। इमाम (अ) फ़रमाते हैं कि यह हक़ीक़ी इबादत नही है बल्कि यह ताजिरों की तरह ख़ुदा से मामला चाहता है जैसे ताजिर हज़रात का हम्म व ग़म फ़कत नफ़ा और फ़ायदा होता है किसी की अहमियत उस की नज़र में नही होती। उसी तरह से यह आबिद जो इस नीयत से ख़ुदा के सामने झुकता है दर अस्ल ख़ुदा की अज़मत का इक़रार नही करता बल्कि फ़क़त अपने ईनाम के पेशे नज़र झुक रहा होता है।
दूसरी क़िस्म: ग़ुलामों की इबादत
इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि कुछ लोग ख़ुदा के ख़ौफ़ से उस की बंदगी करते हैं यह भी हक़ीक़ इबादत नही है बल्कि ग़ुलामों की इबादत है जैसे एक ग़ुलाम मजबूरन अपने मालिक की इताअत करता है उस की अज़मत उस की नज़र में नही होती। यह आबिद भी गोया ख़ुदा की अज़मत का मोअतरिफ़ नही है बल्कि मजबूरन ख़ुदा के सामने झुक रहा है।
तीसरी क़िस्म: हक़ीक़ी इबादत
इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि कुछ लोग ऐसे हैं जो ख़ुदा की इबादत और बंदगी उस की नेंमतों का शुक्रिया अदा करने के लिये बजा लाते हैं, फ़रमाया कि यह हक़ीक़ी इबादत है। चूँ कि यहाँ इबादत करने वाला अपने मोहसिन व मुनईमे हकी़क़ी को पहचान कर और उस की अज़मत की मोअतरिफ़ हो कर उस के सामने झुक जाता है जैसा कि कोई अतिया और नेमत देने वाला वाजिबुल इकराम समझा जाता है और तमाम दुनिया के ग़ाफ़िल इंसान उस की अज़मत को तसलीम करते हैं। इसी अक़ली क़ानून की बेना पर इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि जो शख़्स उस मुनईमे हक़ीक़ी को पहचान कर उस के सामने झुक जाये। उसी को आबिदे हक़ीक़ी कहा जायेगा और यह इबादत की आला क़िस्म है।
नुकता
ऐसा नही है कि पहली दो क़िस्म की इबादत बेकार है और उस का कोई फ़ायदा नही है हरगिज़ ऐसा नही है बल्कि इमाम अलैहिस सलाम मरातिबे इबादत को बयान फ़रमाना चाहते हैं। अगर कोई पहली दो क़िस्म की इबादत बजा लाता है तो उस को उस इबादत का सवाब ज़रुर मिलेगा। फ़क़त आला मरतबे की इबादत से वह शख़्स महरुम रह जाता है। चूँ कि बयान हुआ कि आला इबादत तीसरी क़िस्म की इबादत है।
इबादत के आसार
- दिल की नूरानियत
इबादत के आसार में से एक अहम असर यह है कि इबादत दिल को नूरानियत और सफ़ा अता करती है और दिल को तजल्लियाते ख़ुदा का महवर बना देती है। इमाम अलैहिस सलाम इस असर के बारे में फ़रमाते हैं:
इन्नल लाहा तआला जअलज ज़िक्रा जलाअन लिल क़ुलूब। (4)
ख़ुदा ने ज़िक्र यानी इबादत को दिलों की रौशनी क़रार दिया है। भरे दिल उसी रौशनी से क़ुव्वते समाअत और सुनने की क़ुव्वत हासिल करते हैं और नाबीना दिल बीना हो जाते हैं।
- ख़ुदा की मुहब्बत
इबादत का दूसरा अहम असर यह है कि यह मुहब्बते ख़ुदा का ज़रिया है। इंसान महबूबे खुदा बन जाता है और ख़ुदा उस का महबूब बन जाता है। इमाम अलैहिस सलाम नहजुल बलाग़ा में फ़रमाते हैं:
ख़ुश क़िस्मत है वह इंसान है जो अपने परवरदिगार के फ़रायज़ को अंजाम देता है और मुश्किलात व मसायब को बरदाश्त करता है और रात को सोने से दूरी इख़्तियार करता है। (5)
इमाम अलैहिस सलाम के फ़रमान का मतलब यह है कि इंसान उन मुश्किलात को ख़ुदा की मुहब्बत की वजह से तहम्मुल करता है और मुहब्बते ख़ुदा दिल के अंदर न हो तो कोई शख़्स इन मुश्किलात को बर्दाश्त नही करेगा। जैसा कि एक और जगह पर इस अज़ीमुश शान किताब में फ़रमाते हैं:
बेशक इस ज़िक्र (इबादत) के अहल मौजूद हैं जो दुनिया के बजाए उसी का इंतेख़ाब करते हैं। (6)
यानी अहले इबादत वह लोग हैं जो मुहब्बते ख़ुदा की बेना पर दुनिया के बदले यादे ख़ुदा को ज़्यादा अहमियत देते हैं और दुनिया को अपना हम्म व ग़म नही बनाते बल्कि दुनिया को वसीला बना कर आला दर्जे की तलाश में रहते हैं।
- गुनाहों का मिट जाना
गुनाहों का मिट जाना यह एक अहम असर है। इबादत के ज़रिये गुनाहों को ख़ुदा वंदे करीम अपनी उतूफ़त और मेहरबानी की बेना पर मिटा देता है। चूँ कि गुनाहों के ज़रिये इंसान का दिल सियाह हो जाता है और जब दिल उस मंज़िल पर पहुच जाये तो इंसान गुनाह को गुनाह ही नही समझता। जब कि इबादत व बंदगी और यादे ख़ुदा इंसान को गुनाहों की वादी से बाहर निकाल देती है। जैसा कि इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं:
बेशक यह इबादत गुनाहों को इस तरह झाड़ देती है जैसे मौसमें ख़ज़ाँ में पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं। (7)
बाद में इमाम अलैहिस सलाम फ़रमाते हैं कि रसूले ख़ुदा (स) ने नमाज़ और इबादत को एक पानी के चश्मे से तशबीह दी है जिस के अंदर गर्म पानी हो और वह चश्मा किसी के घर के दरवाज़े पर मौजूद हो और वह शख़्स दिन रात पाँच मरतबा उस के अंदर ग़ुस्ल करे तो बदन की तमाम मैल व आलूदगी ख़त्म हो जायेगी, फ़रमाया नमाज़ भी इसी तरह ना पसंदीदा अख़लाक़ और गुनाहों को साफ़ कर देती है।
नमाज़ की अहमियत
नमाज़ वह इबादत है कि तमाम अंबिया ए केराम ने इस की सिफ़ारिश की है। इस्लाम के अंदर सबसे बड़ी इबादत नमाज़ है जिस के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का इरशाद है कि अगर नमाज़ कबूल न हुई तो कोई अमल कबूल नही होगा फिर फ़रमाया कि नमाज़ जन्नत की चाभी है और क़यामत के दिन सब से पहले नमाज़ के बारे में सवाल होगा।
क़ुरआने मजीद के अंदर नमाज़ को शुक्रे ख़ुदा का ज़रिया बताया गया है। बाज़ हदीसों में नमाज़ को चश्मे और नहर से तशबीह दी गई है जिस में इंसान पांच मरतबा ग़ुस्ल करता है। इन के अलावा बहुत सी अहादीस नमाज़ की अज़मत और अहमियत पर दलालत करती है। इमाम अलैहिस सलाम नहजुल बलाग़ा में फ़रमाते हैं:
नमाज़ क़ायम करो और उस की मुहाफ़ेज़त करो और उस पर ज़्याद तवज्जो दो और ज़्यादा नमाज़ पढ़ो और उस के वसीले से ख़ुदा का क़ुर्ब हासिल करो। (8)
चूं कि ख़ुदा वंदे आलम क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:
नमाज़ ब उनवाने फ़रीज ए वाजिब अपने अवका़त पर मोमिनीन पर वाजिब है। (9)
फिर फ़रमाया:
क़यामत के दिन अहले जन्नत, जहन्नम वालों से सवाल करेगें। कौन सी चीज़ तुम्हे जहन्नम में ले कर आई है वह जवाब देगें कि हम अहले नमाज़ नही थे।
फिर इमाम अलैहिस सलाम 199 वें ख़ुतबे में फ़रमाते हैं:
नमाज़ का हक़ वह मोमिनीन पहचानते हैं जिन को दुनिया की ख़ूब सूरती धोका न दे और माल व दौलत और औलाद की मुहब्बत नमाज़ से न रोक सके। एक और जगह पर फ़रमाते हैं:
तुम नमाज़ के अवक़ात की पाबंदी करो वह शख़्स मुझ से नही है जो नमाज़ को ज़ाया कर दे। (10)
एक और जगह पर फ़रमाते हैं:
ख़ुदारा, ख़ुदारा नमाज़ को अहमियत दो चूं कि नमाज़ तुम्हारे दीन का सुतून है। (11)
इस हदीस के अलावा और भी काफ़ी हदीसें अहमियते नमाज़ को बयान करती हैं चूँ कि इख़्तेसार मद्दे नज़र है लिहाज़ा इन ही चंद हदीसों पर इकतेफ़ा किया जाता है। फ़क़त एक दो मौरिद मुलाहेज़ा फ़रमायें:
- नमाज़ कुरबे ख़ुदा का ज़रिया है।
इमाम (अ) नहजुल बलाग़ा में फ़रमाते हैं:
नमाज़ कुरबे ख़ुदा का सबब है।
- नमाज़ महवरे इबादत
रसूले इस्लाम (स) फ़रमाते हैं कि नमाज़ दीन का सुतून है। सबसे पहले नाम ए आमाल में नमाज़ पर नज़र की जायेगी और अगर नमाज़ कबूल हुई तो बक़िया आमाल देखे जायेगें। अगर नमाज़ कबूल न हुई तो बाक़ी आमाल भी क़बूल नही होगें।
इमाम (अ) फ़रमाते हैं:
जान लो कि तमाम दूसरे आमाल तेरी नमाज़ के ताबे होने चाहियें। (12)
अज़मते नमाज़
इमाम अली अलैहिस सलाम नहजुल बलाग़ा में इरशाद फ़रमाते हैं:
नमाज़ से बढ़ कर कोई अमल ख़ुदा को महबूब नही है लिहाज़ा कोई दुनियावी चीज़ तूझे अवक़ाते नमाज़ से ग़ाफ़िल न करे।
वक़्ते नमाज़ की अहमियत
इमाम अलैहिस सलाम इसी किताब में फ़रमाते हैं:
नमाज़ को मुअय्यन वक़्त के अंदर अंजाम दो, वक़्त से पहले भी नही पढ़ी जा सकती और वक़्त से ताख़ीर में भी न पढ़ों।
इमाम अलैहिस सलाम जंगे सिफ़्फ़ीन में जंग के दौरान नमाज़ पढ़ने की तैयारी फ़रमाते हैं, इब्ने अब्बास ने कहा कि ऐ अमीरुल मोमिनीन हम जंग में मशग़ूल हैं यह नमाज़ का वक़्त नही है तो इमाम (अ) ने फ़रमाया कि ऐ इब्ने अब्बास, हम नमाज़ के लिये ही तो जंग लड़ रहे हैं। इमाम (अ) ने ज़वाल होते ही नमाज़ के लिये वुज़ू किया और ऐन अव्वले वक़्त में नमाज़ को अदा कर के हमें दर्स दिया है कि नमाज़ किसी सूरत में अव्वल वक़्त से ताख़ीर न की जाये।
नमाजे तहज्जुद या नमाज़े शब
नमाज़े शब या नमाज़े तहज्जुद एक मुसतहब्बी नमाज़ है जिस की गयारह रकतें हैं आठ रकअत नमाज़े शब की नीयत से, दो रकअत नमाज़े शफ़ा की नीयत से और एक रकअत नमाज़े वित्र की नीयत से पढ़ी जाती है, नमाज़े शफ़ा के अंदक क़ुनूत नही होता और नमाज़े वित्र एक रकअत है जिस में कुनूत के साथ चालीस मोमिनीन का नाम लिया जाता है। यह नमाज़ मासूमीन (अ) पर वाजिब होती है। मासूमीन (अ) ने इस नमाज़ की बहुत ताकीद की है। चूं कि इस के फ़वायद बहुत ज़्यादा है।
नमाज़े शब की बरकात
- नमाज़े शब तंदरुस्ती का ज़रिया है।
- ख़ूशनूदी ए ख़ुदा का ज़रिया है।
- नमाज़े शब अख़लाक़े अंबिया की पैरवी करना है।
- रहमते ख़ुदा का बाइस है। (15)
इमाम अली (अ) नमाज़े शब की अज़मत को बयान करते हुए फ़रमाते हैं:
मैंने जब से रसूले ख़ुदा (स) से सुना है कि नमाज़े शब नूर है तो उस को कभी तर्क नही किया हत्ता कि जंगे सिफ़्फ़ीन में लैलतुल हरीर में भी उसे तर्र नही किया। (16)
नमाज़े जुमा की अहमियत
नमाज़े जुमा के बारे में भी इमाम अलैहिस सलाम ने नहजुल बलाग़ा में बहुत ताकीद फ़रमाई है:
पहली हदीस
जुमे के दिन सफ़र न करो और नमाज़े जुमा शिरकत करो मगर यह कि कोई मजबूरी हो। (17)
दूसरी हदीस
इमाम अली अलैहिस सलामा जुमे के ऐहतेराम में नंगे पांव चल कर नमाज़े जुमा में शरीक होते थे और जुते हाथ में ले लेते थे। (18)
हवाले
- मफ़ातीहुल जेनान, मुनाजाते शाबानियां, शेख़ अब्बास क़ुम्मी
- सूर ए नहल आयत 75
- नहजुल बलाग़ा हिकमत 237
- नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 222
- नहजुल बलाग़ा ख़ुतब 45
- नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 222
- नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 199
- नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 199
- सूर ए निसा आयत 103
- दआयमुल इस्लाम जिल्द 2 पेज 351
- नहजुल बलाग़ा ख़त 47
- नहजुल बलाग़ा ख़त 27
- शेख सदूक़, अल ख़ेसाल पेज 621
- नहजुल बलाग़ा ख़त 27
- क़ुतबुद्दीन रावन्दा, अद दअवात पेज 76
- बिहारुल अनवार जिल्द 4
- नहजुल बलाग़ा ख़त 69
- दआयमुल इस्लाम जिल्द 1 पेज 182
ख़ुशी क्या है
हमारे जन्म के पहले दिन ही ईश्वर अपनी तत्वदर्शिता द्वारा हमसे कहता है कि जीवन मधुर है और हमें अपने जीवन काल में यह सीखने का प्रयास करना चाहिए कि उचित मार्ग कौन से हैं ताकि उसपर चलकर हम मधुर जीवन व्यतीत कर सकें। यदि हमारा मनोबल सुदृढ़ होगा और हम प्रसन्नचित रहें गे तो ईश्वर के इस वरदान द्वारा हम अपनी ख़ुशियों में दूसरों को भी भागीदार बना सकते हैं। परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शन्ति एवं प्रसन्नता की भावना उत्पन्न करने के लिए आन्तरिक अभ्यास की आवश्यकता है। ख़ुश और प्रसन्नचित रहना संभव है एक अल्प अवधि के लिए हमें ख़ुश करे हंसा दे परन्तु आन्तरिक अभ्यास के बिना यह बड़ी जल्दी ही हमारी आत्मिक परेशानी एवं उदासीनता का कारण बन जाता है।
जीवन में संभव है घर, गाड़ी या आधुनिक घरेलू उपकरण इत्यादि ख़रीदने पर हमें ख़ुशी हो परन्तु उल्लेखनीय है कि वास्तविक प्रसन्नता के लिए इन चीज़ों की आवश्यकता नहीं है। हमें ईश्वरिय वरदानों तथा विभूतियों को प्राप्त करके अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए। दूसरों से प्रेम करना ,रिश्तेदारों से मिलना - जुलना, अपने परिवार और साथियों का सम्मान और नैतिक मूल्यों का पालन जीवन में वास्तविक प्रसन्नता का कारण बनता है। यहां पर हम मधुर जीवन व्यतीत करने की कुछ पद्धीतयों पर प्रकाश डाल रहे हैं।
हमें परिस्थितियों पर दृष्टि रखनी चाहिए। जैसे घर पर अपने परिवार वालों के साथ भोजन करते समय हमें अपने कल की परिक्षा की चिन्ता करने के स्थान पर अपने परिवार के सदस्यों के बारे में सोचना चाहिए, उनसे बात करनी चाहिए। जब हम किसी रोचक घटना को याद करके हंसते हैं तो प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले हांरमोनों की संख्या में वृद्धि हो जाती है और तनाव उत्पन्न करने वाले हांरमोन कम हो हाते हैं।
वर्तमान समय में अधिकांश लोग पूरी नींद नहीं सो पाते। हमें अपने सोने का समय निर्धारित करना चाहिए। जो कार्य हमें पसन्द नहीं या उसमें रुचि नहीं है उन्हें अपनी गतिविधियों से निकाल देना ही उचित है। जो कार्य करने हैं उनकी सूची बनाएं। इनमें से जो जो कार्य कर चुके हैं उनपर निशान लगा दें। इससे मनुष्य को शान्ति का आभास होता है। एक समय में एक ही काम करें। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जिन लोगों के कई व्यवसाय होते हैं उनको उच्च रक्त चाप का अधिक ख़तरा रहता है। यह याद रखिए कि टेलिफ़ोन पर बात करने के साथ साथ खाना बनाने या सफ़ाई करने से कहीं बेहतर यह है कि आप आराम से एक कुर्सी पर बैठ कर टेलिफ़ोन पर बात करें।
अपने बगीचे में रुचि लीजीए। इससे ताज़ी हवा मिलने और शरीरिक सक्रियता के अतिरिक्त तनाव कम होगा और आप प्रसन्नचित होंगे। अपने हाथ से लगाए हुए पौधों को फूलते फलते देख कर कौन है जिसका मन फूला नहीं समाए गा नए अनुसंधानों से पता लगा है कि सुगंध मनुष्य में तनाव को कम करती है फूलों के बगीचे में टहलने से मनुष्य को अपूर्व शन्ति का आभास होता है। आज के इस शोरशराबे के जीवन में पुस्तकालय, संग्रहालय, बाग़ या धार्मिक स्थल शान्त स्थान समझे जाते हैं। शान्ति प्राप्त करने के लिए इनमें से किसी का भी चयन किया जा सकता है।
दूसरों की सहायता करना, मनुष्य में सहायता की भावना उत्पन्न करने के अतिरिक्त हमारे भीतर यह भावना भी उत्पन्न करता है कि हम अपनी समस्याओं को महत्वहीन समझें। प्रसन्नचित लोग दूसरों की सहायता के लिए अधिक तत्पर रहते हैं और दूसरों की सहायता के लिए तत्पर रहने वाले अधिक प्रसन्नचित रहते हैं। नि:सन्देह किसी की सहायता करके जो आनन्द प्राप्त होता है उसको वार्णित नहीं किया जा सकता है।
आप अवश्य ही जानते होंगे कि तनाव को दूर करने के लिए व्यायाम हर दवा से बेहतर है। आप अकेले टहलकर अपने बारे में सोच कर लाभ उठा सकते हैं। धीरे धीरे पैदल चलने से हत्दय की गति सुचारु रुप से चलती है, रक्त चाप नियंत्रित रहता है। अपने निकट संबंधियों के साथ अपने संबंधों को महत्व देना चाहिए।
विभिन्न आयु के १,३०० पुरुष एवं महिलाओं पर अनुसंधान द्वारा पता चला है कि जिन लोगों के घनिष्ठ मित्रों की संख्या अधिक है उनमें रक्त चाप, रक्त की चर्बी, शरकरा तथा तनाव के हारमोन अपनी उचित सीमा में होते हैं। इसके विपरित अकेले रहने वाले या जिनके मित्र कम हैं ऐसे लोगों में समय से पूर्व मृत्यु का ख़तरा अधिक रहता है।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जिन लोगों में मज़बूत धार्मिक आस्था है वे अधिक प्रसन्नचित होते हैं। ऐसे लोग कठिनाइयों का सामना करने में अधिक सक्षम होते हैं। ईश्वर पर आस्था द्वारा मनुष्य अपने जीवन का अर्थ समझ लेता है। यहां तक कि यदि मनुष्य को धर्म पर अधिक विश्वास न भी हो परन्तु आध्यात्मवाद में उसकी रुचि हो, फिर भी सकारात्मक विचारों द्वारा वो अपना जीवन मधुर बना सकता है।
अन्त में हम यह कहें गे कि हमारे पास जो ईश्वरीय विभूतियां हैं यदि हम उनकी गणना करें तो हम देखें गे कि वो कृपालु तथा दयालु ईश्वर हमसे कितना प्रेम करता है। हमारा स्वास्थय, हमारे मित्र, हमारा परिवार, हमारी स्वतन्त्रता और शिक्षा इत्यादि हर चीज़ उसी की प्रदान की हुई विमूति है। जो लोग इन विभूतियों को दृष्टिगत रखते हुए ईश्वर का आभार व्यक्त करते हैं, वे अपने जीवन में सुखी रहते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर पर पूरा भरोसा रहता है।
और इस प्रकार मनुष्य अपने जीवन की हर सफलता तथा विफलता को ईश्वर की इच्छा समझ कर स्वीकार कर लेता है और इस प्रकार मनुष्य का जीवन मधुर हो जाता है।