رضوی
रफ़ा में इज़राइल के प्लान के बारे में इस्लामी देशो ने चेतावनी दी
कतर, मिस्र देश के अलावा और छह मुस्लिम देशो ने इज़राइल के रफ़ा बॉर्डर को एकतरफ़ा खोलने के कदम की कड़ी निंदा की, जिससे सिर्फ़ फ़िलिस्तीनी लोग निकल सकते हैं और मानवीय मदद, खाना और पानी अंदर नहीं आ सकता।
इज़राइल को यह चेतावनी तब दी गई है जब ग़ज़्ज़ा के लोगों के खिलाफ़ इज़राइल का नरसंहारी युद्ध बिना रुके जारी है और उसने पिछले हफ़्ते लगभग 600 बार सीज़फ़ायर तोड़ा है।
मिस्र, इंडोनेशिया, जॉर्डन, पाकिस्तान, कतर, सऊदी अरब, तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्रियों ने शुक्रवार को राष्ट्रपतियों के साथ एक जॉइंट स्टेटमेंट जारी किया, जिसमें इज़राइली सेना की हाल की घोषणा के बारे में बताया गया है कि आने वाले दिनों में रफा बॉर्डर ग को फिर से खोला जाएगा ताकि ग़ज़्ज़ा पट्टी के निवासियों को मिस्र जाने दिया जा सके।
शनिवार को दोहा में एक मीटिंग हुई, जो असल में एक डिप्लोमैटिक कॉन्फ्रेंस थी। कतर के प्राइम मिनिस्टर शेख मोहम्मद बिन अब्दुलरहमान अल सानी, जो मीटिंग के असली मेंबर्स में से एक थे, ने ग़ज़्ज़ा में दो महीने के सीज़फायर पर चर्चा की और मौजूदा हालात को "सेंसिटिव पल" कहा।
और उन्होंने कहा: "हम अभी भी इसे बेस पर नहीं रख सकते।" जब इजरायली सेना पूरी तरह से हट जाएगी और ग़ज़्ज़ा में स्टेबिलिटी बनी रहेगी, तब ट्रूस पर सहमति बनेगी।
यूनाइटेड नेशंस की जनरल असेंबली में, अरब देशों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि यूनाइटेड स्टेट्स फ़िलिस्तीनी ऑटोनॉमी के लिए पेश किए गए रास्ते के बारे में और जानकारी दे और वोट से पहले इसे और समझाए, और इसी मुद्दे की वजह से इजरायल की इस कदम को रोकने की कोशिशें फेल हो गईं।
साथ ही, शर्क खान यूनिस और रफा में जिन इलाकों में इजरायली सेना अभी तैनात है, वहां भारी टैंकों और फाइटर्स से शेलिंग और फायर करने की रिक्वेस्ट की गई हैं।
अक्टूबर 2023 से ग़ज़्ज़ा के लोगों के खिलाफ इज़राइल के युद्ध और नरसंहार में 70,125 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी मारे गए हैं और 17,015 लोग घायल, अपाहिज और घायल हुए हैं।
हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. एक बहादुर और पवित्र खानदान की खातून थी
हज़रत इमाम अली अ.स. की शरीके हयात हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. की शहादत को लगभग 15 साल का समय गुज़र चुका था, इमाम अली अ.स. ने अपने भाई अक़ील को जो ख़ानदान और नस्लों की अच्छी पहचान रखते थे अपने पास बुला कर उनसे फ़रमाया कि एक बहादुर ख़ानदान से एक ऐसी ख़ातून तलाश करें जिस से बहादुर बच्चे पैदा हों
हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. इतिहास की उन महान हस्तियों में से हैं जिनके चार बेटों ने कर्बला में इस्लाम पर अपनी जान क़ुर्बान की, उम्मुल बनीन यानी बेटों की मां, आपके चार बहादुर बेटे हज़रत अब्बास अ.स. जाफ़र, अब्दुल्लाह और उस्मान थे जो कर्बला में इमाम हुसैन अ.स. की मदद करते हुए कर्बला में शहीद हो गए।
जैसाकि आप जानते होंगे कि हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. का नाम फ़ातिमा कलाबिया था लेकिन आप उम्मुल बनीन के नाम से मशहूर थीं, पैग़म्बर स.अ. की लाडली बेटी, इमाम अली अ.स. की शरीके हयात हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. की शहादत को लगभग 15 साल का समय गुज़र चुका था,
इमाम अली अ.स. ने अपने भाई अक़ील को जो ख़ानदान और नस्लों की अच्छी पहचान रखते थे अपने पास बुला कर उनसे फ़रमाया कि एक बहादुर ख़ानदान से एक ऐसी ख़ातून तलाश करें जिस से बहादुर बच्चे पैदा हों, हज़रत अली अ.स. जानते थे कि सन् 61 हिजरी जैसे संवेदनशील और घुटन वाले दौर में इस्लाम को बाक़ी रखने और पैग़म्बर स.अ. की शरीयत को ज़िंदा करने के लिए बहुत ज़्यादा क़ुर्बानी देनी होगी ख़ास कर इमाम अली अ.स. इस बात को भी जानते थे कि कर्बला का माजरा पेश आने वाला है इसलिए ज़रूरत थी ऐसे मौक़े के लिए एक बहादुर और जांबाज़ बेटे की जो कर्बला में इमाम हुसैन अ.स. की मदद कर सके।
जनाब अक़ील ने हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. के बारे में बताया कि पूरे अरब में उनके बाप दादा से ज़्यादा बहादुर कोई और नहीं था, इमाम अली अ.स. ने इस मशविरे को क़ुबूल कर लिया और जनाब अक़ील को रिश्ता ले कर उम्मुल बनीन के वालिद के पास भेजा उनके वालिद इस मुबारक रिश्ते से बहुत ख़ुश हुए और तुरंत अपनी बेटी के पास गए ताकि इस रिश्ते के बारे में उनकी मर्ज़ी का पता कर सकें, हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. ने इस रिश्ते को अपने लिए सर बुलंदी और इफ़्तेख़ार समझते हुए क़ुबूल कर लिया और फिर इस तरह हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. की शादी इमाम अली अ.स. के साथ हो गई।
हज़रत उम्मुल बनीन एक बहादुर, मज़बूत ईमान वाली, ईसार और फ़िदाकारी का बेहतरीन सबूत देने वाली ख़ातून थीं, आपकी औलादें भी बहुत बहादुर थीं लेकिन उनके बीच हज़रत अब्बास अ.स. को एक ख़ास मक़ाम और मर्तबा हासिल था।
हज़रत उम्मुल बनीन अ.स., बनी उमय्या के ज़ालिम और पापी हाकिमों के ज़ुल्म जिन्होंने इमाम हुसैन अ.स. और उनके वफ़ादार साथियों को शहीद किया था उनकी निंदा करते हुए सारे मदीने वालों के सामने बयान करती थीं ताकि बनी उमय्या का असली चेहरा लोगों के सामने आ सके, और इसी तरह मजलिस बरपा करती थीं ताकि कर्बला के शहीदों का ज़िक्र हमेशा ज़िंदा रहे, और उन मजलिसों में अहलेबैत अ.स. के घराने की ख़्वातीन शामिल हो कर आंसू बहाती थीं, आप अपनी तक़रीरों अपने मरसियों और अशआर द्वारा कर्बला की मज़लूमियत को सारी दुनिया के लोगों तक पहुंचाना चाहती थीं।
आपकी वफ़ादारी और आपकी नज़र में इमामत व विलायत का इतना सम्मान था कि आपने अपने शौहर यानी इमाम अली अ.स. की शहादत के बाद जवान होने के बावजूद अपनी ज़िंदगी के अंत तक इमामत व विलायत का सम्मान करते हुए दूसरी शादी नहीं की, और इमाम अली अ.स. की शहादत के बाद लगभग 20 साल से ज़्यादा समय तक ज़िंदगी गुज़ारी लेकिन शादी नहीं की, इसी तरह जब इमाम अली अ.स. की एक बीवी हज़रत अमामा के बारे में एक मशहूर अरबी मुग़ैरह बिन नौफ़िल से रिश्ते की बात हुई तो इस बारे में हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. से सलाह मशविरा किया गया तो उन्होंने फ़रमाया, इमाम अली अ.स. के बाद मुनासिब नहीं है कि हम किसी और मर्द के घर जा कर उसके साथ शादी शुदा ज़िंदगी गुज़ारें....।
हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. की इस बात ने केवल हज़रत अमामा ही को प्रभावित नहीं किया बल्कि लैलै, तमीमिया और असमा बिन्ते उमैस को भी प्रभावित किया, और इमाम अली अ.स. की इन चारों बीवियों ने पूरे जीवन इमाम अली अ.स. की शहादत के बाद शादी नहीं की।
हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. की वफ़ात
हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. की वफ़ात के बारे में कई रिवायत हैं, कुछ में सन् 70 हिजरी बयान किया गया है और कुछ दूसरी रिवायतों में 13 जमादिस-सानी सन् 64 हिजरी बताया गया है, दूसरी रिवायत ज़्यादा मशहूर है।
जब आपकी ज़िंदगी की आख़िरी रात चल रहीं थीं तो घर की ख़ादिमा ने उस पाकीज़ा ख़ातून से कहा कि मुझे किसी एक बेहतरीन जुमले की तालीम दीजिए, उम्मुल बनीन ने मुस्कुरा कर फ़रमाया, अस्सलामो अलैका या अबा अब्दिल्लाह अल-हुसैन।
इसके बाद फ़िज़्ज़ा ने देख कि हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. का आख़िरी समय आ पहुंचा, जल्दी से जा सकर इमाम अली अ.स. और इमाम हुसैन अ.स. की औलादों को बुला लाईं, और फिर कुछ ही देर में पूरे मदीने में अम्मा की आवाज़ गूंज उठी।
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. के बेटे और नवासे उम्मुल बनीन अ.स. को मां कह कर बुलाते थे, और आप उन्हें मना भी नहीं करती थीं, शायद अब उनमें यह कहने की हिम्मत नहीं रह गई थी कि मैं हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. की कनीज़ हूं।
आपकी वफ़ात के बाद आपको पैग़म्बर स.अ. की दो फुफियों हज़रत आतिका और हज़रत सफ़िया के पास, इमाम हसन अ.स. और हज़रत फ़ातिमा बिन्ते असद अ.स. की क़ब्रों के क़रीब में दफ़्न कर दिया गया।
क्या जनाबे फिज़्ज़ा सबसे पहले जन्नत जाएंगी?
यह सवाल देखने में छोटा लगता है, लेकिन असल में यह एक बड़ी फ़िक्री गलती और भटकाव की ओर इशारा करता है। समस्या सिर्फ़ उस मिम्बरी अफ़साने में सबूतों की कमी नहीं है, बल्कि वह सोच भी है जिसने अहले-बैत (अलैहेमुस्सलाम) की ज़िंदगी को वही जागीरदाराना रंग देने की कोशिश की है जो आज हमारे भ्रष्ट समाज में पाया जाता है। क्या यह सच में मुमकिन है कि बीबी फातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) सवारी पर बैठें और जनाबे फ़िज़्ज़ा ऊँट की मेहार पकड़े खड़ी रहें—जैसे कि वह एक दाएमी ख़ादेमा हों?
यह सवाल देखने में छोटा लगता है, लेकिन असल में यह एक बड़ी फ़िक्री गलती और भटकाव की ओर इशारा करता है। समस्या सिर्फ़ उस मिम्बरी अफ़साने में सबूतों की कमी नहीं है, बल्कि वह सोच भी है जिसने अहले-बैत (अलैहेमुस्सलाम) की ज़िंदगी को वही जागीरदाराना रंग देने की कोशिश की है जो आज हमारे भ्रष्ट समाज में पाया जाता है। क्या यह सच में मुमकिन है कि बीबी फातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) सवारी पर बैठें और जनाबे फ़िज़्ज़ा ऊँट की मेहार पकड़े खड़ी रहें—जैसे कि वह एक दाएमी ख़ादेमा?
यह सीन अपने आप में एक बुरा कल्चरल और क्लास का फ़र्क दिखाता है, और अहले -बैत (अलैहेमुस्सलाम) की ज़िंदगी इससे पूरी तरह आज़ाद है।
इस्लाम ने सबसे पहले मालिक और गुलाम के बीच की दीवार को तोड़ा। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) ने हुक्म दिया:
إِخْوَانُكُمْ خَوَلُكُمْ
ये (गुलाम) तुम्हारे भाई हैं।
और पवित्र कुरान ने इंसानों के बीच बेहतरी का पैमाना इस तरह बताया है:
إِنَّ أَكْرَمَكُمْ عِندَ اللَّهِ أَتْقَاكُمْ
बेशक, अल्लाह की नज़र में तुममें सबसे ज़्यादा इज्ज़तदार वही है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार हो। (अल-हुजुरात: 13)
अहले-बैत (अलैहेमुस्सलाम) का घर इस कुरान और इस नबी की ट्रेनिंग का पहला रूप था। वहाँ नौकर-मालिक का कोई सिस्टम नहीं था, न ही नौकरानी-मालकिन का कोई बँटवारा था। चाहे वह जनाबे फ़िज़्ज़ा हों या क़नबर, ये लोग न तो “नौकर” थे और न ही वे आज हमारे घरों में काम करने वाले कर्मचारियों की तरह “नीचे दर्जे” के थे। वे सभी इज्जतदार, प्यारे, साथी और अहले-बैत (अलैहेमुस्सलाम) के रोशन माहौल के रहने वाले थे। ऐसे कई लोगों को इमाम अली (अलैहिस्सलाम) और सय्यदा (सला मुल्ला अलैहा) ने आज़ाद कर दिया था, लेकिन उन्होंने प्यार की वजह से वहीं रहना पसंद किया।
अगर कोई हज़रत फातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) के दरवाज़े पर जाता, तो वह वहाँ सेवाओं का बँटवारा देखता, अधिकारों का नहीं। इतिहास और हदीस में मिलता है कि जनाबे ज़हरा खुद जनाबे फ़िज़्ज़ा के साथ बारी-बारी से काम करती थीं।
सय्यदतुल निसाइल आलामीन (स) के बारे में बताया गया है:
كانتْ فاطمةُ تَطحنُ بالرَّحى حتى مجلت يداها
फातिमा (अ) चक्की तब तक पीसती थीं जब तक उनके हाथों में छाले नहीं पड़ गए।
(अल-मनाकिब, इब्न शहर आशोब, भाग 3, पेज 119)
जब घर पर बहुत काम होता था, तो सय्यदा (सला मुल्ला अलैहा) सलाह देती थीं कि जनाबे फ़िज़्ज़ा को बारी-बारी से काम करना चाहिए। यह अहले-बैत (अलैहेमुस्सलाम) की प्रैक्टिकल शिक्षा है, न कि वह विचार जिसे आजकल कुछ पढ़ने वालों ने बनाया और फैलाया है।
फिर यह कहना कि जनाबे फ़िज़्ज़ा हमेशा बीबी (सला मुल्ला अलैहा) के पीछे एक खादेमा की तरह खड़ी रहती थीं—यह बस हमारी क्लास की सोच की उपज है, अहले-बैत (अलैहेमुस्सलाम) की शिक्षा का हिस्सा नहीं है। इसीलिए मौला ए काएनात (अलैहिस्सलाम) कहते हैं:
النَّاسُ صِنْفَانِ: إِمَّا أَخٌ لَكَ فِي الدِّينِ أَوْ نَظِيرٌ لَكَ فِي الْخَلْقِ
लोग दो तरह के होते हैं: या तो आपके मज़हब के भाई या आपके जैसा कोई इंसान। (नहजुल बालागा, खुत्बा 53)
अगर दुनिया इन उसूलों के हिसाब से चलती, तो क्या जन्नत में भी यही क्लास सिस्टम चलता रहता—जो पूरे इंसाफ़, दरियादिली और अच्छे नैतिक मूल्यों की जगह है?
बिल्कुल नहीं।
अब, रिवायत को देखें,
किसी भी शिया या सुन्नी हदीस सोर्स में ऐसी कोई असली, कमज़ोर, फैलाई हुई या भरोसे लायक रिवायत नहीं है कि जनाबे फ़िज़्ज़ा बीबी ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) से पहले जन्नत जाएँगी क्योंकि उनके पास ऊँटनी की मेहार होगी।
अकीदे के लिहाज से, यह जानना चाहिए कि:
जन्नत में जाना ओहदे और इज़्ज़त की बात है, सेवा या गुलामी की नहीं। यह बताया गया है कि:
اَنَّ النَّبِيَّ صلى الله عليه وآله هُوَ أَوَّلُ مَنْ يَدْخُلُ الْجَنَّةَ पैगंबर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) सबसे पहले जन्नत में दाखिल होंगे। (कमालुद्दीन व तमामुन नेमा, शेख सदूक, भाग 1, पेज 258)
और बीबी फातिमा (सला मुल्ला अलैहा) के बारे में, उन्होंने कहा:
فَاطِمَةُ سَيِّدَةُ نِسَاءِ أَهْلِ الْجَنَّةِ फातिमा जन्नत के लोगों की औरतों की सरदार हैं। (सहीह बुखारी और मुस्लिम)
तो जहां अहले बैत (अलैहेमुस्सलाम) का दर्जा पवित्र पैगंबर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) के बाद तय किए गए हैं, यह कहना कि “फिज़्ज़ा पहले जाएंगे” क्रम के पूरी तरह खिलाफ है।
सीरा को समझने के मामले में:
गुलामी का कॉन्सेप्ट मासूमीन (अलैहेमुस्सलाम) के स्वभाव में मौजूद नहीं है। फिर, जन्नत में एक “ऊँटनी” और उसके “मेहार” के आधार पर नेकियों का एक बेबुनियाद सिस्टम बनाना—इसका न तो कोई थ्योरी वाला कारण है और न ही हदीस का आधार।
इसीलिए यह कहना कि: “जनाबे फ़िज्ज़ा सबसे पहले जन्नत जाएंगे क्योंकि उनके हाथ में एक ऊँटनी की मेहार होगा।”
यह न सिर्फ बेबुनियाद है, बल्कि अहले बैत (अलैहेमुस्सलाम) की शिक्षाओं की भावना के भी खिलाफ है। जनाबे फ़िज़्ज़ा की अज़मत उनके ईमान, तक़वा, सब्र और कुरान से जान-पहचान में है—जिन्होंने पवित्र कुरान को सत्तर भाषाओं में सुनाया। यह उनका मकाम है, कोई मिंबर का अफसाना नहीं। यह ज़रूरी है कि जो लोग मिंबर पर झूठी रिवायतें और मनगढ़ंत रिवायते सुनाते हैं, उन्हें वहीं रोका जाए और सही तरीके से सुधारा जाए। शायद इस तरह इस गलत बर्ताव को कुछ हद तक कंट्रोल किया जा सके। नहीं तो, ये लापरवाह ज़बानें हमारे धर्म की सच्चाई और हमारे ईमान की पवित्रता को कमज़ोर करती रहेंगी।
लेखक: मौलाना सय्यद करामत हुसैन शऊर जाफ़री
अल्लाह से इंसान की पहली गुज़ारिश
अल्लाह की रहमते वासेआ पाने का एकमात्र तरीका है खुद पर और दूसरों पर रहम करना, क्योंकि ज़ुल्म - चाहे वह खुद पर हो या दूसरों पर - इंसान को उस बड़ी और सबको शामिल करने वाली अल्लाह की रहमत से मीलों दूर रखता है!
आदम और हव्वा (अलैहेमस्सलाम) ने अल्लाह तआला से इस तरह कहा:
قَالَا رَبَّنَا ظَلَمْنَا أَنْفُسَنَا وَإِنْ لَمْ تَغْفِرْ لَنَا وَتَرْحَمْنَا لَنَکُونَنَّ مِنَ الْخَاسِرِینَ क़ाला रब्बना ज़लम्ना अंफ़ोसना व इन लम तग़फ़िर लना व तरहम्ना लानकूनन्ना मेनल ख़ासेरीन
उन्होंने कहा, “परवरदिगारा! हमने अपने साथ ज़ुल्म किया है, और अगर तू हमें माफ़ नहीं करेंगा और हम पर रहम नहीं करेंगा, तो हम ज़रूर घाटे में रहेंगे।”(अल-आराफ़: 23)
व्याख्या:
यह आयत ज़मीन पर इंसान की पहली गुज़ारिश है; जागरूकता और मारफ़त की गुज़ारिश।
यह आयत इंसान की अपने रब से बातचीत की शुरुआत है; तौबा और वापसी का ऐलान जो इंसान को खुदा की रहमत की रोशनी में रहने का तोहफ़ा देती है।
शैतान के उलट - गलती करने के बाद - आदम और हव्वा, अलैहेमस्सलाम, ने खुद को सही नहीं ठहराया या निराश नहीं हुए, बल्कि कहा:
"परवरदिगारा! हमने अपने साथ ज़ुल्म किया है, और अगर तू हमें माफ़ नहीं करेंगा और हम पर रहम नहीं करेंगा, तो हम ज़रूर घाटे में रहेंगे।"
यह सच्चे दिल से कबूल करना इंसान की खुशी की शुरुआत है।
कुरआन और हदीसों में, खुदा की रहमत को इंसान और खुदा के बीच के रिश्ते की धुरी माना गया है। पवित्र कुरान में, अल्लाह तआला अपने बंदों से प्यार भरे लहजे में बात करता हैं:
قُلْ یَا عِبَادِیَ الَّذِینَ أَسْرَفُوا عَلَی أَنْفُسِهِمْ لَا تَقْنَطُوا مِنْ رَحْمَةِ اللَّهِ إِنَّ اللَّهَ یَغْفِرُ الذُّنُوبَ جَمِیعًا إِنَّهُ هُوَ الْغَفُورُ الرَّحِیمُ क़ुल या ऐबादियल्लज़ीना असरफ़ू अला अंफ़ोसेहिम ला तक़नतू मिन रहमतिल्लाहे इन्नल्लाहा यग़फ़ेरुज़्ज़ोनूबा जमीअन इन्नहू होवल ग़फ़ूरुर रहीम
कहो: "ऐ मेरे बंदों, जिन्होंने खुद पर ज़ुल्म किया है! अल्लाह की रहमत से निराश न हो, क्योंकि अल्लाह सारे गुनाह माफ कर देता है, क्योंकि वह बहुत माफ करने वाला और रहम करने वाला है।" (ज़ुमर, 53)
जिस बात पर ध्यान देने और चेतावनी देने की ज़रूरत है, वह यह है कि यह अल्लाह की रहमत इतनी बड़ी और सबको शामिल करने वाली है कि अगर इसके बावजूद कोई भटक जाए और उसका रास्ता दुख और तबाही में खत्म हो जाए, तो यह बहुत हैरानी की बात होगी।
एक दिन, इमाम सज्जाद (अलैहिस्सलाम) ने हसन बसरी को यह कहते सुना:
لَیسَ العَجَبُ مِمَّن هَلَک کیفَ هَلَکَ، و إنّما العَجَبُ مِمَّن نَجا کیفَ نَجا लैसल अज्बो मिम्मन हलका कैफ़ा हलका, व इन्नमल अज्बो मिम्मन नजा कैफ़ा नजा
अगर कोई मरता है, तो इसमें कोई हैरानी नहीं कि वह क्यों मरा, लेकिन अगर कोई बच जाता है, तो इसमें कोई हैरानी नहीं कि वह कैसे बचा।
इमाम (अलैहिस्सलाम) ने फ़रमाया: लेकिन मैं कहता हूँ:
لَیسَ العَجَبُ مِمَّن نَجا کیفَ نَجا، و أمّا العَجَبُ مِمَّن هَلَکَ کیفَ هَلَکَ مَع سَعَةِ رَحمَةِ اللّهِ؟! लैसल अज्बो मिम्मन नजा कैफ़ा नजा, व अम्मल अज्बो मिम्मन हलाका कैफ़ा हलाका माआ सअते रहमतिल्लाहे ?
“जो लोग बच जाते हैं, उनके लिए हैरानी की बात यह नहीं है कि वे कैसे बच जाते हैं, बल्कि जो लोग बर्बाद हो जाते हैं, उनके लिए हैरानी की बात यह है कि वे कैसे बर्बाद हो जाते हैं, जबकि अल्लाह की रहमत बहुत बड़ी है!” (बिहार उल-अनवार, भाग 75, पेज 153)
और हाँ, इस बड़ी रहमत को पाने का रास्ता खुद पर और दूसरों पर रहम के अलावा और कुछ नहीं है; क्योंकि ज़ुल्म – चाहे वह खुद पर ज़ुल्म हो या दूसरों पर ज़ुल्म – इंसान को उस बड़ी और सबको शामिल करने वाली रहमत से मीलों दूर कर देता है! इसीलिए अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम ने एक आदमी के जवाब में, जिसने कहा, “मैं चाहता हूँ कि मेरा रब मुझ पर रहम करें,” फ़रमाया:
اِرحَمْ نَفسَکَ، و ارحَمْ خَلقَ اللّهِ یَرحَمْکَ اللّهُ इरहम नफ़सका, व इरहम खलक़ल्लाहे यरहमकल्लाहो
“खुद पर रहम करो और अल्लाह की बनाई हुई चीज़ों पर रहम करो, और अल्लाह तुम पर रहम करेगा।” (कंजुल उम्माल, भाग 16, पेज 128)
खिदमत ए ख़ल्क उलेमा का बुनियादी फ़रीज़ा हैः आयतुल्लाह हाशिमी अलिया
तेहरान में आयोजित मदरसा ए इल्मिया हज़रत क़ाएम अ.ज.चीज़र के पूर्व छात्रों की सातवीं वार्षिक सभा को संबोधित करते हुए आयतुल्लाह हाशेमी अलिया ने कहा कि धर्मगुरुओं का मुख्य उद्देश्य ईश्वर की सृष्टि की सेवा करना है और इमामों (अ.स.) की शिक्षाओं के अनुसार जनता की समस्याओं का समाधान करना धर्मगुरुओं की सबसे पहली ज़िम्मेदारी है।
तेहरान में आयोजित मदरसा ए इल्मिया हज़रत क़ाएम (अ.ज.) चीज़र के पूर्व छात्रों की सातवीं वार्षिक सभा को संबोधित करते हुए आयतुल्लाह हाशेमी अलिया ने कहा कि विद्वानों का मुख्य उद्देश्य ईश्वर की सृष्टि की सेवा करना है और इमामों (अ.स.) की शिक्षाओं के अनुसार जनता की समस्याओं का समाधान करना धर्मगुरुओं की पहली जिम्मेदारी है।
उन्होंने कहा कि केवल पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) और अहलेबैत (अ.स.) से प्रेम शिया होने के लिए पर्याप्त नहीं है, बल्कि वास्तविक शिया होने के लिए अल्लाह-भय, विनम्रता, आज्ञाकारिता, सच्चाई, अल्लाह का स्मरण, नमाज़ और रोज़े का पालन, कर्ज-ए-हसना और पड़ोसियों के अधिकारों का निर्वहन आवश्यक है।
आयतुल्लाह हाशमी अलिया ने धार्मिक विज्ञान के छात्रों को सलाह देते हुए कहा कि इमाम मेंहदी (अ.ज.) की विद्वानों से यही इच्छा है कि वे जनता के दुख-दर्द में साझीदार हों और उनकी कठिनाइयों को दूर करने में भूमिका निभाएं। उन्होंने कहा कि शैक्षिक और नैतिक सभाओं को भलाई और सामाजिक सेवा के लिए इस्तेमाल किया जाए।
उन्होंने आगे कहा कि यदि एक पल के लिए भी इंसान पर ईश्वर की कृपा रुक जाए तो इंसान नष्ट हो जाता है, इसलिए जरूरी है कि विद्वान लोग नफिल नमाज़ों और तहज्जुद की नमाज़ के माध्यम से एक व्यावहारिक उदाहरण बनें।
इस अवसर पर हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लिमीन सैयद मज़ार हुसैनी ने कहा कि धर्म का प्रचार, शोध और शिक्षण, छात्रों की शिक्षा-दीक्षा, जुमा और जमाअत की इमामत और विभिन्न राष्ट्रीय जिम्मेदारियाँ विद्वानों की महत्वपूर्ण सेवाओं में शामिल हैं।
उन्होंने कहा कि उलेमा का वस्त्र स्वयं एक मौन प्रचार है जो लोगों को पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) और अहलेबैत (अ.स.) की याद दिलाता है।
अंत में बताया गया कि मदरसा ए इल्मिया हज़रत क़ाएम (अ.ज.) की स्थापना 1346 (ईरानी कैलेंडर) में की गई थी और कई शहीद और प्रख्यात विद्वान इसी संस्था के स्नातक थे।
गज़्ज़ा में इसराइली हमले में पांच फिलिस्तीनी नागरिक शहीद
शनिवार को इज़रायली शासन ने गाज़ा शहर में एक कार पर हमला किया, जिसके परिणामस्वरूप 5 फिलिस्तीनी नागरिक शहीद हो गए।
स्थानीय समयानुसार शनिवार की दोपहर को, इज़रायली सेना ने गाजा शहर में एक कार पर हमला किया, जिसमें 5 फिलिस्तीनी नागरिक शहीद हो गए।
इज़रायल के चैनल 12 ने दावा किया कि गाजा शहर में इस कार्रवाई का लक्ष्य अल-हदीदी था, जो हमास के सैन्य विंग अल-क़स्साम ब्रिगेड के एक वरिष्ठ आपूर्ति प्रबंधक थे।
इज़रायली आधिकारिक मीडिया: गाजा पर हमला अमेरिका के समन्वय से किया गया था
इज़रायली आधिकारिक मीडिया ने घोषणा की कि गाजा शहर के केंद्र पर हालिया हमला किरयत गट में अमेरिका के सैन्य समन्वय केंद्र के पूर्ण समन्वय के साथ किया गया था।
ईरान में एशियन पार्लियामेंट्री असेंबली की पॉलिटिकल कमिटी की महत्वपूर्ण बैठक का आरम्भ
एशियन पार्लियामेंट्री असेंबली (ए पी ए) की पॉलिटिकल कमिटी की ज़रूरी मीटिंग मशहद, खुरासान रज़वी प्रोविंस में शुरू हो गई है; जिसमें पूरे एशिया के 15 देशों के पार्लियामेंट्री रिप्रेजेंटेटिव हिस्सा ले रहे हैं।
एशियन पार्लियामेंट्री असेंबली (ए पी ए) की पॉलिटिकल कमिटी की एक ज़रूरी मीटिंग मशहद, खोरासन रज़ावी प्रोविंस में शुरू हो गई है; जिसमें पूरे एशिया के 15 देशों के पार्लियामेंट्री रिप्रेजेंटेटिव हिस्सा ले रहे हैं।
इस मीटिंग में पाकिस्तान, आज़रबाइजान, बहरौन, कंबोडिया, चीन, साइप्रस, लेबनान, फ़िलिस्तीन, कतर, रूस, सऊदी अरब, ताजिकिस्तान, तुर्की, संयुक्त अरब अमीरात और उज़्बेकिस्तान के डेलीगेशन शामिल हो रहे हैं।
पॉलिटिकल कमेटी अपने एजेंडा के तहत नौ ज़रूरी प्रस्तावों का रिव्यू कर रही है, जो इस इलाके में पार्लियामेंट की भूमिका, अच्छे शासन को बढ़ावा देने, कानून का राज, एशियाई खुशहाली बढ़ाने और सरकारों और पार्लियामेंट के बीच सहयोग को मज़बूत करने से जुड़े हैं।
फ़िलिस्तीनी लोगों को सपोर्ट करने के लिए मीटिंग के दौरान एक स्पेशल सेशन भी होगा, जिसमें मौजूदा हालात और एशियाई देशों की भूमिका पर विचार किया जाएगा।
एशियन पार्लियामेंट्री असेंबली की इस मीटिंग को इस इलाके में पार्लियामेंट्री सहयोग, बातचीत को बढ़ावा देने और आम चुनौतियों के समाधान के लिए एक अहम पड़ाव बताया जा रहा है।
भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता की दो शानदार मिसालें
भारत में एक बार फिर धार्मिक सौहार्द की एक शानदार मिसाल सामने आई है, जहां जम्मू में एक हिंदू समाजसेवी ने एक मुस्लिम पत्रकार की मदद की और पीलीभीत में एक मुस्लिम युवक ने एक हिंदू ड्राइवर की जान बचाकर यह साबित कर दिया कि इंसानियत सभी धार्मिक मतभेदों से बड़ी है।
भारत में धार्मिक सौहार्द की सच्ची भावना तब दिखती है जब लोग एक-दूसरे के लिए खड़े होते हैं। हाल ही में जम्मू और उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में दो ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने यह साबित कर दिया कि इंसानियत सभी धार्मिक मतभेदों से बड़ी है।
पहली घटना: जम्मू में हिंदू समाजसेवी कुलदीप शर्मा ने एक मुस्लिम पत्रकार का हौसला बढ़ाया
जम्मू में एक समाजसेवी कुलदीप शर्मा ने आपसी भाईचारे की एक अद्भुत मिसाल पेश की। मुस्लिम पत्रकार अफराज़ अहमद डार का घर अधिकारियों ने आरोपों और विवाद के आधार पर गिरा दिया। मामला उलझा हुआ था, लेकिन कुलदीप ने झगड़े को नज़रअंदाज़ करके इंसानियत को प्राथमिकता दी।
हाल ही में, कुलदीप ने अफ़राज़ अहमद डार को एक नई ज़मीन की रजिस्ट्री सौंपी। यह नज़ारा देखकर वहाँ मौजूद लोगों की आँखें नम हो गईं। रजिस्ट्री सौंपते हुए कुलदीप ने कहा:
“यह ज़मीन नहीं है, मैं वादा करता हूँ कि हिंदू और मुसलमान एक हैं।”
दूसरी घटना: पीलीभीत में डूबते हुए हिंदू ड्राइवर की जान मुस्लिम युवक फैसल ने बचाई
उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में एक आर्टिका कार का कंट्रोल खो गया और वह गहरे तालाब में गिर गई। ड्राइवर कार में फँस गया और बेहोश हो गया, जबकि आस-पास की भीड़ चुपचाप खड़ी रही।
उस समय, मुस्लिम युवक बिना फैसलाे और बिना किसी हिचकिचाहट के तालाब में कूद गया। उसने कार की खिड़कियाँ तोड़ीं, ड्राइवर को बाहर निकाला, और बचाने के दौरान उसकी नाव भी कई बार पलटी, लेकिन वह रुका नहीं, क्योंकि उस समय धर्म नहीं, बल्कि जान ज़रूरी थी।
आखिरकार फैसल ने ड्राइवर को ज़िंदा बाहर निकाल लिया।
ध्यान देने वाली बात यह है कि कुलदीप और फैसल दोनों ने दिखाया कि इंसानियत सबसे पवित्र भावना है। इन घटनाओं ने एक बार फिर यह साफ़ कर दिया कि भारत देश की असली ताकत उसके लोगों के दिलों में बसी भावना है, जो धर्म से ऊपर उठकर उन्हें एक-दूसरे का हाथ थामने के लिए बुलाती है।
इज़राइल कभी भी क्षेत्रीय व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सकताः हमास
हमास की उच्च परिषद के सदस्य खालिद मशअल ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इज़राइल कभी भी इस क्षेत्र की क्षेत्रीय व्यवस्था का हिस्सा नहीं बनेगा और न ही उसे एक सामान्य राज्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
हमास की उच्च परिषद के सदस्य खालिद मशअल ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि इज़राइल कभी भी इस क्षेत्र की क्षेत्रीय व्यवस्था का हिस्सा नहीं बनेगा और न ही उसे एक सामान्य राज्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि इज़राइल अपनी शक्ति और आक्रामकता के बल पर पूरे क्षेत्र को अपने एजेंडे के अनुसार चलाना चाहता है, जो एक वास्तविक और गंभीर खतरा है। अब समय आ गया है कि मुस्लिम उम्माह अल-कुद्स की आज़ादी और इस्लामी व ईसाई पवित्र स्थलों की वापसी के लिए स्पष्ट और निर्णायक रुख अपनाए।
उन्होंने घोषणा की है कि हमास गाज़ा पर किसी भी प्रकार की बाहरी संरक्षण या निगरानी को स्वीकार नहीं करेगा। फिलिस्तीनी जनता स्वयं अपने भविष्य का फैसला करने का अधिकार रखती है। हालांकि गाज़ा में नरसंहार के सबसे बुरे प्रकटन कुछ हद तक रुक गए हैं, फिर भी भूख, घेराबंदी, मार्गों की बंदी, सहायता गतिविधियों में रुकावट और सामूहिक सजाएं अभी भी जारी हैं।
उन्होंने ज़ायोनी जेलों में कैद फिलिस्तीनी बंदियों और हिरासत में लिए गए लोगों की रिहाई के लिए निरंतर प्रयासों की आवश्यकता पर भी जो़र दिया।
खालिद मशअल ने कहा कि फिलिस्तीनी एकता के बिना कोई सफलता संभव नहीं है, इसीलिए गाज़ा के अंदर और बाहर सभी फिलिस्तीनी शक्तियों को राष्ट्रीय एकता की स्थापना में अपनी भूमिका निभानी होगी।
उन्होंने स्पष्ट किया कि इज़राइल के साथ हर प्रकार के संबंधों को अस्वीकार किया जाना चाहिए, क्योंकि तेल अवीव न किसी का दोस्त है, न किसी का सहायक, और न ही भविष्य में क्षेत्रीय व्यवस्था का हिस्सा बन सकता है।
अंत में खालिद मशअल ने मांग की कि इज़राइली नेतृत्व को वैश्विक स्तर पर कानूनी और राजनीतिक रूप से जवाबदेह बनाया जाए और गाज़ा, फिलिस्तीन और पूरे क्षेत्र में नरसंहार का दोषी ठहराकर उस पर मुकदमे स्थापित किए जाएं, ताकि दुनिया इस ज़ायोनी सरकार को एक अपराधी सरकार के रूप में स्वीकार करे।
इस्लामी जीवनशैली इंसान को हयाते दाईमी प्रदान करती है
हुज्जतुल इस्लाम अहमद लुक़मानी ने हज़रत मासूमा (स.ल.) के हरम में दिए गए अपने भाषण में इस्लामी जीवनशैली के महत्व पर जोर देते हुए कहा कि मानवता वह मूल गुण है जो मनुष्य को मरने के बाद भी जीवित रखती है।
हुज्जतुल-इस्लाम अहमद लुक़मानी ने अपने भाषण में स्पष्ट किया कि सिर्फ इंसान होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि ऐसा इंसान बनना आवश्यक है जो जीवन में भलाई, सेवा और नैतिक चरित्र के माध्यम से दूसरों के लिए फलदायी हो, ताकि मृत्यु के बाद भी उसका प्रभाव बना रहे।
उन्होंने शहीद कासिम सुलेमानी का उदाहरण देते हुए कहा कि वह दफन नहीं हुए बल्कि मानो धरती में बो दिए गए हैं, इसीलिए आज दुश्मन उनसे शहादत के बाद अधिक भयभीत है और उनकी तस्वीरें दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मानवता और प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में दिखाई देती हैं।
हुज्जतुल इस्लाम लुक़मानी ने इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) से जुड़ा एक वाकया सुनाया कि एक गुलाम ने एक प्यासे कुत्ते को पानी पिलाया ताकि अल्लाह उसके दिल को खुश करे, जिस पर इमाम ने उसके इस कार्य की सराहना की। इस घटना के परिणामस्वरूप गुलाम को आज़ादी मिली और उसका जीवन बदल गया।
उन्होंने पूर्वी जर्मनी के सैनिक क्रिस्टोफ ह्यूमन की घटना भी सुनाई कि उसने युद्ध के दौरान एक बच्चे को सीमा की तारों से पार कराकर उसके परिवार तक पहुँचाया, जिसके कारण उसे मौत की सज़ा सुनाई गई, लेकिन यह कार्य पूरी दुनिया में मानवता का उदाहरण बन गया।
उन्होंने पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम) के अख़लाक़ का जिक्र करते हुए बताया कि आप मुस्कुराकर मिलते थे, बच्चों को सलाम करते थे और आप सहनशीलता और धैर्य की उत्कृष्ट मिसाल थे। इसी तरह हज़रत फातिमा (सलामुल्लाह अलैहा) के सम्मान का भी उल्लेख किया और बेटी को रहमत और सुख सौभाग्य बताया।
उन्होंने इमाम हसन अलैहिस्सलाम और इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम की घटनाओं के माध्यम से सब्र, दुआ, क्षमा और मानवता का पाठ दिया और अंत में शहीद इब्राहीम हादी की घटना सुनाते हुए कहा कि हमें दैनिक जीवन में मानवता को व्यवहार में अपनाना चाहिए।













