رضوی

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हज़रत इमाम रज़ा अ.स. के हरम के ट्रस्टी हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अहमद मरवी ने कहा है कि कुछ लोग जानबूझकर ज़ियारत जैसे पवित्र और आध्यात्मिक कृत्य को सिर्फ धार्मिक पर्यटन बनाकर अपनी पसंद के साँचे में ढालना चाहते हैं। हमें होशयार रहना होगा कि ज़ियारत को उसके वास्तविक आध्यात्मिक अर्थ और पवित्रता से अलग न होने दें।

हज़रत इमाम रज़ा अ.स.के हरम के ट्रस्टी हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अहमद मरवी ने कहा है कि कुछ लोग जानबूझकर ज़ियारत जैसे पवित्र और आध्यात्मिक कृत्य को सिर्फ धार्मिक पर्यटन बनाकर अपनी पसंद के साँचे में ढालना चाहते हैं। हमें सचेत रहना होगा कि ज़ियारत को उसके वास्तविक आध्यात्मिक अर्थ और पवित्रता से अलग न होने दें।

जामकरान मस्जिद में ईरान के पवित्र मज़ारात की आठवीं बैठक के अवसर पर संबोधित करते हुए उन्होंने आयोजकों का आभार व्यक्त किया और कहा कि सहीफ़ा-ए-सज्जादिया की पहली दुआ में इमाम सज्जाद (अ.स.) परमात्मा की प्रशंसा करते हैं कि उसने ब्रह्मांड को सुंदरता और आकर्षण से सजाया और बातिल को कभी हक़ पर हावी नहीं होने दिया। यह दुआ हमें इंसान की महानता और ईश्वर की नेमतों के शुक्र की ओर ध्यान आकर्षित करती है।

उन्होंने ज़ियारत की मूलभूत महत्ता पर बात करते हुए कहा कि ज़ियारत एक उज्ज्वल, आध्यात्मिक और सामाजिक प्रभाव रखने वाला कृत्य है लेकिन आज कुछ लोग इसे केवल धार्मिक पर्यटन में बदलने की कोशिश कर रहे हैं ताकि इसे अपनी मनपसंद परिभाषाओं तक सीमित कर दें। हमें हर कीमत पर इस पवित्र कृत्य को उसके वास्तविक ज़ेह्न और पवित्रता के साथ सुरक्षित रखना है।

इमाम रज़ा अ.स. के हरम के ट्रस्टी ने कहा कि कोरोना के बाद जनता का रुझान ज़ियारत की ओर पहले से कहीं अधिक बढ़ गया है। महामारी के दिनों में कुछ सामाजिक विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की थी कि कोरोना सांस्कृतिक परिवर्तन लाकर ज़ियारत के रुझान को कम कर देगा, यहाँ तक कि कुछ लेखों में जनता की रुचि में संभावित कमी की आशंकाएँ भी जताई गई थीं, लेकिन ये सब ग़लत साबित हुआ और आज हम ज़ायरीन में उल्लेखनीय वृद्धि देख रहे हैं।

उन्होंने यह भी इशारा किया कि सिर्फ उन लोगों पर ध्यान देना काफी नहीं है जो ज़ियारत के लिए आते हैं।आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो अभी ज़ियारत से परिचित नहीं हैया उनकी ज़िंदगी में ज़ियारत का कोई खास स्थान नहीं है। उन्होंने कहा कि हमारी ज़िम्मेदारी है कि इस वर्ग के लिए भी ऐसे अवसर और माहौल पैदा करें कि ज़ियारत उनकी ज़िंदगी में भी एक प्रभावशाली और प्रेरणादायक कृत्य बन जाए।

अंत में उन्होंने ज़ियारत के प्रचार और उसकी संस्कृति निर्माण पर ज़ोर देते हुए कहा कि हमें ऐसा माहौल स्थापित करना होगा कि सभी मुसलमान इस ईश्वरीय नेमत से लाभान्वित हों, और ज़ियारत अपने आध्यात्मिक प्रभावों के साथ समाज में एक मज़बूत, प्रभावशाली और जीवित संस्कृति के रूप में बनी रहे।

 हज़रत इमाम अली अ.स. की शरीके हयात हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. की शहादत को लगभग 15 साल का समय गुज़र चुका था, इमाम अली अ.स. ने अपने भाई अक़ील को जो ख़ानदान और नस्लों की अच्छी पहचान रखते थे अपने पास बुला कर उनसे फ़रमाया कि एक बहादुर ख़ानदान से एक ऐसी ख़ातून तलाश करें जिस से बहादुर बच्चे पैदा हों

हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. इतिहास की उन महान हस्तियों में से हैं जिनके चार बेटों ने कर्बला में इस्लाम पर अपनी जान क़ुर्बान की, उम्मुल बनीन यानी बेटों की मां, आपके चार बहादुर बेटे हज़रत अब्बास अ.स. जाफ़र, अब्दुल्लाह और उस्मान थे जो कर्बला में इमाम हुसैन अ.स. की मदद करते हुए कर्बला में शहीद हो गए।

जैसाकि आप जानते होंगे कि हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. का नाम फ़ातिमा कलाबिया था लेकिन आप उम्मुल बनीन के नाम से मशहूर थीं, पैग़म्बर स.अ. की लाडली बेटी, इमाम अली अ.स. की शरीके हयात हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. की शहादत को लगभग 15 साल का समय गुज़र चुका था,

इमाम अली अ.स. ने अपने भाई अक़ील को जो ख़ानदान और नस्लों की अच्छी पहचान रखते थे अपने पास बुला कर उनसे फ़रमाया कि एक बहादुर ख़ानदान से एक ऐसी ख़ातून तलाश करें जिस से बहादुर बच्चे पैदा हों, हज़रत अली अ.स. जानते थे कि सन् 61 हिजरी जैसे संवेदनशील और घुटन वाले दौर में इस्लाम को बाक़ी रखने और पैग़म्बर स.अ. की शरीयत को ज़िंदा करने के लिए बहुत ज़्यादा क़ुर्बानी देनी होगी ख़ास कर इमाम अली अ.स. इस बात को भी जानते थे कि कर्बला का माजरा पेश आने वाला है इसलिए ज़रूरत थी ऐसे मौक़े के लिए एक बहादुर और जांबाज़ बेटे की जो कर्बला में इमाम हुसैन अ.स. की मदद कर सके।

जनाब अक़ील ने हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. के बारे में बताया कि पूरे अरब में उनके बाप दादा से ज़्यादा बहादुर कोई और नहीं था, इमाम अली अ.स. ने इस मशविरे को क़ुबूल कर लिया और जनाब अक़ील को रिश्ता ले कर उम्मुल बनीन के वालिद के पास भेजा उनके वालिद इस मुबारक रिश्ते से बहुत ख़ुश हुए और तुरंत अपनी बेटी के पास गए ताकि इस रिश्ते के बारे में उनकी मर्ज़ी का पता कर सकें, हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. ने इस रिश्ते को अपने लिए सर बुलंदी और इफ़्तेख़ार समझते हुए क़ुबूल कर लिया और फिर इस तरह हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. की शादी इमाम अली अ.स. के साथ हो गई।

हज़रत उम्मुल बनीन एक बहादुर, मज़बूत ईमान वाली, ईसार और फ़िदाकारी का बेहतरीन सबूत देने वाली ख़ातून थीं, आपकी औलादें भी बहुत बहादुर थीं लेकिन उनके बीच हज़रत अब्बास अ.स. को एक ख़ास मक़ाम और मर्तबा हासिल था।

हज़रत उम्मुल बनीन अ.स., बनी उमय्या के ज़ालिम और पापी हाकिमों के ज़ुल्म जिन्होंने इमाम हुसैन अ.स. और उनके वफ़ादार साथियों को शहीद किया था उनकी निंदा करते हुए सारे मदीने वालों के सामने बयान करती थीं ताकि बनी उमय्या का असली चेहरा लोगों के सामने आ सके, और इसी तरह मजलिस बरपा करती थीं ताकि कर्बला के शहीदों का ज़िक्र हमेशा ज़िंदा रहे, और उन मजलिसों में अहलेबैत अ.स. के घराने की ख़्वातीन शामिल हो कर आंसू बहाती थीं, आप अपनी तक़रीरों अपने मरसियों और अशआर द्वारा कर्बला की मज़लूमियत को सारी दुनिया के लोगों तक पहुंचाना चाहती थीं।

आपकी वफ़ादारी और आपकी नज़र में इमामत व विलायत का इतना सम्मान था कि आपने अपने शौहर यानी इमाम अली अ.स. की शहादत के बाद जवान होने के बावजूद अपनी ज़िंदगी के अंत तक इमामत व विलायत का सम्मान करते हुए दूसरी शादी नहीं की, और इमाम अली अ.स. की शहादत के बाद लगभग 20 साल से ज़्यादा समय तक ज़िंदगी गुज़ारी लेकिन शादी नहीं की, इसी तरह जब इमाम अली अ.स. की एक बीवी हज़रत अमामा के बारे में एक मशहूर अरबी मुग़ैरह बिन नौफ़िल से रिश्ते की बात हुई तो इस बारे में हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. से सलाह मशविरा किया गया तो उन्होंने फ़रमाया, इमाम अली अ.स. के बाद मुनासिब नहीं है कि हम किसी और मर्द के घर जा कर उसके साथ शादी शुदा ज़िंदगी गुज़ारें....।

हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. की इस बात ने केवल हज़रत अमामा ही को प्रभावित नहीं किया बल्कि लैलै, तमीमिया और असमा बिन्ते उमैस को भी प्रभावित किया, और इमाम अली अ.स. की इन चारों बीवियों ने पूरे जीवन इमाम अली अ.स. की शहादत के बाद शादी नहीं की।

हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. की वफ़ात

हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. की वफ़ात के बारे में कई रिवायत हैं, कुछ में सन् 70 हिजरी बयान किया गया है और कुछ दूसरी रिवायतों में 13 जमादिस-सानी सन् 64 हिजरी बताया गया है, दूसरी रिवायत ज़्यादा मशहूर है।

जब आपकी ज़िंदगी की आख़िरी रात चल रहीं थीं तो घर की ख़ादिमा ने उस पाकीज़ा ख़ातून से कहा कि मुझे किसी एक बेहतरीन जुमले की तालीम दीजिए, उम्मुल बनीन ने मुस्कुरा कर फ़रमाया, अस्सलामो अलैका या अबा अब्दिल्लाह अल-हुसैन।

इसके बाद फ़िज़्ज़ा ने देख कि हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. का आख़िरी समय आ पहुंचा, जल्दी से जा सकर इमाम अली अ.स. और इमाम हुसैन अ.स. की औलादों को बुला लाईं, और फिर कुछ ही देर में पूरे मदीने में अम्मा की आवाज़ गूंज उठी।

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. के बेटे और नवासे उम्मुल बनीन अ.स. को मां कह कर बुलाते थे, और आप उन्हें मना भी नहीं करती थीं, शायद अब उनमें यह कहने की हिम्मत नहीं रह गई थी कि मैं हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. की कनीज़ हूं।

आपकी वफ़ात के बाद आपको पैग़म्बर स.अ. की दो फुफियों हज़रत आतिका और हज़रत सफ़िया के पास, इमाम हसन अ.स. और हज़रत फ़ातिमा बिन्ते असद अ.स. की क़ब्रों के क़रीब में दफ़्न कर दिया गया।

 

कर्बला के बाद जब अहलेबैत (अ.स.) के क़ैदी मदीना लौटे, तो जनाबे उम्मुल बनीन ने सब्र और इस्तेक़ामत का बे मिसाल मुज़ाहेरा किया। आपने कर्बला के शहीदों के ग़म में आंसू बहाए, लेकिन साथ ही लोगों को कर्बला के मक़सद और इमाम हुसैन (अ.स.) के पैग़ाम को समझने की तलक़ीन भी की। आपका ग़म एक ज़रिया बना, जिससे कर्बला के वाक़ेआत की हकीकत लोगों तक पहुंची।

जनाबे उम्मुल बनीन (स.अ) एक ऐसी महान महिला हैं, जिनका नाम इस्लामी इतिहास में वफ़ादारी, क़ुर्बानी और बुलंद अख़लाक़ की पहचान के रूप में हमेशा ज़िंदा रहेगा। आपका असली नाम फ़ातेमा बिन्ते हेज़ाम था, लेकिन "उम्मुल बनीन" के ल़क़ब से आप मशहूर हुईं। यह ल़क़ब इस बात की गवाही देता है कि आपने अपनी ज़िंदगी और औलाद को इस्लाम और अहलेबैत की खिदमत के लिए समर्पित कर दिया। आप अरब के एक बहादुर और शरीफ़ क़बीले से ताल्लुक रखती थीं और अपनी शराफ़त, बहादुरी और इंसानियत के लिए मशहूर थीं।

हज़रत अली (अ.स.) के साथ शादी

जनाबे उम्मुल बनीन का निकाह अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स.) के साथ हुआ। निकाह के बाद आपने बहुत ही समझदारी और सादगी के साथ घर के मामलों को संभाला। आपने हज़रत फातेमा ज़हरा (स.अ.) की औलाद की देखभाल और मोहब्बत को अपनी पहली ज़िम्मेदारी समझा। हज़रत इमाम हसन (अ.स.), हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) और जनाबे ज़ैनब (स.अ.) के साथ आपने जो प्यार और ख़िदमत का मुज़ाहेरा पेश किया, वह अपनी मिसाल आप है।

औलाद और कर्बला की क़ुर्बानी

जनाबे उम्मुल बनीन के चार बेटे थे: हज़रत अब्बास , अब्दुल्लाह, जाफ़र और उस्मान अलैहिमुस्सलाम। आपने अपनी औलाद की परवरिश बहादुरी, वफ़ादारी और हक़ के रास्ते पर चलने की तालीम के साथ की। ख़ासतौर पर हज़रत अब्बास (अ.स.) की बे मिसाल वफ़ादारी और क़ुर्बानी आपकी बेहतरीन तर्बियत का नतीजा थी।

जब कर्बला का वाक़ेआ पेश आया, तो आपने अपने तमाम बेटों को हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की मदद के लिए भेज दिया। "आपने अपने बेटों की शहादत को अल्लाह की राह में अपनी सबसे बड़ी क़ुर्बानी समझा और इसे पूरे सब्र और रज़ामंदी के साथ स्वीकार किया, कभी होठों पर शिकवा या शिकायत का इज़हार नहीं किया।"

आपकी सबसे बड़ी फ़िक्र इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके मिशन की कामयाबी थी।

मदीना में ग़म और सब्र का अज़ीम मुज़ाहेरा

कर्बला के बाद जब अहलेबैत (अ.स.) के क़ैदी मदीना लौटे, तो जनाबे उम्मुल बनीन ने सब्र और इस्तेक़ामत का बे मिसाल मुज़ाहेरा किया। आपने कर्बला के शहीदों के ग़म में आंसू बहाए, लेकिन साथ ही लोगों को कर्बला के मक़सद और इमाम हुसैन (अ.स.) के पैग़ाम को समझने की तलक़ीन भी की। आपका ग़म एक ज़रिया बना, जिससे कर्बला के वाक़ेआत की हकीकत लोगों तक पहुंची।

वफ़ा और क़ुर्बानी की प्रेरणा

जनाबे उम्मुल बनीन (स.अ) का किरदार हर दौर की औरतों के लिए वफ़ा, क़ुर्बानी और सब्र की बेहतरीन मिसाल है। आपने अपनी औलाद और अपनी ज़िंदगी को अहलेबैत (अ.स.) की मोहब्बत और इस्लाम की खिदमत के लिए वक़्फ़ कर दिया। आज भी आपकी वफ़ादारी और क़ुर्बानी को याद किया जाता है। मोमेनीन आपसे तवस्सुल करते हैं और आपकी दुआओं की बरकत पर यकीन रखते हैं।

जनाबे उम्मुल बनीन की ज़िंदगी हमें यह पैग़ाम देती है कि अपने मक़सद को पहचानें, हक़ के लिए क़ुर्बानी देने के लिए तैयार रहें और अपनी ज़िम्मेदारियों को ईमानदारी और इस्तेक़ामत के साथ निभाएं।

लेखकः सैय्यद साजिद हुसैन रज़वी मोहम्मद

हज़रत उम्मुल बनीन एक बहादुर, मज़बूत ईमान वाली, ईसार और फ़िदाकारी का बेहतरीन सबूत देने वाली ख़ातून थीं, आपकी औलादें भी बहुत बहादुर थीं लेकिन उनके बीच हज़रत अब्बास अ.स. को एक ख़ास मक़ाम और मर्तबा हासिल था।

हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की शरीके हयात हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. की शहादत को लगभग 15 साल का समय गुज़र चुका था, इमाम अली अलैहिस्सलाम ने अपने भाई अक़ील को जो ख़ानदान और नस्लों की अच्छी पहचान रखते थे अपने पास बुला कर उनसे फ़रमाया कि एक बहादुर ख़ानदान से एक ऐसी ख़ातून तलाश करें जिस से बहादुर बच्चे पैदा हों

हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. इतिहास की उन महान हस्तियों में से हैं जिनके चार बेटों ने कर्बला में इस्लाम पर अपनी जान क़ुर्बान की, उम्मुल बनीन यानी बेटों की मां, आपके चार बहादुर बेटे हज़रत अब्बास अ.स. जाफ़र, अब्दुल्लाह और उस्मान थे जो कर्बला में इमाम हुसैन अ.स. की मदद करते हुए कर्बला में शहीद हो गए।

जैसाकि आप जानते होंगे कि हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. का नाम फ़ातिमा कलाबिया था लेकिन आप उम्मुल बनीन के नाम से मशहूर थीं, पैग़म्बर स.अ. की लाडली बेटी, इमाम अली अ.स. की शरीके हयात हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. की शहादत को लगभग 15 साल का समय गुज़र चुका था, इमाम अली अ.स. ने अपने भाई अक़ील को जो ख़ानदान और नस्लों की अच्छी पहचान रखते थे अपने पास बुला कर उनसे फ़रमाया कि एक बहादुर ख़ानदान से एक ऐसी ख़ातून तलाश करें जिस से बहादुर बच्चे पैदा हों, हज़रत अली अ.स. जानते थे कि सन् 61 हिजरी जैसे संवेदनशील और घुटन वाले दौर में इस्लाम को बाक़ी रखने और पैग़म्बर स.अ. की शरीयत को ज़िंदा करने के लिए बहुत ज़्यादा क़ुर्बानी देनी होगी ख़ास कर इमाम अली अ.स. इस बात को भी जानते थे कि कर्बला का माजरा पेश आने वाला है इसलिए ज़रूरत थी ऐसे मौक़े के लिए एक बहादुर और जांबाज़ बेटे की जो कर्बला में इमाम हुसैन अ.स. की मदद कर सके।

जनाब अक़ील ने हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. के बारे में बताया कि पूरे अरब में उनके बाप दादा से ज़्यादा बहादुर कोई और नहीं था, इमाम अली अ.स. ने इस मशविरे को क़ुबूल कर लिया और जनाब अक़ील को रिश्ता ले कर उम्मुल बनीन के वालिद के पास भेजा उनके वालिद इस मुबारक रिश्ते से बहुत ख़ुश हुए और तुरंत अपनी बेटी के पास गए ताकि इस रिश्ते के बारे में उनकी मर्ज़ी का पता कर सकें, हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. ने इस रिश्ते को अपने लिए सर बुलंदी और इफ़्तेख़ार समझते हुए क़ुबूल कर लिया और फिर इस तरह हज़रत उम्मुल बनीन स.अ. की शादी इमाम अली अ.स. के साथ हो गई।

हज़रत उम्मुल बनीन एक बहादुर, मज़बूत ईमान वाली, ईसार और फ़िदाकारी का बेहतरीन सबूत देने वाली ख़ातून थीं, आपकी औलादें भी बहुत बहादुर थीं लेकिन उनके बीच हज़रत अब्बास अ.स. को एक ख़ास मक़ाम और मर्तबा हासिल था।

हज़रत उम्मुल बनीन अ.स., बनी उमय्या के ज़ालिम और पापी हाकिमों के ज़ुल्म जिन्होंने इमाम हुसैन अ.स. और उनके वफ़ादार साथियों को शहीद किया था उनकी निंदा करते हुए सारे मदीने वालों के सामने बयान करती थीं ताकि बनी उमय्या का असली चेहरा लोगों के सामने आ सके, और इसी तरह मजलिस बरपा करती थीं ताकि कर्बला के शहीदों का ज़िक्र हमेशा ज़िंदा रहे, और उन मजलिसों में अहलेबैत अ.स. के घराने की ख़्वातीन शामिल हो कर आंसू बहाती थीं, आप अपनी तक़रीरों अपने मरसियों और अशआर द्वारा कर्बला की मज़लूमियत को सारी दुनिया के लोगों तक पहुंचाना चाहती थीं।

आपकी वफ़ादारी और आपकी नज़र में इमामत व विलायत का इतना सम्मान था कि आपने अपने शौहर यानी इमाम अली अ.स. की शहादत के बाद जवान होने के बावजूद अपनी ज़िंदगी के अंत तक इमामत व विलायत का सम्मान करते हुए दूसरी शादी नहीं की, और इमाम अली अ.स. की शहादत के बाद लगभग 20 साल से ज़्यादा समय तक ज़िंदगी गुज़ारी लेकिन शादी नहीं की, इसी तरह जब इमाम अली अ.स. की एक बीवी हज़रत अमामा के बारे में एक मशहूर अरबी मुग़ैरह बिन नौफ़िल से रिश्ते की बात हुई तो इस बारे में हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. से सलाह मशविरा किया गया तो उन्होंने फ़रमाया, इमाम अली अ.स. के बाद मुनासिब नहीं है कि हम किसी और मर्द के घर जा कर उसके साथ शादी शुदा ज़िंदगी गुज़ारें....।

हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. की इस बात ने केवल हज़रत अमामा ही को प्रभावित नहीं किया बल्कि लैलै, तमीमिया और असमा बिन्ते उमैस को भी प्रभावित किया, और इमाम अली अ.स. की इन चारों बीवियों ने पूरे जीवन इमाम अली अ.स. की शहादत के बाद शादी नहीं की।

हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. की वफ़ात

हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. की वफ़ात के बारे में कई रिवायत हैं, कुछ में सन् 70 हिजरी बयान किया गया है और कुछ दूसरी रिवायतों में 13 जमादिस-सानी सन् 64 हिजरी बताया गया है, दूसरी रिवायत ज़्यादा मशहूर है।

जब आपकी ज़िंदगी की आख़िरी रात चल रहीं थीं तो घर की ख़ादिमा ने उस पाकीज़ा ख़ातून से कहा कि मुझे किसी एक बेहतरीन जुमले की तालीम दीजिए, उम्मुल बनीन ने मुस्कुरा कर फ़रमाया, अस्सलामो अलैका या अबा अब्दिल्लाह अल-हुसैन।

इसके बाद फ़िज़्ज़ा ने देख कि हज़रत उम्मुल बनीन अ.स. का आख़िरी समय आ पहुंचा, जल्दी से जा सकर इमाम अली अ.स. और इमाम हुसैन अ.स. की औलादों को बुला लाईं, और फिर कुछ ही देर में पूरे मदीने में अम्मा की आवाज़ गूंज उठी।

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. के बेटे और नवासे उम्मुल बनीन अ.स. को मां कह कर बुलाते थे, और आप उन्हें मना भी नहीं करती थीं, शायद अब उनमें यह कहने की हिम्मत नहीं रह गई थी कि मैं हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. की कनीज़ हूं।

आपकी वफ़ात के बाद आपको पैग़म्बर स.अ. की दो फुफियों हज़रत आतिका और हज़रत सफ़िया के पास, इमाम हसन अ.स. और हज़रत फ़ातिमा बिन्ते असद अ.स. की क़ब्रों के क़रीब में दफ़्न कर दिया गया।

सलाम उस मां पर हो जिसने एक ऐसे बेटे को पाला जिसके कटे हुए हाथ, जनरल कासिम सुलेमानी जैसे थे, धर्म की तरफ बढ़ रहे हाथों से लड़े, और दुनिया भर के घमंड का कॉलर खींचते हुए, अपनी जान तक दबे-कुचले लोगों का साथ देते रहे, और अपनी शहादत के बाद, उन्होंने लाखों हाथों को इस्लाम का झंडा उठाने के लिए तरसाया।

13 जमादि उस सानी वह तारीख है जिस दिन, रिवायतो के अनुसार, उम्मुल बनीन (स) ने दुनिया से आखे मूंद ली, और यह दिन इस्लामी दुनिया में, खासकर इस्लामी गणतंत्र ईरान में, सच्चाई के रास्ते में अपनी जान कुर्बान करने वाली मांओं और शहीदों की पत्नियों की महानता और सम्मान के लिए एक श्रद्धांजलि के रूप में मनाया जाता है।

उम्मुल बनीन (स) का संक्षिप्त परिचय

उम्मुल बनीन के पिता, अबूल मजल हज़्ज़ाम बिन खालिद, बनू किलाब कबीले (1) से थे, जबकि उनकी माँ का नाम इतिहास में लैला या सुमामा बिन्त सुहैल बिन अमीर बिन मलिक (2) के तौर पर दर्ज है। उनके खानदान में यह मिलता है कि हज़रत फातिमा ज़हरा (स) की मौत के बाद, अपनी मर्ज़ी से, जब दुनिया के मालिक, अली बिन अबी तालिब (अ) ने अपने लिए जीवनसाथी ढूंढना चाहा, तो उन्होंने अपने भाई अकील, जो दोनों तरफ के एक नेक आदमी थे, के खानदान के बारे में पूछा और कहा, "अरबों में, बनू किलाब के आदमियों जैसा कोई बहादुर आदमी नहीं है।" इस तरह, हज़रत अली (अ) ने उनसे शादी कर ली। नतीजतन, अल्लाह ने उन्हें अब्बास, अब्दुल्लाह, जाफ़र और उस्मान (3) के रूप में चार बेटे दिए। उनका नाम फातिमा बिन्त हिज़ाम था, लेकिन इन बेटों के आधार पर उन्हें उम्मुल बनीन (4) कहा जाता था। उनके इन चारों बेटों ने कर्बला में अपने भाई और उस समय के इमाम हज़रत सय्यद अल शोहदा (अ) के कदमों में शहादत का बड़ा दर्जा हासिल किया।

जब उन्हें अपने बेटों की शहादत की खबर मिली, तो उन्होंने बहुत इमोशनल होकर कहा: “काश, मेरे बेटे और धरती और आसमान के बीच जो कुछ भी है, वह मेरे हुसैन (अ) के लिए कुर्बान हो गया होता और वह (सैय्यद अल-शुहादा (अ) ज़िंदा होते।” वह शायरी में भी माहिर थीं और एक शायर के तौर पर जानी जाती थीं। (6) इसलिए, जब उन्होंने हज़रत अब्बास (अ) की शहादत की खबर सुनी, तो उन्होंने एक मरसिया पढ़ा, जिसकी कुछ लाइनें इस तरह हैं:

ऐ वो जिसने अब्बास को दुश्मन पर हमला करते देखा है जो दुश्मन का पीछा कर रहा था। सुना है कि मेरे बेटे के हाथ काट दिए गए थे और उसके सिर पर बिजली गिरी थी। ऐ मेरे लाल, अगर तुम्हारे हाथ में तलवार होती, तो कोई तुम्हारे पास नहीं आ सकता था। (7)

हमारा करोद़ो दुरूद व सला उस मां पर हो जिसने अपने चार बेटों को खुदा की राह में कुर्बान कर दिया, जिनमें से एक अलमदारे कर्बला भी था, जिसका नाम कमर बनी हाशिम था। लेकिन, इसके बावजूद इस माँ की यही ख्वाहिश थी कि उससे सब कुछ छीन लिया जाए लेकिन इमाम वक़्त पर आंच ना आती। उस माँ पर सलाम हो जिसने ऐसे बेटे को पाला जिसके कटे हुए हाथ, जनरल कासिम सुलेमानी के हाथों जैसे, धर्म की तरफ बढ़ रहे हाथों से लड़ने के लिए थे और जिसने दुनिया भर के घमंड का कॉलर खींचा और दबे-कुचले लोगों की मदद करके उन्हें आखिर तक पहुँचाया। वे जीते रहे और उनकी शहादत के बाद लाखों हाथ इस्लाम का परचम उठाने के लिए तैयार हुए।

इसमें कोई शक नहीं कि अगर हमारी माँताएँ और बहनें हज़रत उम्मुल बनीन जैसी औरतों की ज़िंदगी को अपना मॉडल बना लें, तो वे समाज और समाज के सामने ऐसे बच्चों को ट्रेनिंग देकर पेश कर सकती हैं जो हमारी तरफ बढ़ रहे ज़ुल्म और ज़ुल्म के हाथों को काट सकें। लेकिन इसके लिए यह ज़रूरी है कि हमारी औरतें, पहले स्टेज पर, अपने समय की ज़रूरतों से वाकिफ होने के साथ-साथ पढ़ी-लिखी भी हों। और पढ़े-लिखे होने का मतलब सिर्फ़ दुनियावी पढ़ाई नहीं है, बल्कि दुनिया से वाकिफ होने के साथ-साथ दीनी जानकारी भी होना चाहिए ताकि ऐसे बच्चों को ट्रेनिंग दी जा सके जो आगे चलकर हमारे समाज के रखवाले हों। हर मोर्चे पर, चाहे वह पढ़ाई का मोर्चा हो, समाज का मोर्चा हो या आर्थिक और सांस्कृतिक मोर्चा हो।

ऐसे में, हज़रत उम्मुल बनीन की दुनियावी भूमिका हमें बुला रही है कि अगर हम धार्मिक उसूलों का सम्मान करते हुए अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ें, तो अब्बास (अ) नहीं बल्कि अबुल फ़ज़्लिल अब्बास के रास्ते पर चलने वाले उन गुलामों को समाज को ज़रूर सौंपा जा सकता है, जो कर्बला के ध्वजधारक भले ही न हों, लेकिन कर्बला का परचम ज़रूर उठाएंगे।

उन मांओं को हमारा सलाम जो उम्मुल बनीन जैसी महान मां के रास्ते पर चलते हुए अपने बच्चों को सजाती-संवारती हैं और उन्हें इस जंग के मैदान में भेजती हैं। और ज़रूरत के समय, आज भी, अनजान मोर्चों पर, उनके बच्चे हुसैनियत के परचम के लिए, सभी सीमाओं के पार, दुनिया भर के साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ डटे रहते हैं। वही फ़रज़ंदाने तौहीद जो आज यमन, इराक और सीरिया में सही-गलत में फ़र्क करने का ज़रिया बन गए हैं और इस लड़ाई में सबसे आगे हैं जिसका अंत 61 में कर्बला की लड़ाई से जुड़ा है।

बेशक, चाहे वो इस्लामिक रिपब्लिक के शहीद हों, या अफ़गानिस्तान के फ़तेमियून और पाकिस्तान की ज़मीन की ज़ैनबी हों, चाहे वो हिज़्बुल्लाह के बिना स्वार्थ के और बहादुर सैनिक हों या हश्दुश शाबी के नौजवान हों, अगर ये सभी झूठ के ख़िलाफ़ डटे रहे हैं और आज भी इस तरह डटे हुए हैं कि झूठ की पूजा करने वाली ज़ालिम ताकतों के माथे पर पसीने की बूँदें हैं, कि सच के लिए मरने वालों ने लड़ाई का रंग बदल दिया है, जिनके सामने न तो तोपों और टैंकों के आग उगलते मुँह काम आते हैं, न ही मिसाइलें और जंगी जहाज़ उनके पक्के इरादे और हिम्मत को रोक पाते हैं, तो यह उन माँओं की ट्रेनिंग का नतीजा है जिन्होंने अपने बच्चों को परचम उठाने वाले कर्बला की बहादुरी की कहानियाँ सुनाकर पाला है और उन्हें इस तरह पाला है कि वे अपने वतन से दूर, भूखे पिताओं और मज़लूमों के साथ सच की फ़रात नदी पर कब्ज़ा कर चुके हैं। उन माँओं पर सलामती हो, जिन्होंने अब्बास के झंडे की छाया में, लोरियां गाकर यज़ीदीवाद को इस तरह से दूर भगाने की सीख दी गई कि यज़ीदीवाद के लिए कहीं कोई जगह न रहे।

अल्लाह उन सभी माताओं की रक्षा करे जिन्होंने धर्म के दुश्मनों से लड़ने के लिए अपना सब कुछ पीछे छोड़ दिया है। अगर उनके पास कुछ है, तो वह केवल माताओं की दुआएं हैं.

संदर्भ

[1] तबरी, तारीख तबरी, भाग 4, पेज 118 

[2] इब्न अनबा, उम्दा दुत तालिब, पेज 356; गफ़्फ़ारी, तालीक़ात बिन मकतल अल-हुसैन, पेज 174

[3] इस्फ़हानी, मक़ातिल उत-तालेबीन, पेज 82-84; इब्न अनबा, उम्दा दुत तालिब, पेज 356; हस्सून, ‘आलमुन नेसी मोमेनात, पेज 496

[4] बेटों की माँ

[5] हस्सून, ‘आलमुन नेसी मोमेनात, पेज 496-497; महल्लाती, रैहान उश शरिया, भाग 3, पेज 293

[6] आयान अल-शिया, भाग 8, पेज 389

[7] महल्लाती, रैहान उश शरिया, भाग 3, पेज 294 और तनकीह अल-मकाल,  भाग 3, पेज 70

लेखकः मौलाना सयद नजीबुल हसन ज़ैदी

अल्लाह के सामने बंदों का एक ज़रूरी फ़र्ज़ उस मुक़द्दस वुजूद को जानना है। यह जानकारी तब पूरी होती है जब वे अल्लाह के नबियों को - खासकर पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) को - अच्छी तरह जानते हो। यह ज़रूरी बात उनके बाद आने वालों को, खासकर अल्लाह की आखिरी हुज्जत की मारफ़त के बिना हासिल नहीं हो सकती।

महदीवाद पर चर्चाओं का कलेक्शन, जिसका टाइटल "आदर्श समाज की ओर" है, आप सभी के लिए पेश है, जिसका मकसद इस समय के इमाम से जुड़ी शिक्षाओं और ज्ञान को फैलाना है।

दुनिया बनाने का मकसद अल्लाह की सेवा करना है 1 और सेवा का आधार और बुनियाद उसे जानना है। 2 इस मारफ़त का सबसे बड़ा रूप पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) और उनके वारिसों की मारफ़त है। बेशक, अल्लाह के सामने बंदों का एक ज़रूरी फ़र्ज़ उस मुक़द्दस वुजूद को जानना है। यह जानकारी तब पूरा होती है जब अल्लाह के नबियो को - खासकर पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) - को अच्छी तरह से जानते हो। यह ज़रूरी चीज़ उनके वारिसों, खासकर अल्लाह की आखिरी हुज्जत की मारफ़त के बिना हासिल नहीं हो सकती।

एक व्यक्ति ने इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) से पूछा:

یَا اِبْنَ رَسُولِ اَللَّهِ بِأَبِی أَنْتَ وَ أُمِّی فَمَا مَعْرِفَةُ اَللَّهِ قَالَ مَعْرِفَةُ أَهْلِ کُلِّ زَمَانٍ إِمَامَهُمُ اَلَّذِی یَجِبُ عَلَیْهِمْ طَاعَتُهُ यब्ना रसूलिल्लाहे बेअबि अंता व उम्मी फ़मा मारेफ़तुल्लाहे क़ाला मारेफ़तो अहले कुल्ले जमानिन इमामाहोमुल लज़ी यजेबो अलैहिम ताअतोहू 

“ऐ फ़रजंदे रसूल! मेरे पिता - माता आप पर क़ुरबान, अल्लाह की मारफ़त का क्या मतलब है? आप (अ) ने फ़रमाया, “अल्लाह की मारफ़त यह है कि हर समय के लोग अपने इमाम को पहचानें जिनकी आज्ञा का पालन करना उन पर अनिवार्य है।” (एलल उश शराए, भाग 1, पेज 9)

इसलिए, इमाम की मारफ़त अल्लाह की मारफ़त से अलग नहीं है; बल्कि, यह इसका एक पहलू है। एक दुआ में कहा गया है:

اللَّهُمَّ عَرِّفْنِی نَفْسَکَ فَإِنَّکَ إِنْ لَمْ تُعَرِّفْنِی نَفْسَکَ لَمْ أَعْرِفْ نَبِیکَ اللَّهُمَّ عَرِّفْنِی رَسُولَکَ فَإِنَّکَ إِنْ لَمْ تُعَرِّفْنِی رَسُولَکَ لَمْ أَعْرِفْ حجّتکَ اللَّهُمَّ عَرِّفْنِی حجّتکَ فَإِنَّکَ إِنْ لَمْ تُعَرِّفْنِی حجَّتَکَ ضَلَلْتُ عَنْ دِینِی अल्लाहुम्मा अर्रिफ़्नी नफ़सका फ़इन्नका इन लम तोअर्रिफ़्नी नफ़सका लम आरिफ नबीयका अल्लाहुम्मा अर्रिफ़नी रसूलका फ़इन्नका इन लम तोअर्रिफ़्नी रसूलका लम आरिफ़ हुज्जतका अल्लाहुम्मा अर्रिफ़्नी हुज्जतका फ़इन्नका इन लम तोअर्रिफ़्नी हुज्जतका ज़ललतो अन दीनी 

“ऐ अल्लाह, मुझे अपनी मारफ़त करा, क्योंकि अगर तू अपनी मारफ़त नहीं कराएगा, तो मैं तेरे पैगंबर को नहीं पहचान पाऊँगा। ऐ अल्लाह, मुझे अपने रसूल की मारफ़त करा, क्योंकि अगर तू अपने रसूल की मारफ़त नहीं कराएंगा, तो मैं तेरी हुज्जत को नहीं पहचान पाऊंगा। ऐ अल्लाह, मुझे अपनी हुज्जत की मारफ़त करा, क्योंकि अगर तूने मुझे अपनी हुज्जत की मारफ़ नहीं कराई, तो मैं अपने धर्म से भटक जाऊंगा।” (अल-काफ़ी, भाग 1, पेज 342)

इमाम की पहचान करने के तीन मुख्य तरीके हैं:

  1. नस्स

नस्स; यानी पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) की निर्धारित और तसरीह की हुई नस्स, जिसका मतलब होता है कि वह खुदा की तरफ़ से इमाम की नियुक्ति या खुदा के हुक्म से इमाम की नियुक्ति के बारे में बताता है। पहले टाइप में, नियुक्ति बिना किसी बिचौलिए के की जाती है और यह खुदा का काम है, और पैगम्बर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) की नस्स इसके बारे में बताने जैसा है। दूसरे टाइप में, खुदा का काम पैगम्बर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) के ज़रिए किया जाता है और यह खुदा के हुक्म से होता है, और उन पर भरोसा करना वैसा ही है जैसे फरिश्तों का खुदा पर भरोसा करना।

  1. करामत

जो कोई इमाम होने का दावा करता है, उसका दलील का दिखना उसके दावे की सच्चाई का सबूत है, और कुछ बड़े जानकारों के मुताबिक, यह खुदा की तरफ़ से उसके भरोसे और नियुक्ति का सबूत है। इस मामले पर दो नज़रिए हैं: एक यह कि करामत इमामत का एक अलग सबूत है, और दूसरा यह कि मुख्य सबूत पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि व सल्लम) या पिछले इमाम की नियुक्ति और नस्स है, और करामत नियुक्ति का सबूत है। अगर नस्स गायब है और करामत है, तो करामत यह बताती है कि नस्स करामत वाले व्यक्ति ने लिखा था और हम तक नहीं पहुँचा है।

  1. अमली सीरत

नैतिकता और व्यवहार, जीवन की स्थिति, ज्ञान और समझदारी उन लोगों के लिए इमाम को पहचानने के तरीकों में से एक हैं जो इस पद के धारक को उसके नैतिक मूल्यों, व्यवहार, भाषण और अलग-अलग बातचीत से अलग करने और पहचानने की क्षमता रखते हैं। (लुत्फ़ल्लाह सफ़ी गुलपायएगानी, पैरामून मारफ़त इमाम (अलैहिस्सलाम), पेज 77-78)

आज, विश्वसनीय रिवायतो की भरमार होने की वजह से, इमाम-ए-वक़्त (अलैहिस्सलाम) को समझने का रास्ता खुला है। शियो के आठवें इमाम, इमाम अली बिन मूसा अल-रज़ा अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं:

... الاِمَامُ أَمِینُ اللَّهِ فی خَلْقِهِ وَ حُجَّتُهُ عَلَی عِبَادِهِ وَ خَلِیفَتُهُ فِی بِلادِهِ وَ الدَّاعِی إِلَی اللَّهِ وَ الذَّابُّ عَنْ حُرَمِ اللَّهِ الاِمَامُ الْمُطَهَّرُ مِنَ الذُّنُوبِ وَ الْمُبَرَّأُ عَنِ الْعُیُوبِ الْمَخْصُوصُ بِالْعِلْمِ الْمَوْسُومُ بِالْحِلْمِ نِظَامُ الدِّینِ وَ عِزُّ الْمُسْلِمِینَ وَ غَیْظُ الْمُنَافِقِینَ وَ بَوَارُ الْکَافِرِینَ الاِمَامُ وَاحِدُ دَهْرِهِ لایُدَانِیهِ أَحَدٌ وَ لایُعَادِلُهُ عَالِمٌ وَ لا یُوجَدُ مِنْهُ بَدَلٌ وَ لا لَهُ مِثْلٌ وَ لا نَظِیرٌ مَخْصُوصٌ بِالْفَضْلِ کُلِّهِ مِنْ غَیْرِ طَلَبٍ مِنْهُ لَهُ وَ لا اکْتِسَابٍ بَلِ اخْتِصَاصٌ مِنَ الْمُفْضِلِ الْوَهَّابِ ... ... अल इमामो अमीनुल्लाहे फ़ी ख़ल्क़ेहि व हुज्जतोहू अला ऐबादेहि व ख़लीफ़तोहू फ़ी बिलादेहि वद दाई एलल्लाहे वज़ ज़ाब्बो अन हरमिल्लाहे अल इमामुल मुताह्हरो मिनज़ ज़ोनूबे वल मुबर्रओ अनिल ओयूबिल मख़सूसो बिल इल्मिल मौसूमो बिल् हिल्म नेज़ामुद्दीन व इज़्ज़ुल मुस्लेमीना व ग़ैज़ुल मुनाफ़ेक़ीना व बवारुल काफ़ेरीना अल इमामो वाहेदो दाहरेहि या योदानीहे अहदुन वला योआदेलोहू आलेमुन वला यूजदो मिन्हो बदलुन वला लहू मिस्लुन वला नज़ीरुन मख़सूसुन बिल फ़ज़्ले कुल्लेहि मिन ग़ैरे तलबिन मिस्लहू लहू वलक तेसाबिन बलिखतेसासुन मिनल मुफ़ज़ेलिल वह्हाबे ...

... इमाम अल्लाह की बनाई दुनिया में आमीन हैं, अपने बंदों पर उसकी हुज्जत, असकी ज़मीनों में उसके ख़लीफ़ा, और अल्लाह की ओर बुलाने वाले हैं। अल्लाह और असके बंदों पर वाजिब हक़ का बचाव करने वाले। इमाम गुनाह से पाक और कमियों से आज़ाद है। इल्म उसके लिए सुरक्षित है और वह अपने सब्र के लिए जाना जाता है। इमाम दीन को व्यवस्थित करने वाला और मुसलमानों की शान, मुनाफ़िक़ों के गुस्से और काफ़िरों की तबाही का कारण है। इमाम अपने समय मे अकेला होता है। कोई भी उसके दर्जे के आस-पास नहीं पहुँच सकता, और कोई भी आलिम उसके बराबर नहीं है, और उसका कोई विकल्प नहीं है, और उसकी कोई शक्ल या रूप-रंग नहीं है। सारी खूबियाँ उसके लिए हैं, बिना उसके माँगे। यह इमाम के लिए सबसे रहम करने वाले की तरफ़ से एक खास अधिकार है।...(अल काफ़ी, भाग 1, पेज 201)

असल में, इन कुछ खासियतों को पहचानकर, इमाम की मारफ़त की तरफ़ एक बड़ा कदम उठाया जाता है, और फिर उनके हुक्म को मानने और इताअत (अनुसरण) का समय आता है।

श्रृंखला जारी है ---

इक़्तेबास : "दर्स नामा महदवियत"  नामक पुस्तक से से मामूली परिवर्तन के साथ लिया गया है, लेखक: खुदामुराद सुलैमियान

गार्डियन काउंसिल के सदस्य आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद रज़ा मुदर्रेसी यज़दी ने कहा कि पश्चिमी देश स्वतंत्रता का नारा तो लगाते हैं, लेकिन वास्तविकता में वे जनता को धोखे में रखने के अलावा कुछ नहीं करते सीरिया, लेबनान और ग़ाज़ा की वर्तमान स्थिति इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि ये देश वर्षों से इन क्षेत्रों को बमबारी, आर्थिक घेराबंदी और प्यास भूख जैसी कठिन परिस्थितियों में जकड़े हुए हैं।

आयतुल्लाह मुदर्रेसी ने कहा कि पश्चिमी ताकतें आज़ादी की बात केवल दिखावे के लिए करती हैं, जबकि उनके व्यवहार में सच्ची आज़ादी कहीं नजर नहीं आती। दुनिया के कई देश उनकी नीतियों की वजह से लगातार संकटों का सामना कर रहे हैं।

ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली ख़ामनेई के विचारों पर आधारित जनअधिकार और स्वतंत्रता विषयक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन सत्र आज 3 दिसंबर 2025 को ईरान ब्रॉडकास्टिंग के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र में आयोजित हुआ।

अपने संबोधन में आयतुल्लाह मुदर्रेसी ने कहा कि इस्लामी व्यवस्था सलाह मशविरा पर आधारित है। उन्होंने बताया कि हज़रत अली ने लोगों को यह निर्देश दिया है कि सही बात कहने और न्यायपूर्ण सलाह देने में संकोच न करें।

उन्होंने कुरान की आयत और उनके काम आपसी सलाह से चलाए जाते हैं का उल्लेख करते हुए कहा कि सामूहिक और सामाजिक मामलों में जनता की राय का महत्व अत्यंत बड़ा है, और स्वयं पैग़ंबर मुहम्मद को भी आदेश दिया गया था कि वे उम्मत से सलाह करें।

आयतुल्लाह मुदर्रेसी ने बद्र और उहोद के युद्धों का उदाहरण देते हुए कहा कि जब जनमत किसी स्पष्ट ईश्वरीय आदेश के विरुद्ध न हो, तो पैग़ंबर ने हमेशा बहुमत की राय को स्वीकार किया।

उन्होंने कहा कि अक़लमंद लोगों का तरीका भी यही है कि सामाजिक निर्णय सलाह और बहुमत की राय से लिए जाएँ। इस्लाम वह धर्म है जो जीवन के हर क्षेत्र राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक में व्यापक स्वतंत्रता का समर्थन करता है, और जो सीमाएँ तय की गई हैं वे मनुष्य की असली और पवित्र स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हैं।

आयतुल्लाह मुदर्रेसी ने कहा कि कुरान के अनुसार पैग़ंबर मुहम्मद लोगों के लिए अच्छी और पवित्र चीजें वैध ठहराते हैं और हानिकारक चीजों से रोकते हैं। इस्लाम ने उन कठोर प्रतिबंधों को समाप्त किया जो पिछली समुदायों पर लागू थे।

गार्डियन काउंसिल के सदस्य ने कहा कि जो देश स्वयं को स्वतंत्रता का केंद्र बताकर दुनिया को दिखाते हैं, वे असल में स्वतंत्रता के नाम पर केवल धोखा फैलाते हैं। सीरिया, लेबनान और ग़ाज़ा की हालत इस धोखे का सबसे बड़ा प्रमाण है।

उन्होंने यह भी कहा कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ मानवाधिकार और महिलाओं के अधिकार के नाम पर तो दबाव डालती हैं, लेकिन वास्तविक मानवाधिकारों की रक्षा कहीं दिखाई नहीं देती।

आयतुल्लाह मुदर्रेसी ने उम्मीद जताई कि हौज़ा और विश्वविद्यालयों के विद्वान इन विषयों पर शैक्षणिक विश्लेषण करके जनता को सच्चाई से अवगत कराएँगे।

सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनई ने बुधवार 3 दिसम्बर 2025 की सुबह हज़ारों की तादाद में महिलाओं और लड़कियों से मुलाक़ात में हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शख़्सियत के मुख़्तलिफ़ पहलुओं पर रौशनी डाली।

सुप्रीम लीडर ने हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा को सभी मैदानों में बेहतरीन ख़ूबियों से सुसज्जित ऐसी हस्ती बताया जिसका संबंध स्वर्ग से है। उन्होंने घर और समाज के स्तर पर महिलाओं के अधिकारों और प्रतिष्ठा के संबंध में इस्लाम के नज़रिये को बयान करते हुए, मुख़्तलिफ़ मैदानों में महिलाओं और बीवियों से मर्दों के व्यवहार के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं का जायज़ा लिया।

आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने लोक-परलोक की इस हस्ती हज़रत ज़हरा की असीमित महानताओं के उल्लेख में, उनकी इबादत, अल्लाह के सामने उनकी विनम्रमता, लोगों के लिए बलिदान और उदारता, मुश्किलों और मुसीबतों को बर्दाश्त करने, मज़लूम के अधिकारों की बहादुरी से रक्षा करने, सत्य को ज़ाहिर और स्पष्ट करने, राजनैतिक समझ और व्यवहार, घरदारी, दांपत्य जीवन और बच्चों की तरबियत, इस्लाम के आग़ाज़ के अहम वाक़यों में मौजूद रहने सहित अनेक पहलुओं की ओर इशारा किया।

उन्होंने कहा, "अलहम्दुलिल्लाह ईरानी महिलाएं ऐसे सूरज को जो पैग़म्बरे इस्लाम के मुताबिक़, पूरे इतिहास के सभी दौर की महिलाओं की सरदार हैं, अपना आदर्श समझती और उनसे सबक़ लेकर उनके लक्ष्यों की ओर बढ़ती हैं।"

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इस्लाम में महिलाओं की बहुत ऊंची शान का ज़िक्र किया और कहा, "महिला की पहचान और शख़्सियत के बारे में क़ुरआन के अर्थ सबसे ऊंचे और सबसे प्रगतिशील अर्थ हैं।"

आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने, ज़िंदगी और मानव इतिहास में महिला और पुरूष के रोल और दोनों के सबसे ऊंचे दर्जे और आध्यात्मिक ऊंचाई तक पहुंचने की क्षमता के बारे में क़ुरआन मजीद की आयतों की ओर इशारा करते हुए कहा, ये सभी बिंदु उन लोगों की ग़लत समझ के विपरीत हैं जिनके पास धर्म तो है लेकिन उन्हें धर्म की पहचान नहीं हैं या वे लोग हैं जो धर्म की बुनियाद को नहीं मानते।

उन्होंने समाज में महिला अधिकारों के संबंध में क़ुरआन के तर्क को बयान करते हुए बल दिया, "इस्लाम में सामाजिक सरगर्मियों, काम, राजनैतिक गतिविधियों, ऊंचे से ऊंचे सरकारी ओहदों को हासिल करने और दूसरे क्षेत्रों में, मर्द के बराबर औरतों के अधिकार हैं और आध्यात्मकि डगर पर चलने और व्यक्तिगत व सार्वजनिक स्तर पर कोशिश करने में, सभी मैदानों में तरक़्क़ी करने के लिए उनके वास्ते रास्ते खुले हैं।"

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने इस बात की ओर इशारा करते हुए कि पश्चिम का पतनशील कलचर, इस्लाम की नज़र से पूरी तरह रद्द कर देने के क़ाबिल है, कहा कि इस्लाम में महिलाओं की शान की रक्षा और इंतेहाई सरकश और ख़तरनाक यौन इच्छा को कंट्रोल करने के लिए औरत और मर्द के संबंध, औरत और मर्द के पहनावे, औरत के हेजाब और शादी के लिए प्रेरित करने के संबंध में कुछ सीमाएं और हुक्म पाए जाते हैं जो पूरी तरह महिला के स्वभाव और समाज के हितों और ज़रूरतों के मुताबिक़ हैं जबकि पश्चिमी कलचर में निरंकुश व विध्वंसक सेक्शुआलिटी को कंट्रोल करने पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं है। उन्होंने औरत और मर्द में बहुत सारी समानताओं और जिस्म और स्वभाव की वजह से पाए जाने वाले कुछ फ़र्क़ों पर आधारित तत्वों को संतुलित तत्व बताया और कहा कि एक दूसरे के पूरक ये तत्व, मानव समाज को चलाने, इंसान की नस्ल को जारी रखने, सभ्यता की तरक़्क़ी, समाज की ज़रूरतों को पूरा करने और ज़िंदगी जारी रखने में अहम रोल अदा करते हैं।

आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने इस निर्णायक रोल को व्यवहारिक बनाने के लिए, फ़ैमिली के गठन को सबसे अहम काम बताया और कहा कि पश्चिम के ग़लत कलचर में फ़ैमिली की इकाई को भुला दिए जाने के विपरीत, इस्लाम में फ़ैमिली को गठित करने वाले तत्व की हैसियत से औरत, मर्द और बच्चों को निर्धारित और एक दूसरे के प्रति परस्पर अधिकार दिए गए हैं।

उन्होंने अपनी स्पीच के दूसरे भाग में सामाजिक और पारिवारिक रवैये में इंसाफ़ को औरतों का सबसे पहला अधिकार बताया और इस अधिकार को व्यवहारिक बनाने के सिलसिले में सरकार और समाज के सभी लोगों की ज़िम्मेदारी पर बल देते हुए कहा कि सलामती, इज़्ज़त और वेक़ार की रक्षा भी महिला के मूल अधिकारों में से है और पश्चिम की पूंजीवादी व्यवस्था के विपरीत, जो औरत के सम्मान को कुचलती है, इस्लाम महिला के सम्मान पर ख़ास बल देता है।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने क़ुरआन मजीद की ओर से हज़रत मरयम और हज़रत आसिया जैसी दो मोमिन महिलाओं की मिसाल दिए जाने को सभी मोमिन मर्दों और औरतों के लिए आदर्श और महिलाओं की सोच और व्यवहार की अहमियत को प्रतिबिंबित करने वाला बताया और कहा कि एक ही काम के लिए औरतों और मर्दों की समान तनख़्वाह, महिला मुलाज़िम या घर की सरपरस्त औरतों के बीमे, महिलाओं के लिए विशेष छुट्टियों और दसियों दूसरे मसलों जैसे सामाजिक अधिकारों को बिना किसी पक्षपात के व्यवहारिक बनाया जाना चाहिए और उनकी रक्षा की जानी चाहिए।

उन्होंने शौहर की मोहब्बत को घर में महिला का सबसे अहम अधिकार और ज़रूरत बताते हुए कहा कि घर में औरत का एक दूसरा बहुत अहम और बड़ा अधिकार, उसके ख़िलाफ़ किसी भी तरह की हिंसा का न होना और पश्चिम में प्रचलित गुमराहियों से पूरी तरह दूर रहना है जहाँ मर्दों और शौहरों के हाथों औरतों को क़त्ल कर दिया जाता है या उन्हें मारा पीटा जाता है।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने औरत के संबंध में पूंजीवादी और इस्लाम के नज़रिए की तुलना करते हुए कहा कि इस्लाम में औरत को आज़ादी, सलाहित को निखारने और तरक़्क़ी करने का मौक़ा हासिल है जबकि पूंजीवाद की नज़र में औरत और मर्द की पहचान को उलझा दिया गया और महिला के सम्मान और उसकी इज़्ज़त को कुचल दिया गया है। पूंजीवादी व्यवस्था औरत को मनोरंजन, तफ़रीह और यौनेच्छा पूरी करने का एक साधन समझती है और अपराधी गैंग, जिन्होंने हाल ही में अमरीका में बहुत हंगामा मचाया है, इसी सोच का नतीजा है। उन्होंने फ़ैमिली के बिखरने और पारिवारिक रिश्तों में कमी जैसे मुद्दों, कम उम्र लड़कियों का शिकार करने वाले गैंग्स और आज़ादी के नाम पर नाजायज़ संबंध और बेलगाम यौनेच्छा के चलन को पिछली एक दो सदियों में पूंजीवादी कलचर के बड़े गुनाहों में गिनवाया और कहा कि पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था बड़ी मक्कारी से इन कुकर्मों को आज़ादी का नाम देती है और इन चीज़ों को हमारे मुल्क में प्रचलित करने के लिए भी इसी नाम का इस्तेमाल करती है जबकि यह आज़ादी नहीं बल्कि ग़ुलामी है।

आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने, पश्चिम के अपने ग़लत कलचर को दूसरे मुल्कों में निर्यात करने के आग्रह की ओर इशारा करते हुए कहा कि उनका दावा है कि औरत के लिए हेजाब सहित कुछ निर्धारित सीमाएं, उसकी तरक़्क़ी की राह में रुकावट बनेंगी लेकिन इस्लामी गणराज्य ने इस तर्क़ के ग़लत होने को साबित कर दिया और दिखा दिया कि मुसलमान और इस्लामी हेजाब की पाबंद औरत सभी मैदानों में दूसरों से ज़्यादा क़दम बढ़ा सकती और रोल अदा कर सकती है।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने साइंस, खेल, रिसर्च, समाज, स्वास्थ्य, मेडिकल, लाइफ़ इक्सपेक्टेंसी के क्षेत्र में तरक़्क़ी, जेहादी सपोर्ट और क़ाबिले फ़ख़्र शहीदों की बीवियों की ओर से बुनियादी सपोर्ट को ईरान के पूरे इतिहास में महिलाओं की अभूतपूर्व उपलब्धियां बताया और कहा, ईरान पूरे इतिहास में, इतनी महिला वैज्ञानिकों, विचारकों और विद्वानों की तादाद का एक फ़ीसदी भी हासिल नहीं कर सका था जितना इस वक़्त है और यह इस्लामी गणराज्य की देन है जिसने सभी मैदानों में महिलाओं की तरक़्क़ी और विकास का मार्ग समतल किया।

नाइजीरिया के इस्लामिक मूवमेंट के लीडर, शेख इब्राहिम ज़कज़की ने अपने भाषण में शहीदों के बच्चों से कहा कि वे खुदा की राह पर अडिग रहें, जिहाद और विरोध का झंडा थामे रहें, और अपने शहीद माता-पिता के रोशन रास्ते पर पक्के इरादे और भरोसे के साथ चलते रहें।

नाइजीरिया के इस्लामिक मूवमेंट के लीडर, शेख इब्राहिम ज़कज़की ने अपने भाषण में शहीदों के बच्चों से कहा कि वे खुदा की राह पर अडिग रहें, जिहाद और विरोध का झंडा थामे रहें, और अपने शहीद माता-पिता के रोशन रास्ते पर पक्के इरादे और भरोसे के साथ चलते रहें। शहीदों का खून इस्लामिक उम्माह की जागृति, सम्मान और भविष्य की सफलता के लिए एक मज़बूत सहारा है।

नाइजीरियाई शहीदों के परिवारों की मौजूदगी में राजधानी अबुजा में हुए एक समारोह में बोलते हुए, नाइजीरिया के इस्लामिक मूवमेंट के लीडर ने कहा कि शहीदों ने विश्वास, हिम्मत और भगवान के प्रति वफादारी के रास्ते पर अपनी जान कुर्बान कर दी और अब उनके वारिसों की ज़िम्मेदारी है कि वे इस रास्ते पर डटे रहें।

शेख ज़कज़की ने कहा कि दुश्मन हमेशा ज़ुल्म और हिंसा के ज़रिए मानने वालों को भगवान के रास्ते से रोकने की कोशिश करता है।

“शहीद दिवस” मनाते हुए, उन्होंने कहा: “दुश्मन की गोलियां और धमकियां लोगों को डराने के लिए हैं ताकि वे हमारे साथ न आएं। जिसे मौत से डर लगता है, उसके लिए हमारे बीच कोई जगह नहीं है। यह रास्ता उन लोगों का है जो भगवान के लिए मरने से नहीं डरते।”

उन्होंने कहा कि जो लोग हमारे बीच रहते हुए भी शहादत से डरते हैं, उन्हें खुद को अलग कर लेना चाहिए, क्योंकि यह हिचकिचाहट और डर का नहीं, बल्कि यकीन और हिम्मत का मोर्चा है। शेख इब्राहिम ज़कज़की ने कहा कि हम वो नहीं हैं जो दुश्मन को बुलाते हैं कि “आओ और हमें मार डालो,” बल्कि हम भगवान के रास्ते पर मज़बूती से खड़े हैं, भले ही नतीजा शहादत ही क्यों न हो।

सालों की लड़ाई का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा: “हमें क्या डराएगा? गोलियों से? उन्होंने सब कुछ कर दिया जो वे कर सकते थे; लेकिन हम अभी भी खड़े हैं। अब हम डरते नहीं हैं। बल्कि, हम अपने शहीदों की लाइन में शामिल होना चाहते हैं।”

ज़ुल्म करने वालों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि तुम अपनी हद पार कर चुके हो—गोलियां चलाकर, तुमने अपनी असली पहचान दिखा दी है, अब तुम्हारे पास हमें डराने के लिए कुछ नहीं बचा है। जिन शहीदों ने तुम्हारे हाथों अपनों को खोया है, उनके परिवार तुमसे कभी नहीं डरेंगे। अगर दुनिया में कोई है जो नहीं डरता, तो वो शहीदों के परिवार हैं।”

इस्लामिक मूवमेंट के लीडर ने कहा कि सच्ची कामयाबी तब होती है जब कोई इंसान सच्चाई के रास्ते पर मज़बूती से टिका रहता है, फिर उसे दो किस्मत का सामना करना पड़ता है: या तो भगवान के रास्ते में मौत, या शहादत—और दोनों ही भगवान की जीत हैं।

उन्होंने कहा: “अगर कोई इंसान मज़बूती के साथ इस दुनिया से जाता है, तो भी वह कामयाब है, और अगर वह शहीद हो जाता है, तो वह सबसे ऊँचा मुकाम हासिल करता है। यह कुरान का वादा है: सबसे अच्छे में से एक—या तो जीत या शहादत।”

उन्होंने सूरह अस-सफ्फ की आयत 13 पढ़ी: “जीत अल्लाह की तरफ से है और जीत पास है,” और कहा कि यह जीत इस दुनिया की जीत से शुरू होती है और आखिर में जन्नत की हमेशा रहने वाली जीत के साथ खत्म होती है।

शेख ज़कज़की ने कहा: “शहीदों के बच्चे मज़बूती और निडरता की निशानी बनें। उन्हें दुनिया को दिखाना चाहिए कि उनके पिता का खून बेकार नहीं गया। मज़बूती से ज़िंदगी जीना या शहादत तक पहुँचना—दोनों ही अच्छे और कामयाब नतीजे हैं।”

उन्होंने कहा कि आपके कामों में धर्म की झलक दिखनी चाहिए, ताकि जो भी आपको देखे, उसे आपके किरदार में धर्म की खुशबू महसूस हो।

आखिर में उन्होंने कहा कि हर काम में धर्म की पहचान बनो; यही भावना और यही काम करने का तरीका हमें इस दुनिया और आखिरत में कामयाबी दिलाएगा।

इज़राइल जिन ट्रकों को अंदर आने देता है, उनमें ज़्यादातर कमर्शियल सामान होता है, जबकि ग़ज़्ज़ा के लोगों को बेसिक राहत की चीज़ों की ज़रूरत होती है जिन्हे पूरा करने मे आने वाले ट्रक असमर्थ है।

इस्लामिक रेजिस्टेंस मूवमेंट हमास का कहना है कि इज़राइल जिन ट्रकों को ग़ज़्ज़ा में अंदर आने देता है, वे क्वांटिटी और क्वालिटी दोनों के मामले में बेसिक इंसानी ज़रूरतों के मिनिमम स्टैंडर्ड को भी पूरा नहीं करते, जबकि यहां के नागरिक सबसे बुरी इंसानी मुसीबत का सामना कर रहे हैं। हमास के प्रवक्ता हाज़िम क़ासिम ने एक बयान में कहा कि इज़राइल जिन ट्रकों को अंदर आने देता है, उनमें से ज़्यादातर कमर्शियल सेक्टर के लिए होते हैं, जबकि ग़ज़्ज़ा के लोगों को तुरंत बेसिक राहत सप्लाई की ज़रूरत होती है, खासकर जब सर्दी और भारी बारिश आ रही हो। हाज़िम क़ासिम ने साफ़ किया कि मौजूदा मदद "शेल्टर की ज़रूरतों" को पूरी करने में पूरी तरह से नाकाम है।

उन्होंने कहा कि अभी के शेल्टर और टेंट रहने लायक नहीं हैं और बहुत ज़्यादा ठंड नहीं झेल सकते। उन्होंने कहा कि हमास ने जनवरी सीज़फ़ायर और शर्म अल-शेख समझौते के तहत मदद के प्रोटोकॉल में पहले ही मांग की थी कि आम लोगों की तकलीफ़ कम करने के लिए मोबाइल होम या शेल्टर बनाए जाएं। हाज़िम क़ासिम ने संबंधित देशों और बिचौलियों से कहा कि वे तूफ़ान आने से पहले शेल्टर का तुरंत और गंभीरता से इंतज़ाम करें। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर ऐसा नहीं हुआ, तो पिछले सालों के सर्दियों के तूफ़ानों के दौरान शेल्टर में जो दुखद नज़ारे देखे गए थे, वही फिर से होंगे। इज़राइली हमले में अब तक 238,000 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी मारे गए हैं और घायल हुए हैं।