
رضوی
कर्बला के शहीदो का चेहलूम
२० सफर सन् ६१ हिजरी कमरी, वह दिन है जिस दिन हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों को कर्बला में शहीद कर दिया गया उसी की याद में चेहलूम मानाने असीराने कर्बला आए आज उन्हें शहीदों की याद में ज़ायरीन कर्बला की तरफ चेहलूम मनाने जा रहे हैं।
२० सफर सन् ६१ हिजरी कमरी, वह दिन है जिस दिन हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों को कर्बला में शहीद हुए चालिस दिन हुआ था। पूरी सृष्टि चालिस दिन से हज़रत इमाम हुसैन के शोक में डूबी हुई थी।
जिन लोगों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता करने की आवाज़ सुनी परंतु उनकी सहायता के लिए नहीं गये ऐसे लोगों को अपना वचन तोड़ने की पीड़ा चालिस दिनों से सता रही थी। चालिस दिन हो रहे थे जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कारवां में जीवित बच जाने वाले बच्चों और महिलाओं का शोक उनके हृदयविदारक दुःख का परिचायक था।
चालिस दिन के बाद कर्बला का लुटा हुआ कारवां शाम अर्थात वर्तमान सीरिया से दोबारा कर्बला पहुंचा है। इस कारवां में वे महिलाएं और बच्चे थे जिनके दिल टूट हुए थे और उन्हें पवित्र नगर मदीना भी लौटना था। जब यह कारवां शाम अर्थात वर्तमान सीरिया से दोबारा कर्बला पहुंचा तो उसे दसवीं मोहर्रम के दिन की घटनाओं की याद आ गयी। महिलाओं और बच्चों की रोने की आवाज़ कर्बला के मरुस्थल में गूंजने लगी।
दसवीं मोहर्रम ही वह दुःखद दिन था जब हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके ७२ निष्ठावान साथियों को तीन दिन का भूखा- प्यासा शहीद कर दिया गया था। हर माता अपने शहीद की क़ब्र पर विलाप कर रही थी। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ज्येष्ठ सुपुत्र हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम शहीदों की क़ब्रों को देख रहे थे।
उन्हें याद आया कि जब उनको इन शहीदों विशेषकर अपने पिता के घायल शरीर को कर्बला रेत पर छोड़कर जाना पड़ा था तो उनका मन किस सीमा तक दुःखी था परंतु उन्हें उनकी फूफी हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने सांत्वनापूर्ण वाक्यों से ढारस बंधाई थी और कहा था" जो कुछ तुम देख रहे हो उससे बेचैन मत हो।
ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मानने वालों के एक गुट से वचन लिया है कि वह बिखरे हुए और खून से लथपथ शरीर के अंगों को एकत्रित करेगा और दफ्न करेगा। वह गुट इस धरती पर तुम्हारे पिता की क़ब्र पर ऐसा चिन्ह लगा देगा जो समय बीतने के साथ न तो नष्ट होगा और न ही मिटेगा। अनेकेश्वरवादी और पथभ्रष्ठ लोग उसे मिटाने का प्रयास करेंगे परंतु उनका प्रयास तुम्हारे पिता की और प्रसिद्धि का कारण बनेगा"हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की भविष्यवाणी पूर्णरूप से सही थी।
इतिहास में आया है कि कर्बला के अमर शहीदों के पवित्र शवों को बनी असद क़बीले के लोगों ने दफ्न किया। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का शोकाकुल परिवार शहीदों के अन्य परिजनों के साथ तीन दिन तक कर्बला में रुका रहा और उसने अपने प्रियजनों का शोक मनाया।
इतिहास में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के एक साथी जाबिर बिन अब्दुल्लाह, जो नेत्रहीन थे, बनी हाशिम के क़बीले के कुछ व्यक्तियों के साथ पवित्र मदीना नगर से कर्बला इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र के दर्शन के लिए आये थे। उस समय जब इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने जाबिर को देखा तो कहा" हे जाबिर ईश्वर की सौगन्ध यहीं पर हमारे पुरुषों की हत्या की गई, हमारी महिलाओं को बंदी बनाया गया और हमारे ख़ैमों को जलाया गया"जाबिर ने अपने साथियों से कहा कि वे उन्हें हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र के पास ले चलें।
जाबिर ने अपने हाथ को हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र पर रखा और इतना रोये कि बेहोश हो गये। जब होश आया तो उन्होंने कई बार हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का नाम अपनी ज़बान से लिया और उन्हें पुकार कर कहा" मैं गवाही देता हूं कि आप सर्वश्रेष्ठ पैग़म्बर और सबसे बड़े मोमिन के सुपुत्र हैं। आप सबसे बड़े सदाचारियों की गोदी में पले हैं।
आपने पावन जीवन बिताया और इस दुनिया से पवित्र गये और मोमिनों के हृदयों को अपने वियोग से दुःखी व क्षुब्ध कर दिया तो आप पर ईश्वर का सलाम हो"हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह भी, जिनकी दुख में डूबी आवाज़ दिलों को रुला रही थी, अपने प्राणप्रिय भाई हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ब्र के निकट बैठ गयीं और धीरे- धीरे अपने भाई से बात करना और विलाप करना आरंभ किया।
हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह का हृदय दुःखों से भरा हुआ था परंतु वे कर्बला के महाआंदोलन के बाद की अपनी ज़िम्मेदारियों के बारे में सोच रही थीं। कर्बला की अमर घटना को शताब्दियों का समय बीत चुका है परंतु यह घटना आज भी चमकते सूरज की भांति अत्याचार व अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का मार्ग दिखाती है।
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन के अमर होने का एक कारण उसकी पहचान व स्वरूप है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने महाआंदोलन के आरंभ से कुछ सिद्धांतों को प्रस्तुत किया जिसे हर पवित्र प्रवृत्ति स्वीकार करती और उसकी सराहना करती है।
आज़ादी, न्यायप्रेम और अत्याचार से संघर्ष सदैव ही इतिहास में पवित्र सिद्धांत रहे हैं। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन का लक्ष्य विशुद्ध इस्लाम को मिलावटी इस्लाम से अलग करना था। पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के पश्चात अधिकांश शासक इस्लामी शिक्षाओं को अपने हितों की दिशा में प्रयोग करने का प्रयास करते थे। वे खोखला और फेर बदल किया हुआ इस्लाम चाहते थे ताकि अनभिज्ञ लोगों पर सरलता से शासन कर सकें।
इसी कारण अमवी शासक और उनके बाद की अत्याचारी सरकारें अपनी इच्छा के अनुसार इस्लाम की व्याख्या और उसका प्रचार- प्रसार करती थीं। हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने लोगों को दिग्भ्रमित करने में बनी उमय्या की भूमिका का विश्लेषण करते हुए बड़े गूढ बिन्दु की ओर संकेत किया और कहा" बनी उमय्या ने लोगों के लिए ईमान की पहचान का मार्ग खुला रखा परंतु अनेकेश्वरवाद की पहचान का मार्ग बंद कर दिया।
ऐसा इसलिए किया कि जब वह लोगों को अनेकेश्वरवाद के लिए बुलाए तो लोगों को अनेकेश्वरवाद की पहचान ही न रहे"बनी उमय्या ने नमाज़, रोज़ा और हज जैसे धार्मिक दायित्वों को खोखला करने का बहुत प्रयास किया ताकि लोग इन उपासनाओं के केवल बाह्यरूप पर ध्यान दें। क्योंकि यदि लोग इस्लाम की जीवन दायक शिक्षाओं से अवगत हो जाते तो बनी उमय्या के अत्याचारी शासक अपनी सरकार ही बाक़ी नहीं रख सकते थे। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अनुसार सत्ता उच्च मानवीय लक्ष्यों को व्यवहारिक बनाने का साधन है।
इस आधार पर आप बल देकर कहते हैं कि मैंने सत्ता की प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि ईश्वरीय धर्म के चिन्हों को पहचनवाने के लिए आंदोलन किया। उस अज्ञानता व घुटन के काल में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़िम्मेदारी यह थी कि वे अमवी शासकों की वास्तविकताओं को स्पष्ट करें और इस्लामी क्षेत्रों को इस प्रकार के अयोग्य, और भ्रष्ठ शासकों व लोगों से मुक्ति दिलायें। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मानना था कि समाज की गुमराही, धार्मिक शिक्षाओं से दूरी का परिणाम है।
क्योंकि महान ईश्वर से दूरी मनुष्य को ऐसी घाटी में पहुंचा देती है जहां वह स्वयं से बेगाना हो जाता है। यह वह वास्तविकता है जो हर समय और हर क्षेत्र में जारी है। जिस समय लोग अत्याचारी व भ्रष्ठ शासकों का अनुसरण आरंभ कर देंगे उस समय समाज अपने स्वाभाविक व प्राकृतिक मार्ग से हट जायेगा।
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसे महान व्यक्ति इस बात को नहीं देख सकते थे कि ग़लत लोग, लोगों को ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की दासता स्वीकार करने पर बाध्य करें। जब इस्लाम प्रतिष्ठा, स्वतंत्रता और न्याय का धर्म है तो वह किस प्रकार मनुष्यों के अपमान व दासता को स्वीकार करे और अत्याचार के मुक़ाबले में मौन धारण करे? हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने दर्शा दिया कि जहां पर धर्म का आधार ख़तरे में है, जहां अत्याचार से सांठ- गांठ कर लेना मानवता एवं उच्च मानवीय मूल्यों की हत्या समान है वहां मौन धारण करना ईश्वरीय व्यक्तियों की शैली नहीं है।
हज़रत इमाम हुसैन के महाआंदोलन के अमर होने का एक कारण हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम, जनाब ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा और दूसरे इमामों तथा महान हस्तियों की दूरगामी सोच एवं इस महाआंदोलन के लक्ष्यों को पहचनवाने हेतु उनके प्रयास हैं। बनी उमय्या ने अफवाहें फैलाकर, संदेह उत्पन्न करके और दुष्प्रचार के दूसरे मार्गों का प्रयोग करके वास्तविकता को छिपाने का प्रयास किया और कर्बला की एतिहासिक घटना में असमंजस व संदेह उत्पन्न करने का प्रयास किया परंतु उन सबका प्रयास कर्बला की एतिहासिक घटना के पहले दिन से ही परिणामहीन रहा। क्योंकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन का संदेश पहुंचाने वाले विवेकशील और समय की पूर्ण पहचान रखने वाले लोग थे। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबदीन अलैहिस्सलाम और हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के विभिन्न स्थानों पर दिये जाने वाले एतिहासिक भाषणों ने यज़ीदियों के चेहरों पर पड़ी नक़ाब को हटा दिया और उन्हें बुरी तरह अपमानित कर दिया।
इतिहासकारों ने लिखा है कि हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह की आवाज़ का प्रभाव ऐसा था कि सांस सीनों में रूक जाती थी। उनके भाषण की शैली ऐसी थी कि कूफा नगर के बड़े- बूढे कहते थे कि धन्य है ईश्वर! मानो अली की आवाज़ है जो उनकी बेटी ज़ैनब के गले से निकल रही है। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने कूफावासियों को संबोधित करते हुए कहा" ईश्वर का आभार व्यक्त करती हूं और अपने नाना मोहम्मद, चयनित और पवित्र लोगों पर सलाम भेजती हूं।
हे कूफे के लोगों! हे धोखेबाज़ो और बेवफा लोग तुम लोग उस महिला की भांति हो जो रूई से धागा बुनती है और फिर धागे को रूई बना देती है। तुमने अपने ईमान को अपने जीवन और पाखंड का साधन बना रखा है और तुम्हारी दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारे अंदर आत्ममुग्धता, झूठ, अकारण शत्रुता, तुच्छता और दूसरों पर आरोप लगाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। तुम किस तरह अंतिम पैग़म्बर के पौत्र और स्वर्ग के युवाओं के सरदार की हत्या के कलंक को स्वयं से मिटाओगे। तुम लोगों ने उसकी हत्या की है जो उन लोगों के लिए शरण था जिनके पास कोई शरण नहीं थी, वह परेशान लोगों का सहारा और धर्म व ज्ञान का स्रोत था।
हुसैन मानवता का सत्य की ओर मार्गदर्शन करने वाले, राष्ट्र व समुदाय के अगुवा और ईश्वर के प्रतिनिधि थे। उनके माध्यम से तुम्हारा मार्गदर्शन होता था। उनकी छत्रछाया में तुम्हें कठिनाइयों में आराम मिलता था और उनके प्रकाश से तुम्हें गुमराही से मुक्ति मिलती थी। जान लो कि तुमने बहुत बुरा पाप किया है जिसके कारण तुम ईश्वर की दया से दूर हो गये हो। तुम्हारा प्रयास विफल हो गया है।
ईश्वर के दरबार से तुम्हारा संपर्क टूट गया है और तुमने अपने सौदे में घाटा उठाया है। तुम्हारे पास अब पछताने और हाथ मलने के अतिरिक्त कुछ नहीं है, तुम ईश्वरीय क्रोध के पात्र बन गये हो और तुम्हें अपमान का सामना है" हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के स्पष्ट करने वाले भाषणों के साथ हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का जागरुक भरा भाषण बनी उमय्या के लक्ष्यों के मार्ग की बाधा बन गया।
पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की होशियारी व जानकारी ने आशूरा की एतिहासिक घटना को इतिहास की अमर घटना के रूप में सुरक्षित रखा। पैग़म्बरे इस्लाम के वंश से पवित्र इमामों ने शत्रुओं के प्रचारों और वास्तविकताओं में फेर -बदल करने हेतु उनके प्रयासों को रोकने और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन को अनुचित दर्शाने हेतु शत्रुओं के प्रयासों को विफल बनाने के लिए इस महाआंदोलन के लक्ष्यों को बयान किया। इमामत का महत्व और उसके स्थान को बयान करना तथा समाज में योग्य व भला नेतृत्व, बनी उमय्या के वास्तविक चेहरों को पहचनवाना और उनके अपराधों को स्पष्ट करना इमामों का ईश्वरीय दायित्व था। कर्बला की हृदयविदारक घटना और शहीदों की याद में शोक सभाओं का आयोजन, हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके निष्ठावान साथियों पर पड़ने वाली विपत्तियों पर रोना भी प्रभावी शैली थी जिसका पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने सहारा लिया ताकि कर्बला की अमर व एतिहासिक घटना को फेर- बदल एवं भूलाये जाने से सुरक्षित रखा जा सके।
इस आधार पर कर्बला का महाआंदलन इस्लामी जगत की भौगोलिक सीमा में सीमित नहीं रहा और वह विश्व के स्वतंत्रता प्रेमियों के लिए आदर्श पाठ बन गया। इस प्रकार से कि ग़ैर मुसलमानों ने भी इस महाआंदोल से प्रेरणा ली है। यह वही पैग़म्बरे इस्लाम के वचन का व्यवहारिक होना है जिसमें आपने कहा है कि हुसैन की शहादत के बाद मोमिनों के हृदयों में एक आग जल उठेगी जो कदापि ठंडी नहीं होगी और न बुझेगी
ग़ैबत ए क़ुबरा मे उम्मत का मार्गदर्शन
बारहवें इमाम (अ) के ग़ायब होने के बाद, उम्मत के मार्गदर्शन और इमामत की ज़िम्मेदारी किसकी है? क्या कोई व्यक्ति या एक से अधिक व्यक्ति उम्मत पर विलायत रखता है? अगर विलायत रखता है, तो उसका दायरा क्या है?
एक बहुत ही महत्वपूर्ण और बुनियादी विषय जिस पर ग़ैबत के दौर में ध्यान देना चाहिए, वह है इस्लामी समुदाय के मार्गदर्शन और नेतृत्व का मसला।
यह बात साफ़ है कि इस्लाम के ज़ूहूर से ही, इमामत और मार्गदर्शन का सवाल बना हुआ है। पैग़म्बर मुहम्मद (स) और उनके बाद मासूम इमामों ने न केवल इस्लाम धर्म और अहकाम और उसकी शिक्षाओं को समझाया, बल्कि वे अपने समुदाय के इमाम, सुधारक और नेता भी रहे। इसका मतलब यह है कि सभी मुसलमानों पर यह ज़िम्मेदारी है कि वे उनके आदेशों का पालन करें, व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों मामलों में, और किसी भी शिया मुसलमान को इस बात पर कोई शक नहीं होना चाहिए।"
प्रश्न यह है: बारहवें इमाम (अ) के ग़ैबत ए क़ुबरा मे जाने के बाद उम्मत के मार्गदर्शन और इमामत के लिए कौन ज़िम्मेदार है? क्या कोई एक व्यक्ति या एक से अधिक व्यक्ति उम्मत पर विलायत रखता है? अगर विलायत रखता है तो उसका दायरा क्या है?
इस मूलभूत प्रश्न के उत्तर में, "विलायत ए फ़क़ीह" की चर्चा लंबे समय से होती रही है।
विलायत ए फ़क़ीह की अवधारणा
विलायत शब्द का मूल «वली» है, जिसका मतलब है किसी चीज़ के साथ कुछ और जुड़ना। 1, जहां उनके बीच एक रिश्ता होता है। इसलिए इसे दोस्ती, मदद और पालन-पोषण के अर्थों में भी इस्तेमाल किया जाता है।
इसका सबसे महत्वपूर्ण मतलब होता है किसी चीज़ या व्यक्ति की देखरेख और कामकाज संभालना। इसी अर्थ में «वली» वह होता है जो दूसरों के कामों की ज़िम्मेदारी लेता है और उनका प्रबंधन करता है। यही बात जब «विलायत ए फ़क़ीह» की होती है, तो इसका मतलब होता है कि फ़क़ीह इस ज़िम्मेदारी को निभाता है।
फ़क़ीह शब्द का मूल «फ़िक़्ह» है, जिसका मतलब होता है समझ और ज्ञान, खासकर धार्मिक ज्ञान। 2 «फ़क़ीह» वह व्यक्ति होता है जिसे इस्लामी नियमों और शिक्षा की पूरी जानकारी होती है और जो इन विषयों का विशेषज्ञ होता है। इस ज्ञान के आधार पर वह कुरआन और इस्लामी रिवायतों से व्यक्तिगत और सामाजिक मामलों में अल्लाह का हुक्म निकाल सकता है।
विलायत ए फ़क़ीह का इतिहास
कुछ लोग सोचते हैं कि «विलायत ए फ़क़ीह» एक नया विचार है और इसका इस्लामी फ़िक़्ह या धार्मिक विद्वानों की परंपरा में कोई पुराना आधार नहीं है, और यह सिर्फ़ इमाम ख़ुमैनी (रا) की राजनीतिक सोच से शुरू हुआ है। लेकिन यह एक बड़ी भूल है, जो फ़िक़्ह और मासूम इमामों की शिक्षाओं की अनजाने में न समझने की वजह से पैदा होती है।
विलायत ए फ़क़ीह की जड़ें मासूम इमामों के बयान में मिलती हैं। उन महान शख्सियतों ने धार्मिक और सामाजिक ज़रूरतों की वजह से, फ़ुक़्हा को कुछ विशेष अधिकार और नेतृत्व की अनुमति दी है। और उनके बाद से, इस्लाम मतो में भी विलायत ए फ़क़ीह का विचार लगातार बना रहा है। हम इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है।
शेख मुफीद (मृ. ४१३ हिजरी), जो शिया धर्म के बड़े फ़क़ीहों में से हैं, कहते हैं:
जब कोई न्यायप्रिय सुल्तान (जो कि इमाम मासूम (अ) है) मौजूद नहीं होता, तब न्यायप्रिय, समझदार और विद्वान फ़क़ीहों को वही जिम्मेदारी संभालनी चाहिए जो सुल्तान के कर्तव्य होते हैं। 3
शेख तूसी (मृ. ४६० हिजरी), जिन्हें शेख़ुत ताएफ़ा (शिया समुदाय के बड़े विद्वान) कहा जाता है, कहते हैं:
लोगों के बीच न्याय करना, सज़ा देना और विवाद सुलझाना केवल उसी व्यक्ति के लिए संभव है जिसे सच्चे सुल्तान (मासूम इमाम) की तरफ़ से अनुमति मिली हो। जब इमाम अपने आप ऐसा नहीं कर सकते, तो यह ज़िम्मेदारी बिना किसी संदेह के शिया फ़क़ीहों को सौंपी जाती है। 4
मुहक़्क़िक़ सानी, जो मुहक़्क़िक़ करकी के नाम से मशहूर हैं (मृ. ९४० हिजरी), कहते हैं:
इमामी फ़क़ीहों में यह सहमति है कि एक न्यायप्रिय शिया फ़क़़ीह जो फ़तवा देने के लिए सभी योग्यताएँ रखता हो, वह ग़ैबत के दौरान उन सभी मामलों में जिनमें वह इमाम के प्रतिनिधि बन सकता है, इमामों का वैध़ नायक और प्रतिनिधि होता है। 5
मुल्ला अहमद नराक़ी, जिन्हें फाज़िल नराक़ी के नाम से जाना जाता है (मृ. १२४४ हिजरी), कहते हैं:
जिस भी चीज़ पर पैग़म्बर (स) और इमाम (अ), जो इस्लाम के शासक और रक्षाकर्ता हैं, की विलायत और अधिकार होता है, उसी तरह फ़क़ीह के पास भी वही विलायत और अधिकार होता है, जब तक कि कोई ऐसा कारण न हो जो इसके उलट हो। 6
आयतुल्लाह गुलपाएगानी (र) जो आधुनिक समय के बड़े फ़क़ीह हैं, कहते हैं:
फ़क़ीहों के अधिकार का दायरा बहुत व्यापक होता है... योग्य विलायत-ए-फकीह का दायरा समाज की अध्यक्षता और संचालन से संबंधित सभी मामलों में वही होता है जो इमामों के अधिकार होते हैं, सिवाय उन मामलों के जहाँ किसी स्पष्ट दलील की वजह से यह दायरा कम या अलग हो। 7
ये केवल कुछ उदाहरण हैं शिया फ़क़ीहों के विभिन्न दौरों के विचारों के। इसके अलावा सैंकड़ों और साफ़ उदाहरण मौजूद हैं जो दिखाते हैं कि विलायत ए फ़क़ीह का मसला हमेशा से शिया उलमा के विचारों और बातों में रहा है और सभी ने इसे स्वीकार किया है।
इस्लामी क्रांति के संस्थापत हज़रत इमाम ख़ुमैनी (र) ने अपनी गहरी समझ और दूरदर्शिता से इस इस्लामी और धार्मिक सिद्धांत को खुलकर पेश किया और इस आधार पर इस्लामी नज़रिये को स्थापित किया। उन्होंने इसे मुस्लिम समाज में लागू किया और इसे ग़ैबत के समय में दीन के शासन का सबसे पूर्ण रूप बताया।
श्रृंखला जारी है ---
इक़्तेबास : आयतुल्लाह साफ़ी गुलपाएगानी द्वारा लिखित किताब "पासुख दह पुरशिसे पैरामून इमामत " से (मामूली परिवर्तन के साथ)
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१. मुफ़रेदात-ए-राग़िब, शब्द «वली»
२. लेसान उल अरब, भाग १३, शब्द «फ़िक़्ह»
३. अल मुक़्नेआ, पेज ६७५
४. अल निहाया व नुक़्तेहा, भाग २, पेज १७
५. रसाइल, मुहक्किक करकी, भाग १, पेज १४२
६. अवाएदुल अय्याम, पेज १८७ - १८८
७. अल हिदाया एला मन लहुल विलाया, पेज ७९
जब फ़ैमिली बिखर जाती है तो समाज में बुराइयां अपनी जड़ें फैला देती हैं
एक स्थिर और मजबूत परिवार ही स्वस्थ समाज की नींव होता है। जब परिवारों में एकता, प्रेम और सहयोग की भावना कमजोर पड़ती है, तो समाज में अराजकता, अनैतिकता और अपराध जैसी बुराइयाँ फैलने लगती हैं। परिवार वह पहला स्कूल है जहाँ इंसान को संस्कार, अनुशासन और मानवीय मूल्य सिखाए जाते हैं।
हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने फरमाया,एक स्थिर और मजबूत परिवार ही स्वस्थ समाज की नींव होता है। जब परिवारों में एकता, प्रेम और सहयोग की भावना कमजोर पड़ती है, तो समाज में अराजकता, अनैतिकता और अपराध जैसी बुराइयाँ फैलने लगती हैं। परिवार वह पहला स्कूल है जहाँ इंसान को संस्कार, अनुशासन और मानवीय मूल्य सिखाए जाते हैं।
औरत के हिजाब करने में, औरत के अपने लिए हिजाब को अपनाने में, औरत की इज़्ज़त और एहतेराम है।हिजाब औरत के लिए सुरक्षित माहौल बनाता है।
पश्चिमी सभ्यता में इस सीमा को तोड़ दिया गया है। और अब भी दिन ब दिन इस सीमा को लांघने का क्रम जारी है और इसको अलग अलग नाम भी देते जा रहे हैं, इस मसले ने सबसे पहला ख़राब असर यह पैदा किया कि परिवार और घर उजड़ गया है, फ़ैमिली की बुनियाद कमज़ोर हो गई।
जब किसी समाज में फ़ैमिली उजड़ जाए तो उस वक़्त उस समाज में बुराइयां अपनी जड़ें फैलाना शुरू कर देती हैं।
ज़ियारते अरबईन; इमाम हुसैन (अ) के प्रति प्रेम का सच्चा पैमाना
ज़ियारत अरबईन कोई सामान्य मुस्तहब कार्य नहीं है, बल्कि आस्था, ईमानदारी और सत्य के मार्ग के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतीक है। जो कोई भी जाने में सक्षम है, लेकिन बिना किसी कारण के खुद को इससे वंचित रखता है, वह वास्तव में प्रेम और निष्ठा व्यक्त करने के एक अद्वितीय अवसर और अवसर को गँवा रहा है।
अरबईन हुसैनी न केवल सय्यद उश-शोहदा (अ) और उनके वफ़ादार साथियों की शहादत का चालीसवा दिन का स्मरणोत्सव है, बल्कि दुनिया भर से हुसैन (अ) प्रेमियों का सबसे बड़ा समागम भी है। एक ऐसा समागम जो भौगोलिक, भाषाई और जातीय सीमाओं को मिटा देता है और दिलों को एक शाश्वत वाचा में बाँध देता है।
यह दिन आशूरा के स्कूल के साथ वाचा को नवीनीकृत करने और इमाम हुसैन (अ) के प्रति प्रेम में ईमानदारी के पैमाने को परखने का अवसर है; जिन्होंने सत्य और न्याय के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। अहल-अल-बैत (अ.स.) की नज़र में, हुसैन (अ.स.) की तीर्थयात्रा न केवल एक आध्यात्मिक यात्रा है, बल्कि आस्था की परीक्षा और व्यावहारिक एवं हार्दिक निष्ठा का मानक भी है।
अल-सादिक (अ.स.) ने कहा: "जो कोई हुसैन (अ.स.) की क़ब्र पर नहीं गया और यह दावा करता है कि वह मरने तक शिया नहीं है, वह हमारे लिए शिया नहीं है, और अगर वह जन्नत वालों में से थे, तो वह जन्नत वालों के बीमारों में से थे।" (कमाल अल-ज़ियारत, पृष्ठ 193)
इमाम जाफ़र सादिक (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कहते हैं:
"जो कोई इमाम हुसैन (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की क़ब्र पर नहीं गया और यह सोचे कि वह हमारे शिया हैं और उसी अवस्था में मर गया, वह हमारा शिया नहीं है; और अगर वह जन्नत वालों में से भी है, तो वह जन्नत वालों का मेहमान है।"
इससे यह स्पष्ट होता है कि केवल प्रेम का इज़हार ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि इमाम के प्रति व्यावहारिक और सचेत लगाव आवश्यक है, और तीर्थयात्रा इस लगाव का सबसे प्रमुख प्रकटीकरण है।
अल-बाकिर (अ.स.) ने कहा: "अगर लोगों को पता होता कि इमाम हुसैन (अ.स.) की तीर्थयात्रा में क्या पुण्य है, तो वे लालसा से मर जाते, और उनकी आत्माएँ लालसा के साथ उससे कट जातीं।" (कामिल अल-ज़ियारत, पृष्ठ 142)
इमाम मुहम्मद अल-बाकिर (अ.स.) इस लगाव की गहराई का वर्णन इस प्रकार करते हैं:
"अगर लोगों को पता होता कि इमाम हुसैन (अ.स.) की तीर्थयात्रा में क्या पुण्य है, तो वे तीर्थयात्रा के जुनून में अपनी जान दे देते, और उस लालसा में उनकी साँसें कट जातीं।"
इससे पता चलता है कि तीर्थयात्रा का पुण्य भौतिक मानकों और मानवीय अवधारणाओं से कहीं ऊँचा है; एक ऐसा खजाना जिसका स्वाद केवल वे प्रेमी ही ले सकते हैं जो इस मार्ग पर चलते हैं।
राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक हमले का मुकाबला आज समाज की प्राथमिकता हैं
इमाम ए जुमआ यज़्द ने कहां, जो कि प्रांत में सर्वोच्च धार्मिक नेता भी हैं ने 12-दिवसीय इजरायल-हमास युद्ध के दौरान ईरान की भूमिका के परिणामों और उससे उत्पन्न आध्यात्मिक परिवर्तनों का वर्णन करते हुए राष्ट्रीय एकता और दुश्मन के सांस्कृतिक हमले का मुकाबला करने पर ज़ोर दिया।
इमाम ए जुमआ यज़्द ने कहां, जो कि प्रांत में सर्वोच्च धार्मिक नेता भी हैं ने 12-दिवसीय इजरायल-हमास युद्ध के दौरान ईरान की भूमिका के परिणामों और उससे उत्पन्न आध्यात्मिक परिवर्तनों का वर्णन करते हुए राष्ट्रीय एकता और दुश्मन के सांस्कृतिक हमले का मुकाबला करने पर ज़ोर दिया।
उन्होंने कहा कि इस घटना ने दुश्मन के नकारात्मक प्रचार और मीडिया तथा सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाई गई गलत धारणाओं को नष्ट कर दिया जो एक बड़ी उपलब्धि है। उन्होंने इस आध्यात्मिक परिवर्तन के प्रति सामूहिक जिम्मेदारी को आवश्यक बताया और समाज में क्रांति के विभिन्न पहलुओं को समझाने पर बल दिया।
आयतुल्लाह नासिरी ने दुश्मनों द्वारा ईरान को विभाजित करने और विभिन्न जातीय समूहों के बीच फूट डालने की योजनाओं का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं।
उन्होंने कहा कि पश्चिम का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रों को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करना है और वे यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि सभी समस्याओं का समाधान पश्चिम पर निर्भरता में है।
उन्होंने यह भी कहा कि दुश्मन इमाम मेहदी की अवधारणा के विरोध में हैं और इस विश्वास को समाज में फैलने से रोकने की योजना बना रहे हैं। अंत में, उन्होंने सांस्कृतिक अधिकारियों से इस्लामी मूल्यों और इमाम मेहदी की शिक्षाओं को बढ़ावा देने के लिए गुणवत्तापूर्ण सामग्री तैयार करने का आग्रह किया।
ईरान ने गाज़ा में नरसंहार रोकने के लिए तत्काल कार्रवाई की मांग की
ईरानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने गाज़ा में पत्रकारों पर इजरायली हमले के जवाब में वैश्विक समुदाय से जायोनी सरकार के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की मांग की है।
ईरानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नसरुल्लाह कानानी ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से आग्रह किया है कि वह गाज़ा में इजरायली सरकार द्वारा किए जा रहे नरसंहार को रोकने के लिए तत्काल और प्रभावी कदम उठाए।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर जारी बयान में उन्होंने कहा कि इजरायली सेना ने गाजा शहर में अल-शिफा अस्पताल के बाहर लगे मीडिया टेंट पर जानबूझकर हवाई हमला किया है ।
जिसमें अलजज़ीरा के पूरे कर्मचारियों को शहीद कर दिया गया। हमले में मारे गए लोगों में अलजज़ीरा अरबी के प्रसिद्ध रिपोर्टर अंस अलशरीफ़, मोहम्मद कारक़ा, फोटोग्राफर इब्राहिम ज़ाहिर और मोहम्मद नौफल शामिल थे। इस हमले में दो अन्य लोग भी मारे गए।
प्रवक्ता ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चेतावनी दी कि हर संवेदनशील इंसान का न्यूनतम कर्तव्य है कि वह इन अत्याचारों की शब्दों में निंदा करे, लेकिन अब दुनिया को इस दर्दनाक नरसंहार को रोकने और अपराधियों को सजा दिलाने के लिए ठोस कार्रवाई करनी होगी।
अरबईन शियो को विश्व मे परिचित कराने का सबसे बड़ा मीडिया अभियान है
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मूसवी नेजाद ने कहा: आज अरबईन वॉक एक व्यापक और ताकतवर मीडिया है जो इस्लामी समृद्ध संस्कृति और शियो के पहचान के पहलुओं को दुनिया के सामने पेश करती है।
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन सय्यद अमीन मूसवी नेजाद ने हौज़ा न्यूज एजेंसी से बातचीत में कहा: इमाम हुसैन (अ) के अरबईन की पैदल यात्रा इस बेमिसाल गर्मी में भी उनकी गहरी मुहब्बत और अहले-बैत (अ) के प्रति वफादारी को दर्शाती है। इमाम हसन अस्करी (अ) ने इसे मोमिन की निशानी में से एक माना है। यह एक बहुत ही फज़ीलत वाली ज़ियारत है। हदीसों में है कि जो भी ज़ियारत करने वाला इस रोशन रास्ते पर हर एक क़दम उठाता है, उसके लिए एक नेकी लिखी जाती है और उसका एक गुनाह मिटा दिया जाता है; हर एक कदम का सवाब हज और उमरा के बराबर होता है। एक दूसरी हदीस में है कि खुदा अरबईन की ज़ियारत करने वालों पर फ़ख्र और मुबाहात करता है। ये सारी हदीसे अरबईन की ज़ियारत की बढ़ती महत्ता को दर्शाती हैं।
मदरसा ए इल्मिया शहीद अव्वल (र) क़ुम के निदेशक ने कहा: आयतुल्लाहिल उज़्मा मिर्ज़ा जवाद आगा मलकी तबरेज़ी (र) ने अपनी किताब "अल-मुराक़िबात" में, पाँच निशानों वाले हदीस का हवाला देते हुए जो अरबईन की ज़ियारत को मोमिन की निशानी बताती है; उन्होंने कहा कि जो इंसान खुद की निगरानी करता है, उस पर ज़रूरी है कि अरबईन के दिन को अपने लिए ग़म और शोक का दिन बनाए और कोशिश करे कि शहीद इमाम की हरम मे ज़ियारत करे; भले ही ये उसके पूरे जीवन में केवल एक बार हो।
उन्होंने आगे कहा: आजकल अरबईन की पैदल यात्रा एक व्यापक और शक्तिशाली माध्यम बन गई है जो इस्लामी समृद्ध संस्कृति और शियाो की पहचान के पहलुओं को दर्शाती है। यह इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन और संघर्ष को पूरी दुनिया के सामने पेश करती है; एक ऐसा आंदोलन जो शियो की पहचान का असली परिचायक है।
हौज़ा ए इल्मिया के शिक्षक ने कहा: आयतुल्लाहिल उज़्मा मकारिम शिराज़ी ने फरमाया है कि पैदल चलना, यह अरबईन वॉक दुनिया में बहुत प्रभाव डालती है और इस्लामी और शियावी दुनिया के लिए एक बेहतरीन प्रचार का माध्यम है; यह उन में से एक बहुत अच्छा दमदार प्रचारक है।
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन सय्यद अमीन मूसवी नेजाद ने आगे कहा: अरबईन वॉक एक तरह का नुदबा (रोना-धोरना) भी है, जो हक़ के हुक्मरान यानी हजरत वली अस्र (अ) के ज़ुहूर की तैयारी है, और साथ ही लोगों की उस दिन के लिए तैयारी और तैयार होने का प्रदर्शन भी है, जब हजरत वली अस्र (अ) का ज़ुहूर होगा और पूरे दुनिया में इस्लामी तहज़ीब का विकास होगा। हर उम्र के लोग, छोटे-बड़े, इस बड़ी रैली में शामिल होकर सब्र और स्थिरता की प्रैक्टिस करते हैं; इस मंच पर पूरी इस्लामी उम्मत अपने आपसी इत्तिहाद और एकजुटता को मजबूत करती है; इस तरह के इस आयोजन में लोग अलग-अलग संस्कृतियों से आकर एक-दूसरे के साथ हमदर्दी और मदद की प्रैक्टिस करते हैं।
अरबईन के रास्ते पर यहूदी-विरोधी मूकिब; पोल नंबर 794 पर अमेरिकी अपराधों की प्रदर्शनी
अरबईन की पैदल यात्रा के रास्ते में पोल नंबर 794 के पास, एक अलग तरह का मूकिब (सेवा शिविर) लगा है। यहाँ का माहौल किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी जैसा है — जहाँ ज़ायोनी शासन और अमेरिका के अपराधों की तस्वीरें और दस्तावेज़, साथ ही मौलवियों और धार्मिक प्रवक्ताओं की कहानी-बयानी, आगंतुकों को युद्धों और क्षेत्रीय संकटों के छुपे पहलुओं से परिचित कराती है।
उसी समय जब अरबईन हुसैनी के लाखों ज़ायर नजफ़ अशरफ़ से कर्बला-ए-मोअल्ला की ओर जा रहे हैं, पोल नंबर 794 पर एक मूकिब लगाया गया है, जिसने अपने मिशन को राजनीतिक जागरूकता फैलाने और विश्व की साम्राज्यवादी ताकतों का असली चेहरा उजागर करने के रूप में तय किया है।
यह मूकिब, जो एक प्रदर्शनी स्टॉल की तरह डिज़ाइन किया गया है, अपनी दीवारों को ज़ायोनी शासन और अमेरिका के अपराधों के बड़े पोस्टरों और बैनरों से सजाया हुआ है। प्रदर्शित तस्वीरें, दस्तावेज़ और साक्ष्य में फ़िलिस्तीनी बच्चों और निर्दोष नागरिकों के कत्लेआम, यमन की तबाही और अन्य मानवीय त्रासदियों के दृश्य शामिल हैं, जो इनमें इन अपराधियों की सीधी भूमिका को दर्शाते हैं।
दृश्य प्रदर्शनी के अलावा, इस मूकिब में मौजूद मौलवी और प्रचारक ऐतिहासिक विश्लेषण और कथाओं के ज़रिए ज़ायरों को इन घटनाओं के पीछे की हकीकत समझाते हैं। यह कहानी-बयानी अलग-अलग भाषाओं में की जाती है, और अलग-अलग राष्ट्रीयताओं से आए ज़ाएरीन की मौजूदगी से मूकिब का माहौल अंतर्राष्ट्रीय रंग-रूप ले लेता है।
आयोजकों के अनुसार, इस पहल का मुख्य उद्देश्य जनचेतना जगाना और अरबईन की आध्यात्मिकता को इस्लामी दुनिया में सामाजिक और राजनीतिक जिम्मेदारी से जोड़ना है। कई ज़ायर भी यहां लंबा ठहरकर, आयोजकों की इस पहल की सराहना करते हुए, ऐसी गतिविधियों के अन्य अरबईन मार्गों पर फैलाव की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं।
यह मूकिब इस बात की मिसाल है कि किस तरह मुसलमानों के सबसे बड़े वार्षिक इत्जेमा ज़ुल्म को उजागर करने और सच सामने लाने के मंच में बदला जा सकता है।
हिज़्बुल्लाह का हथियार लेबनान की सुरक्षा की गारंटी है।विलायती
ईरान के सर्वोच्च नेता के वरिष्ठ सलाहकार और अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ अली अकबर विलायती ने कहा कि लेबनान की सुरक्षा हिज़्बुल्लाह के हथियारों पर निर्भर है और अमेरिका व इज़राइल की साजिशें विफल होंगी।
ईरान के सर्वोच्च नेता के वरिष्ठ सलाहकार और अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ अली अकबर विलायती ने कहा कि लेबनान की सुरक्षा हिज़्बुल्लाह के हथियारों पर निर्भर है, और अमेरिका व इज़राइल की साजिशें विफल होंगी।
उन्होंने लेबनान में हिज़्बुल्लाह को निरस्त्र करने की कोशिशों को नाकाम बताते हुए कहा कि यह पहली बार नहीं है जब कुछ लोग हिज़्बुल्लाह को कमजोर करने की बात करते हैं, लेकिन ये सभी योजनाएँ विफल रहेंगी।
विलायती ने कहा,जब हिज़्बुल्लाह के संसाधन और ताकत कम थे, तब भी ये साजिशें बेअसर रहीं। आज जब उसके पास जनसमर्थन और संसाधन अधिक हैं, तो निश्चित रूप से ईश्वर की इच्छा से यह सपना कभी साकार नहीं होगा।
उन्होंने आगे कहा कि हिज़्बुल्लाह लेबनान के सभी धर्मों ईसाई, शिया, सुन्नी आदि में लोकप्रिय है और प्रतिरोध (मुक़ावमा) लेबनान की इज्ज़त, सुरक्षा और अस्तित्व की गारंटी है।
उन्होंने याद दिलाया कि 1982 में, जब हिज़्बुल्लाह नहीं थी, इज़राइली सेना ने दक्षिणी बेरूत और उपनगरीय इलाकों तक कब्ज़ा कर लिया था, लेकिन हिज़्बुल्लाह के प्रतिरोध ने उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
विलायती ने लेबनानी सरकार पर व्यंग्य करते हुए कहा,क्या उन्हें देश और लोगों की सुरक्षा की कोई चिंता नहीं है? अगर हिज़्बुल्लाह अपने हथियार छोड़ दे, तो लेबनानियों की जान, माल और इज्ज़त की रक्षा कौन करेगा? क्या अतीत के अनुभव उनके लिए सबक नहीं हैं?
उन्होंने स्पष्ट किया कि ये माँगें केवल अमेरिका और इज़राइल के हितों को दर्शाती हैं, जो लेबनान में चरमपंथी तत्वों को लाना चाहते हैं, लेकिन यह सपना कभी सच नहीं होगा। लेबनान हमेशा संघर्ष और प्रतिरोध का प्रतीक रहेगा।
अंत में, विलायती ने कहा कि ईरान हिज़्बुल्लाह के निरस्त्रीकरण का पुरजोर विरोध करता है और हमेशा लेबनान के लोगों और प्रतिरोध आंदोलन का समर्थन करता रहेगा।
शांति, सत्य, त्याग और धैर्य का नाम हुसैन है, मुक़र्रेरीन
उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद में इमाम हुसैन (अ) के चेहलुम के अवसर पर निकाले गए जुलूस में हज़ारों मातमी शामिल हुए। नमाज़ पढ़ने वालों ने इमाम हुसैन (अ) के बलिदान के सार्वभौमिक संदेश और महत्व पर प्रकाश डाला।
10 अगस्त, 2025 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद जिले में चेहलुम के अवसर पर इमाम हुसैन (अ) और कर्बला के शहीदों की याद में एक जुलूस निकाला गया, जिसमें हज़ारों मातमी शामिल हुए।
यह जुलूस दोपहर 2:30 बजे मुख्य इमामबारगाह "हुसैनी घर" इस्लामनगर गली नंबर 8 से शुरू हुआ और विभिन्न मार्गों से होते हुए शाम को अपने निर्धारित स्थान पर शांतिपूर्वक समाप्त हुआ।
अज़ादारो ने काले कपड़े पहने थे और नौहा और मातम के साथ-साथ ज़ाकिरों ने इमाम हुसैन (अ) की कुर्बानी को याद करते हुए तकरीरें भी की। रास्ते में खाने-पीने के स्टॉल और लंगर की विशेष व्यवस्था की गई थी, जहाँ पानी, दूध, चाय, फल, बिरयानी और प्रसाद वितरित किया गया।
प्रशासन द्वारा सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए गए थे। कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए हर रास्ते पर पुलिसकर्मी और स्वयंसेवक तैनात थे, जबकि आम नागरिकों को असुविधा न हो, इसके लिए यातायात को वैकल्पिक मार्गों से डायवर्ट किया गया था।
अंजुमन हुसैनी ने साफ़-सफ़ाई, चिकित्सा सहायता और अनुशासन की व्यवस्था में प्रमुख भूमिका निभाई। जुलूस के साथ चिकित्सा दल मौजूद थे। इस्लामनगर से कर्बला, बुंझा, ग़ाज़ियाबाद तक राजमार्गों पर झंडे और बैनर लगाए गए थे और बड़ी संख्या में मातम मनाने वाले लोग जुलजिना की प्रतिमा के दर्शन करने और शोक व्यक्त करने आए थे। बुजुर्ग, युवा, महिलाएं और बच्चे सभी ने इस धार्मिक जुलूस में जोश और श्रद्धा के साथ भाग लिया।
मौलाना मुहम्मद आलम आरिफी ने इमाम हुसैन (अ) की सर्वमान्य स्थिति पर चर्चा करते हुए कहा कि इमाम हुसैन सबके हैं। उन्होंने ये शेर पढ़े:
इस क़दर रोया मै सुनकर दास्ताने कर्बला
मैं तो हिंदू ही रहा, आँखें हुसैनी हो गईं
मस्जिदो, दैरो कीलिसा न कभी एक हुए
तेरे दरबार में पहुँचे तो सभी एक हुए
फिर उन्होंने कहा:
अमन व आमान सदाकत ईसार व सब्र व शुक्र
इन सबका नाम हस्बे ज़रूरत हुसैन हैं
ज़माना यह कब समझा था कि शबे आशूर से पहले
चिरागो के बुझाने से उजाला और होता है
मौलाना अली अब्बास हमीदी ने कहा कि जो रब का है वो सबका है। मौलाना हसन आज़मी हानी, मौलाना नाज़िश हुसैन और मौलाना एहसान अब्बास ने प्रेस प्रतिनिधियों को इमाम हुसैन (अ) की शिक्षाओं से अवगत कराया।
जुलूस के अंत में इमाम हुसैन (अ) के हक़ और सच्चाई के संदेश पर अमल करने की कामयाबी और देश में अमन-चैन की स्थापना के लिए दुआ की गई।