
رضوی
ईद उल फ़ित्र और इसकी बरकतें
ईद उल फ़ित्र इस्लामी साल की दो बड़ी ईदों में से एक है, जो रमज़ान के मुकम्मल होने के बाद 1 शव्वाल को मनाई जाती है यह दिन अल्लाह की दी हुई नेमतों का शुक्र अदा करने खुशी मनाने और गरीबों व जरूरतमंदों के साथ हमदर्दी जताने का मौका देता है। ईदुल फितर को "यौम अलजाइज़ा" यानी इनाम का दिन भी कहा जाता है, क्योंकि इस दिन अल्लाह अपने नेक बंदों को रमज़ान के रोज़ों और इबादतों का बदला देता है।
हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ईद उल फ़ित्र इस्लामी साल की दो बड़ी ईदों में से एक है, जो रमज़ान के मुकम्मल होने के बाद 1 शव्वाल को मनाई जाती है यह दिन अल्लाह की दी हुई नेमतों का शुक्र अदा करने खुशी मनाने और गरीबों व जरूरतमंदों के साथ हमदर्दी जताने का मौका देता है। ईदुल फितर को "यौम अलजाइज़ा" यानी इनाम का दिन भी कहा जाता है, क्योंकि इस दिन अल्लाह अपने नेक बंदों को रमज़ान के रोज़ों और इबादतों का बदला देता है।
ईद उल फ़ित्र इस्लामी तालीमात पर आधारित एक मुकद्दस दिन है जिसे पैगंबर-ए-इस्लाम हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम ने बहुत अहमियत दी। इस दिन की सबसे खास बात सदक़ा-ए-फितर अदा करना है जो हर साहिब-ए-इस्तिताअत मुसलमान पर वाजिब है ताकि गरीब और जरूरतमंद लोग भी ईद की खुशियों में शरीक हो सकें।
इमाम जाफर सादिक़ अ.स. फरमाते हैं,ईद का दिन वह होता है जब लोग जमा हों अल्लाह की हम्द-ओ-सना करें उसकी नेमतों का शुक्र अदा करें और उससे और ज्यादा फज़ल व करम की दुआ करें। (अल-काफ़ी, जिल्द 4, पृष्ठ 168)
ईदुल फितर के मुस्तहब अमल:
फितरा अदा करना,ईद की नमाज से पहले हर साहिब-ए-इस्तिताअत मुसलमान पर ज़कात-ए-फितर वाजिब है ताकि जरूरतमंद लोग भी ईद की खुशियों में शरीक हो सकें।
इमाम मोहम्मद बाक़िर अ.स. फरमाते हैं,
रोज़ा तब तक मुकम्मल नहीं होता जब तक ज़कात-ए-फितर अदा न की जाए।(वसाइल अल-शिया, जिल्द 6, पृष्ठ 221)
नमाज़ ए ईद अदा करना:
ईद की सुबह खास तक्बीरों के साथ नमाज़ अदा की जाती है जो अल्लाह की बड़ाई और शुक्रगुज़ारी का इज़हार है।
इमाम अली अ.स. फरमाते हैं:ईद का दिन अल्लाह के ज़िक्र दुआ और जरूरतमंदों की मदद के लिए है। (नहजुल बलाग़ा, ख़ुत्बा 110)
ग़ुस्ल करना और अच्छे कपड़े पहनना:
ईद के दिन ग़ुस्ल करना इत्र लगाना और अच्छे कपड़े पहनना मुस्तहब (पसंदीदा) अमल है।इमाम जाफर सादिक़ अ.स.फरमाते हैं,जो शख्स ईद के दिन खुशबू लगाए और उम्दा लिबास पहने,अल्लाह उसे क़यामत के दिन बेहतरीन लिबास अता करेगा।"मुसतद्रक अल-वसाइल, जिल्द 6, पृष्ठ 191)
ज़ियारत ए इमाम हुसैन अ.स. पढ़ना:
ईदुल फितर के दिन इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत का बहुत सवाब है इमाम जाफर सादिक़ (अ.स.) फरमाते हैं:जो शख्स ईद के दिन इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत करे, वह उस शख्स के जैसा है जो अल्लाह के अर्श के नीचे इबादत कर रहा हो।(कामिल अल-ज़ियारात, पृष्ठ 174)
एक दूसरे को मुबारकबाद देना:ईद के मौके पर लोग एक दूसरे को मुबारकबाद देते हैं और मोहब्बत व भाईचारे का इज़हार करते हैं।
गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करना: ईद के दिन ज़कात खैरात और सदक़े के ज़रिए जरूरतमंदों की मदद की जाती है ताकि वे भी ईद की खुशियों में शरीक हो सकें।
ईद उल फ़ित्र की बरकतें:
अल्लाह की रज़ा खुशी हासिल करना:रमज़ान के रोज़ों की मुकम्मल अदायगी पर अल्लाह की तरफ से मग़फ़िरत और रहमत नाज़िल होती है।
उम्मत-ए-मुस्लिमा में इत्तेहाद (एकता):
ईद का दिन मुसलमानों को एकजुटता और भाईचारे का सबक देता है।
सामाजिक तालमेल:
ज़कात-ए-फित्रा और दूसरी खैरात के ज़रिए समाजी नाइंसाफियों को कम करने की कोशिश की जाती है।
रूहानी सुकून:
रमज़ान में की गई इबादतों का सिला अल्लाह की तरफ से मिलता है, जो दिली और रूहानी इत्मिनान का सबब बनता है।
अल्लाह की खास मग़फ़िरत:इमाम अली ज़ैनुल आबिदीन अ.स. फरमाते हैं:ईद के दिन का पहला लम्हा ही अल्लाह की तरफ से अपने बंदों के लिए मग़फ़िरत (माफ़ी) का लम्हा होता है।(सहीफा सज्जादिया, दुआ 45)
नतीजा:
ईद उल-फ़ित्र मुसलमानों के लिए खुशी, इबादत, इत्तेहाद और नेकियों में इज़ाफे का दिन है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि असली खुशी अल्लाह के हुक्म पर अमल करने दूसरों को अपनी खुशियों में शरीक करने और इस्लामी तालीमात को अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बनाने में है।
इस्लामी तालीमात के मुताबिक, ईद-उल-फितर इमाम-ए-ज़माना अ.स. की खुशी हासिल करने, अहल-ए-बैत (अ.स.) की सीरत (जीवनशैली) पर अमल करने अपने मरहूमीन को याद करने और इसाले सवाब (पुण्य अर्पित करने) तथा मज़लूमों की मदद करने का मौका है।
मैं आलम-ए-इस्लाम और तमाम मुसलमानों की खिदमत में ईद-उल-फितर की मुबारकबाद पेश करता हूँ और रब-ए-करीम से दुआ करता हूँ कि हमें इस मुबारक दिन की असली रूह को समझने और इस पर अमल करने की तौफीक़ अता फरमाए। आमीन।
ईद; दैनिक स्व-जवाबदेही
पवित्र क़ुरआन के शब्दों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ऊर्जा और शक्ति का ज्ञान है कि वह अपने लक्ष्य में कितना सफल हुआ है और कितना असफल हुआ है: बल्कि, मनुष्य स्वयं अपनी आत्मा की स्थितियों से भली-भांति परिचित है चाहे वह कितने भी बहाने प्रस्तुत करे, वे लोग जो खोजते हैं और प्रयास करते हैं, जो लोग नौकरी और काम करते हैं, जो लोग नौकरी और कर्तव्य करते हैं और जो लोग शिक्षा प्राप्त करें, क्या आप अपने बारे में बेहतर जानते हैं कि आपने अपने वज़ीफ़ा पर सही ढंग से काम किया है या नहीं?
इस एक महीने की अवधि के दौरान, मनुष्य सर्वशक्तिमान ईश्वर और दयालु दुनिया का मेहमान था, उसे कई अवसर प्रदान किये गये, क्या उसने इस अवसर का सदुपयोग किया? बरकतों से भरा यह महीना समाप्त हो गया है और ईद-उल-फितर भी हमारे सामने है, यह समय है कि व्यक्ति अपनी स्थिति का मूल्यांकन करे कि उसकी स्थिति क्या है और उसे कितनी प्रतिशत सफलता मिली है और कितनी प्रतिशत असफलता मिली है। उसने सामना किया अर्थात् इस दिव्य परीक्षा में उसके कितने अंक हैं और उसे कितने अंक प्राप्त हुए? जब हम हदीसों को देखते हैं तो हमें यह महान शिक्षा मिलती है: हर किसी को अपने कार्यों का आकलन करना चाहिए।
इस संबंध में हज़रत इमाम जाफ़र सादिक (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) कहते हैं कि "मैंने उन्हें रमज़ान के महीने में माफ़ नहीं किया, मैंने उन्हें रमज़ान के महीने तक माफ़ नहीं किया कि वह अरफ़ा के मैदान में मौजूद हों।" अगर हम इस हदीस और पिछले एते-करीमा को एक साथ रखें तो पता चलेगा कि इंसान को खुद का हिसाब करना चाहिए कि उसने इस पाक महीने में खुदा का मेहमान बनकर कितनी रहमत बटोरी और कितनी मगफिरत नदी में गोता लगाते हुए उसने अपना क्षमा उपकरण उपलब्ध कराया है।
1: क़ाज़ी नुमान मग़रिबी, दायिम अल-इस्लाम खंड 1, पृष्ठ 269
ईद-उल-फितर की फजीलत
इस्लाम के पैगंबर, शांति और आशीर्वाद उन पर हो, और अहल-अल-बैत अतहर, शांति और आशीर्वाद उन पर हो, दिन-रात ईद-उल-फितर को अधिक महत्व देने के लिए विश्वासियों से आग्रह किया गया है इस अवसर का उपयोग करें और इसकी उपेक्षा न करें।
एक महीने के उपवास के बाद, विश्वासी आश्वस्त और संतुष्ट हैं कि उनका स्वभाव और इरादे स्पष्ट और पारदर्शी हो गए हैं, सर्वशक्तिमान ईश्वर के भोज और आतिथ्य के परिणामस्वरूप, वे लगातार एक महीने तक सांसारिक जीवन से दूर रह सकते हैं और लाभ उठा सकते हैं। ईश्वर का प्रकाश। परिणामस्वरूप, आप स्वयं को ईश्वर के एक ईमानदार सेवक और आज्ञाकारिता और पूजा के मार्ग पर देखना चाहते हैं।
सर्वशक्तिमान ईश्वर ने इस दिन [ईद-उल-फितर] को भी एक विशेष भव्यता प्रदान की है ताकि यह पिछले दिन की तुलना में अधिक विश्वासियों का ध्यान आकर्षित कर सके, ईश्वर उन्हें आशीर्वाद दें और उन्हें शांति प्रदान करें, इस संबंध में कहते हैं: अल -फ़ित्र अल्लाह ने पूरे देश में फ़रिश्ते भेजे, और वे धरती पर उतरे और सिक्कों के मुँह पर खड़े होकर कहा, "हे मुहम्मद का राष्ट्र निकलेगा, हे भगवान, जो महिमा देता है और महानों को क्षमा करता है।
ईद-उल-फितर की सुबह, सर्वशक्तिमान ईश्वर सभी शहरों में स्वर्गदूतों को भेजता है, स्वर्गदूत धरती पर उतरते हैं और हर सड़क और सड़क के मोड़ पर खड़े होते हैं और कहते हैं, हे उम्माह मुहम्मद! [प्रार्थना के लिए] सर्वशक्तिमान अल्लाह की ओर एक कदम बढ़ाएं कि वह एक बड़ा इनाम देगा और आपके पापों को माफ कर देगा।
और एक अन्य परंपरा में, पवित्र पैगंबर ने कहा: "जब वे प्रार्थना करने आए, तो अल्लाह ने स्वर्गदूतों से कहा: मेरे स्वर्गदूतों! मज़दूरी करने वाले का इनाम क्या है? उन्होंने कहा: और फ़रिश्तों ने कहा: भगवान और हमारे भगवान! मौत की सज़ा ही उसका इनाम है।
जब [उपासक] ईद की नमाज़ के लिए अपने ईदगाह की ओर कदम बढ़ाते हैं, तो सर्वशक्तिमान ईश्वर अपने स्वर्गदूतों को संबोधित करते हैं और कहते हैं; हे मेरे देवदूतों! कार्य पूरा करने वाले श्रमिक का वेतन क्या है? स्वर्गदूतों ने उत्तर दिया, हे मेरे परमेश्वर और मुखिया! कि मजदूरी का पूरा भुगतान किया जाए।
1: अमली मुफ़ीद मजलिस 27 पी
ईद उल-फितर भाईचारे को बढ़ावा देने वाला त्योहार
ईद उल-फ़ित्र या ईद उल-फितर (अरबी: عيد الفطر) मुस्लमान रमज़ान उल-मुबारक के एक महीने के बाद एक मज़हबी ख़ुशी का त्यौहार मनाते हैं। जिसे ईद उल-फ़ित्र कहा जाता है। ये यक्म शवाल अल-मुकर्रम्म को मनाया जाता है। ईद उल-फ़ित्र इस्लामी कैलेण्डर के दसवें महीने शव्वाल के पहले दिन मनाया जाता है। इसलामी कैलंडर के सभी महीनों की तरह यह भी नए चाँद के दिखने पर शुरू होता है। मुसलमानों का त्योहार ईद मूल रूप से भाईचारे को बढ़ावा देने वाला त्योहार है। इस त्योहार को सभी आपस में मिल के मनाते है और खुदा से सुख-शांति और बरक्कत के लिए दुआएं मांगते हैं। पूरे विश्व में ईद की खुशी पूरे हर्षोल्लास से मनाई जाती है।
इतिहास
मुसलमानों का त्यौहार ईद रमज़ान का चांद डूबने और ईद का चांद नज़र आने पर उसके अगले दिन चांद की पहली तारीख़ को मनाया जाता है। इस्लाम में दो ईदों में से यह एक है (दुसरी ईद उल जुहा या कुरबानी की ईद कहलाती है)। पहली ईद उल-फ़ितर पैगम्बर मुहम्मद ने सन 624 ईसवी में जंग-ए-बदर के बाद मनायी थी। ईद उल फित्र के अवसर पर पूरे महीने अल्लाह के मोमिन बंदे अल्लाह की इबादत करते हैं रोज़ा रखते हैं और क़ुआन करीम कुरान की तिलावत (इबादत) करके अपनी आत्मा को शुद्ध करते हैं जिसका अज्र या मजदूरी मिलने का दिन ही ईद का दिन कहलाता है जिसे उत्सव के रूप में पूरी दुनिया के मुसलमान बड़े हर्ष उल्लास से मनाते हैं
ईद उल-फितर का सबसे अहम मक्सद एक और है कि इसमें ग़रीबों को फितरा देना वाजिब है जिससे वो लोग जो ग़रीब हैं मजबूर हैं अपनी ईद मना सकें नये कपड़े पहन सकें और समाज में एक दूसरे के साथ खुशियां बांट सकें फित्रा वाजिब है उनके ऊपर जो 52.50 तोला चाँदी या 7.50 तोला सोने का मालिक हो अपने और अपनी नाबालिग़ औलाद का सद्कये फित्र अदा करे जो कि ईद उल फितर की नमाज़ से पहले करना होता है।
ईद भाई चारे व आपसी मेल का तयौहार है ईद के दिन लोग एक दूसरे के दिल में प्यार बढाने और नफरत को मिटाने के लिए एक दूसरे से गले मिलते हैं
ईद के दौरान जामा मस्जिद दिल्ली
उपवास की समाप्ति की खुशी के अलावा इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि अल्लाह ने उन्हें महीने भर के उपवास रखने की शक्ति दी। हालांकि उपवास से कभी भी मोक्ष संभव नहीं क्योंकि इसका वर्णन पवित्र धर्म ग्रन्थो में नहीं है। पवित्र कुरान शरीफ भी बख्बर संत से इबादत का सही तरीका लेकर पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने के लिए सर्वशक्तिमान अल्लाह की पूजा करने का निर्देश देता है।[6] ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। सिवैया इस त्योहार का सबसे मत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ है जिसे सभी बड़े चाव से खाते हैं।
ईद के दिन मस्जिदों में सुबह की प्रार्थना से पहले हर मुसलमान का फ़र्ज़ होता है कि वो दान या भिक्षा दे। इस दान को ज़कात उल-फ़ितर कहते हैं। यह दान दो किलोग्राम कोई भी प्रतिदिन खाने की चीज़ का हो सकता है, मिसाल के तौर पे, आटा, या फिर उन दो किलोग्रामों का मूल्य भी। से पहले यह ज़कात ग़रीबों में बाँटा जाता है। उपवास की समाप्ति की खुशी के अलावा इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि अल्लाह ने उन्हें पूरे महीने के उपवास रखने की शक्ति दी। ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। सिवैया इस त्योहार की सबसे जरूरी खाद्य पदार्थ है जिसे सभी बड़े चाव से खाते हैं।
ईद के दिन मस्जिदों में सुबह की प्रार्थना से पहले हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो दान या भिक्षा दे। इस दान को ज़कात उल-फ़ितर कहते हैं।
महत्त्व
ईद का पर्व खुशियों का त्योहार है, वैसे तो यह मुख्य रूप से इस्लाम धर्म का त्योहार है परंतु आज इस त्योहार को लगभग सभी धर्मों के लोग मिल जुल कर मनाते हैं। दरअसल इस पर्व से पहले शुरू होने वाले रमजान के पाक महीने में इस्लाम मजहब को मानने वाले लोग पूरे एक माह रोजा (व्रत) रखते हैं। रमजान महीने में मुसलमानों को रोजा रखना अनिवार्य है, क्योंकि उनका ऐसा मानना है कि इससे अल्लाह प्रसन्न होते हैं। यह पर्व त्याग और अपने मजहब के प्रति समर्पण को दर्शाता है। यह बताता है कि एक इंसान को अपनी इंसानियत के लिए इच्छाओं का त्याग करना चाहिए, जिससे कि एक बेहतर समाज का निर्माण हो सके।
ईद उल फितर का निर्धारण एक दिन पहले चाँद देखकर होता है। चाँद दिखने के बाद उससे अगले दिन ईद मनाई जाती है। सऊदी अरब में चाँद एक दिन पहले और भारत में चाँद एक दिन बाद दिखने के कारण दो दिनों तक ईद का पर्व मनाया जाता है। ईद एक महत्वपूर्ण त्यौहार है इसलिए इस दिन छुट्टी होती है। ईद के दिन सुबह से ही इसकी तैयारियां शुरू हो जाती हैं। लोग इस दिन तरह तरह के व्यंजन, पकवान बनाते है तथा नए नए वस्त्र पहनते हैं।
ईद प्रसन्नता और हर्षोल्लास का त्यौहार
भारत देश धर्म की विविधता के लिए प्रसिद्ध है। यहां अनेक धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं। सभी धर्मों के अलग-अलग त्योहार होते हैं। हिंदुओं के लिए दुर्गा पूजा, दिवाली, छठ पूजा, होली, रक्षाबंधन इत्यादि प्रमुख त्यौहार है। ईसाइयों के लिए क्रिसमस हंसी-खुशी एवं प्रसन्नता का त्यौहार है। ठीक उसी तरह यह ईद मुस्लिमो की प्रसन्नता और हर्षोल्लास का त्यौहार है। यह त्यौहार संपूर्ण इस्लामीयों का महत्वपूर्ण त्यौहार है। इस त्यौहार का दूसरा नाम ईद- उल-फितर है। इसका अर्थ होता है फिर से 'खाना पीना' ईद से पहले मुसलमानों का एक महीना रमजान का होता है। रमजान के महीने में लोग रोजा रखते हैं। रोजा का मतलब होता है, केवल रात में खाना। रमजान का महीना पूरा होने पर जिस दिन चांद दिखता है उसके अगले दिन ईद का त्यौहार होता है। रमजान का महीना कठिन परिश्रम, बलिदान और आस्था का महीना होता है। ईद का इंतजार सभी लोग बेसब्री से करते हैं।
ईद मनाने की विधि
ईद के पवित्र त्यौहार का संबंध मुस्लिमो से है। 1 महीने रोजा के बाद ईद का त्यौहार आता है। रोजा में लोग सूर्योदय से पहले तथा सूर्यास्त के बाद खाना खाते हैं। इसमें बहुत धैर्य रखने की आवश्यकता होती है।
रमजान का महीना बड़ा ही पवित्र माना जाता है।
तथा इस व्रत के दौरान अपने मन में नकारात्मक विचार नहीं रखा जाता है। जैसे ही आसमान में 'ईद का चांद' निकलता है। ईद की तैयारी आरंभ हो जाती है। ईद के दिन लोग नहा– धोकर नए कपड़े पहनते हैं। और सभी मस्जिद की ओर प्रस्थान करते हैं। बुड्ढे बच्चे, तथा नवयुवक सभी मिलकर नमाज पढ़ते हैं। और खुदा की इबादत करते हैं। नवाज समाप्त होने पर सभी एक दूसरे को गले लगाकर ईद मुबारक कहते हैं। इस अवसर पर सभी के घरों में अनेक प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं। इन पकवानों में सेवइयां बनाना बहुत महत्वपूर्ण होता है। सभी मीठी–मीठी सेवइयां खाते हैं और दूसरों को भी खिलाते हैं। इसीलिए 'ईद-उल-फितर' को 'मीठी ईद' कहकर पुकारते हैं। और इस दिन के बाद सब दिन में भी खाना शुरू कर देते हैं। ईद में कई जगह पर मेला लगता है। सभी मेला देखने जाते हैं, तथा अपने मनपसंद की चीजों को खरीदते है ।
ईद एक एकता और समता का त्यौहार है।
ईद मुस्लिमो का महत्वपूर्ण त्यौहार है। यह एकता और भाईचारे का त्यौहार है। ईद के पावन अवसर पर लोग एक– दूसरे को गले लगाकर ईद मुबारक कहते हैं। इस दिन कोई दुखी और परेशान नहीं रहता है। इस दिन कोई छोटा या बड़ा नहीं माना जाता सभी एक समान होते हैं। चारों तरफ खुशियों का महौल छाया रहता है। सभी के घरों में कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं। सभी लोग मिलकर पकवान खाते हैं तथा अपने दोस्तों एवं रिश्तेदारों को भी खिलाते हैं। इस तरह से यह त्यौहार एकता और समता का त्योहार माना जाता है।
हमारे देश में हर एक त्यौहार का अपना अलग परिचय होता है। ईद भी एक ऐसा ही त्यौहार है। जहां लोग अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर एक दूसरे को गले लगाकर हर्ष और उल्लास के साथ यह पर्व मनाते हैं। ईद के दिन लोग एक दूसरे के घर जाते हैं और स्वादिष्ट पकवानें खाते हैं। यह त्यौहार आपसी प्रेम, एकता और भाईचारे का संदेश देता है। यह त्यौहार सभी को एक दूसरे से जोड़ता है।
ज़कात ईश्वर का हक़
आप में से बहुत से रोज़े से होंगे।
आशा है आप पवित्र रमज़ान के आध्यात्मिक माहौल में अपने दिन अच्छी तरह गुज़ार रहे होंगे। ईश्वर आपकी उपासनाओं को स्वीकार करे। हम सब पवित्र रमज़ान के मूल्यवान समय की अहमियत को समझें और इससे ज़्यादा से ज़्यादा आध्यात्मिक लाभ उठाएं। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम पवित्र रमज़ान की अपनी विशेष प्रार्थना में ईश्वर से इस तरह वंदना करते हैंः "हे पालनहार! इस महीने में हमें रिश्तेदारों के साथ भलाई करने में हमें सफल बना और हम उनसे मुलाक़ात करे, पड़ोसियों के साथ दान दक्षिणा करें, अपनी धन संपत्ति को ज़कात देकर पाक करें और जो हम से दूर हो गए हैं उनसे मेल जोल क़ायम करें।"
रोज़ा रखने का एक फ़ायदा यह कि सभी इंसान चाहे अमीर हों या ग़रीब सब ईश्वर के सामने हाज़िर हों और अमीर लोग भी ग़रीबों व वंचितों की तरह भुख के दर्द को समझें तथा उनकी मदद करें। वास्तव में रोज़ा एक तरह से सामाजिक भागीदारी का प्रदर्शन है। अमीर लोग वंचितों को अपने यहां ईश्वरीय दस्तरख़ान पर दावत देते और उनसे मेलजोल क़ायम करते हैं।
एक दिन एक व्यक्ति पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की सेवा में हाज़िर हुआ और उसने कहाः "हे ईश्वरीय दूत! मैं अपने रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार करता हूं और उनसे मेल जोल रखता हूं लेकिन वे मुझे सताते हैं। इसलिए मैंने फ़ैसला किया है कि उनसे मेल जोल छोड़ दूं।" यह सुनकर पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमायाः "उस समय ईश्वर तुम्हें भी छोड़ देगा।"
यह सुनकर उस व्यक्ति ने पैग़म्बरे इस्लाम से सवाल किया कि मुझे क्या करना चाहिए। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमायाः "जो तुम्हें किसी चीज़ से मना करे तुम उसके साथ उदारता दिखाओ। जिसने तुमसे संबंध तोड़ लिए हैं उससे संबंध क़ायम करो और जिसने तुम पर अत्याचार किया है उसे भुला दो। जब ऐसा करोगे तब ईश्वर तुम्हारा मददगार होगा।"
वास्तव में जनसेवा और लोगों की ईश्वर की प्रसन्नता के लिए मदद करना सबसे बड़ी उपासनाओं में से एक है। इस मार्ग में सिर्फ़ पैसों व भौतिक संसाधनों से मदद सीमित नहीं है बल्कि इंसान किसी दूसरे इंसान की किसी मुश्किल को हल करे तो इसे भी भलाई में गिना जाता है, चाहे किसी मोमिन को ख़ुश करना और उसके मन से किसी तरह दुख को दूर करना हो।
हज़रत इमामा जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "जो व्यक्ति अपने मोमिन भाई के चेहरे से एक तिनका हटाए ईश्वर उसे दस पुन्य देता है और जो कोई किसी मोमिन बंदे के मुस्कुराने की वजह बने तो यह उसके लिए पुन्य गिना जाएगा।"
पवित्र रमज़ान में ज़कात निकलाना और दान दक्षिणा करना ईश्वर का सामीण्य हासिल करने का एक अन्य साधन है। ज़कात ईश्वर का हक़ है कि जिसे मोमिन इंसान अपने धन से शरीआ क़ानून के अनुसार निकालता है और निर्धनों को देता है। पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में ज़कात की अहमियत का उल्लेख मिलता है। जैसा कि मायदा नामक सूरे की आयत नंबर 12 में ईश्वर ने पापों की क्षमा और स्वर्ग में प्रवेश को ज़कात निकालने से सशर्त किया है। जैसा कि इस आयत में ईश्वर कह रहा हैः "हम तुम्हारे साथ हैं अगर नमाज़ क़ायम करो और ज़कात अदा करो। मेरे दूतों पर ईमान लाओ, उनका साथ दो और मदद करो। ईश्वर को क़र्ज़ दो तो तुम्हारे पापों को क्षमा कर दूंगा और तुम्हे स्वर्ग के ऐसे बाग़ों में दाख़िल करूंगा जिसके नीचे नदियां बहती हैं।"
पवित्र क़ुरआन में कई स्थान पर नमाज़ और ज़कात का एक साथ उल्लेख मिलता है जिससे पता चलता है कि नमाज़ ईश्वर के सामने सिर झुकाकर ख़ुद को तुच्छ ज़ाहिर करने के अर्थ में और ज़कात अपने व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन में मौजूद कमियों की भरपायी करने के साथ साथ मुक्ति व कल्याण की गारंटी है। ईश्वर तौबा नामक सूरे की आयत नंबर 71वीं आयत में ज़कात देने वालों को अपनी कृपा का पात्र बनाना ख़ुद के लिए अनिवार्य क़रार दिया है। जैसा कि इस आयत में ईश्वर कह रहा है, “ईमान लाने वाले पुरुष व महिला एक दूसरे के मददगार हैं। एक दूसरे को अच्छाई का हुक्म देते और बुराई से रोकते हैं, नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात अदा करते हैं, ईश्वर और उसके पैग़म्बर का आज्ञापालन करते हैं, जल्द ही ईश्वर उन्हें अपनी कृपा का पात्र बनाएगा। ईश्वर सर्वशक्तिमान व तत्वदर्शी है।”
ज़कात 9 चीज़ों पर निकलती है। गेहूं, जौ, ख़जूर, किशमिश, सोना, चांदी, ऊंट, गाय और भेड़ बकरी।
जो व्यक्ति इनमें से किसी एक चीज़ का उतनी मात्रा में स्वामी हो कि जिस पर ज़कात निकलती है तो उसे एक निश्चित मात्रा में ज़कात निकालनी होगी। वास्तव में ज़कात इस भाग को कहते हैं जो मोमिन बंदा अपनी धन संपत्ति में से निकालता और निर्धनों को देता है। यही वजह है कि ज़कात की अदायगी को धन संपत्ति के बढ़ने और मन व आत्मा के पाक होने का कारण बताया गया है।
ज़कात की एक क़िस्म फ़ित्रा कहलाती है। यह ज़कात ईदुल फ़ित्र की रात निकाली जाती है और यह उन लोगों के लिए निकालना अनिवार्य है जो इसके निकालने में सक्षम हैं। इस ज़कात के तहत घर के अभिभावक पर ज़रूरी है कि वह घर के हर सदस्य की ओर से तीन किलो गेहूं, या तीन किलो चावल, या तीन किलो मकई, या रोटी और इनमें से किसी एक की क़ीमत निकाले और निर्धन व्यक्ति को दे दे। चूंकि यह ज़कात आम तौर पर खाद्य पदार्थ पर निकलती है इसलिए यह निर्धनों व वंचितों की खाद्य पदार्थ की ज़रूरत को पूरी करने में प्रभावी स्रोत बन सकती है। ईश्वर हर एक को अपनी विशेष कृपा का पात्र नहीं बनाता बल्कि उन मोमिन बंदों को अपनी विशेष कृपा का पात्र बनाता है जो ज़कात निकालते और ईश्वर से डरते हैं। पवित्र क़ुरआन की आराफ़ नामक सूरे की आयत नंबर 156 में ईश्वर कह रहा है, “मेरी कृपा सृष्टि की हर चीज़ को अपने घेरे में लिए है और जल्द ही इसे उन लोगों के लिए निर्धारित कर दूं जो सदाचारी हैं, ज़कात देते हैं और हमारी निशानियों पर आस्था रखते हैं।” इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं, “ईश्वर के निकट सबसे पसंददीदा वह है जो सबसे ज़्यादा दानी है और सबसे दानी व्यक्ति वह है जो अपने माल की ज़कात अदा करे।”
पवित्र रमज़ान में इंसान को संपर्क का एक अहम अवसर अपने आस-पास और समाज के लोगों पर ध्यान से मिलता है। पवित्र रमज़ान में लोगों पर बल दिया गया है कि अपनी क्षमता भर अपनी धन संपत्ति में से कुछ ईश्वर के मार्ग में ख़र्च कर दिलों को एक दूसरे के निकट करें। पवित्र रमज़ान में वंचितों व ज़रूरतमंदों को इफ़्तारी देना मुसलमानों की एक सुंदर परंपरा है। इस्लाम में प्रेम व स्नेह को आधार की तरह अहमियत दी गयी है और बल दिया गया है कि इंसानों का आपस में एक दूसरे से संपर्क व संबंध सम्मान व घनिष्ठता पर आधारित हो। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम दूसरों के साथ अपने सामाजिक संबंध में सबसे ज़्यादा सम्मान व स्नेह का प्रदर्शन करते थे। स्पष्ट सी बात है जिस समाज में संबंध स्नेह व सम्मान पर आधारित होगा ऐसे समाज पर ईश्वर कृपा निरंतर बनी रहेगी। यही वजह है कि पवित्र रमज़ान में इफ़्तारी देने पर बहुत बल दिया गया है। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं, “इफ़्तार के समय पुन्य करो। रोज़ेदारों को इफ़्तार की दावत दो चाहे कुछ खजूरों या पानी के एक घूंट भर ही क्यों न हो।”
पैग़म्बरे इस्लाम के इसी आदेश के मद्देनज़र इस्लामी गणतंत्र ईरान में जगह जगह मस्जिदों और रास्तों पर इफ़्तार की सुविधा रखी जाती है ताकि रोज़ेदार अपना रोज़ा खोल सकें। इस तरह ईमान की शुद्दता व स्नेह ज़ाहिर होता है और प्रेम व स्नेह सामाजिक व्यवहार में ख़ास तौर पर सामाजिक दृष्टि से अनिवार्य कर्मों में प्रकट होता है। यही वजह है कि नमाज़ी और उपासना करने वाले ज़्यादा दान दक्षिणा करते हैं। इसी तरह पवित्र रमज़ान में ज़रूरतमंदों और अनाथों को खाना खिलाने का अलग ही आनंद है। उम्मीद करते हैं कि हम सभी इस पवित्र महीने में दूसरों की ख़ास तौर पर अनाथों की मदद करना नहीं भूलेंगे क्योंकि अनाथों को दूसरों की तुलना में अधिक मदद की ज़रूरत होती है।
फितरा के नियम
सैय्यद और गैर-सैय्यद का फ़ितरा
इस बिंदु पर, एक प्रश्न उठता है कि सैय्यद और गैर-सैय्यद का फितरा किसे कहा जाता है?
जवाब: सैय्यद और गैर-सैय्यद के फित्रे में इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि परिवार और परिवार का संरक्षक कौन है। क्या परिवार और परिवार का संरक्षक सैयद है या अभिभावक गैर-सैय्यद है? कि अगर परिवार और घर का संरक्षक गैर-सैय्यद है, भले ही एक या कई सैय्यद उस पर निर्भर हों, तो इन लोगों का फितरा किसी गैर-सैय्यद को नहीं दिया जा सकता है।
और इसके विपरीत, यदि परिवार का संरक्षक और जिम्मेदार व्यक्ति एक सैय्यद है, भले ही उसकी हिरासत में कुछ गैर-सैय्यद भी मौजूद हों, तो वह अपना फितरा किसी भी सैय्यद या गैर-सैय्यद को दे सकता है, क्योंकि मियार जिम्मेदार है परिवार और परिवार के लिए.
प्रकृति का सही उपयोग
इस बिंदु पर सवाल उठता है कि फितरा का उपयोग कहां है?
जवाब: फितरा के इस्तेमाल के संबंध में विद्वानों के विचार अलग-अलग हैं और इस संबंध में उनके दो मत हैं। एक: सभी आठ मामलों में जहां ज़कात का इस्तेमाल किया जाता है, फ़ितरा का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे:
1- फकीर
2- गरीब: जिनकी आर्थिक स्थिति गरीबों से भी बदतर हो।
3- यात्री; जो लोग रास्ते में फंस गए हैं और उनके पास घर लौटने के लिए पैसे नहीं हैं.
4 - ऋणग्रस्तता; जिन लोगों के पास कर्ज चुकाने की ताकत नहीं है।
5- ईश्वर का मार्ग; अर्थात्, उन सभी को अच्छे कार्यों और मामलों पर खर्च किया जा सकता है जो आम मुसलमानों के लिए फायदेमंद हैं, जैसे मस्जिदों का निर्माण और मरम्मत, सड़कों, सड़कों, सड़कों, पुलों, स्कूलों, मदरसों और अस्पतालों का निर्माण और मरम्मत।
6- मौलफत अल-कुलूब: वे अविश्वासी जो फितरा की खोज के बाद इस्लाम की ओर झुकते हैं या युद्ध में मुसलमानों की मदद करते हैं।
7- नायब इमाम (उन पर शांति हो) या इस्लामी सरकारी कर्मचारी जो जकात इकट्ठा करने और जरूरतमंदों तक पहुंचने के लिए जिम्मेदार हैं।
सफ़ी गुलपाइगानी, मकारेम शिराज़ी और नूरी हमदानी जैसे कुछ विद्वानों का मानना है कि फ़ितरा शिया गरीबों और गरीबों के लिए आरक्षित है, इसलिए इसे अन्य मामलों में उपयोग करना उचित नहीं है और फ़ितरा शिया को जरूरतमंदों और ज़रूरतमंदों को दिया जाना चाहिए।
इस बीच, यह सिफारिश की जाती है कि हर किसी को अपना और अपने परिवार का फितरा परिवार के जरूरतमंद सदस्यों को देना चाहिए, और जब उनके बीच कोई गरीब या जरूरतमंद न हो, तो उसे गरीब पड़ोसियों, ज्ञान और सिद्ध लोगों को देना चाहिए। , और धर्मनिष्ठ लोग, साथ ही तकलीद के कुछ महान विद्वान, यदि शहर में कोई जरूरतमंद व्यक्ति है, तो फ़ितरा को एक शहर से दूसरे शहर में स्थानांतरित करना उचित नहीं माना जाता है, अर्थात हर किसी को अपना फ़ितरा अदा करना चाहिए। अपने शहर के गरीबों के लिए.
फ़ितरा अदा करने का समय
फ़ितरा कब अदा करना चाहिए?
फ़ितरा दो बार अदा किया जा सकता है:
एक: ईद का चांद निकलने के बाद, ईद-उल-फितर की नमाज अदा करने से पहले, जो लोग ईद-उल-फितर की नमाज अदा करना चाहते हैं, उन्हें सावधानी से ईद की नमाज अदा करने से पहले अपना फितरा अदा करना चाहिए।
अन्य: ईद की नमाज़ के बाद से धुहर की नमाज़ तक, यानी, जो लोग ईद-उल-फितर की नमाज़ नहीं पढ़ना चाहते हैं, वे धुहर की नमाज़ तक अपना फ़ितरा अदा कर सकते हैं।
और अगर कोई ईद के दिन दोपहर की अजान से पहले फितरा अदा करने में असमर्थ हो तो उसे पहली फुर्सत पर फितरा निकाल लेना चाहिए, लेकिन अदा करने या कजा करने की नियत करना जरूरी नहीं है।
बिंदु: रमज़ान के पवित्र महीने से पहले या उसके दौरान फ़ितरा अदा करना सही नहीं है, इसलिए यदि किसी ने रमज़ान के पवित्र महीने के दौरान अपने और अपने परिवार के लिए फ़ितरा अदा किया है, तो उसे ईद में फिर से फ़ितरा अदा करना चाहिए क्योंकि यह सही समय है फितरा अदा करना ईद का चांद निकलने के बाद करना है या फिर ईद का चांद देखने के बाद कर्ज के रूप में दिए गए पैसे को गिनकर फितरा में जोड़ना है।
रमज़ान महीने की फ़ज़ीलत पर मासूमीन (अ) की हदीसें
पैग़म्बर (स) ने फ़रमाया: " لَوْ یَعْلَمُ الْعَبْدُ ما فِی رَمَضانِ لَوَدَّ اَنْ یَکُونَ رَمَضانُ السَّنَة लो यअलमुल अब्दो मा फ़ी रमज़ाने लवद्दा अय यकूना रमज़ानुस सनता " यदि कोई व्यक्ति रमजान के महीने की बरकतों और वास्तविकताओं से अवगत होता, तो वह चाहता कि पूरा वर्ष रमजान का महीना हो।
अल्लाह के रसूल (स) ने रमज़ान उल मुबारक के महीने की खूबियों के बारे में बहुत ही खूबसूरत कथन कहे हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख नीचे किया गया है।
पैग़म्बर (स) ने फ़रमाया:
" لَوْ یَعْلَمُ الْعَبْدُ ما فِی رَمَضانِ لَوَدَّ اَنْ یَکُونَ رَمَضانُ السَّنَة लो यअलमुल अब्दो मा फ़ी रमज़ाने लवद्दा अय यकूना रमज़ानुस सनता "
यदि कोई व्यक्ति रमजान के महीने की बरकतों और वास्तविकताओं से अवगत होता, तो वह चाहता कि पूरा वर्ष रमजान का महीना हो।
اِنَّ اَبْوابَ السَّماءِ تُفْتَحُ فی اَوَّلِ لَیْلَةٍ مِنْ شَهْرِ رَمَضانِ وَ لا تُغْلَقُ اِلی آخِرِ لَیْلَةٍ مِنْهُ. इन्ना अब्वाबस समाए तुफ़्तहो फ़ी अव्वले लैलतिम मिन शहरे रमजाने वला तुग़लक़ो ऐला आख़ेरे लैलतिम मिन्हो
स्वर्ग के द्वार रमजान माह की पहली रात को खुल जाते हैं और आखिरी रात तक बंद नहीं होते।
لَوْ عَلِمْتُم مالَکُم فِی رَمَضانِ لَزِدْتُم لِلّه تَبارَکَ و تَعالی شُکْرا. लौ अलिमतुम मालकुम फ़ी रमज़ाने लज़िदतुम लिल्लाहे तबारका व तआला शुक्रन
यदि आप जान लें कि रमज़ान के महीने में आपके लिए क्या लिखा गया है, तो आप सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति अत्यंत आभारी होंगे।
وَ کَّلَ اللّه ُ مَلائِکَةً بِالدُّعاءِ لِلصّائِمین؛ वक्कलल्लाहो मलाएकतन बिद्दुआऐ लिस्साऐमीन
अल्लाह तआला रोज़ा रखने वालों के लिए दुआ करने हेतु स्वर्गदूतों को नियुक्त करता है।
हज़रत अली (उन पर शांति हो) ने फ़रमाया:
صَوْمُ الْقَلْبِ خَیْرٌ مِنْ صِیامِ اللِّسانِ و صِیامُ اللِّسانِ خَیْرٌ مِنْ صِیامِ الْبَطْن. सौमुल क़ल्बे ख़ैरुम मिन सेयामिल लेसाने व सेयामुल लेसाने ख़ैरुम मिन सेयामिल बत्ने
दिल का रोज़ा ज़बान के रोज़े से बेहतर है और ज़बान का रोज़ा पेट के रोज़े से बेहतर है।
صَوْمُ النَّفْسِ عَنْ لَذّاتِ الدُّنیا اَنْفَعُ الصِّیامِ. सौमुन नफ़्से अन लज़्ज़ातिद दुनिया अनफ़्उस सेयामे
नफस का सांसारिक सुखों से दूर रहना सबसे लाभकारी रोज़ो में से एक है।
الصِّیامُ اِجْتِنابُ الْمَحارِمِ کَما یَمْتَنِعُ الرَّجُل مِنَ الطَّعامِ وَالشَّرابِ. अस्सयामो इज्तेनाबुल महारेमे कमा यमतनेउर रजोले मिनत तआमे वश्शराबे
रोज़ा उन चीज़ों से परहेज़ करने का कार्य है जिन्हें अल्लाह ने मना किया है, ठीक उसी तरह जैसे इस महीने के दौरान व्यक्ति खाने-पीने से परहेज़ करता है।
इमाम बाकिर (अ.स.) ने फ़रमाया:
«الصِّیام وَالْحَجُّ تَسْکینُ الْقُلُوبِ؛ अस्सयामो वल हज्ज़ो तस्कीनुल क़ुलूबे
रोज़ा और हज दिलों को शांति देते हैं।
इमाम जाफ़र सादिक (अ.स.) ने फ़रमाया:
غُرَّةُ الشُّهُورِ شَهْرُ رَمَضان و قَلْبُ شَهرِ رَمَضان لَیْلَةُ الْقَدْرِ. ग़ुर्रतुश्शोहूरे शहरो रमज़ाने व क़ल्बो शहरे रमज़ाने लैलतुल कद्रे
सबसे पुण्य महीना रमज़ान का महीना है और रमज़ान के महीने का हृदय शब ए कद्र है।
نِعْمَ الشَّهْرُ رَمَضانُ کانَ یُسَمّی عَلی عَهْدِ رَسُولِ اللّه الْمَرْزُوقُ. नेअमश शहरो रमज़ानो काना योसम्मा अला अहदे रसूलिल्लाहिल मरज़ूक़ो
रमज़ान कितना अद्भुत महीना है. पैगम्बर मुहम्मद (स) के समय में इसे नेमतो का महीना कहा जाता था।
इमाम हादी (अ.स.) ने फ़रमाया:
فَرَضَ اللّه ُ تَعالی الصَّوْمَ لِیَجِدَ الْغَنِیُّ مَسَّ الْجُوع لِیَحْنُو عَلَی الْفَقِیرِ. फ़रजल्लाहो तआलस सौमा लेयजेदल ग़निय्यो मस्सल जूए लेयहनू अलल फ़क़ीरे
अल्लाह तआला ने रोज़े को अनिवार्य बनाया है ताकि अमीर लोग भूख महसूस कर सकें और फिर गरीबों और जरूरतमंदों से प्यार कर सकें।
क़ुद्स दिवस पर रैली क्यों ?
कुछ इस्लामी देश और हाकिम ऐसे हैं जिन्होंने फ़िलिस्तीन, क़ुद्स और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए न केवल यह कि आवाज़ नहीं उठाई बल्कि आपस में भेदभाव और नफ़रत फैला कर बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले इस्राईल का साथ दे रहे हैं, इसलिए सोंचने और ध्यान देने का समय है और साथ मिल कर क़ुद्स डे पर समाज के इस कैंसर के विरुध्द आवाज़ उठाएं और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी में हिस्सेदार बनें।
जंग का विरोध
ग़ज़्ज़ा में होने वाले वहशी हमलों और वहां पर होने वाली जंग को रोकना इस रैली का सबसे अहम मक़सद है, वहां जंग में अधिकतर आम नागरिकों को शिकार बना कर उनके साथ वहशियाना सुलूक होता है और इस दरिंदगी को इंसानियत के नाते ख़त्म करना ज़रूरी है, क़ुद्स रैली में भाग लेना वहां पर होने वाली जंग और आम जनता के क़त्लेआम के ख़िलाफ़ अपनी नफ़रत को ज़ाहिर करना है।
आप ख़ुद सोंचे और फ़ैसला करें जिन लोगों के ज़ुल्म और अत्याचारों का हाल यह है कि वह घायल और ज़ख़्मी होने वाले आम नागरिकों तक पहुंचने वाली दवाईयों की गाड़ियां और उनके पनाह लेने वाली जगहों को बम से उड़ा देता हो क्या उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना इंसानियत के अलावा कुछ और है? इसी लिए इस रैली में भाग लेना ज़रूरी है ताकि ज़ालिमों के ज़ुल्म और उनकी दरिंदगी उनके अपराधों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा कर अमन, शांति और सुलह की मांग की जा सके।
इंसानियत की रक्षा
बेशक हम सभी इंसानी उसूलों के पाबंद हैं कि जिनमें सबसे अहम किसी भी परिस्तिथि में लोगों की जान को बचाना है, इंसानी जान की क़ीमत इनती ज़्यादा है कि शायद ही दुनिया में उसकी अहमियत के बराबर कुछ हो, और निहत्थे आम शहरियों की जान की हिफ़ाज़त को किसी भी जंग में वरीयता दी जाती है, न ही उनपर कोई हमला करता है न ही उनपर बम बरसाता है,
लेकिन आप निगाह उठा कर देख लीजिए फ़िलिस्तीन के शहरों पर चाहे ग़ज़्जा हो या रफ़ा, चाहे ख़ान यूनुस हो चाहे क़ुद्स, हर जगह के बच्चे और औरतें तक ज़ायोनी दरिंदों के शिकार हैं, कोई भी उनके हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाला नहीं है, डेमोक्रासी और मानवाधिकार का झूठा दावा करने वालों से उनके भेदभाव के बारे में कोई आवाज़ उठाने वाला तक नहीं है। क़ुर्आनी तालीमात की रौशनी में इंसानियत की मदद और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज़ उठाना और ज़ायोनी दरिंदों के ख़िलाफ़ फ़रियाद बुलंद करना करामत और बुज़ुर्गी कहलाता है।
मुसलमानों की रक्षा
इस्लाम ने मुसलमानों की रक्षा को वाजिब क़रार देने के साथ साथ इस्लामी सरहदों की रक्षा को भी ज़रूरी बताया है, वह भी ऐसे मुसलमान जो ग़ज़्ज़ा में पिछले लगभग 10 सालों ज़ायोनी दरिंदों के बीच घिरे हुए हैं जिनकी न कोई पनाहगाह है न कोई उनके हाल पर अफ़सोस करने वाला और उनकी दर्द भरी चीख़ों को आसमान के अलावा कोई सुनने वाला नहीं है, दीनी तालीमात की रौशनी उनकी मदद और उनकी फ़रियाद को सुनना हमारी ज़िम्मेदारी है,
इस्लाम की किसी मज़हब से कोई दुश्मनी नहीं है इस्लाम ज़ुल्म करने और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ ख़ामोश रहने से मना करता है फिर चाहे ज़ुल्म करने और सहने वाला मुसलमान ही क्यों न हो क्योंकि इस्लाम जंग और युध्द का मज़हब नहीं है और जो इस्लाम के नाम पर ख़ून ख़राबा कर रहे हैं वह मुसलमान ही नहीं है, और अगर अरब के देश फ़िलिस्तीनियों की पीठ में छूरा न घोंपे तो फ़िलिस्तीन को किसी दूसरे की मदद की ज़रूरत भी नहीं होगी।
मज़लूमों का समर्थन
इस्लामी तालीमात में मज़लूमों के समर्थन पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है, और मज़लूमों के समर्थन में आवाज़ उठाने के लिए सरहदें कभी रुकावट नहीं बनतीं, दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी इंसान पर अगर ज़ुल्म हो रहा है तो उसके समर्थन और ज़ालिम के विरोध में आवाज़ उठाना एक ज़िंदा इंसान की पहचान है वरना हम में और जंगल में पास पास में उगे पेड़ों के बीच कोई फ़र्क़ नहीं रह जाएगा जैसे वह हैं तो पास पास लेकिन एक दूसरे के हाल चाल से बे ख़बर रहते हैं वैसे ही हमारा हाल होगा।
इंसाफ़ और सुलह की मांग
अगर हम सभी राजनीतिक पार्टियों की सुबह से शाम तक की कोशिशों के पीछे पाए जाने वाले कारण पर ध्यान दें और उसे एक जुमले में बयान करना चाहें तो वह यह होगा कि सभी राजनीतिक पार्टियां जिनमें थोड़ी भी इंसानियत पाई जाती है तो वह लोगों के बीच इंसाफ़ और न्याय प्रणाली को क़ायम करने की पूरी कोशिश करेगा, और यह बात किसी ख़ास जगह ख़ास लोगों या ख़ास विचारधारा से जुड़ें लोगों से विशेष नहीं है, और फ़िलिस्तीनियों की शुरू से आज तक यही कोशिश है कि उनके बीच अदालत इंसाफ़ और सुलह क़ायम हो सके।
जब से लोगों ने पूरी आज़ादी और अधिकार के साथ हमास को ग़ज़्ज़ा में सत्ता के लिए चुना तभी से इस्राईल ने ग़ज़्ज़ा को अपनी मिसाईलों और बमों का निशाना बनाते हुए वहां के मासूम बच्चों तक को अपनी हैवानियत को शिकार बनाया, और हद तो यह है कि अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती ज़ख़्मी लोगों तक को अपनी दरिंदगी का शिकार बना रखा है। पिछले 10 सालों से इस्राईल हुकूमत ने हर तरह की हैवानियत और दरिंदगी को अपना लिया ताकि हमास को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकें लेकिन हमास और कुछ उनके समर्थन करने वाले दूसरे जवान हैं जिनकी प्रतिरोध के आगे ख़ुद इस्राईल घुटने टेकने पर मजबूर दिखाई देता है।
आपसी इत्तेहाद और भाईचारे की अलामत
आज के इस दौर में जहां लोकल से लेकर इंटरनेशनल एजेंसियां लोगों को आपस में तोड़ने की कोशिश में दिन रात लगी हैं वहां कुछ ऐसे लोगों का होना बहुत ज़रूरी है जो एक साथ कंधे से कंधा मिला कर साम्राज्वादी शक्तियों को मुंह तोड़ जवाब देना चाहिए।
ध्यान रहे इस्राईल की दुश्मनी फ़िलिस्तीन या ग़ज़्ज़ा या हमास से नहीं है बल्कि यह दरिंदे हर उस आवाज़ को हमेशा के लिए दबा देना चाहते हैं जो आपसी भाईचारे और इत्तेहाद के पैग़ाम को फैला रही हो, दुश्मन जानता है पूरे इस्लामी जगत की निगाहें इसी क़ुद्स पर टिकी हुई हैं और इसी के नाम से सारे मुसलमान अपने अक़ीदती मतभेद भुला कर एक साथ अपने क़िबल-ए-अव्वल की आज़ादी के लिए सड़कों पर उतर आते हैं।
इस्राईल पिछले कई सालों से ग़ज़्ज़ा की नाकाबंदी और उस पर क़ब्ज़ा किए बैठा है और बैतुल मुक़द्दस पर तो 60 साल से ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन अभी तक इतने सारे इस्लामी देश आपस में मिल कर उसे आज़ाद तक नहीं करा सके उसका कारण यही है कि अभी भी कुछ इस्लामी देश और हाकिम ऐसे हैं जिन्होंने फ़िलिस्तीन, क़ुद्स और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए न केवल यह कि आवाज़ नहीं उठाई बल्कि आपस में भेदभाव और नफ़रत फैला कर बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले इस्राईल का साथ दे रहे हैं, इसलिए सोंचने और ध्यान देने का समय है और साथ मिल कर क़ुद्स डे पर समाज के इस कैंसर के विरुध्द आवाज़ उठाएं और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी में हिस्सेदार बनें।
क़ुरआन और सदाचार
इस में कोई शक नही है कि सदाचार हर समय में महत्वपूर्ण रहा हैं। परन्तु वर्तमान समय में इसका महत्व कुछ अधिक ही बढ़ गया है। क्योँकि वर्तमान समय में इंसान को भटकाने और बिगाड़ने वाले साधन पूर्व के तमाम ज़मानों से अधिक हैं। पिछले ज़मानों मे बुराईयाँ फैलाने और असदाचारिक विकार पैदा करने के साधन जुटाने के लिए मुश्किलों का सामना करते हुए अधिक मात्रा मे धन खर्च करना पड़ता था। परन्तु आज के इस विकसित युग में यह साधन पूरी दुनिया मे व्याप्त हैं।जो काम पिछले ज़मानों में सीमित मात्रा में किये जाते थे वह आज के युग में असीमित मात्रा में बड़ी आसानी के साथ क्रियान्वित होते हैं। आज एक ओर विकसित हथियारों के द्वारा इंसानों का कत्ले आम किया जा रहा है। तो दूसरी ओर दुष्चारिता को बढ़ावा देने वाली फ़िल्मों को पूरी दुनिया मे प्रसारित किया जा रहा है।विशेषतः इन्टर नेट के द्वारा मानवता के लिए घातक विचारों व भावो को दुनिया के तमाम लोगों तक पहुँचाया जा रहा है। इस स्थिति में आवश्यक है कि सदाचार की तरफ़ गुज़रे हुए तमाम ज़मानों से अधिक तवज्जोह दी जाये। इस कार्य में किसी भी प्रकार की ढील हमको बहुत से संकटों में फसा सकती है। खुश क़िस्मती से हमारे पास क़ुरआने करीम जैसी किताब मौजूद है। जिसमे एक बड़ी मात्रा में अति सुक्ष्म सदाचारिक उपदेश पाये जाते हैं। दुनिया के दूसरे धर्मों के अनुयाईयों के पास ऐसी नेअमतें नही हैं। बस हमें इस बात की ज़रूरत है कि हम क़ुरआन के साथ अपने सम्बन्ध को बढ़ायें और उसके बताये हुए रास्ते पर अमल करें ताकि इस ज़माने में भटकनें से बच सकें। सदाचार विषय का महत्व सदाचार वह विषय है जिसको क़ुरआने करीम में विशेष महत्व दिया गया है। और तमाम नबीयों का उद्देश भी सदाचार की शिक्षा देना ही था। क्योँकि सदाचार के बिना इंसान के दीन और दुनिया दोनों अधूरे हैं। वास्तव में इंसान को इंसान कहना उसी समय शोभनीय है जब वह इंसानी सदाचार से सुसज्जित हो। सदाचारी न हो ने पर यह इंसान एक खतरनाक नर भक्षी का रूप भी धारण कर लेता है। और चूँकि इंसान के पास अक़्ल जैसी नेअमत भी है अतः इसका भटकना अन्य प्राणीयों से अधिक घातक सिद्ध होता है।और ऐसी स्थिति में वह सब चीज़ों को ध्वस्त करने की फ़िक्र में लग जाता है। और अपने भौतिक सुख और लाभ के लिए युद्ध करके बे गुनाह लोगों का खून बहानें लगता है। क़ुरआने करीम को पढ़ने से मालूम होता है कि बहुतसी आयात इस विषय की महत्ता को प्रकट करती हैं। जैसे सूरए जुमुआ की दूसरी आयत मे ब्यान किया गया कि “वह अल्लाह वह है जिसने मक्के वालों के मध्य एक रसूल भेजा जो उन्हीं मे से था। (अर्थात मक्के ही का रहने वाला था) ताकि वह उनके सामने आयात को पढ़े और उनकी आत्माओं को पवित्र करे और उनको किताब व हिकमत(बुद्धी मत्ता) की शिक्षा दे इस से पहले यह लोग(मक्का वासी) प्रत्यक्ष रूप से भटके हुए थे।” और सूरए आले इमरान की आयत न. 64 मे ब्यान होता है कि “यक़ीनन अल्लाह ने मोमेनीन पर एहसान (उपकार) किया कि उनके दरमियान उन्हीं में से एक रसूल भेजा जो इनके सामने अल्लाह की आयात पढ़ता है इनकी आत्माओं को पवित्र करता है और उनको किताब व हिकमत (बुद्धिमत्ता ) की शिक्षा देता है जबकि इससे पहले यह लोग प्रत्यक्ष रूप से भटके हुए थे।” उपरोक्त की दोनों आयते रसूले अकरम (स.) की रिसालत के वास्तविक उद्देश्य,आत्माओं की पवित्रता और सदाचारिक प्रशिक्षण को ब्यान कर रही हैं। यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि आयात की तिलावत, (आवाज़ के साथ पढ़ना) किताब और हिकमत की शिक्षा को आत्माओं को पवित्र बनाने और प्रशिक्षत करने के लिए आधार बनाया गया है। और आत्माओं की पवित्रता ही सदाचारिक ज्ञान का वास्तविक उद्देश्य है। शायद यही वजह है कि अल्लाह ने क़ुरआने करीम की बहुत सी आयात में आत्मा की पवित्रता को शिक्षा से पहले ब्यान किया है। क्योँकि वास्तविक ऊद्देश्य आत्माओं की पवित्रता ही है। जबकि क्रियात्मक रूप मे शिक्षा को आत्मा की पवित्रता पर प्राथमिकता प्राप्त है। उपरोक्त लिखित दोनों आयतों में से पहली आयत में अल्लाह ने रसूले अकरम (स.) को सदाचार की शिक्षा देने वाले के रूप मे रसूल बनाने को अपनी एक निशानी बताया है। और प्रत्यक्ष रूप से भटके होनें को, शिक्षा और प्रशिक्षण के विपरीत शब्द के रूप मे पहचनवाया है। इससे मालूम होता है कि क़ुरआने करीम में सदाचार विषय को बहुत अधिक महत्ता दी गई है। और दूसरी आयत में रसूले अकरम (स.) को सदाचार के शिक्षक के रूप मे भेज कर मोमेनीन पर एहसान(उपकार) करने का वर्णन किया गया है। जो सदाचार की महत्ता के लिए एक खुली हुई दलील है। नतीजा उल्लेखित आयतों व अन्य आयतों के अध्ययन से पता चलता है कि क़ुरआन की दृष्टि में सदाचार विषय बहुत महत्व पूर्ण है। और इसको एक आधारिक विषय के रूप में माना गया है। जबकि इस्लाम के दूसरे तमाम क़ानूनों को इस के अन्तर्गत ब्यान किया गया है।सदाचार का रूर्ण विकास ही वह महत्वपूर्ण उद्देश्य है जिस पर तमाम आसमानी धर्मों ने विशेष रूप से बल दिया है। और सदाचार ही को तमाम सुधारों का मूल माना है। ज्ञान और सदाचार का सम्बन्ध अल्लाह ने क़ुरआने करीम की बहुत सी आयात में किताब और हिकमत(बुद्धिमत्ता) की शिक्षा को आत्मा की पवित्रता के साथ उल्लेख किया है। कहीं पर आत्मा की पवित्रता का ज्ञान से पहले उल्लेख किया और कहीं पर आत्मा की पवित्रता को ज्ञान के बाद ब्यान किया। इस से यह ज्ञात होता है कि ज्ञान और सदाचार के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है।अर्थात अगर किसी इंसान को किसी बात की अच्छाई या बुराई का ज्ञान हो जाये तो इसका असर उसकी व्यक्तित्व पर पड़ेगा वह अच्छाई को अपनाने और बुराई से बचने की कोशिश करेगा।इंसान की बहुत सी व्यवहारिक बुराईयाँ अज्ञानता के आधार पर होती हैं। अतः अगर समाज से अज्ञानता को दूर कर दिया जाये तो समाज से बहुत सी बुराईयाँ समाप्त हो जायेंगीं। और धीरे धीरे अच्छाईयाँ बुराईयों का स्थान ले लेगीं। यह बात अलग है कि यह क़ानून पूरी तरह से लागू नही होता है।और यह भी आवश्यक नही है कि सदैव ऐसा ही हो। क्योकिं इस सम्बन्ध में दो दृष्टि कोण पाये जाते हैं पहला दृष्टिकोण यह है कि ज्ञान अच्छे सदाचार के लिए कारक है। तथा समस्त सदाचारिक बुराईयाँ अज्ञानता के कारण होती हैं। इस दृष्टि कोण के अनुसार सदाचारिक बुरीय़ों को समाप्त करने का केवल एक ही तरीक़ा है और वह यह कि समाज में व्यापक स्तर पर शिक्षा का प्रसार करके समाज के विचारों को उच्चता प्रदान की जाये। दूसरा दृष्टि कोण यह है कि ज्ञान और सदाचार मे आपस में कोई सम्बन्ध नही है। और ज्ञान बदकार और दुराचारी लोगों कोउनकी बदकारी और दुराचारी में मदद करता है। और वह पहले से बेहतर तरीक़े से अपने बुरे कामों पर बाक़ी रहते हैं। लेकिन वास्तविक्ता यह है कि न तो ज्ञान और सदाचार के सम्बन्ध से पूर्ण रूप से मना किया जा सकता है और न ही पूर्ण रूप से ज्ञान को सदाचार का आधार माना जा सकता है। अर्थात यह भी नही कहा जा सकता कि जहाँ पर ज्ञान होगा वहाँ पर अच्छा सदाचार भी अवश्य होगा। क्या इन्सान के अख़लाक़ मे परिवर्तन हो सकता है ? यह एक ऐसा सवाल है जो सदाचार की समस्त बहसों से सम्बन्धित है। क्योंकि अगर इन्सान के सदाचार में परिवर्तन को सम्भव न माना जाये तो केवल सदाचार विषय ही नही अपितु तमाम नबियों की मेहनतें और तमाम आसमानी किताबो (क़ुरआन, इंजील, तौरात, ज़बूर) में वर्णित सदाचारिक उपदेश निष्फल हो जायेगें। और दण्ड विधान की समस्त सहिंताऐं भी निषकृत सिद्ध होगीं। समस्त नबियों की शिक्षा और आसमानी किताबों में सदाचार से सम्बन्धित ज्ञान का पाया जाना इस बात के लिए तर्क है कि इंसान के सदाचार मे परिवर्तन सम्भव है। हमने बहुत से ऐसे लोगों को देखा हैं जिनका सदाचार और व्यवहार सही प्रशिक्षण के द्वारा बहुत अधिक परिवर्तित हुआ है। यहाँ तक कि जो लोग कभी शातिर बदमाश थे आज वही लोग सही मार्ग दर्शन के कारण आबिद और ज़ाहिद व्यक्ति के रूप में परिवर्तित हो चुके हैं। अपनी इस बात को सिद्ध करने के लिए क़ुरआने करीम से कुछ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
1- इस दुनिया में अम्बिया और आसमानी किताबों का आना इस बात के लिए सबसे अच्छा तर्क है कि हर व्यक्ति को प्रशिक्षित करना और उसके व्यवहार को बदलना सम्भव है। जैसे कि सूरए जुमुआ की दूसरी आयत में ब्यान हुआ है जिसका वर्णन पीछे भी किया जा चुका है। और इसी के समान दूसरी आयतों से यह ज्ञात होता है कि रसूले अकरम (स.) के इस दुनिया में आने का मुख्य उद्देश्य लोगों का मार्ग दर्शन करना उनको शिक्षा प्रदान करना तथा उनकी आत्माओं को पवित्र करना है जो प्रत्यक्ष रूप से भटके हुए थे।और यह सब तभी सम्भव है जब इंसान के व्यवहार में परिवर्तन सम्भव हो।
2- क़ुरआन की वह समस्त आयतें जिन में अल्लाह ने पूरी मानवता को सम्बोधित किया है और सदाचारिक विशेषताओं को अपनाने का आदेश दिया है यह समस्त आयतें इन्सान के सदाचार मे परिवर्तन सम्भव होने पर सबसे अचछा तर्क हैं। क्योंकि अगर यह सम्भव न होता हो अल्लाह का पूरी मानवता को सम्बोधित करते हुए इसको अपनाने का आदेश देना निष्फल होगा। इन आयात पर एक आपत्ति व्यक्त की जा सकती है कि इन आयात में से अधिकतर आयात अहकाम को ब्यान कर रही हैं। और अहकाम का सम्बन्ध इंसान के क्रिया कलापो से है। जबकि सदाचार का सम्बन्ध इंसान की आन्तरिक विशेषताओं से है। अतः यह कहना सही न होगा कि इन आयात में सदाचार की शिक्षा दी गई है। इस आपत्ति का जवाब यह है कि इंसान के सदाचार और क्रिया कलापो में बहुत गहरा सम्बन्ध पाया जाता है। यह पूर्ण रूप से एक दूसरे पर आधारित हैं। और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। इंसान के अच्छे क्रिया कलाप उसके अच्छे सदाचार का नतीजा होते हैं।जिस तरह उसके बुरे क्रिया कलाप उसके दुराचार का नतीजा होते हैं।
3- क़ुरआने करीम की वह आयात जो स्पष्ट रूप से सदाचार को धारण करने और बुराईयों से बचने का निर्देश देती हैं वह इंसान के सदाचार मे परिवर्तन के सम्भव होने के विचार को दृढता प्रदान करती हैं। जैसे सूरए शम्स की आयत न.9 और 10 में कहा गया है कि “क़द अफ़लह मन ज़क्काहा व क़द ख़ाबा मन दस्साहा” जिस ने अपनी आत्मा को पवित्र कर लिया वह सफ़ल हो गया और जिसने अपनी आत्मा को बुराईयों मे लीन रखा वह अभागा रहा। इस आयत में एक विशेष शब्द “ दस्साहा” का प्रयोग हुआ है और इस शब्द का अर्थ है किसी बुरी चीज़ को दूसरी बुरी चीज़ से मिला देना। इस से यह सिद्ध होता है कि पवित्रता इंसान की प्रकृति मे है और बुराईयाँ इस को बाहर से प्रभावित करती हैं अतः दोनों मे परिवर्तन सम्भव है। अल्लाह ने सूरए फ़ुस्सेलत की आयत न.34 मे कहा है कि “तुम बुराई का जवाब अच्छे तरीक़े से दो” इस तरह इस आयत से यह ज्ञात होता है कि मुहब्बत और अच्छे व्यवहार के द्वारा भयंकर शत्रुता को भी मित्रता में बदला जा सकता है। और यह उसी स्थिति में सम्भव है जब अख़लाक़ मे परिवर्तन सम्भव हो।