رضوی
दुश्मन ने फौजी और राजनीतिक मोर्चों पर नाकामी के बाद अपनी पूरी ताकत सांस्कृतिक युद्ध पर लगा दी है।
शहर बीरजंद में आयोजित एक कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए आयतुल्लाह महमूद रजबी ने कहा कि हक़ और बातिल का टकराव इंसान की पैदाइश के आगाज़ से ही शुरू हो गया था और क़यामत तक जारी रहेगा।
शहर बीरजंद में आयोजित एक कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए आयतुल्लाह महमूद रजबी ने कहा कि हक़ और बातिल का टकराव इंसान की पैदाइश के आगाज़ से ही शुरू हो गया था और क़यामत तक जारी रहेगा। उन्होंने कुरआन मजीद की आयतों की रोशनी में बताया कि अल्लाह ने इंसान को दोनों रास्ते दिखा दिए, मगर शैतान ने ऐलान किया कि वह सीधे रास्ते पर घात लगाकर इंसान को गुमराह करेगा।
आयतुल्लाह रजबी ने कहा कि इस जद्दोजहद के दो मैदान हैं: एक व्यक्ति का आंतरिक मैदान, जहाँ इंसान अपनी ख्वाहिशों और बुराइयों से लड़ता है। और दूसरा सामाजिक मैदान, जहाँ समाज को गुमराह करने के लिए बाहरी साजिशों और दबाव का सामना होता है।उन्होंने कहा कि जो शख्स अपने अंदर की बुराइयों पर काबू न पा सके, वह सामाजिक मैदान में भी कामयाब नहीं हो सकता।
उन्होंने साफ़ किया कि दुश्मन ने जब सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक शैबों में नाकामियाँ देखीं तो उसने पूरी तवज्जो फिक्री और सांस्कृतिक जंग पर मरकूज़ कर दी, जहाँ वह नौजवान नस्ल को निशाना बना रहा है। इस खतरे का मुकाबला सिर्फ़ तब मुमकिन है जब समाज के मुख़्तलिफ तबके एक मजबूत फिक्री और सांस्कृतिक नेटवर्क की शक्ल में मुत्तहिद हो जाएँ।
आयतुल्लाह रजबी ने बताया कि दुश्मन की ताकत जाल की मानिंद मुनज्जिम है, इसका तोड़ भी जाल की मानिंद हम आहंगी से ही मुमकिन है। उन्होंने सांस्कृतिक व फिक्री नेटवर्क को मौजूदा दौर की सबसे अहम हिक्मत-ए-अमली क़रार दिया और कहा कि यह नेटवर्क उसी वक्त मूअस्सिर होगा जब इसकी बुनियाद इमाम ख़ुमैनी (रह.) और रहबर-ए-इंकेलाब के नज़रियए-ए-मुक़ाविमत पर क़ायम हो।
उन्होंने याद दिलाया कि इमाम ख़ुमैनी रह. इंकेलाब से पहले ही इस्तकबार और सहयोनी मंसूबों के मुक़ाबले मुज़ाहिमत पर ज़ोर देते रहे थे, और रहबर-ए-मोअज़्ज़म ने इसी रास्ते को मजबूत करते हुए आज मुक़ावमती मोर्चे को बेमिसाल क़ुव्वत बना दिया है।
आयतुल्लाह रजबी ने आइम्मा-ए-अतहार अ.स. की सीरत का हवाला देते हुए कहा कि आइम्मा (अ.स.) ने भी हर दौर में अपने नुमाइंदों और साहिब-ए-फिक्र अफराद का मजबूत नेटवर्क क़ायम किया, ताकि हक़ का पैगाम लोगों तक पहुँचता रहे। आज भी इसी तर्ज पर हलक़ाय ए फिक्र, इल्मी नशिस्तें और मुसलसिल राबता ज़रूरी है, ताकि फिक्री यलग़ार का मुकाबला किया जा सके।
उन्होंने आल्लामा मिस्बाह यज़्दी रह. के दो बुनियादी उसूल भी बयान किए: हर काम खालिस निय्यत से होना चाहिए, और अहले-बैत (अ.स.) से तौस्सुल कभी तर्क नहीं होना चाहिए यही कामयाबी और इस्तिक़ामत का राज़ है।
ईरान और क़तर के विदेश मंत्रियों की टेलीफोनिक वार्ता
इस्लामी गणतंत्र ईरान के विदेश मंत्री और क़तर के प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री ने टेलीफोनिक वार्ता में द्विपक्षीय और क्षेत्रीय व वैश्विक मुद्दों पर चर्चा की है।
इस्लामी गणतंत्र ईरान के विदेश मंत्री और क़तर के प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री ने इस टेलीफोनिक वार्ता में ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराकची और क़तर के प्रधानमंत्री व विदेश मंत्री मोहम्मद बिन अब्दुलरहमान अलसानी ने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए आपसी प्रयास जारी रखने पर ज़ोर दिया।
रिपोर्ट के अनुसार दोनों नेताओं ने गाज़ा की ताज़ा स्थिति और सुरक्षा परिषद में पेश की गई अमेरिका की हालिया प्रस्तावित प्रस्ताव पर चर्चा की और फिलिस्तीनियों के वैध और कानूनी अधिकारों के हनन को रोकने, खास तौर पर उनके भाग्य के निर्धारण के अधिकार के संबंध में भी विचार-विमर्श जारी रखने पर ज़ोर दिया।
ईरान और क़तर के विदेश मंत्रियों ने पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के बीच बढ़ती तनाव पर भी चिंता जताते हुए क्षेत्र में शांति और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए क्षेत्रीय देशों के प्रयासों के जारी रहने के महत्व पर बल दिया।
क़यामत में बे मारफत इंसान की कोई क़द्र नहीं हैं।उस्ताद हुसैन अंसारियान
ईरान के मशहूर खतीब, कुरआन के शिक्षक और हौज़ा ए इल्मिया के उस्ताद हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हुसैन अंसारियान ने कहा कि जो व्यक्ति अपने जीवन को कुरआन, पैगंबर मुहम्मद स.अ.व.व. और अहले बैत (अ.स.) की विलायत के अनुसार नहीं बिताता, वह दुनिया में भी बेकदर रहता है और क़यामत में भी उसकी कोई हैसियत नहीं रहेगी।
ईरान के मशहूर खतीब, कुरआन के शिक्षक और हौज़ा ए इल्मिया के उस्ताद हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हुसैन अंसारियान ने कहा कि जो व्यक्ति अपने जीवन को कुरआन, पैगंबर मुहम्मद स.अ.व.व. और अहले बैत (अ.स.) की विलायत के अनुसार नहीं बिताता, वह दुनिया में भी बेकदर रहता है और क़यामत में भी उसकी कोई हैसियत नहीं रहेगी।
हज़रत फातिमा ज़हरा (स.अ.) की शहादत के दिनों के अवसर पर तेहरान के हुसैनिया हमदानिय्यह की महफिल में संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि अल्लाह ने हर मख्लूक को एक मकसद के साथ पैदा किया है, लेकिन इंसान वह एकमात्र मखलूक है जिसे अपनी कदर व कीमत खुद पहचाननी होती है। अगर वह अल्लाह की हिदायत और पैगंबर इस्लाम स.अ.व.व. के रास्ते को इख्तियार न करे, तो उसकी ज़िंदगी ला हासिल बन जाती है।
उन्होंने कुरआन की आयतفَلَا نُقِیمُ لَهُمْ یَوْمَ الْقِیَامَةِ وَزْنًا
(सूराह कहफ, 105) पढ़ते हुए कहा कि कुछ लोग ऐसे होंगे जिनके अमल तोलने के लिए कोई तराजू ही नहीं लगाया जाएगा, क्योंकि उनके वजूद में कोई क़दर, कोई सच्चाई और कोई भलाई मौजूद नहीं होगी। क़यामत के दिन असली मापदंड कुरआन, रसूल अकरम (स.अ.व.व.) और हज़रत अली (अ.स.) से मोहब्बत होगी।
उस्ताद अंसारियान ने कहा कि ज्ञान वाले इंसान का दिल ईमान, यक़ीन, बेहतर अख़लाक और नेक अमल से रोशन होता है, जबकि बिना ज्ञान वाले लोग खोखले और बेबुनियाद होते हैं। उन्होंने उवैस क़रनी, मालिक अश्तर और कुमैल जैसे लोगों की मिसाल देते हुए कहा कि हक़ीकत को समझने के लिए हमेशा देखना ज़रूरी नहीं, कभी एक सच्चा कलमा ही इंसान को मंज़िल तक पहुंचा देता है।
उन्होंने अफसोस ज़ाहिर किया कि दुनिया की बड़ी तादाद कुरआन की अज़ीम नेमत से फायदा नहीं उठाती, हालांकि अल्लाह ने इसे इंसानों की रहनुमाई के लिए उतारा है। कुरआन साफ लफ्ज़ों में फर्क बताता है कि नेक और बद बराबर नहीं हो सकते।
आखिर में उन्होंने कहा कि मोमिन कब्र और क़यामत में भी अकेला नहीं होता, क्योंकि अल्लाह के साथ होता है। इंसान चाहे तो खुद को नेकी और रोशनी की राह पर डाल सकता है, और चाहे तो अपनी ज़िंदगी बेमकसद और बेवज़न बना सकता है।
सीरत ए हज़रत ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा विवाहित जीवन का आदर्श उदाहरण
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाहे अलैहा) एक मिसाली पत्नी के तौर पर तमाम मुसलमान ख़्वातीन के लिए एक कामिल नमूना हैं, जिनकी घरेलू ज़िंदगी मोहब्बत, ईसार और वफ़ादारी से भरी थी।
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (सलामुल्लाहे अलैहा) एक मिसाली पत्नी के तौर पर तमाम मुसलमान ख़्वातीन के लिए एक कामिल नमूना हैं, जिनकी घरेलू ज़िंदगी मोहब्बत, ईसार और वफ़ादारी से भरी थी।
- शौहर की मदद और साथ देना
जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम जिहाद या मैदान-ए-जंग से वापस आते, तो हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाहे अलैहा बहुत गर्मजोशी से उनका इस्तेक़बाल फरमातीं। आप उनकी तलवार लेकर साफ़ करतीं और घर में सुकून और मोहब्बत का माहौल पैदा करतीं। हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा न सिर्फ़ घरेलू कामों में बल्कि इमाम अली अलैहिस्सलाम के तमाम समाजी और दینی कामों में भी शरीक रहतीं। आपकी हमफ़िक्री और हमदर्दी हज़रत अली के लिए तस्कीन-ए-क़ल्ब का बाइस बनती थी।
- शौहर के लिए ज़ेबह और आराइश
इस्लामी तालिमात में मियां-बीवी दोनों को एक-दूसरे के लिए ख़ुशनुमा रहना पसंद किया गया है। हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा की ज़िंदगी में भी यह उसूल साफ़ नज़र आता है। रिवायत है कि रसूल-ए-ख़ुदा सल्लल्लाहु अलैहि वा आलेहि वसल्लम ने उनकी शादी की रात के लिए सबसे बेहतरीन ख़ुशबूदार अतर का इंतज़ाम फरमाया था, और हज़रत ज़हरा हमेशा अपने घर में पाकीज़गी और ख़ुशबू को पसंद फरमातीं।
- क़नाअत और शौहर की रज़ा की तलाश
एक मौक़े पर जब अमीरुल-मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम ने फरमाया: "ऐ फ़ातिमा! क्या कोई खाना है ताकि मैं अपनी भूख मिटाऊँ?"
हज़रत ने जवाब दिया: "दो दिन से घर में खाना नहीं, जो कुछ था वो मैंने आप और अपने बेटों हसन और हुसैन अलैहिमस्सलाम को दे दिया।"
इमाम अली अलैहिस्सलाम ने फरमाया: "फ़ातिमा! तुमने मुझसे क्यों न बताया ताकि मैं कुछ इंतज़ाम करता?"
इस पर हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने हया से सर झुकाकर फरमाया: "ऐ अबल-हसन! मुझे अपने रब से शर्म आती है कि आपसे वो चीज़ मांगूँ जो आपके बस में न हो।"
यह जुमला हज़रत ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा की ग़ैर-मामूली क़नाअत, सब्र और शौहर की रज़ामंदी की तलाश का ज़बरदस्त मज़हर है — आप न सिर्फ़ एक नेक बीवी थीं बल्कि कामिल इंसानियत का नमूना भी थीं।
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा की इज़्दिवाजी ज़िंदगी मोहब्बत, ईसार, दींदारी और समझ-बूझ से लबरेज़ थी। आपने अमली तौर पर दिखाया कि एक मिसाली शरीक-ए-हयात वो है जो मोहब्बत के साथ ज़िम्मेदारी निभाए, शौहर का सहारा बने और दुनियावी ख़्वाहिशात के बजाय रज़ा-ए-इलाही को तरजीह दे।
अल्लाह के दर पर जाना चाहिए ताकि दूसरों के सामने गिड़गिड़ाना न पड़े
इंसान बहुत सारी चीजों का ज़रूरतमंद है, इन ज़रूरतों से छुटकारा पाने और इन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए किससे कहें? अल्लाह से क्योंकि वह हमारी ज़रूरतों को जानता है, अल्लाह जानता है कि आप क्या चाहते हैं, क्या ज़रूरी है; और कौन सी चीज़ आप उससे मांग रहे हैं और सवाल कर रहे हैं तो अपने अल्लाह से मांगिए।
हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने फरमाया,इंसान सिर से पांव तक ज़रूरतमंद है, इन ज़रूरतों से छुटकारा पाने और इन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए किससे कहें? अल्लाह से; क्योंकि वह हमारी ज़रूरतों को जानता है, अल्लाह जानता है कि आप क्या चाहते हैं, क्या ज़रूरी है; और कौन सी चीज़ आप उससे मांग रहे हैं और सवाल कर रहे हैं तो अपने अल्लाह से मांगिए।
अल्लाह फ़रमाता हैः मुझसे दुआ करो। यानी मुझको पुकारो मैं तुमको जवाब देता हूं, अलबत्ता यह जवाब देना, ज़रूरत पूरी कर देने के मानी में नहीं है, फ़रमाता हैः मैं तुमको जवाब देता हूं और लब्बैक कहता हूं।
मैं तुम्हारी दुआ क़ुबूल करुंगा” निश्चित तौर पर अल्लाह की तरफ़ से जवाब बहुत से मौक़ों पर हाजत पूरी होने और जो कुछ आपने अल्लाह से चाहा है उसके पूरे होने के साथ है। (अल्लाह अपने बंदों को दूसरों का मोहताज देखना पसंद नहीं करता)
अमेरिका, इज़रायल द्वारा लेबनानी प्रतिरोध को ख़त्म करना चाहता है और ऐसा नामुमकिन है
हिज़्बुल्लाह महासचिव शेख़ नईम क़ासिम ने कहा है कि, अमेरिका, इज़रायल के ज़रिए लेबनान की ‘मुक़ावमत’ यानी प्रतिरोध की भूमिका को ख़त्म करना चाहता है। बेरूत में शहीद दिवस के मौके पर उन्होंने नारे जब हम शहीद होते हैं तब जीतते हैं के तहत भाषण दिया और कहा कि यह दिन लेबनान में एक आम उत्सव की तरह मनाया जाएगा।
हिज़्बुल्लाह महासचिव शेख़ नईम क़ासिम ने कहा है कि, अमेरिका, इज़रायल के ज़रिए लेबनान की ‘मुक़ावमत’ यानी प्रतिरोध की भूमिका को ख़त्म करना चाहता है। बेरूत में शहीद दिवस के मौके पर उन्होंने नारे जब हम शहीद होते हैं तब जीतते हैं के तहत भाषण दिया और कहा कि यह दिन लेबनान में एक आम उत्सव की तरह मनाया जाएगा।
नईम क़ासिम ने कहा कि हिज़्बुल्लाह की बुनियाद , इज़्ज़त, लेबनान की गरिमा और फ़िलिस्तीन की मदद पर रखी गई थी। उन्होंने कहा कि सन 2000 से 2023 तक हम “रोकथाम की स्थिति में थे। “पहली जंग” इज़रायल की घुसपैठ के खिलाफ़ एक दीवार बनी जिसने दक्षिण लेबनान की सीमाओं पर दुश्मन को रोक दिया।
उन्होंने बताया कि अक्टूबर समझौता (October Agreement) लेबनानी सेना की दक्षिण लितानी नदी के नीचे तैनाती से संबंधित है, जो प्रतिरोध के लिए स्वीकार्य है। “हम इसलिए विजयी हैं क्योंकि आज लेबनानी सेना दक्षिण लितानी में मौजूद है वे हमारे ही बेटे हैं। सरकार ने अपना रोल निभाने का वादा किया, जबकि अमेरिका ने अपने वादे पूरे नहीं किए क्योंकि अगर इज़रायल पीछे हटता है तो लेबनान अपनी आज़ादी और इज़्ज़त वापस पा लेगा।
शेख़ क़ासिम ने कहा कि अमेरिका और इज़रायल, लेबनान के भविष्य में दखल देते हैं उसकी सेना, अर्थव्यवस्था, राजनीति और नीतियों को नियंत्रित करते हैं।अमेरिका, इज़रायल के ज़रिए लेबनान के प्रतिरोध को ख़त्म करना चाहता है और देश को दुश्मन के हमलों के सामने खुला छोड़ देना चाहता है।उन्होंने कहा,हम न हथियार डालेंगे और न झुकेंगे।
उन्होंने याद दिलाया कि 1982 में इज़रायल ने यह दावा करते हुए लेबनान पर हमला किया था कि, वह फ़िलिस्तीनी समूहों को निकालना चाहता है, लेकिन वह 2000 तक देश पर क़ाबिज़ रहा। इज़रायल ने पहले “फ़्री लेबनान आर्मी” बनाई और फिर उसका नाम “साउथ लेबनान आर्मी” रख दिया ताकि यह दिखा सके कि, समस्या लेबनान के अंदरूनी स्तर पर है, जबकि असल में यह उसकी खुद की योजना थी।
उन्होंने आगे कहा कि, नवंबर समझौता भी प्रतिरोध के हक़ में है क्योंकि इसमें लेबनानी सेना की दक्षिण लितानी में तैनाती शामिल है।वे हमारे ही बच्चे हैं, इसलिए हम इस तैनाती से लाभ उठा रहे हैं। क़ासिम ने कहा कि “अमेरिका ने अपने वादे पूरे नहीं किए, क्योंकि अगर इज़रायल पीछे हटेगा तो लेबनान स्वतंत्र और सम्मानित हो जाएगा।
उन्होंने आरोप लगाया कि अमेरिका और इज़रायल, लेबनान की सरकार पर दबाव डालते हैं ताकि वह रियायतें दे, लेकिन बदले में उसे कुछ नहीं मिलता बस फसाद और इज़रायल को खुली छूट।
उन्होंने कहा कि इज़रायल चाहता है कि, लेबनान उसके नियंत्रण में आ जाए, और यह देश “ग्रेटर इज़रायल” की योजना का हिस्सा बन जाए।हर दिन नए बहाने बनाए जाते हैं कभी हथियार डालने का, कभी मुक़ावमत की फंडिंग रोकने का जबकि असली समस्या सिर्फ़ प्रतिरोध का अस्तित्व है।
शेख़ क़ासिम ने फ़िलिस्तीनी जनता और उनके प्रतिरोध को सलाम किया और कहा,उन्होंने दुनिया को सिखाया कि अपने हक़ के लिए कैसे डटे रहना चाहिए। आख़िर में उन्होंने यमन के लोगों और इराक की जनता व क़बीलों को सलाम पेश करते हुए कहा,आप आज़ादी के मोर्चे पर अगुवा हैं।
ग़ज़्ज़ा की घेराबंदी ने उम्मत की बे हिसी पर्दा फ़ाश कर दिया
तहरीक-ए-बेदारी-ए-उम्मत-ए-मुस्तफ़ा पाकिस्तान के ज़ेरे-एहतमाम सालाना वहदत-ए-उम्मत कांफ्रेंस "ग़ज़्ज़ा के मैदान में उम्मत का इम्तेहान" फैसलाबाद में आयोजित हुई; जिसकी अध्यक्षता तहरीक-ए-बेदारी-ए-उम्मत-ए-मुस्तफ़ा के सरबराह आलिमा सय्यद जवाद नक़वी ने की।
"तहरीक-ए-बेदारी-ए-उम्मत-ए-मुस्तफ़ा पाकिस्तान" के ज़ेरे-एहतमाम सालाना "वहदत-ए-उम्मत" कांफ्रेंस, जिसका उनवान था "ग़ज़्ज़ा के मैदान में उम्मत का इम्तेहान", फैसलाबाद में आयोजित हुई। इसकी अध्क्षता तहरीक-ए-बेदारी-ए-उम्मत-ए-मुस्तफ़ा के सरबराह आलिमा सैयद जवाद नक़वी ने की। इस मौके पर मुख़्तलिफ़ मज़हबी और सियासी जमाअतों के क़ाइदीन, जईद उलमा-ए-कराम, मशाइख, माहिरीन-ए-तालिम, वुकला, सहाफीयों और दूसरे तबक़ात ने बड़ी तादाद में शिरकत की।
साबिक़ अमीर जमाअत-ए-इस्लामी पाकिस्तान सिराजुल हक़, सज्जादा नशीन आस्ताना आलिया ओवैसिया अलीपुर छठ्ठा पीर ग़ुलाम रसूल ओवैसी, सदारत इत्तहाद-उल-मदारिस-उल-अरबिया पाकिस्तान मुहम्मद ज़ुबैर फहीम, ज़िला सदर उलमा काउंसिल मिन्हाज-उल-कुरआन आलिमा अख़्तर हुसैन असद, अमीर मुत्तहिदा जमीअत अहल-ए-हदीस फैसलाबाद डिवीजन मौलाना आलिमा सिकंदर हयात ज़की, अमीर जमाअत-ए-इस्लामी ज़िला फैसलाबाद महबूब-उज़-ज़मान बट, सूबाई जनरल सेक्रेटरी पंजाब जमीअत-उल-उलमा-ए-पाकिस्तान (नूरानी) मौलाना मंज़ूर साक़ी, मोहतमिम मरकज़ अहल-ए-हदीस फैसलाबाद मुफ़्ती नसरुल्लाह अज़ीज़ वग़ैरह ने ख़िताब किया।
मरकज़ी ख़िताब में आलिमा सैयद जवाद नक़वी ने कहा कि "ग़ज़ा की सरज़मीन आज इंसानियत के ईमान, ग़ैरत और जम़ीर का आईना बन चुकी है। वहां बहने वाला हर क़तरा-ए-ख़ून उम्मत के सुकूत पर सवाल है।"
उन्होंने कहा कि आलमी इदारों, इंसानी हक़ूक़ के दावा करने वालों और ज़्यादातर मुस्लिम हुक्मरानों ने इस इम्तेहान में बुरी तरह नाकामी का मुज़ाहिरा किया है, जहां सिर्फ़ कुछ बाहीमत क़ौमें ही हैं जिन्होंने सदा-ए-हक़ बुलंद की।
आलिमा जवाद नक़वी ने कहा कि दो अरब मुसलमानों की मौजूदगी के बावजूद उम्मत ने कुरआन के तक़ाज़ों के मुताबिक किरदार अदा नहीं किया। अगर उम्मत के फ़िक्री और तालीमी मराकज़ ने कुरआन को अपने निज़ाम का मरकज़ बनाया होता, तो आज उम्मत ज़िल्लत और इज़्तिराब की इस इंतहा तक न पहुँचती।
उन्होंने कहा कि "ग़ज़ा के बच्चे, खवातीन और अवाम अपनी इस्तेक़ामत से ईमान की ज़िंदा तफ़सीर बन चुके हैं।"
आलिमा जवाद नक़वी ने हमास, हिज़्बुल्लाह, यमन के
मुजाहिदीन और ईरान की क़ियादत को अमली मुक़ावमत और ईमानी ग़ैरत की अलामत क़रार देते हुए कहा कि यही वो क़ुव्वतें हैं जो इस्लाम की हरारत को ज़िंदा रखे हुए हैं।
उन्होंने इसराईल और अमरीका-नवाज़ पालिसियों को उम्मत के ज़वाल की जड़ क़रार दिया और कहा कि जो हुक्मरान अपने अवाम के जज़्बात और मज़लूमों के ख़ून का सौदा करके इख़्तियार बचाते हैं, वो दरअस्ल उम्मत के ज़मीर के मुजरिम हैं।
उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी क़ौम के अंदर ग़ैरत, ईमान और बेदारी की सलाहियत मौजूद है, बस ज़रूरत इस अम्र की है कि ये मिल्लत सालेह क़ियादत और कुरआनी निज़ाम की रौशनी में मुत्तहिद होकर मज़लूमों का साथ दे। अगर क़ौम ने अपने अस्ल की तरफ़ रुजू किया तो तारीख़ के धारों को बदला जा सकता है।
अमेरिका के खिलाफ इस्तेकामत ही ईरान के साथ दुश्मनी की असली वजह
ईरान के पूर्वी अज़रबाइजान प्रांत में वली-ए-फकीह के प्रतिनिधि और तबरेज़ के इमाम-ए-जुमआ हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन अहमद मोत्तहेरी असल ने कहा कि इस्लामी व्यवस्था की दृढ़ता और स्वतंत्रतापसंद नीति ही वास्तव में वैश्विक अहंकारी ताकतों की दुश्मनी की मूल वजह है।
तबरेज़ के इमाम-ए-जुमआ ने कृषि मंत्री ग़ुलामरज़ा नूरी से मुलाकात में कहा कि हज़रत आदम (अ.स.) को सबसे पहला काम जिसकी शिक्षा फरिश्ते जिब्राईल ने दी, वह कृषि थी, जिससे स्पष्ट होता है कि मानव जीवन की शुरुआत ही भोजन की उपलब्धता से जुड़ी हुई है।
उन्होंने पैगंबर-ए-इस्लाम (स.अ.व.) का कथन बयान किया,ऐ अल्लाह! हमारी रोटी और रोज़गार को बंद न कर, क्योंकि हमारी इबादत इसी के सहारे है और फरमाया कि यही सच्चाई सरकारों की जिम्मेदारी को स्पष्ट करती है कि कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे।
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन अहमद मोहतरी-असल ने कहा कि जिहाद-ए-किशावरज़ मंत्रालय चूंकि आम लोगों की अर्थव्यवस्था से सीधे जुड़ा हुआ है, इसलिए हमेशा जनता का ध्यान और आलोचना का केंद्र रहता है।
उन्होंने पवित्र कुरआन की आयत
«وَ تَوَاصَوْا بِالْحَقِّ وَ تَوَاصَوْا بِالصَّبْرِ»
और एक-दूसरे को सच्चाई और सब्र की सलाह देते रहो) का हवाला देते हुए कहा कि सच बोलने के साथ-साथ धैर्य भी जरूरी है, लेकिन अफसोस आज धैर्य की सीख को कमजोरी समझा जाता है।
उन्होंने इस्लामी क्रांति की भावना की ओर इशारा करते हुए कहा कि ईरानी राष्ट्र ने जागरूकता के साथ क्रांति की और वह जानता था कि स्वतंत्रता और अहंकारी ताकतों का सामना करने में मुश्किलें आएंगी। अहंकारी ताकतों ने कभी दया नहीं दिखाई, जैसा कि आज फिलिस्तीन और गाजा में मासूम बच्चों के कत्लेआम से स्पष्ट है। इमाम ख़ुमैनी (र.ह.) का यह कथन कि अमेरिका बड़ा शैतान है, आज दिन के उजाले की तरह स्पष्ट हो चुका है।
तबरीज़ के इमाम-ए-जुमआ ने कहा कि ईरान ने इसी बड़े शैतान के सामने डटकर दृढ़ता दिखाई, और यही दृढ़ता दुश्मनी की असली वजह है। उन्होंने कहा कि दुश्मन हर संभव तरीके से ईरानी राष्ट्र को कमजोर करने की साजिश करता है, खासतौर पर भोजन के क्षेत्र में।
उन्होंने आगे कहा कि हाल ही में युद्ध के दिनों में जन सामान्य की शांति की एक बड़ी वजह यह थी कि देश में खाद्य आपूर्ति में कोई व्यवधान नहीं आया। दुश्मनों की कोशिश के बावजूद आज ईरान में भोजन और कृषि उत्पादों की भरमार है, जो सरकार और निजी क्षेत्र की ईमानदार कोशिशों का नतीजा है।
अंत में उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि अगर कभी धन तो हो लेकिन भोजन न हो तो यही असली खतरा है। सौभाग्य से आज ईरान में खाद्य सुरक्षा कायम है, और यही दुश्मन की सारी साजिशों के खिलाफ सबसे मजबूत हथियार है।
सय्यदा फातिमा जहरा स.अ.की सीरत को उजागर करना उम्मत की सामूहिक जिम्मेदारी है
हौज़ा ए इल्मिया के प्रमुख आयतुल्लाह अली रज़ा आराफी ने घोषणा की है कि मराजय ए इकराम हौज़ा ए इल्मिया की सुप्रीम काउंसिल और धार्मिक केंद्रों के समर्थन और समन्वय से, दूसरे फातिमी दिनों (अय्याम-ए-फातिमिया) में तब्लिग़ के लिए, हौज़ा ए इल्मिया के उच्च स्तरीय कोर्सेज (सुतूह-ए-आली) और दर्स-ए-ख़ारिज सहित सभी विशेषज्ञता केंद्र 29 जमादिल-अव्वल से 7 जमादिस-सानी 1447 हिजरी तक बंद रहेंगें।
हौज़ा ए इल्मिया के प्रमुख आयतुल्लाह अली रज़ा आराफी ने घोषणा की है कि मराजय ए इकराम हौज़ा ए इल्मिया की सुप्रीम काउंसिल और धार्मिक केंद्रों के समर्थन और समन्वय से, दूसरे फातिमी दिनों (अय्याम-ए-फातिमिया) में तब्लिग़ के लिए, हौज़ा ए इल्मिया के उच्च स्तरीय कोर्सेज (सुतूह-ए-आली) और दर्स-ए-ख़ारिज सहित सभी विशेषज्ञता केंद्र 29 जमादिल-अव्वल से 7 जमादिस-सानी 1447 हिजरी तक बंद रहेंगें।
हज़रत फातिमा ज़हेरा (सल्लल्लाहु अलैहा के शोक दिवसों के अवसर पर जारी एक बयान में उन्होंने कहा कि सिद्दीक़ा-ए-ताहिरा सल्लल्लाहु अलैहा के नाम और चरित्र को जीवित रखना और उनके जीवन-तरीके को दुनिया के सामने पेश करना हम सभी की जिम्मेदारी है।
आयतुल्लाह आराफी ने कहा कि हज़रत ज़हेरा सल्लल्लाहु अलैहा ने अपने चमकदार चरित्र से मानवता को जीवन के वास्तविक अर्थ और ईश्वरीय जीवन-शैली सिखाई। आज की दुनिया, विशेष रूप से महिलाओं, युवाओं और इस्लामी परिवारों को, आधुनिक अज्ञानता के हंगामों में उनके आदर्श चरित्र की सख्त जरूरत है।
उन्होंने जोर देकर कहा कि इस्लामी क्रांति द्वारा पाली-पोसी गई महिलाओं की उल्लेखनीय उपलब्धियों को दुनिया के सामने पेश किया जाए और मौजूदा कमियों और कमजोरियों को गंभीरता से दूर किया जाए।
आयतुल्लाह आराफी के अनुसार, इस्लामी समाज में पवित्र,और पाकीज़ा परिवार ही पश्चिमी मॉडल का सबसे अच्छा विकल्प हैं, जिसे बुद्धिमत्ता, साहस और समझदारी के साथ पेश करना जरूरी है।
उन्होंने आगे कहा कि आज दुनिया में सत्य और असत्य के बीच बौद्धिक और सांस्कृतिक युद्ध जारी है, और ऐसे में उलेमा की जिम्मेदारी है कि वह ईश्वरीय दायित्व का निर्वाह करते हुए प्रचार, जागरूकता और धार्मिक अंतर्दृष्टि के माध्यम से समाज को विचलन से बचाएं।
ईरान के हौज़ा ए इल्मिया के प्रमुख ने विलायत, मरजइयत और उम्मत की नेतृत्व शक्ति को धर्म और मिल्लत की महानता का स्तंभ बताते हुए कहा कि ईरानी राष्ट्र, युवा पीढ़ी और महिलाएं इस्लामी क्रांति की प्रतिष्ठा और दृढ़ता की वास्तविक वाहक हैं।
उन्होंने उलेमा, इमाम-ए-जुमआ व जमाअत, धार्मिक व सांस्कृतिक संस्थानों और मीडिया से आग्रह किया कि वे समन्वय और सामूहिक प्रयास के माध्यम से धर्म के प्रचार और नई पीढ़ी की शिक्षा में यद-ए-वहीदा की तरह काम करें।
अंत में, आयतुल्लाह आराफी ने देश के सभी जिम्मेदार अधिकारियों पर जोर दिया कि वे जनता की कठिनाइयों के समाधान, कार्यप्रणाली में सुधार और सामाजिक समस्याओं के निवारण के लिए गंभीर कदम उठाएं और लोगों की सेवा को अपनी स्थायी प्राथमिकता बनाएं।
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प्राचीन ईरान, चीन, मिस्र और भारत में महिलाओं का जीवन
प्राचीन भारत में औरतों को मासिक धर्म के दौरान नजिस और पलीद समझा जाता था, और उनके जिस्म या उनके इस्तेमाल की हुई चीज़ों को छूना भी नजिस होने का बाइस माना जाता था। उस ज़माने में औरत को न मुकम्मल इंसान समझा जाता था और न ही महज़ हैवान, बल्कि उसे एक ऐसी मख़लूक़ तसव्वुर किया जाता था जो दोनों के दरमियान है — बे-हक़, दूसरों पर मुनहसिर, और हमेशा मर्दों की सरपरस्ती व निगरानी में रहती थी, जिसे ज़िंदगी के किसी भी मरहले पर ख़ुदमुख्तियारी हासिल नहीं थी।
तफ़्सीर-ए-अलमीज़ान के लेखक, मरहूम अल्लामा तबातबाई (र) सूरा बक़रा की आयात 228 से 242 के ज़ेरे बयान में “इस्लाम और दीगर अक़वाम व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख़्सियत और समाजी मुक़ाम” पर तफ़सीली चर्चा की है। सिलसिले का तीसरा भाग नीचे दिया गया है:
मुतमद्दिन अक़वाम में औरत का मुक़ाम: चीन, ईरान, मिस्र और हिंदुस्तान
अल्लामा (र) लिखते हैं कि “मुतमद्दिन अक़वाम” से मुराद वो क़ौमें हैं जो मुनज़्ज़म रसूम व रवाज और मूरूसी आदतों के तहत ज़िंदगी गुज़ारती थीं, अगरचे इनके ये क़वानीन किसी आसमानी किताब या क़ानूनसाज़ इदारे पर मबनी नहीं थे। ऐसी क़ौमों में चीन, ईरान, मिस्र और हिंदुस्तान शामिल थे।
इन तमाम अक़वाम में औरत के बारे में एक बात मुस्तरक थी:
औरत को किसी क़िस्म की आज़ादी या ख़ुदमुख़्तियारी हासिल नहीं थी — न अपनी मर्ज़ी में, न अपने आमाल में।
ज़िंदगी के तमाम मआमलात में वह मर्द के ज़ेरे फ़रमान थी। वह किसी काम का ख़ुद फ़ैसला नहीं कर सकती थी और न ही उसे मुआशरती उमूर (जैसे हुकूमत, क़ज़ावत या किसी और समाजी मैदान) में कोई हक़ हासिल था।
औरत पर ज़िम्मेदारियाँ, मगर हक़ नहीं
अगरचे औरत को कोई हक़ नहीं दिया गया था, मगर उस पर मर्दों जैसी सारी ज़िम्मेदारियाँ डाल दी गई थीं।
वह खेती-बाड़ी, मेहनत-मज़दूरी, लकड़ियाँ काटने और दीगर कामों की पाबंद थी। इसके साथ घर के तमाम उमूर और बच्चों की देखभाल भी उसी के ज़िम्मे थी।
उसे शोहर की हर बात और हर ख़्वाहिश के सामने इताअत करनी लाज़िम थी।
हाँ, इतना ज़रूर था कि मुतमद्दिन अक़वाम में औरत को कुछ हद तक बेहतर ज़िंदगी हासिल थी, क्योंकि वो ग़ैर मुतमद्दिन क़ौमों की तरह औरत को क़त्ल नहीं करते थे, न उसे खाने की चीज़ समझते थे, और न पूरी तरह मलकियत से महरूम रखते थे।
औरत कुछ हद तक मलकियत रख सकती थी, मिसाल के तौर पर विरासत या इज़्दिवाजी इख़्तियार, मगर उसकी ये आज़ादी भी हक़ीक़ी नहीं थी; तमाम फ़ैसले आख़िरकार मर्द के ताबे होते थे।
तअद्दुद-ए-इज़दवाज और समाजी इम्तियाज़
इन मुआशरों में मर्दों को ला-महदूद तादाद में बीवियाँ रखने की आज़ादी थी। मर्द जब चाहे किसी औरत को तलाक़ दे सकता था, मगर औरत को ये हक़ नहीं था।
शोहर के मरने के फ़ौरन बाद मर्द नई शादी कर लेता था, लेकिन औरत शोहर की वफ़ात के बाद न निकाह कर सकती थी और न आज़ादाना मुआशरत रख सकती थी।
अकसर औरतों को घर से बाहर मर्दों से मेलजोल की भी इजाज़त नहीं थी।
क़ौमी रसूम और औरत के लिए विशेष नियम
हर क़ौम ने अपने जगहगीर और समाजी हालात के मुताबक औरत से मुतअल्लिक ख़ास रस्में बना रखी थीं।
ईरान में:
ईरान में तबक़ाती फर्क़ बहुत नुमायां था। आला तबक़े की औरतों को कभी-कभार हुकूमत या सल्तनत में हिस्सा लेने का हक़ मिलता था।
उनमें ये रस्म भी थी कि वो अपने क़रीबी महरम, मसलन भाई या बेटे से भी शादी कर सकती थीं, लेकिन निचले तबक़े की औरतों को ऐसा कोई हक़ हासिल न था।
चीन में:
चीन में निकाह को ख़ुदफ़रोशी की एक सूरत समझा जाता था। औरत जब शादी करती तो गोया अपनी पूरी आज़ादी बेच देती थी।
वहाँ की औरतें ईरानी औरतों की निस्बत ज़्यादा बे-इख़्तियार थीं।
वो विरासत से महरूम थीं, और यहाँ तक कि अपने शोहर या बेटों के साथ एक ही दस्तरख़्वान पर बैठने की भी इजाज़त नहीं थी।
कुछ मौक़ों पर दो या ज़्यादा मर्द एक ही औरत से शादी कर लेते थे, और वह औरत उन सब की ख़िदमत व ज़रूरतें पूरी करती थी।
अगर उससे बच्चा पैदा होता तो आम तौर पर उसे उसी मर्द का बेटा समझा जाता जिससे उसकी शक्ल मिलती-जुलती होती।
हिंदुस्तान में औरत की हैसियत:
हिंदुस्तान में औरत की हालत और भी अफ़सोसनाक थी। वहाँ यह अक़ीदा था कि औरत, शोहर के जिस्म का एक हिस्सा है।
इसीलिए शोहर के मरने के बाद औरत के लिए दुबारा शादी हराम समझी जाती थी, बल्कि रवाज यह था कि औरत को भी शोहर की लाश के साथ ज़िंदा जला दिया जाता था।
अगर कोई औरत ज़िंदा रह भी जाती तो सारी ज़िंदगी ज़िल्लत और तन्हाई में गुज़ारती।
हिंदुस्तान में हाइज़ (मासिक धर्म) की हालत में औरत को नापाक और पलीद समझा जाता था।
उसके कपड़े, बर्तन और वो चीज़ें जिन्हें वह छू ले, सब नापाक मानी जाती थीं।
नतीजा: औरत — न इंसान, न हैवान
अल्लामा तबातबाई (र) के क़ौल में, इन अक़वाम में औरत की हैसियत कुछ इस तरह थी कि वह न पूरी इंसान समझी जाती थी न पूरी हयवान।
बल्कि वो एक दरमियानी मख़लूक़ थी — ऐसी हस्ती जो ख़ुद कोई हक़ नहीं रखती थी, बल्कि दूसरों की ख़िदमत के लिए पैदा हुई थी।
औरत का मुक़ाम एक नाबालिग़ बच्चे की तरह था, जो इंसानों की ख़िदमत तो कर सकता है मगर ख़ुद आज़ाद नहीं होता।
फर्क़ सिर्फ़ इतना था कि बच्चा जवां होने पर आज़ादी पा लेता था, मगर औरत सारी उम्र किसी न किसी की ज़ेरे विलायत रहती थी — कभी बाप की, कभी शोहर की और कभी बेटे की।
(जारी है...)
स्रोत: तरजुमा तफ़्सीर अल–मीज़ान, भाग 2, पेज 395













