رضوی

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हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन नासिर रफीई जो एक धर्मशास्त्र और विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं, ने सावेह के शहीदों की स्मृति सभा में जोर देकर कहा कि हज़रत फातिमा ज़हेरा (स.अ.) शहादत के केंद्र और प्रतिरोध का प्रतीक हैं। उन्होंने कहा कि शहीदों ने फातिमा के मकतब से प्रेरणा लेकर बलिदान और नेतृत्व के प्रति समर्पण की भावना को जीवित रखा हैं।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन नासिर रफीई जो एक धर्मशास्त्र और विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं,उन्होने सावेह काउंटी के शहीदों की स्मृति सभा में जोर देकर कहा कि हज़रत फातिमा ज़हेरा (स.अ.) शहादत के केंद्र और प्रतिरोध का प्रतीक हैं। उन्होंने कहा कि शहीदों ने फातिमा के मकतब से प्रेरणा लेकर बलिदान और नेतृत्व के प्रति समर्पण की भावना को जीवित रखा।

उन्होंने कहा कि फातिमा (स.अ.) इस्लाम के इतिहास में प्रतिरोध और नेतृत्व का आधार स्तंभ हैं। शहीदों ने फातिमा ज़हेरा स.ल.के स्कूल से सीख लेकर समाज में बलिदान की संस्कृति को पुनर्जीवित किया है।

इस धर्मशास्त्र के प्रोफेसर ने अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स.) के इस कथन का उल्लेख किया कि पैगंबर की उम्मत के दो स्तंभ ले लिए गए पैगंबर और फातिमा (स.अ.)। उन्होंने कहा कि इन दो स्तंभों के खोने के बाद इमाम अली (अ.स.) के धैर्य और मौन की अवधि शुरू हुई और सत्य के मार्ग में प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण हुआ।

उन्होंने कहा कि फातमिया के दिनों में शहीदों की स्मृति सभाओं का आयोजन नेतृत्व के स्कूल, सत्य की रक्षा और अत्याचार के खिलाफ डटे रहने की पुनर्व्याख्या का एक अवसर है, जिसके शहीद सच्चे अनुयायी थे।

हुज्जतुल इस्लाम वाल मुस्लिमीन रफीई ने पवित्र कुरान में "फलाह"की अवधारणा को भी समझाया और तकवा (धर्मपरायणता), तवस्सुल (अल्लाह के निकट लाने वाले साधनों का सहारा) और जिहाद को मनुष्य के मोक्ष के तीन कारक बताए।

उन्होंने आगे शहीद हाजी कासिम सुलेमानी की वसीयतनामा का उल्लेख किया और इस शहीद की पांच स्थायी आध्यात्मिक पूंजियां बताईं: नेतृत्व की समझ, मुजाहिदीन के साथ साथ चलना, हज़रत फातिमा (स.अ.) के मार्ग पर चलना और इमाम हुसैन (अ.स.) पर आंसू बहाना।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन नासिर रफीई ने अंत में जोर देकर कहा,आज जिहाद का मैदान सैन्य क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक, मीडिया, आर्थिक और साइबर क्षेत्र भी जिहाद के मुख्य अखाड़े हैं और सभी का कर्तव्य है कि दुश्मन के दबाव के खिलाफ दृढ़ता और स्थिरता बनाए रखें।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हबीबुल्लाह फरहज़ादेह ने कहा,पैगंबर ए इस्लाम स.अ.व. ने फरमाया: यदि सारी सुंदरता, सौंदर्य और पूर्णता को एक व्यक्तित्व में एकत्रित कर दिया जाए, तो वह फातिमा ज़हेरा होंगी बल्कि फातिमा सुंदरता और सौंदर्य से भी ऊपर हैं क्योंकि वह सभी अच्छाइयों का स्रोत हैं।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हबीबुल्लाह फरहजाद ने हरम हज़रत मासूमा (स.अ.) में फातिमिया के दिनों के अवसर पर संबोधन करते हुए कहा, यदि हम चाहते हैं कि हमें हज़रत फातिमा (स.अ.) की शफाअत प्राप्त हो, तो हमें अपने जीवन और कार्यों को ऐसा बनाना चाहिए जिससे उनकी खुशी हासिल हो।

उन्होंने हज़रत फातिमा (स.अ.) को दुनिया की सभी महिलाओं में अद्वितीय और बेमिसाल बताते हुए कहा,हालांकि बीबी (स.अ.) नबी या इमाम नहीं हैं, लेकिन ज्ञान, तक़्वा, इस्मत साहस और पवित्रता जैसे सभी गुण जो एक मासूम में होते हैं, आपके व्यक्तित्व में मौजूद हैं।

उन्होंने पवित्र कुरान और हदीसों में वर्णित हज़रत ज़हरा (स.अ.) के फज़ाइल का उल्लेख करते हुए कहा, पैगंबर ए इस्लाम (स.अ.व.) ने फरमाया कि यदि सारी सुंदरता, सौंदर्य और पूर्णता को एक व्यक्तित्व में एकत्रित कर दिया जाए, तो वह फातिमा होंगी; बल्कि फातिमा सुंदरता और सौंदर्य से भी ऊपर हैं, क्योंकि वह सभी अच्छाइयों का स्रोत हैं।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन फरहजाद ने शिया विद्वानों जैसे हज़रत आयतुल्लाह साफी गुलपायगानी, आयतुल्लाह बहाउद्दीनी, आयतुल्लाह फाज़िल लंकरानी और अन्य मरजा की कथनों को उद्धृत करते हुए कहा,हज़रत ज़हरा (स.अ.) की प्रसन्नता और क्रोध अल्लाह की प्रसन्नता और क्रोध से संबंधित है और यही उनके महान स्थान का प्रमाण है।

उन्होंने आगे कहा, फातिमिया के दिनों में भी उसी तरह सक्रिय रहना चाहिए जैसे ग़दीर के दिनों में सक्रियता देखी गई थी और हर मोमिन को अपने नफ्स से सवाल करना चाहिए मैंने हज़रत ज़हरा (स.अ.) के लिए क्या किया है?

हुज्जतुल इस्लाम फरहजाद ने कहा, नज़्र और इताम ,परचम लगाना, मजलिस और अज़ादारी का प्रबंध करना, मौकिब (जुलूस समूह) और सबील लगाना, जुलूसों में भाग लेना आदि, ये सभी शफाअत के रास्ते और हज़रत की प्रसन्नता का कारण हैं। जो व्यक्ति हज़रत ज़हरा (स.अ.) के लिए कदम उठाता है, अल्लाह, पैगंबर ए इस्लाम (स.अ.व.) और अहलेबैत के इमाम (अ.स.) उससे प्रसन्न होते हैं।

उन्होंने अंत में हदीस ए कसा की महानता पर जोर देते हुए कहा,आयतुल्लाह बहजत कहा करते थे कि हदीस ए कसा के वाक्य मोजिज़ा हैं। यदि कोई व्यक्ति अकेला भी इस हदीस को पढ़े तो फरिश्ते हाज़िर होते हैं और उसकी जरूरतें पूरी की जाती हैं। हदीस ए कसा अल्लाह की क़ुरबत और मुश्किलों के हल का सबसे अच्छा साधन है।

 

 

शिया उलमा कौंसिल ऑस्ट्रेलिया के सदर और इमाम-ए-जुमा मेलबर्न, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मौलाना सैय्यद अबुल क़ासिम रिज़वी ने दिल्ली धमाके की सख़्त अल्फ़ाज़ में मज़म्मत करते हुए कहा है कि यह बुज़दिलाना काररवाई मुल्क के अम्न व इस्तिहकाम पर हमला है। उन्होंने मुतास्सिरा ख़ानदानों से हमदर्दी का इज़हार करते हुए कहा कि हिंदुस्तान की तरक़्क़ी और भाईचारे के सफ़र को कोई ताक़त नहीं रोक सकती।

मेलबर्न / शिया उलमा कौंसिल ऑस्ट्रेलिया के अध्यक्ष और मेलबर्न के इमाम जुमा हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मौलाना सैय्यद अबुल क़ासिम रिज़वी ने दिल्ली में होने वाले हालिया धमाके की सख़्त अल्फ़ाज़ में पुरज़ोर मज़म्मत की है।

उन्होंने अपने बयान में कहा कि इस अफ़सोसनाक वाक़ए में क़ीमती जानों का नुक़सान हुआ, जिस पर वह गहरे दुख और अफ़सोस का इज़हार करते हैं। उन्होंने कहा कि हम इस आज़माइश के वक़्त में मरने वालों के अहल-ए-ख़ाना के साथ हैं।

मौलाना रिज़वी ने कहा कि यह बुज़दिलाना काररवाई मुल्क के अम्न व इस्तिहकाम पर हमला है। अम्न के दुश्मन यह बात जान लें कि वह अपने नापाक अजाइम में कभी कामयाब नहीं हो सकते। हिंदुस्तान की तरक़्क़ी, खुशहाली और भाईचारे के इस सफ़र को कोई ताक़त नहीं रोक सकती।

उन्होंने कहा कि जो अनासिर मुल्क की फ़ज़ा को नफ़रत, तशद्दुद और बदअमनी से ज़हर आलूदा करना चाहते हैं, वह दरअस्ल हिंदुस्तान के इत्तेहाद और हमआहंगी पर हमला آور हैं। हालांकि हमारा अज़ीम वतन हमेशा से फ़िर्क़ावाराना हमआहंगी, आपसी मोहब्बत, एहतिराम और रवादारी का मज़हर रहा है, और यही इसकी असल ताक़त और ख़ूबसूरती है।

मौलाना सय्यद अबुल क़ासिम रिज़वी ने आखिर में इस अज़्म का इआदा किया कि “हम सब को मिल कर अम्न, भाईचारे और इंसानियत के पैग़ाम को मजीद मजबूती देनी होगी, ताकि ऐसे गिनौने वाक़े कभी कामयाब न हो सकें।”

 

हमास के नेता उसामा हमदान ने चेतावनी दी कि सबसे ख़तरनाक हमला ग़ज़्ज़ा में हो रही तबाही नहीं, बल्कि वह बयान है जो नेतन्याहू ‘ग्रेटर इस्राईल’ की योजना के बारे में दे रहा है।

हमास के वरिष्ठ नेता उसामा हमदान ने अपने ताज़ा बयान में कहा कि 7 अक्टूबर फ़िलिस्तीनी जनता और ज़ायोनी शासन दोनों के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ था, जिसने क्षेत्रीय समीकरणों को बदल दिया।

हमदान ने कहा कि ज़ायोनी शासन का मक़सद फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध को झुकाना था लेकिन दो साल की जंग में एक भी फ़िलिस्तीनी मुजाहिद ने सफ़ेद झंडा नहीं उठाया, हथियार नहीं डाले और न ही लड़ाई से पीछे हटा।

उन्होंने कहा अतिक्रमणकारियों का मक़सद प्रतिरोध को तोड़ना था, लेकिन फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध अब भी मज़बूती से खड़ा है।

हमदान के अनुसार, युद्धविराम समझौते की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसके पहले क़दम में ही युद्ध के अंत की घोषणा की गई जो ज़ायोनी उद्देश्यों के बिल्कुल विपरीत है।

उन्होंने कहा कि कई बार ग़ज़्ज़ा में युद्धविराम पर समझौता हुआ, लेकिन हर बार कब्ज़ाधारियों ने उसे तोड़ दिया। हमदान ने फ़िलिस्तीनी जनता की दृढ़ता पर ज़ोर देते हुए कहा कि दो साल की जनसंहारक जंग के बावजूद फ़िलिस्तीनियों ने अपने वतन में रहने के अधिकार को व्यवहारिक रूप से साबित किया।

शर्म अलशेख़ समझौते को उन्होंने प्रारंभिक समझौता बताते हुए कहा कि यह अभी पूरा नहीं है; इसके तीन चरण हैं, जिनमें से केवल पहला पूरा हुआ है।

हमदान ने पश्चिमी देशों और अमेरिका की नीति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि “इन दोनों का साझा निष्कर्ष यह है कि ग़ज़्ज़ा पर जारी हमला अब खुद ज़ायोनी शासन के लिए भारी नुकसान का कारण बन रहा है।

अंत में उसामा हमदान ने चेतावनी दी कि सबसे ख़तरनाक हमला ग़ज़्ज़ा में हो रही तबाही नहीं, बल्कि वह बयान है जो नेतन्याहू ‘ग्रेटर इस्राईल’ की योजना के बारे में दे रहा है।

 

संयुक्त राष्ट्र से जुड़े स्रोतों ने कहा है कि इजरायली गाज़ा में दवाओं के प्रवेश में अब भी बाधा डाल रहा हैं।

यूनिसेफ की फिलिस्तीन में प्रवक्ता ने अल जज़ीरा के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि गाजा में मानवीय सहायता का वितरण गंभीर समस्याओं का सामना कर रहा है। पोषण संबंधी पूरक बहुत कम मात्रा में प्रवेश कर पा रहे हैं और केवल अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दबाव में ही उन्हें प्रवेश की अनुमति मिल पाती है।

उन्होंने कहा, गाज़ा में सहायता लाने के लिए परमिट प्राप्त करना हमारे लिए एक वास्तविक समस्या बन गया है। इजरायल अभी भी कई दवाओं के प्रवेश पर उनके गैर-जरूरी होने का बहाना देकर प्रतिबंध लगा रहा है।

यूनिसेफ के प्रवक्ता ने कहा,अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को केवल निंदा करने के बजाय ठोस और वास्तविक कार्रवाई करनी चाहिए।

इसी बीच, UNRWA के आयुक्त फिलिप लज़ारिनी ने चेतावनी दी,गाज़ा में कोई सुरक्षित स्थान नहीं बचा है और कोई भी सुरक्षित नहीं है; फिलिस्तीनियों के जीवन और पहचान पर व्यापक हमलों का कोई औचित्य नहीं है। स्वास्थ्य कर्मचारियों, पत्रकारों और राहतकर्मियों को अभूतपूर्व संख्या में मारा गया है, जैसा किसी अन्य आधुनिक संघर्ष में नहीं देखा गया।

उन्होंने कहा,भूख गाजा के सभी निवासियों को परेशान कर रही है चाहे वह धीमी और चुपचाप मौत के रूप में हो या भोजन की तलाश में मरने के रूप में। अस्पतालों, स्कूलों, आश्रयों और घरों पर दैनिक हमले किए जा रहे हैं और गाजा में मानवीय स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है।

 

आयतुल्लाहfल उज़्मा जवाद आमोली ने फ़रमाया कि तक़वा, तौहीद, अक़्लानियत और अद्ल ही वे बुनियादें हैं जो न सिर्फ़ मुआशरे बल्कि हौज़ा और यूनिवर्सिटी को भी संभाले रखती हैं। अगर ये दोनों इल्मी मराकिज़ दीनदारी के रास्ते पर दुरुस्त सिम्त में गामज़न रहें तो पूरा मुआशरा भी दुरुस्त सिम्त में आगे बढ़ेगा।

आयतुल्लाह जवाद आमोली ने इंसानी हयात और मौत के फ़लसफ़े पर बात करते हुए फ़रमाया: “हम दुनिया में मिटने के लिए नहीं आए बल्कि खोल से निकलने के लिए आए हैं। हम इसलिए आए हैं कि मौत को मार दें, न कि ख़ुद मर जाएँ। यह पैग़ाम अम्बिया अलैहिमुस्सलाम का है। दुनिया में कोई और विचारधारा ऐसी नहीं जो यह कहे कि इंसान मौत को मग़लूब करता है।”

उन्होंने क़ुरआन करीम की आयत का हवाला देते हुए कहा: “अल्लाह तआला ने फ़रमाया — کُلُّ نَفْسٍ ذَائِقَةُ الْمَوْتِ (कुल्लो नफ़्सिन ज़एक़तुल मौत), यानी नफ़्स को मौत का स्वाद चखना है, न कि मौत हमें चखती है। स्वाद लेने वाला चीज़ को हज़्म करता है। हम मौत को चखते हैं और उसे मग़लूब कर देते हैं। मौत हमें फ़ना नहीं करती बल्कि हम मौत को फ़ना कर देते हैं।”

हज़रत आयतुल्लाह जवाद आमोली ने आख़िर में ज़ोर दिया कि “हमेशा रहने वाली हकीकत तक़वा, तौहीद, फ़ज़ीलत, अक़्लानियत और अद्ल है। यही अक़दारे मुआशरे, हौज़ा और यूनिवर्सिटी को संभालती हैं। अगर ये दोनों इदारें इन उसूलों पर अमलपेरा रहें तो पूरा समाज सही सिम्त में हरकत करेगा।”

 

अगर आपका बच्चा अकेले सोने से डरता है तो वालिदैन, ख़ास तौर पर माँ को चाहिए कि अपने पुरसुकून रवैये और एतिमाद बख़्श मौजूदगी से उसे सुरक्षा का एहसास दें। और दिन के वक़्त खेल और गतिविधियों के ज़रिए उसकी ऊर्जा को ख़र्च होने में मदद करें, ताकि उसके रात के डर कम हों और वह सुकून से सो सके।

फैमिली काउंसलर हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैयद अलीरज़ा तराशियों ने एक वालिदैन के सवाल का जवाब देते हुए "परेशान और ख़ौफ़ज़दा बच्चे को ज़हनी सुकून और इतमिनान कैसे दिया जाए?" के विषय पर गुफ़्तगू की है।

सवाल: मेरा आठ साल का बेटा घर बदलने के बाद बहुत बेचैन रहता है। वह अकेले सोने से डरता है और माँ से बहुत ज़्यादा वाबस्तगी रखता है। मैं उसकी कैसे मदद कर सकता हूँ?

जवाब: मैं अपनी बात का आग़ाज़ अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अलैहिस सलाम) के फ़रमान से करता हूँ: "ख़ौफ़ का फल, अमान (अमन) है।"
यानि डर दरअसल एक फ़ितरी और ख़ुदाई निज़ाम है जो इंसान को ख़तरों से महफ़ूज़ रखता है। इसलिए अगर बच्चा डरे तो वालिदैन को घबराना नहीं चाहिए। यह कोई ग़ैर–मामूली कैफ़ियत नहीं बल्कि ज़हनी सेहत की निशानी है।

वालिदैन के बयान से ज़ाहिर है कि यह ख़ानदान पहले किसी नाख़ुशगवार या सदमा देने वाले वाक़ए से गुज़रा है। जाहिर है कि आठ या नौ साल का बच्चा ऐसी सूरत में ख़ौफ़ और बेचैनी का शिकार हो सकता है।

पहला उसूल:
बच्चे के डर पर पुरसुकून रद्दे–अमल दिखाएँ, मंतक़ी (तर्कभरी) बातों से नहीं।
अकसर वालिदैन उसे तसल्ली देते हुए कहते हैं — "फ़िक्र न करो, हमारा नया मोहल्ला महफ़ूज़ है", या "दरवाज़ा बंद है, कोई नहीं आएगा", या "छत का रास्ता बंद कर दिया है"।
ये बातें ऊपर से तसल्ली–बख़्श लगती हैं, मगर असल में बच्चे के ज़हन में पुरानी डरावनी यादों को ताज़ा कर देती हैं।
बेहतर यह है कि वालिदैन अपने रवैये से उसे इतमिनान दें। अगर बच्चा सिर्फ़ तब पुरसुकून होता है जब माँ पास हो, तो माँ कुछ वक़्त के लिए मेहमानी तौर पर उसके कमरे में सो सकती है।
ज़रूरी नहीं कि माँ अपना पूरा बिस्तर वहाँ ले जाए, ताकि बच्चे को न लगे कि वह हमेशा यहीं रहेगी।
बस एक हल्का बिस्तर और तकिया लेकर कहना चाहिए: "चूँकि तुम इस वक़्त डर रहे हो, मैं तुम्हारे साथ हूँ ताकि तुम्हें सुकून मिले।"
यह आरज़ी (अस्थायी) क़ुरबत बच्चे के अंदर एतिमाद (भरोसा) और ज़हनी सुकून पैदा करती है।

दूसरा उसूल:
बच्चे की ज़्यादा तवानाई (ऊर्जा) को दिन में ख़र्च करने का मौक़ा दें।
अकसर ऐसे बच्चे जो रात को सोने में मुश्किल महसूस करते हैं, दिन भर कम सरगर्म रहते हैं। उनके जिस्म में तवानाई जमा रहती है जो सोते वक़्त बेचैनी पैदा करती है।
इसलिए वालिदैन को चाहिए कि दिन के औक़ात में खेल, दौड़ या जिस्मानी (शारीरिक) सरगर्मी के मौक़े मुहैया कराएँ ताकि बच्चा शाम तक थक जाए।
ऐसा बच्चा जब बिस्तर पर सर रखता है तो बग़ैर किसी परेशानी के जल्दी सो जाता है।

✳️ ख़ुलासा:
बच्चे के रात के डर को दूर करने के लिए दो बुनियादी उसूल याद रखें:

  1. माँ या वालिदैन की मौजूदगी से बच्चे में एतिमाद और ज़हनी सुकून पैदा करें।
  2. दिन के वक़्त खेल और सरगर्मियों के ज़रिए उसकी तवानाई को ख़र्च होने दें।

अगर वालिदैन सब्र और नरमी से इन उसूलों पर अमल करें तो बच्चे का रात का डर धीरे–धीरे ख़त्म हो जाएगा और वह फिर से पुरसुकून नींद लेने लगेगा।

 

पसमांदा क़ौमों में औरत को न कोई हक़ हासिल था और न ही ज़िंदगी में कोई इख़्तियार। उसे मर्द के ताबे समझा जाता था, और बाप या शौहर को उस पर मुकम्मल इख़्तियार हासिल होता था। मर्द अपनी बीवी को बेच सकता था, किसी को तोहफ़े में दे सकता था, या यहाँ तक कि क़त्ल भी कर सकता था। औरतों पर अंधी आज्ञाकारिता लाज़िम थी, वे सख़्त तरीन कामों पर मजबूर की जाती थीं और बदसलूकी बर्दाश्त करती थीं। उनके साथ एक बेहिस कीमत चीज़ या व्यापार की वस्तु की तरह बर्ताव किया जाता था।

मरहूम अल्लामा तबातबाई (र) जो अज़ीम तफ़्सीर अल–मीज़ान के मुसन्निफ़ हैं, उन्होंने सूर ए बक़रा की आयत 228 से 242 के ज़ेरे तफ़्सीर में औरत के हक़ूक़, मक़ाम और मुआशरती हैसियत के मौज़ू पर तफसीली गुफ़्तगू की है। नीचे उनके बयानात का ख़ुलासा पेश किया जा रहा है।

पसमांदा अक़वाम में औरत की ज़िंदगी

उन जाहिल क़ौमों और क़बीलों में औरत की ज़िंदगी मर्दों की नज़र में कोई मुस्तक़िल हैसियत नहीं रखती थी। वे औरत को सिर्फ़ मर्द की ज़िंदगी का ताबे समझते थे और यक़ीन रखते थे कि औरत सिर्फ़ मर्द की ख़ातिर पैदा की गई है।
यह अकीदा इतना सतही था कि इस पर ग़ौर–व–फ़िक्र तक नहीं किया जाता था।

उनके नज़दीक औरत की हस्ती और ज़िंदगी मर्द के वुजूद की पैरोकार थी; बिल्कुल जानवरों की तरह जिन्हें न कोई हक़ हासिल होता है और न ज़िंदगी में कोई इख़्तियार।

अगर औरत ग़ैर–शादीशुदा होती तो बाप की विलायत और इख़्तियार में रहती, और शादी के बाद शौहर के ज़ेरे तसल्लुत आ जाती — ऐसा तसल्लुत जो मुकम्मल और बेहद–ओ–शर्त था।

उन मुआशरों में मर्द अपनी बीवी को जिसे चाहे बेच सकता था, किसी को तौहफ़े में दे सकता था, या किसी दूसरे को वक़्ती तौर पर दे देता ताकि वो उससे फ़ायदा उठाए — चाहे वो फ़ायदा जिंसी हो, ख़िदमत के तौर पर हो या बच्चे पैदा करने के लिए।

मर्द को यह भी इख़्तियार था कि औरत को सज़ा दे, मारे–पीटे, क़ैद करे, भूखा–प्यासा रखे, या यहाँ तक कि क़त्ल कर दे — चाहे औरत ज़िंदा रहे या मर जाए, उसे कोई परवाह नहीं होती थी।

बल्कि कुछ क़बीलों में यह रस्म थी कि क़हत–साली या जश्न के मौक़े पर औरत को मोटा करके ज़बह कर देते और उसका गोश्त खाते थे। औरत की मिल्कियत में जो कुछ होता, मर्द उसे अपना माल समझता था।

औरत के तमाम हक़ूक़ मर्द के हक़ों के ताबे समझे जाते थे, ख़ास तौर पर माली मामलात में मर्द ही को पूरा इख़्तियार हासिल था।

सख़्त तरीन मर्दाना कामों की ज़िम्मेदार

औरत पर लाज़िम था कि मर्द — ”ख़्वाह बाप हो या शौहर“ — के हर हुक्म की अंधी तक़लीद करे, चाहे उसकी मर्ज़ी हो या न हो।
घर के तमाम काम, बच्चों की देखभाल, और शौहर की ज़रूरतें पूरी करना औरत की ज़िम्मेदारी समझी जाती थी।

इस पर यह बोझ भी था कि सख़्त से सख़्त काम बर्दाश्त करे, भारी सामान उठाए, मिट्टी के काम करे, और मामूली दर्जे के पेशों में काम करे।

कुछ क़बीलों में हालात यहाँ तक पहुँच गए थे कि अगर औरत हामिला हो और बच्चा पैदा करे तो फ़ौरन बाद वो दोबारा घर के कामों में लग जाती, जबके उसका शौहर — जो बिल्कुल सेहतमंद होता — बीमारी का बहाना बनाकर बिस्तर पर लेट जाता और औरत पर लाज़िम होता कि उसकी तैमर्दारी करे।

यह वो उमूमी हालात थे जिनमें औरत ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर थी। वह मुआशरती तौर पर मज़लूम और इंसानी हक़ूक़ से महरूम थी।

हर क़ौम और क़बीले के रसूम–ओ–रवाज, माहौल और विरासती आदात के मुताबिक़ इन ज़ुल्मों की शक्लें मुख़्तलिफ़ थीं। जो कोई भी तारीख़–ए–अक़वाम या क़दीम तमद्दुनों की किताबें देखे, वो इन ज़ालिमाना रस्मों से बख़ूबी वाक़िफ़ हो जाएगा।

(जारी है...)

पाकिस्तान के शहर फैसलाबाद में नहजुल बलाग़ा का पैग़ाम फैलाने और समाज में सोच व अच्छे अख़लाक की जागरूकता पैदा करने के लिए मरकज़ अफ़कार-ए-इस्लामी और अंजुमन हुसैनिया बौस्तान ज़हरा के सहयोग से एक शानदार "नहजुल बलाग़ा कॉन्फ्रेंस" का आयोजन किया गया।

पाकिस्तान के शहर फ़ैसल आबाद मे  9 नवंबर 2025 को इतवार के दिन नहजुल बलाग़ा का पैग़ाम आम करने और समाज में फिक्र व अच्छे अख़लाक जगाने के लिए — मरकज़ अफ़कार-ए-इस्लामी और अंजुमन हुसैनीया बौस्तान ज़हरा के तआवुन (सहयोग) से एक शानदार "नहजुल बलाग़ा कॉन्फ्रेंस" का आयोजन किया गया। इस प्रोग्राम में बड़ी संख्या में उलमा, बुद्धिजीवी और अहल-ए-बैत (अ) के चाहने वालों ने शिरकत की।

कॉन्फ्रेंस में मरकज़ अफ़कार-ए-इस्लामी के सरपरस्त हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मक़बूल हुसैन अलवी, मौलाना लियाक़त अली अवान (निजामत), प्रोफेसर आबिद हुसैन, मौलाना तौसीफ कमेली, मौलाना महताब हुसैन सरवरी, मौलाना शेख़ बिलावल नक़वी, प्रोफेसर सैयद जाहिद हुसैन शम्सी और प्रोफेसर जफर अब्बास जोया ने मुख़तलिफ़ मौज़ूआत (विषयों) पर खिताबात (भाषण) किए.​

प्रोग्राम के आख़िर में शिरकत करने वालों के बीच कुरआंदाजी से 30 नहजुल बलाग़ा की किताबें तोहफ़े के तौर पर दी गईं।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हामिद मल्की ने कहा, आज चूंकि आधुनिक प्रौद्योगिकियां और सोशल मीडिया मानव समाजों में प्रवेश कर चुका हैं, इसलिए कुरआन करीम के आदेश के अनुसार यह आवश्यक है कि हम उनके संभावित नुकसानों से अवगत हों और अपने आप को और अपने परिवार को उसके नुकसान से सुरक्षित रखें।

हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के प्रमुख के उपाध्यक्ष हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लिमीन हामिद मलकी ने हौज़ा न्यूज़ के प्रतिनिधि से बातचीत के दौरान कहा, समाज, विशेष रूप से धार्मिक और हौज़ा वाले माहौल में यह जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि इन प्रौद्योगिकियों के प्रभावों और उनसे होने वाले असर से सुरक्षा की जाए और वैज्ञानिक व ईमानी जागरूकता को मजबूत रखा जाए।

उन्होंने कहा,जब सोशल मीडिया और डिजिटल माहौल समाज में घर कर जाता है, तो जरूरी है कि हम खुद को और अपने परिवार वालों को उनके नकारात्मक प्रभावों से बचाएं। कुरआन हकीम का स्पष्ट आदेश है कि केवल अपनी ही नहीं बल्कि अपने घर वालों और अपनी देखरेख में रहने वाले लोगों की सुरक्षा भी हम पर अनिवार्य है।

हौज़ा-ए-इल्मिया क़ुम के कार्यवाहक प्रमुख ने कहा,घर और परिवार, शिक्षा-दीक्षा और व्यक्तित्व निर्माण की बुनियादी कड़ी है। शिक्षक अपनी कक्षा का, गुरु अपने शिष्यों का और जिम्मेदार व्यक्ति अपनी निगरानी में रहने वाले लोगों का रक्षक है ताकि वे गुमराही और बौद्धिक व नैतिक प्रदूषण से बच सकें।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मल्की ने कहा, सोशल मीडिया के नुकसान का मुख्य निशाना सबसे ज्यादा "परिवार" है। कुरआन करीम ने शिक्षा-दीक्षा का केंद्र घर-परिवार को बनाया है, जैसा कि सूरह फुरकान की आयत नंबर 74 में दुआ मांगी गई है:

«رَبَّنَا هَبْ لَنَا مِنْ أَزْوَاجِنَا وَذُرِّيَّاتِنَا قُرَّةَ أَعْيُنٍ وَاجْعَلْنَا لِلْمُتَّقِينَ إِمَامًا»
यह कुरआन करीम की बहुत ही खूबसूरत दुआ है जिसमें परिवार की पवित्रता, शांति और आध्यात्मिक महानता का वर्णन है।

उन्होंने कहा,वह परिवार जिसमें पति-पत्नी के बीच का बंधन मजबूत रहे, माता-पिता और संतान के रिश्ते सही आधार पर कायम रहें और पारिवारिक व्यवस्था मजबूत हो, वही परिवार धर्म और फितरत के रास्ते पर अधिक टिकाऊपन के साथ चलता है।