
رضوی
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का जन्म दिवस।
शाबान की एक विशेषता यह भी है कि इसमें किये जाने वाले सदकर्मों का बदला बढ़ा दिया जाता है।
एक कथन के अनुसार शाबान में किये जाने वाले सदकर्मों का बदला 70 गुना तक हो जाता है।
इस महीने में इमाम ज़ैनुल आबेदीन अपने अनुयाइयों को एकत्रित करके कहा करते थे कि क्या तुमको पता है कि यह कौन सा महीना है? फिर वे स्वंय ही कहते थे कि यह शाबान का महीना है। यही वह महीना है जिसे पैग़म्बरे इस्लाम (स़) ने अपना महीना बताया है। वे कहते थे कि इस महीने का सम्मान करो और रोज़े रखो। इस महीने में अधिक से अधिक ईश्वर की निकटता प्राप्त करने के प्रयास करते रहो। इमाम ज़ैनुल आबेदीन कहते थे कि मेरे दादा इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) से प्रेम की ख़ातिर और ईश्वर की निकटता हासिल करने के लिए इस महीने में जितना भी संभव हो रोज़े रखो। वे कहते थे कि जो भी व्यक्ति इस महीने में रोज़ा रखेगा उसको ईश्वर, विशेष उपहार देगा और उसको स्वर्ग में भेजेगा।
आज शाबान की पांच तारीख़ है। आज ही के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सुपुत्र, इमाम अली के पोते और शिया मुसलमानों के चौथे इमाम, इमाम ज़ैनुल आबेदीन का जन्म हुआ था। हालांकि इमाम ज़ैनुल आबेदीन या इमाम सज्जाद का नाम अली था किंतु अधिक उपासना और तपस्या के कारण उन्हें ज़ैनुल आबेदीन के नाम से ख्याति मिली जिसका अर्थ होता है उपासना की शोभा। कहते हैं कि जिस समय नमाज़ पढ़ने के लिए इमाम सज्जाद वुज़ू के लिए जाते थे तो उनके चेहरे का रंग पीला पड़ जाता था। जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि क्या तुमको नहीं पता है कि वुज़ू करके इन्सान किसकी सेवा में उपस्थित होने जाता है? उनके बारे में कहा जाता था कि जब वे ईश्वर की उपासना में लीन हो जाते थे तो उनका सारा ध्यान ईश्वर की ही ओर होता था।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन ने अपना जीवन इस्लाम के बहुत ही अंधकारमय काल में व्यतीत किया। यही वह काल था जिमसें इमाम हुसैन जैसे महान व्यक्ति को उनके परिजनों के साथ करबला में केवल इसलिए शहीद कर दिया गया क्योंकि वे समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करके उसमें सुधार करना चाहते थे। यही वह दौर था जिसमें यज़ीद के सैनिकों ने पवित्र काबे पर (मिन्जनीक़) से पत्थर बरसाए थे। उस काल में सरकारी ख़ज़ाने का खुलकर दुरूपयोग किया जा रहा था। शासक, विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे। इस्लामी शिक्षाओं में फेरबदल किया जा रहा था। शासकों को खुश करने के लिए उसकी इच्छानुसार धर्म की व्याख्या की जाती थी। इमाम सज्जाद के काल में शासकों का पूरा प्रयास यह रहता था कि मुसलमानों को इस्लाम की वास्तविक शिक्षाओं से दूर रखा जाए और उनको उनके रीति-रिवाजों और परंपराओं में ही उल्झा दिया जाए। एसे अंधकारमय काल में इमाम ज़ैनुल आबेदीन, जहां एक ओर वास्तविक इस्लाम की रक्षा के लिए प्रयासरत थे वहीं पर मुसलमानों के कल्याण के लिए एक केन्द्र की स्थापना भी करना चाहते थे। उस काल की विषम परिस्थितियों में इमाम सज्जाद ने दुआओं और उपदेशों के माध्यम से समाज सुधार का काम शुरू किया।
उन्होंने दुआओं और उपदेशों के रूप में इस्लामी शिक्षाओं का प्रसार किया। हालांकि तत्कालीन शासकों का यह प्रयास रहता था कि लोगों को इमाम से दूर रखा जाए और वे उनकी गतिविधियों पर पूरी तरह से नज़र रखते थे इसके बावजूद इमाम सज्जाद अपने प्रयासों से पीछे नहीं हटे बल्कि अपने मिशन को उन्होंने जारी रखा। क्योंकि शासक उनके प्रति बहुत संवेदनशील रहते थे इसलिए इमाम ने उपदेशों के माध्यम से लोगों को सही बात बताने के प्रयास किये।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम, वंचितों की सहायता भी करते थे। वे रात के समय अपनी पीठ पर रोटियों की गठरी लादकर ग़रीबों को बांटने निकलते थे। वे यह काम बिना किसी को बताए ख़ामोशी से करते थे। जब इमाम सज्जाद वंचितों और ग़रीबों की सहातया करते थे तो उस समय वे अपने चेहरे को ढांप लिया करते थे ताकि सहायता लेने वाला उनको पहचानकर लज्जित न होने पाए। वे केवल रोटियां ही ग़रीबों को नहीं देते बल्कि उनकी आर्थिक सहायता भी किया करते थे। लोगों की सहायता वे इतनी ख़ामोशी से करते थे कि सहायता लेने वाले लोग उन्हें पहचान नहीं पाते थे। जब इमाम सज्जाद शहीद हो गए तो उसके बाद उन लोगों को पता चला कि लंबे समय से उनकी सहातया करने वाला अंजान इंसान और कोई नहीं इमाम ज़ैनुल आबेदीन थे। इस प्रकार से उन्होंने यह पाठ दिया कि मुसलमानों को अपने मुसलमान भाई का ध्यान रखना चाहिए और छिपकर उनकी सहायता करनी चाहिए।
इस्लाम सदैव से समाज में समानता का पक्षधर रहा है। इस्लाम की दृष्टि में किसी भी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर धन-दौलत, जाति, मान-सम्मान, सामाजिक स्थिति, पद, रंगरूप, भाषा, विशेष भौगोलिक क्षेत्र या किसी अन्य कारण से वरीयता प्राप्त नहीं है। इस्लाम के अनुसार केवल वहीं व्यक्ति सम्मानीय है जिसके भीतर ईश्वरीय भय पाया जाता हो। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कई बार इस बात को लोगों तक पहुंचाया कि इस्लाम की दृष्टि में सम्मान का मानदंड ईश्वरीय भय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। वे कहते थे कि मुसलमान, आपस में भाई हैं और उनमें सर्वश्रेष्ठ वह है जिसके भीतर अधिक ईश्वरीय भय पाया जाता है।
बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के पश्चात इस्लामी शिक्षाओं के प्रभाव को कम किया जाने लगा। उमवी शासकों के सत्तासीन होने के साथ ही इस बात के प्रयास किये जाने लगे कि वास्तविक इस्लाम को मिटाकर शासकों के दृष्टिगत इस्लाम को पेश किया जाए। उस काल में अरब मुसलमानों को प्रथम श्रेणी का और ग़ैर अरब मुसलमानों को दूसरी और तीसरी श्रेणी का मुसलमान बताया जाने लगा। अरब मुसलमानों को ग़ैर अरब मुसलमानों पर वरीयता दी जाने लगी। दास प्रथा, जो इस्लाम के उदय से पूर्व वाले काल में प्रचलित थी उसे पुनर्जीवित किया जाने लगा।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन, समाज में पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं को प्रचलित करना चाहते थे। यही कारण है कि जब तत्कालीन समाज में दास प्रथा को पुनः प्रचलित करने के प्रयास तेज़ हो गए तो इमाम सज्जाद ने दासों को ख़रीदकर ईश्वर के मार्ग में उन्हें आज़ाद करना शुरू किया। वे दासों के साथ उठते-बैठते और उनके साथ खाना खाते थे। इमाम सज्जाद दासों को अच्छे शब्दों से संबोधित करते थे। उनके इस व्यवहार से दास बहुत प्रभावित होते थे क्योंकि समाज में उन्हें बहुत ही गिरी नज़र से देखा जाता था। कोई उनसे सीधे मुंह बात करने को तैयार नहीं था। दासों को पशु समाज समझा जाता था और उनके साथ पशु जैसा ही व्यव्हार किया जाता था। दासों को जब इमाम सज्जाद से एसा व्यवहार देखने को मिला तो वे उनसे निकट होने लगे। इस प्रकार इमाम ज़ैनुलआबेदीन ने दासों को परोक्ष और अपरोक्ष रूप में इस्लामी शिक्षाओं से अवगत करवाया। यही कारण है कि आज़ाद होने के बाद भी वे लोग इमाम से आध्यात्मिक लगाव रखते थे। इस प्रकार से अपनी विनम्रता और दूरदर्शिता से इमाम ज़ेनुल आबेदीन ने अपने दौर के अंधकारमय और संवेदनशील काल में भी वास्तविक इस्लाम को लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का शुभ जन्म दिवस।
3 शाबान सन 4 हिजरी क़मरी को पैग़म्बरे इस्लाम के नाती और हज़रत अली अलैहिस्सलाम तथा हज़रत फ़ातेमा ज़ेहरा सलामुल्लाह अलैहा के दूसरे बेटे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का जन्म हुआ।
पैग़म्बरे इस्लाम को जैसे ही इस जन्म की सूचना मिली वह हज़रत फ़ातेमा के घर पहुंचे और असमा से कहा कि शिशु को मेरे पास लाओ। असमा नन्हें शिशु को सफ़ेद कपड़े में लपेट कर पैग़म्बरे इस्लाम के पास ले गईं। पैग़म्बरे इस्लाम ने बच्चे के दाहिने कान में अज़ान और बाएं कान में इक़ामत कही। जब बच्चे का नाम रखने की बात आई तो ईश्वरीय फ़रिश्ते हज़रत जिबरईल ईश्वर का संदेश लेकर पैग़म्बरे इस्लाम के पास पहुंचे और कहा कि मुबारकबाद देने के बाद कहा कि हे ईश्वर के पैग़म्बर ईश्वर कह रहा है कि आपके लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम वही दर्जा रखते हैं जो हारून का हज़रत मूसा के लिए था। इस लिए हज़रत अली के पुत्र का नाम हज़रत हारून के बेटे शुबैर के नाम पर रखिए जिसे अरबी भाषा में हुसैन कहा जाता है।
इस्लामी इतिहासकार लिखते हैं कि इस्लाम से पहले हसन, हुसैन और मुहसिन नाम नहीं थे और किसा का यह नाम नहीं रखा जाता था। यह स्वर्ग के नाम थे जो हज़रत जिबरईल ने पैग़म्बरे इस्लाम को पेश किए। पैग़म्बरे इस्लाम ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के जन्म के सातवें दिन भेड़ की क़ुरबानी दिलवाई।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का पालन पोषण जिस परिवार में हुआ वह बड़े पवित्र वातावरण का परिवार था तथा उनका पालन पोषण करने वाले महानतम शिष्टाचारिक गुणों से सुशोभित थे। एसे लोग थे जो पूरे संसार के इंसानों के मार्गदर्शन का दायित्व संभालते हैं। इन गोदियों में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का पालन पोषण हुआ। कृपा के प्रतीक पैग़म्बरे इस्लाम, न्याय के दर्पण हज़रत अली और महानताओं की पर्याय हज़रत फ़ातेमा की छत्रछाया में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के व्यक्तित्व में गुण और महानतएं पिरोई गईं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने शुरू के छह साल और कुछ महीने पैग़म्बरे इस्लाम की छाया में व्यतीत किए और इस दौरान पैग़म्बरे इस्लाम उनका विशेष रूप से ख़्याल रखते थे। पैग़म्बरे इस्लाम को कई बार यह कहते सुना गया कि हुसैन मुझसे हैं और मैं हुसैन से हूं।
मिस्र की सुन्नी महिला विद्वान बिन्तुश्शाती ने इमाम हसन और इमाम हुसैन से पैग़म्बरे इस्लाम के गहरे प्रेम के बारे में लिखती है कि हसन और हुसैन नाम पैग़म्बरे इस्लाम के लिए दिल में उतर जाने वाली वाणी के समान थे। यह नाम बार बार दोहराकर पैग़म्बरे इस्लाम को कभी थकन नहीं होती थी। वह हमेशा कहते थे कि यह मेरे बच्चे हैं। ईश्वर ने हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा को यह बड़ी नेमत प्रदान की कि पैग़म्बरे इस्लाम के वंश को उनकी संतान के द्वारा आगे बढ़ाया और इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिमुस्सलाम के माध्यम से पैग़म्बरे इस्लाम का वंश आगे चला।
जब पैग़म्बरे इस्लाम का स्वर्गवास हो गया तो उसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम को ख़ेलाफ़त मिलने तक 25 साल का समय बीता। इस अविध में इमाम हुसैन अपने ज्ञान, विवेक और अपार साहस के कारण बहुत मशहूर रहे। वह इस्लामी समाज में आने वाले उतार चढ़ाव पर नज़र रखते और हर ज़रूरी मदद करते थे। उन्होंने महत्वपूर्ण कार्यों में बड़े साहस के साथ अपनी भूमिका निभाई। जब भी दान और भलाई की बात आती इमाम हुसैन का ज़िक्र ज़रूर होता था।
एक दिन एक अरब किसी बियाबान से मदीना पहुंचा और उसने पूछा कि शहर का सबसे बड़ा दानी इंसान कौन है? लोगों ने उसे बताया कि हुसैन सबसे बड़े दानी इंसान हैं। वह इमाम हुसैन के पास पहुंचा। उस समय इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम नमाज़ पढ़ रहे थे। नमाज़ ख़त्म हो जाने के बाद उसने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को अपनी ज़रूरत के बारे में बताया। इमाम हुसैन अपनी जगह से उठे और घर में गए और चार हज़ार दीनार एक कपड़े में लपेट कर जाए और उसे दे दिया। जब उस अरब ने उदारता का यह दृष्य देखा तो उसने कहा कि दानी व्यक्ति कभी नहीं मरता, कभी ओझल नहीं होता उसकी जगह आसमानों में होती है और हमेशा सूरज की भांति चमकता रहता है।
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शिष्टाचार में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम एक आदर्श थे वह आज ही सारी दुनिया में सूरज की भांति प्रकाशमान हैं। उनसे सब प्रेम करते हैं। उस समय भी सब उनकी श्रद्धा रखते थे यदि उस समय कहा जाता कि इन्हीं लोगों में से कुछ लोग एक दिन इमाम हुसैन को शहीद कर देंगे तो कोई यक़ीन नहीं कर सकता था।
जब हज़रत अली शहीद कर दिए गए तो फिर इमाम हुसैन के जीवन का एक नया दौर शुरू हुआ। अपने भाई इमाम हसन की इमामत के काल में भी उन्होंने ईश्वरीय धर्म के प्रचार के लिए लगातार संघर्ष किया और इमाम हसन की शहादत के बाद समाज के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी अपने हाथ में ली। इसी काल में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम करबला का कारनामा अंजाम दिया। जब इमाम हसन की इमामत का दौर था तब भी लोग अपनी समस्याएं लेकर इमाम हुसैन के पास जाया करते थे और वह सबकी ज़रूरतें पूरी किया करते थे।
इमाम हसन की शहादत के बाद लगभग दस साल तक इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इमामत का दायित्व निभाया। यह कालखंड इमाम हुसैन के बेमिसाल साहस, न्यायप्रेम और महानता का साक्षी है। इस कालखंड में बड़े महान कार्य इमाम हुसैन ने अंजाम दिए। वैसे जिस कारनामे के लिए इमाम हुसैन सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए वह उनके जीवन के अंतिम दिनों में कर्बला में अंजाम पाने वाला कारनामा है। इमाम हुसैन का नाम कर्बला की क्रान्ति की याद से जुड़ा हुआ है। अत्याचार के मुक़ाबले में उनके संघर्ष की स्वर्णिम कहानी इतिहास के पन्नों पर हमेशा के लिए अंकित हो गई। उन्होंने बहादुरी, न्याय प्रेम और बलिदान का वह पाठ दिया जो कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। पैग़म्बरे इस्लाम ने एक अवसर पर फ़रमाया कि मोमिन बंदों के दिलों की गहराई में हुसैन की मोहब्बत छिपी हुई है वह स्वर्ग के दरवाज़ों में से एक दरवाज़ा हैं। क़सम उसकी जिस के हाथ में मेरी ज़िंदगी है, हुसैन की महनता आसमानों में ज़मीन से ज़्यादा है, वह आकाश की शोभा हैं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम आशूर की महान संस्कृति के जनक और दुनिया व इतिहास की महाक्रान्ति के नायक हैं। वह महान व्यक्तित्व हैं जिसने इस्लाम की रक्षा के लिए उमवी सेनाओं के तूफ़ान से ख़ुद को टकरा दिया और आख़िरी सांस तक मुसलमानों की गरिमा की रक्षा के लिए बहादुरी से लड़ते रहे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का पूरा जीवन बहादुरी और दिलेरी की कहानियों से भरा हुआ है। महान विचारक शहीद मुतह्हरी इस बारे में कहते हैं कि यदि कोई कहे कि उसने हुसैन जैसी हस्ती के व्यक्तित्व को समझ लिया है तो वह अतिशयोक्ति कर रहा है, मैं तो एसी बात कहने की जुरअत नहीं कर सकता अलबत्ता मैं बस इतना कह सकता हूं कि जहां तक मैंने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को पहचाना और उनके जीवन के बारे में पढ़ा है और उनकी बातों का अध्ययन किया है उसके आधार पर मैं इतना कह सकता हूं कि इमाम हुसैन का व्यक्तित्व शौर्य, उत्साह, महानता, दृढ़ता और प्रतिरोध का पर्याय है।
चुनाव, देश की राष्ट्रीय सुरक्षा को पूरा करते हैं: वरिष्ठ नेता
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने चुनावी प्रक्रिया सहित विभिन्न क्षेत्रों में जनता की भागीदारी को निर्णायक बताया है।
मज़दूर दिवस के अवसर पर ट्रेड यूनियन के अधिकारियों और मज़दूरों के समूह को संबोधित करते हुए वरिष्ठ नेता ने कहा कि मैदान में जनता की भरपूर उपस्थिति के ही कारण ईरान से दुश्मन और दुश्मन के युद्ध का साया हमेशा दूर रहा है और चुनाव सहित विभिन्न मैदानों में जनता की भरपूर उपस्थिति राष्ट्रीय सुरक्षा में निर्णायक भूमिका रखती है।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि यदि ईरान की जनता कर्म के मैदान में मौजूद रही तो देश भी सुरक्षित रहेगा। उन्होंने कहा कि जनता की कर्म के मैदान में उपस्थिति के कारण ही हमारे दुश्मन ईरान के विरुद्ध किसी भी प्रकार की कठिन कार्यवाही से बचते रहे हैं।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि दुश्मन, राजनैतिक मैदान में ईरानी जनता की उपस्थिति से भयभीत हैं। उन्होंने कहाकि यह एक एेसी वास्तविकता है जो दुश्मन को पीछे हटने पर विवश कर देती है। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने राष्ट्रपति चुनाव और नगर परिषद चुनाव में जनता की भरपूर उपस्थिति पर बल देते हुए कहा कि दुश्मन कर्म के मैदान में जनता की वास्तविक अर्थों में भागीदारी से डरता है।
आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने पिछले चालीस वर्षों के दौरान ईरान की जनता और इस्लामी व्यवस्था के मध्य पाए जाने वाले गहरे संबंध की प्रशंसा करते हुए कहा कि क्षेत्र में ईरान का विकास और प्रगति, प्रतिष्ठा और प्रभाव, जनता और सरकार के मध्य संबंध और सहयोग की देन है।
वरिष्ठ नेता ने राष्ट्रपति चुनाव के सभी छह प्रत्याशियों को सलाह दी है कि वह अपनी नीयतों में निष्ठा पैदा करें और जनता की सेवा और विशेषकर कमज़ोर वर्ष की सेवा के लिए आगे आएं और पिछड़ेवर्ग का खुलकर समर्थन करें।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ ने विभिन्न देशों में राजनैतिक व सामाजिक मैदान में मज़दूरों की भूमिका और इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद से आज तक ईरान के मज़दूर वर्ग को इस्लामी व्यवस्था के सामने ला खड़ा करने के बारे दुश्मनों के प्रयासों की ओर संकेत करते हुए कहा कि समस्त कुप्रयासों के बावजूद ईरान के मज़दूरों ने हमेशा इस्लामी व्यवस्था का समर्थन किया और वास्तव में हमारे सभ्य परिश्रमी वर्ग ने इस पूरे काल में दुश्मनों के मुंह पर ज़ोरदार थप्पड़ रसीद किए हैं।
अधिकतर इस्लामी देशों में नहीं है वास्तविक इस्लाम।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने कहा है कि धर्मविरोधी शक्तियां, पूरे विश्व में इस्लामी पहचान को मिटाने के प्रयास में व्यस्त हैं।
आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने गुरूवार को तेहरान में 83 देशों के क़ारियों से भेंट की। इस भेंट में वरिष्ठ नेता ने पवित्र क़ुरआन को समझने और उसपर अमल करने को इस्लामी राष्ट्र की प्रतिष्ठा का कारण बताया। उन्होंने कहा कि इस समय धर्मविरोधी शक्तियां, पूरी शक्ति के साथ इस्लामी पहचान मिटाने के लिए प्रयास कर रही हैं।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि इस्लामी पहचान, शत्रु के वर्चस्व के फैलने में सबसे बड़ी बाधा है। उन्होंने कहा कि पवित्र क़ुरआन की शिक्षाएं, इस्लामी राष्ट्रों के सार्थक और गौरवपूर्ण जीवन का कारण हैं। आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा कि वर्तमान समय में इस्लामी जगत के बहुत से देशों पर पश्चिम के सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक वर्चस्व को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि कई इस्लामी देशों के पास इस्लामी पहचान नहीं है। वरिष्ठ नेता ने कहा कि एेसी स्थिति में इस्लाम के शत्रु, एेसे देशों में वर्सचस्व स्थापित करके मुसलमानों के बीच मतभेद पैदा कर रहे हैं।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा कि क़ुरआन से दूरी के कारण शत्रु इसका दुरूपयोग कर रहा है। उन्होंने कहा कि अमरीका और ज़ायोनी शासन के मुक़ाबले में इस समय इस्लामी देशों की स्थिति चिंता जनक है लेकिन यदि इस्लामी पहचान को बाक़ी रखा जाए तो समस्त समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। वरिष्ठ नेता ने कहा कि बड़े खेद की बात है कि बहुत से मुसलमान राष्ट्र, इस्लामी शिक्षाओं से दूर हैं एेसे में पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं का अधिक से अधिक प्रचार और प्रसार किया जाए।
ईदे मबअस
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ईश्वरीय दूत बनने की औपचारिक घोषणा से पहले प्रत्येक वर्ष एक महीने के लिए हिरा पहाड़ में वक़्त गुज़ारते थे।
एक बड़े पत्थर पर बैठकर मक्के के सुन्दर एवं तारों से भरे हुए आसमान की ओर देखा करते थे। सूर्यो उदय एवं सूर्यास्त के सुन्दर दृश्यों का नज़ारा वहीं से करते थे। इंसान, ज़मीन, वृक्ष, वनस्पति, जानवर, पर्वत, जंगल और ठाठे मारते हुए विशाल समुद्र के बारे में चिंतन करते थे और संसार के रचयिता की शक्ति के समक्ष नतमस्तक होते थे। लोगों की अज्ञानता पर जो संसार के रचयिता को छोड़कर बेजान मूर्तियों की पूजा करते थे, अफ़सोस किया करते थे। अमीरों के अत्याचारों एवं पीड़ितों की दयनीय स्थिति को लेकर दुखी होते थे और इसके लिए कोई समाधान खोजते थे। इस तरह के निराशजनक वातावरण को देखकर, ईश्वर की शरण में पहुंचते थे और इबादत में व्यस्त हो जाते थे और वैचारिक, सामाजिक और नैतिक समस्याओं के समाधान के लिए उससे मदद मांगते थे।
एक महीने की इबादत और तपस्या के बाद, शांतिपूर्ण एवं प्रकाशमय हृद्य के साथ मक्का वापस लौटकर काबे का तवाफ़ करते थे और उसके बाद अपने घर का रुख़ करते थे। ऐसी ही एक रात में जब हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा अपनी उम्र के चालीसवें पड़ाव में थे, ईश्वरीय संदेश लेकर आने वाला फ़रिश्ता जबरईल नाज़िल हुआ और उनसे कहा कि उस संदेश को पढ़ें। उन्होंने जवाब दिया कि मैं पढ़ना नहीं जानता हूं। जिबरईल ने फिर कहा, पढ़ो, लेकिन उन्होंने वही जवाब दिया। तीसरी बार जब जिबरईल ने पुनः बल दिया तो उन्होंने पूछा कि क्या पढ़ूं? जिबरईल ने कहा, अपने रब का नाम लेकर पढ़ो, जो सृष्टिकर्ता है, उसने इंसान को ख़ून के जमे हुए लोथड़े से पैदा किया, पढ़ो और तुम्हारा रब बड़ा कृपालु है, जिसने क़लम द्वारा ज्ञान सिखाया, इंसान को वह ज्ञान दिया, जो उसके पास नहीं था।
यह जिबरईल की वाणी थी जिसने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा से कहा, ईश्वर ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, ताकि में तुम्हें ईश्वरीय दूत बनने की शुभ सूचना दूं। वे वह्यी या ईश्वरीय वाणी का भार अपने शरीर पर महसूस कर रहे थे, उनका शरीर लरज़ रहा था और उनके माथे से पसीने की बूंदे टपक रही थीं, वे पहाड़ से नीचे उतरे। जिबरईल को देखना और ईश्वरीय वाणी को सहन करना मोहम्मद मुस्तफ़ा के लिए इतना मुश्किल था कि वे किसी बुख़ार के रोगी की भांति कांप रहे थे। लेकिन जैसे ही वे इस स्थिति से बाहर निकले उन्होंने देखा कि पहाड़, पत्थर और रास्ते में मिलने वाली हर चीज़ उन्हें सलाम कर रही की थी। बधाई हो ईश्वर ने तुम्हें सदाचार और सौंदर्य प्रदान किया और समस्त इंसानों पर वरीयता दी। विशिष्ट वह है, जिसे ईश्वर ने विशिष्टता प्रदान की हो और वह सम्मानित है, जिसे ईश्वर ने सम्मान दिया हो। चिंता मत करो, ईश्वर तुम्हें शीघ्र ही उच्चतम स्थान प्रदान करेगा।
हां, ईश्वर ने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा का सबसे अधिक योग्य एवं पूर्ण इंसान के रूप में चयन कर लिया। वे एक ऐसे पूर्ण एवं संतुलित इंसान थे कि जो किसी भी काम में अतिवाद से काम नहीं लेते थे। हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा इसलिए ईश्वरीय दूत बने, ताकि इंसानों को अनेकेश्वरवाद की दलदल से निकाल कर एकेश्वरवाद के मार्ग पर अग्रसर करें। एकेश्वरवाद उनका मूल संदेश था। यह सिद्धांत इतना अधिक विस्तृत है कि इस्लाम को एकेश्वरवादी धर्म कहा गया। पूर्व ईश्वरीय दूतों ने भी दुनिया को यही संदेश दिया। जैसा कि सूरए अंबिया की 25वीं आयत में उल्लेख है कि तुमसे पहले हमने कोई दूत नहीं भेजा, लेकिन यह कि उसे संदेश नहीं दिया हो कि मेरे अलावा कोई पूजनीय नहीं है, अतः केवल मेरी इबादत करो।
एकेश्वरवाद केवल अज्ञानता के संकट का समाधान नहीं था, बल्कि एकेश्वरवाद नफ़रत और साम्राज्यवादी शक्तियों को नकारने का नाम था, अर्थात किसी भी प्रकार के अन्याय को सहन नहीं करना, ईश्वर के अलावा किसी और की शक्ति पर भरोसा न करना, आज इंसान को इस एकेश्वरवाद की सबसे अधिक ज़रूरत है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ईश्वरीय दूत चुने जाने के उद्देश्यों में से एक समाज में न्याय की स्थापना करना है। क़ुरान कहता है, हमने अपने दूतों को स्पष्ट चमत्कारों के साथ भेजा, और उन्हें किताब और पैमाना लेकर भेजा, ताकि लोग न्याय की स्थापना के लिए प्रयास करें। समाज में न्याय की स्थापना के लिए पहले न्याय को पहचानना होगा और उसके बाद समाज को उसके लिए तैयार करना होगा। पैग़म्बरे इस्लाम ने इन दोनों चीज़ों को एक साथ व्यवहारिक करके दिखाया। यहां तक कि वे लोगों पर बराबर नज़र डालते थे। लोगों की बात सुनने में भी न्याय से काम लेते थे। उनके साथियों का कहना है कि वे हमारी बातों को इतने ध्यान से सुनते थे कि मानो हमने कोई ऐसी बात कही है, जिसे वे नहीं जानते थे और अब उन्हें इस बात से लाभ पहुंचा है। हालांकि वे स्वयं एक पूर्ण इंसान थे और ईश्वरीय फ़रिश्ता जिबरईल उनके साथ रहता था।
परवरिश और पालन-पोषण किसी भी व्यक्ति या समाज के कल्याण के लिए एक बुनियादी चीज़ है। समस्त ईश्वरीय दूत लोगों के मार्गदर्शन के लिए भेजे गए। वे इंसानों के सबसे विशिष्ट गुरु और प्रशिक्षक थे जो अपने कथन और कर्म से लोगों को ईश्वरीय शिक्षा प्रदान किया करते थे और समाज से बुराई समाप्त किया करते थे। अंतिम ईश्वरीय दूत ने भी ज़िंदगी भर लोगों का मार्गदर्शन किया। ओहद युद्ध में जब वे गंभीर रूप से घायल हो गए थे तो उनके कुछ साथियों ने उनसे कहा कि हे ईश्वरीय दूत, अपने दुश्मनों को अभिशाप दे दीजिए, आप उनकी भलाई और कल्याण के लिए प्रयास कर रहे हैं और वे इस प्रकार से आप से युद्ध कर रहे हैं। पैग़म्बर ने अपने टूटे हुए दांतों को हथेली पर रखा और आसमान की ओर देखकर कहा, हे ईश्वर उन्हें सही मार्ग दिखा, वे नहीं जानते हैं।
दूसरा उदाहरण बद्र युद्ध का है। जब बंदियों के हाथ बांधकर उन्हें आपकी सेवा में लाया गया, तो पैग़म्बर के होंटो पर मुस्कराहट थी। एक बंदी ने पैग़म्बर से कहा, अब तो तुम्हें हंसना चाहिए, इसलिए कि हमें पराजित कर दिया है और बंदी बने तुम्हारे सामने खड़े हैं। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, ग़लत मत सोचो, मेरी मुस्कराहट विजय और फ़तह के कारण नहीं है, बल्कि इसलिए है कि तुम जैसे लोगों को इन ज़ंजीरों के साथ स्वर्ग में लेकर जाऊं। मेरा उद्देश्य तुम्हें मुक्ति दिलाना और तुम्हारा विकास करना है, लेकिन तुम मेरा मुक़ाबला कर रहे हो और मुझ पर तलवार उठा रहे हो।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने लोगों की सामाजिक एवं राजनीतिक संस्कृति को बदल कर रख दिया। उन्होंने लोगों को सम्मान दिया और उनके अन्दर ज़िम्मेदारी का एहसास जगाया। वे फ़रमाते थे, ऐसा नहीं है कि मैं समाज का नेता हूं और आप लोग कुछ नहीं हैं, आप सब लोग अपनी जगह एक ज़िम्मेदार इंसान हैं और सभी से उसके मातहतों के बारे में पूछा जाएगा। पुरुष परिवार का संरक्षक है, उससे उसके बारे में पूछा जाएगा। महिला घर, पति और बच्चों की ज़िम्मेदार है, उससे उनके बारे में मालूम किया जाएगा। इसलिए जान लो कि तुम सभी ज़िम्मेदार हो और तुमसे तुम्हारी ज़िम्मेदारी के बारे में पूछा जाएगा।
ईश्वर ने इंसान को विशेष योग्यताओं और प्रतिभाओं के साथ पैदा किया है और उसे बुद्धि प्रदान की है, ताकि भौतिक एवं आध्यात्मिक गुणों को प्राप्त कर सके। लेकिन ईश्वरीय लक्ष्य तक पहुंचने के लिए केवल बुद्धि काफ़ी नहीं है, इसीलिए ईश्वर ने मार्गदर्शक के रूप में अपने दूतों को भेजा। हालांकि इससे बुद्धि का महत्व कम नहीं हो जाता है। पैग़म्बरे इस्लाम ने ज्ञान और बुद्धि को विशेष महत्व दिया है। इतिहास में है कि पैग़म्बरे इस्लाम के कुछ साथियों ने उनके सामने किसी व्यक्ति की प्रशंसा की और उसके गुणों का बखान किया। पैग़म्बरे इस्लाम ने पूछा कि उसकी बुद्धि कैसी है? उन्होंने कहा, हे ईश्वरीय दूत, हम आपके सामने उसके प्रयासों और इबादत के बारे में बात कर रहे हैं और आप उसकी बुद्धि के बारे में सवाल कर रहे हैं। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, मूर्ख इंसान, अपनी मूर्खता के कारण, पापी इंसान से अधिक पाप में लिप्त हो जाता है। कल प्रलय के दिन लोगों को ईश्वरीय निकटता उनकी बुद्धि के स्तर के आधार पर प्राप्त होगी।
कुल मिलाकर आज दुनिया को किसी भी समय से अधिक पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं की ज़रूरत है। आज दुनिया में जो कुछ हो रहा है और लोकतंत्र के नाम पर व्यापक अत्याचार हो रहा है और बच्चों एवं महिलाओं समेत निर्दोषों का नरसंहार किया जा रहा है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ईश्वरीय दूत चुने जाने की वर्षगांठ एक अच्छा अवसर है कि हम उनकी सुन्नत परम्मरा और शिक्षाओं का अनुसरण करें और समस्त बुराईयों से मुक्ति हासिल करके उनके दिखाए हुए मार्ग पर आगे बढ़ें।
पुर्तगाल में “फ़ात्मा नगर” की अद्भुत कहानी
8 मार्च 2017 का दिन था, मुझे एक संक्षिप्त धार्मिक दौरे के उद्देश्य से पुर्तगाल की राजधानी लेस्बन जाना हुआ। पुर्तगाल में धार्मिक मामलों में व्यस्तता के साथ विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों और शहरों में घूमने का भी अवसर मिला।
मुझे यह सुनकर बहुत आश्चर्य हआ कि इस देश में एक ऐसा शहर भी है जिसका नाम “फ़ात्मा” है और इस शहर में एक ऐसा स्थल है जहां फ़ात्मा नाम की पवित्र हस्ती से संबंधित एक दर्शनस्थल भी है, इस पवित्र स्थल का निर्माण ईसाई धर्म के अनुयायियों ने किया है।
इन सब बातों के बाद भला कैसे संभव था कि मैं इस शहर और स्थल को निकट से न देखूं, इसीलिए लेस्बन में मौजूद स्थानीय धर्म गुरु मौलाना आबिद हुसैन साहब जिन से कई वर्षों से विभिन्न मामलों से निकट पहचान हो गयी थी, के साथ 11 मार्च की सुबह हम राजधानी से फ़ात्मा शहर की ओर से रवाना हुए।
यात्रा के दौरान हम “फ़ात्मा शहर में स्वागत” के बड़े बड़े साइन बोर्ड को देख सकते थे, इन साइन बोर्डस के सहारे जब हम शहर के भीतर प्रविष्ट हुए तो हमको एक ऐसा बोर्ड नज़र आया जिस पर लिखा हुआ था (shrine of Fatima)।
इसी यागदार स्थल के निकट गाड़ियों से खचा खच पार्किंग एरिए में हमने भी अपनी गाड़ी पार्क की, लोगों की एक बड़ी संख्या पवित्र स्थल की ओर बढ़ रही थी, हम भी लोगों के साथ उस स्थल की ओर चल पड़े, जैसे ही हम उस स्थल के भीतर पहुंच तो हमने अपने सामने एक बड़ा दालान देखा जिसके चारों ओर दीवारें दीं और दोनों ओर दो बड़ी बड़ी इमारतें बनी हुई थीं जबकि प्रांगड़ के बीच में चबूतरा बना हुआ था जहां बहुत से लोग खड़े होकरर किसी पादरी का लेक्चर सुन रहे थे।
प्रांगड़ के दूसरी ओर चबूतरे की ओर से जाते हुए संगे मरमर की उस पगडंडी ने हमारा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया जिस पर एक व्यक्ति घुटनों के बल आगे बढ़ रहा था, पता चला कि संगे मरमर का यह विशेष रास्ता उन लोगों के लिए बनाया गया है जो आत्मा की शांति या दूसरी धार्मिक आस्थाओं को प्रकट करने के लिए घुटने या कोहनियों के बल चलकर इस पवित्र प्रांगड़ को पार करते हैं।
हमने एक ऐसे नेपाली व्यक्ति को देखा जो घुटनों के बल चलते हुए उस प्रांगड़ के अंतिम छोर के निकट पहुंच चुका था, हमारे पूछने पर पता चला कि यह व्यक्ति न तो मुसलमान है और न ही ईसाई बल्कि इस का संबंध हिन्दु धर्म से है। हमारे पूछने पर उस व्यक्ति का कहना था कि आत्मिक शांति के लिए यह काम किया जाता है और इससे पहले भी कई बार यह काम कर चुका है। जब हम आगे बढ़े तो हमने चबूतरे पर एक पादर को देखा जो धार्मिक शिक्षाओं के अनुसार प्रार्थना में व्यस्त था। लोगों की एक बड़ी संख्या उसके इर्द गिर्द खड़ी प्रार्थना में व्यस्त थी।
कुछ देर हम यह दृश्य देखते रहे और फिर आगे बढ़ गये, आगे बढ़ने के बाद हमें किसी प्रकार का कोई धार्मिक स्थल या मज़ार नज़र नहीं आया कि जिसकी कल्पना हम कर रहे थे कि शायद यहां किसी का मज़ार होगा। दूर तक फैली इस जगह पर बहुत अधिक प्रयास के बाद भी हमें कोई साइन बोर्ड या चिन्ह नज़र नहीं आया जो उस स्थल के बारे में विस्तार से बताए, ढूंढते ढूंढते जब हम पादरी के विशेष कार्यालय के भीतर गये तो गेट के अंदर घुसते हुए लंबे चौड़े पादरी साहब हमारे सामने थे जो भीतर की इमारत से बाहर निकल रहे थे, अधेड़ उम्र के पादरी को देखकर हमने सम्मान में उन्हें स्थानीय भाषा और अंग्रेज़ी में सलाम किया और उनसे पूछा कि क्या आप को अंग्रेज़ी बोल सकते हैं? पादरी ने बड़े संतोष से सिर हिलाया और हल्की सी आवाज़ में कहा यस- यस।
आरंभिक बातचीत के बाद हमने उनसे इस स्थान के इतिहास और धार्मिक महत्व के बारे में पूछा तो हमें बहुत आश्चर्य हुआ कि हमारे प्रश्न पर उनके चेहरे का रंग बदल गया, इसी बीच उन्होंने अंग्रेज़ी में बड़े रुखे अंदाज़ में केवल इतना कहा कि (I DON,T KNOW ANY THING) मैं कुछ नहीं जानता। हमें एक ईसाई पवित्र स्थल पर एक ईसाई पादरी से इस प्रकार के रवैये की तनिक भी आशा नहीं थी। इसके बाद वहां एक उनके प्रोटोकोल गार्ड मेंबर्स में से किसी एक ने बड़े सम्मान के साथ हमारा मार्ग दर्शन करते हुए एक छोटे से इन्फ़ार्मेश्न सेन्टर की ओर हमारा मार्गदर्शन किया जहां एक मध्य आयु की एक महिला मौजूद थीं जिनके काउंटर पर बहुत से ब्रोशर्ज़ पड़े हुए थे।
महिला से बातचीत के दौरान हमें इस विस्तृत स्थान के बारे में जो कुछ पता चला वह इस प्रकार हैः (जारी है)
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्ससलाम की शहादत।
आज पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहिस्सलाम व सल्लम के एक पौत्र इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत का दिन है।
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम २५ रजब १८३ हिजरी कमरी को शहीद हुए थे जिससे पूरा इस्लामी जगत शोकाकुल हो गया।
अधिक उपासना और त्याग के कारण इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को अब्दुस्सालेह अर्थात नेक बंदे की उपाधि दी गयी। इसी प्रकार इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने क्रोध को पी जाते थे जिसके कारण उनकी एक प्रसिद्ध उपाधि काज़िम है।
इतिहास में आया है कि राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के जीवन का समय बहुत कठिन था। उस समय दो अत्याचारी शासकों की सरकारें रहीं। एक अब्बासी ख़लीफा मंसूर और दूसरा हारून था। उस समय इन अत्याचारी शासकों ने लोगों की हत्या करके बहुत से जनआंदोलनों का दमन कर दिया था। दूसरी ओर इन्हीं अत्याचारी शासकों के काल में जिन क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की गयी वहां से प्राप्त होने वाली धन- सम्पत्ति इन शासकों की शक्ति में वृद्धि का कारण बनी। इसी प्रकार उस समय समाज में बहुत से मतों की गतिविधियां ज़ोर पकड़ गयीं थीं इस प्रकार से कि धर्म और संस्कृति के रूप में हर रोज़ एक नई आस्था समाज में प्रविष्ट हो रही थी और उसे अब्बासी सरकारों का समर्थन प्राप्त था। शेर, कला, धर्मशास्त्र, कथन और यहां तक कि तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय का दुरुपयोग सरकारी पदाधिकारी करते थे। घुटन का जो वातावरण व्याप्त था उसके कारण बहुत से क्षेत्रों के लोग सीधे इमाम से संपर्क नहीं कर सकते थे। इस प्रकार की परिस्थिति में जो चीज़ इस्लाम को उसके सही रूप में सुरक्षित कर सकती थी वह इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का सही दिशा निर्देश और अनथक प्रयास था।
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने पिता के मार्ग को जारी रखा। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने इस्लामी संस्कृति में ग़ैर इस्लामी चीजों के प्रवेश को रोकने तथा अपने अनुयाइयों के सवालो के उत्तर देने को अपनी गतिविदियों का आधार बनाया। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम समाज की आवश्यकताओं से पूर्णरूप से अवगत थे इसलिए उन्होंने विभिन्न विषयों के बारे में शिष्यों की प्रशिक्षा की। सुन्नी मुसलमानों के प्रसिद्ध विद्वान और मोहद्दिस अर्थात पैग़मबरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों के ज्ञाता इब्ने हजर हैयतमी अपनी किताब सवायक़ुल मुहर्रेक़ा में लिखते हैं” इमाम मूसा काज़िम, इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम के उत्तराधिकारी हैं। ज्ञान, परिपूर्णता और दूसरों की गलतियों की अनदेखी कर देने तथा बहुत अधिक धैर्य करने के कारण उनका नाम काज़िम रखा गया। इराक के लोग उनके घर को बाबुल हवाएज के नाम से जानते थे क्योंकि उनके घर से लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती थी। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने समय के सबसे बड़े उपासक थे। उनके समय में कोई भी ज्ञान और दूसरों को क्षमा कर देने में उनके समान नहीं था”
भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना ईश्वरीय धर्म इस्लाम के दो महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं। पवित्र कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने इसके बारे में बहुत अधिक बातें की हैं। इस प्रकार से कि इन दो सिद्धांतों के बारे में इस्लाम के अलावा दूसरे आसमानी धर्मों में भी बहुत बल दिया गया है। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने भी अपने पावन जीवन में इन चीज़ों पर बहुत दिया है।
बिश्र बिन हारिस हाफी की कहानी को इस संबंध में एक अनुपम आदर्श के रूप में देखा जा सकता है। बिश्र बिन हारिस हाफ़ी ने कुछ समय तक अपना जीवन ईश्वर की अवज्ञा एवं पाप में बिताया। एक दिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम उस गली से गुज़रे जिसमें बिश्र बिन हारिस हाफी का घर था। जिस समय इमाम बिश्र के दरवाज़े के सामने पहुंचे संयोगवश उनके घर का द्वार खुला और उनकी एक दासी घर से बाहर निकली। इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम ने उस दासी से पूछा तुम्हारा मालिक आज़ाद है या ग़ुलाम? दासी ने उत्तर दिया आज़ाद है। इमाम ने अपना सिर हिलाया और कहा एसा ही है जैसे तुमने कहा। क्योंकि अगर वह दास होता तो बंदों की भांति रहता और अपने ईश्वर के आदेशों का पालन करता। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने यह बातें कहीं और रास्ता चल दिये। दासी जब घर में आई तो बिश्र ने उससे विलंब से आने का कारण पूछा। उसने इमाम के साथ हुई बातचीत को बताया तो बिश्र नंगे पैर इमाम के पीछे दौड़े और उनसे कहा हे मेरे स्वामी! जो कुछ आपने इस महिला से कहा एक बार फिर से बयान कर दीजिए। इमाम ने अपनी बात फिर दोहराई। उस समय ब्रिश्र के हृदय पर ईश्वरीय प्रकाश चमका और उन्हें अपने किये पर पछतावा हुआ। उन्होंने इमाम का हाथ चूमा और अपने गालों को ज़मीन पर रख दिया इस स्थिति में कि वह रो और कह रहे थे कि हां मैं बंदा हूं हां मैं बंदा हूं”
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने के लिए बहुत ही अच्छी शैली अपनाई। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने एक छोटे से वाक्य से बिश्र का ध्यान उनकी ग़लती की ओर केन्द्रित करा और वह इस प्रकार बदल गये कि उन्होंने अपनी ग़लतियों व पापों से प्रायश्चित किया और अपना शेष जीवन सही तरह से व्यतीत किया।
अब्बासी ख़लीफ़ा अपनी लोकप्रियता और अपनी सरकार की वैधता तथा इसी प्रकार लोगों के दिलों में आध्यात्मिक प्रभाव के लिए स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकारी और उनका वंशज बताते थे। अब्बासी खलीफा पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा जनाब अब्बास के वंश से थे और इसका वे प्रचारिक लाभ उठाते और स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकार बताते थे। वे दावा करते थे कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन हज़रत फातेमा के वंशज से हैं और हर इंसान का संबंध उसके पिता और दादा के वंश से होता है इसलिए वे पैग़म्बरे इस्लाम के वंश नहीं हैं। इस प्रकार की बातें करके वास्तव में वे आम जनमत को दिग्भ्रमित करने के प्रयास में थे। इसलिए इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने पवित्र कुरआन का सहारा लेकर उन लोगों का मुकाबला किया। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने हारून रशीद से जो शास्त्रार्थ किये हैं वह खिलाफत के बारे में अहले बैत अलैहिस्सलाम का स्थान समझने के लिए काफी है। एक दिन हारून रशीद ने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से पूछा आप किस प्रकार दावा करते हैं कि आप पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं जबकि आप अली की संतान हैं? इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने उसके उत्तर में पवित्र कुरआन के सूरये अनआम की आयत नंबर ८५ और ८६ की तिलावत की जिसमें महान ईश्वर फरमाता है” इब्राहीम की संतान में से दाऊद और सुलैमान और अय्यूब और यूसुफ और मूसा और हारून और ज़करिया और यहिया और ईसा हैं और हम अच्छे लोगों को इस प्रकार प्रतिदान देते हैं” उसके बाद इमाम ने फरमाया जिन लोगों की गणना इब्राहीम की संतान में की गयी है उनमें एक ईसा हैं जो मां की तरफ से उनकी संतान में से हैं जबकि उनका कोई बाप नहीं था और केवल अपनी मां मरियम की ओर से उनका रिश्ता पैग़म्बरों तक पहुंचता है। इस आधार पर हम भी अपनी मां फातेमा की ओर से पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं।
हारून रशीद इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का तार्किक जवाब सुनकर चकित रह गया और उसने इस संबंध में इमाम से अधिक स्पष्टीकरण मांगा। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने मुबाहेला की घटना का उल्लेख किया जिसमें महान ईश्वर ने सूरे आले इमरान की ६१वीं आयत में पैग़म्बरे इस्लाम को आदेश दिया है कि जो भी आप से ईसा के बारे में बहस करें इसके बाद कि आपको उसके बारे में जानकारी प्राप्त हो जाये तो उनसे आप कह दीजिये कि आओ हम अपनी बेटों को लायें और तुम अपने बेटों को लाओ और हम अपनी स्त्रियों को लायें और तुम अपनी स्त्रियों को लाओ और हम अपने आत्मीय लोगों को ले आयें और तुम अपने आत्मीय लोगों को ले आओ उसके बाद हम शास्त्रार्थ करते हैं और झूठों पर ईश्वर के प्रकोप व धिक्कार की प्रार्थना करते हैं” इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम के बेटों से तात्पर्य हसन और हुसैन तथा स्त्री से तात्पर्य फातेमा और अपने आत्मीय लोगों के रूप में अली थे” हारून रशीद यह जवाब सुनकर संतुष्ट हो गया और उसने इमाम की प्रशंसा की।
इंसान की मुक्ति व सफलता के लिए पवित्र कुरआन सबसे बड़ा ईश्वरीय उपहार है। इंसान को परिपरिपूर्णता तक पहुंचने में इस आसमानी किताब की रचनात्मक भूमिका सब पर स्पष्ट है। पवित्र कुरआन पैग़म्बरे इस्लाम का एसा चमत्कार है जो प्रलय तक बाक़ी रहेगा और उसने अरब के भ्रष्ट समाज में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन उत्पन्न कर दिया। यह परिवर्तन इस प्रकार था कि सांस्कृतिक पहलु से उसने मानव समाज में प्राण फूंक दिया। सकलैन नाम से प्रसिद्ध हदीस में पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने पवित्र परिजनों को कुरआन के बराबर बताया है और मुसलमानों का आह्वान किया है कि जब तक वे इन दोनों से जुड़े रहेंगे तब तक कदापि गुमराह नहीं होंगे और ये दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होंगे। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम लोगों को इस किताब से अवगत कराने के लिए विशेष ध्यान देते थे। इमाम लोगों का आह्वान न केवल इस किताब की तिलावत के लिए करते थे बल्कि इस कार्य में स्वयं दूसरों से अग्रणी रहते थे। प्रक्यात धर्मगुरू शेख मुफीद ने अपनी एक किताब इरशाद में इस प्रकार लिखा है” इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने काल के सबसे बड़े धर्मशास्त्री, सबसे बड़े कुरआन के ज्ञाता और लोगों की अपेक्षा सबसे अच्छी ध्वनि में कुरआन की तिलावत करने वाले थे”
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम पवित्र कुरआन पर जो विशेष ध्यान देते थे वह केवल व्यक्तिगत आयाम तक सीमित नहीं था। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का एक महत्वपूर्ण कार्य पवित्र कुरआन की व्याख्या करना था। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम समाज के लोगों के ज्ञान का स्तर बढाने के लिए बहुत प्रयास करते थे। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम पवित्र कुरआन की आयतों की व्याख्या में उन स्थानों पर विशेष ध्यान देते थे जहां पर पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के स्थान की ओर संकेत किया गया है। उदाहरण स्वरूप सूरेए रूम की १९वीं आयत में महान ईश्वर कहता है” हम ज़मीन को मुर्दा होने के बाद पुनः जीवित करेंगे।“ इमाम से पूछा गया कि ज़मीन के ज़िन्दा करने से क्या तात्पर्य है? इमाम ने इसके उत्तर में फरमाया ज़मीन का जीवित होना वर्षा से नहीं है बल्कि ईश्वर एसे लोगों को चुनेगा जो न्याय को जीवित करेंगे और ज़मीन न्याय के कारण जीवित होगी और ज़मीन में ईश्वरीय क़ानून का लागू होना चालीस दिन वर्षा होने से अधिक लाभदायक है” हज़रत इमाम मूसा काजिम अलैहिस्सलाम इस रवायत में समाज में न्याय स्थापित होने को ज़मीन के जीवित होने से अधिक लाभदायक मानते हैं। वास्तव में पवित्र कुरआन की आयतों की इस प्रकार की व्याख्या इमामत के स्थान को बयान करने के लिए थी कि जो स्वयं इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का एक सांस्कृतिक कार्य था।
इस्लाम के कारण हो रहा है ईरान का विरोधः वरिष्ठ नेता
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने कहा है कि ईरान से अमरीका और ज़ायोनी शासन के विरोध का कारण इस्लाम है।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने मंगलवार को तेहरान में मुसलमान देशों के राजदूतों और देश के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ भेंट में कहा है कि अमरीका और ज़ायोनी शासन, इस्लामी गणतंत्र ईरान का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि वह उनकी मांगों के आगे सिर नहीं झुकाता।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पैग़म्बरी की घोषणा के दिवस पर आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा कि इस्लामी देशों को यह बात समझनी चाहिए कि अमरीका, एक इस्लामी देश के साथ मित्रता और दूसरे से शत्रुता का उद्देश्य, मुसलमानों की एकता को तोड़ना और उसमें बाधाएं डालना है।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि इस्लाम के नाम पर आतंकवादी गुटों का गठन करके इस्लामी देशों के बीच मतभेद फैलाना, अमरीका और ज़ायोनी शासन का षडयंत्र है। आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा कि विध्वंसकारियों के साथ कुछ क्षेत्रीय देश साज़िश में शामिल हैं। उन्होंने कहा कि इस काम को आगे बढ़ाने के लिए इस्लामी गणतंत्र ईरान या शिया विचारधारा को अपना शत्रु बता रहे हैं। वरिष्ठ नेता ने कहा कि सबको यह जानना चाहिए कि वर्चस्ववादियों के मुक़ाबले में प्रतिरोध ही इस्लामी जगत की प्रगति का मार्ग है।
उन्होंने कहा कि अमरीका के वर्तमान और पूर्व अधिकारियों द्वारा ईरानी राष्ट्र का विरोध, उनकी भ्रष्ट नियत को दर्शाता है। उन्होंने कहा कि अमरीकियों ने ईरान को नुक़सान पहुंचाने के लिए हर संभव प्रयास किया किंतु उसे इसमें विफलता ही मिली। वरिष्ठ नेता ने कहा कि जो भी ईरानी राष्ट्र को क्षति पहुंचाने का प्रयास करेगा वह ख़ुद ही घाटा उठाएगा।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों को संबोधित करते हुए उनसे कहा है कि वे लोग जनता को वचन दे कि देश के विकास के लिए विदेश से आस नहीं लगाएंगे।
ईरान की चाबहार बंदरगाह भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण: गडकरी
भारत के परिवहन मंत्री ने ईरान में चाबहार बंदरगाह परियोजना को महत्वपूर्ण बताते हुए उसके विस्तार पर बल दिया है।
प्राप्त समाचारों के अनुसार भारत के परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने क्षेत्र के देशों के बीच व्यापारिक मामलों में वृद्धि को लेकर ईरान के चाबहार बंदरगाह के महत्व की ओर इशारा करते हुए कहा है कि चाबहार बंदरगाह विस्तार परियोजना पर तेज़ी से काम हो रहा है।
नितिन गडकरी ने मंगलवार को अपने एक बयान में कहा कि भारत सरकार ने दक्षिणी ईरान में स्थित चाबहार बंदरगाह के विकास के लिए वहाँ एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी की स्थापना भी की है। उन्होंने कहा कि हमारा प्रयास है कि हम जितनी जल्दी हो सके इस परियोजना को पूरा कर लें।
उल्लेखनीय है कि चाबहार बंदरगाह परियोजना में भारत द्वारा पचास लाख डॉलर का निवेश किया जा रहा है साथ ही दो जेटियों के निर्माण समझौते पर पिछले साल ईरान और भारत के परिवहन मंत्रियों ने हस्ताक्षर किए थे, जबकि त्रिपक्षीय ट्रांज़िट समझौते पर पिछले साल भारतीय प्रधानमंत्री के ईरान दौरे के अवसर पर भारत, अफ़ग़ानिस्तान और ईरान के राष्ट्राध्यक्षों ने हस्ताक्षर किए थे।
ज्ञात रहे कि चाबहार बंदरगाह, भारत के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। इस बंदरगाह के माध्यम से भारत की पहुंच अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया तक बहुत आसान हो जाएगी।
तबस में अमरीकी हमले की विफलता की वर्षगांठ
तबस में अमरीकी हमले की विफलता की वर्षगांठ मनाई गई।
पूर्वी ईरान के तबस मरूस्थल में मंगलवार को अमरीकी हमले की विफलता की वर्षगांठ मनाई गई। तबस नगर के इमामे जुमा हुज्जतुल इस्लाम इब्राहीम महाजिरयान ने इस अवसर पर कहा कि यहां पर एक एसा संग्रहालय बनाया जाए जिसमें अमरीका के विफल हमले के बाद वहां पर मौजूद चीज़ों को रखा जाए।
ज्ञात रहे कि अमरीका ने तेहरान में अपने जासूसों को स्वतंत्र कराने के लिए 25 अप्रैल 1980 को पूर्वी ईरान में स्थित तबस मरूस्थल में एक पुराने हवाई अडडे को प्रयोग करके कार्यवाही करने की योजना बनाई थी किंतु रेत के तूफ़ान के कारण उनकी योजना विफल हो गई।
इस घटना के बाद वहां पर मिलने वाले उपकरणों और जले हुए जहाज़ के मलबे के अध्धयन से पता चलता है कि अमरीका ने अपने जासूसों को आज़ाद कराने के लिए कितनी गहराई से योजना बनाकर उसे क्रियान्वित करने का प्रयास किया था किंतु ईश्वर की कृपा से वह विफल रही।