رضوی

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क़ुद्स दिवस की तारीख़ समझने के लिए सबसे पहले हमें यह पता होना ज़रूरी है कि ईरान में सन 1979 में इस्लामी इन्क़लाब के रहबर हज़रत आयतुल्लाह इमाम ख़ुमैनी र.ह ने यह एलान किया था कि माहे रमज़ान के अलविदा जुमे को सारी दुनिया क़ुद्स दिवस की शक्ल में मनाएं।

दरअसल क़ुद्स का सीधा राब्ता मुसलमानों के क़िब्लए अव्वल बैतूल मुक़द्दस यानी मस्जिदे अक़्सा जो कि फ़िलिस्तीन में है, उसपर इस्राईल ने आज से 76 साल पहले (सन 1948) में नाजायज़ कब्ज़ा कर लिया था जो आज तक क़ायम है।

इस्लामी तारीख़ के मुताबिक़ ख़ानए काबा से पहले मस्जिदे अक़्सा ही मुसलमानों का क़िब्ला हुआ करती थी और सारी दुनिया के मुसलमान बैतूल मुक़द्दस की तरफ़ (चौदह साल तक) रुख़ करके नमाज़ पढ़ते थे, उसके बाद ख़ुदा के हुक्म से क़िब्ला बैतूल मुक़द्दस से बदलकर ख़ानए काबा कर दिया गया था जो अभी भी मौजूदा क़िब्ला है।

तारीख़ के मुताबिक़ मस्जिदे अक़्सा सिर्फ़ पहला क़िब्ला ही नहीं बल्कि कुछ और वजह से भी मुसलमानों के लिए ख़ास और अहम है। रसूले ख़ुदा (स) अपनी ज़िन्दगी में मस्जिदे अक़्सा तशरीफ़ ले गए थे और वही से आप मेराज पर गए थे। इसी तरह इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) के हवाले से हदीस में मिलता है कि आप फ़रमाते है: मस्जिदे अक़्सा इस्लाम की एक बहुत अहम मस्जिद है और यहां पर नमाज़ और इबादत करने का बहुत सवाब है। बहुत ही अफ़सोस की बात है कि यह मस्जिद आज ज़ालिम यहूदियों के नाजायज़ क़ब्ज़े में है।

  इस की शुरुवात सबसे पहले सन 1917 में हुई जब ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री जेम्स बिल्फौर ने फ़िलिस्तीन में एक यहूदी मुल्क़ बनाने की पेशकश रखी और कहा कि इस काम में लंदन पूरी तरह से मदद करेगा और उसके बाद हुआ भी यही कि धीरे धीरे दुनिया भर के यहूदियों को फ़िलिस्तीन पहुंचाया जाने लगा और बिलआख़िर 15 मई सन 1948 में इस्राईल को एक यहूदी देश की शक्ल में मंजूरी दे दी गई और दुनिया में पहली बार इस्राईल नाम का एक नजीस यहूदी मुल्क़ वजूद में आया।

इस के बाद इस्राईल और अरब मुल्क़ों के दरमियान बहुतसी जंगे हुई मगर अरब मुल्क़ हार गए और काफ़ी जान माल का नुक़सान हो जाने और अपनी राज गद्दियां बचाने के ख़ौफ़ से सारे अरब मुल्क़ ख़ामोश हो गए और उनकी ख़ामोशी को अरब मुल्क़ों की तरफ़ से हरी झंडी भी मान लिया गया। जब सारे अरब मुल्क़ थक हारकर अपने मफ़ाद के ख़ातिर ख़ामोश हो गए तो ऐसे हालात में फिर वह मुजाहिदे मर्दे मैदान खड़ा हुआ जिसे दुनिया रूहुल्लाह अल मूसवी, इमाम ख़ुमैनी के नाम से जानती है।

तक़रीबन सन 1979 में इमाम ख़ुमैनी साहब ने नाजायज़ इस्राईली हुकूमत के मुक़ाबले में बैतूल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए माहे रमज़ान के आख़िरी अलविदा जुमे को *यौमे क़ुद्स* का नाम दिया और अपने अहम पैग़ाम में आप ने यह एलान किया और तक़रीबन सभी मुस्लिम और अरब हुकूमतों के साथ साथ पूरी दुनिया को इस्राईली फ़ित्ने के बारे में आगाह किया और सारी दुनिया के मुसलमानों से अपील की कि वह इस नाजायज़ क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ आपस में एकजुट हो जाएं और हर साल रमज़ान के अलविदा जुमे को *यौमे क़ुद्स* मनाएं और मुसलमानों के इस्लामी क़ानूनों और उनके हुक़ूक़ के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें। जहां इमाम ख़ुमैनी ने *यौमे क़ुद्स* को इस्लाम के ज़िन्दा होने का दिन क़रार दिया वहीं आपके अलावा बहुत से और दीगर आयतुल्लाह और इस्लामी उलमा ने भी *यौमे क़ुद्स* को तमाम मुसलमानों की इस्लामी ज़िम्मेदारी क़रार दी।

लिहाज़ा सन 1979 में इमाम ख़ुमैनी साहब के इसी एलान के बाद से आज तक न सिर्फ़ भारत बल्कि सारी दुनिया के तमाम मुल्क़ों में जहां जहां भी मुसलमान, ख़ास तौर पर शीआ मुस्लिम रहते है, वह माहे रमज़ान के अलविदा जुमे को मस्जिदे अक़्सा और फ़िलिस्तीनियों की आज़ादी के लिए एहतजाज करते हैं और रैलियां निकालते हैं।

हमें यह भी मालूम होना चाहिए कि आज तक फ़िलिस्तीनी अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं और जद्दोजहद कर रहे हैं और इस्राईल अपनी भरपूर ज़ालिम शैतानी ताक़त से उनको कुचलता आ रहा है, जब हम अपने घर में पुर सुकून होकर रोज़ा इफ़्तार करते हैं उस वक़्त उसी फ़िलिस्तीन में हज़ारों मुसलमान इस्राईली बमों का निशाना बनते हैं, उनकी इज़्ज़त और नामूस के साथ ज़ुल्म किया जाता है और यह सब आज तक जारी है और इस ज़ुल्म पर सारी दुनिया के मुमालिक ख़ामोश है, क्योंकि इस्राईल को अमरीका और लंदन का साथ मिला हुआ है।

इस साल भी दुनियाभर में नमाज़े जुमा और एहतजाजी रैलियां मुमकिन हो रही है इसलिए इस बार हमें चाहिए कि इस्राईल के ख़िलाफ़ और बैतूल मुक़द्दस के हक़ में अपनी आवाज़ को तमाम मस्जिदों से बुलंद करें और जहां तक जितना मुमकिन हो सके मोमिनीन को इस के बारे में बताएं और एतजाजी रैलियों का आयोजन करें।

अल्लाह मज़लूमों के हक़ में हम सब की दुआओं को क़ुबूल फ़रमाएं और ज़ालिमीन को निस्त व नाबूद करें... आमीन

 

 

अंसारुल्लाह के नेता ने कहा कि इमाम खुमैनी र.ह.ने रमज़ान के आखिरी शुक्रवार को यौम अलकुद्स (अंतरराष्ट्रीय कुद्स दिवस) के रूप में घोषित किया जो वास्तव में राष्ट्रों की जागरूकता का दिन है।

 

अंतरराष्ट्रीय शाखा की रिपोर्ट के अनुसार, अंसारुल्लाह यमन के नेता सैयद अब्दुल मलिक अलहौसी ने कहा कि इमाम खुमैनी (रह.) ने रमजान के अंतिम शुक्रवार को यौम अलकुद्स के रूप में निर्धारित किया, ताकि यह दिन इस्लामी उम्मत को उनके पवित्र स्थलों और मज़लूम फिलिस्तीनी जनता के प्रति उनकी ज़िम्मेदारियों की याद दिला सके।

उन्होंने कहा कि इस वर्ष का यौम अल-कुद्स अभूतपूर्व घटनाओं के साथ मेल खा रहा है।इसके अलावा उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इस्लामी गणराज्य ईरान हमेशा फिलिस्तीनी राष्ट्र और प्रतिरोध आंदोलन का समर्थन करता रहा है और इस संघर्ष में उसकी केंद्रीय भूमिका है।

अंसारुल्लाह के नेता ने यमन की जनता के समर्थन को दोहराते हुए कहा कि यमनी जनता और सेना फिलिस्तीनी प्रतिरोध के साथ खड़ी रहेगी और ज़ायोनी शासन (इस्राइल) के खिलाफ अपने सैन्य अभियानों को तब तक जारी रखेगी जब तक कि गाजा पर आक्रमण और उसकी नाकाबंदी पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाती।

 

 

रमज़ान उल मुबारक के आखिरी शुक्रवार को पूरे विश्व में अंतर्राष्ट्रीय कुद्स दिवस के रूप में मनाया गया। भारतीय उपमहाद्वीप, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, इराक, फिलिस्तीन और अन्य देशों का वातावरण "अमेरिका और इजरायल मुर्दाबाद" के नारों से गूंज उठा।

रमज़ान उल मुबारक के आखिरी शुक्रवार को पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय कुद्स दिवस के रूप में मनाया गया। भारतीय उपमहाद्वीप, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, इराक, फिलिस्तीन और अन्य देशों का वातावरण "अमेरिका और इजरायल मुर्दाबाद" के नारों से गूंज उठा। तेहरान और ईरान के अन्य शहरों में ऐतिहासिक रैलियां आयोजित की गईं।

इस बीच, पूरा देश "इज़राइल मुर्दाबाद" और "अमेरिका मुर्दाबाद" के नारों से भर गया। रैलियों में भाग लेने वाले लाखों ईरानी लोगों ने उत्पीड़ित फिलिस्तीनियों के साथ खड़े होने का अपना दृढ़ संकल्प व्यक्त किया और ज़ायोनी आतंकवाद की निंदा की।

अंतर्राष्ट्रीय कुद्स दिवस के अवसर पर भारत के विभिन्न भागों में शिया और सुन्नी मुसलमानों ने पूरी एकता के साथ फिलिस्तीन के उत्पीड़ित लोगों के समर्थन में विरोध प्रदर्शन और शानदार रैलियां आयोजित कीं।

अंतर्राष्ट्रीय कुद्स दिवस के अवसर पर कश्मीर के कारगिल जिले में बड़े पैमाने पर रैलियां आयोजित की गईं, जिनमें हजारों मुसलमानों ने भाग लिया। कारगिल जिला मुख्यालय पर सबसे बड़ी रैली इमाम खुमैनी मेमोरियल ट्रस्ट कारगिल और अंजुमन जमीयत उलेमा इतना अशरिया द्वारा आयोजित की गई थी। रैली इस्ना अशरिया चौक से शुरू होकर मुख्य बाजार, मस्जिद हनफिया चौक से गुजरी और बाल्टी बाजार से इस्ना अशरिया चौक पर समाप्त हुई।

अमरोहा में शुक्रवार की नमाज के बाद, अशरफ मस्जिद में नमाजियों ने फिलिस्तीनी लोगों के साथ एकजुटता व्यक्त की और यरुशलम की मुक्ति के लिए उनके संघर्ष में फिलिस्तीनी लोगों के साथ खड़े होने की कसम खाई।

इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय कुद्स दिवस विशेष महत्व का था, क्योंकि आतंकवादी इजरायल ने पिछले डेढ़ साल में गाजा में पचास हजार से अधिक निर्दोष फिलिस्तीनियों का खून बहाया है, जिनमें सबसे बड़ी संख्या बच्चों और महिलाओं की है। संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और कुछ पश्चिमी देश, ज़ायोनी शासन के उन अपराधों में पूरी तरह से और समान रूप से सहभागी हैं, जो मानवता को शर्मसार करते हैं।

अगस्त 1979 में इमाम खुमैनी (र) ने रमजान के आखिरी शुक्रवार को कुद्स दिवस घोषित किया और दुनिया भर के मुसलमानों और इस्लामी सरकारों से आह्वान किया कि वे उस दिन ज़ायोनी शासन के अपराधों के खिलाफ एक स्वर में प्रदर्शन करें ताकि ज़ायोनी शासन को फिलिस्तीनी लोगों की भूमि से खदेड़ा जा सके।

एक जानकार सूत्र ने पुष्टि की कि ईरान ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पत्र का जवाब ओमान के माध्यम से अमेरिका को भेजा है।

एक जानकार सूत्र ने पुष्टि की कि ईरान ने  राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पत्र का जवाब ओमान के माध्यम से अमेरिका को भेजा है।

ईरान की प्रतिक्रिया क्या थी?ईरान ने अपने जवाब में ट्रम्प के पत्र के धमकी भरे और संभावित अवसरों वाले पहलुओं पर प्रतिक्रिया दी। विदेश मंत्री अब्बास अराकची ने इसे संयमित जवाब बताया लेकिन विस्तृत विवरण सार्वजनिक नहीं किया गया। 

ईरान ने सीधी वार्ता से इनकार करते हुए कहा कि जब तक अमेरिका अधिकतम दबाव (Maximum Pressure) की नीति जारी रखेगा तब तक वह सीधी बातचीत नहीं करेगा।

अंतर्राष्ट्रीय कुद्स दिवस के अवसर पर, ऑल इंडिया शिया काउंसिल द्वारा दिल्ली के ऐवान-ए-गालिब में बैतुल मुक़द्दस की आज़ीदी, उत्पीड़ित फिलिस्तीनियों के समर्थन में तथा गाजा में दमनकारी इजरायली सरकार के उत्पीड़न और आक्रमण के खिलाफ एक "कुद्स सम्मेलन" का आयोजन किया गया।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय कुद्स दिवस के अवसर पर, दिल्ली के ऐवान-ए-ग़ालिब में ऑल इंडिया शिया काउंसिल द्वारा "कुद्स कॉन्फ्रेंस" का आयोजन किया गया, जिसमें बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी, उत्पीड़ित फ़िलिस्तीनियों और गाजा में इज़रायली सरकार के जारी उत्पीड़न और आक्रमण के समर्थन में चर्चा की गई। जिसमें राष्ट्र के विद्वानों और धार्मिक नेताओं ने अपने भाषणों के माध्यम से फिलिस्तीन में चल रहे क्रूर अत्याचारों और नरसंहार के खिलाफ आवाज उठाई।

इस अवसर पर भारत में ईरान के इस्लामी क्रान्ति के नेता के प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन आगा महदी महदवीपुर ने कहा कि दुनिया कब तक इजरायल के आक्रमण और गाजा में हो रहे अत्याचारों और बिखरी लाशों को देखकर मूक दर्शक बनी रहेगी? यह हम सभी का कर्तव्य है कि हम अपनी आवाज उठाएं और फिलिस्तीन की मुक्ति के लिए हर संभव प्रयास करें।

इस्लामी गणतंत्र ईरान के राजदूत डॉ. इराज इलाही ने कहा कि आज फिलिस्तीनी राष्ट्र सबसे बुरे अत्याचारों का शिकार है। अभी कुछ दिन पहले ही एक दिन में चार सौ लोग मारे गए, लेकिन दुनिया में कोई भी आवाज नहीं उठा रहा है।

इराकी दूतावास के प्रथम सचिव अहमद हाशिम अतीफा ने कहा कि इजरायल गाजा में सबसे भयानक नरसंहार कर रहा है, जहां बच्चों और महिलाओं को भी मारा जा रहा है।

भारतीय मुस्लिम राजनीतिक परिषद के अध्यक्ष श्री डॉ. तस्लीम अहमद रहमानी ने कहा कि अरबों को अपने सम्मान पर बहुत गर्व है, लेकिन फिलिस्तीन के प्रति अरबों का सम्मान न होना बहुत दुखद है।

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता श्री कासिम रसूल इलियास ने इमाम खुमैनी (र) को याद करते हुए कहा कि इमाम खुमैनी ने फिलिस्तीनी मुद्दे को हमेशा के लिए पुनर्जीवित कर दिया। सांसद श्री रूहुल्लाह मेहदी ने कहा कि जहां कहीं भी लोगों पर अत्याचार हो रहा है और उनकी जमीनें हड़पी जा रही हैं, वहां अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना जरूरी है।

कश्मीर गेट के इमाम जुमा मौलाना मोहसिन तकवी ने कहा कि मीडिया के झूठे प्रचार के बावजूद आज दुनिया अच्छी तरह जानती है कि अत्याचारी कौन है और मज़लूम कौन है।

सांसद मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी ने कहा कि पिछले डेढ़ साल में गाजा में महायुद्ध से भी अधिक निर्दोष लोग शहीद हुए हैं।

पूर्व संसद सदस्य मुहम्मद अदीब ने कहा कि फिलिस्तीन की भूमि हमेशा से फिलिस्तीनियों की रही है और रहेगी।

सरदार दिया सिंह ने कहा कि हम इंसान हैं और फिलिस्तीन का मुद्दा मानवता का मुद्दा है। हम यहां उत्पीड़ितों के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए एकत्र हुए हैं।

सम्मेलन का उद्घाटन मौलाना अली कौसर कैफी ने पवित्र कुरान की तिलावत के साथ किया। अखिल भारतीय शिया परिषद के अध्यक्ष मौलाना जिनान असगर मोलाई ने सम्मेलन का संचालन किया, जबकि महासचिव मौलाना मिर्जा इमरान अली ने श्रोताओं का स्वागत किया और अखिल भारतीय शिया परिषद के प्रवक्ता और संयोजक मौलाना जलाल हैदर नकवी ने अतिथियों का धन्यवाद किया। सम्मेलन में बड़ी संख्या में तौहीद के अनुयायी और विद्वान शामिल हुए। सम्मेलन का समापन मौलाना शेख मुहम्मद असकरी के प्रार्थनापूर्ण शब्दों के साथ हुआ।

हसन नसरूल्लाह और याह्या सिनवार जैसे महान मुजाहिद्दीन की शहादत से प्रतिरोध का मार्ग और मजबूत हुआ है। हम हमास, हिजबुल्लाह और अंसार अल्लाह यमन सहित सभी प्रतिरोधी संगठनों को सलाम करते हैं। इमाम खुमैनी की चुनौती और इमाम खामेनेई की बुद्धिमत्ता से ज़ायोनीवाद की मूर्ति टूट कर रहेगी।

कराची/इमामिया छात्र संगठन पाकिस्तान कराची डिवीजन ने तहरीक-ए-आजादी कुद्स आंदोलन के बैनर तले अंतर्राष्ट्रीय कुद्स दिवस के अवसर पर प्रदर्शनी से तिब्बत केंद्र तक “बैतुल मुकद्दस की आजादी रैली” का आयोजन किया, जिसमें हजारों पुरुषों, महिलाओं और बच्चों ने भाग लिया। रैली में फिलिस्तीनी लोगों के साथ एकजुटता व्यक्त की गई तथा उत्पीड़ित फिलिस्तीनियों की स्वतंत्रता के पक्ष में जोरदार नारे लगाए गए। रैली में भाग लेने वाले लोगों ने फिलिस्तीनी झंडे और बैनर थामे हुए थे जिन पर नारे लिखे थे जैसे "कुद्स हमारा है", "इजराइल का नाश हो" और "फिलिस्तीन अमर रहे"। प्रतिभागियों ने अपने हाथों में तख्तियां और बैनर भी पकड़ रखे थे, जिन पर उत्पीड़ित फिलिस्तीनियों के पक्ष में और इजरायली अत्याचारों के खिलाफ बातें लिखी हुई थीं। रैली के दौरान, फिलिस्तीनी बच्चों, महिलाओं और निर्दोष नागरिकों पर इजरायल के हमलों की निंदा की गई, जबकि विभिन्न वक्ताओं ने इजरायल को क्षेत्र में एक आतंकवादी राज्य बताते हुए उसके खिलाफ सख्त कदम उठाने का आह्वान किया।

विरोध रैली को आईएसओ पाकिस्तान सेंट्रल के अध्यक्ष फखर अब्बास, सिंध सरकार के प्रवक्ता तहसीन आबिदी, पीटीआई केंद्रीय नेता फिरदौस शमीम नकवी, एमक्यूएम सिंध विधानसभा सदस्य इंजीनियर आदिल असकरी, जमात-ए-इस्लामी केंद्रीय नेता डॉ मेराज-उल-हुदा सिद्दीकी, मिल्ली यकजेहती काउंसिल के महासचिव और जमीयत उलेमा-ए-पाकिस्तान सिंध के उपाध्यक्ष मौलाना काजी अहमद नूरानी, ​​सिंध बार काउंसिल के नेता एडवोकेट मुहम्मद सईद अब्बासी, सिंध बार काउंसिल के महासचिव एडवोकेट रहमान कोराई, हयात इमाम मस्जिदों के महासचिव मौलाना असगर हुसैन शाहिदी और उम्मत वहीदा के प्रमुख अल्लामा अमीन शाहिदी ने संबोधित किया। रैली को संबोधित करते हुए नेताओं ने प्रतिरोध के शहीदों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई और प्रथम क़िबला की मुक्ति के लिए जोरदार संघर्ष जारी रखने का दृढ़ संकल्प व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि वे हमास, हिज़्बुल्लाह और अंसार अल्लाह यमन सहित सभी प्रतिरोध संगठनों को सलाम करते हैं।

नेताओं ने कहा कि बैतुल मक़द्दस केवल फिलिस्तीनियों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए समस्या है और इसे ज़ायोनी आक्रमणकारियों से मुक्त कराना प्रत्येक मुसलमान की धार्मिक और नैतिक जिम्मेदारी है। नेताओं ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, विशेषकर मुस्लिम शासकों से आग्रह किया कि वे इजरायली आक्रामकता के विरुद्ध एक साझा रणनीति अपनाएं तथा यमन जैसा साहस बनाएं, जो फिलिस्तीनियों को व्यावहारिक सहायता प्रदान करने के लिए पूरी ताकत के साथ जमीन पर मौजूद है। नेताओं ने कहा कि सय्यद हसन नसरूल्लाह, सय्यद हाशिम सफीउद्दीन, इस्माइल हनीया और याह्या सिनवार जैसे महान सेनानियों की शहादत से प्रतिरोध का मार्ग और मजबूत हुआ है और ईश्वर की इच्छा से प्रतिरोध के शहीदों के खून की दुआओं से दुनिया जल्द ही इजरायल के विनाश का गवाह बनेगी। नेताओं ने कहा कि शहीद हसन नसरूल्लाह बिल्कुल सही थे कि इजरायल का विनाश अब दूर नहीं है, और क्षेत्र में प्रतिरोध बल इजरायल के खिलाफ एक मजबूत रक्षात्मक दीवार बन गए हैं।

उन्होंने आगे कहा कि फिलिस्तीन के उत्पीड़ित लोगों की मदद केवल मौखिक दावों से नहीं, बल्कि व्यावहारिक कदमों से होगी। उन्होंने मुस्लिम जगत से ज़ायोनी राज्य के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठाने तथा फ़िलिस्तीनी लोगों के लिए हर संभव समर्थन सुनिश्चित करने का आग्रह किया। नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र, ओआईसी और अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों की उदासीनता की भी कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि ये संस्थाएं उत्पीड़ितों की वकालत करने के बजाय उपनिवेशवाद के हितों की रक्षा में व्यस्त हैं। नेताओं ने कहा कि उम्माह में बेशर्म शासक हैं, यमन के लोगों और शासकों ने सम्मान दिखाया है, पूर्व और पश्चिम आज ज़ायोनीवाद को खारिज करने के लिए सड़कों पर हैं, इमाम खुमैनी की चुनौती और इमाम खामेनेई की रणनीति से ज़ायोनीवाद की मूर्ति टूट जाएगी, हम सभी बहुत जल्द अक्सा मस्जिद में नमाज़ अदा करेंगे। रैली के अंत में अमेरिकी और इजरायली झंडे जलाये गये।

शुक्रवार, 28 मार्च 2025 12:33

बंदगी की बहार

पवित्र रमज़ान के अन्तिम दस दिन, रोज़ा रखने वालों के लिए विशेष रूप से आनंदाई होते हैं।

इन दस रातों में पड़ने वाली शबेक़द्र या बरकत वाली रातों को छोटे-बड़े, बूढ़े-जवान, पुरूष-महिला, धनवान व निर्धन, ज्ञानी व अज्ञानी सबके सब निष्ठा के साथ रात भर ईश्वर की उपासना करते हैं।  इन रातों अर्थात शबेक़द्र में लोगों के बीच उपासना के लिए विशेष प्रकार का उत्साह पाया जाता है।  लोग पूरी रात उपासना में गुज़ारते हैं।

शबेक़द्र को इसलिए शबेक़द्र कहा जाता है क्योंकि पवित्र क़ुरआन के अनुसार इसी रात मनुष्य के पूरे वर्ष का लेखाजोखा निर्धारित किया जाता है।  यह ऐसी रात है जो हज़ार महीनों से भी अधिक महत्वपूर्ण है।  यह रात उन लोगों के लिए सुनहरा अवसर है जिनके हृदय पापों से मुर्दा हो चुके हैं।  यह बहुत ही बरकत वाली रात है।  इस रात में उपासना करके मनुष्य जहां अपने पापों का प्रायश्चित कर सकता है वहीं पर आने वाले साल में अपने लिए सौभाग्य को निर्धारित कर सकता है।

पवित्र क़ुरआन के सूरेए क़द्र में ईश्वर कहता है कि हमने क़ुरआन को शबेक़द्र में नाज़िल किया और तुमको क्या मालूम के शबेक़द्र क्या है? शबेक़द्र हज़ार महीनों से बेहतर है।  इस रात फ़रिश्ते और रूह, सालभर की हर बात का आदेश लेकर अपने पालनहार के आदेश से उतरते हैं।  यह रात सुबह होने तक सलामती है।  सूरए क़द्र में बताया गया है कि क़ुरआन क़द्र की रात में नाज़िल किया गया जो रमज़ान के महीने में पड़ती है। इस रात को हज़ार महीनों से बेहतर कहा गया है। क़ुरआन की आयतों से यह पता चलता है कि क़ुरआन को दो रूपों में नाज़िल किया गया है एक तो एक बार में और दूसरे चरणबद्ध रूप से। पहले चरण में क़ुरआन एक ही बार में पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर उतरा।  यह क़द्र की रात थी जिसे शबेक़द्र कहा जाता है। बाद के चरण में क़ुरआन के शब्द पूरे विस्तार के साथ धीरे-धीरे अलग-अलग अवसरों पर उतरे जिसमें 23 वर्षों का समय लगा। 

क़द्र की रात में क़ुरआन का उतरना भी इस बात का प्रमाण है कि यह महान ईश्वरीय ग्रंथ निर्णायक ग्रंथ है। क़ुरआन, मार्गदर्शन के लिए ईश्वर का बहुत बड़ा चमत्कार तथा सौभाग्यपूर्ण जीवन के लिए सर्वोत्तम उपहार है।  इस पुस्तक में वह ज्ञान पाया जाता है कि यदि दुनिया उस पर अमल करे तो संसार, उत्थान और महानता के चरम बिंदु पर पहुंच जाएगा।

सूरए क़द्र में उस रात को, जिसमें क़ुरआन उतारा गया, क़द्र की रात अर्थात अति महत्वपूर्ण रात कहा गया है।  क़द्र से तात्पर्य है मात्रा और चीज़ों का निर्धारण।  इस रात में पूरे साल की घटनाओं और परिवर्तनों का निर्धारण किया जाता है।  सौभाग्य, दुर्भाग्य और अन्य चीज़ों की मात्रा इसी रात में तय की जाती है। इस रात की महानता को इससे समझा जा सकता है कि क़ुरआन ने इसे हज़ार महीनों से बेहतर बताया है। रिवायत में है कि क़द्र की रात में की जाने वाली उपासना हज़ार महीने की उपासनाओं से बेहतर है। सूरए क़द्र की आयतें जहां इंसान को इस रात में उपासना और ईश्वर से प्रार्थना की निमंत्रण देती हैं वहीं इस रात में ईश्वर की विशेष कृपा का भी उल्लेख करती हैं और बताती हैं कि किस तरह इंसानों को यह अवसर दिया गया है कि वह इस रात में उपासना करके हज़ार महीने  की उपासना का सवाब प्राप्त कर लें। पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि ईश्वर ने मेरी क़ौम को क़द्र की रात प्रदान की है जो इससे पहले के पैग़म्बरों की क़ौमों को नहीं मिली है।

रिवायत में है कि क़द्र की रात में आकाश के दरवाज़े खुल जाते हैं, धरती और आकाश के बीच संपर्क बन जाता है। इस रात फ़रिश्ते ज़मीन पर उतरते हैं और ज़मीन प्रकाशमय हो जाती है।  वे मोमिन बंदों को सलाम करते हैं। इस रात इंसान के हृदय के भीतर जितनी तत्परता होगी वह इस रात की महानता को उतना अधिक समझ सकेगा।  क़ुरआन के अनुसार इस रात सुबह तक ईश्वरीय कृपा और दया की वर्षा होती रहती है। इस रात ईश्वर की कृपा की छाया में वह सभी लोग होते हैं जो जागकर इबादत करते हैं।

शबेक़द्र की एक विशेषता, आसमान से फ़रिश्तों का उस काल के इमाम पर उतरना है।  इस्लामी कथनों के अनुसार शबेक़द्र केवल पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल से विशेष नहीं है बल्कि यह प्रतिवर्ष आती है।  इसी रात फरिश्ते अपने काल के इमाम के पास आते हैं और ईश्वर ने जो आदेश दिया है उसे वे उनको बताते हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कथन है कि रमज़ान का महीना, ईश्वर का महीना है।  यह ऐसा महीना है जिसमें ईश्वर भलाइयों को बढ़ाता है और पापों को क्षमा करता है।  यह सब रमज़ान के कारण है।  इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम कहते हैं कि लोगों के कर्मों के हिसाब का आरंभ शबेक़द्र से होता है क्योंकि उसी रात अगले वर्ष का भाग्य निर्धारित किया जाता है।

शबेक़द्र के इसी महत्व के कारण इसका हर पल महत्व का स्वामी है।  इस रात जागकर उपासना करने का विशेष महत्व है।  इस रात की अनेदखी करना अनुचित है।  इस रात को सोते रहना उसे अनदेखा करने के अर्थ में है अतः एसा करने से बचना चाहिए।  शबेक़द्र के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) इस रात अपने घरवालों को जगाए रखते थे।  जो लोग नींद में होते उनके चेहरे पर पानी की छींटे मारते थे।  वे कहते थे कि जो भी इस रात को जागकर गुज़ारे, अगले साल तक उससे ईश्वरीय प्रकोप को दूर कर दिया जाएगा और उसके पिछले पापों को माफ किया जाएगा।  पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा शबेक़द्र में अपने घर के किसी भी सदस्य को सोने नहीं देती थीं।  इस रात वे घर के सदस्यों को खाना बहुत हल्का देती थीं और स्वयं एक दिन पहले से शबेक़द्र के आगमन की तैयारी करती थीं।  वे कहती थीं कि वास्वत में दुर्भागी है वह व्यक्ति जो विभूतियों से भरी इस रात से वंचित रह जाए।

शबेक़द्र को शबे एहया भी कहा जाता है जिसका अर्थ होता है जीवित करना।  इस रात को शबे एहया इसलिए कहा जाता है ताकि रात में ईश्वर की याद में डूबकर अपने हृदय को पवित्र एवं जीवित किया जा सके।  हृदय को जीवित करने का अर्थ है बुरे कामों से दूरी।  मरे हुए हृदय का अर्थ है सच्चाई को न सुनना, बुरी बातों को देखते हुए खामोश रहना।  झूठ और सच को एक जैसा समझना और अपने लिए मार्गदर्शन के रास्तों को बंद कर लेना।  इस प्रकार के हृदय के स्वामी को क़ुरआन, मुर्दा बताता है।  ईश्वर के अनुसार ऐसा इन्सान चलती-फिरती लाश के समान है।  जिस व्यक्ति का मन मर जाए वह पशुओं की भांति है।  उसमें और पशु में कोई अंतर नहीं है।  पापों की अधिकता के कारण पापियों के हृदय मर जाते हैं और वे जानवरों की भांति हो जाते हैं।

 

 

अपने बंदों पर ईश्वर की अनुकंपाओं में से एक अनुकंपा यह है कि उसने मरे हुए दिलों को ज़िंदा करने के लिए कुछ उपाय बताए हैं।  इस्लामी शिक्षाओं में बताया गया है कि ईश्वर पर भरोसा, प्रायश्चित, उपासना और प्रार्थना, दान-दक्षिणा और भले काम करके मनुष्य अपने मरे हुए हृदय को जीवित कर सकता है।  ईश्वर ने शबेक़द्र को इसीलिए बनाया है कि मनुष्य इस रात पूरी निष्ठा के साथ उपासना करके अपने मन को स्वच्छ और शुद्ध कर सकता है।  यही कारण है कि शबेक़द्र की पवित्र रात के प्रति किसी भी प्रकार की निश्चेतना को बहुत बड़ा घाटा बताया गया है।  इसीलिए महापुरूष इस रात के एक-एक क्षण का सदुपयोग करते हुए सुबह तक ईश्वर की उपासना में लीन रहा करते थे।

 

शुक्रवार, 28 मार्च 2025 12:29

ईश्वरीय आतिथ्य

रमज़ान के महीने में नमाज़ के बाद जिन दुआओं के पढ़ने की सिफ़ारिश की गई है, उनमें से एक दुआए फ़रज है।

यह दुआ हर ज़रूरतमंद के लिए है, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति से संबंध रखता हो।

रमज़ान के महीने के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया है, इस महीने में अपने ग़रीबों और निर्धनों को दान दो, अपने बड़ों का सम्मान करो और अपने छोटों पर दया करो, अपने रिश्तेदारों से मेल-मिलाप रखो, अपनी ज़बान को सुरक्षित रखो, अपनी आंखों से हराम चीज़ों पर नज़र नहीं डालो, हराम बात सुनने से बचो, दूसर लोगों के अनाथों के साथ मोहब्बत से पेश आओ, ताकि वे तुम्हारे अनाथों से मोहब्बत करें और ईश्वर से अपने पापों के लिए तौबा करो।

रमज़ान के महीने में ज़मीन पर ईश्वर की रहमत पहले से अधिक बरसती है। यह महीना प्यार, मोहब्बत, आशा और नेमत का महीना है। ईश्वर इस महीने में निर्धनों को प्रोत्साहित करता है, ताकि ऐसे मार्ग पर अग्रसर रहें, जिसके अंत में ईश्वर की प्रसन्नता और स्वर्ग हासिल हो। ऐसा मार्ग जिसपर हर कोई अकेले चलकर गंतव्य तक नहीं पहुंच सकता, लेकिन ईश्वर इस महीने के रोज़ों के ज़रिए सभी की सहायता करता है, चाहे वे गुनाह करने वाले हों या चाहे अच्छे लोग हों जो हमेशा ईश्वर का ज़िक्र करते हैं।

रोज़े से इंसान में निर्धन वर्ग से हमदर्दी का अहसास पैदा होता है। स्थायी भूख और प्यास से रोज़ा रखने वाले का स्नेह बढ़ जाता है और वह भूखों और ज़रूरतमंदों की स्थिति को अच्छी तरह समझता है। उसके जीवन में ऐसा मार्ग प्रशस्त हो जाता है, जहां कमज़ोर वर्ग के अधिकारों का हनन नहीं किया जाता है और पीड़ितों की अनदेखी नहीं की जाती है। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) से हेशाम बिन हकम ने रोज़ा वाजिब होने का कारण पूछा, इमाम ने फ़रमाया, रोज़ा इसलिए वाजिब है ताकि ग़रीब और अमीर के बीच बराबरी क़ायम की जा सके। इस तरह से अमीर भी भूख का स्वाद चख लेता है और ग़रीब को उसका अधिकार देता है, इसलिए कि अमीर आम तौर से अपनी इच्छाएं पूरी कर लेते हैं, ईश्वर चाहता है कि अपने बंदों के बीच समानता उत्पन्न करे और भूख एवं दर्द का स्वाद अमीरों को भी चखाए, ताकि वे कमज़ोरों और भूखों पर रहम करें।

रमज़ान में ईश्वर की अनुकंपा सबसे अधिक होती है। इस महीने में ऐसा दस्तरख़ान फैला हुआ होता है कि जिस पर ग़रीब और अमीर एक साथ बैठते हैं और सभी एक दूसरे की मुश्किलों के समाधान के लिए दुआ करते हैं। यह दुआ इंसानों में प्रेम जगाती है। इस महत्वपूर्ण एवं सुन्दर दुआ में हम पढ़ते हैं, हे ईश्वर, समस्त मुर्दों को शांति और ख़ुशी प्रदान कर। हे ईश्वर, समस्त ज़रूरतमंदों की ज़रूरतें पूरी कर। समस्त भूखों का पेट भर दे। दुनिया के समस्त निर्वस्त्रों के बदन ढांप दे। हे ईश्वर, सभी क़र्ज़दारों का क़र्ज़ अदा कर। हे ईश्वर, समस्त दुखियारों के दुख दूर कर दे। हे ईश्वर, समस्त परदेसियों को अपने देश वापस लौटा दे। हे ईश्वर, समस्त क़ैदियों को आज़ाद कर। हे ईश्वर, हमारी बुरी स्थिति को अच्छी स्थिति में बदल दे।

दुआए फ़रज पूर्ण रूप से एक सामाजिक दुआ है, जो हर जाति, रंग और धर्म के लोगों से संबंधित है। एक मुसलमान के लिए दूसरे मुसलमानों और ग़ैर मुस्लिम भाईयों की मदद में कोई अंतर नहीं है। मुसलमान अंहकार के ख़ोल से बाहर आ जाता है, इसलिए वह सभी का भला चाहता है। इसीलिए रमज़ान महीने की दुआ में कुल शब्द आया है, जिसका अर्थ है समस्त। हे ईश्वर समस्त ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी कर और समस्त भूखों का पेट भर दे। इस दुआ की व्यापकता इतनी अधिक है कि न केवल धरती पर मौजूद समस्त इंसानों के लिए है, बल्कि मुर्दे भी इसमें शामिल हैं और उनकी शांति के लिए प्रार्थना की गई है। 

इस्लाम दान देने पर काफ़ी बल देता है, ताकि धन वितरण में संतुलन बन सके। दान उस समय अपने शिखर पर होता है, जब इंसान अपनी पसंदीदा चीज़ को दान करता है। कुछ लोगों का मानना है कि दूसरों की उस समय मदद करनी चाहिए जब उन्हें ख़ुद को ज़रूरत न हो। हालांकि वास्तविक भले लोगों के स्थान तक पहुंचने के लिए इंसान को अपनी पसंदीदा चीज़ों को दान में देना चाहिए। जैसा कि क़ुरान में उल्लेख है, तुम कदापि वास्तविक भलाई तक नहीं पहुंचोगे, जब तक कि जो चीज़ तुम्हें पसंद है उसे ईश्वर के मार्ग में न दे दो। इसका मतलब है कि आप दूसरों को ख़ुद से अधिक पसंद करते हैं और जो चीज़ आपको पसंद है वह उन्हें उपहार में दे देते हैं।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा अपने विवाह से ठीक पहले, शादी का अपना जोड़ा एक भिखारी को दान कर देती हैं, जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) को इस बात की ख़बर मिली तो उन्होंने फ़रमाया, तुम्हारा नया जोड़ा कहां है? हज़रत फ़ातेमा ने फ़रमाया, मैंने वह भिखारी को दे दिया। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, क्यों नहीं अपना कोई पुराना वस्त्र दे दिया? उन्होंने कहा, उस समय मुझे क़ुरान की यह आयत याद आ गई कि जो चीज़ तुम्हें पसंद है, उसे दान में दो, इसिलए मैंने भी अपना शादी का नया जोड़ा दान कर दिया। इस घटना से पता चलता है कि इस्लाम ग़रीबों की मदद पर कितना बल देता है। जैसा कि दुआए फ़रज में उल्लेख है कि हे ईश्वर, समस्त निर्वस्त्रों के शरीर वस्त्रों से ढांप दे।

दुआए फ़रज के एक भाग में आया है कि हे ईश्वर समस्त दुखियों के दुखों को दूर कर दे। ऐसा समाज जिसके नागरिक दुखी नहीं होते हैं, वह ख़ुशहाल और सुखी होता है और उसके सदस्य कभी भी नकारात्मक गतिविधियां अंजाम नहीं देते हैं, अव्यवस्था उत्पन्न नहीं करते हैं और अनैतिक कार्यों से बचे रहते हैं और हमेशा अपने और दूसरों के सुख के लिए कोशिश करते हैं। एक ख़ुशहाल समाज के लोग ईश्वर से अधिक निकट होते हैं। इसीलिए पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है, जिसने किसी मोमिन को ख़ुश किया उसने मुझे ख़ुश किया, जिसने मुझे ख़ुश किया उसने ईश्वर को ख़ुश किया। यहां ख़ुश करने से तात्पर्य ग़रीबों को भोजन देना और उनकी मदद करना है, सफ़र में रह जाने वाले मुसाफ़िर को उसके गंत्वय तक पहुंचाना, क़र्ज़ देना और लोगों की समस्याओं का समाधान करना है।

इस दुआ में स्नेह और कृपा के लिए मुस्लिम या ग़ैर मुस्लिम के बीच कोई अंतर नहीं रखा गया है। क़ुरान के सूरए इंसान में भी इस बिंदू को स्पष्ट रूप से बयान किया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम, हज़रत अली, हज़रत फ़ातेमा, इमाम हसन और इमाम हुसैन एक दिन रोज़ा रखते हैं, लेकिन इफ़्तार के वक़्त दरवाज़े पर खड़े तीन फ़क़ीरों को अपना पूरा भोजन दे देते हैं। यह तीनों, फ़क़ीर अनाथ और क़ैदी होते हैं। उस ज़माने में मुसलमानों और काफ़िरों के बीच होने वाली लड़ाइयों के दौरान, वह व्यक्ति क़ैदी बना लिया जाता था, जो इस्लाम को नष्ट करने के प्रयास में था और युद्ध में पकड़ा जाता था। लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने रोज़े में भूखा और प्यासा होने के बावजूद, अपना भोजन उन्हें दे दिया। यही कारण है कि समस्त क़ैदी और ज़रूरतमंद इस दुआ के पात्र हैं।

 

रमज़ान का महीना क़ुरान नाज़िल होने का महीना है। क़ुरान का प्रकाश इतनी शक्ति रखता है कि बुरी चीज़ों के मुक़ाबले में अच्छी चीज़ों को प्रकाशमय कर दे। अर्थात, अमानत को ख़यानत की जगह, मोहब्बत को नफ़रत की जगह, कृतज्ञता को कृतघ्नता की जगह, आशा को निराशा की जगह, निश्चिंतता‎ को चापलूसी की जगह और कुल मिलाकर ईश्वर की प्रसन्नता को हवस की जगह क़रार देता है और हमारी बदहाली दूर कर देता है। बदहाली शैतानी एवं नकारात्मक विचार हैं, जिसे दूर करने के लिए कृपालु ईश्वर से दुआ करनी चाहिए, ताकि वह उसे अच्छी हालत में बदल दे। इसीलिए इस दुआ में उल्लेख है कि हे ईश्वर, हमारी बदहाली को अच्छी हालत में बदल दे।

यह दुआ, एक आदर्श समाज का उल्लेख करती है, जिसकी इंसान को हमेशा तलाश रही है। समस्त ईश्वरीय प्रतिनिधि और दूत इसी समाज का तानाबाना बुनने के लिए आए थे। अंतिम ईश्वरीय मुक्तिदाता की प्रतीक्षा करने वाला का मानना है कि इस दुआ में जो कुछ मांगा गया है, वह अंतिम ईश्वरीय मुक्तिदाता इमाम महदी अलैहिस्सलाम के शासनकाल में पूरा होगा। यह दुआ वास्तव में अंतिम मुक्तिदाता के प्रकट होने के लिए दुआ करना है।                        

 

 

इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान ने हमेशा फिलिस्तीनी प्रतिरोध और बैतुल मुक़द्दस की बाज़याबी को अपनी विदेश नीति का मुख्य स्तंभ बनाया है। ईरान न केवल फिलिस्तीनी लोगों के अधिकारों का समर्थन करता है, बल्कि इजरायल और अमेरिकी आक्रमण के खिलाफ भी लगातार सक्रिय है।

मुसलमानों का पहला क़िबला बैतुल मुक़द्दस कब आज़ाद होगा? क्या उत्पीड़ित फिलिस्तीनियों को कभी स्वतंत्रता मिलेगी? सांसारिक धन-संपदा से समृद्ध, लेकिन बौद्धिक रूप से कमजोर और कायर मुस्लिम शासक कब तक स्वार्थ की आड़ में अमेरिका और इजरायल का गुप्त समर्थन करते रहेंगे? और क्या यह समर्थन उन्हें सुरक्षित रखेगा?

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का यह कथन कि अरब शासकों के लिए इजरायल के साथ सहानुभूतिपूर्ण संबंध रखना महत्वपूर्ण है (चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष) आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि अमेरिका इजरायल का मित्र है और अरब शासकों की सरकारें अमेरिकी सैन्य समर्थन के बिना दो सप्ताह भी जीवित नहीं रह सकती हैं। क्या हजारों निर्दोष फिलिस्तीनी बच्चों, बुजुर्गों, युवकों और महिलाओं द्वारा बहाए गए खून की कीमत केवल वित्तीय सहायता या हज और उमराह के लिए व्यवस्था की कुछ घोषणाएं हैं? ऐसे अनगिनत प्रश्न हर संवेदनशील और ईर्ष्यालु मन में घूमते रहते हैं। आइये हम अपने स्तर पर इन सवालों के जवाब तलाशें और सत्ता में बैठे लोगों तक उनकी गूंज पहुंचाने का प्रयास करें।

पवित्र कुरान हर मुसलमान के घर में मौजूद है और हर मुसलमान कुरान पर विश्वास करता है। कुरान हामिद स्पष्ट रूप से दावा करता है कि मेरे भीतर हर समस्या और हर कठिनाई का समाधान है। तो फिर अमेरिका और उसके मित्र देश सत्ता का केंद्र और धुरी कैसे बन गए? असली वजह यह है कि हमने कुरान को सिर्फ याद करने तक ही सीमित कर दिया है, लेकिन इसकी शिक्षाओं और संदेशों से दूर रह गए हैं। इसके विपरीत, गैर-मुस्लिम राष्ट्रों ने कुरान में उल्लिखित सिद्धांतों से मार्गदर्शन लिया है और परिणामस्वरूप, उनकी शक्ति, ताकत, अधिकार और धन में लगातार वृद्धि हुई है। मैं चाहता हूं कि मुस्लिम शासक भी कुरान की शिक्षाओं से सीखें और कार्यक्षेत्र में सक्रिय हो जाएं।

पवित्र कुरान का पहला संदेश ज्ञान प्राप्त करने और उसे जीवन के हर पहलू में लागू करने के बारे में है। कुरान की शिक्षाओं के अनुसार मुस्लिम दुनिया को ज्ञान और अनुसंधान, विशेष रूप से आधुनिक वैज्ञानिक और तकनीकी विज्ञान का केंद्र बनना चाहिए, तथा दुनिया के प्रत्येक छात्र को हमारे शैक्षणिक केंद्रों, पुस्तकालयों और शोधकर्ताओं की आवश्यकता होगी। लेकिन अफसोस! हमारी लापरवाही, सत्ता की लालसा और विलासिता ने हमें उस बिंदु पर ला खड़ा किया है जहां हमारा अस्तित्व अब दूसरों की दया पर निर्भर है।

इसके विपरीत, जिन मुस्लिम देशों ने कुरान की शिक्षाओं को अपनाया, वे आज प्रगति कर रहे हैं और अपने दुश्मनों को धूल चटा रहे हैं।

हज़रत अली (अ) ने फ़रमाया: "अनाथ वह नहीं है जिसका पिता मर गया हो, बल्कि वह है जो अज्ञानी रह गया।"

पवित्र कुरान का दूसरा महत्वपूर्ण संदेश एकता और भाईचारे का है, लेकिन हम उसे भी भूल गए हैं। हम कितने अज्ञानी हैं कि हम अपने ही हाथों से उन पश्चिमी षड्यंत्रों को मजबूत कर रहे हैं जो सांप्रदायिकता और विभाजन के बीज बोते हैं। हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम जन्नत और नरक, तथा कुफ़्र और इस्लाम के प्रमाण पत्र बांटने में व्यस्त हैं, जबकि दुश्मन हमारी अज्ञानता का पूरा फायदा उठा रहा है। अयातुल्ला ने एक बार कहा था, "एक मुसलमान अपने हाथ खोलने और बंद करने में व्यस्त रहता है, और दुश्मन उसके हाथ काटने में लगा रहता है।"

देश के युवा! निराश न हों, परिवर्तन अचानक नहीं आता, बल्कि धीरे-धीरे होता है। दूसरों पर उम्मीदें लगाने के बजाय स्वयं कार्रवाई करें। समय का एक क्षण भी बर्बाद किए बिना, नए संकल्प, साहस, लगन और उत्साह के साथ शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति के पथ पर आगे बढ़ें। ईश्वर की इच्छा से आने वाला समय आपका होगा और महाशक्ति का ताज आपके सिर पर रखा जाएगा।

बैतुल मुक़द्दस की बाज़याबी में ईरान की मजबूत भूमिका

इस्लामी गणतंत्र ईरान ने हमेशा फिलिस्तीनी प्रतिरोध और यरुशलम की पुनः प्राप्ति को अपनी विदेश नीति का आधारभूत स्तंभ बनाया है। ईरान न केवल फिलिस्तीनी लोगों के अधिकारों का समर्थन करता है, बल्कि इजरायल और अमेरिकी आक्रमण के खिलाफ भी लगातार सक्रिय है।

ईरानी नेतृत्व यरूशलम को न केवल फिलिस्तीनियों के लिए, बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए एक समस्या मानता है। ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम खुमैनी और उनके उत्तराधिकारी सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामेनेई ने फिलिस्तीन की मुक्ति को इस्लामी क्रांति का एक प्रमुख लक्ष्य बताया था। 1979 में क्रांति के तुरंत बाद इमाम खुमैनी ने इजरायल के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया और इसे एक नाजायज राज्य घोषित कर दिया।

इमाम खुमैनी (र) ने रमजान के पवित्र महीने के आखिरी शुक्रवार, जुमाता अल-वादी को "कुद्स दिवस" ​​नाम दिया है, जिसे आज भी मुस्लिम और मानवतावादी दुनिया भर में फिलिस्तीनी लोगों के साथ एकजुटता व्यक्त करने और येरुशलम को पुनः प्राप्त करने के विषय के तहत शांतिपूर्वक मनाया जाता है। ईरान न केवल संयुक्त राष्ट्र, ओआईसी और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर फिलिस्तीन के पक्ष में अपनी आवाज उठाता है, बल्कि प्रतिरोध आंदोलनों को नैतिक और, यथासंभव, व्यावहारिक समर्थन भी प्रदान करता है।

 

दुर्भाग्य से, जहां एक ओर ईरान फिलिस्तीन और यरुशलम की मुक्ति के लिए सक्रिय है, वहीं दूसरी ओर संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मिस्र और अन्य अरब देश इजरायल के साथ व्यापारिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समझौते करके उसकी अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं। यदि सत्ता, धन और विलासिता के प्रति आसक्त मुस्लिम शासक जाग जाएं और व्यावहारिक संघर्ष शुरू कर दें, तो यरुशलम की पुनः प्राप्ति असंभव नहीं है।

यरूशलम केवल फिलिस्तीन का मुद्दा नहीं है, बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय के लिए गौरव और सुरक्षा का विषय है। जब तक हम कुरान की शिक्षाओं को सही मायने में नहीं अपनाएंगे, हम गुलामी की जंजीरों में बंधे रहेंगे। यदि मुस्लिम विश्व आज ज्ञान, एकता और संघर्ष के सिद्धांतों को अपना ले तो फिलिस्तीन की मुक्ति और येरुशलम की पुनः प्राप्ति दूर नहीं है। समय की मांग है कि हम उपेक्षा के स्वप्न से जागें।जागो और अपनी जिम्मेदारियों को समझो।

लेखक: सय्यद क़मर अब्बास क़ंबर नक़वी सिरसिवी

 

 

 

 

 

 

कुद्स दिवस हमें यह एहसास दिलाता है कि सही और गलत के बीच की इस लड़ाई में हम कहां खड़े हैं। यह दिन हमें फिलिस्तीन के उद्धार के लिए अपने विचार, कलम, कार्य और प्रार्थनाएं समर्पित करने का आह्वान करता है।

कुद्स दिवस महज एक कैलेंडर दिवस नहीं है, बल्कि यह जीवित विवेक के लिए एक चुनौती है - एक जागृत करने वाली पुकार जो उत्पीड़ितों के घावों पर मरहम लगाने के साथ-साथ उत्पीड़कों के उत्पीड़न के घर के लिए एक फटकार भी है। इमाम खुमैनी ने रमजान के आखिरी शुक्रवार को दुनिया भर के मुसलमानों के लिए विरोध और प्रतिरोध के दिन के रूप में नामित किया, ताकि बैतुल मुक़द्दस की बाज़याबी को उम्मत की सामूहिक चेतना का हिस्सा बनाया जा सके।

क़ुद्स: रूहे नबूवत का मक़ाम और तारीख ए तौहीद का संगे मील

बैतुल मुक़द्दस सिर्फ एक पवित्र स्थान नहीं है, बल्कि वह पवित्र स्थान है जहाँ अम्बिया ए इकराम की राहे गुजर हैं। यहीं से पवित्र पैगंबर (स) ने अल्लाह की ओर अपनी मेराज की यात्रा शुरू की थी, और यहीं पर अम्बिया ए सलफ ने सभी पैगंबरों ने उनके नेतृत्व में नमाज़ अदा की थी।

पवित्र कुरान में कहा गया है:

"سُبْحَانَ الَّذِي أَسْرَىٰ بِعَبْدِهِ لَيْلًا مِّنَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ إِلَى الْمَسْجِدِ الْأَقْصَى الَّذِي بَارَكْنَا حَوْلَهُ… सुब्हानल्लज़ी अस्रा बेअब्देहि लैलम मेनल मस्जिदल हराम एलल मस्जेदिल अक़्सल लज़ी बारकना हौलहू " 

पवित्र है वह जो अपने बन्दे को रातों रात पवित्र मस्जिद से मस्जिद अक़्सा में ले गया, जिसके आस-पास के क्षेत्र को हमने बरकत दी है..."

(सूर ए इसरा, आयत 1)

यह स्थान आध्यात्मिक केंद्र होने के साथ-साथ तारीखे नबूवत एकेश्वरवाद और इस्लामी सभ्यता का केंद्र भी है। मुस्लिम समुदाय के लिए बैतुल मुक़द्दस न केवल पहला क़िबला है, बल्कि आस्था की परीक्षा भी है।

फिलिस्तीन पर ज़ायोनी कब्ज़ा: एक औपनिवेशिक साम्राज्यवादी परियोजना

फिलिस्तीन की भूमि सदियों से यहूदी, ईसाई और मुस्लिम राष्ट्रों की शांतिपूर्ण साझा विरासत रही है, जब तक कि बीसवीं सदी की शुरुआत में उपनिवेशवाद ने अपने साम्राज्यवादी षड्यंत्रों के तहत इस क्षेत्र को निशाना नहीं बनाया। 1917 के बाल्फोर घोषणापत्र के तहत, ब्रिटिश सरकार ने असंवैधानिक रूप से ज़ायोनीवादियों को फिलिस्तीन में एक राष्ट्रीय मातृभूमि स्थापित करने की अनुमति दी, जिससे उस भूमि पर एक औपनिवेशिक खंजर घोंपा गया, जिसके परिणामस्वरूप 1948 में इज़राइल की स्थापना के साथ लाखों फिलिस्तीनियों का विस्थापन, निष्कासन और शहादत हुई।

यह कब्ज़ा किसी धार्मिक विशेषाधिकार या ऐतिहासिक विरासत पर आधारित नहीं है - बल्कि यह पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियों और विशेष रूप से अमेरिका के पूंजीवादी हितों से प्रेरित शक्ति, छल और औपनिवेशिक सौदेबाजी का परिणाम है। इजराइल आज सिर्फ एक राज्य नहीं है, बल्कि मध्य पूर्व में पश्चिम के लिए एक सैन्य अड्डा है।

ज़ायोनिज़्म बनाम यहूदीवाद: ग़लतफ़हमी को सुधारना

यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ज़ायोनिज़्म कोई धर्म नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक और जातीय राष्ट्रवादी विचारधारा है। यहूदी धर्म के कई अनुयायी स्वयं इस विचार के प्रबल विरोधी हैं और इजरायल को "ईश्वरीय प्रतिज्ञा" के विरुद्ध विद्रोह मानते हैं। अतः विरोध ज़ायोनीवाद के प्रति है, यहूदीवाद के प्रति नहीं - और यही वह अंतर है जिसे अकादमिक स्तर पर उजागर किया जाना चाहिए।

ईरान और कुद्स दिवस: इस्लामी दुनिया की प्रतिरोधी अंतरात्मा

इमाम खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामी गणतंत्र ईरान ने फिलिस्तीनी मुद्दे को मुस्लिम उम्माह की धार्मिक, नैतिक और राजनीतिक जिम्मेदारी में बदल दिया। आपने स्पष्ट रूप से घोषित किया:

"इज़राइल एक हड़पने वाला, अवैध और भ्रष्ट राज्य है, जिसका अस्तित्व इस्लामी उम्माह के लिए अपमान और गिरावट का कारण है।"

रमजान के आखिरी शुक्रवार को "कुद्स दिवस" ​​घोषित करके इमाम खुमैनी ने देश को एक वैचारिक हथियार दिया जो न केवल एक अनुस्मारक है, बल्कि प्रतिरोध, जागरूकता और बलिदान का घोषणापत्र भी है।

ईरान आज एकमात्र ऐसा देश है जो न केवल फिलिस्तीनी प्रतिरोधी ताकतों - हमास, हिजबुल्लाह और इस्लामिक जिहाद - का समर्थन करता है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज़ायोनीवाद के खिलाफ एकमात्र प्रभावी और सुसंगत आवाज भी है।

फ़िलिस्तीनी लोगों का उत्पीड़न: आधुनिक युग का नरसंहार

अक्टूबर 2023 से जारी ज़ायोनी बर्बरता ने मानवता के सभी सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। संयुक्त राष्ट्र, ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल की नवीनतम रिपोर्टों के अनुसार

50,000 से अधिक फिलिस्तीनी शहीद हो चुके हैं, जिनमें से अधिकांश महिलाएं, शिशु और बुजुर्ग हैं, दो मिलियन से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं, और गाजा की 80% बुनियादी संरचना - अस्पताल, स्कूल, आश्रय स्थल, पूजा स्थल, पानी और बिजली व्यवस्था - नष्ट हो चुकी है।

इज़रायली सेना ने जानबूझकर अल-शिफा, इंडोनेशिया और अल-कुद्स अस्पतालों को निशाना बनाया, जिससे घायलों को मलबे के नीचे मरने के लिए मजबूर होना पड़ा। गाजा में मासूम बच्चे भूख से मर रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार:

अक्टूबर 2023 से जारी ज़ायोनी बर्बरता ने मानवता के सभी सिद्धांतों का उल्लंघन किया है। संयुक्त राष्ट्र, ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल की नवीनतम रिपोर्टों के अनुसार

50,000 से अधिक फिलिस्तीनी शहीद हो चुके हैं, जिनमें से अधिकांश महिलाएं, शिशु और बुजुर्ग हैं, दो मिलियन से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं, और गाजा की 80% बुनियादी संरचना - अस्पताल, स्कूल, आश्रय स्थल, पूजा स्थल, पानी और बिजली व्यवस्था - नष्ट हो चुकी है।

इज़रायली सेना ने जानबूझकर अल-शिफा, इंडोनेशिया और अल-कुद्स अस्पतालों को निशाना बनाया, जिससे घायलों को मलबे के नीचे मरने के लिए मजबूर होना पड़ा। गाजा में मासूम बच्चे भूख से मर रहे हैं।

“पांच लाख से अधिक ग़ज़्ज़ा वासी अकाल की कगार पर हैं, जबकि कुपोषण बच्चों को मौत के करीब धकेल रहा है।”

(यूएनओसीएचए, मानवीय रिपोर्ट, 2024)

यह खुला नरसंहार है - और संयुक्त राज्य अमेरिका न केवल इस अपराध का पर्यवेक्षक है, बल्कि इसका सैन्य और कूटनीतिक संरक्षक भी है। इजरायल के हर अत्याचार को अमेरिका का समर्थन प्राप्त है, जबकि संयुक्त राष्ट्र मूक दर्शक बना हुआ है।

रास्ता क्या है? एकता, प्रतिरोध और जागरूकता

  1. इस्लामी एकता: मुस्लिम उम्माह को सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठना होगा और फिलिस्तीनी मुद्दे को धार्मिक और मानवीय कर्तव्य के रूप में देखना होगा।
  2. प्रतिरोधी ताकतों के लिए समर्थन: हमास, हिजबुल्लाह और इस्लामिक जिहाद को उम्माह की भुजा और रक्षक के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए, न कि पश्चिमी शब्दों में आतंकवादी के रूप में।
  3. आर्थिक और सांस्कृतिक बहिष्कार: ज़ायोनी उत्पादों और उनके समर्थक संस्थानों का बहिष्कार एक नैतिक जिहाद है (बीडीएस आंदोलन इसका एक प्रतिनिधि उदाहरण है)।
  4. संचार जिहाद: फिलिस्तीनी आख्यान को सोशल मीडिया, पत्रकारिता, साहित्य और कला में मजबूत किया जाना चाहिए।
  5. वैश्विक दबाव: मुस्लिम शासकों को संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालयों में युद्ध अपराधों के लिए इजरायल को जवाबदेह ठहराने के लिए एक प्रभावी अभियान शुरू करना चाहिए।

हम सब फ़िलिस्तीनी हैं

फिलिस्तीन सिर्फ एक क्षेत्र नहीं है, बल्कि मुस्लिम उम्माह का हृदय है।

इसकी स्वतंत्रता हमारे सम्मान और अस्तित्व का प्रतीक है।

“ज़ुल्म के ख़िलाफ़ चुप रहना भी एक अपराध है!”

कुद्स दिवस हमें यह एहसास दिलाता है कि सही और गलत के बीच की इस लड़ाई में हम कहां खड़े हैं। यह दिन हमें अपने विचारों, कलमों, कार्यों और प्रार्थनाओं को ईश्वर पर केंद्रित करने का आह्वान करता है।

इसे ताइन के उद्धार के लिए समर्पित करें।

जब तक अल-अक्सा मस्जिद आज़ाद नहीं हो जाती, तब तक दिलों का धड़कना, दिमागों का जागना और ज़बानों का बोलना अनिवार्य है।

लेखक: मौलाना सय्यद करामत हुसैन जाफ़री