
رضوی
हज़रत अबुल फ़ज़लिल अब्बास का जीवन परिचय
4 शाबान (दूसरी रिवायत के मुताबिक़ 7 रजब) सन 26 हिजरी को हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम ने जिस घर में आंख खोली वह अध्यात्म के प्रकाश से भरा हुआ था। उस घर में हज़रत अब्बास ने न्याय के अर्थ को समझा और इसी घर से सत्य के मार्ग में दृढ़ता का पाठ सीखा।
4 शाबान (दूसरी रिवायत के मुताबिक़ 7 रजब) सन 26 हिजरी को हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम ने जिस घर में आंख खोली वह अध्यात्म के प्रकाश से भरा हुआ था। उस घर में हज़रत अब्बास ने न्याय के अर्थ को समझा और इसी घर से सत्य के मार्ग में दृढ़ता का पाठ सीखा,
हज़रत अब्बास जब बच्चे थे तो अपने सामने ख़ुदा पर संपूर्ण आस्था, परिपूर्णतः और तत्वदर्शिता के प्रतीक पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम के वजूद को देखते कि जिनके आध्यात्म से ओत-पोत व्यवहार का उन पर असर होता था
हज़रत अब्बास अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम से ज्ञान व परिज्ञान सीखते थे। हज़रत अली अपने बेटे हज़रत अब्बास के व्यक्तित्व की परिपूर्णतः के बारे में फ़रमाते हैः "निःसंदेह! मेरे बेटे अब्बास ने बचपन में ज्ञान हासिल किया और जिस तरह कबूतर का बच्चा अपनी मां से खाना पानी पाता है, मुझसे तत्वदर्शिता सीखी।
हज़रत अब्बास ने जिस माहौल में परवरिश पाई वहां तौहीद (एकेश्वरवाद) का सोता जारी था। हज़रत अब्बास की हज़रत अली की गोद में परवरिश ने उनके लिए नौजवानी और जवानी में पवित्र रहने की पृष्ठिभूमि तैयार की ताकि भविष्य में असत्य के ख़िलाफ़ प्रतिरोध, पुरुषार्थ और शौर्य का मज़बूत मोर्चा बने। हज़रत अब्बास का व्यक्तित्व ऐसा क्यों न होता कि उनके पिता को पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ज्ञान का द्वार और अल्लाह की याद में लीन बताया था।
हज़रत अब्बास हमेशा पैग़म्बरे इस्लाम (स) के दोनों नाती हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ हमेशा रहते हुए इन दोनों हस्तियों की संगत में शिष्टाचार के उच्च चरणों को सीखा। हज़रत अब्बास हमेशा इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ रहते और उनके व्यवहार को अपने व्यक्तित्व के सांचे में ढालते थे यहां तक कि उनमें अपने भाई की विशेषताएं झलकने लगीं इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम भी अपने भाई अब्बास के मन की पवित्रता की क़द्र करते हुए उन्हें अपने परिवार के सदस्यों पर वरीयता देते और उन्हें बहुत मानते थे।
हज़रत अब्बास अपने शिष्टाचारिक आदर्श से मानवता का सुधार करने वाले महापुरुषों की श्रेणी में जा पहुंचे। ऐसे महापुरुष जिन्होंने मानव समाज को बुराई से मुक्ति दिलाने और उच्च मानवीय मूल्यों को बचाने के लिए अपनी तपस्या व बलिदान से इतिहास के धारे को बदल दिया। इस बच्चे ने भी अपनी परवरिश के आरंभिक दिनों में सत्य व तौहीद (एकेश्वरवाद) के ध्वज को फहराने के लिए पूरे वजूद से बलिदान का पाठ सीख लिया था।
इतिहास बताता है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपनी संतान के प्रशिक्षण के लिए बहुत कोशिश करते और हज़रत अब्बास की नैतिक व आत्मिक परवरिश के साथ साथ शारीरिक दृष्टि से भी परवरिश पर ध्यान देते यहां तक कि हज़रत अब्बास की क़द काठी उनकी ताक़त व शारीरिक क्षमता का पता देती थी।
हज़रत अब्बास को पिता से वंशानुगत विशेषताएं मिलने के साथ ही पिता की खजूर के बाग़ में पानी देने, नहर व कुआं खोदने में मदद और नौजवानी के खेल में भागीदारी ने भी उन्हें शारीरिक दृष्टि से बहुत मज़बूत बना दिया था। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की नौजवानों और जवानों के लिए घुड़सवारी, तीरअंदाज़ी, कुश्ती और तैराकी सीखने की नसीहतों पर अमल किया और ख़ुद हज़रत अब्बास को रणकौशल सिखाया।
ख़ुदा पर गहरी आस्था हज़रत अब्बास की स्पष्ट विशेषताओं में थी। पिता ने ख़ुदा पर आस्था को, सृष्टि की सच्चाईयों और प्रकृति के रहस्यों के बारे में चिंतन मनन के ज़रिए पोषित किया। ऐसी आस्था कि जिसके बारे में ख़ुद हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कहना है कि अगर हमारे सामने से पर्दे हटा दिए जाएं तब भी मेरे विश्वास में वृद्धि नहीं होगी।
यह गहरी आस्था हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम के रोम रोम में रच बस गयी थी जिसने उन्हें तौहीद व ख़ुदा पर गहरी आस्था रखने वाले महापुरुषों की पंक्ति में पहुंचा दिया। इसी दृढ़ आस्था की बदौलत उन्होंने ख़ुद और अपने भाइयों को अल्लाह के मार्ग में न्योछावर कर दिया।
वीरता पुरुषार्थ की सबसे स्पष्ट निशानी है क्योंकि इसी की मदद से व्यक्ति घटनाओं का दृढ़ता से मुक़ाबला करता है। हज़रत अब्बास को यह विशेषता इतिहास के सबसे वीर पुरुष अपने पिता और अपने मामूओं से विरासत में मिली थी जो अरब के मशहूर वीर थे।
हज़रत अब्बास के पूरे वजूद से वीरता झलकती थी इतिहासकारों के अनुसार, जंग में हज़रत अब्बास के चेहरे पर कभी डर की झलक भी नहीं दिखाई देती थी। इतिहास में है कि सिफ़्फ़ीन नामक जंग जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम और सीरिया के विद्रोही शासक मुआविया के बीच हुई थी, एक नौजवान इस्लामी फ़ौज से निकला जिसके चेहरे पर नक़ाब पड़ी हुयी थी। सामने आकर उस नौजवान ने गरजदार आवाज़ से अपना मुक़ाबिल तलब किया।
उस समय एक रिवायत के अनुसार, उस नौजवान की उम्र 17 साल थी। मुआविया ने अबू शअसा नामक अपने एक सिपाही से जो अपने लश्कर में बहुत शक्तिशाली था, कहा कि जाओ लड़ो। अबू शअसा ने रुखे स्वर में मुआविया को जवाब दिया कि शाम के लोग मुझे हज़ार सवार सिपाहियों के बराबर समझते हैं, तुम मुझे एक नौजवान से लड़ने भेजना चाहते हो? उसके बाद अबू शअसा ने अपने एक बेटे को हज़रत अब्बास से लड़ने के लिए भेजा। कुछ ही क्षण में हज़रत अब्बास ने अबू शअसा के पहले बेटे को ढेर कर दिया। अबू शअसा को अपने बेटे को ख़ून में लतपथ देखकर बहुत हैरत हुई। उसके सात बेटे थे।
उसने दूसरे बेटे को भेजा उसका भी वही अंजाम हुआ। उसने बाक़ी बेटों को एक के बाद एक हज़रत अब्बास के मुक़ाबले में भेजा लेकिन सबके सब ढेर हो गए। अंत में अबू शअसा जिसे अपने परिवार के रणकौशल की इज़्ज़त ख़ाक में मिलती नज़र आई, हज़रत अब्बास से लड़ने के लिए आया। हज़रत अब्बास ने उसे भी ढेर किया। इसके बाद किसी में हज़रत अब्बास से लड़ने की हिम्मत न हुई।
हज़रत अब्बास की वीरता से हज़रत अली के साथी हैरत में पड़े हुए थे। जिस समय हज़रत अब्बास अपने लश्कर की ओर पलटे तो हज़रत अली ने अपने नौजवान बेटे के चेहरे पर पड़ी नक़ाब उलटी और उनके चेहरे को साफ़ किया।
जब हज़रत अली 19 रमज़ान सन 40 हिजरी को मस्जिद ए कूफ़ा में सुबह की नमाज़ में सजदे की हालत में अब्दुल रहमान इब्ने मुलजिम मलऊन की तलवार से घायल हुए तो हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम ने अपने पिता से अपने भाइयों का साथ देने का प्रण लिया। पूरे जीवन में कभी भी हज़रत अब्बास ने इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के होते हुए किसी मामले में पहल नहीं की। जिन दिनों इमाम हसन इमाम थे और उन्होंने मुआविया से शांति संधि की, हज़रत अब्बास ने आंख बंद करके अपने इमाम का अनुसरण किया और उनका साथ दिया। उस अस्त व्यस्त हालात में एक भी मिसाल नहीं मिलती कि हज़रत अब्बास ने इमाम हसन अलैहिस्सलाम को किसी तरह का मशवरा देने की कोशिश की जबकि इमाम हसन अलैहिस्सलाम के कुछ मित्रों ने उन्हें नसीहत करने की कोशिश की थी।
जब हज़रत इमाम हसन मदीना लौट आए तो हज़रत अब्बास इमाम हसन के साथ साथ वंचितों की मदद करते और इमाम हसन की ओर से दिए जाने वाले तोहफ़ों को लोगों के बीच बांटते थे। इस दौरान उन्हें *बाबुल हवाएज* की उपाधि से पुकारा जाने लगा और वे समाज के वंचित वर्ग के लोगों की मदद का माध्यम बने।
जब यज़ीद मलऊन शासक बना तो हज़रत अब्बास ने महसूस किया कि इस्लामी जगत उमवी (बनी उमय्या) शासन के हाथ में अपमान जनक दौर से गुज़र रहा है। कुछ उमवी अपराधी लोगों के भविष्य से खेलवाड़ करते हुए उनकी संपत्ति को बर्बाद कर रहे हैं। ऐसे ख़तरनाक हालात में हज़रत अब्बास को अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन में साथ देने में इस्लामी जगत के साथ वफ़ादारी नज़र आई। तो अपने भाई के साथ उमवियों के चंगुल से आज़ादी और इस्लामी जगत की दास्तां से मुक्ति को अपना उद्देश्य क़रार दिया और उसके सम्मान को वापस लाने के लिए पवित्र संघर्ष शुरु किया और इस मार्ग में ख़ुद को अपने सभी साथियों के साथ क़ुर्बान कर दिया।
जिस समय करबला से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के परिजनों से लूटी गयी चीज़ें सीरिया में यज़ीद के पास ले गए तो उन चीज़ों में एक विशाल ध्वज (अलम) भी था। दरबार में यज़ीद और उसके दरबारियों ने देखा कि पूरे अलम में सूराख़ है लेकिन उसका दस्ता सहीह था। यज़ीद ने पूछा कि यह अलम किसके हाथ में था?
उसे बताया गया कि हज़रत अली के बेटे अब्बास के पास। यह सुनकर यज़ीद हैरत से तीन बार अपनी जगह से उठा और बैठा और उसने कहाः इस अलम को देखो कि भाले और तलवार की वजह से अलम जगह जगह से फटा हुआ है लेकिन उसका दस्ता सहीह है। उसके बाद यज़ीद ने कहाः ऐ अब्बास! आपको बुरा कैसे कहा जाए कि आपने बुराइयों को अपने से दूर किया हैं।
जी हां! भाई के साथ वफ़ादारी इसी को कहते हैं।
हज़रत अब्बास पर सलाम हो। उस महान हस्ती पर सलाम हो जिसे भलाई व सद्कर्मों के लिए अबुल फ़ज़्ल की उपाधि मिली और अपने जगमगाते हुए चेहरे की वजह से बनी हाशिम के चांद (क़मर ए बनी हाशिम) के नाम से मशहूर हुए।
हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने हज़रत अब्बास की ज़ियारत (दर्शन) के अवसर पर पढ़ी जाने वाली ज़ियारत में, उनके शुद्ध ईमान और गहरे आत्मज्ञान की गवाही देते हुए फ़रमायाः मैं गवाही देता हूं कि आपने एक क्षण भी अपनी ओर से सुस्ती नहीं दिखाई और न ही अपने दृष्टिकोण से पलटे बल्कि ख़ुदा पर आस्था के साथ धर्म पर चलते रहे।
शहीद सय्यद हसन नसरुल्लाह के अंतिम संस्कार और शव यात्रा का ऐलान
हिज़्बुल्लाह लेबनान के सचिव जनरल हुज्जतुल इस्लाम शेख नईम क़ासिम ने ऐलान किया है कि शहीद ए मुक़ावेमत शहीद सय्यद हसन नसरुल्लाह और शहीद सय्यद हाशिम सफ़ीउद्दीन की नमाज़े जनाज़ा 23 फरवरी को अदा की जाएगी।
हिज़्बुल्लाह लेबनान के सचिव जनरल हुज्जतुल इस्लाम शेख नईम क़ासिम ने अपने भाषण में कहा कि आज मैं सय्यद हसन नसरुल्लाह की नमाज़े जनाज़ा और शव यात्रा और दक्षिणी लेबनान की स्थिति पर बात करूंगा।
उन्होंने कहा कि लेबनानी सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इस्राइली दुश्मन द्वारा युद्धविराम की उल्लंघन को गंभीरता से ले, क्योंकि यह केवल युद्धविराम की उल्लंघन नहीं है, बल्कि यह एक खुले आक्रमण के रूप में सामने आया है, और लेबनानी सरकार को इस पर निर्णायक रूप से प्रतिक्रिया देनी चाहिए और युद्धविराम के गारंटर अमेरिका पर दबाव बनाना चाहिए।
हुज्जतुल इस्लाम शेख नईम क़ासिम ने यह भी कहा कि प्रतिरोध एक मिशन और एक विकल्प है और हम अपने योजनाओं के अनुसार सही समय पर कार्रवाई करेंगे। अमेरिका, इस्राइल और कुछ बाहरी देशों की मदद से आंतरिक हमले हो रहे हैं।
उन्होंने आगे कहा कि हम फिलिस्तीनी प्रतिरोध के कमांडर मोहम्मद अल-ज़ैफ़ और उनके उपाध्यक्ष मरोवान अयसा की शहादत पर फिलिस्तीनी कौम को ताजियत पेश करते हैं और कैदियों की रिहाई पर उन्हें बधाई देते हैं।
हिज़्बुल्लाह लेबनान के सचिव जनरल ने इस बात पर जोर दिया कि कैदियों की रिहाई फिलिस्तीनी कौम की असल जीत थी, और इस सिलसिले में फिलिस्तीनी कौम और प्रतिरोध के सभी समर्थकों को बधाई दी।
भारत में बढ़ती नफरतों के बीच इमाम हुसैन (अ) की शिक्षाओं को फैलाने की जरूरत
भारत की जनसंख्या लगभग 1 अरब 41 करोड़ है, जो दुनिया की कुल आबादी का करीब 17.4 प्रतिशत है। क्या इतनी बड़ी आबादी बिना हुसैनी शिक्षाओं के, विकास की राहों को शांति और भाईचारे के साथ तय कर सकती है? इसलिए यह जरूरी है कि हम इस जीवन दर्शन को फैलाएं, जिसमें "मैं" की जगह "वह" हो। अगर इतनी बड़ी आबादी "मैं" और "मैं" की जंग में शामिल हो जाए तो क्या होगा, यह सभी पर स्पष्ट है।
3 शाबान की तारीख उस यादगार पल को अपने में समेटे हुए है, जब इस कायनात में एक ऐसी शख्सियत ने कदम रखा, जिसकी बड़ी कुर्बानी के बिना आज दुनिया में हक के लिए बोलने वालों की इतनी भी तादाद नहीं होती।
ताकतवरों की मंशा ही हक कहलाती, उनका तरीका ही न्याय होता। इस दुनिया के हर कोने में वो लोग जिनकी तादाद उंगलियों पर गिनने लायक थी, उनके अंदर हक के लिए मर मिटने और शांति और न्याय की खातिर कुर्बान होने का जज़्बा उसी महान हस्ती का एहसान है जिसे हम हुसैन (अ) कहते हैं।
वो हुसैन (अ), जिन्हें हम पहचानते हैं, लेकिन दुनिया का ज़्यादातर हिस्सा उनके महान उद्देश्यों और शांति व न्याय के लिए उनकी कुर्बानियों से अनजान है।
सय्यद उश्शोहदा (अ) की शिक्षाओं को फैलाने की ज़रूरत
वैसे तो दुनिया भर में सय्यद उश्शोहदा (अ) की महान कुर्बानियों और उनकी शख्सियत के कई पहलुओं को पेश करने की ज़रूरत है, लेकिन खासकर उस मुल्क में जहां हम रहते हैं, आज हर दौर से ज़्यादा "अबल अहरार" की शख्सियत को सामने लाने और उनकी शिक्षाओं को फैलाने की ज़रूरत है।
भारत, जो सदियों से गंगा-जमनी तहज़ीब का गहवारा रहा है, आज विभिन्न प्रकार की धार्मिक और जातिवादीय नफरत और भेदभाव का सामना कर रहा है। असहिष्णुता, नफरत और आपसी भेदभाव का ज़हर समाज में समा रहा है, जो न केवल राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है, बल्कि मानवता की मूलभूत क़ीमतों के खिलाफ भी है। ऐसे में, इमाम हुसैन (अ) की शिक्षाओं को फैलाना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है, क्योंकि उनकी ज़िन्दगी सब्र, न्याय, समानता, और कुर्बानी का आदर्श है, और यही वो बातें हैं जिनके बिना एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश में समरसता संभव नहीं है।
हुसैन - हिदायत का चिराग़
प्रसिद्ध हदीस है: "हुसैन (अ) हिदायत का चिराग़ और निजात की कश्ती हैं।" अब अगर इस दीपक को किसी खास कौम या धर्म तक सीमित कर दिया जाए, या कश्ती को केवल अपने धर्म के अनुयायियों तक सीमित किया जाए, तो फिर दुनिया के अंधेरे कैसे मिटाए जाएंगे? यकीनन इमाम हुसैन (अ) ने कर्बला में जो कदम उठाया, वो किसी खास धर्म, कौम या वर्ग के लिए नहीं था, बल्कि यह एक वैश्विक आदर्श था, जो मानवता के आकाशीय सिद्धांतों की रक्षा कर रहा था। आपने यज़ीद जैसे अत्याचारी के सामने सिर झकाने के बजाय, हक और सच्चाई के लिए अपनी जान कुर्बान करके यह साबित कर दिया कि जान बहुत क़ीमती है, लेकिन इससे भी ज़्यादा क़ीमती जान का हक की राह में जाना है, वरना ज़िन्दगी बेकार है।
हुसैन (अ) का हक के लिए संघर्ष और उनकी भूमिका आज के भारत में शांति और भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए एक मार्गदर्शक बन सकती है, अगर हम इसे सही तरीके से लोगों के बीच प्रस्तुत करने में सफल हो जाएं। उनके महान जीवन से हम कुछ अनमोल शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, जो आज के भारत के लिए बेहद ज़रूरी हैं:
हक के लिए खड़ा होना
इमाम हुसैन (अ) ने हमें यह सिखाया कि अत्याचार और उत्पीड़न के खिलाफ चुप रहना अत्याचार के साथ सहयोग करने के समान है। आज भारत में जो चुनौतियां धार्मिक और सामाजिक अल्पसंख्यकों, कमजोर वर्गों और दबे-कुचले लोगों को झेलनी पड़ रही हैं, उनके समाधान के लिए हुसैनी विचारों का पालन करना अनिवार्य है। यदि लोग हक और न्याय के समर्थन में खड़े होंगे, तो समाज में सकारात्मक परिवर्तन संभव हो सकता है।
संप्रदायिकता के खिलाफ हुसैनियत
इमाम हुसैन (अ) की कुर्बानी किसी एक धर्म या संप्रदाय के लिए नहीं थी, बल्कि हर उस इंसान के लिए थी जो सच्चाई, प्रेम और समानता पर विश्वास करता था। कर्बला में उनके साथ ईसाई और अन्य धर्मों के लोग भी थे, जिन्होंने इमाम हुसैन (अ) की हिदायत से अपने दिलों को रौशन किया और अपनी पहचान को एक नई दिशा दी। कई जगहों पर हुसैनी ब्राह्मणों का जिक्र भी मिलता है जो हिंदू थे, लेकिन कर्बला पहुंचे और इमाम हुसैन (अ) के साथ खड़े होकर उन्होंने अपनी शहादत दी।
कर्बला में विभिन्न विचारधाराओं के लोग एकजुट होकर इमाम हुसैन (अ) के मार्गदर्शन में आए, यह इस बात का प्रमाण है कि हुसैनियत किसी एक धर्म या कौम की जागीर नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक संदेश है।
सबर और सहिष्णुता का पाठ
इमाम हुसैन (अ) ने कर्बला में जो सब्र और सहिष्णुता की मिसाल पेश की, वह हमें यह सिखाती है कि अत्याचार के खिलाफ संघर्ष के साथ-साथ धैर्य और सहिष्णुता भी आवश्यक हैं। भारत में मौजूदा धार्मिक और सामाजिक तनाव को कम करने के लिए हमें हुसैनी सब्र और सहिष्णुता को अपनाना चाहिए।
मानवाधिकार और समानता का संदेश
इमाम हुसैन (अ) ने ना सिर्फ यज़ीद की तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाई, बल्कि उन्होंने गुलामों, पीड़ितों और कमजोरों के अधिकारों के लिए भी आवाज उठाई। उन्होंने उस ज़ुल्म के खिलाफ विद्रोह किया जो कमजोरों को दबाने में अपनी जीत समझ रहा था।
आज भारत में जातिवाद, धर्म और भाषा के आधार पर जो भेदभाव किया जा रहा है, उसे समाप्त करने के लिए हमें हुसैनी विचारधाराओं को अपनाना होगा, जो समानता और न्याय की गारंटी देती है।
भारत में हुसैनी विचारों को फैलाने की आवश्यकता क्यों है?
आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और दुनिया की 17 प्रतिशत जनसंख्या को अपने में समेटे हुए है। भारत में हुसैनी विचारों को फैलाना समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि अगर बड़ी संख्या में लोग "मैं" की लड़ाई में शामिल हो गए, तो समाज में क्या होगा, यह सब पर स्पष्ट है।
इसलिए, पूरे देश में इमाम हुसैन (अ) के संदेश को फैलाने की आवश्यकता है। यह संदेश जो हर प्रकार के "मैं" को नकारते हुए सब कुछ को "रब" से जोड़ता है, यही इस देश के लिए वो गोल्डन फॉर्मूला है, जिस पर अगर हम चलें तो यह देश नफरत और सांप्रदायिकता के अंधेरे से बाहर निकल कर एक शांतिपूर्ण, समरस और एकजुट समाज की ओर बढ़ सकता है।
हुसैनियत का मतलब है:
हर पीड़ित की मदद और हर अत्याचारी के खिलाफ खड़ा होना।
हर धर्म, संप्रदाय और जाति के बीच एकता का निर्माण।
अन्याय और भेदभाव के खिलाफ दृढ़ रुख अपनाना।
समानता और भाईचारे को बढ़ावा देना।
इमाम हुसैन (अ) की शहादत केवल एक घटना नहीं है, बल्कि यह एक अमर और अपराजेय पैगाम है, जो हर युग में लोगों को सही रास्ता दिखाता रहेगा। उनका जीवन और उनकी शहादत हमें यह सिखाती है कि हक के लिए मरना, झूठ के साथ जीने से कहीं बेहतर है।
इमाम हुसैन (अ) की शिक्षाएँ भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के लिए बेहद अहम हैं। अगर हम उनके सब्र, कुर्बानी और न्याय के सिद्धांतों को अपनाएं, तो हम संप्रदायिक नफरत का अंत कर सकते हैं और एक शांतिपूर्ण, समृद्ध भारत बना सकते हैं।
लेखकः मौलाना नजीबुल हसन ज़ैदी
बलूचिस्तान में आतंकियों के हमले में कई सैनिक शहीद और घायल
पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों ने पुष्टि की है कि बलूचिस्तान प्रांत के कलात जिले में स्थित शहर मंगोचर में एक अभियान के दौरान पाकिस्तान के फ्रंटियर कोर एफसी के कम से कम 18 सैनिक मारे गए हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार ,पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों ने शनिवार को पुष्टि की कि बलूचिस्तान प्रांत के कलात जिले में स्थित शहर मंगोचर में एक अभियान के दौरान पाकिस्तान के फ्रंटियर कोर (एफसी) के कम से कम 18 सैनिक मारे गए हैं।
पाकिस्तानी सेना की मीडिया शाखा इंटर-सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस (आईएसपीआर) द्वारा जारी एक बयान में कहा गया,31 जनवरी/3 फरवरी की रात को आतंकवादियों ने बलूचिस्तान के कलात जिले के मनोचर में सड़क अवरोध स्थापित करने का प्रयास किया।
सुरक्षा बलों और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को तुरंत सक्रिय किया गया जिन्होंने सफलतापूर्वक इस नापाक इरादे को विफल कर दिया और उनमें से 12 को मार गिराया जिससे स्थानीय लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित हुई।
हालांकि बयान में कहा गया कि अभियान के दौरान 18 सैनिक भी मारे गए। आईएसपीआर ने कहा कि सुरक्षाकर्मी वर्तमान में पूरे क्षेत्र को खाली करा रहे हैं, तथा आश्वासन दिया कि "घृणित और कायरतापूर्ण कृत्य के सहयोगियों और उकसाने वालों" को न्याय के कटघरे में लाया जाएगा।
ताजा घटना खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के विभिन्न हिस्सों में पांच अलग अलग खुफिया आधारित आतंकवाद विरोधी अभियानों में सुरक्षा बलों द्वारा 10 आतंकवादियों को मार गिराने के 24 घंटे से भी कम समय बाद हुई है।
पाकिस्तान ने लगातार कहा है कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) और बलूचिस्तान के अलगाववादी समूहों जिनमें बलूच लिबरेशन आर्मी (बीएलए) भी शामिल है को अफगानिस्तान से लगातार समर्थन मिल रहा है। शहबाज शरीफ सरकार ने अफगान तालिबान शासन से अफगान धरती से संचालित पाकिस्तान विरोधी समूहों के खिलाफ कड़ी और तत्काल कार्रवाई करने का भी आह्वान किया है।
आईएसपीआर के बयान में कहा गया है, पाकिस्तान के सुरक्षा बल बलूचिस्तान की शांति, स्थिरता और प्रगति को बाधित करने के प्रयासों को विफल करने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं और हमारे बहादुर सैनिकों के ऐसे बलिदान हमारे संकल्प को और मजबूत करते हैं।
2021 में काबुल में अफगान तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद से पाकिस्तान में सुरक्षा बलों और विदेशी नागरिकों को निशाना बनाकर किए जाने वाले आतंकी हमलों में बड़ी वृद्धि देखी गई है मुख्य रूप से बलूचिस्तान और केपी प्रांतों में 2024 देश के लिए सबसे घातक वर्षों में से एक था, जिसमें 444 आतंकी हमलों में कम से कम 685 सुरक्षाकर्मी मारे गए।
डेनमार्क के कट्टरपंथी राजनेता ने कुरआन मजीद का फिर से अपमान किया
डेनमार्क के कट्टरपंथी राजनेता रासमुस पालोडन ने तुर्की के दूतावास के सामने कुरआन मजीद को आग के हवाले कर दिया।
डेनमार्क के कट्टरपंथी राजनेता रासमुस पालोडन ने तुर्की के दूतावास के सामने कुरआन मजीद को आग के हवाले कर दिया।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया के मुताबिक पालोडन जो अत्यधिक दाएं बाजू की पार्टी स्ट्राम कोर्स (Stram Kurs) का प्रमुख उसने एक वीडियो में दावा किया कि उसने यह कदम कुरान मजीद का अपमान करने वाले सिल्वान मोमिका की हत्या के विरोध में उठाया मोमिका को पिछले सप्ताह अपने अपार्टमेंट में हत्या कर दी गई थी।
यह पहला मौका नहीं है जब पालोडन ने ऐसी अपमानजनक हरकत की हो जनवरी 2023 में भी उसने स्वीडन में तुर्की के दूतावास के सामने कुरान मजीद को जलाया था जिसके परिणामस्वरूप अंकारा और स्टॉकहोम के बीच कूटनीतिक तनाव पैदा हुआ था।
पालोडन को पहले भी तीन बार डेनमार्क की अदालतों से नस्लवाद के आरोपों में सजा मिली है, लेकिन डेनिश सरकार ने उसकी भड़काऊ हरकतों को रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया।
इमाम ए जुमआ बगदाद की डोनाल्ड ट्रंप को कड़ी चेतावनी
बगदाद के इमाम ए जुमआ आयतुल्लाह सैयद यासीन मुसूवी ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को संबोधित करते हुए कहा कि अगर तुम्हें इराक आने का ख्याल है तो जान लो कि तुम्हारी मौत इराक में लिखी जा चुकी है क्योंकि इराक हज़रत इमाम हुसैन अ.स.का देश है और यहाँ के लोग मौत से नहीं डरते वे अगर टुकड़े-टुकड़े भी हो जाएं तो भी सफल रहेंगे।
बगदाद के इमाम ए जुमआ आयतुल्लाह सैयद यासीन मुसूवी ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को संबोधित करते हुए कहा कि अगर तुम्हें इराक आने का ख्याल है तो जान लो कि तुम्हारी मौत इराक में लिखी जा चुकी है क्योंकि इराक हज़रत इमाम हुसैन अ.स.का देश है और यहाँ के लोग मौत से नहीं डरते वे अगर टुकड़े-टुकड़े भी हो जाएं तो भी सफल रहेंगे।
आयतुल्लाह मुसूवी ने ट्रंप को चेतावनी देते हुए कहा कि अगर तुम इराक आने का सोच रहे हो तो यह जान लो कि तुम्हारी मौत यहाँ तय है, क्योंकि इराक वह देश है जहाँ हज़रत इमाम हुसैन अ.स. का क़दम पड़ा था और यहाँ के लोग किसी भी प्रकार की मौत से डरते नहीं। वे अगर टुकड़े-टुकड़े भी हो जाएं तो भी जीतेंगे।
उन्होंने दक्षिण लेबनान और उत्तरी ग़ाज़ा में लोगों के साहसिक कदमों का उल्लेख करते हुए कहा कि फिलिस्तीनी मुजाहिदीन ने बिना किसी डर के अपनी ज़मीन पर वापसी की और खाली हाथ सिय्योनिस्ट टैंक के सामने खड़े हो गए। क़स्साम ब्रिगेड के सैकड़ों जंगजुओं की वापसी और इस्लामी जिहाद के मुजाहिदीन द्वारा हसन नसरुल्ला की तस्वीरें ऊँची करने से सिय्योनिस्ट शासन डर गया है।
आयतुल्लाह मुसूवी ने आगे कहा कि अमेरिका और इज़राइल की साज़िश यह है कि वे फिलिस्तीनी लोगों को ग़ज़ा से मिस्र और जॉर्डन की तरफ़ पलायन करने पर मजबूर करना चाहते हैं, लेकिन जब इन दोनों देशों ने इस योजना को ठुकरा दिया तो ट्रंप ने उनसे कहा कि वे इस योजना का कोई विकल्प पेश करें। इस पर ईरानी विदेश मंत्री ने जवाब दिया कि इस योजना का सबसे अच्छा विकल्प सिय्योनियों को ग्रीनलैंड की तरफ़ भेजना है।
बगदाद के इमाम ने यह भी खुलासा किया कि ट्रंप जॉर्डन के शाह पर दबाव डाल रहे हैं कि वे इस साज़िश को स्वीकार कर लें और बदले में बिजली, तेल और अन्य ज़रूरी चीज़ों की आपूर्ति का वादा किया है। हालांकि कुछ सूचनाओं के अनुसार, ट्रंप ने इराक से इस योजना के खर्चों को उठाने का भी आग्रह किया है।
उन्होंने इराकी प्रधानमंत्री को संबोधित करते हुए पूछा कि क्या ये ख़बरें सही हैं या नहीं, और कहा कि इराकी जनता को इस मामले में एक स्पष्ट और संतोषजनक स्पष्टीकरण चाहिए।
आयतुल्लाह मुसूवी ने अंत में कहा कि हमारे दुश्मन हमें मौत से डराने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इतिहास ने यह साबित किया है कि हम मौत से नहीं डरते। जैसे हसन नसरुल्ला ने शहादत को गले लगाया, वैसे हम भी शहादत के इच्छुक हैं, लेकिन इज्जत और प्रतिरोध का रास्ता हमारे मरने से समाप्त नहीं होगा हम हज़रत मेंहदी अ.ज.फ. के ध्वज तले सफलता हासिल करेंगे।
इज़रायल को लेबनान से वापसी में देरी नहीं करनी चाहिए
लेबनान के राष्ट्रपति जोज़फ़ औन ने मिस्र के विदेश मंत्री बदर अब्दुलआती से मुलाकात की, जिसमें उन्होंने उन लेबनानी कैदियों की रिहाई की मांग की जिन्हें इज़रायली शासन द्वारा 2006 के युद्ध और अन्य सैन्य अभियानों के दौरान बंदी बनाया था।
लेबनान के राष्ट्रपति जोज़फ़ औन ने मिस्र के विदेश मंत्री बदर अब्दुलआती से मुलाकात की, जिसमें उन्होंने उन लेबनानी कैदियों की रिहाई की मांग की जिन्हें इज़रायली शासन द्वारा 2006 के युद्ध और अन्य सैन्य अभियानों के दौरान बंदी बनाया था।
औन ने इस मुलाकात के दौरान दक्षिणी लेबनान से इज़रायल की वापसी को एक आवश्यक मुद्दा बताया और कहा कि लेबनान 18 फरवरी तक इज़रायली सेना की पूरी तरह से वापसी पर अडिग है उन्होंने स्पष्ट किया कि इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार की देरी या बहानेबाज़ी को स्वीकार नहीं किया जाएगा।
मिस्र का संदेश और राष्ट्रपति औन को आधिकारिक निमंत्रण बैठक के दौरान मिस्र के विदेश मंत्री बदर अब्दुलआती ने बताया कि वे राष्ट्रपति अब्दुल फत्ताह अलसीसी का एक लिखित संदेश लेकर आए हैं जिसे उन्होंने राष्ट्रपति जोज़फ़ औन को सौंपा।
इस संदेश में मिस्र के राष्ट्रपति ने लेबनानी समकक्ष को औपचारिक रूप से काहिरा की यात्रा के लिए आमंत्रित किया और दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग को और मजबूत करने की इच्छा जताई।
मिस्र के विदेश मंत्री अब्दुलआती ने यह भी दोहराया कि काहिरा दक्षिणी लेबनान के नागरिकों की सुरक्षित वापसी और वहां से इज़रायली सेनाओं की पूर्ण वापसी को अनिवार्य मानता है। उन्होंने कहा कि यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर मिस्र ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने अपनी स्पष्ट राय रखी है।
उन्होंने आगे कहा,हम अपने अमेरिकी, फ्रांसीसी और इज़रायली भागीदारों के साथ अपने संपर्क जारी रखेंगे, ताकि दक्षिणी लेबनान में युद्ध-विराम समझौते के पूर्ण कार्यान्वयन पर जोर दिया जा सके।
गौरतलब है कि लेबनान 2000 में इज़रायली सेनाओं की वापसी के बाद से ही दक्षिणी इलाकों पर अपनी संप्रभुता बनाए रखने की कोशिश कर रहा है हालांकि, 2023 के ग़ाज़ा युद्ध और हिज़्बुल्लाह के साथ बढ़ते तनाव के चलते इज़रायल ने सीमा पर अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा दी थी।
अब जब संघर्ष-विराम समझौते की बात हो रही है तो लेबनान यह सुनिश्चित करना चाहता है कि इज़रायल अपनी सेना पूरी तरह से पीछे हटाए और किसी भी प्रकार के अतिक्रमण या विलंब की स्थिति न बने।
लेबनान का मानना है कि इज़रायल की सैन्य उपस्थिति वहां के स्थानीय नागरिकों की सुरक्षा और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए खतरा बनी हुई है। इस संदर्भ में मिस्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय शक्तियां इस मुद्दे को सुलझाने के लिए कूटनीतिक प्रयास कर रही हैं।
शाबान के महीने में रोज़े रखने की अहमियत
हज़रत इमाम सादिक़ अ.स. से किसी ने माहे रजब के रोज़े के बारे में पूछा तो आपने फ़रमाया शाबान के रोज़े से क्यों ग़ाफ़िल हो? आपसे सवाल किया गया कि माहे शाबान में एक रोज़े का कितना सवाब है? आपने फ़रमाया ख़ुदा की क़सम एक रोज़े का सवाब जन्नत है
हज़रत पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि शाबान मेरा महीना है अगर इस महीने कोई एक रोज़ा भी रखेगा तो जन्नत उस पर वाजिब हो जाएगी, कुछ हदीसों में शाबान को सारे महीनों का सरदाद भी कहा गया है। (वसाएलुश-शिया, शैख़ हुर्रे आमुली, जिल्द 8, पेज 98)
एक रिवायत में इमाम सादिक़ अ.स. से नक़्ल है कि जिस समय माहे शाबान शुरू होता था मेरे जद इमाम सज्जाद अ.स. अपने असहाब और साथियों को जमा करते और फ़रमाते थे कि ऐ मेरे असहाब!
इस महीने की फज़ीलत को जानते हो? यह माहे शाबान है और पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते थे कि शाबान मेरा महीना है इसलिए अल्लाह से क़रीब होने और पैग़म्बर स.अ. की मोहब्बत की ख़ातिर इस महीने में रोज़ा रखो, क़सम उस अल्लाह की जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है मैंने अपने वालिद इमाम हुसैन अ.स. और उन्होंने अपने वालिद इमाम अली अ.स. से सुना है कि वह फ़रमाते थे कि जो भी अल्लाह से क़रीब होने और पैग़म्बर स.अ. से मोहब्बत की ख़ातिर रोज़ा रखेगा अल्लाह उससे मोहब्बत करेगा और उसको क़यामत के दिन अपने करम से क़रीब कर देगा और जन्नत उस पर वाजिब कर देगा।
सफ़वान से रिवायत नक़्ल हुई है कि इमाम सादिक़ अ.स. मुझ से फ़रमाते थे कि अपने आस पास रहने वाले लोगों को शाबान में रोज़ा रखने के लिए कहो, मैंने कहा आप पर क़ुर्बान हो जाऊं क्या शाबान के रोज़े की कोई फ़ज़ीलत है? इमाम अ.स. ने फ़रमाया हां जिस समय पैग़म्बर स.अ. शाबान के चांद को देखते थे तो अपना पैग़ाम पूरे मदीने में इस तरह पहुंचवाते थे कि एक शख़्स हर गली मोहल्ले में ऐलान करता था कि ऐ मदीने वालों मैं अल्लाह की तरफ़ से भेजा गया हूं जान लो शाबान मेरा महीना है अल्लाह उस पर रहमत नाज़िल करे जिसने इस महीने रोज़ा रख कर मेरी मदद की। (बिहारुल अनवार, अल्लामा मजलिसी, जिल्द 94, पेज 56)
इमाम सादिक़ अ.स. से रिवायत नक़्ल हुई है इमाम अली अ.स. ने फ़रमाया जब से मदीने की गलियों में मुनादी की आवाज़ सुनी है तब से शाबान के रोज़े क़ज़ा नहीं किए और इंशा अल्लाह आगे चल कर भी अल्लाह की मदद से मैं कभी रमज़ान के रोज़े क़ज़ा नहीं करूंगा। (अल-मुराक़ेबात, पेज 173)
हदीस में मिलता है कि शाबान और रमज़ान के महीने के रोज़े रखना हक़ीक़त में अल्लाह की बारगाह में तौबा करना है। (अल-काफ़ी, शैख़ कुलैनी, जिल्द 4, पेज 93)
माहे शाबान के बहुत से आमाल नक़्ल हुए हैं, लेकिन रिवायतों में जिस अमल पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया है वह तौबा और इस्तेग़फ़ार है, इस महीने रोज़ाना 70 बार इस्तेग़फ़ार करना बाक़ी महीनों के 70 हज़ार बार के इस्तेग़फ़ार के बराबर है, इस महीने सदक़ा देने की भी बहुत फ़ज़ीलत बयान हुई है यहां तक कि हदीस में है माहे शाबान में सदक़ा दो चाहे वह सदक़ा आधा खजूर ही क्यों न हो ताकि अल्लाह जहन्नम की आग को तुम्हारे लिए हराम कर दे। (बिहारुल अनवार, जिल्द 94, पेज 72)
माहे शाबान में एक और अहम अमल जैसाकि पहले भी ज़िक्र हुआ है रोज़ा है, इमाम सादिक़ अ.स. से किसी ने माहे रजब के रोज़े के बारे में पूछा तो आपने फ़रमाया शाबान के रोज़े से क्यों ग़ाफ़िल हो? आपसे सवाल किया गया कि माहे शाबान में एक रोज़े का कितना सवाब है? आपने फ़रमाया ख़ुदा की क़सम एक रोज़े का सवाब जन्नत है। (अल-ख़ेसाल, शैख़ तूसी, जिल्द 2, पेज 605)
फिर सवाल किया कि इस महीने सबसे बेहतर अमल क्या है? आपने फ़रमाया सदक़ा देना और इस्तेग़फ़ार करना, जिसने इस महीने सदक़ा दिया अल्लाह उसकी तरबियत की ज़िम्मेदारी ख़ुद लेता है। (अल-ख़ेसाल, शैख़ तूसी, जिल्द 2, पेज 605)
माहे शाबान की जुमेरात को रोज़ा रखने का सबसे ज़्यादा सवाब बयान किया गया है, रिवायत में है कि माहे शाबान की हर जुमेरात में आसमानों को सजाया जाता है फिर फ़रिश्ते अल्लाह से कहते हैं कि ख़ुदाया आज के दिन रोज़ा रखने वालों को बख़्श दे और उनकी दुआ क़ुबूल भी होती है। (वसाएलुश-शिया, जिल्द 10, पेज 493)
इसी तरह पैग़म्बर स.अ. की हदीस है कि जिसने माहे शाबान में जुमेरात और सोमवार को रोज़ा रखा अल्लाह उसकी 20 दुनयावी और 20 आख़ेरत की दुआओं को क़ुबूल करता है। (अल-एक़बाल, पेज 685)
इस महीने में हज़रत मोहम्मद स.अ. और उनकी आल अ.स. पर सलवात की बहुत ताकीद की गई है इसी तरह मुस्तहब नमाज़ों पर भी ज़ोर दिया गया है जिसको मफ़ातीहुल जेनान में इस महीने के आमाल में पढ़ा जा सकता है।
संक्षेप में इतना समझ लीजिए कि इस महीने में नमाज़, रोज़ा, ज़कात, अम्र बिल मारूफ़, नहि अन मुन्कर, सदक़ा, ग़रीबों और फ़क़ीरों की मदद, वालेदैन के साथ नेकी, पड़ोसियों का ख़्याल और रिश्तेदारों के साथ अच्छे बर्ताव की बहुत ज़्यादा ताकीद की गई है।
इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन का उद्देश्य मीडिया द्वारा वर्णित किया जाना चाहिए
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन सैयद सदरुद्दीन क़बांची ने कहा: हमें इस युग के दौरान मीडिया के माध्यम से इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन के उद्देश्य को समझाने की ज़रूरत है, इसलिए हमें इसे सार्वजनिक करना चाहिए और इसे सभी तक फैलाना चाहिए।
नजफ अशरफ के इमामे जुमा हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन सैयद सदरुद्दीन कबांची ने नजफ अशरफ में हुसैनियाह फातिमा में नमाज जुमा के खुत्बे मे कहा: हमारा लक्ष्य मीडिया के माध्यम से इमाम हुसैन (अ) को बढ़ावा देना है। मुझे समझाने की जरूरत है इसलिए हमें इसे पूरी दुनिया में प्रचारित और प्रसारित करना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय युवा दिवस के अवसर पर बोलते हुए, उन्होंने कहा: इस्लाम कहता है कि युवाओं को मार्गदर्शन करने के अलावा, उनके पास कुछ अन्य अधिकार भी हैं, अल्लाह के रसूल (स) एक हदीस में कहा गया है: मैं आपकी कामना करता हूं युवाओं के प्रति दयालु रहें, क्योंकि युवा सबसे दयालु लोग हैं।
इमाम जुमा नजफ अशरफ ने कहा: लेकिन पश्चिमी सभ्यता कहती है कि युवाओं को भटकने का पूरा अधिकार है।
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन कबानची ने कहा: गाजा के शहीदों की संख्या 40 हजार तक पहुंच गई है और यहूदियों का कहना है कि गाजा के लोगों और उनके बच्चों का नरसंहार किया जाना चाहिए और यह नरसंहार हमारा अधिकार है और न्याय कहता है कि हम उनका नरसंहार करते हैं।
उन्होंने कहा: इज़राइल के सामने आत्मसमर्पण करने का मतलब है दो मिलियन फ़िलिस्तीनियों को मारना, इसलिए प्रतिरोध हर कीमत पर जारी रहना चाहिए और भगवान ने हमें जीत का वादा किया है और हमारी जीत होगी।
नजफ अशरफ के इमाम जुमा ने कहा: इमाम हुसैन (अ) का दौरा करना बहुत सराहनीय है और इस संबंध में इमाम अतहर (अ) की ओर से अनगिनत परंपराएं रही हैं।
इमाम हुसैन की विचारधारा जीवन्त और प्रेरणादायक
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन, एक एसी घटना है जिसमें प्रेरणादायक और प्रभावशाली तत्वों की भरमार है। यह आंदोलन इतना शक्तिशाली है जो हर युग में लोगों को संघर्ष और प्रयास पर प्रोत्साहित कर सकता है। निश्चित रूप से यह विशेषताएं उन ठोस विचारों के कारण हैं जिन पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन आधारित है।
इस आंदोलन में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मूल उद्देश्य ईश्वरीय कर्तव्यों का पालन था। ईश्वर की ओर से जो कुछ कर्तव्य के रूप में मनुष्य के लिए अनिवार्य किया गया है वह वास्तव में हितों की रक्षा और बुराईयों से दूरी के लिए है। जो मनुष्य उपासक के महान पद पर आसीन होता है और जिसके लिए ईश्वर की उपासना गर्व का कारण होता है, वह ईश्वरीय कर्तव्यों के पालन और ईश्वर को प्रसन्न करने के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ के बारे में नहीं सोचता। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कथनों और उनके कामों में जो चीज़ सब से अधिक स्पष्ट रूप से नज़र आती है वह अपने ईश्वरीय कर्तव्य का पालन और इतिहास के उस संवेदनशील काल में उचित क़दम उठाना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बुराईयों से रोकने की इमाम हुसैन की कार्यवाही, उनके विभिन्न प्रयासों का ध्रुव रही है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का एक उद्देश्य, ऐसी प्रक्रिया से लोहा लेना था जो धर्म और इस्लामी राष्ट्र की जड़ों को खोखली कर रहे थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने एसे मोर्चे से टकराने का निर्णय लिया जो समाज को धर्म की सही विचारधारा और उच्च मान्यताओं से दूर करने का प्रयास कर रही थी। यह भ्रष्ट प्रक्रिया, यद्यपि धर्म और सही इस्लामी शिक्षाओं से दूर थी किंतु स्वंय को धर्म की आड़ में छिपा कर वार करती थी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को भलीभांति ज्ञान था कि शासन व्यवस्था में व्याप्त यह बुराई और भ्रष्टाचार इसी प्रकार जारी रहा तो धर्म की शिक्षाओं के बड़े भाग को भुला दिया जाएगा और धर्म के नाम पर केवल उसका नाम ही बाक़ी बचेगा। इसी लिए यज़ीद की भ्रष्ट व मिथ्याचारी सरकार से मुक़ाबले के लिए विशेष प्रकार की चेतना व बुद्धिमत्ता की आवश्यकता थी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने आंदोलन के आरंभ में मदीना नगर से निकलते समय कहा थाः मैं भलाईयों की ओर बुलाने और बुराईयों से रोकने के लिए मदीना छोड़ रहा हूं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचार धारा में अत्याचारी शासन के विरुद्ध आंदोलन, समाज के राजनीतिक ढांचे में सुधार और न्याय के आधार पर एक सरकार के गठन के लिए प्रयास भलाईयों का आदेश देने और बुराईयों से रोकने के ईश्वरीय कर्तव्य के पालन के उदाहरण हैं। ईरान के प्रसिद्ध विचारक शहीद मुतह्हरी इस विचारधारा के महत्व के बारे में कहते हैं
भलाईयों के आदेश और बुराईयों से रोकने के विचार ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन को अत्याधिक महत्वपूर्ण बना दिया। अली के पुत्र इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम भलाईयों के आदेश और बुराईयों से रोकने अर्थात इस्लामी समाज के अस्तित्व को निश्चित बनाने वाले सब से अधिक महत्वपूर्ण कार्यवाही की राह में शहीद हुए और यह एसा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि यदि यह न होता तो समाज टुकड़ों में बंट जाता।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम एक चेतनापूर्ण सुधारक के रूप में स्वंय का यह दायित्व समझते थे कि अत्याचार, अन्याय व भ्रष्टाचार के सामने चुप न बैठें। बनी उमैया ने प्रचारों द्वारा अपनी एसी छवि बनायी थी कि शाम क्षेत्र के लोग, उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम के सब से निकटवर्ती समझते थे और यह सोचते थे कि भविष्य में भी उमैया का वंश ही पैग़म्बरे इस्लाम का सब से अधिक योग्य उत्तराधिकारी होगा। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को इस गलत विचारधारा पर अंकुश लगाना था और इस्लामी मामलों की देख रेख के संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की योग्यता और अधिकार को सब के सामने सिद्ध करना था। यही कारण है कि उन्होंने बसरा नगर वासियों के नाम अपने पत्र में, अपने आंदोलन के उद्देश्यों का वर्णन करते हुए लिखा थाः
हम अहलेबैत, पैग़म्बरे इस्लाम के सब से अधिक योग्य उत्तराधिकारी थे किंतु हमारा यह अधिकार हम से छीन लिया गया और अपनी योग्यता की जानकारी के बावजूद हमने समाज की भलाई और हर प्रकार की अराजकता व हंगामे को रोकने के लिए, समाज की शांति को दृष्टि में रखा किंतु अब मैं तुम लोगों को कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की शैली की ओर बुलाता हूं क्योंकि अब परिस्थितियां एसी हो गयी हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम की शैली नष्ट हो चुकी है और इसके स्थान पर धर्म से दूर विषयों को धर्म में शामिल कर लिया गया है। यदि तुम लोग मेरे निमंत्रण को स्वीकार करते हो तो मैं कल्याण व सफलता का मार्ग तुम लोगों को दिखाउंगा।
कर्बला के महाआंदोलन में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा इस वास्तविकता का चिन्ह है कि इस्लाम एक एसा धर्म है जो आध्यात्मिक आयामों के साथ राजनीतिक व समाजिक क्षेत्रों में भी अत्याधिक संभावनाओं का स्वामी है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा में धर्म और राजनीति का जुड़ाव इस पूरे आंदोलन में जगह जगह नज़र आता है। वास्तव में यह आंदोलन, अत्याचारी शासकों के राजनीतिक व धार्मिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्रांतिकारी संघर्ष था। सत्ता, नेतृत्व और अपने समाजिक भविष्य में जनता की भागीदारी, इस्लाम में अत्याधिक महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय है।
इसी लिए जब सत्ता किसी अयोग्य व्यक्ति के हाथ में चली जाए और वह धर्म की शिक्षाओं और नियमों पर ध्यान न दे तो इस स्थिति में ईश्वरीय आदेशों के कार्यान्वयन को निश्चित नहीं समझा जा सकता और फेर बदल तथा नये नये विषय, धर्म की मूल शिक्षाओं में मिल जाते हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इन परिस्थितियों को सुधारने के विचार के साथ संघर्ष व आंदोलन का मार्ग अपनाया। क्योंकि वे देख रहे थे कि ईश्वरीय दूत की करनी व कथनी को भुला दिया गया है और धर्म से अलग विषयों को धर्म का रूप देकर समाज के सामने परोसा जा रहा है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की दृष्टि में मानवीय व ईश्वरीय आधारों पर, समाज-सुधार का सबसे अधिक प्रभावी साधन सत्ता है। इस स्थिति में पवित्र ईश्वरीय विचारधारा समाज में विस्तृत होती है और समाजिक न्याय जैसी मानवीय आंकाक्षाएं व्यवहारिक हो जाती हैं।
आशूर के महाआंदोलन में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा का एक आधार, न्यायप्रेम और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष था। न्याय, धर्म के स्पष्ट आदेशों में से है कि जिसका प्रभाव मानव जीवन के प्रत्येक आयाम पर व्याप्त है। उमवी शासन श्रंखला की सब से बड़ी बुराई, जनता पर अत्याचार और उनके अधिकारों की अनेदेखी थी। स्पष्ट है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसी हस्ती इस संदर्भ में मौन धारण नहीं कर सकती थी। क्योंकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के विचार में चुप्पी और लापरवाही, एक प्रकार से अत्याचारियों के साथ सहयोग था। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस संदर्भ में हुर नामक सेनापति के सिपाहियों के सामने अपने भाषण में कहते हैं।
हे लोगो! पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है कि यदि कोई किसी एसे अत्याचारी शासक को देखे जो ईश्वर द्वारा वैध की गयी चीज़ों को अवैध करता हो, ईश्वरीय प्रतिज्ञा व वचनों को तोड़ता हो, ईश्वरीय दूत की शैली का विरोध करता हो और अन्याय करता हो, और वह व्यक्ति एसे शासक के विरुद्ध अपनी करनी व कथनी द्वारा खड़ा न हो तो ईश्वर के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उस व्यक्ति को भी उसी अत्याचारी का साथी समझे। हे लोगो! उमैया के वंश ने भ्रष्टाचार और विनाश को स्पष्ट कर दिया है, ईश्वरीय आदेशों को निरस्त कर दिया है और जन संपत्तियों को स्वंय से विशेष कर रखा है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के तर्क में अत्याचारी शासक के सामने मौन धारण करना बहुत बड़ा पाप है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अस्तित्व में स्वतंत्रता प्रेम, उदारता और आत्मसम्मान का सागर ठांठे मार रहा था। यह विशेषताएं इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को अन्य लोगों से भिन्न बना देती हैं। उनमें प्रतिष्ठा व सम्मान इस सीमा तक था कि जिसके कारण वे यजीद जैसे भ्रष्ट व पापी शासक के आदेशों के पालन की प्रतिज्ञा नहीं कर सकते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा में ऐसे शासक की आज्ञापालन की प्रतिज्ञा का परिणाम जो ईश्वर और जनता के अधिकारों का रक्षक न हो, अपमान और तुच्छता के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। इसी लिए वे, अभूतपूर्व साहस व वीरता के साथ अत्याचार व अन्याय के प्रतीक यजीद की आज्ञापालन के विरुद्ध मज़बूत संकल्प के साथ खड़े हो जाते हैं और अन्ततः मृत्यु को गले लगा लेते हैं। वे मृत्यु को इस अपमान की तुलना में वरीयता देते हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा में मानवीय सम्मान का इतना महत्व है कि यदि आवश्यक हो तो मनुष्य को इसकी सुरक्षा के लिए अपने प्राण की भी आहूति दे देनी चाहिए।
इस प्रकार से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन में एसे जीवंत और आकर्षक विचार नज़र आते हैं जो इस आंदोलन को इस प्रकार के सभी आंदोलनों से भिन्न बना देते हैं। यही कारण है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का स्वतंत्रताप्रेमी आंदोलन, सभी युगों में प्रेरणादायक और प्रभावशाली रहा है और आज भी है।