رضوی

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हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के उप प्रमुख ने हौज़ा ए इल्मिया की सुप्रीम काउंसिल मे "आज़ाद स्कूल" योजना के मंजूर होने और इसके परीक्षण कार्यान्वयन की घोषणा की।

हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के उप प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम हमीद मलकी, ने मंगलवार शाम को हौज़ा हाए इल्मिया के प्रबंधको की आयतुल्लाह आराफ़ी के साथ होने वाली एक बैठक में कहा: नई प्रबंधन टीम के आने के बाद "आज़ाद स्कूल" योजना को गंभीरता से शुरू किया गया। शिक्षकों और प्रबंधकों की कई बैठकें हुईं ताकि उनके सुझाव लिए जा सकें और सुप्रीम काउंसिल को भेजे जा सकें। इन सुझावों के आधार पर विशेषज्ञों की समीक्षा के बाद ही फैसला लिया गया।

उन्होंने आगे कहा: सुप्रीम काउंसिल ने फैसला किया कि "आज़ाद स्कूल" योजना दो साल के लिए परीक्षण के तौर पर चलाई जाएगी। हर साल के अंत में इस योजना का मूल्यांकन किया जाएगा। अगर यह सफल रही, तो इसे जारी रखा जाएगा और दो साल बाद स्थायी रूप से लागू कर दिया जाएगा। इस योजना को "2040 योजना" का नाम दिया गया है और यह कक्षा 4, 5 और 6 के छात्रों के लिए है। जो छात्र उच्च स्तर की फ़िक़्ह और उसूल ले रहे हैं, वे अपनी मर्जी से अपने शिक्षक चुन सकते हैं। उन पर कोई जबरदस्ती नहीं की जाएगी।

इस योजना के लिए एक मार्गदर्शक समिति बनाई गई है जिसकी अगुवाई हुज्जतुल इस्लाम रज़ाई कर रहे हैं। अब तक इसकी तीन बैठकें हो चुकी हैं। दूसरी बैठक में योजना में कुछ बदलाव किए गए, जैसे कि चौथी कक्षा को इस योजना से हटा दिया गया क्योंकि चौथी कक्षा के छात्रों को पहले से ही कुछ मुश्किलें आ रही थीं।

हुज्जतुल इस्लाम हमीद मलकी ने कहा जो शिक्षक अपने स्कूलों में फ़िक़्ह और उसूल पढ़ा रहे हैं, वे "आज़ाद स्कूल" में भी पढ़ा सकते हैं। साथ ही, छात्र भी स्थानांतरण या अतिथि के रूप में इस स्कूल में भाग ले सकते हैं। ट्रांसफर की स्थिति में छात्र का पूरा रिकॉर्ड और आईडी नए स्कूल में स्थानांतरित हो जाएगी।अतिथि की स्थिति में छात्र का रिकॉर्ड और लाभ मूल स्कूल में रहेंगे। "आज़ाद स्कूल" में छात्रों की उपस्थिति और गतिविधियों की पूरी निगरानी इस स्कूल के प्रबंधक की जिम्मेदारी होगी।

उन्होंने कहा: इस योजना में स्कूल प्रबंधकों की भूमिका छात्रों का समर्थन और मार्गदर्शन करना है। प्रबंधकों को चाहिए कि वे छात्रों को आज़ादी से चुनाव करने दें, उन्हें सलाह और राह दिखाएँ, और साथ ही शिक्षण की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए निगरानी भी रखें। इस योजना का मुख्य उद्देश्य एक ऐसा माहौल बनाना है जहाँ  छात्रों को चुनाव की आज़ादी मिले साथ ही समझदारी से निगरानी भी हो शिक्षा का स्तर ऊँचा बना रहे।

हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के उप प्रमुख ने बताया: "आज़ाद स्कूल" योजना छात्रों की चुनाव की आज़ादी और शिक्षकों के लिए स्कूली बंदिशों से बाहर पढ़ाने की सुविधा पर आधारित है। इसका मकसद यह है कि सभी छात्र, यहाँ तक कि जिनके पास किसी खास शिक्षक तक पहुँच नहीं है, वे भी शैक्षिक संसाधनों का लाभ उठा सकें।

गाज़ा में नासिर मेडिकल कॉम्प्लेक्स पर ज़ायोनी हमले के परिणामस्वरूप शहीद हुए पत्रकारों की संख्या बढ़कर 6 हो गई है। इन पत्रकारों को तब निशाना बनाया गया जब वे बमबारी की पहली लहर की रिपोर्टिंग कर रहे थे।

गाज़ा में नासिर मेडिकल कॉम्प्लेक्स पर ज़ायोनी हमले के परिणामसरूप शहीद हुए पत्रकारों की संख्या बढ़कर 6 हो गई है। इन पत्रकारों को तब निशाना बनाया गया जब वे बमबारी की पहली लहर की रिपोर्टिंग कर रहे थे।

फिलिस्तीनी सरकार के मीडिया कार्यालय के अनुसार, अख़बार अलहयात अलजदीदा के पत्रकार हसन दोहान को कब्ज़े वाली सेना ने सीधे निशाना बनाया, जिसके बाद पत्रकारों की कुल शहादतों की संख्या युद्ध की शुरुआत से अब तक 246 तक पहुँच गई है।

इससे पहले इस्राइली हवाई हमले में पाँच अन्य पत्रकार शहीद हुए थे जिनमें शामिल हैं:

मोहम्मद सलामा (अलजज़ीरा के कैमरामैन)

हुसाम अलमिस्री (रॉयटर्स के पत्रकार)

मरियम अबू दक़ा (स्वतंत्र पत्रकार)

मुआज़ अबू ताह (ग्राउंड रिपोर्टर)

अहमद अबू अज़ीज़ (जो घायल होने के बाद शहीद हुए)

यह हमला दो चरणों में किया गया। पहले इमारत अल-यासीन की चौथी मंजिल को निशाना बनाया गया जिसमें कई मरीज़ और नागरिक शहीद या घायल हुए। इसके बाद जब पत्रकार और राहतकर्मी घटनास्थल पर पहुँचे तो इस्राइल ने दोबारा बमबारी की।

फिलिस्तीनी सरकार के मीडिया कार्यालय ने इस दुर्घटना को "पत्रकारों की सुनियोजित और जानबूझकर हत्या" करार देते हुए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से तत्काल प्रतिक्रिया की अपील की है। बयान में कहा गया कि अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस भी इस्राइली अपराधों में सहभागी और जिम्मेदार हैं।

कार्यालय ने अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार संगठनों और मीडिया संस्थानों से माँग की कि वे इस्राइली अत्याचारों की खुलकर निंदा करें और अंतर्राष्ट्रीय अदालतों में इसके अपराधियों का संज्ञान सुनिश्चित करें। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर जोर दिया गया कि नरसंहार को रोका जाए और पत्रकारों को निशाना बनने से बचाया जाए।

समाज तभी मज़बूत और शांतिपूर्ण होगा जब शादी को प्यार, सम्मान और सुकून का रिश्ता समझा जाए, न कि अत्याचार और शोषण का साधन। इस्लाम का संदेश बिल्कुल स्पष्ट है,शादी प्यार और रहमत का रिश्ता है, ज़ुल्म और जबरदस्ती का नहीं।

महिलाएं किसी भी समाज की बुनियादी स्तंभ और पारिवारिक व्यवस्था की आधार होती हैं। शादी के बाद उनकी जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं और वे परिवार की शांति, परवरिश और पीढ़ियों के पालन-पोषण की जिम्मेदार बन जाती हैं।

लेकिन भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आज भी लाखों शादीशुदा महिलाएं घरेलू हिंसा, दहेज की मांग, मारपीट, मानसिक प्रताड़ना और यौन उत्पीड़न का शिकार हैं।

यह न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन है बल्कि सामाजिक संतुलन को बिगाड़ने वाला एक गंभीर संकट है जिसके परिणामस्वरूप परिवार टूटते हैं, महिलाएं आत्महत्या को मजबूर होती हैं और बच्चे वंचिताओं का शिकार रहते हैं।

घरेलू हिंसा और कानून

भारत में घरेलू हिंसा विभिन्न रूपों में प्रकट होती है जैसे दहेज की मांग, शारीरिक उत्पीड़न, मौखिक गालियां, वित्तीय शोषण और यौन जबरदस्ती। सरकार ने इस समस्या के समाधान के लिए कई कानून बनाए हैं जिनमें घरेलू हिंसा अधिनियम 2005, दहेज निषेध अधिनियम 1961 और आईपीसी की धारा 498A शामिल हैं।

हालांकि यह कानून कागज पर महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से प्रभावी साबित नहीं हुए हैं क्योंकि ज्यादातर महिलाएं सामाजिक दबाव या अज्ञानता के कारण शिकायत दर्ज नहीं कराती हैं, और अक्सर मामले न्याय के बजाय समझौते या दबाव में खत्म कर दिए जाते हैं।

इस्लामी दृष्टिकोण

इस्लाम ने महिला को अतुलनीय सम्मान, गरिमा और सुरक्षा दी है। कुरान कहता है,और उनके साथ अच्छे तरीके से रहो" यानी पत्नियों के साथ अच्छा व्यवहार करो। पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) ने फरमाया,तुम में सबसे अच्छा वह है जो अपनी पत्नी के लिए सबसे अच्छा हो।

इस्लाम के अनुसार शादी मन की शांति, इज्जत की हिफाजत, नस्ल की निरंतरता और धर्म की पूर्ति का साधन है। इसलिए महिला पर अत्याचार और हिंसा न केवल नैतिक पतन है बल्कि एक गंभीर पाप भी है। दुर्भाग्य से भारतीय समाज में शादी के इस पवित्र रिश्ते को दहेज और घरेलू अत्याचारों ने विकृत कर दिया है।

सुझाव और निष्कर्ष

भारत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए जरूरी है कि दहेज विरोधी कानूनों को सख्ती से लागू किया जाए, घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं के लिए हर जिले में संरक्षण केंद्र स्थापित किए जाएं, शादीशुदा महिलाओं की शिक्षा और कौशल को बढ़ावा दिया जाए और सामाजिक जागरूकता अभियान चलाए जाएं।

सरकार को एक पारदर्शी डिजिटल प्रणाली भी स्थापित करनी चाहिए ताकि महिलाओं की समस्याओं का प्रभावी समाधान निकाला जा सके। नतीजतन, समाज तभी मजबूत और शांतिपूर्ण होगा जब शादी को प्यार, सम्मान और सुकून का रिश्ता समझा जाए, न कि अत्याचार और शोषण का साधन। इस्लाम का संदेश बिल्कुल स्पष्ट है शादी प्यार और रहमत का रिश्ता है, ज़ुल्म और जबरदस्ती का नहीं।

मुसलमान घरानों में एक दूसरे से जुड़ी हुई और आपस में एक दूसरे को हक़ और सब्र की नसीहत करने वाली ‎इकाई मौजूद है। क़ुरआन कहता है कि ऐ ईमान वालो! अपने आपको और अपने परिवार के लोगों को जहन्नम की ‎उस आग से बचाओ जिसका ईंधन आदमी और पत्थर हैं।

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने फरमाया,मुसलमान घरानों में एक दूसरे से जुड़ी हुई और आपस में एक दूसरे को हक़ और सब्र की नसीहत करने वाली ‎इकाई मौजूद है। क़ुरआन कहता है कि ऐ ईमान वालो! अपने आपको और अपने परिवार के लोगों को जहन्नम की ‎उस आग से बचाओ जिसका ईंधन आदमी और पत्थर हैं। (सूरए तहरीम, आयत-6)

अपनी भी हिफ़ाज़त कीजिए और अपने परिवार के ‎लोगों की भी। यह ख़ेताब मर्दों और औरतों दोनों से है। यहाँ हर इंसान के परिवार और रिश्तेदार मुराद हैं।‏

‏आप ‎ख़ुद को भी आग का ईंधन बनने से बचाए और अपने परिवार को भी आग में डाले जाने से बचाइए। इसके ‎अलावा ख़ानदान के अंदर मौजूद उसके बुनियादी सुतूनों की हिफ़ाज़त ख़ुद इंसान की हिफ़ाज़त में भी मददगार ‎साबित हो सकती है।
मियां बीवी एक दूसरे को, औरतें, मर्दों को और मर्द, औरतों को जहन्नम में जाने से बचा ‎सकते हैं और जन्नत में पहुंचा सकते हैं।

इंसान स्वभाविक रूप से अपने आप से और अल्लाह से प्यार करता है और जीवन का मकसद इसी इलाही प्यार को ज़ाहिर करना है। जो शख़्स अपनी ज़िंदगी में अल्लाह से दोस्ती बढ़ाना चाहता है, वह दरअसल कमाल की तरफ बढ़ रहा है। इस मकसद को हासिल करने का सबसे आसान और असरदार तरीका यह है कि आशिक़ाना नीयत और ईमान के साथ ज़्यादा से ज़्यादा दुरूद भेजी जाए।

मरहूम आयतुल्लाह बहजत ने अपने एक दरस-ए-ख़ारिज के दौरान "कमाल-ए-इलाही तक पहुँचने के असरदार तरीकों" के बारे में बात करते हुए फ़रमाया:

इंसान अपनी ज़ात को स्वभाविक तौर से प्यार करता है और यही मख़्लूक अपने ख़ालिक की महबूब भी है। अंततः, इंसान को ऐसा अमल करना चाहिए जिससे यह मोहब्बत-ए-इलाही ज़ाहिर और आज़ाद हो।

ज़िंदगी के सफ़र और विविध गतिविधियों में अगर मकसद यह हो कि बंदा अपने और अल्लाह के दरमियान मोहब्बत को बढ़ाए तो वह हक़ीक़तन कमाल की तरफ रवाँ दवाँ है।

मेरी नज़र में, इस राह में सबसे आसान और सबसे प्रभावशाली अमल, "कसरत से सलवात भेजना" है, वह भी ऐसी नीयत के साथ जो सरासर इश्क़ और इख़लास पर आधारित हो।

जब बंदा मोहब्बत और इख़लास से सलवात भेजता है तो वह महसूस करता है कि किस तरह यह मोहब्बत परवान चढ़ती है और हक़ीकत बन कर जलवा-गर होती है।

हालांकि इस राह में अस्ल और बुनियाद ईमान और यक़ीन पर साबित-क़दम रहना है।

कुरान-ए-करीम की प्रदर्शनी 17 मई से फ्रांस के शहर नांट में शुरू हुई है, जो अगस्त महीने के अंत तक जारी रहेगी।

यह कार्यक्रम "कुरान, यूरोप की कहानियाँ" के शीर्षक से सेंट्रल लाइब्रेरी 'जैक डेमी' में आयोजित किया जा रहा है और यह European Qur’an (EuQu) नामक एक वैज्ञानिक परियोजना का हिस्सा है। यह एक ऐसी परियोजना है जो सन 2019 से लेकर अब तक मध्ययुग और आधुनिक काल की शुरुआत में यूरोप के बौद्धिक, सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास में कुरान के स्थान का अध्ययन कर रही है।

इस परियोजना की आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित विवरण के आधार पर, शोधकर्ता यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि इतिहास के दौरान यूरोपीय ईसाइयों, यहूदियों, स्वतंत्र विचारकों, नास्तिकों और साथ ही यूरोपीय मुसलमानों द्वारा कुरान का अनुवाद, व्याख्या का उपयोग कैसे किया गया और इसने यूरोप में संस्कृति और धर्म पर क्या प्रभाव छोड़ा है।

इस प्रदर्शनी में कुरान की हस्तलिखित और मुद्रित प्रतियाँ, चित्रों के पैनल, नक्काशी, कलाकृतियाँ और ऐतिहासिक वस्तुएं प्रदर्शित की गई हैं, और रुचि रखने वाले लोग अगले कुछ दिनों तक इसे देख सकते हैं।

यह प्रदर्शनी नांट से पहले वियना (ऑस्ट्रिया), ग्रेनाडा (स्पेन) और साथ ही ट्यूनीशिया की राष्ट्रीय पुस्तकालय में भी लगाई जा चुकी है और नांट इसका अंतिम पड़ाव है।

उल्लेखित परियोजना यूरोप के कई देशों के प्रमुख इतिहास के शोधकर्ताओं के सहयोग से बनी है, जिनमें स्पेन की वैज्ञानिक अनुसंधान परिषद (CSIC) की मर्सिडीज गार्सिया-अरेनल, ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ केंट के जान लूप, इटली की यूनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स ल'ओरिएंटले के रॉबर्टो टोटोली और फ्रांस की यूनिवर्सिटी ऑफ नांट के जॉन टोलन शामिल हैं।

हज़रत इमाम अली बिन मूसा अल-रज़ा अलैहिस्सलाम का पवित्र चरित्र मानवता के लिए एक महान आदर्श है आपकी इबादत, तक़्वा और उच्च नैतिकता की पुष्टि न केवल मित्रों बल्कि दुश्मनों ने भी की थी आपके जीवन का हर पहलू आज के इंसान के लिए एक व्यावहारिक सबक रखता है।

हज़रत इमाम अली बिन मूसा अल-रज़ा अलैहिस्सलाम का पवित्र चरित्र मानवता के लिए एक महान आदर्श है आपकी इबादत, तक़्वा और उच्च नैतिकता की पुष्टि न केवल मित्रों बल्कि दुश्मनों ने भी की थी आपके जीवन का हर पहलू आज के इंसान के लिए एक व्यावहारिक सबक रखता है।

इब्राहिम बिन अब्बास अलसूली कहते हैं,मैंने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से अधिक गुणी और उच्च नैतिक चरित्र वाला किसी को नहीं पाया। मैंने आपमें वे विशेषताएं देखीं जो किसी और में नहीं देखीं।

उनके अनुसार, इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की कुछ प्रमुख विशेषताएं यह थीं:

  1. विनम्र वाणी: आप कभी भी किसी से कठोर नहीं बोले।
    2. धैर्यपूर्ण श्रोता: जब तक सामने वाला व्यक्ति अपनी बात पूरी नहीं कर लेता था, आप कभी उसकी बात नहीं काटते थे।
    3. सहायता की भावना: यदि आप किसी की ज़रूरत पूरी करने की स्थिति में होते तो कभी इनकार नहीं करते थे।
    4. विनम्र बैठने का तरीक़ा,मजलिस में बैठे हुए लोगों के सामने कभी पैर नहीं फैलाते थे (अन्यों का सम्मान करते थे)
    5. सेवकों से दया का व्यवहार: दोस्तों और नौकरों को कभी बुरा भला नहीं कहते थे।
    6. संयमित हँसी: आपकी मुस्कुराहट हल्की सी हँसी (मुस्कान) तक सीमित रहती थी, कभी ज़ोर से ठहाका नहीं लगाते थे।
    7. समानता का भाव: खाने की मेज़ पर नौकरों, सेवकों और दरबानों को भी अपने साथ बिठाते थे और उनके साथ भोजन करते थे।
    8. रातों की इबादत: रात में कम सोते थे और अधिकांश समय दुआ और मुनाजात (विनती) में बिताते थे।
    9. नियमित रोज़े: अक्सर रोज़े रखते थे, विशेष रूप से हर महीने तीन रोज़े (अय्याम-ए-बीज़) अवश्य रखते थे और फरमाते थे:यह रोज़े ऐसे हैं जैसे पूरे जीवन भर के रोज़े।
    10. गुप्त दान: गुप्त रूप से बहुत अधिक दान देते थे और नेक कामों को छिपकर करते थे।

फिलिस्तीनी योद्धाओं ने उस इज़राईली सैनिक को मार डाला जिसने एक टैंक से कई फिलिस्तीनी महिला और उनके तीन बच्चों को कुचल दिया था।

खान यूनिस में फिलिस्तीनी योद्धाओं ने यहूदी सेना के टैंक को निशाना बनाया और नष्ट कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप एक यहूदी सैनिक गंभीर रूप से घायल हो गया और उसे अस्पताल ले जाया गया, जहाँ उसकी चोटों के कारण मौत हो गई।

मारे गए यहूदी सैनिक ने कई फिलिस्तीनी महिला और उनके तीन बच्चों को टैंक के नीचे कुचल कर शहीद कर दिया था।

इजरायली चैनल 12 ने कहा कि ग़ज़्ज़ा युद्ध की शुरुआत से अब तक मारे गए यहूदी अधिकारियों और सैनिकों की संख्या 899 हो गई है, जिनमें से 455 जमीनी कार्रवाइयों के दौरान मारे गए।

इजरायली सेना के अनुसार, युद्ध के दौरान 6,210 सैनिक घायल हुए, जिनमें से 925 की हालत चिंताजनक है।

क़ुरआन और रिवायतो के अनुसार, निराशा और हताशा को सबसे बड़ा पाप घोषित किया गया है। किसी व्यक्ति का यह सोचना कि "मैंने पाप किया है और अब मुझे क्षमा नहीं मिल सकती" धार्मिक शिक्षाओं के विपरीत है और इसे सबसे बुरे पापों में गिना जाता है।

क़ुरआन और रिवायतो के अनुसार निराशा और हताशा को सबसे बड़ा पाप घोषित किया गया है। किसी व्यक्ति का यह सोचना कि "मैंने पाप किया है और अब मुझे क्षमा नहीं मिल सकती" धार्मिक शिक्षाओं के विपरीत है और इसे सबसे बुरे पापों में गिना जाता है।

प्रोफ़ेसर हुज्जतुल इस्लाम मोहसिन क़राती ने एक बयान में बताया कि पाप दो प्रकार के होते हैं: बड़े और छोटे। लेकिन सबसे गंभीर पाप, बड़ा, वह है जब कोई व्यक्ति अल्लाह की रहमत से निराश हो जाता है। पवित्र क़ुरआन सूर ए ज़ुमर की आयत "अल्लाह की रहमत से निराश न हो" में स्पष्ट रूप से कहता है कि अल्लाह की रहमत से निराश नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह सभी पापों को क्षमा करने वाला है।

उन्होंने कहा कि रिवायते दर्शाती हैं कि निराशा वास्तव में व्यक्ति को और अधिक भटकाव की ओर ले जाती है और उसके दिल में सुधार की कोई उम्मीद नहीं बचती। अगर कोई बड़ा से बड़ा पाप भी कर ले, लेकिन अल्लाह की रहमत से निराश न हो, तो उसके लिए तौबा और मुक्ति का मार्ग खुला रहता है।

इस संबंध में एक घटना भी वर्णित है जिसमें एक व्यक्ति ने काबा के पर्दे को गले लगाकर कहा: "मुझे पता है कि मेरा पाप कभी क्षमा नहीं किया जाएगा।" जब उससे पाप के बारे में पूछा गया, तो उसने बताया कि वह यज़ीद से उपहार लेकर कर्बला गया था और इमाम हुसैन (अ) के एक करीबी व्यक्ति को धोखा दिया और इमाम की शहादत के अपराध में भागीदार बना। उससे कहा गया: "तुम्हारा यह सोचना कि ईश्वर तुम्हें क्षमा नहीं करेगा, तुम्हारे वास्तविक अपराध से भी बड़ा पाप है।"

इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर की दया से बड़ा कोई पाप नहीं है। असली ख़तरा यह है कि मनुष्य निराशा में अपने लिए मुक्ति के द्वार बंद कर लेता है।

 क़ुरआन की कहानियों में, पैगम्बर यूसुफ़ की कहानी ही वह कहानी है जिसे स्वयं क़ुरआन ने "अहसन अल-क़िसस" की उपाधि दी है। लेकिन इस कहानी की उत्कृष्टता और श्रेष्ठता का रहस्य क्या है?

पैगम्बर यूसुफ़ (स) की कहानी क़ुरआन की अनेक कहानियों में एक विशिष्ट और उच्च स्थान रखती है। यहाँ तक कि स्वयं क़ुरआन ने भी इसे "अहसन अल-क़िसस" घोषित किया है।

यह शानदार संबोधन यह प्रश्न उठाता है कि इस सूरह में ऐसा कौन सा रहस्य या विशेष बात है जो इसे अन्य कहानियों से इतना विशिष्ट बनाती है? क्या यह कथन की सुंदरता है, मानवीय अर्थ की गहराई है, शिक्षाप्रद उतार-चढ़ाव हैं, या क्या ये सभी बातें मिलकर इस कहानी को विशिष्ट बनाती हैं कि क़ुरआन ने स्वयं इसे "अहसन" कहकर इसे विशिष्ट बनाया है?

इस प्रश्न को स्पष्ट करने के लिए, हमने धार्मिक प्रश्नों के विशेषज्ञ, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन रज़ापूर इस्माईल की राय ली।

प्रश्न:

क़ुरआन की सभी कहानियों में सूरह यूसुफ़ को "अहसन अल-क़िसस" क्यों कहा गया है?

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन रज़ापूर इस्माईल का उत्तर:

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्राहीम

क़ुरआन में पैगंबर यूसुफ़ की कहानी को "अहसन अल-क़िसस" कहा गया है, जो सूरह यूसुफ़ की तीसरी आयत में है। मुफ़स्सिरो ने इस आयत के अंतर्गत कई गहन बिंदुओं की व्याख्या की है।

यदि हम एक व्यापक उत्तर देना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें क़ुरान की कहानियों को कहने के उद्देश्य को समझना होगा। असली सवाल यह है कि क़ुरआन इन कहानियों को बताकर क्या हासिल करना चाहता है?

क़ुरआन केवल कहानी कहने या इतिहास बयान करने की किताब नहीं है। यह मार्गदर्शन की किताब है। इसलिए, कहानियाँ भी इसी उद्देश्य के लिए हैं, अर्थात मार्गदर्शन प्रदान करना।

अतः, "सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ" उस कहानी को संदर्भित करती हैं जो क़ुरआन के मार्गदर्शक उद्देश्य को सर्वोत्तम रूप से पूरा करती है।

अब प्रश्न यह है कि पैगम्बर यूसुफ़ की कहानी की क्या विशेषताएँ हैं जो इसे इस उपाधि के योग्य बनाती हैं?

इस विषय पर कई भागों में विचार किया जा सकता है।

इस कहानी की पहली और सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसकी अद्वितीय संरचना और वर्णन की व्यवस्थित शैली है। क़ुरआन की अन्य कहानियों, जैसे कि बनी इसराइल की कहानियों, जो विभिन्न सूरहों में समाहित हैं, के विपरीत, पैगम्बर यूसुफ़ (अ) के संपूर्ण जीवन की कहानी एक ही सूरह, अर्थात् सूरह यूसुफ़ में पूरी तरह से वर्णित है।

यह कहानी एक सुसंगत और संपूर्ण श्रृंखला है; एक ही सूरह शुरुआत, मध्य, चरमोत्कर्ष और अंत को स्पष्ट रूप से परिभाषित करती है, और इसमें एक सुंदर और शक्तिशाली कहानी के लिए आवश्यक सभी तत्व समाहित हैं।

दूसरा, सूर ए यूसुफ़ की विषयवस्तु बहुत व्यापक है। यहाँ, विरोधाभास और गहरे दिव्य एवं मानवीय अर्थ एक साथ मिलते हैं।

यह कहानी विविध विरोधाभासों को व्यापक रूप से दर्शाती है जो मानवीय और दिव्य समझ की गहराई को उजागर करते हैं। उदाहरण के लिए:

"कुएँ" और "राज्य" के बीच का अंतर: एक बच्चे का गिरे हुए कुएँ से मिस्र के सर्वोच्च पद और सम्मान तक का सफ़र।

"वियोग" और "पुनर्मिलन" के बीच का अंतर: याकूब और यूसुफ का लंबा और दर्दनाक वियोग और फिर उनका आनंदमय और गौरवशाली पुनर्मिलन।

पाप से क्षमा की ओर: ईर्ष्या और विश्वासघात को लेकर भाइयों की प्रतिद्वंद्विता, और यूसुफ की अपने सर्वोच्च पद पर क्षमा और कुलीनता।

इच्छा से पवित्रता और पश्चाताप की ओर: मनोवैज्ञानिक इच्छाओं से शुद्धि (ज़ुलैखा के चरित्र में दर्शाया गया) (यूसुफ) और अंततः पश्चाताप और ईश्वर की ओर वापसी (ज़ुलैखा)।

अज्ञानता से ज्ञान की ओर का सफ़र: कहानी बताती है कि कैसे कुछ लोग दिव्य ज्ञान, जैसे सपनों की व्याख्या, के लिए असमर्थ और तैयार नहीं थे, लेकिन ईश्वर के पैगंबर (यूसुफ) के ज्ञान ने इस समस्या का समाधान किया।

ये विरोधाभास और विरोधाभास कहानी को और भी रोचक बनाते हैं और क़ुरान के शैक्षिक और ईश्वरीय उद्देश्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

इस कहानी को "सर्वश्रेष्ठ कहानियों" में से एक बनाने वाला एक और मूलभूत कारण मुख्य पात्र, पैगम्बर यूसुफ़ (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का आदर्श उदाहरण है। एक पैगम्बर के रूप में, उन्होंने धैर्य, धर्मपरायणता, बुद्धिमत्ता और कठिन परिस्थितियों में सर्वोत्तम प्रबंधन के सर्वोच्च गुणों का परिचय दिया। वे हर परिस्थिति में ईश्वर को याद करते हैं और कभी भी लापरवाही नहीं बरतते।

अंततः, यह कठिन मार्ग उन्हें एक अद्वितीय शक्ति की ओर ले जाता है, लेकिन यह शक्ति उन्हें खलनायक नहीं बनाती, बल्कि वे एक नैतिक नायक बन जाते हैं जो अपनी चरम सीमा पर क्षमा और उदारता का परिचय देते हैं। एक संपूर्ण मानव का यह महान परिवर्तन ही यूसुफ़ की कहानी को सर्वश्रेष्ठ कहानी बनाता है।

इस सूरह में एक और महत्वपूर्ण बात, इसके गहरे नैतिक और शैक्षिक संदेश हैं। ये संदेश क़ुरान की कहानी कहने के सामान्य उद्देश्य, यानी मनुष्यों का मार्गदर्शन, के अधीन हैं। इन संदेशों में विशेष रूप से निम्नलिखित शामिल हैं:

तक़वा और धैर्य की अंतिम विजय: यह कहानी स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि अंततः केवल धर्मी और धैर्यवान लोग ही सफल होते हैं।

निराशा के बीच आशा का प्रकाश: कहानी के सबसे कठिन क्षणों में, चाहे याकूब के लिए, कुएँ पर यूसुफ के लिए, पाप के बाद उसके भाइयों के लिए, या ज़ुलैखा के पश्चाताप के लिए, ईश्वर की दया और आशा का प्रकाश हमेशा मौजूद रहता है और मोक्ष का मार्ग दिखाता है।

क्षमा और माफ़ी का महत्व: यूसुफ द्वारा अपने भाइयों को क्षमा करना और याकूब द्वारा अपने पिछले व्यवहार को क्षमा करना मानवीय नैतिकता के उच्च उदाहरण हैं और कहानी के सबसे महत्वपूर्ण पाठों में से हैं।

संकट में बुद्धि और प्रबंधन: यूसुफ की बुद्धि और योजना अकाल के दौरान एक बड़ी आपदा की योजना बनाने और उसे रोकने का एक अद्वितीय उदाहरण है।

ईश्वरीय इच्छा का नियम: कहानी की सभी घटनाएँ और क्रम यह प्रदर्शित करते हैं कि अंततः सब कुछ सर्वज्ञ ईश्वर की इच्छा और योजना का पालन करता है।

इसलिए, अपनी सुव्यवस्थित संरचना, समृद्ध विषयवस्तु, गहन चरित्र और मानवता को आकार देने वाले संदेशों के कारण, पैगंबर यूसुफ की कहानी को "अहसन अल-क़सस" (सर्वोत्तम कहानी) कहा गया है। यह एक ऐसी कहानी है जो सुनने और सुनाने, दोनों में आनंददायक है और मानवता को पूर्णता और नैतिक गुणों की ओर ले जाती है।