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क़ुम मुक़द्दस, क़ुम स्थित इस्लामी विज्ञान और संस्कृति के शोध केंद्र में आयोजित एक बैठक में हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अली अकबर ज़ाकिरी ने कहा कि इमाम हसन मुजतबा (अ.स.) के जीवन में सादगी, दूसरों की ज़रूरतों का ख्याल रखना और उत्कृष्ट नैतिक व्यवहार साफ़ तौर पर दिखाई देता है।

क़ुम मुक़द्दस में इस्लामी विज्ञान और संस्कृति के शोध केंद्र में आयोजित एक बैठक में हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अली अकबर ज़ाकिरी ने कहा कि इमाम हसन मुजतबा (अ.स.) के जीवन में सादा जीवनशैली, दूसरों की ज़रूरतों की परवाह और उच्च नैतिक व्यवहार विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है।

उन्होंने स्पष्ट किया कि सीरत से आशय मासूमों (अ.स) के व्यावहारिक जीवन और उनके आचरण से है अर्थात वे कार्य जो उन्होंने स्वयं किए, या जिनके उनके सामने होने पर उन्होंने पुष्टि की। उनके अनुसार, ऐतिहासिक प्रमाण यह दर्शाते हैं कि कभी-कभी एक ही अमल (कर्म) भी “सीरत” बन जाता है। यही कारण है कि इमाम हसन (अ.) के जीवन के कई पहलुओं को फिक़्ही मसलों में प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

ज़ाकिरी ने कहा कि सामाजिक सीरत में मुसलमानों के साथ संबंध, विरोधियों से व्यवहार और पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन के सिद्धांत शामिल होते हैं।

हज़रत इमाम हसन (अ.स.) एक ऐसे घराने में पले-बढ़े जहाँ दूसरों की भलाई को स्वयं पर प्राथमिकता दी जाती थी हज़रत फ़ातिमा ज़हेरा (स.ल) की परवरिश इसका एक उज्ज्वल उदाहरण है। एक रिवायत के अनुसार, वे दुआओं में हमेशा पहले दूसरों को याद करती थीं और उसके बाद अपने लिए दुआ करती थीं। यही सोच इमाम हसन (अ.स.) के जीवन की बुनियाद बनी।

उन्होंने बचपन की एक घटना सुनाई कि इमाम हसन और इमाम हुसैन (अ.स.) ने एक बूढ़े व्यक्ति को गलत वुज़ू करते हुए देखा। सीधा आलोचना करने के बजाय, दोनों ने स्वयं वुज़ू किया और फिर उस बुज़ुर्ग को “क़ाज़ी” (निर्णायक) बनाया ताकि वह खुद फैसला करें। इस तरह, बुज़ुर्ग की इज़्ज़त भी बनी रही और उन्हें सही वुज़ू करने का तरीका भी समझ में आ गया।

इसी तरह, इमाम हसन (अ.स.) ने एक ज़रूरतमंद पड़ोसी को दो हज़ार दिरहम दिए और एक यहूदी पड़ोसी के साथ भी दया और सौम्यता से पेश आए, जिसके परिणामस्वरूप वह इस्लाम की ओर आकर्षित हुआ।

ज़ाकिरी ने आगे कहा कि इमाम हसन (अ.स.) के जीवन में करुणा और उदारता सबसे प्रमुख विशेषताएँ थीं। ये केवल उनके इमामत काल तक सीमित नहीं थीं, बल्कि हज़रत अली (अ.स.) की खिलाफ़त के दौर में भी वे अपना हिस्सा दूसरों को दे दिया करते थे।

उनके अनुसार, इमाम हसन (अ.स.) की उदारता केवल आर्थिक दान ही नहीं थी, बल्कि वह सोच-विचार और व्यावहारिक बुद्धिमत्ता पर आधारित होती थी, जो आज भी सामाजिक जीवन के लिए एक आदर्श उदाहरण है।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025 15:06

हज़रत इमाम हसन अ.स. का अख्लाक़

एक दिन हज़रत इमाम हसन अ.स. घोड़े पर सवार हो कर कही जा रहे थे कि शाम अर्थात मौजूदा सीरिया का रहने वाला एक इंसान रास्ते में मिला। उस आदमी ने इमाम हसन को बुरा भला कहा और गाली देना शुरू कर दिया हज़रत इमाम हसन अ.स चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे, जब वह अपना ग़ुस्सा उतार चुका तो हज़रत इमाम हसन अ.स. ने उसे मुस्कुरा कर सलाम किया और अपने अख्लाक के जरिए से उसके इबहाम को दूर किए।

एक दिन हज़रत इमाम हसन अ.स. घोड़े पर सवार हो कर कही जा रहे थे कि शाम अर्थात मौजूदा सीरिया का रहने वाला एक इंसान रास्ते में मिला। उस आदमी ने इमाम हसन को बुरा भला कहा और गाली देना शुरू कर दिया हज़रत इमाम हसन अ.स चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे, जब वह अपना ग़ुस्सा उतार चुका तो हज़रत इमाम हसन अ.स. ने उसे मुस्कुरा कर सलाम किया और अपने अख्लाक के जरिए से उसके इबहाम को दूर किए।

एक दिन हज़रत इमाम हसन अ.स. घोड़े पर सवार हो कर कही जा रहे थे कि शाम अर्थात मौजूदा सीरिया का रहने वाला एक इंसान रास्ते में मिला। उस आदमी ने इमाम हसन को बुरा भला कहा और गाली देना शुरू कर दिया हज़रत इमाम हसन अ.स चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे, जब वह अपना ग़ुस्सा उतार चुका तो हज़रत इमाम हसन अ.स. ने उसे मुस्कुरा कर सलाम किया और कहने लगे

ऐ शेख़, मेरे विचार में तुम यहां अपरिचित हो और तुमको धोखा हो रहा है, अगर भूखे हो तो तुम्हें खाना खिलाऊं, अगर कपड़े चाहिये तो कपड़े पहना दूं, अगर ग़रीब हो तो तुम्हरी ज़रूरत पूरी कर दूं, अगर घर से निकाले हुये हो तो तुमको पनाह दे दूं और अगर कोई और ज़रूरत हो तो उसे पूरा करूं। अगर तुम मेरे घर आओ और जाने तक मेरे घर में ही रहो तो तुम्हारे लिये अच्छा होगा क्योंकि मेरे पास एक बड़ा घर है तथा मेहमानदारी का सामान भी मौजूद है

सीरिया के उस नागरिक ने जब यह व्यवहार देखा तो पछताने और रोने लगा और इमाम को संबोधित करके कहने लगाः मैं गवाही देता हूं कि आप ज़मीन पर अल्लाह के प्रतिनिधि हैं तथा अल्लाह अच्छी तरह जानता है कि अपना प्रतिनिधित्व किसे प्रदान करे। आप से मिलने से पहले आपके पिता और आप मेरी निगाह में लोगों के सबसे बड़े दुश्मन थे और अब मेरे लिये सबसे से अच्छे हैं।

यह आदमी मदीने में इमाम हसन का मेहमान बना और पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. एवं उनके अहलेबैत का श्रद्धालु बन गया। इमाम हसन (अ) की सहनशीलता व सब्र इतना मशहूर था कि “हिल्मुल- हसन” अर्थात हसन की सहनशीलता सब की ज़बानों पर रहता था।

पैग़म्बरे इस्लाम के नाती और हज़रत अली के बेटे इमाम हसन भी अपने नाना और पिता की तरह अल्लाह की इबादत के प्रति बहुत ज़्यादा पाबंद एवं सावधान थे। अल्लाह की महानता का इतना आभास करते थे कि नमाज़ के समय चेहरा पीला पड़ जाता और जिस्म कांपने लगता था, हर समय उनकी ज़बान पर अल्लाह का ज़िक्र व गुणगान ही रहता था।

इतिहास में आया है कि किसी भी ग़रीब व फ़क़ीर को उन्होने अपने पास से बिना उसकी समस्या का समाधान किये जाने नहीं दिया। किसी ने सवाल किया कि आप किसी मांगने वाले को कभी ख़ाली हाथ क्यों नहीं लौटाते। तो उन्होने जवाब दिया“ मैं ख़ुद अल्लाह के दरवाज़े का भिखारी हूं,और उससे आस लगाये रहता हूं, इसलिये मुझे शर्म आती है कि ख़ुद मांगने वाला होते हुये दूसरे मांगने वाले को ख़ाली हाथ भेज दूं। अल्लाह ने मेरी आदत डाली है कि लोगों पर ध्यान दूं और अल्लाह की अनुकंपायें उन्हें प्रदान करूं।

 इमाम हसन (अ) ने 48 साल से ज़्यादा इस दुनिया में अपनी रौशनी  नहीं बिखेरी लेकिन इस छोटी सी अवधि में भी उनका समय भ्रष्टाचारियों से  लगातार जंग में ही बीता। अपने पिता की शहादत के बाद इमाम हसन (अ) ने देखा कि निष्ठावान व वफ़ादार साथी बहुत कम हैं इसलिये मोआविया से जंग का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकलेगा इसलिये उन्होने मुआविया द्वारा प्रस्तावित सुलह को अपनी शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया। इस शान्ति संधि का नतीजा यह निकला कि वास्तविक मुसलमानों को ख़्वारिज के हमलों से नजात मिल गयी और जंग में उनकी जानें भी नहीं गईं।

इमाम हसन(अ) के ज़माने के हालात के बारे में आयतुल्लाह ख़ामेनई कहते हैं“ हर क्रान्तिकारी व इंक़ेलाबी के लिये सबसे कठिन समय वह होता है जब सत्य व असत्य आपस में बिल्कुल मिले हुये हों-----(इस हालत को निफ़ाक़ या मित्थ्या कहते हैं) इमाम हसन के ज़माने में निफ़ाक़ की उड़ती धूल हज़रत अली के ज़माने से बहुत ज़्यादा गाढ़ी थी इमाम हसने मुज्तबा (अ) जानते थे कि उन थोड़े से साथियों व सहायकों के साथ अगर मुआविया से जंग के लिये जाते हैं और शहीद हो जाते हैं तो इस्लामी समाज के प्रतिष्ठत लोगों पर छाया हुआ नैतिक भ्रष्टाचार उनके ख़ून (के प्रभाव) को अर्थात उनके लक्ष्य को आगे बढ़ने नहीं देगा। प्रचार, पैसा और मुआविया की कुटिलता, हर चीज़ पर छा जायेगी तथा दो एक साल बीतने के बाद लोग कहने लगेंगे कि इमाम हसन(अ) व्यर्थ में ही मुआविया के विरोध में खड़े हुये। इसलिये उन्होने सभी कठिनाइयां सहन कीं लेकिन ख़ुद को शहादत के मैदान में जाने नहीं दिया,क्योंक् जानते थे कि उनका ख़ून अकारत हो जायेगा।

इस आधार पर इमाम हसन(अ) की एक विशेषता उनका इल्म व बुद्धिमत्ता थी। पैगम्बरे इस्लाम (स) इमाम हसन (अ) की बुद्धिमत्ता के बारे में कहते “ अगर अक़्ल को किसी एक आदमी में साकार होना होता तो वह आदमी अली के बेटे हसन होतें.

पैग़म्बर (स) की वफ़ात का दिन हमें याद दिलाता है कि पैग़म्बर (स) का मिशन उनके बाद भी जीवित रहेगा और यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनके जीवन, शिक्षाओं और नैतिक सिद्धांतों को अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ।

सफ़र की 28 तारीख़ वह दिन है जब ब्रह्मांड के सबसे महान व्यक्ति, सर्वलोक के रहमत, पैगम्बर (स) की वफ़ात हुई। यह एक ऐसा दुःख है जिसकी तीव्रता और गहराई मुस्लिम उम्माह के दिलों में कभी कम नहीं हुई। उनकी वफ़ात केवल एक व्यक्ति का निधन नहीं था, बल्कि यह मानवता के लिए मार्गदर्शन के एक स्रोत का निधन था, जिसने अज्ञानता, अंधकार और गुमराही के अंधकार को दूर किया और ज्ञान, प्रकाश और सत्य का दीप जलाया।

इस्लाम की पूर्णता और अंतिम संदेश

उनकी वफ़ात से कुछ समय पहले, ग़दीर ख़ुम के युद्धक्षेत्र में "आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया" (अल यौमा अकमलतो लकुम दीनाकुम) आयत अवतरित हुई। इस आयत ने स्पष्ट किया कि नबी होने का महान कर्तव्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। अल्लाह के रसूल (स) ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उम्मत को एकता, भाईचारा और धर्मपरायणता की शिक्षा दी। उनका अंतिम उपदेश, जिसे विदाई तीर्थयात्रा के रूप में जाना जाता है, वास्तव में मानवता के लिए एक सार्वभौमिक दिशानिर्देश है।

उम्मत के लिए परीक्षा और परीक्षण

पैगम्बर (स) की वफ़ात उम्मत के लिए एक बड़ी परीक्षा थी। इस त्रासदी ने साबित कर दिया कि अब उम्मत को मार्गदर्शन और नेतृत्व के लिए अपनी ज़िम्मेदारियों को समझना होगा। पैगम्बर (स) ने अपनी वफ़ात से पहले जो शिक्षाएँ छोड़ीं और कुरान व अहले-बैत के रूप में जो विरासत छोड़ी, वे आज भी उम्मत के लिए मुक्ति का साधन हैं।

धैर्य और दृढ़ता का संदेश

पैगम्बर (स) की वफ़ात का दुःख हमें सिखाता है कि जीवन बड़े आघातों और परीक्षाओं से भरा है। उस समय, हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स), हज़रत अली (अ) और उनके अन्य साथियों का दुःख ईमान और दृढ़ता का एक महान उदाहरण था। इस त्रासदी ने हमें यह भी सिखाया कि दुःख और पीड़ा के साथ-साथ, हमें अल्लाह की इच्छा से संतुष्ट रहना चाहिए और अल्लाह के रसूल (स) द्वारा छोड़े गए मार्ग पर चलते रहना चाहिए।

निष्कर्ष:

पैगम्बर (स) की वफ़ात का दिन हमें याद दिलाता है कि अल्लाह के रसूल (स) का मिशन उनके बाद भी जीवित रहेगा और यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनकी जीवनी, शिक्षाओं और नैतिक सिद्धांतों को अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ। यह दुःख हमें एकजुट करता है और हमें पैग्बर (स) के संदेश को फैलाने के लिए प्रोत्साहित करता है जो मानवता के लिए प्रेम, शांति और दया है।

 हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व.व. की वफ़ात और सिब्त अकबर इमाम हसन मुजतबाؑ की शहादत के मौके पर पुणे, महाराष्ट्र के मशहूर मौलना और धार्मिक विद्वान हुज्जतुल इस्लाम अस्करी इमाम खान से खास बातचीत

हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व.व. की वफ़ात और सिब्त अकबर इमाम हसन मुजतबाؑ की शहादत के मौके पर हौज़ा न्यूज ने पुणे, महाराष्ट्र के मशहूर मौलना और धार्मिक विद्वान हुज्जतुल इस्लाम अस्करी इमाम खान से खास बातचीत की।

मौलाना अस्करी इमाम खान ने सबसे पहले रसूल अल्लाहؐ के दुखद निधन को याद करते हुए कहा, रहमतों के रसूलؐ का इस जहाँ से जाना इंसानियत के लिए सबसे बड़ा दुखद हादसा है। उनकी शख़्सियत वह केंद्र थी जिसने बिखरे हुए समाज को एकता दी और इंसानियत को सम्मान और शान दी।

उन्होंने आगे कहा कि इसी दौर में इमाम हसन मुजतबाؑ की शहादत भी हुई, जो इस बात का संकेत है कि इस्लाम के असली वारिस और निजात देने वाले हमेशा कुर्बानी और सब्र की राह दिखाते हैं।

इमाम हसनؑ की सीरत के महत्वपूर्ण पहलुओं पर रौशनी डालते हुए मौलाना अस्करी इमाम खान ने कहा,इमाम हसनؑ ने अपनी ज़िंदगी में माफ़ करने की क्षमता, उदारता और उम्‍मत की भलाई के लिए कुर्बानी को मिसाल बनाया।

जब परिस्थितियों ने सुलह (समझौता) की मांग की तो आपने इस्लाम और मुसलमानों की जानों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी, और जब हक और बातिल का फर्क स्पष्ट करना था तो अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे।

उन्होंने कहा कि आज की उम्‍मत को इमाम हसनؑ की इसी सीरत से सीख लेनी चाहिए।हम देखते हैं कि इमाम हसनؑ की उदारता बेमिसाल थी, उन्होंने अपनी पूरी दौलत ख़ुदा कि राह में निछावर कर दी। इसी तरह उन्होंने सामाजिक न्याय और इंसानी शराफ़त को अपनी राजनीति और चरित्र का बुनियादी आधार बनाया।

मौलाना अस्करी इमाम खान ने मौजूदा दौर की जरूरतों का ज़िक्र करते हुए कहा कि मुस्लिम उम्‍मत को इमाम हसनؑ की सुलह को कमजोरी नहीं बल्कि एक समझदारी और उम्‍मत के संरक्षण के लिए बड़ा फ़ैसला समझना चाहिए।

आज की परिस्थिति में भी हमें इमाम हसनؑ के सब्र, समझदारी और उम्‍मत से मोहब्बत की राह पर चलना चाहिए ताकि हम फूट और नफ़रत की बजाय एकता और भाईचारे को बढ़ावा दे सकें।

अंत में उन्होंने कहा कि पैग़ंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफ़ात और इमाम हसनؑ की शहादत का संदेश यही है कि इस्लाम की बका कुर्बानी, स्थिरता और अहलेबैत अ.स के प्रति मोहब्बत में निहित है।

 एक यहूदी सेना के अधिकारी ने कहा कि हमास को खत्म करना और गाज़ा पर पूरी तरह कब्जा करने के प्रधानमंत्री नेतन्याहू के योजना को लागू करना असंभव है।

एक यहूदी सेना के अधिकारी ने कहा कि हमास को खत्म करना और गाज़ा पर पूरी तरह कब्जा करने के प्रधानमंत्री नेतन्याहू के योजना को लागू करना असंभव है।

नेतन्याहू सरकार द्वारा गाज़ा पर पूरी तरह कब्जा करने और फिलिस्तीनियों को जबरन बेदखल करने की योजना सामने आने के बाद इसे लागू करने का ऐलान किया गया है, लेकिन रक्षा विशेषज्ञ इस योजना को अमल में लाना मुश्किल बता रहे हैं।

अमेरिकी मीडिया संस्था ने एक इजरायली सैनिक के हवाले से बताया है कि गाजा में जारी युद्ध के बावजूद हमास को खत्म करने का मकसद पूरा नहीं हो पाएगा।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, गाज़ा में तैनात एक इजरायली सैनिक ने स्वीकार किया कि वे इस बात से बेहद हैरान हैं कि अभी भी इस युद्ध के अंत की बात हो रही है, जबकि इसका अंत बहुत पहले होना चाहिए था। गाज़ा पर कब्जा करना दरअसल इजरायली कैदियों के लिए मौत की सजा के समान होगा, क्योंकि हमास को खत्म करना संभव नहीं है।

पहले भी इजरायल के पूर्व सेना प्रमुख ने माना है कि सभी इजरायली रिजर्व सैनिक दोबारा सेवा के लिए तैयार नहीं होंगे और गाजा से संबंधित वर्तमान रणनीति दोषपूर्ण और गैर-तार्किक है।दूसरी ओर, इजरायली अखबार हा-आर्ट्ज़ ने खुलासा किया है कि गाजा पर कब्जे की योजना वार्ता प्रक्रिया को रोकने में कामयाब नहीं होगी।

 

 

 

 अल्लामा सैयद साजिद नक़वी ने कहा: पवित्र पैगंबर (स) की वफ़ात और इमाम हसन (अ) की शहादत मुस्लिम उम्माह के लिए एक बड़ी त्रासदी है। इमाम हसन (अ) ने अपने दादा अमजद के उदाहरण का अनुसरण करते हुए मुसलमानों को शांति और सुरक्षा का पाठ पढ़ाया और इस्लाम की रक्षा की।

कायदे मिल्लत जाफ़रिया पाकिस्तान के अल्लामा सैयद साजिद अली नक़वी ने हज़रत ख़ातम अल-मुर्सलीन (स) की पुण्यतिथि और पवित्र पैग़म्बर (स) के नवासे हज़रत इमाम हसन (अ) की शहादत की वर्षगांठ के अवसर पर अपने संदेश में कहा: ख़तम अल-नबीन, रहमत अल-लिल-आलमीन, सरवर अल-कैनात (स) मानवता के मार्गदर्शन का केंद्र और धुरी हैं, और पवित्र कुरान के साथ, पवित्र पैगंबर (स) की सुन्नत और सीरा के रूप में मुस्लिम उम्मा के लिए एक ऐसा खजाना है, जो उनकी मृत्यु के सदियों बाद भी मानवता की दुनिया का पूरी तरह से मार्गदर्शन कर रहा है और मानवता को जीवन जीने का तरीका और हर क्षेत्र में प्रगति का मार्ग सिखा रहा है।

उन्होंने आगे कहा: यदि विशेष रूप से मुस्लिम उम्मत और सामान्य रूप से मानवता की दुनिया पैगंबर मुहम्मद (स) की सुन्नत और सीरत का पालन करे, तो धरती से सभी समस्याओं का उन्मूलन हो सकता है।

अल्लामा सैयद साजिद नक़वी ने कहा: पैगंबर मुहम्मद के निधन के बाद, पवित्र अहले बैत (अ) ने उम्मत के उद्धार के लिए उसके सभी मामलों में मार्गदर्शन किया। अहले बैत (अ) ने अपने कार्यों और चरित्र के माध्यम से मानवता की दुनिया की व्यक्तिगत और सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया।

उन्होंने कहा: पैगंबर मुहम्मद के पोते, इमाम हसन मुज्तबा (अ), अपने दादा, अल्लाह के रसूल, अमाीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ) और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (अ) के पिता की तरह, उच्च नैतिकता और गुणों का एक संयोजन थे। उनमें उदारता सहित उच्च नैतिक गुण थे, जिसके कारण उन्हें महान अहलुल बैत की उपाधि दी गई, लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति, दयालुता, धैर्य और सहनशीलता, क्षमा और क्षमाशीलता, जिसे उनके शत्रु भी स्वीकार करते थे, इन सभी गुणों का एक आदर्श उदाहरण थे।

जाफ़रिया क़ौम के नेता ने कहा: पवित्र पैगंबर (स) के जीवन को व्यवहार में देखने और पैगंबर (स) की सुन्नत की व्याख्या और व्याख्या करने के लिए, इमाम हसन (स) के जीवन का अध्ययन और अवलोकन करना आवश्यक है क्योंकि पवित्र पैगंबर (स), हज़रत अली (अ) और सैयदा फ़ातिमा ज़हरा (स) ने हज़रत इमाम हसन (अ) को इस तरह प्रशिक्षित किया कि हज़रत इमाम हसन (अ) हर स्तर, हर क्षेत्र, हर मोड़ और हर राह पर एक पैगंबर की तरह दिखाई दिए।

उन्होंने कहा: अल्लाह के रसूल (स) ने अपनी हदीसों में हज़रत इमाम हसन (अ) की गरिमा, स्थिति और पद का उल्लेख किया था। इमाम (अ) ने अपने दादा अमजद के जीवन का अनुसरण करते हुए शांति का मार्ग अपनाकर यह सिद्ध कर दिया कि पैगंबर (स) के अहल-उल-बैत इस्लाम धर्म की रक्षा का कर्तव्य निभाना जानते हैं।

अल्लामा साजिद नक़वी ने कहा: वर्तमान रोमांचक युग और गंभीर परिस्थितियों में, हमें अपने आपसी मतभेदों को दूर करके सैकड़ों समानताओं को ध्यान में रखना चाहिए, पैगंबर मुहम्मद (स) और उनके परिवार के उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए और शांति, प्रेम, सहिष्णुता, सहनशीलता और धैर्य का मार्ग अपनाना चाहिए। हमें ज्ञान और धैर्य, बुद्धि और जागरूकता, विवेक और सहिष्णुता, भाईचारे और एकता के मार्ग पर चलकर सर्वशक्तिमान ईश्वर और अंतिम नबियों की प्रसन्नता प्राप्त करनी चाहिए। केवल इसी स्थिति में सांसारिक और परलोक मुक्ति संभव है।

इस्लामिक रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर साइंसेज एंड कल्चर के एक सदस्य ने कहा: जिसे आज युद्धों में मानवीय अधिकार कहा जाता है, उसका न केवल 1400 वर्ष पूर्व, पैग़म्बर (स) के जीवन में वर्णन किया गया था, बल्कि उसे लागू भी किया गया था और उसके क्रियान्वयन की गारंटी भी थी।

ईरान के पवित्र शहर क़ुम स्थित इस्लामिक रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर साइंसेज एंड कल्चर में आयोजित "द पैगम्बर ऑफ़ मर्सी" सत्र श्रृंखला में अपने भाषण के दौरान, हौज़ा और विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों की उपस्थिति में "पैगम्बर के जीवन में मानवीय अधिकार" विषय पर, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हमीद रज़ा मुताहरी ने कहा: आज जिस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, वह है पवित्र पैग़म्बर (स) के जीवन में मानवीय अधिकार, क्योंकि दया के पैगंबर के रूप में, वह न केवल अपने अनुयायियों के लिए, बल्कि पूरी मानवता के लिए करुणा और दया के प्रतीक थे, और उनके आदेश और जीवन इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं।

उन्होंने आगे कहा: जिस समाज में पवित्र पैग़म्बर (स) को भेजा गया था, वह हिंसा, आदिवासी पूर्वाग्रहों और अज्ञानता से भरा था; एक ऐसा वातावरण जिसमें हिंसा मुख्य विशेषता थी। ऐसी परिस्थितियों में, दया के दूत इस समाज को अज्ञानता के अंधकार से विवेक के प्रकाश की ओर, उत्पीड़न और हिंसा से करुणा की ओर, और भेदभाव से न्याय की ओर ले जाने के लिए अवतरित हुए और इस अज्ञानी और हिंसक समाज को अन्य राष्ट्रों और सभ्यताओं के लिए एक आदर्श बनाने में सफल रहे।

हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लिमीन मुताहरी ने मानवाधिकारों और मानवीय अधिकारों के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए कहा: मानवाधिकार सामान्यतः सभी परिस्थितियों में मनुष्यों के अधिकारों की चर्चा करते हैं, लेकिन मानवीय अधिकार उन मनुष्यों के अधिकारों पर केंद्रित होते हैं जो युद्ध की स्थितियों में शामिल नहीं हैं। अर्थात्, युद्ध में गैर-सैन्य व्यक्तियों को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए। आज, यह मुद्दा विभिन्न सम्मेलनों और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों में संहिताबद्ध है, लेकिन दुर्भाग्य से, गारंटी के अभाव में, इनका अक्सर उल्लंघन होता है।

उन्होंने इन कानूनों की तुलना पैगंबर मुहम्मद (स) की जीवनी से की और कहा: जब हम आज के कानूनों की तुलना पैग़म्बर मुहम्मद (स) की जीवनी से करते हैं, तो हम देखते हैं कि मानवीय कानून के सिद्धांत न केवल पैगंबर मुहम्मद (स) द्वारा 1400 साल पहले बताए और संहिताबद्ध किए गए थे, बल्कि उन्हें व्यवहार में भी लागू किया गया था और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनकी गारंटी भी थी। पैगम्बर मुहम्मद (स) ने कभी किसी को इन सिद्धांतों से विचलित होने या निहत्थे लोगों के अधिकारों का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं दी।

उन्होंने कहा: पैगम्बर मुहम्मद (स) ने अपने पवित्र जीवन में बार-बार आदेश दिया कि महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों, बीमारों की हत्या न की जाए, यहाँ तक कि पेड़ों और खेतों को भी नुकसान न पहुँचाया जाए। यह सब इस बात का संकेत है कि वह न केवल विजय की तलाश में थे, बल्कि सबसे कठिन परिस्थितियों में, यानी युद्ध के मैदान में भी, मानवीय नैतिकता की स्थापना करना चाहते थे।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुसलिमीन मुतहरी ने कहा: अगर पश्चिम और आज के अंतर्राष्ट्रीय संगठन सचमुच मानवीय अधिकार चाहते हैं, तो उन्हें पैगम्बर मुहम्मद (स) के जीवन को एक संपूर्ण आदर्श मानना ​​चाहिए। एक ऐसा आदर्श जो मौजूदा क़ानूनों जैसी गारंटियों से रहित न हो, बल्कि जिसमें न्याय, नैतिकता और आध्यात्मिकता, सभी एक साथ मौजूद हों।

इज़राईल सेना ने गाज़ा युद्ध के विरोध में विरोध और युद्धविराम की अपील पर हस्ताक्षर करने के कारण कई अधिकारियों को निलंबित कर दिया।

इजरायली सेना ने अपने 15 अधिकारियों को तब बर्खास्त कर दिया जब उन्होंने एक याचिका पर हस्ताक्षर किए जिसमें गाज़ा पर युद्ध समाप्त करने और कैदियों की रिहाई की मांग की गई ।

हिब्रू अखबार येदियोत अहरोनोत ने रिपोर्ट दी है कि जायोनी सेना ने यह बर्खास्तगी तब की जब संबंधित अधिकारियों ने अपने हस्ताक्षर वापस लेने से इनकार कर दिया।

अखबार ने आगे लिखा कि इजरायली सेना ने इन अधिकारियों पर दबाव डाला कि वे याचिका से पीछे हट जाएं, लेकिन इनकार करने के बाद उन्हें तुरंत सैन्य सेवा से बर्खास्त कर दिया गया।

येदियोत अहरोनोत के अनुसार, इनमें से कुछ अधिकारियों को ईरान पर संभावित हमले में भाग लेना था, लेकिन बर्खास्तगी के कारण उन्हें रिजर्व फोर्स में भी शामिल नहीं किया गया।

बर्खास्त किए गए अधिकारियों ने इजरायली सुप्रीम कोर्ट में शिकायत दर्ज कराई है और मांग की है कि उन्हें फिर से सैन्य सेवा में बहाल किया जाए।

भारत में वली ए फकीह के प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अब्दुल मजीद हकीम ईलाही ने एक बयान में उम्माते मुस्लिमा से एकता, एकजुटता और आपसी सम्मान को बढ़ावा देने की अपील करते हुए कहा कि आंतरिक मतभेद न केवल राष्ट्र की प्रतिष्ठा और गौरव को कमजोर करता हैं बल्कि दुश्मनों को हस्तक्षेप का मौका भी प्रदान करता हैं।

भारत में वली ए फकीह के प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अब्दुल मजीद हकीम ईलाही ने एक बयान में उम्माते मुस्लिमा से एकता, एकजुटता और आपसी सम्मान को बढ़ावा देने की अपील करते हुए कहा कि आंतरिक मतभेद न केवल राष्ट्र की प्रतिष्ठा और गौरव को कमजोर करता हैं बल्कि दुश्मनों को हस्तक्षेप का मौका भी प्रदान करता हैं।

उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और महान देश में मुसलमानों को इस्लामी एकता और अंतरधार्मिक सहयोग को बढ़ावा देना चाहिए ताकि न केवल इस्लामी राष्ट्र बल्कि पूरा देश विकास और समृद्धि के मार्ग पर आगे बढ़ सके।

पूरा बयान इस प्रकार है:

بِسْمِ اللهِ الرَّحْمنِ الرَّحِيْمِ

وَاعْتَصِمُوا بِحَبْلِ اللَّهِ جَمِيعًا وَلَا تَفَرَّقُوا
(आले इमरान 103) और सभीमिलकर अल्लाह की रस्सी (कुरआन) को मजबूती से थाम लो और तुम में फूट न पड़ने दो)

आज मुस्लिम उम्मा, विशेष रूप से दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में और खासकर महान, विविध और बहुसांस्कृतिक देश भारत में, पहले से कहीं अधिक एकता, एकजुटता और सामंजस्य की आवश्यकता है।

आंतरिक मतभेद और धार्मिक विभाजन न केवल उम्मा की प्रतिष्ठा और गौरव को नुकसान पहुंचाते हैं बल्कि इस्लाम के दुश्मनों को हस्तक्षेप और प्रभुत्व प्राप्त करने का अवसर भी प्रदान करता हैं।

कुरआन करीम ने बहुत स्पष्ट रूप से आदेश दिया है और सभी मिलकर अल्लाह की रस्सी को मजबूती से थाम लो और तुम में फूट न पड़ने दो।

इन प्रकाशमय शिक्षाओं के प्रकाश में सभी मुसलमानों का कर्तव्य है कि वे केवल धार्मिक सिद्धांतों और समानताओं में ही नहीं बल्कि एक-दूसरे की पवित्र वस्तुओं का सम्मान करने में भी एकजुटता अपनाएं, और ऐसे हर कथन और कार्य से परहेज करें जो विभिन्न मतों और संप्रदायों के अनुयायियों की भावनाओं को आहत करे। आपसी विश्वासों और धार्मिक परंपराओं के सम्मान पर आधारित दृष्टिकोण ही वास्तविक विश्वास और स्थायी एकता की नींव है।

इस्लाम ने हमें अन्य धर्मों के अनुयायियों के साथ भी सकारात्मक संवाद और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का आह्वान किया है। कुरआन मजीद की आयत है:

"لَا يَنْهَاكُمُ اللَّهُ عَنِ الَّذِينَ لَمْ يُقَاتِلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَلَمْ يُخْرِجُوكُمْ مِنْ دِيَارِكُمْ أَنْ تَبَرُّوهُمْ وَتُقْسِطُوا إِلَيْهِمْ"

इस आधार पर मुसलमानों का दायित्व है कि वे विकास, सुधार और शांति के क्षेत्र में अपने गैर-मुस्लिम भाइयों और बहनों के साथ सहयोग करें ताकि ऐसा समाज बने जिसमें सभी निवासी शांति, सुरक्षा और आपसी सम्मान के साथ जीवन व्यतीत कर सकें।

भारतीय मुसलमान, जो ज्ञान, सभ्यता और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के शानदार इतिहास के धनी हैं, हमेशा से इस धरती की पहचान और सभ्यता के निर्माण में मूलभूत भूमिका निभाते रहे हैं। आज भी वह इस्लामी एकता और अंतरधार्मिक सहयोग को मजबूत करके देश के विकास और समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

मैं, भारत में वली ए फकीह के प्रतिनिधि के रूप में, सभी विद्वानों, बुद्धिजीवियों, वक्ताओं, शिक्षकों, शोधकर्ताओं, हौज़ा और विश्वविद्यालय के छात्रों, और विशेष रूप से राष्ट्र के युवाओं को आमंत्रित करता हूं कि वे संवाद और सहयोग, एकजुटता और विश्वास, और मुस्लिम राष्ट्र की गरिमा और भारत देश के विकास के लिए कंधे से कंधा मिलाकर चलें।

आशा है कि कुरआन करीम की शिक्षाओं और पैगंबर-ए-मकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम के पवित्र जीवन चरित्र के सहारे, मुस्लिम उम्मा पूरी दुनिया में एकता, सम्मान और साझा विकास के मार्ग पर मजबूती से आगे बढ़ेगी।

अब्दुल मजीद हकीम इलाही प्रतिनिधि,वली-ए-फकीह, भारत

गुरुवार, 21 अगस्त 2025 10:31

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का जन्म रमज़ान मास की पन्द्रहवी (15) तारीख को सन् तीन (3) हिजरी में मदीना नामक शहर में हुआ था। जलालुद्दीन नामक इतिहासकार अपनी किताब तारीख़ुल खुलफ़ा में लिखता है कि आपकी मुखाकृति हज़रत पैगम्बर से बहुत अधिक मिलती थी।

पालन पोषण

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का पालन पोषन आपके माता पिता व आपके नाना हज़रत पैगम्बर (स0) की देख रेख में हुआ। तथा इन तीनो महान् व्यक्तियों ने मिल कर हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम में मानवता के समस्त गुणों को विकसित किया।

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की इमामत का समय

शिया सम्प्रदाय की विचारधारा के अनुसार इमाम जन्म से ही इमाम होता है। परन्तु वह अपने से पहले वाले इमाम के स्वर्गवास के बाद ही इमामत के पद को ग्रहन करता है। अतः हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने भी अपने पिता हज़रत इमाम अली की शहादत के बाद इमामत पद को सँभाला।

जब आपने इमामत के पवित्र पद को ग्रहन किया तो चारो और अराजकता फैली हुई थी। व इसका कारण आपके पिता की आकस्मिक शहादत थी। अतः माविया ने जो कि शाम नामक प्रान्त का गवर्नर था इस स्थिति से लाभ उठाकर विद्रोह कर दिया।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम के सहयोगियों ने आप के साथ विश्वासघात किया उन्होने धन ,दौलत ,पद व सुविधाओं के लालच में माविया से साँठ गाँठ करली। इस स्थिति में इमाम हसन अलैहिस्सलाम के सम्मुखदो मार्ग थे एक तो यह कि शत्रु के साथ युद्ध करते हुए अपनी सेना के साथ शहीद होजाये। या दूसरे यह कि वह अपने सच्चे मित्रों व सेना को क़त्ल होने से बचालें व शत्रु से संधि करले । इस अवस्था में इमाम ने अपनी स्थित का सही अंकन किया सरदारों के विश्वासघात व सेन्य शक्ति के अभाव में माविया से संधि करना ही उचित समझा।

संधि की शर्तें

1-माविया को इस शर्त पर सत्ता हस्तान्त्रित की जाती है कि वह अल्लाह की किताब (कुरऑन) पैगम्बर व उनके नेक उत्तराधिकारियों की शैली के अनुसार कार्य करेगा।

2-माविया के बाद सत्ता इमाम हसन अलैहिस्सलाम की ओर हस्तान्त्रित होगी व इमाम हसन अलैहिस्सलाम के न होने की अवस्था में सत्ता इमाम हुसैन को सौंपी जायेगी। माविया को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने बाद किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करे।

3-नमाज़े जुमा में इमाम अली पर होने वाला सब (अप शब्द कहना) समाप्त किया जाये। तथा हज़रत अली को अच्छाई के साथ याद किया जाये।

4-कूफ़े के धन कोष में मौजूद धन राशी पर माविया का कोई अधिकार न होगा। तथा वह प्रति वर्ष बीस लाख दिरहम इमाम हसन अलैहिस्सलाम को भेजेगा। व शासकीय अता (धन प्रदानता) में बनी हाशिम को बनी उमैया पर वरीयता देगा। जमल व सिफ़्फ़ीन के युद्धो में भाग लेने वाले हज़रत इमाम अली के सैनिको के बच्चों के मध्य दस लाख दिरहमों का विभाजन किया जाये तथा यह धन रीशी इरान के दाराबगर्द नामक प्रदेश की आय से जुटाई जाये।

5-अल्लाह की पृथ्वी पर मानवता को सुरक्षा प्रदान की जाये चाहे वह शाम में रहते हों या यमन मे हिजाज़ में रहते हों या इराक़ में काले हों या गोरे। माविया को चाहिए कि वह किसी भी व्यक्ति को उस के भूत काल के व्यवहार के कारण सज़ा न दे।इराक़ वासियों से शत्रुता पूर्ण व्यवहार न करे। हज़रत अली के समस्त सहयोगियों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की जाये। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ,इमाम हुसैन व पैगम्बर के परिवार के किसी भी सदस्य की प्रकट या परोक्ष रूप से बुराई न कीजाये।

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के संधि प्रस्ताव ने माविया के चेहरे पर पड़ी नक़ाब को उलट दिया तथा लोगों को उसके असली चेहरे से परिचित कराया कि माविया का वास्तविक चरित्र क्या है।

इमाम हसन (अ) के दान देने और क्षमा करने की कहानी।

एक दिन इमाम हसन (अ) घोड़े पर सवार कहीं जा रहे थे कि शाम अर्थात मौजूदा सीरिया का रहने वाला एक इंसान रास्ते में मिला। उस आदमी ने इमाम हसन को बुरा भला कहा और गाली देना शुरू कर दिया। इमाम हसन (अ) चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे ,जब वह अपना ग़ुस्सा उतार चुका तो इमाम हसन (अ) ने उसे मुसकुरा कर सलाम किया और कहने लगेः

ऐ शेख़ ,मेरे विचार में तुम यहां अपरिचित हो और तुमको धोखा हो रहा है ,अगर भूखे हो तो तुम्हें खाना खिलाऊं ,अगर कपड़े चाहिये तो कपड़े पहना दूं ,अगर ग़रीब हो तो तुम्हरी ज़रूरत पूरी कर दूं ,अगर घर से निकाले हुये हो तो तुमको पनाह दे दूं और अगर कोई और ज़रूरत हो तो उसे पूरा करूं। अगर तुम मेरे घर आओ और जाने तक मेरे घर में ही रहो तो तुम्हारे लिये अच्छा होगा क्योंकि मेरे पास एक बड़ा घर है तथा मेहमानदारी का सामान भी मौजूद है।

सीरिया के उस नागरिक ने जब यह व्यवहार देखा तो पछताने और रोने लगा और इमाम को संबोधित करके कहने लगाः मैं गवाही देता हूं कि आप ज़मीन पर अल्लाह के प्रतिनिधि हैं तथा अल्लाह अच्छी तरह जानता है कि अपना प्रतिनिधित्व किसे प्रदान करे। आप से मिलने से पहले आपके पिता और आप मेरी निगाह में लोगों के सबसे बड़े दुश्मन थे और अब मेरे लिये सबसे से अच्छे हैं।

यह आदमी मदीने में इमाम हसन का मेहमान बना और पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. एवं उनके अहलेबैत का श्रद्धालु बन गया। इमाम हसन (अ) की सहनशीलता व सब्र इतना मशहूर था कि “हिल्मुल- हसन ” अर्थात हसन की सहनशीलता सब की ज़बानों पर रहता था।

इबादत

पैग़म्बरे इस्लाम के नाती और हज़रत अली के बेटे इमाम हसन भी अपने नाना और पिता की तरह अल्लाह की इबादत के प्रति बहुत ज़्यादा पाबंद एवं सावधान थे। अल्लाह की महानता का इतना आभास करते थे कि नमाज़ के समय चेहरा पीला पड़ जाता और जिस्म कांपने लगता था ,हर समय उनकी ज़बान पर अल्लाह का ज़िक्र व गुणगान ही रहता था।

इमाम हसन गरीबो के साथ

इतिहास में आया है कि किसी भी ग़रीब व फ़क़ीर को उन्होने अपने पास से बिना उसकी समस्या का समाधान किये जाने नहीं दिया। किसी ने सवाल किया कि आप किसी मांगने वाले को कभी ख़ाली हाथ क्यों नहीं लौटाते। तो उन्होने जवाब दिया “ मैं ख़ुद अल्लाह के दरवाज़े का भिखारी हूं ,और उससे आस लगाये रहता हूं ,इसलिये मुझे शर्म आती है कि ख़ुद मांगने वाला होते हुये दूसरे मांगने वाले को ख़ाली हाथ भेज दूं। अल्लाह ने मेरी आदत डाली है कि लोगों पर ध्यान दूं और अल्लाह की अनुकंपायें उन्हें प्रदान करूं।

हज़रत इमामे हसन (अ.स.) के कथन

१. जो शख़्स (मनुष्य) हराम ज़राये से दौलत (धन) जमा करता है ख़ुदावन्दे आलम उसे फ़क़ीरी और बेकसी में मुबतला करता है।

२. दो चीज़ो से बेहतर कोई शैय (चीज़) नहीं एक अल्लाह पर ईमान और दूसरे ख़िदमते ख़ल्क (परोपकार)।

३. ख़ामोश सदक़ा (गुप्त दान) ख़ुदावन्दे आलम के ग़ज़ब (प्रकोप) को ख़त्म कर देता है।

४. हमेशा नेक लोगों की सोहबत (संगत) इख़्तेयार (ग्रहण) करो ताकि अगर कोई कारे नेक (अच्छा कार्य) करो तो तुम्हारी सताएश (प्रशंसा) करें और अगर कोई ग़लती हो जाये तो मुतावज्जेह (ध्यान दियालें) करें।

५. जिसने ग़लत तरीक़े से माल जमा किया वह माल ग़लत जगहों पर और नागहानि-ए-हवादिस (अचानक घटित होने) में सर्फ़ होता है।

६. हर शख़्स की क़ीमत उसके इल्म के बराबर है।

७. तक़वा (सँयम ,ईश्वर से भय) से बेहतर लिबास ,क़नाअत (आत्मसंतोष) से बेहतर माल ,मेहरबानी व रहम से बेहतर एहसान मुझे न मिला।

८. बुरी आदतें जाहिलों की मुआशेरत (कुसंग) में और नेक ख़साएल (अच्छी आदतें) अक़्लमन्दों (बुध्दिमानों) की सोहबत (संगत) से मिलते हैं।

९. अपने दिल को वाएज़ व नसीहत (अच्छे उपदेश) से ज़िन्दा रखो।

१०. गुनाहगारों (पापियों) को नाउम्मीद (निराश) मत करो (क्योंकि) कितने गुनाहगार ऐसे गुज़रे जिनकी आक़ेबत ब-ख़ैर हुई।

११. सबसे बेचारा वह शख़्स है जो अपने लिये दोस्त (मित्र) न बना पाये।

१२. जो शख़्स दुनिया की बेऐतबारी को जानते हुए उस पर ग़ुरूर (घमण्ड) करे बड़ा नादान है।

१३. ख़ुश अख़लाक़ (सुशील) बनो ताकि क़यामत (महाप्रलय) के दिन तुम पर नर्मी की जाए।

१४. गुनाहों (पापों) से बचो क्योंकि गुनाह इन्सान को नेकियों से महरूम कर देता है।

१५. हमेशा नेक बात कहो ताकि नेकि से याद किये जाओ।

१६. अल्लाह की ख़ुशनूदी माँ बाप की ख़ुशनूदी के साथ है और अल्लाह का ग़ज़ब उनके ग़ज़ब के साथ है।

१७. अल्लाह की किताब पढ़ा करो और अल्लाह की नाराज़गी और ग़ज़ब से ख़बरदार रहो।

१८. बुख़्ल (कंजूसी) और ईमान एक साथ किसी के दिल में जमा नहीं हो सकता।

१९. किसी इन्सान को दूसरे पर तरजीह (प्राथमिकता) नहीं दी जा सकती मगर दीन या किसी नेक काम की वजह से।

२०. मैने किसी सितमगर को सितम रसीदा के मानिन्द नहीं देखा मगर हासिद (ईर्ष्यालु) को।

२१. अपने इल्म (ज्ञान) को दूसरों तक पहुँचाओ और दूसरों के इल्म (ज्ञान) को ख़ुद हासिल करो।

२२. अपने भाईयें से फ़ी सबीलिल्लाह (केवल ईशवर के लिए) भाई चारा रखो।

२३. नेकियों और अच्छाइयों का अन्जाम उसके आग़ाज़ (प्रारम्भ) से बेहतर है।

२४. अच्छाई से लज़्ज़त बख़्श कोई और मसर्रत नहीं।

२५. अक़्लमन्द (बुध्दिमान) वह है जो लोगों से ख़ुश अख़लाक़ी (सुशीलता) से पेश आती हो।

२६. जिसका हाफ़ेज़ा (याद्दाश्त) क़वी (ताक़तवर) न हो और अपना दर्स (पाठ) पूरे तौर से याद न कर पाता हो उसे चाहिये के वह उस्ताद के बयान करदा मतालिब (मतलब का बहु) पर ग़ौर करे और अपने पास महफ़ूज़ (सुरक्षित) करे ताकि वक़्ते ज़रूरत काम आये।

२७. जितना मिले उसपर ख़ुश रहना इन्सान को पाकदामनी तक ले जाता है।

२८. नुक़सान उठाने वाला वह शख़्स है जो ओमूरे दुनिया (सांसारिक कार्य) में इस तरह मश्ग़ूल रहे के आख़ेरत (आख़रत) के ओमूर रह जायें।

२९. धोका और मक्र (छल) ख़ासतौर से उस शख़्स के साथ जिसने तुमको अमीन (सच्चा) समझा कुफ़्र है।

३०. गुनाह क़ुबूलियते दुआ में मानेअ और बदख़ुल्क़ी शर व फ़साद का बायस (कारण) है।

३१. तेज़ चलने से मोमिन का वेक़ार (आत्मसम्मान) कम होता है और बाज़ार में चलते हुए खाना पस्ती (नीचता) की अलामत है।

३२. जब कोई तुम्हारा ख़ैर अन्देश (शुभचिन्तक) अक़्लमन्द तुमको कुछ बताये तो उसे क़ुबूल करो और उसकी ख़िलाफ़ वर्ज़ी (विरोध) से बचो क्योंकि उसमें हलाक़त है।

३३. नादानों की बातों की बेहतरीन जवाब ख़ामोशी है।

३४. हासिद (ईर्ष्यालु) को लज़्ज़त ,बख़ील (कंजूस) को आराम और फ़ासिक़ (ईशवरीय आदेशों का मन से विरोध) को एहतेराम (आदर) तमाम लोगों से कम मिलता है।

३५. बेहतरीन किरदार गुर्सना (भूखे) को खाना खिलाना और बेहतरीन काम जाएज़ काम में मशग़ूल (लिप्त) रहना।

३६. जब तुम बुरे काम से परेशान हो और नेक कामों से ख़ुशहाल तो समझ लो के तुम मोमिन हो।

३७. बेहतर यह है के तुम अपने दुश्मन पर ग़लबा (विजय) हासिल (प्राप्त) करने से पहले अपने नफ़्स पर क़ाबू पा लो।

३८. बख़ील (कंजूस) इन्सान अपने अज़ीज़ों (रिश्तेदारों) में ख़ार रहता है।

३९. गुनाहों (पापों) से बचो क्योंकि गुनाह (पाप) इन्सान के हस्नात (अच्छाइयों) को भी तबाह (बर्बाद) कर देता है।

४०. जिसके पास अज़्म (द्रढ़ता) व इरादा है वह दूसरों लोगों के मुक़ाबले में अपने ऊपर मुसल्लत (हावी) है।

माविया से सुलह के बाद जबकि इमाम हसन (अ.स.) ने हुकुमत को छोड़ दिया था लेकिन फिर भी माविया का आपके वूजुदे मुबारक को बरदाश्त करना बहुत सख्त था और वैसे भी सिर्फ इमाम हसन (अ.स) ही वो शख्सियत थे कि जो माविया को अपनी मनमानी करने और यज़ीद को अपना जानशीन बनाने और खिलाफत को विरासती करने मे सबसे बड़े मुखालिफ थे और उस दौर मे सिर्फ इमाम हसन (अ.स.) ही वो सलाहियत रखते थे कि जो उम्मत की रहबरी और हिदायत के लिऐ जरूरी थी ।

और सुलह के बाद से ही हमेशा उसकी कोशीश रही कि किसी भी तरह से इमाम हसन (अ.स.) को जल्दी से जल्दी मौत के दामन मे पहुंचा दे लिहाजा पोशीदा तौर पर उसने इस काम के लिऐ मदीने की मस्जिद मे भी कई दफा इमाम हसन (अ.स.) पर हमले कराऐ लेकिन जब इन हमलो का कोई नतीजा नही निकला तो माविया ने इमाम हसन (अ.स) की ज़ौजा जोदा बिन्ते अशअस के ज़रीए आपको ज़हर दिलाकर शहीद करा दिया।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 50 हिजरी मे सफ़र मास की 28 तरीख को हुई।

समाधि

जब इमाम हसन (अ.स.) की शहादत का वक्त करीब आया तो आपने अपने भाई इमाम हुसैन (अ.स.) को अपने करीब बुलाया और उन हज़रत से इरशाद फरमायाः ये तीसरी मरतबा है कि मुझे ज़हर दिया गया है लेकिन इस से पहले जहर असर नही कर पाया था औऱ क्यों कि इस बार असर कर गया है तो मै मर जाऊंगा और जब मै मर जाऊं तो मुझे मेरे नाना रसूले खुदा (स.अ.व.व) के पहलु मे दफ्न कर देना क्योंकि कोई भी मुझसे ज्यादा वहाँ दफ्न होने का हक़दार नही है लेकिन अगर मेरे उस जगह दफ्न होने की मुखालिफत हो तो इस हाल मे ख़ून का एक क़तरा भी न बहने देना।

और जब इमाम शहीद हो गऐ और उनके जिस्मे अतहर को रसूले खुदा (स.अ.व.व) के रोज़ाऐ मुबारक मे दफ्न करने के लिऐ ले जाया जाने लगा तो मरवान बिन हकम और सईद बिन आस आपके वहा दफ्न होने की मुखालिफत करने लगे और उनके साथ-साथ आयशा भी मुखालिफत करने लगी और कहने लगी कि मै हसन के यही दफ्न होने की बिल्कुल इजाज़त नही दूंगी क्यो कि ये मेरा घर है।

इस पर आयशा के भतीजे कासिम बिन मौहम्मद बिन अबुबकर ने कहा कि क्या दोबारा जमल जैसा फितना खड़ा करना चाहती हो ?

जिस वक्त इमाम के वहा दफ्न की मुखालिफत की जा रही थी तो वो लोग कि जो इमाम की मैय्यत मे शिरकत के लिऐ आऐ हुऐ थे चाहते थे कि मरवानीयो के साथ जंग करे और इस काम के लिऐ इमाम हुसैन (अ.स.) से इजाज़त मांगने लगे लेकिन इमाम हुसैन (अ.स.) ने इमाम हसन की वसीयत को याद दिलाया और इमाम हसन (अ.स.) को जन्नतुल बकी मे दफ्न कर दिया।

 ।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिं